कुंडलिनी शक्ति काठ की मछली के साथ गड्ढे में प्रवेश करके वहां शिव की पूजा करने से क्रियाशील होती है

शिव को नमन गुरु को नमन शिव ही गुरु हैं गुरु ही शिव हैं

मित्रो, निषध नामक सुंदर देश में क्षत्रियों के कुल में महासेन वीरसेन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो शिव का अत्यंत प्रिय था। वीरसेन ने पार्थिवेश शिव का अर्चन करते हुए 12 वर्षों तक कठिन तप किया। तब प्रसन्न होकर शिव ने राजा से कहा कि वह काठ की मछली बनाकर उस पर रांगे का लेप लगा कर और उसे योगमाया से संपन्न करके उसे दे रहे हैं। उसे लेकर वह उसी समय नौका से उस विवर में प्रवेष करके चला जाए। फिर वहां जाकर उनके द्वारा किए गए उस विवर में प्रविष्ट होकर नागेश्वर का पूजन कर के उनसे पाशुपतास्त्र प्राप्त कर इन दारुकी आदि प्रमुख राक्षसियों का विनाश करे। शिव ने फिर कहा,”मेरे दर्शन के प्रभाव से तुम्हें किसी प्रकार की कमी नहीं होगी। उस समय तक पार्वती का वरदान भी पूर्ण हो जाएगा, जिससे वहां जो अन्य मलेच्छरूप वाले होंगे, वे भी सदाचारी हो जाएंगे। तब शिव अंतर्धान हो गए। इस प्रकार ज्योतियों के पति लिंगरूप प्रभु नागेश्वर देव की उत्पत्ति हुई। वे तीनों लोकों की संपूर्ण कामना को सदा पूर्ण करने वाले हैं।

उपरोक्त मिथक का वैज्ञानिक विश्लेषण

निषध शब्द निषेध शब्द से बना है। वह देश जहां कुत्सित या अज्ञानपूर्ण यौनाचार का निषेध हो, वेदविरोध का निषेध हो, मर्यादाहीनता का निषेध हो, अकर्मण्यता का निषेध हो, कुकर्म का निषेध हो आदिआदि। हरेक आदमी राजा तो होता ही है, अपने देहरूपी देश का। महासेन मतलब जिसके साथ बहुत बड़ी सेना हो। मतलब जो संसार में जाना पहचाना, मशहूर और इज्जतदार आदमी हो, जिसके आगे पीछे बहुत से लोगों की भीड़ लगी रहती हो। वीरसेन मतलब उस संसाररूपी सेना में जो बहादुरी से समस्याओं का सामना करते हुए मानवता के वैदिक मार्ग से पीछे नहीं हटता। वह ध्यानयोग में भी प्रवीण था। इसका मतलब कि वह किसी के प्रेम में मस्त रहता था। प्रेम शिव से, किसी अन्य देवता से, गुरु से, प्रेमिका से किसी से भी हो सकता है। इसीलिए शिवभक्त कहा है क्योंकि शिव ध्यान और प्रेम के प्रतीक हैं। शरीर में 12 चक्र हैं। उन चक्रों पर उसने कुंडलिनी या शिवरूप का ध्यान किया। एक चक्र की साधना एक साल की मानो तो 12 सालों में 12 चक्र। जन्म से लेकर आदमी ऐसे ही विकास करता रहता है। जन्म के कुछ वर्षों तक आदमी मूलाधार चक्र की अज्ञानता के अंधेरे में रहता है। फिर किशोरावस्था आने पर हार्मोनल परिवर्तन के कारण वह स्वाधिष्ठान चक्र पर आ जाता है। युवावस्था में बलवृद्धि और प्रेमवृद्धि के कारण वह क्रमशः मणिपुर चक्र और अनाहत चक्र पर आ जाता है। प्रेम में और दुनिया के कामों में निपुणता के विकास से वह बोलचाल करने में और सौदेबाजी करने में भी निपुण हो जाता है। इसे कह सकते हैं कि उसकी चेतना विशुद्धि चक्र के स्तर पर पहुंच जाती है। फिर रोजगार के लिए उसे बुद्धि का बहुत प्रयोग करना पड़ता है। उससे वह आज्ञा चक्र पर आ जाता है। अपने रोजगार के पेशे में निपुण होने से वह कमाई के मामले में निश्चिंत सा हो जाता है, और वह अध्यात्म आदि के अभ्यास से अपनी मुक्ति के लिए प्रयास करने लगता है। इससे उसकी चेतना सहस्रार चक्र में आ जाती है। वैसे तो यदि आदमी को ढंग का माहौल मिले तो मात्र 17 18 साल की उम्र में वह अपनी कुंडलिनी को जागृत कर सकता है। पर इस कथा में सतयुग की बात हो रही है, इसलिए 12 साल लिखे हैं। उस समय शायद बालविवाह का प्रचलन भी था, जो 12 13 वर्ष की आयु तक हो जाया करता होगा। इसीलिए विवाह को ही सहस्रार जागरण की अवस्था मानी गई है, क्योंकि इसीसे मूलाधार से सहस्रार को सीधी और प्रचंड शक्ति मिलती है। पूरी कथा से भी यही स्पष्ट होता है, जिसमें बारह वर्ष की साधना के बीतने पर उसे मछली को विवर मतलब गड्ढे में प्रविष्ट कराने को कहा जाता है। थोड़ा गहराई से सोचने से इसका मतलब खुद ही समझ में आ जाता है। शिव ने ही हम सभी का और राजा वीरसेन का भी शरीर बनाया है। मतलब शिव ने ही शरीर के सभी अंग बनाए हैं, जिनमें मछली जैसे रूपाकार वाला जननांग भी शामिल है। काठ की मछली मतलब काठ भी मांस जैसा ही जैव पदार्थ है, और दोनों ही जीवित प्राणियों के घटक हैं, यह विज्ञान भी मानता है। शरीर में हार्मोनल सिस्टम और उससे उत्पन्न उत्तेजना जिससे उसमें कड़ापन आता है, यह सब कुछ भी परमात्मा शिव की ही बनाई हुई प्रणाली है। रांगा टिन धातु को कहते हैं। यह मध्यम सख्त होती है, लोहे जितनी ज्यादा भी नहीं, और ढीले मांस जितनी या काठ जितनी कम भी नहीं। इसी तरह शरीर में यौन विवर भी शिव ने ही बनाया होता है। विवर में जहां तक मछली प्रवेश करती है, विवर को वहीं पर खत्म मान लेना चाहिए। नौका तो पीछे रह जाती है। माया से युक्त मछली मतलब उसमें दिव्य यौन संवेदना होती है, जो किसी को भी मोहित कर सकती है। संभवतः वही अंग की शिखा है, बाकि हिस्से को तो नौका कहा गया है। अब जहां विवर खत्म हो गया, उसे ही मूलाधार रूपी गड्ढे का धरातल समझना चाहिए। यह दो अंगों के बीच में लगभग उसी स्थान पर पड़ता है, जहां योग शास्त्रों में मूलाधार चक्र का स्थान बताया गया है। मुझे तो यही असली मूलाधार लगता है, क्योंकि यही तो शक्ति देता है। बाकि विवरण तो मुझे प्रतीकात्मक या करीबी लगते हैं, असली नहीं। बाहर जहां मूलाधार चक्र के बिंदु की स्थिति दिखाई जाती है, वहां तो कोई अंधेरा गड्ढा नहीं होता। अंधेरा गड्ढा तो उसकी सीध में अंदर होता है। हालंकि जो तीव्र जननसंबंधी संवेदना के नाड़ीजाल अंदर स्थित होते हैं, उनका कुछ प्रभाव बाहर भी महसूस होता ही है। खैर, उस विवर में नागेश्वर लिंग का ध्यान करना, मतलब लिंग के ऊपर नागेश्वर शिवरूपी ध्यानचित्र का ध्यान करना। यह मैडिटेशन एट टिप नामक सर्वोच्च कोटि की तांत्रिक साधना ही तो है। नाग शब्द मूलाधार और उससे जुड़ी संरचनाओं को भी इंगित करता है। क्योंकि ये सब संरचनाएं परमात्मा शिव ने अपनी प्राप्ति के लिए बनवाई हैं, इसलिए उनका एक नाम नागेश्वर भी है। वहां शिव का पूजन करने से पाशुपत अस्त्र मिलेगा, मतलब अवचेतन मन रूपी गड्ढे में दबे राक्षस रूपी विचारों को उघाड़ने की शक्ति मिलेगी। उससे दारुक आदि प्रमुख राक्षसों का विनाश होगा, मतलब जो बुद्धि आदि और मन के मुख्य विचार हैं, वे बाहर निकलकर असली शून्यरूपी आत्मा में विलीन होते रहेंगे। ये ही हैं जो जागृति में मुख्यरूप से बाधा बनते हैं। अन्य छोटेमोटे अनगिनत विचार तो जागृति के बाद भी विलीन होते रहते हैं, उम्र भर। शिव के दर्शन मतलब जागृति के बाद किसी चीज की कमी नहीं रहती। दुनिया के लोगों का भी युगों की तरह चक्र होता है। वे कलियुग जैसे माहौल के बाद सतयुग जैसा माहौल बनाते हैं। वे ही मास्तिष्क के वन में भी होते हैं। उनके सदाचार के सहयोग से राक्षसों को मारना ज्यादा आसान हो जाता है। ऐसी ही अनुकूल परिस्थितियां मिलती रहें तो आसानी होती है। इस कथा को पढ़कर बिल्कुल भी नहीं लगता कि ऋषिमुनियोँ ने कामसुख का अनुभव नहीं किया होता था, जैसा कि अक्सर आम धारणा में दिखने को मिलता है। बल्कि इसके विपरीत ऐसा लगता है कि वे गृहस्थ अवस्था में पूर्ण होकर ही बाद की वानप्रस्थ और संन्यास जैसी वैराग्यमय अवस्थाओं में यह सब दुनिया की भलाई के लिए लिख पाए।

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demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

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