दोस्तों, शास्त्रों में विशेषकर शिवपुराण में एक कथा आती है कि एकबार देवराज इंद्र भगवान ब्रह्मा और अन्य देवताओं को साथ लेकर कैलाश जाकर भगवान शिव के दर्शन करने की इच्छा से अपने घर से निकले। भगवान शिव को तो यह पता लग ही गया, क्योंकि वे त्रिकालदर्शी हैं। उन्होंने लीला के लिए उनकी परीक्षा लेने की सोची। वे एक जटाधारी अवधूत का वेश बनाकर उनके मार्ग में खड़े हो गए। देवराज इंद्र ने उनसे पूछा कि वे कौन हैं, और उनसे रास्ता छोड़ने के लिए कहा। यह भी पूछा कि क्या शिव उस समय कैलाश पर ही थे। पर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। उनसे बारबार पूछा गया, फिर भी उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। अंत में गुस्से में आकर इंद्र ने उनके ऊपर महा घातक अस्त्र वज्र चला दिया। उसी समय शिव अपने असली रूप में आ गए जिससे वज्र उनका कुछ न बिगाड़ सका। शिवजी को इंद्र पर बहुत क्रोध आ रहा था, और वे उसका वध ही करने वाले थे कि ब्रह्मा उनके पैरों में पड़कर उन्हें मनाने लगे। उससे शिव को उन पर दया आ गई। शिव ने उनसे पूछा कि वे अपना गुस्सा कहां डालें। पूर्णयोगी का गुस्सा अगर एकबार बाहर निकल आए तो वह वापिस नहीं लौटता। ब्रह्मा ने उन्हें वह गुस्सा समुद्र में डालने को कहा। उससे समुद्र से जलंधर असुर का जन्म हुआ।
उपरोक्त कथा का अध्यात्मवैज्ञानिक विश्लेषण
शिव का मतलब यहां जागृत व्यक्ति है। इंद्र का मतलब यहां साधारण तांत्रिक या साधारण पंचमकारी है। साधारण तंत्र से जो शक्ति मिलती है, वह कुंडलिनी ध्यान के लिए नहीं, बल्कि दुनियादारी की बढ़ौतरी के लिए इस्तेमाल होती है। इसमें काली तंत्रसिद्धियां जैसे कि मारण, टारण आदि भी शामिल हैं। सम्भवतः इंद्र के द्वारा मारण शक्ति के प्रयोग को ही वज्रप्रहार कहा गया है, क्योंकि जागृति की तरह ऐसी तांत्रिक शक्तियों का मूल स्रोत भी मेरुदंड से गुजरने वाली वज्रशक्ति या सुषुम्नाशक्ति ही प्रतीत होती है। अलौकिक शक्ति को प्राप्त करने का तरीका इससे अलग तो कोई दिखता नहीं शरीर में। पर उससे असली तंत्रयोगी का उसी तरह कुछ नहीं बिगड़ता जैसे जुगनू दीपक का कुछ नहीं बिगाड़ सकते, उल्टा खुद ही जल सकते हैं। कई बार बहुत से जुगनू इकट्ठे हो जाएं तो उसे थोड़ा ढक जरूर सकते हैं। इसी तरह बहुत शक्तिशाली वज्रशक्ति या बहुत से लोगों द्वारा चलाई गई घृणात्मक तांत्रिक वज्रशक्ति जागृत योगी का कुछ नुकसान भी कर सकती है। ऐसे तो वह अपनी हानि की कोई परवाह न करके सत्य की राह पर चलता रहता है, पर जब उसकी जान पे ही बन आती है, तो फिर आत्मरक्षा के लिए गुस्सा कुदरतन निकलता है, वह जानबूझ कर निकाला गया आम गुस्सा नहीं होता, और न ही वह गुस्से की तरह लगता है। उसका गुस्सा रूपांतरित होकर निकलता है। जैसे कि किसी समाजसुधारक आंदोलन के रूप में या किसी को वरदान के रूप में। वह गुस्सा किसी का अहित नहीं करता, क्योंकि जागृत व्यक्ति से किसी का अहित होता ही नहीं बस तक। अब जलंधर की उत्पत्ति में समाज का कौन सा भला छिपा है, यह तो पता नहीं, पर इंद्र नष्ट होने से बच गया, मतलब सारी सृष्टि नष्ट होने से बच गई, क्योंकि इंद्र देवताओं का राजा है। गुस्सा आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन है। गुस्से से अपना ही शरीर कमजोर या नष्ट होता है, और हमारे अपने शरीर रूपी ब्रह्मांड में इंद्र समेत सारे देवता स्थित हैं। यह कह सकते हैं कि जलंधर मूलाधार को उतरी हुई गुस्से की ऊर्जा है। इसे कहते हैं गुस्सा पी लिया। उस समय तो पी लिया पर बाद में वह मूलाधार से अनैतिक प्रेम प्रसंग के रूप में भी निकल सकता है। यही जलंधर है जो पार्वती और लक्ष्मी के ऊपर आसक्त हो गया था। उसे पतिव्रता वृंदा ही मरने से बचाती थी। इसका मतलब है कि वह पत्नी की सहायता से प्राप्त तंत्रबल से शिव और विष्णु की तरह तेजस्वी हो गया था। वैसे भी उसे शिव का ही अंश माना जाता है। उसने सब देवताओं को पराजित कर दिया था, मतलब वह देवताओं से संचालित प्रकृति के वश में नहीं रह गया था, और सभी को दुख देते हुए भी तंत्रबल से सुखी रहता था। जब विष्णु ने धोखे से वृंदा का शील भंग किया तो उसने आत्मदाह कर लिया और वहां तुलसी का पौधा उग गया। तुलसी हिंदु धर्म का सबसे पवित्र पौधा है जो लगभग हर हिंदु परिवार के आंगन में उगा मिल जाएगा। यह औषधीय और आध्यात्मिक गुणों का भंडार है। मतलब साफ है कि पतिव्रता स्त्री सभी किस्म के मनुष्यों से श्रेष्ठ है जो हर घरपरिवार में होनी चाहिए। पंजाब का जालंधर नाम इसी असुर के नाम से पड़ा है। यहां एक वृंदा का मंदिर भी है। वास्तव में तंत्रयोगी की सफलता में उसकी पत्नि का बड़ा हाथ होता है। पत्नि अगर सहयोग न करे तो देवता भी सहयोग नहीं करते। मुक्ति की राह में असफल होना ही मरना है। वास्तव में जो ध्यान योगी होता है, उसका अतिरिक्त तांत्रिक बल कुंडलिनी ध्यान में खर्च होता रहता है, जिससे किसी का बुरा सोचने व बुरा करने के लिए शक्ति ही नहीं बची रहती। पर जो तांत्रिक आचारों और तकनीकों का इस्तेमाल तो करते हैं पर इष्ट ध्यान नहीं करते, उनमें अतिरिक्त तांत्रिक उर्जा शरीर में जमा हुई रहती है। वही उनसे गलत करवा सकती है। इसे चाहे काला जादू कहो या टोना टोटका या देसी भाषा में नजर लगना या जिहादी किस्म की मानसिकता रखना या खा पी कर हंगामा करना। कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बहुत से संगठनों, राष्ट्रों, धर्मों या संप्रदायों द्वारा अपनी अवैध व अनैतिक बढ़ौत्तरी के लिए इसी अतिरिक्त या अनियंत्रित तांत्रिक ऊर्जा का इस्तेमाल सदियों से किया जाता रहा है। राक्षस भी इसी से पैदा होते थे, हालांकि मरते भी इसी से ही थे। यह उपयोग के तरीके पर निर्भर करता है। एनर्जी ने रिलीज होना ही होता है। वैसे भी शिव मस्तमलंग हैं। मतलब वे अपने में ही मस्त हैं। इसका मतलब है कि वे अपने में ही सब गुण धारण कर लेते हैं आवश्यकता अनुसार। तभी उन्हे भूतिया कहा जाता है, क्योंकि वे जरूरत पड़ने पर तमोगुण भी स्वीकार कर लेते हैं। शायद इसी से तांत्रिक पंचमकार की अवधारणा हुई है। अन्य लोग तो गुणों के संतुलन के लिए एकदूसरे पर आश्रित रहते हैं। कुछ लोग हमेशा सतोगुणी रहते हैं, जैसे कि विष्णु, तो कुछ तमोगुणी, जैसे असुर और पशु और अन्य कुछ रजोगुणी, जैसे कि ब्रह्मा और इंद्र। ये तीनों किस्म के लोग एकदूसरे पर आश्रित रहते हैं। इसलिए ये एकदूसरे को नाराज या परेशान करने से बचते हैं, जहां तक हो सके। खासकर सतोगुणी लोग, क्योंकि सतोगुण सबसे कमजोर होता है, और इसे अपने भारणपोषण के लिए भी अन्य दोनों गुणों की जरूरत पड़ती है। पर शिव को किसी की कोई परवाह नहीं है। वह अपने आप में पूर्ण सक्षम हैं। इसीलिए वे इंद्र को क्षमा करने के मूढ़ में नहीं होते पर लोकहित के लिए करना पड़ता है, अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए नहीं, क्योंकि उन्हें किसी की आवश्यकता ही नहीं है। जागृति की अवस्था को सतोगुणी नहीं कह सकते, बेशक यह सतोगुण की प्रचुरता से प्राप्त होती है। इसमें बेशक सतोगुण जैसा प्रकाश होता है पर वह आम दुनियावी सतोगुण से अलग होता है। उसमें तमोगुण के जैसा और रजोगुण के जैसा आभास भी होता है, पर वे भी इन दुनियावी गुणों से अलग लगते हैं। तीनों गुणों का मिश्रण भी नहीं कह सकते क्योंकि बेशक इसका वर्णन करने के लिए इनका सहारा लेना पड़ता होए, और यह इनके मिश्रण की तरह महसूस होता है, पर शास्त्रों के अनुसार यह इनका मिश्रण भी नहीं होता। शायद इसीलिए इसे त्रिगुणातीत या निर्गुण कहा गया है। यह ऐसे है जैसे अगर पानी में चीनी, नींबू और नमक बराबर मात्रा में घोला जाए तो वह पानी सादा लगेगा पर असल में वह शुद्ध सादा जल नहीं होता। इसी तरह अगर तीनों गुण बराबर रहें तो वह अवस्था त्रिगुणातीत लगेगी पर असल में वह आत्मा की शुद्ध त्रिगुणातीत या निर्गुण अवस्था नहीं होती। शायद इसी धोखे के कारण कई आध्यात्मिक नेता अपने आप को भगवान समझ बैठते हैं। इसी वजह से ही जागृति का अनुभव भी दुनियावी अनुभव से अलग स्वरूप वाला नहीं लगता। पर असल में दोनों के बीच में जमीन आसमान का फर्क होता है। जहां जागृति का अनुभव शुद्ध जल की तरह है, वहीं दुनियावी अनुभव नमक, नींबू और चीनी मिश्रित जल की तरह है। तीनों का अनुपात हरपल बदलता रहता है। जब यह बराबर हो जाता है, तब जागृति जैसा प्रकाश और सुख महसूस होता है। योग से इड़ापिंगला अर्थात यिनयांग के संतुलन से ऐसा ही होता है। यह हमें जागृति जैसी अवस्था का आभास देता है। इससे आदमी असली जागृति को प्राप्त करने के लिए प्रेरित होता है। इन सब बातों का मतलब साफ है कि शिव का तथाकथित तमोगुण उनकी जागृति में बाधक नहीं बल्कि सहायक होता है। वैसे वह तमोगुण नहीं होता पर तमोगुण जैसा लगता है। होता तो वह सतोगुण ही है। शायद सतोगुण के अहंकार को खत्म करके ऐसा होता है। शास्त्रों में भी ऐसा ही कहा है कि सतोगुण से भी जागृति तभी मिलती है, जब उसके प्रति भी अहम भाव नष्ट हो जाता है। अहम नष्ट होने से सतोगुण के रहते हुए भी वह ज्यादा ध्यान में नहीं रहता। उसके प्रति ध्यान या आसक्ति के अभाव से ही वह तमोगुण की तरह भासता है। शिव का तमोगुण ऐसा ही वर्चुअल अर्थात आभासी है, वास्तविक नहीं।