कुंडलिनी जागरण से ही समुद्र में छिपे हुए राक्षसों और भूतप्रेतों का समूल नाश संभव है

दोस्तो, शिवपुराण में एक कथा आती है कि पार्वती के वरदान से अंहकार में डूबी हुई दारुका नाम की एक राक्षसी थी। उसका पति दारुक भी महाबलवान था। वह अनेक राक्षसों को साथ लेकर सत्पुरुषों को दुख दिया करती थी। पश्चिम सागर के तट पर उसका एक वन था, जो सर्वसमृद्धिसंपन्न था। दारूकी ने उसकी देखरेख का भार अपने पति दारुक को दिया हुआ था। लोगों ने ऋषिमुनियों से उन्हें भगाने की प्रार्थना की। तो ऋषियों ने कहा कि अगर ये राक्षस पृथ्वी पर प्राणियों का वध करते रहेंगे और यज्ञ का विध्वंस करते रहेंगे तो खुद भी मर जाएंगे। शाप को सुनकर मौके का फायदा उठाते हुए देवता उनसे युद्ध करने लगे। शाप के डर से राक्षसों ने सोचा कि अगर वे युद्ध करेंगे तो भी मारे जाएंगे, और न करें तो खाएंगे क्या, तब भी मारे जाएंगे। तब दारुक ने पार्वती द्वारा प्रदान किए गए उस वर को याद किया कि वह अपने वन और परिजनों के साथ जहां चाहे वहां जा सकती है। राक्षसों की सलाह से वह संपूर्ण वन को उड़ाकर समुद्र के बीच में पानी पर चली गई। उस घटना को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे पर्वत पंख लगा कर आसमान में उड़ रहे हों। और्व मुनि के शाप के भय से वे राक्षस भूमि पर नहीं आते थे। बल्कि जल में ही घूमते रहते थे। वे नावों पर बैठे मनुष्यों को अपने नगर में लाकर जेल में डालते और किसी किसी को मार भी देते थे। वे वहां रहकर भी किसी न किसी तरह से लोगों को पीड़ा देते ही रहते थे। जैसे लोगों को पहले उनके स्थल पर रहने पर भय बना रहता था, वैसे ही अब उनके जल में रहने पर भी बना रहने लगा। एक बार वह राक्षसी जल में स्थित अपने नगर से निकल कर लोगों को पीड़ा देने के लिए पृथ्वी पर जाने का मार्ग रोककर स्थित हो गई। उसी समय वहां चारों ओर से मनुष्यों से भरी हुईं बहुत सी सुंदर नावें आईं। उससे खुश हो राक्षसों ने जल्दी ही उनको पकड़ लिया। उन्हें पक्की जंजीरों में बांधकर जेल में डाल दिया। वहां उनको राक्षसों की फटकार भी पड़ती रहती थी, जिससे वे दुखी रहते थे। उन लोगों में सुप्रिय नाम का शिवभक्त शिवपूजन करता रहता था, और अन्य सभी लोगों को भी सिखाकर उनसे करवाता था। शिव भी उसकी चढ़ाई सामग्री को प्रत्यक्ष ग्रहण करते थे, पर यह बात वैश्य को भी पता नहीं थी। एकदिन दारुक राक्षस के सेवक ने वैश्य के समक्ष शिवजी को प्रत्यक्ष देखा। दारुक ने वैश्य से पूछा तो उसने पता होने से इंकार कर दिया। दारुक ने उसे मरवाने का हुक्म दिया। जब राक्षस उसे मारने दौड़े तो वह लगातार शिवकीर्तन करने लगा। इससे चारों ओर दरवाजों वाले उत्तम मंदिर के साथ शिव उस गड्ढे मतलब कैदखाने से प्रकट हुए। शिव ने वैश्य को पाशुपत अस्त्र देकर सब राक्षसों को मार दिया। फिर वरदान दिया कि इस वन में चारों वर्णों के धर्म नित्य स्थिर रहेंगे और यहां शिवभक्त ही होंगे, तमोगुणी कभी नहीं होंगे। इससे दुखी दारुकी पार्वती के पास रोती हुई चली गई। पार्वती ने उन राक्षसों की रक्षा हेतु शिव से कलह किया। इससे शिव ने उनसे कहा कि फिर जो चाहे वो करो। फिर पार्वती ने शिव से कहा कि आपका वचन या वरदान युग के अंत में लागू होगा। तब तक तामसी सृष्टि बनी रहेगी। और कहा कि ये दारुकी राक्षसी मेरी शक्ति है, सभी राक्षसियों में बलिष्ठ है, यह राक्षसों पर राज करे। ये राक्षसों की पत्नियां यहां अपने पुत्रों को उत्पन्न करेंगी। ये सब मिलकर इस वन में मेरी आज्ञा से निवास करेंगी। तब शिव ने कहा कि इस वन में अपने भक्तों की रक्षा के लिए मैं भी निवास करूंगा। यहां पर जो अपने वर्णोचित धर्म में स्थित होकर प्रेमपूर्वक मेरा दर्शन करेगा, वह चक्रवर्ती राजा होगा। फिर कलियुग के बीतने पर सत्ययुग प्रारंभ होने पर अपनी बड़ी सेना के साथ जो वीरसेन नामक प्रसिद्ध राजा होगा, वह मेरी भक्ति से अति पराक्रमी होगा, और यहां आकर मेरा दर्शन करेगा, और उसके फलस्वरूप चक्रवर्ती राजा बनेगा। इस प्रकार लीलाधारी शिव और पार्वती हासविलास करते हुए वहीं स्थित हो गए। शिव नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के नाम से और पार्वती नागेश्वरी नाम से प्रसिद्ध हुई।

मिथक कथा का अनुसंधानात्मक विश्लेषण

दारुक राक्षस अहंकार है। उसकी पत्नि दारुका राक्षसी बुद्धि है। उससे बहुत से विचार पैदा होते हैं। वे ही इन दोनों की राक्षस संतानें हैं। ये आदमी को इधर उधर भटकाते रहते हैं, उन्हें चिंता में डालते हैं, उनमें भय आदि अनेक दोष पैदा करते हैं। कई तो इन दोषाें के कारण मर भी जाते हैं। पश्चिम दिशा शरीर का पिछला हिस्सा है। वन बालों से भरे हुए मास्तिष्क क्षेत्र को कहा है, जो शरीर की पिछली तरफ ज्यादा फैला होता है। सागर मूलाधार क्षेत्र है क्योंकि दोनों ही सबसे नीची जगह पर स्थित होते हैं। यह मानसिक जंजाल मस्तिष्क में ही फैला होता है। अंहकार ही शरीर समेत इसकी भी रक्षा करता है। लोग इस जंजाल की शांति के लिए गुरुओं और ऋषियों के पास जाते हैं। ऋषि कहते हैं कि यदि मानसिक जंजाल लोगों को ऐसे ही भटकाता रहा तो वे काम कैसे कर पाएंगे। और अगर वे काम नहीं करेंगे तो कमाएंगे क्या और खाएंगे क्या। इससे शिकार बने लोगों के ही न रहने से शिकारी बना यह मनोजंजाल भी किसे परेशान करके खाएगा। इससे आश्वस्त होकर लोग इस मानसिक जंजाल को काबू में रख कर अपने अपने काम में लग जाते हैं। इसको ऐसा कहा है कि मौका जानकर देवताओं ने उनसे युद्ध छेड़ दिया, क्योंकि देवताओं के रूप में स्थित इंद्रियों से ही लोग कामकाज कर पाते हैं। अगर यह मानसिक जंजाल योग की मानसिकता से फिर प्रकट होता रहता है, तो इसके प्रति खुद ही साक्षीभाव बना रहता है, क्योंकि लोग अपने कामों में व्यस्त होते हैं। इससे यह नष्ट हो जाएगा। अगर न प्रकट होता रहे, तो अपनी सत्ता को कैसे कायम रखे, मतलब जिंदा कैसे रहे। इसको ऐसे कहा गया है कि अगर राक्षस देवताओं से युद्ध करें, तो भी मारे जाएंगे, और अगर न करें, तो खाएंगे क्या, इसलिए तब भी मारे जाएंगे। मतलब लोगों की परेशानी ही उनका भोजन है, और उससे बढ़ने वाला अज्ञान का अंधेरा ही उनकी बढ़ी हुई सेहत है। इसलिए मानसिक जंजाल सूक्ष्म या अव्यक्त या अवचेतन रूप में आकर छुप सा जाता है। एक प्रकार से यह मूलाधार रूपी अंधेरे समुद्र में छुप जाता है। समुद्र के बीच में, गहराई में अंदर अंधेरा ही होता है, क्योंकि वहां तक प्रकाश की किरण नहीं पहुंच पाती। जो भी आदमी जिंदगी से थक कर या परेशान होकर अवसाद में आ जाता है, वह एक प्रकार से मूलाधार रूपी समुद्र में नौका विहार करता है, यह सोचकर कि यहां पर दुनियादारी के जमीनी झमेले नहीं हैं। थोड़े समय तो उसे सुकून मिलता है, पर फिर वह अंधेरे अवचेतन मन की गिरफ्त में आ जाता है। हो सकता है कि किसी गरीबी, दुर्भिक्ष, महामारी, राजनैतिक या भौगोलिक संकट के दौर में बहुत से लोग सामूहिक रूप से परेशानी और अवसाद की चपेट में आ गए हों। इसे ही बहुत से लोगों का एकसाथ नौकाओं से समुद्र में उतरना कहा गया हो। अवचेतन मन की अमनस्कता से अनुभव होने वाला अंधेरा उन राक्षसों के द्वारा उसे अंधेरी जेल की कोठरी में डालना है। अंधेरे के रूप में ही वे राक्षस उसे परेशान करते हैं। अवचेतन मन में दबे हुए पुराने किए हुए कुकर्म जब गुस्से से भरे जीवों या मनुष्यों के रूप में महसूस होते हैं, शायद इसे ही राक्षसों द्वारा उन लोगों को फटकारना कहा गया हो। कईयों को मार देते हैं, मतलब कई लोग अवसाद से बीमार होकर मर जाते हैं, और कई आत्महत्या कर लेते हैं। कोई शिवभक्त उस अंधेरी अवस्था में मूलाधार पर कुंडलिनी का ध्यान करता है। उसके सत्संग से अन्य लोगों को भी लाभ मिलता है। जितना ज्यादा अंधेरा उस अवचेतन मन रूपी अंधेरी कोठरी में होता है, कुंडलिनी भी उतनी ही ज्यादा चमकती है। शायद इसी को ऐसा कहा गया है कि एक राक्षस ने भगवान शिव को प्रत्यक्ष देखा। अंधेरा रूपी जगत योगी को साधना से रोकता है। इससे उसके मन में न जगत का क्योंकि वह पहले ही जगत को छोड़ चुका है, और न ही साधना का, कहीं का भी प्रकाश नहीं बचा रहता। यह अवस्था मृत्यु के समान ही है। शायद इसे ही ऐसा कहा गया है कि दारुक रूपी लोगों के अहंकार ने राक्षसों रूपी सांसारिक विचारों और वस्तुओं के माध्यम से वैश्य को मरवाने का हुक्म दिया। इससे साधक जगत के डर के मारे या खुंदक में आकर अपनी साधना को और तेज बढ़ाता है, और अपनी कुंडलिनी को जागृत कर लेता है। शायद इसी को ऐसा कहा है कि उन राक्षसों के डर से वह वैश्य लगातार और जोर जोर से शिवकीर्तन करने लगा। फिर चार दरवाजों वाला मंदिर प्रकट होता है, और उसमें शिव विराजमान होते हैं। मूलाधार चक्र की भी चार पंखुड़ियां होती हैं। कुंडलिनी जागरण ही शिव का प्रत्यक्ष होना है। वह मानसिक जंजाल रूपी राक्षसों को ख़त्म करता है। दरअसल अवचेतन मन आत्मा के अंधकार के रूप में आत्मा से चिपका होता है। जब आत्मा में प्रकाश पैदा हो जाता है, तो वह खुद नष्ट हो जाता है।

पार्वती प्रकृति रूपा है। वह तो संसार का विस्तार चाहती है, जो तमोगुण के बिना संभव नहीं। दारुकी रूपी बुद्धि उनकी शक्ति है। मतलब बुद्धि से ही संसार का विस्तार होता है। बुद्धि ही सबसे बलशाली इंद्रिय है। वह अंहकार रूपी जीव को पति अर्थात अपना रक्षक बनाकर बहुत से राक्षस रूपी विचारों को पैदा करती है। जो विचार हैं, वे हस्तपाद आदि इंद्रियों से विवाह करके मतलब उनसे मिलकर व उनके सहयोग से किस्म किस्म की सांसारिक वस्तुएं पैदा करते हैं। वे सभी वस्तुएं ही उन राक्षसों और राक्षसियों के पुत्र कहे गए हैं। ये सभी रहते उसी वन रूपी मास्तिष्क में जो सूक्ष्मरूप में मूलाधार में जाकर बस जाता है। दुनियावी वस्तुएं बेशक बाहर लगें देखने में, पर सभी मस्तिष्क में ही होती हैं। उनको वहां रहने की आज्ञा बुद्धि से ही मिलती है, क्योंकि अगर वह चाहे तो वह योग आदि से उन सबको बाहर भी निकलवा सकती है। शिवलिंग, शिवमंदिर और शिवमूर्ति भी इसी वन का हिस्सा हैं, जो भक्तों की रक्षा करते हैं। जो आदमी वर्णोचित धर्म मतलब कर्मयोग का पालन करेगा और उससे उत्पन्न शक्ति से शिवरूपी कुंडलिनी से प्रेम करके उसे जागृत करेगा मतलब शिव के दर्शन करेगा, वह चक्रवर्ती राजा होगा, मतलब ऐसा जीवात्मा होगा जिसके सभी चक्र जागृत या क्रियाशील होंगे। कलियुग, सतयुग ये सब आदमी की अवस्थाएं हैं। कलियुग अवस्था मतलब आदमी की प्रतिस्पर्धा और भौतिकता से भरी दुनियादारी वाली अवस्था। जब तक यह अवस्था है, तब तक तो मन के दोष रहेंगे ही। जब आदमी विकसित होकर सत्ययुग वाली अवस्था में, मतलब आध्यात्मिक साधना वाली अवस्था में प्रवेश करता है, तब वह पराक्रमी योद्धा की तरह इन दोषों का वध करता है। ऐसा शिव की शक्ति से मतलब शिव के ध्यान से होता है। उससे उसको कुंडलिनी जागरण मतलब शिवदर्शन मिलता है, जो चक्रवर्ती राजा जैसी अवस्था है। क्योंकि मूलाधार चक्र कुंडलिनी शक्ति और सुषुम्ना नाड़ी सर्प से जोड़ी गई हैं, इसलिए मूलाधार में स्थित लिंग का नाम नागेश्वर और उससे जुड़ी शक्ति का नाम नागेश्वरी है। इससे जुड़ी वीरसेन राजा की रहस्यात्मक कथा क्या है, उसका वर्णन अगली पोस्ट में करेंगे।

शुभ दशहरा और राक्षस रावण दहन

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demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

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