सभी मित्रों को नवरात्र पर्व की बधाइयां
मित्रों, सभी पुराणों में सृष्टिरचना का वर्णन लगभग एकजैसा ही है। बस सभी अपनेअपने अराध्यदेव को सर्वोपरि मानते हैं। मतलब विष्णु पुराण में विष्णु को, शिव पुराण में शिव को, तो देवीपुराण में भगवती देवी को इष्ट मानते हैं। शिव पुराण में इस बारे कथा आती है कि शिव अकेले ही थे, पर पूर्ण थे। एकबार वैसे ही उनके मन में हास्यविनोद के लिए एक से दो बनने की इच्छा पैदा हुई। इसलिए उन्होने अपने शरीर को शिव और पार्वती, दो शरीरों में प्रकट किया। फिर शिव और पार्वती से क्रमशः पुरुष और प्रकृति (स्त्री) की उत्पत्ति हुई। उन दोनों को निर्गुण शिव ने आकाशवाणी से तप करने को कहा। उन दोनों ने जब तप करने के लिए स्थान मांगा तो निर्गुण शिव ने अपने रूप से काशी नगरी बना दी। तपस्या के श्रम से उनके शरीर से अनेक जलधाराएं उत्पन्न हो गईं, जिससे सारा शून्य भर गया। उस समय कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता था। उस आश्चर्य को देखने के लिए जब पुरुषरूप विष्णु ने सिर हिलाया तो उनके कान से मणि नीचे गिर गई। वह मणिकर्णिका तीर्थ बना। जब वह काशी नगरी (पंचकोशात्मिका/पांच कोस विस्तार वाली) पानी में डूबने लगी तो शिव ने उसे अपने त्रिशूल पर स्थापित कर लिया। उसके बाद विष्णु ने प्रकृति नामक अपनी पत्नी के साथ वहां शयन किया। तब शंकर की आज्ञा से उनके नाभिकमल से ब्रह्मा प्रकट हुए। तब उन्होंने शिव आज्ञा से अद्भुत सृष्टि की रचना की। उन्होंने चौदह लोकों का निर्माण किया। इस ब्रह्मांड का विस्तार पचास करोड़ योजन है। ब्रह्मांड में कर्म से बंधे प्राणी मुझे कैसे प्राप्त होंगे, ऐसा सोच कर शिव ने काशी ब्रह्मांड से अलग रखा। शिव ने अपने अविमुक्त नामक मोक्षदायक लिंग को वहां स्थापित किया। ब्रह्मा का एक दिन पूरा होने पर भी उस काशी का नाश नहीं होता। उस समय शिव उसे अपने त्रिशूल पर धारण करते हैं। ब्रह्मा द्वारा पुनः सृष्टि किए जाने पर वे काशी को पुनः स्थापित करते हैं।
उपरोक्त कथा का स्पष्टीकरण
कथा का शुरुवाती भाग तो स्वयं विवरणात्मक है। पुरुष और स्त्री तभी विवाह करेंगे और घर बनाने की सोचेंगे अगर उनके पास उस लायक स्थान होगा। मूलभूत आवश्यकता स्थान की है। संसाधन और संपत्ति तो वे बाद में भी जोड़ सकते हैं। उन्हें विवाह के लिए कहना ही तप के लिए कहना है। विवाह भी एक यज्ञ है, जिसे हम गृहस्थ रूपी तप के लिए दीक्षा समारोह मान सकते हैं। उनके पिता आदि ने उन्हें जमीन का टुकड़ा दे दिया गृहस्थी बसाने को या कहो कि उन्हें अपनी जमीनी दुनिया में जगह दे दी। वही परमपिता के द्वारा प्रदत्त काशी है। वह शिव का ही रूप है, क्योंकि सबकुछ शिवमय ही है। वैसे भी सभी का अपनी जमीन जायदाद के साथ आत्मभाव या अहम जुड़ा होता है। वे वहां तप करते हैं, मतलब सृष्टि विकास के शुभ विचार को मन में लेकर आपस में प्रेमविहार डेटिंग आदि करते हैं। उससे वे दोनों प्रेमरस में डूब जाते हैं। जल भी रसरूप ही है। प्रेम की तुलना जल से की गई है। चारों ओर जल ही जल, मतलब प्रेम ही प्रेम। प्रेमियों को प्रेम के इलावा कुछ नहीं दिखता। शून्य भर गया मतलब अवसाद की अवस्था प्रेम से भर गई। पुरुष जब इससे आश्चर्यचकित होकर यह देखता है तो उसके मन में कुछ काम करने का विचार पैदा होता है, मतलब उसमें थोड़ी व्यवहार बुद्धि आने लगती है। इसीको कथा में ऐसे दिखाया गया है कि उसके कान से मणि गिरने से मणिकर्णिका तीर्थ बन जाता है। तीर्थ इसलिए क्योंकि उसकी व्यवहार बुद्धि या रचना में अथाह प्रेम मिश्रित होता है, जिससे उसमें शुद्धता, दिव्यता और आत्मीयता बनी रहती है। फिर भी प्रेम बढ़ता ही गया, जिससे वे प्रेमांध से होकर अपनी दिनचर्या भी भूलने लगे। उन्हें यह भी सुध नहीं रही कि वे कहां हैं, क्या वक्त है और क्या करना है। इसीको ऐसा कहा गया है कि काशी नगरी जल में डूबने लगी। फिर शिव के स्मरण से उनका दुनियादारी वाला रूझान लौटा। त्रिशूल तीन गुणों का प्रतीक है, और दुनियादारी भी त्रिगुणमयी ही होती है। फिर वे बड़ों और गुरुओं की प्रेरणा से और अपनी इंस्टिंक्ट से संतानोत्पत्ति के लिए एकसाथ शयन करने लगे। फिर स्त्री का गर्भ बन गया। वह भी विष्णुस्वरूप ही है। वह भी जल में स्थित था, क्योंकि गर्भ जल से भरा होता है। विष्णु को क्षीरसागर में शयन करते हुए बताया गया। गर्भ का जल भी खीर की तरह पोषण से भरपूर होता है जो बच्चे की परवरिश करता है। उसे भी मां पुत्र के बीच प्रेम रस कह सकते हैं। काशी नगरी भी उसीको कह सकते हैं क्योंकि उसी पर या उसीके कारण मां पुत्र सृष्टि के लिए तप करते हैं अर्थात गर्भ का महान कष्ट सहते हैं। निद्रावस्था में दोनों साथ में सोए होते हैं। तभी गर्भनाल से जुड़ा गर्भ बढ़ने लगता है, और मनुष्याकार ले लेता है। उसे ही कमल कहा गया है, क्योंकि सभी चक्रों को कमल रूप दिखाया जाता है, विशेषकर सहस्रार चक्र को, जो एक हजार पंखुड़ियों के साथ सबसे बड़ा कमल है। मस्तिष्क विकसित होने पर उसी पर मन अर्थात ब्रह्मा का जन्म होता है। मन में चित्रविचित्र दृष्य, विचार, और अनुभव ही ब्रह्मांड के रूप में विकसित होते रहते हैं। पाठकों को यह शंका हो सकती है कि पिता तो विष्णु को कहा था, न कि गर्भ में पल रहे पुत्र को। तो इसका भावार्थ यह है कि पुत्र को शास्त्रों में पितारूप ही कहा गया है, इसीलिए पुत्र को पिता के आत्मज के रूप से भी संबोधित किया जाता है। जो यह कहा गया है कि ब्रह्मांड के नष्ट होने पर भी काशी नगरी पूर्ववत बनी रहती है, उसका यही अर्थ है कि अगर आदमी मर भी जाए तो माताओं का गर्भाशय वैसा ही बना रहता है। बच्चे के जन्म के बाद गर्भाशय सिकुड़ कर अपने मूल रूप में आ जाता है। इसको संभवतः ऐसा कहा गया है कि ब्रह्मांड के नष्ट होने के साथ वह शिव के त्रिशूल पर स्थित हो जाता है। इसका मतलब साम्यावस्था में त्रिगुणस्वरूपता ही है, क्योंकि ऐसी स्थिति में प्रकृति मूलरूप में विद्यमान तो रहती है, पर सृष्टिकाल का कोई काम नहीं करती। वह गर्भाशय सर्वश्रेष्ठ तपोभूमि और मुक्तिभूमि है, क्योंकि वहां बेशक कष्ट झेलने पड़ते हैं, पर संस्कार वहीं पड़ते हैं, जो आगे जाकर आदमी को मोक्ष दिलवाते हैं। इसीलिए कहा है कि स्त्री को गर्भावस्था के दौरान आध्यात्मिक संगति और सत्कर्म करने चाहिए। शास्त्रों में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जब आदमी ने गर्भ में रहकर ही आध्यात्मिक साधना कर ली थी। गर्भाशय को गढ्ढे जैसी अंधेरी जगह भी कह सकते हैं। अंधेरे को मूलाधार का स्वरूप माना गया है। वहां से शक्ति सीधी सहस्रार को जाती है जागृति के लिए। शिव के द्वारा श्मशान में तप करना गढ्ढे में साधना करना ही है। रावण ने भी गढ्ढे में शिव की आराधना करके ही उनके दर्शन पाए थे। वहां अगर कुंडलिनी शक्ति को केन्द्रित किया जाए तो गर्भस्थ बालक की बाद में चलकर मुक्ति अटल या अविलंब व विशेष है। अ का मतलब अटल या अविलंब, और वि का मतलब विशेष है। इसीलिए वहां अविमुक्त लिंग स्थित कहा गया है, जिसका स्नान गंगाजल मतलब कुंडलिनी शक्ति से कराकर जरूर ध्यान पूजन करते रहना चाहिए, ऐसा कहा है। संभवतः यह नाभिचक्र के आसपास ही है। संभवतः गर्भस्थ शिशु के जल में हिलने से जो आवाज होती है, वह कान तक पहुंच कर मणि की झनझनाहट की तरह सुखद होती है। क्योंकि वह अंदर अंदर से ही महसूस होती है, इसलिए उसका नाम मणिकर्णिका है। मतलब वह मणि की तरह श्वेत अस्थियों से प्रवाहित होकर कर्णिका अर्थात कान तक पहुंचती है, न कि वायु से होकर।
फिर कहते हैं कि काशी में जो कोई भी जीव (कीट पतंगा भी) जन्मता है, या मरता है, वह जरूर मोक्ष को प्राप्त होता है। शास्त्रों में हर जगह कहा है कि मुक्ति का अधिकार सिर्फ और सिर्फ मनुष्य को है। मतलब जो जीव मनुष्य के गर्भ में आ गया, वह अवश्य मुक्त हो जाएगा, बशर्ते वह मनुष्य बन कर रहे। फिर मरने की बात आई। यह मुझे तांत्रिक लगती है। गर्भ में शिशु होता है, और वह भोले शंकर की तरह मुक्त जैसा ही होता है, स्वभाव से। पूरी दुनियादारी को सही से निभाते हुए जो बच्चे के जैसा अद्वैतशील बना रहेगा मरते समय भी, वह जरूर मुक्त हो जाएगा। यौनतंत्र की ऊर्जा बच्चे के जन्म को न जाकर जागृति को जाती है। मतलब जिस काशी में बच्चा जन्म लेता है, जागृत व्यक्ति भी उसी में जन्म लेता है। जागृत व्यक्ति तो मरता भी उसी में है। आम आदमी तो किसी भी साधारण अवस्था में मर सकता है। क का मतलब जल होता है, और शी से शयन बना है। मतलब जल में शयन। ऐसे तो विष्णु भगवान ही होते हैं जो शेषनाग पर सोते हैं। इससे भी लगता है कि काशी गर्भाशय जैसी चीज का रूपक है।
कहते हैं कि देवी ने पहले शून्य आकाश में जल पैदा किया। फिर उन देवी भगवती की शक्ति से भगवान विष्णु जाग गए जो जल में शेषनाग पर सोए हुए थे। दरअसल विष्णु सोई हुई कुंडलिनी शक्ति अर्थात अव्यक्त जीवात्मा हैं। स्त्री जब गर्भवती होती है तो उसके गर्भ के जल में भ्रूण प्रकट हो जाता है। वह विकसित हुए मनुष्याकार नन्हें बालक का रूप ले लेता है, और सबकुछ अनुभव करने लगता है, अर्थात जाग जाता है। वह गर्भनाल के माध्यम से स्त्री के शरीर से जुड़ा होता है। वास्तव में मनुष्य का असली रूप फन उठाए नाग के जैसा है। वही स्त्री का रूप दिखाया गया है। उसे ही ऐसे कहा गया है कि वह नाग विष्णु की रक्षा करता था। एक स्त्री अपने गर्भ को कौन सी सुरक्षा नहीं देती। देवी पुराण में तो देवी को विष्णु से भी बड़ा और सृष्टि रचयिता दिखाया गया है। उसमें दलील दी गई है कि कौन अपनी इच्छा से स्त्री के गर्भ में आकर जन्म लेना चाहता है, क्योंकि गर्भ तो एक कैदखाना है, और उसमें होने वाली समस्याएं नरक की यातनाओं से कम नहीं है। यह तो देवी है जो उसे गर्भ में आने को मजबूर करती है। मतलब इसमें पुराण खुद स्पष्ट कर रहा है कि विष्णु एक गर्भस्थ बालक है, ब्रह्मा उसके द्वारा पैदा किया हुआ उसका मन है, और उसमें विभिन्न विचार ही विविधताओं से भरी सृष्टि है। साथ में यह भी कि उस बालक को गर्भ में लाने वाली उसकी माता ही देवी भगवती है। निकट के प्रयागराज तीर्थ में मरने से स्वर्ग आदि शुभ लोक प्राप्त होते हैं। प्र मतलब प्रचुर और याग मतलब यज्ञ। यज्ञ पुण्य कर्म को कहते हैं। प्रयाग संभवतः मणिपुर चक्र को कहा गया हो। क्योंकि यहां यज्ञ होता बताया जाता है, प्राणों की आहुतियों से। वैसे भी पेट से ही भूख लगती है, और उसीकी मांसपेशियों की हलचल से सत्कर्म होते हैं। मतलब गहरी और लंबी यौगिक सांस पेट से चलती है, और इसी किस्म की सांस से पापकर्म भस्म होते हैं और पुण्यकर्म होते हैं। उथली, तेज और छाती की सांस से तो क्रोध आदि मन के दोष बढ़ते हैं, जिनसे पाप नष्ट न होकर बढ़ते हैं। मणिकर्णिका नाम भी शायद इसलिए होगा कि जब गर्भस्थ बालक हिलता है या सिर हिलाता है तो उसकी आवाज नाभि क्षेत्र में कान लगा कर सुनी जा सकती है। मणिपुर चक्र को तीर्थ इसीलिए कहा गया है जैसा ऊपर बताया गया है। अब हो सकता है कि इस विश्लेषण के सभी भाग सही हों। कुछ न भी हों तो भी कथा को याद रखने के लिए फायदेमंद ही है।
मधु कैटभ नाम के दो राक्षस जो नारायण के कान की मैल से पैदा हुए, उन्होंने वेदपुराण को मतलब चेतना या ज्ञान को हर के पूरी सृष्टि के आस्तित्व को खतरे में डाल दिया था। फिर देवी ने विष्णु को शक्ति देकर उनका वध करवाया। वास्तव में जब आदमी के कान में संक्रमण का मैल होता है, तब वह दर्द आदि से अपना सिर एक तरफ को टेढ़ा रखता है। भ्रूण के सिर को डेढ़ा करने को ही उसके कान की मैल कहा गया है। इससे वह समय आने पर बच्चादानी से बाहर नहीं निकल पाता, और उसका जीवन संकट में पड़ जाता है। फिर मां के खून से प्राप्त शक्ति से वह सिर को सीधा करने की कोशिश करता है। मां की शक्ति से बच्चादानी भी जोर लगाकर इसमें उसकी मदद करती है। इससे वह सीधा हो जाता है मतलब मधुकैटभ मर जाते हैं और बच्चा जन्म ले लेता है मतलब सृष्टि बच जाती है।