कुंडलिनीयोग महिषासुर वध की कथा के रूप में वर्णित किया गया है

पुराणों का तरीका वैदिक अर्थात शास्त्रीय अर्थात सामाजिक होता है। इनकी कथाओं में शालीनता, शिष्टाचार और अनुशासन होता है। मर्यादित बोल होते हैं। उनमें असामाजिक रहस्य भी सामाजिक ढंग से वर्णित होते हैं। उदाहरण के लिए मूलाधार को अंधेरे गहरे गड्ढे या पाताल या समुद्र के नाम से वर्णित किया होता है। भटकते मन के आसक्तिपूर्ण विचारों को या अहंकार को राक्षसों या जानवरों की उपमा दी जाती है। वे राक्षस गढ्ढे में घुसते दिखाए जाते हैं। वे मनुष्यों समेत सभी जीवों और देवताओं को मारते और परेशान करते दिखाए जाते हैं। फिर इंद्र आदि देवता ब्रह्मा के पास और वे परमात्मारूपी नायक के पास सहायता के लिए जाते हुए और उनकी प्रार्थना करते हुऐ दिखाए जाते हैं। फिर कहानी का नायक उस गढ्ढे में घुसकर राक्षसों और उनके अधिपति को बाहर निकालता है। उनसे लड़ता है और उन्हें मारकर या उन्हें पवित्र करके उन्हें मोक्षरूपी सर्वोच्च पद प्रदान करता है। वस्तुतः सभी विचार परमात्मा में ही विलीन होते हैं। यह कुंडलिनी योग का अध्यात्मविज्ञान ही तो है। मतलब परमात्मा ने शरीर में ही अज्ञान से लड़ने के लिए योगकुंडलिनी शक्ति स्थपित कर रखी है। योगी मूलाधार क्षेत्र में ध्यानछवि पर ध्यान केंद्रित करता है। जब वह छवि नाड़ियों से होकर मस्तिष्क तक आती है, तो अपने साथ अवचेतन मन के दबे विचार और भावनाएं भी ऊपर ले आती है। इससे वे साक्षीभाव के साथ मन में अभिव्यक्त होकर आत्मा में विलीन हो जाते हैं। वास्तव में मूलाधार से शक्ति ऊपर चढ़ती है, ध्यानछवि के सहयोग से। वही शक्ति मस्तिष्क में दबे भावों को उजागर करती है। समझाने के लिए कहा जाता है कि शिवरूपी ध्यानछवि ने अपने साथ सभी राक्षसरूपी दबी हुईं छवियों को मूलाधाररूपी गड्ढे से बाहर निकाला और उन्हें मारकर मुक्त कर दिया। शक्ति मूलाधार में सोई होती है, जिस वजह से मस्तिष्क को ऊर्जा न मिलने से उसके कुंडलिनीरूपी विचारभाव भी सोए होते हैं। इसको ऐसा समझाया जाता है कि वे विचारभाव भी मूलाधार में सोए हैं। जब मूलाधार के सशक्त होने से वह शक्ति जागने लगती है, तो वह मस्तिष्क के विचारभावों को भी जगाने अर्थात अभिव्यक्त करने लगती है। इसको ऐसे समझाया जाता है कि मूलाधार की कुंडलिनीशक्ति जाग रही है, अर्थात शक्ति और विचारभावों का मिश्रण जाग रहा है। इसीलिए ज्यादा उम्र जीने वाले लोग अपने मूलाधार क्षेत्र का खास ध्यान रख रहे होते हैं। मैं वेबसीरीज लिव टू हैंडरड इयर्ज देख रहा था, जहां जापान के ओकीनावा के लोगों की लंबी उम्र का एक राज कसरत, शारीरिक श्रम आदि से अपने बेस को मजबूत रखना भी था। आधार से ही मंजिल है। वे खुद तो बस उसे सुलभ और अनुकूल ही बनाते हैं। यह पतंजलि योग के कथन के अनुसार ही है कि योग करते समय परमात्मा के आश्रित भी रहना चाहिए, और उनकी भक्ति भी करनी चाहिए क्योंकि वे योग को सफल बनाने में मदद करते हैं। इसको उन्होंने ईश्वर प्राणिधान कहा है। सभी कथाओं में लगभग ऐसा ही ट्रेंड है। बीचबीच में नामरूप के फेरबदल के साथ ऐसी ही कथाएं आती रहती हैं। शुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान के कुछ श्लोकों या पृष्ठों के बाद ऐसी कोई रूपात्मक कथा आ ही जाती है, ताकि पाठकों की रुचि बनी रहे। शिवपुराण में शिव उनको मारने वाले नायक दिखाए जाते हैं तो विष्णुपूराण में विष्णु। एक ही अद्वैत तत्त्व को भिन्नभिन्न देवताओँ के नाम से पुकारा जाता है, जो जागृतावस्था का अनुभव है। शरीर को ब्रह्मांड, और विशेष अंगों व इंद्रियों को साधारण देवता दिखाया गया है। लोगों को या शरीर की कोशिकाओं या साधारण अंगों को आम लोगबाग या जनता के रूप में दिखाया गया है। ये सब आपस मे जुड़े हैं।

उदाहरण के लिए देवीभागवत पुराण में एक कथा आती है कि महिषासुर नाम का एक राक्षस भैंसे की आकृति वाला था। वह कभी सुंदर युवक का रूप बना लेता था तो कभी भैंसा बन जाता था क्योंकि वह बहुरूपिया था। आम अज्ञानी आदमी भी तो ऐसा ही बहुरूपिया होता है। कभी वह बाहरबाहर की वेशभूषा और मन के आसक्तिपूर्ण विचारों की चमकदमक से सुंदर रूप बना लेता है, तो कभी अपने असली और छुपे हुए रूप में आ जाता है, जो अंधेरे और अहंकार के रूप में है। कभी वह आधा भैंसा और आधा आदमी, जुड़ा हुआ दिखाया जाता है। यह ऐसे ही है जब आदमी के अंदर अवसाद जैसा हो। उस समय उसके मन में अंधेरे के साथ धुंधले चित्र बन रहे होते हैं। या आदमी की वह हालत होती है जिसमें वह अपनी अंधेरी अवस्था का चालाकी से सामना करते हुऐ शुभ विचारों से प्रकाशित होने की कोशिश करता है। वह दैत्य मनुष्यों और देवताओं पर अत्याचार करता था, उन्हें मारता था और उन्हें पीड़ा पहुंचाता था। सभी की मृत्यु अज्ञान से ही होती है। दुख का कारण भी अज्ञान ही है। उसने देवताओं को स्वर्ग से भगा दिया था और सभी लोकों के शासन की कमान अपने हाथ में ले ली थी। वास्तव में देवता परमात्मा के प्रतिनिधि होते हैं, इसलिए मनुष्य की भौतिक तरक्की को सुनिश्चित करते हुऐ उसे उसकी तरफ मतलब मोक्ष की तरफ़ ले जाते हैं। वे स्थूल जगत को तो नियंत्रित करते ही हैं, साथ में शरीर में भी रहकर शरीर को नियंत्रण में रखते हैं। पर जब आदमी अज्ञान से उत्पन्न अहंकार के वश में हो जाता है, तब वह मनमाना आचरण करता है, जिससे उसकी भौतिक तरक्की भी दिखावटी और अंत में दुखदायी होती है, और वह परमात्मा से दूर चला जाता है। स्वर्ग मस्तिष्क है जिसमें सहस्रार और आज्ञाचक्र मुख्य स्थान हैं। मस्तिष्क ही स्वर्ग की तरह प्रकाशमान लोक है। ज्ञानी आदमी में देवता मतलब प्रकाशमान अद्वैत भाव इसको अपने नियंत्रण में रखके आदमी के शरीर व मन से शुभ कर्म करवाते हैं। पर अज्ञानी आदमी में तो इसे राक्षस मतलब अंधकाररूप या अहंकाररूप द्वैतभाव अपने नियंत्रण में लेके शरीर व मन से अशुभ कर्म करवाते हैं। शरीर के सभी काम तब भी देवता ही कर रहे होते हैं, पर वे स्वर्ग से दूर अन्य लोकों में छुप कर अपना काम करते हैं। एकप्रकार से वे दैत्यों के गुलाम जैसे हो जाते हैं। यह ऐसे ही है, जैसे किसी राज्य के सारे काम मजदूर ही करते हैं, चाहे उनकी पसंद का राजा होए या नापसंद का। अगर पसंद का होए तो उन्हें उचित सम्मान व सुविधाएं मिलती हैं, और राजमहल में उचित पद या प्रतिनिधित्व मिलता है, अगर नापसंद का होए तो वे गुलाम जैसे बन कर रह जाते हैं। शरीर का राजा जीवात्मा है, जो मस्तिष्क में रहता है। सत्संग से वह देवताओं के प्रभाव में रहता है, और कुसंग से राक्षसों के। जैसी वह संगत करता है, वैसा ही वह बन जाता है। उस महिषासुर ने देवी से विवाह करने की इच्छा प्रस्तुत की। देवी ने उसे बहुत खेल खिलाया। अंत में उससे युद्ध करके उसे मार ही दिया। वह देवी में विलीन होकर मुक्त हो गया। एक अज्ञान से भरा आम आदमी भी ऐसा ही चाहता है और प्रयास करता है। जब वह आध्यात्मिक अज्ञान के अंधेरे में होता है, उस समय उसकी कुंडलिनी शक्ति मूलाधार में होती है। वह वहां से ऊपर उठना चाहती है। उसके लिए वह स्त्री से प्रणय और विवाह की कामना करता है। देवी जैसी कोई स्त्री उसका प्रस्ताव एकदम नहीं मानती। वह उसे अपने पीछे खूब नचाती है। इससे आदमी के मन में उस स्त्री की मनमोहक छवि एक निरंतर लगने वाली समाधि के रूप में बस जाती है। धीरेधीरे उस समाधिचित्र से उसके सारे कर्म और विचार जल कर खाक हो जाते हैं, और वह उसके निरंतर ध्यान से जागृत भी हो जाता है। जागृति दिलाने के बाद देवी भी उसे छोड़ कर चली जाती है। वह आदमी तो एकप्रकार से मर ही गया, क्योंकि रूपांतरण के कारण उसकी पिछली दुनिया खत्म हो जाती है। क्योंकि इस जागृति और रूपांतरण में देवी का सबसे ज्यादा योगदान था, इसलिए माना गया कि उसे देवी ने मारा। वास्तव में लगता भी ऐसा ही है। वह देवी दुश्मन भी लगती है और मित्र भी। दुश्मन इसलिए क्योंकि उसने पुरुष का संसार उजाड़ दिया या उसे मार दिया और मित्र इसलिए क्योंकि उसने उसे जागृति दिला दी या अपने में मिलाकर मुक्त कर दिया। तभी तो अधिकांश राक्षस देवता के साथ पूरी उम्र शत्रुता निभाकर भी उसके हाथों मरते समय उसकी स्तुति और प्रशंसा करते हुए उसे धन्यवाद देते हैं। देवी की जगह पुरुष रूप में देव भी हो सकता है। ये पुराणों की कथाओं का सामान्य स्टाईल और सिद्धांत है, जो अधिकांश रहस्यात्मक कथाओं में लागू होता है। ऐसा भी लगता है कि अन्य पुराणों में इन्हें शिवपुराण की अपेक्षा ज्यादा गुप्त रखा गया है। शिवपुराण की अधिकांश कथाओं में कुछ कुंजी शब्द या कुंजी वाक्य ऐसे होते हैं जो कथा को सुलझाने में मदद करते हैं। इसकी वजह यही लगती है कि शिवपुराण मुख्यतः मास्तमालंग और दुनियावी माया में डूबे लोगों के लिए बना है, जिनकी बुद्धि ज्यादा सूक्ष्म नहीं होती, और जिन्हें ऐसी कथाओं के रहस्योद्घाटन से ऑड या अजीब भी नहीं लगता। वैसे ये आम गृहस्थ जीवन का आम सिद्धांत है, पर जागृति से पहले यह कम ही अनुभव में आता है। इसे हम कुदरती कुंडलिनी योग भी कह सकते हैं। शास्त्रों में कहा जाता है कि जिसे भगवान का अवतार मारता है, वह उसी में विलीन होकर मुक्त हो जाता है। संभवतः इस कथा के मूल में भी यही सिद्धांत है।

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demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

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