शायद कुंडलिनी जागरण जैसी वैज्ञानिक और रोमांचकारी घटना को अजीब, सबसे हटकर, अलौकिक, धर्म या संप्रदाय से जुड़ा या आत्मा से ही जुड़ा हुआ दिखाया गया। पता नहीं क्यों आत्मा को लोग पड़ोसी के खेत में उगी मूली समझ लेते हैं। आत्मा तो अपना आप है, सेल्फ है। अंग्रेजी का सेल्फ फिर भी ज्यादा सटीक लगता है। संस्कृत का आत्मन शब्द भी ठीक है, क्योंकि यह अपने आप या सेल्फ के लिए प्रयुक्त शब्द ही है। अन्य भाषाओं में लोग बात का बतंगड़ बना सकते हैं। कुंडलिनी जागरण भौतिक सुखानुभूति का चरम की तरह ही तो है। भौतिक उपलब्धियों के शीर्ष की तरह ही तो है। जब आदमी इसे भौतिक दुनिया से अलग समझता है, तब वह दुनिया से अलगथलग सा रहने लगता है, किसी अलग ही अलौकिक आंनद या जागरण की खोज में, पर दरअसल उसे मिलता कुछ भी नहीं है। किसी जागृत व्यक्ति के बारे में लोग बड़ीबड़ी, हैरानी व पराएपन या अजनबीपन से भरी आंखें करके बोलते हैं कि वह तो भाई दुनियादारी से हटकर बाबाओं वाली विशेष दुनिया का शख्स है। शायद उससे डरते जैसे भी हैं जैसे कोई एलियन से डरता है। वैसे ऐसा है भी और नहीं भी है। यह समाज और संस्कृति पर निर्भर करता है। वैदिक समाज और संस्कृति वालों को वह अपना नायक या प्रेमास्पद लग सकता है, तो अवैदिक तत्त्वों को इसके विपरीत। इसका कारण यह है कि वैदिक संस्कृति जागृति के सबसे करीब और पक्षधर है। अवैदिक लोग तो यह समझते ही नहीं कि जिस भौतिक मौजमस्ती की वे बूंद बूंद की तरफ़ भागे फिरते हैं, मानो उसी भौतिक मस्ती का उसने पूरा घड़ा जैसा ही इकट्ठा पी लिया है। शायद कोई पारलौकिक वगैरह कुछ नहीं। यह इसलिए क्योंकि उन्होंने सुना ही ऐसा है, उन्हें जन्म से लेकर सिखाया ही ऐसा गया है। अगर दुनिया से दूर रहकर जागृति मिलती तब तो सभी बाबाओं को मिलती, पर मुझे तो एक बाबा भी नहीं दिखा आजतक। मैंने बहुत से बाबाओं के बारे में पढ़ा सुना, पर कहीं उन्हें जागृति का अनुभव होते नहीं जान पाया। बहुत से बाबाओं से बात भी की, वे तो जागृति की परिभाषा भी नहीं दे पाए। कल्पना करो कई पर्वतारोही दोस्त एवरेस्ट चढ़ रहे हों। अचानक उनमें से एक बोले कि उसने तो इससे भी बड़ी उंचाई मैदान में रहकर ही छू ली है जागृति के रूप में, पर कोई विश्वास नहीं करेगा। सब बोलेंगे जागृति एक अलग विषय है, और भौतिक उपलब्धि अलग। इससे क्या होता है कि जब आदमी बड़ी भौतिक उपलब्धि भी हासिल कर लेता है, तब भी वह जागृति को प्राप्त करने के लिए प्रेरित नहीं होता, क्योंकि उसने माना ही नहीं कि उसके सारे भौतिक प्रयास एक प्रकार के जागृति को प्राप्त करने के प्रयास ही हैं। वह भौतिक विकास के शिखर पर पहुंचकर भी जागृति से सिर्फ एक कदम दूर होता है अपनी इसी मूर्ख मानयता की वजह से। वह समुद्र में मछली की तरह प्यासा होता है। जो सही मान्यता में स्थित रहता है, उसे भौतिकता के चरम के निकट ही जागृति का अहसास होने लगता है, और तंत्र, योग आदि की सहायता से एक कदम की अंतिम छलांग लगा के उसे पा भी लेता है। जो भेदभाव की गलत मान्यता में रहता है, वह भौतिक दुनियादारी की मौजमस्ती या विकास के चरम के पास पहुंचकर अपनी यात्रा का अंत मान लेता है, और निश्चय करता है कि अब भौतिकता का विषय खतम और अब अध्यात्म का विषय शुरु से प्रारंभ करेगा। मतलब वह पांच में से चार साल की अधूरी डिग्री को संदूक में रखकर पांचवे व अंतिम वर्ष के जागृति के विषय को देखकर बोलता है कि यह तो अध्यात्म का विषय है, इससे उसे क्या मतलब। थोड़े टाइम बाद वह चार साल की डिग्री भी भूल जाता है, और टाइम गैप के कारण उसे पांचवे वर्ष में दाखिला भी नहीं मिल पाता। मजबूरन वह अध्यात्म का विषय नर्सरी केजी से पढ़ना शुरु करता है। सोचो उसे फिर कितना समय लगेगा। संलग्न या अटैचड जागृति के एक साल के आसान कोर्स को छोड़कर वह सत्रह साल की जागृति की डिग्री को चुनता है। जब तक वह मिलती है, तब तक आदमी बूढ़ा हो जाता है। फिर पता नहीं किस जन्म में मिलेगी। जागृति जवान शरीर रहते मिल जाए तो अच्छा है, उसके बाद तो भाई राम भरोसे। ऐसी संकुचित सोच एकदम से नहीं आई है, पुराने पंथों के अंधानुकरण से धीरेधीरे समाज में फैली है। इसलिए पुरानी अच्छी बातों को तो मानना ही चाहिए, पर आदमी को स्वतंत्र सोच का भी होना चहिए। मैं सीमित कट्टरता का विरोधी नहीं हूं। जहां भी मैंने कट्टरता के विरोध की बात की है, उसे अतिकट्टरता का विरोध समझना चाहिए। अब हर जगह अतिअति तो नहीं लगा सकते। ये सब शब्दों के खेल हैं, जो आराम से बात का बतंगड़ बना सकते हैं। कुछ कट्टरता तो धर्म के लिए जरुरी भी होती है। अतिकट्टरता खराब होती है। सारे अमानवीय काम अतिकट्टरता से होते हैं, सीमित या साधारण कट्टरता से नहीं। कट्टरता से आदमी अपने मानवीय नियमधर्म पर दृढ़ता से टिका रहता है। धर्म क्या दुनिया के हर काम के लिए कुछ कट्टरता जरूरी होती है। अगर हिंदुओं में कट्टरता न होती, तो उनके बहुमूल्य वेदपुराण आज तक संरक्षित न रहते, खासकर जैसे हमले उनपर होते आए हैं। किसी देश की संस्कृति, तकनीक व बोलचाल आदि अनगिनत सामाजिक उपलब्धियां कट्टरता से ही संरक्षित रहती हैं, और पीढ़ी दर पीढ़ी आगे से आगे सौंपी जाती रहती हैं। आजकल हाल यह है कि बेचारे हिंदुओं के द्वारा अपनी और अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए अपनाई जा रही मामूली सी कट्टरता पर भी प्रश्नचिह्न लगाया जा रहा है, और अन्य अनेक वर्गों की अतिकट्टरता को भी नजरंदाज किया जा रहा है। इस चाल को समझने की जरूरत है। आत्मरक्षा के लिए कुछ तथाकथित कट्टर हिंदु देश में समान नागरिक संहिता की वकालत कर रहे हैं, वहीं हिंदुओं का बड़ा वर्ग अन्य वर्गों की चाल में आकर और कुछ निजी स्वार्थों के लालच में आकर अपने को पूरी तरह कट्टरताहीन साबित करने के लिए उनका विरोध कर रहा है। यही वजह है कि बड़े भारी अंतर से बहुसंख्यक होकर भी हिंदु बंटे हुए हैं, और अपनी सनातन संस्कृति की रक्षा तक नहीं कर पा रहे हैं, उसका विकास तो दूर की बात है। अशुभ कट्टरता ने शुभ कट्टरता को परेशान किया हुआ है। कहते हैं कि बारह वर्ष की साधना के बाद कुंडलिनी जागरण मिलता है। इसका यह मतलब नहीं कि बारह साल तक नाक पकड़कर बैठे रहने से जागृति मिलती है। इसका मतलब यह है कि अगर उपरोक्त सही मान्यता के साथ बारह वर्ष तक युक्तियुक्त ढंग से भौतिक दुनियादारी में रहा जाए, तो तेरहवें वर्ष की साधना से कुंडलिनी जागरण मिल सकता है। यह ऐसे ही होता है, जैसे अगर बीटेक की डिग्री के अंत में छात्रों को बोला जाए कि इसके साथ एमटेक की एक साल की डिग्री भी जोड़ी जा रही है, तो आधे से ज्यादा बच्चे छोड़ के चले जाएंगे, क्योंकि वे उसके लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं थे। परंतु अगर शुरु से ही चार साल की बीटेकएमटेक इंटीग्रेटिड डिग्री करवाई जाए, तो सभी बच्चे आसानी से कर लेते हैं, क्योंकि वे उसके लिए प्रारंभ से लेकर ही हमेशा मानसिक रूप से तैयार रहे हैं। विश्वास और लगन का महत्त्व जीवन के हरेक क्षेत्र में है। मैंने बचपन में सब तीर्थ किए, जिन्हें चार धाम यात्रा कहते हैं। उस पर भी समय मिलने पर पोस्ट बनाऊंगा। संभवतः इसीलिए जागृति हुई। कई लोग चार दिन योग करके दावा करने लग जाते हैं कि जागृति मिल गई। वो नाड़ियों की हलचल को जागृति मान लेते हैं। माना कि योग करने से जागृति मिलती है, पर सही योगाभ्यास तक पहुंचने के लिए आध्यात्मिक अभ्यास करते हुऐ बहुत लंबा समय लग सकता है। इसीलिए सनातन वैदिक धर्म में विस्तृत आध्यात्मिक प्रक्रियाएं हैं। यह ऐसे ही है जैसे धरती के सबसे बाहरी ऑर्बिट से बाहर अंतरिक्ष में छलांग लगाना बहुत आसान है पर वहां तक पहुंचने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है। यह अलग बात है कि कोई तेज दिमाग आदमी किसी अनुभवी आदमी से एकदम सीख जाए, पर ऐसे लोग बहुत बिरले होते हैं। शास्त्रों में इन तीर्थों के प्रति विश्वास बनवाया गया है। पूरे भारत में लगभग सभी स्थानों को अध्यात्म कथाओं के साथ जोड़ा गया है। इससे उन स्थानों को दिव्यता मिलती है। विश्वास या मान्यता में बहुत बल है। उल्टी मान्यता से ही अनंत आत्मा सीमित जगत बन जाता है। जब मान्यता को सीधा किया जाता है, तो सीमित जगत दुबारा अपने असली अनंत आत्मरूप में आ जाता है। क्वांटम विज्ञान भी यही सिद्ध करता है कि अगर पदार्थ को खंडखंड या कणरूप मानोगे तो वह वैसा ही दिखेगा, और अगर अखंड या तरंगरूप मानोगे तो वैसा ही दिखेगा, बेशक असली, सुखरूप और मोक्षरूप दूसरे वाला रूप अर्थात अखंड या अद्वैत रूप ही है। मुझे तो लगता है कि जो सनातन धर्म के कर्मकांड हैं, वे दरअसल शरीर में हो रहीं यौगिक चीजें और क्रियाएं हैं, जिन्हें स्थूल रूप देकर स्थूल जगत में स्थूल वस्तुओं और क्रियाओं के रूप में दिखाया जाता है। इसके दो लाभ होते हैं। एक तो दुनियादारी की सभी चीजों व क्रियाओं में दिव्यता आ जाती है, जिससे सबकुछ पूजा ही बन जाता है। मानो तो पत्थर में भी भगवान है, न मानो तो कहीं भी नहीं है। दूसरा, लोगों के अवचेतन मन पर उनका सूक्ष्म प्रभाव लगातार पड़ता रहता है, जिससे लोग अनायास ही योग की तरफ मुड़ते चले जाते हैं। पुराने जमाने में लोगों के पास बहुत सा अतिरिक्त या खाली समय होता था, खासकर भारत में क्योंकि अनाज आदि प्राकृतिक संसाधनो की उपज अच्छी थी और तकनीकी कलिष्टता या उससे उपजा तनाव भी नहीं था। मानसूनी मौसम है भारत का। यहां मानसून में खूब फसल उगा कर लोग भंडारित कर देते होंगे और पूरे साल आराम से बैठकर उसका उपभोग करते होंगे, क्योंकि यहां मानसून के मौसम में ही वर्षा होती है, बाकि पूरे साल खुशनुमा धूप खिली रहती है। इसलिए बहुत सोच समझ कर वेदपुराण लिखे गए होंगे ताकि समाज में स्वीकार हो सकें। उनके ऊपर वादविवाद हुए होंगे, फिर उनके संशोधन भी हुए होंगे। आज तो हर कोई पुस्तक लिख दे रहा है, जिसपे न चर्चा होती है और न वादविवाद। इसलिए इनकी प्रामाणिकता पर वेदपुराणों से ज्यादा संदेह है। सभी मिथक कथाओं का रहस्योद्घाटन आम बुद्धि से नहीं हो सकता। इसका मतलब यह नहीं है कि वे बिल्कुल कपोलकल्पित या बिना किसी मनोवैज्ञानिक सिद्धांत के है। पर जिन बहुत सी मिथक कथाओं का रहस्योद्घाटन इस वैबसाईट पर है, इससे यही सबसे बड़ा संदेश जाता है कि वेदपुराणों की सभी मिथक कथाएं शास्त्रीय, सैद्धांतिक और अध्यात्मवैज्ञानिक हैं। इसलिए विश्वास करने में ही भलाई है क्योंकि विश्वास में बहुत शक्ति है। अन्य धर्मों या संप्रदायों की तरह सनातन हिंदु धर्म किसी एक व्यक्ति ने नहीं बनाया है बल्कि इसे अनगिनत ब्राह्मणों, ऋषियों, योगियों और दार्शनिकों ने अनंत कालखंड की धारा से सींचा है। इसीलिए यह सर्वाधिक लोकतंत्रात्मक धर्म प्रतीत होता है।