कुंडलिनीयोग पर्यावरण संरक्षण के लिए विशेष महत्त्व रखता है

जब अर्जुन पाशुपत अस्त्र के लिए भगवान शिव की तपस्या कर रहे थे, तब दुर्योधन का भेजा मूक दैत्य एक सुअर का रूप धारण कर वहां आया। वह पर्वतों के शिखरों को तोड़ता हुआ, अनेक वृक्षों को उखाड़ता हुआ तथा विविध प्रकार के अर्थहीन शब्द करता हुआ उसी मार्ग से जा रहा था, जहां अर्जुन था। उसको देखकर अर्जुन शिव का स्मरण करने लगा। शिव उसे मारने के लिए भीलराज बनके आए। अर्जुन और शिव के बीच वह शूकर अद्भुत शिखर की तरह लग रहा था। दोनों ने एकसाथ बाण चलाया। शिवजी का बाण पूंछ में घुसकर मुख से निकलकर शीघ्र ही पृथ्वी में विलीन हो गया। अर्जुन का बाण (शायद मुख में प्रविष्ट होकर) पूंछ से निकलकर भूमि पर पार्श्वभाग में गिर गया। शूकर उसी समय मर कर गिर गया।

उपरोक्त मिथक कथा का स्पष्टीकरण

दुर्योधन मतलब अहंकार अर्जुनरूपी कर्मयोगी जीवात्मा से इतना काम करवाता है कि उसकी इड़ा और पिंगला नाड़ियां क्रियाशील हो जाती हैं, मतलब अर्जुन का शरीर ही शूकररूप हो जाता है। मूलाधार ही उसकी पूंछ है। इड़ा और पिंगला उसके किनारे वाले दो नुकीले दांत हैं। द्वैत के जंगल में भटकते मन के विविध विचार उसका मुखभाग है। केवल भटकता हुआ मन ही पर्वतों को तोड़ सकता है, शरीर नहीं। मूक गूंगे को कहते हैं। क्योंकि भटकता मन आदमी को कभी नहीं कहता कि वह उसका दुश्मन है और उससे लड़ने आया है, पर धोखे से हमला करता रहता है, इसीलिए उसे मूक दैत्य कहते हैं। जैसे जीवात्मा और परमात्मा के बीच में मन एक पहाड़ की तरह भासता है, वैसे ही वह शूकर भास रहा था। इड़ा और पिंगला नाड़ियों के बारीबारी से क्रियाशील होने से आदमी इतना क्रियाशील हो जाता है कि जैसे वह पहाड़ तोड़ने को तैयार होए। इड़ा के क्रियाशील होने पर वह दुनिया के काम पागलपन जैसे से भरकर ताबड़तोड़ ढंग से करता है, और पिंगला के चालू होने से वह सुस्ता के सो जाता है। नींद से जागकर तरोताजा होकर फिर से लूट खसूट जैसे पापकर्म करने दौड़ पड़ता है। वह इसी अंधेरे और प्रकाश के द्वैत के बीच झूलता रहता है, और उनके बीच वाली सुषुम्ना नाड़ी की साम्य या अद्वैत अवस्था को नहीं देख पाता। भारतीय जंगली सूअर का रंग भी काले और भूरे रंग का मिश्रण है, जो द्वैत को दर्शाता है। पशु की तरह मूर्खता से भरकर  घटिया और पर्यावरणघाती काम करता रहता है। आजकल का आदमी ऐसा ही तो है। क्रियाशीलता पर ब्रेक ही नहीं है। अंधे की तरह हर कहीं सिर मार रहा है। जमीन को खोखला कर रहा है। वनों का सफाया कर रहा है। हवा, जमीन और जल को प्रदूषित करके उसमें आनंद और मस्ती के साथ लोट रहा है। ये सब सुअर के ही लक्षण तो हैं। शिव ने पूंछ से मतलब मूलाधार से तीर घुसाया, मतलब सुषुम्नारूपी शक्तिरेखा को क्रियाशील किया। दरअसल शिवलिंग के ध्यान व पूजन से ऐसा ही होता है। वह तीर उसके मुख से मतलब सहस्रार चक्र से निकलकर पृथ्वी में मतलब फ्रंट चैनल से शरीर में विलीन हो गया।
अर्जुन शिवलिंग का ध्यानपूजन तो वैसे भी कर ही रहा था। उससे स्वाभाविक है कि उसकी सुषुम्ना क्रियाशील हो गई। यह ब्रह्मशिर तीर ब्रह्मरंध्र से बाहर निकलता है। सूअर का पूरा शरीर ही मुखरूप है। ऐसा भी समझ सकते हैं कि वह तीर फिर आज्ञा चक्र में विलीन हो गया। वहां से वह मुख तक पहुंचता ही है, तालु के स्राव के माध्यम से। वहां वह स्राव भूमि मतलब उदर में चला जाता है, और वहां भोजन को पचाने में शक्तिरूप में व्यय या विलीन हो जाता है। जैसे भूमि में अन्न बनता है, वैसे ही उदर में भी बनता है, बेशक हल्के और टूटे हुए सूक्ष्म टुकड़ों के रूप में।
अर्जुन ने तालु से जीभ को छुआ कर मस्तिष्क की शक्ति को फ्रंट चैनल से नीचे उतारा। इससे वह ऊपर चढ़ी हुई शक्ति वापिस मूलाधार तक चली गई। मस्तिष्क के अंदर जो अर्जुन के द्वारा अपनी इच्छा से ध्यान लगाया जाता है, वह अर्जुन का छोड़ा हुआ तीर है। वह ऊपर से नीचे की ओर आता है फ्रंट चैनल से। मान लो कि वह शक्तिबाण मूलाधार तक पंहुचा और बाहर निकलकर पार्श्वभाग में जमीन पर गिर गया। पर बाहर कैसे गिरा। एक तो यह संभावना है कि वीर्य रूप में शक्ति बाहर गिरी। पर अर्जुन उसे हासिल करने बाहर क्यों भागना था। वैसे वीर्य की शक्ति से ही बड़े बड़े काम होते हैं, बड़े बड़े उद्योग धंधे चलते हैं, और चारों ओर भौतिक समृद्धि छा जाती है। शायद अर्जुन उन्हें अपना अपना कहते हुए उन्हें बटोरने इधर उधर भागा। यह संभावना भी है कि शक्ति वीर्यरूप में वज्र शिखा तक आई, जिसे अर्जुन ने योग से वापिस ऊपर खींचना चाहा। पर पार्श्वभाग में कैसे गिरी। हो सकता कि योनि में गिरी हो, जिसे वज्रोली मुद्रा से वापिस खींचा जा रहा हो। पर इसमें शिवगणों को आपत्ति नहीं होनी चाहिए थी, क्योंकि यह व्यक्तिगत मामला है। शिवगण ने कहा कि वह शूकर शिव के तीर से मरा और वह पार्श्वभाग में गिरा हुआ शिव का तीर है। दरअसल शिवलिंगम के प्रभाव से मूलाधार की शक्ति ही सहस्रार तक जाकर फिर मुड़कर फ्रंट चेनल से नीचे आ रही थी। अर्जुन को लगा कि वह शक्ति उसने पैदा की अपने मस्तिष्क में ध्यान लगाकर, पर वास्तव में वह मूलाधार से ऊपर आ रही शक्ति के बल से ही मस्तिष्क में ध्यान कर पा रहा था, केवल अपने आत्मबल या इच्छाशक्ति से नहीं। मूलाधार चक्र की जागृति से सुषुम्ना सक्रिय हो गई थी, जिसके प्रभाव से इड़ा और पिंगला निष्क्रिय सी हो गई थीं। मतलब अज्ञानरूप सुअर मर गया था और उससे होने वाला अज्ञानजनित उत्पात भी। अर्जुन का अहम में आकर शिवलिंग का आश्रय छोड़ना या शिवलिंग को अज्ञानशूकर को मारने का श्रेय न देना ही उसका शिवावतार भीलराज़ से लड़ना है। अंत में उसे शिवलिंग का माहात्म्य समझ आना ही भीलराज के द्वारा उसे हराना है। अर्जुन के पार्श्वभाग में गिरा हुआ शक्तिबाण अन्न, घास, पुष्प आदि किसी भी रूप में हो सकता है, जिसे उसने टांगों से चलकर उगाया था। टांगों को मुख्यतः मूलाधार से ही शक्ति नीचे उतरती है। और मूलाधार को शिवलिंग से शक्ति मिली थी। इसीलिए शिवगण उन पर अपना हक जता रहे थे। अन्न, घास, पत्ते, पुष्प आदि खाने वाले पशु, पक्षी और कीट ही शिवगण हैं, जो अपने जीवन के लिए आदमी की दया पर आश्रित हैं।
अर्जुन ने कहा कि वह बाण पिच्छ रेखाओं से चित्रित है तथा उसमें उसका नाम अंकित है। बाणरूपी फ्रंट चैनल की रेखाएं हम पसलियों की लकीरों को कह सकते हैं, जो उसके शुरु में ही होती हैं। नाम खुदा हुआ हम हृदय चक्र को कह सकते हैं, क्योंकि उसीमें आदमी का पूरा मनोभाव मतलब परिचय छिपा होता है। अहंकारी आदमी लड़ाई तो करता ही है ईश्वर के साथ, अपनी संपत्ति बटोरने के लिए। परमात्मा उसे उस स्वार्थ की सजा भी देते ही रहते हैं। यही शिव और अर्जुन के बीच का युद्ध है जो मल्लयुद्ध तक पहुंच जाता है। फिर ऐसा समय आता है कि आदमी अपने स्वार्थ के लिए भगवान के मंदिर में माथा रगड़ता है। यह कहानी का वही भाग है, जिसमें अर्जुन शिव को पैरों से पकड़ता है और उसे घुमाकर पटकने की कोशिश करता है, पर उसी समय अपने पैर पकड़े जाने से प्रसन्न होकर शिव अपने असली रूप में आ जाते हैं और उसे वरदान रूप में पाशुपत अस्त्र देते हैं। यह ऐसे ही कि जब आदमी भगवान के मंदिर में किसी भी भाव से जाकर सद्बुद्धि प्राप्त करता है, और अनजाने में ही विपत्ति से बचने का वर प्राप्त कर लेता है। पाशुपत अस्त्र मतलब शिव ने उपरोक्त घटनाक्रम के माध्यम से उसे समझा दिया था कि मूलाधार ही शक्ति को अच्छे से नियंत्रित कर सकता है, सहस्रार या मस्तिष्क नहीं। इसी समझ से उसने अश्वत्थामा के द्वारा छोड़े हुए ब्रह्मास्त्र से हो रही मस्तिष्क की जलन को शांत किया था।
इस घटना को निम्न प्रकार से और ज्यादा स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। अर्जुन भीलरूपी शिव से कई वर्षों तक युद्ध करता रहा, पहले तीरों से और फिर मल्लयुद्ध से। दरअसल ऐसा युद्ध अहंकार और सत्य के बीच ही हो सकता है, क्योंकि दो व्यक्ति तो वर्षों तक लगातार नहीं लड़ सकते। अंहकार पहले अपने जीवन के सारे साजोसामान और सारी समृद्धियां परमात्मा को झुठलाने में लगा देता है। परमात्मा उन्हें बारीबारी से नष्ट करते जाते हैं ताकि वह सुधर सके। बेशक वे उन्हें उसके मन में ही नष्ट करे उनसे बोरियत के रूप में, बाहरी भौतिक रूप में नहीं। अंत में जब कुछ नहीं बचता तो आदमी अपने अंदर मौजूद उन भौतिक उपलब्धियों की यादों और वासनाओं की मदद से प्रभु से लड़ता है मतलब परमात्मा से अलग होकर अपनी पृथक सत्ता बनाए रखता है। अगर कोई घर का सदस्य घर छोड़ कर जाएगा, तो लड़कर ही जाएगा, प्रेमभाव से गले मिलकर तो नहीं। वासना पंजाबी शब्द वाशना से बना लगता है, जिसका मतलब गंध होता है। सारा मजा गंध में ही होता है। जब जुकाम आदि में गंध महसूस नहीं होती, तब खाना बिल्कुल भी स्वादिष्ट नहीं लगता। आपने देखा होगा कि कभी कोई पुरानी धुंधली याद आती है, पूरे मजे के साथ। ऐसा लगता है कि जो मजा उस असली स्थूल भौतिक घटना के समय भी नहीं आया होगा, वो उसकी बहुत धुंधली सी याद में आता है। यही उस घटना की वासना या गंध है। यह ऐसे ही होती है जैसे किसी इत्र की खुशबू। शायद यही संसार का सबसे सूक्ष्म रूप है जिसे तन्मात्रा भी कहते हैं। अगर बीती घटनाओं या बीते संसार की ऐसी गंधें आ रही हों, तो समझो योगी साधना के उच्च पद पर स्थित है और उसका सांसारिक कचरा शुद्ध होकर आत्मा में विलीन होता जा रहा है। शीघ्र ही उसे जागृति की झलक भी मिल सकती है। जब वासना रूपी अंतिम हथियार भी खत्म हो जाता है, तब वह अंधेरे जैसे में डूबने लगता है, जिसे डार्क नाइट ऑफ साउल या आत्मा की अंधेरी रात भी कहते हैं। फिर वह परमात्मा को हराने के लिए उन्हींके मंदिर जाता है, मतलब वह शिव को उठाकर फेंकने के लिए उन्हीं के पैर पकड़ता है। यह ऐसे ही है जेसे आदमी भौतिक समृद्धियों की मुराद मांगने मंदिर जाता है। फिर परमात्मा प्रसन्न होकर उसके सामने अपना असली रूप प्रकट कर देते हैं, जिससे वह उसी पल हार मान लेता है। परमात्मा के प्रकाश के सामने अहंकार का अंधेरा टिक ही नहीं सकता। शायद यही जागृति है।

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demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

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