दोस्तो, हाल ही में ,,’गाव’,’the cow’ नाम की ईरानी फिल्म देखी, जो यूट्यूब पर ‘ओल्ड फिल्म्स रिवाइवल प्रोजैक्ट’ नामक चैनल पर उपलब्ध है। उसमें एक हसन नाम का व्यक्ति गाय के प्यार में इतना ज्यादा डूब जाता है कि उसके मरने के बाद पहले उसे वह अपने बाड़े में दिखने लगती है, और फिर वह पूरी तरह से उस गाय की तरह व्यवहार करने लगता है। यह कुंडलिनी योग ही तो है सैद्धांतिक रूप से। कुंड मतलब अंधेरा कुआं जो गाय के मरने से उसके अवसाद के रूप में पैदा हुआ। कुंडलिनी मतलब गाय का मानसिक चित्र। वह बारबार उसके मूलाधार के अंधेरे से उसके सहस्रार को चढ़कर उसे बावले बाबा जैसा बना रहा था। कुंड का शाब्दिक अर्थ ही कुआं या गड्ढा है। गड्ढा अंधेरा ही होता है। कुंडलिनी का मतलब है, एक मानसिक छवि जो अपने सीमित या सांप के कुंडल जैसे सिकुड़े स्वरूप में है। पूरा मन तो बहुत विस्तृत है, जो परमात्मा की असीमता तक जाता है। पर उसकी एक अकेली छवि बहुत सीमित होती है। मतलब कि जेसे एक लंबा सर्प अपना कुंडल बनाकर अपने को सिकोड़ लेता है, वैसे ही अनंत विस्तृत मन एक मानसिक छवि के आकार तक संकुचित हो जाता है, एकाग्र ध्यान के दौरान। उसे ही ध्यान छवि भी कहते हैं। अब बहुत सी ऐसी चीजें हैं, जो अपने विस्तृत रूप को सिकोड़ देती हैं, फिर सांप का ही उदाहरण क्यों दिया। इसकी दो मुख्य वजहें हैं।एक तो वह छवि फन उठाए सांप के जैसी सुषुम्ना नाड़ी से गुजर कर जागृत होती है। दूसरा, गहन एकांत और अभाव जैसे अंधेरे कुंड में अर्थात गड्ढे में उसका ध्यान किया जाता है, ठीक वैसे ही जैसे एक सफेद बिंदु गहरे काले रंग की पृष्ठभूमि पर सबसे अच्छा दिखाई देता है। श्मशान का घोर एकांत भी गड्ढे जैसा ही है, जहां भगवान शिव साधना करते हैं। गड्ढा मूलाधार का स्वरूप है। इसीलिए शास्त्रों में बहुत जगह वर्णन है कि फलां राक्षस या योगी ने फलां गड्ढे में इष्ट देवता या गुरु का पूजन और ध्यान किया। उसी गड्ढारूपी मूलाधार में ध्यान की गई छवि को ही वैज्ञानिक व संक्षिप्त नाम कुंडलिनी दिया गया है। यह अकेला शब्द ही योग का विस्तृत वर्णन करता है। अब उक्त फिल्म में हसन नाम का वह गौप्रेमी शायद अपनी गौरूपी कुंडलिनी को पर्याप्त शक्ति नहीं दे पाया, इसलिए दुनिया की नजरों में पागल जैसा हो गया। हालांकि वह गाय के मानसिक चित्र के साथ पूरी तरह से एकाकार हो गया था, इसीलिए उसकी तरह व्यवहार करता था। यह तो समाधि की तरह ही है, पर यह जागृति तक पहुंचनी चाहिए। मुझे नहीं पता कि क्या यह असली कहानी है, जिसे फिल्माया गया है, या कोई कोरी कल्पना, पर विषय रोचक है। समस्या सिरे तक पहुंचने की ही तो है। जब तक आदमी के मन में ध्यानचित्र जागृत न हो जाए, तब तक उसे ज्यादा से ज्यादा एकांत और पर्याप्त शक्ति चाहिए होती है, ताकि आम लोग उसे अन्यथा या मजाकरूप न समझें। जागृति के बाद तो सब समझ आ जाता है, और संतुष्टि भी हो जाती है। फिर तो चाहे उसके सामने ढोल नगाड़े बजाते रहो, उसे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। जागृति के बाद ध्यानचित्र धीरे धीरे शांत हो जाता है, और आदमी का पीछा छोड़ देता है। पहले वह आदमी के मन से जोंक की तरह चिपका रहकर उसकी शक्ति को चूसता रहता है। कई लोग अपने मृत संबंधी की याद में पागल जैसे हो जाते हैं। कोई साधक जानबूझ कर अपने प्रेमी दिवंगत गुरु के ध्यान में साधना करते हैं, और उसे सिरे तक पहुंचाकर जागृत भी कर लेते हैं। कई लोग जागृत न भी कर पाए, तो उसे नियंत्रण में रखकर उससे बहुत से लाभ लेते हैं, और दुनिया में अपनी भौतिक और आध्यात्मिक तरक्की का परचम लहराते हैं। एक ही चाकू भिन्नभिन्न तरीकों और मकसदों से इस्तेमाल होने पर भिन्नभिन्न परिणाम देता है।