दोस्तो, शिवपुराण में एक कथा आती है कि एक बार रावण नाम का अभिमानी राक्षस कैलाश पर्वत पर शिव की भक्तिपूर्वक अराधना करने लगा। जब उससे शिवजी प्रसन्न नहीं हुए तब उसने दूसरा उपाय किया। वह हिमालय पर्वत के दक्षिण में वृक्षों से भरी भूमि में एक उत्तम गर्त बनाकर उसमें अग्नि स्थापित करके उसके समीप में शिवजी की स्थापना कर हवन करने लगा। वह गर्मी के मौसम में पंचाग्नि के बीच बैठकर, वर्षाकाल में चबूतरे पर बैठकर और शीतकाल में जल के भीतर रहकर, तीन प्रकार से तप करने लगा। इस प्रकार उसने घोर तप किया, तब भी दुष्टात्माओं के लिए दुराराध्य शिव प्रसन्न नहीं हुए। फिर रावण ने अपने सिर काटकर शिव का पूजन प्रारंभ किया। इस प्रकार उसने एक एक करके नौ सिर काट डाले। तब उसका एक सिर रहने पर सदाशिव प्रसन्न होकर उसके सम्मुख प्रकट हुए। शिव ने उसके सिरों को पहले की तरह स्वस्थ करके उसको मनोवांछित फल और अतुल बल प्रदान किया। फिर रावण ने हाथ जोड़कर शिव से कहा,”स्वामी कृपया मेरे साथ लंकापुरी चलिए, मैं आपकी शरण में हूं”। इससे शिवजी ने संकट में पड़कर खिन्न मन से उससे कहा कि बेशक वह उनके श्रेष्ठ शिवलिंग को ले जाए पर वह जहां भी उसे भूमि पर रखेगा वह वहीं स्थापित हो जाएगा। पर रास्ते में रावण को लघुशंका की इच्छा हुई। उसने पास खड़े गोप को उसे पकड़ाया और लघुशंका चला गया। गोप उसके भार को ज्यादा देर नहीं सह सका इसलिए उसे वहीं भूमि पर रख दिया। इस प्रकार वज्रसार से उत्पन्न वह लिंग वहीं स्थित हो गया, जो दर्शनमात्र से पापों को दूर करने वाला और सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। उसका नाम वैद्यनाथेश्वर पड़ा जो भोग और मोक्ष देने वाला है और सभी पापों को नष्ट करने वाला है। रावण फिर घर चला गया। सभी देवताओं ने इकट्ठे होकर उस लिंग की पूजा और स्थापना की। सभी देवता और मुनि चिंता में पड़कर नारद के पास जाकर कहने लगे कि यह दुष्ट रावण पहले ही उन्हे बहुत परेशान करता है, शिव का वरदान पाकर तो वह उन्हें और ज्यादा दुखी करेगा। रावण उनकी सहायता करने के लिए रावण के घर गए और उसकी झूठी प्रशंसा की। नारद के पूछने पर रावण ने शिववरदान वाले सारे घटनाक्रम को गर्व के साथ सुनाया कि कैसे वह शिव को प्रसन्न करने के तरीके की उग्रता बढ़ाता रहा और जब वह अपना दसवां और अंतिम सिर काटने लगा तो शिव ने प्रकट होकर उसे रोका और एक वैद्य की तरह उसके सभी सिर पहले की तरह जोड़ दिए। साथ में उसको अतुल बल का वर भी दिया। रावण ने फिर कहा कि अब वह ज्योतिर्लिंग का पूजन करके तीनों लोकों को जीतने के लिए घर आया है। नारद ने हंसते हुए उससे कहा कि शिव तो विकारी हैं, भांग के नशे में मस्त से रहते हैं, क्या झूठ नहीं कह देते, इसलिए वह उन पर विश्वास न करे। ऐसा कहकर उन्होंने रावण को कैलाश को उखाड़ने के लिए भड़काया और कहा कि उससे शिव के वरदान की परीक्षा हो जाएगी। उसने वैसा ही करते हुए कैलाश पर्वत को अपनी भुजाओं पर उठा लिया। इससे कैलाश पर स्थित सबकुछ हिलने लगा और सभी चीजें आपस में टकराकर गिरने लगीं। शिव ने जब आश्चर्यपूर्वक पार्वती से इस बारे पूछा तो उन्होंने व्यंग्य कसते हुए जवाब दिया कि उनका उत्तम शिष्य रावण ही वह सब कुछ कर रहा था। इससे शिव ने रावण को कृतघ्न और बल से दर्पित समझकर श्राप दिया कि शीघ्र ही उसकी भुजाओं का घमंड दूर करने वाला कोई वहां उत्पन्न होगा। नारद ने शिव का श्राप सुन लिया और रावण भी कैलाश को नीचे रखकर प्रसन्नचित होकर अपने घर चला गया। इस प्रकार शिव के वरदान को सत्य मानकर रावण ने अपने बल से सारे जगत को वश में कर लिया। शिव की आज्ञा से प्राप्त महतेजस्वी दिव्यास्त्र से युक्त उस रावण की बराबरी करने वाला उसका कोई भी शत्रु उस समय नहीं था।
उपरोक्त मिथक का मनोवैज्ञानिक स्पष्टीकरण
रावण का मतलब है, रुलाने वाला। जो आदमी मन के दोषों से भरा हुआ है, वह दुनिया को रुलाता ही है, हंसाता नहीं। मतलब कि वह सबको दुख ही दे सकता है, सुख नहीं। जब लोग उसका प्रतिकार करते हैं, तो वह उनका मुकाबला नहीं कर पाता। इसलिए वह उनसे मुकाबले के लिए शक्ति प्राप्त करने के लिए आम भाषा में टोना टोटका अर्थात मस्तिष्क या सहस्रार में शिव का ध्यान करता है। दोषी लोगों को अक्सर शिव ही पसंद आते हैं, क्योंकि उन्हें शिव भी अपनी तरह दोषों से भरे दिखते हैं। साधारण ध्यान से शिव कहां प्रसन्न होने वाले। शिव तो अपने प्रति संपूर्ण समर्पण मांगते हैं। इसे चाहे शिव की इच्छा समझ लो या जागरण का सिद्धांत कि केवल एकमात्र शिव की छवि को या किसी भी छवि को मन में बसाने से ही वह जागृत होती है अभी रावण के अंदर बहुत से दोषपूर्ण विचार थे, इसीलिए शिव के रूप की छवि पर उसका अच्छे से प्रगाढ़ ध्यान नहीं लग पा रहा था। फिर उसने शिव की प्रेरणा से दूसरा उपाय मतलब वाममार्गी तांत्रिक उपाय किया। दूसरा वही हो सकता है, जो पहले वाले से बिल्कुल अलग हो। पहला यदि शुद्ध वैष्णव था, तो दूसरा अपने आप तांत्रिक सिद्ध हो गया। यह वह दूसरा नहीं है जो संख्या का बोध कराता है, बल्कि वह वाला है जो अन्यत्व या विपरीतत्व का बोध कराता है। हिमालय अगर मस्तिष्क या सहस्रार है और उसे उत्तर में माना जाए, क्योंकि हिमालय की भौगोलिक स्थिति भी भारत के उत्तर में ही है, तो उसका दक्षिण भाग मूलाधार क्षेत्र ही हुआ। उस क्षेत्र में किया गड्ढा ही मूलाधार है। एक विशेष जातिवर्ग का जो गड्ढा नामक शक्तिशाली देवता है, वह शायद मूलाधार की ही शक्ति से बनता है, तभी उसका नाम गड्ढा है। वह जादू टोने, और काले कारनामों के लिए कुख्यात है। कहते हैं कि उससे कोई नहीं, केवल हनुमान ही बचा सकते हैं। शायद हनुमान की सात्त्विक शक्ति उसकी तामसिक शक्ति को हरा देती होगी। उस गड्ढे में रावण ने अग्नि स्थापित की मतलब उसने सांसों के प्राणायाम से अपने प्राणों को वहां केंद्रित किया। उसके समीप शिवजी की स्थापना मतलब वहां शिव की मूर्ति या चित्र का ध्यान किया। हवन मतलब प्राणों की अग्नि में अपने शरीर में जमा ग्लूकोज, वसा आदि जलाने लगा, जिससे शक्ति या ऊर्जा पैदा होती है। शरीर को आपातकाल के समय मूलाधार स्थित कुंडलिनी शक्ति की जरूरत पड़ती है, जिससे वह सक्रिय हो जाती है। इसीलिए गर्मी में पांच किस्म की अग्नि का ताप सहना, वर्षा ऋतु में चबूतरे पर बैठना और शीत ऋतु में पानी के अंदर गले तक डूबकर साधना करना बताया गया है। मूलाधार के सक्रिय होने से ही दुख या कष्ट की घड़ी में प्रेमी प्रेमिका याद आते हैं। इसीलिए प्रेमी जोड़े सुखदुख में और मरते समय भी साथ साथ रहना पसंद करते हैं। अधिकांश धर्मों में इसीलिए तप को और सुखसुविधाओं पे नियंत्रण को महान माना गया है। फिर भी रावण के सामने शिव प्रकट नहीं हुए क्योंकि वह दुष्टात्मा था, और इन्द्रियों के दोषों से भरा हुआ था। अंतःकरण चार प्रकार के सूक्ष्म अंगों से बना है, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। इसी तरह ज्ञानेंद्रियां पांच सूक्ष्म अंगों या तत्त्वों से बनी हैं, आंख, कान, घ्राण, त्वचा और जननेन्द्रिय। इन सभी नौ अंगों को रावण ने बारी बारी से निष्क्रिय कर दिया। इसे ही रावण के द्वारा अपने नौ सिर कटना कहा गया है। क्योंकि हरेक अंग से एक अलग किस्म का ज्ञान प्राप्त होता है, इसलिए हरेक अंग को कथा में एक पृथक सिर माना गया है। जब वह अंतिम दसवां सिर मतलब अपना असली सिर, जिसके सहारे बाकि सभी सिर हैं, को काटने की तैयारी करने लगा तो शिव प्रकट हो गए। इसका मतलब है कि वह साधना करते हुए इतना कमजोर हो गया था कि मरने के करीब था, तभी उसको जागृति मिली। जब आदमी “करो या मरो” वाली स्थिति में होता है, तब उसे सफलता मिलने की अधिकतम संभावना होती है। फिर शिव ने उसके सिर पहले जैसे करके उसे मनोवांछित वर दिए मतलब रावण फिर से दुनियादारी में लौटने के योग्य हो गया। दुनियादारी में सभी इंद्रियों की और अंहकार की भी जरूरत पड़ती है। वैसे भी शायद रावण को जागृति की क्षणिक झलक मात्र मिली थी, इसी वजह से वह एकदम पहले जैसा हो गया। जितना कुछ आदमी चाह सकता है, या पा सकता है, उसकी सर्वोपरि सीमा जागृति ही है। जब जागृति मिल गई तो जैसे सबकुछ मिल गया। यही शिव का उसे मनोवांछित फल और अतुल बल देना है। बल शस्त्रों की और सत्ता की प्राप्ति से पैदा होता है। ये सब भी तो जागृति की प्राप्ति के अंतर्गत ही आते हैं। डरता वह है, जिसे कुछ पाने को शेष बचा हो। शून्य भय मतलब अमित बल, क्योंकि बल होता ही निर्भयता की प्राप्ति के लिए है। रावण मूलाधार में जागृत की हुई शक्ति को अपने पसंदीदा चक्र तक ले जाना चाहता था। इसी को ऐसा कहा गया है कि वह शिवलिंग को अपनी सोने की लंका को ले जाना चाहता था। शायद यह शरीर का कोई विशेष चक्र या बिंदु है, जो हमें ज्ञात नहीं है, और जिसको जागृत करके अतुलनीय राक्षसी बल प्राप्त होता है। इसीलिए शिव दुखी हुए क्योंकि वह उसका दुरुपयोग कर सकता था। गोप कहते हैं ग्वाले को अर्थात गाय चराने वाले को, और गाय कहते हैं इंद्रिय को। रावण उस वीर्य शक्ति को किसी निकट वाले चक्र तक ही ले जा सका था कि वह लघुशंका के लिए चला गया। इससे मूलाधार से संबंधित इंद्रिय शिथिल हो गई, और शक्ति वहीं रह गई, क्योंकि इस इंद्रिय से ही शक्ति को ऊपर चढ़ने का बल मिलता है। जहां बीच में किसी विशेष चक्र पर शक्ति फंसी रह गई वह भी अज्ञात चक्र लगता है। उसे वैद्यनाथेश्वर लिंग नाम दिया गया। कथा में कहा गया है कि वह लिंग वज्रसार से बना हुआ था। यह भी इस ओर इशारा करता है कि वह सबलाइमड या वाष्पित वीर्यशक्ति थी। रीढ़ की हड्डी से वज्र बनता है, इसलिए उसका सार उसमें सुषुम्ना से होकर गुजरने वाली शक्ति ही है, जो जागृति रूपी वज्र प्रहार करके अज्ञान रूपी वृत्रासुर राक्षस को मारती है। वह संवेदना शक्ति मूलाधार में बनती है, जिसको बनाने में वीर्यसार का मुख्य योगदान होता है। क्योंकि शिव ने एक वैद्य की तरह रावण के सभी सिर जोड़ दिए थे, इसीलिए उस लिंग का नाम वैद्यनाथेश्वर पड़ा। सभी देवता इसकी पूजा करने पहुंच गए। इससे एक संकेत मिलता है कि यह लिंग शक्ति चाहे कहीं पर भी हो, पर मस्तिष्क के जीवात्मा के द्वारा अनुभव होने वाले क्षेत्र में नहीं पहुंची थी। केवल इसी क्षेत्र पर जीव का अपना पूरा नियंत्रण होता है, देवताओं का नहीं। मतलब इस क्षेत्र में जीव की इच्छा चलती है। शरीर के अन्य सारे हिस्से देवताओं के नियंत्रण में होते हैं। जैसे कि हम अपनी इच्छा से घूम फिर सकते हैं, सोच सकते हैं, काम कर सकते हैं, पर खाना नहीं पचा सकते, दिल नहीं धड़का सकते, और भी शरीर के अनगिनत काम नहीं कर सकते। शायद यह स्वेच्छा वाला क्षेत्र सहस्रार ही है। अगर शक्ति वहां पहुंच जाती, तो रावण दुनिया का कितना अहित न करता। मन ही नारद मुनि है। रावण के मन को जागृति के बाद अहसास हुआ कि अब वह देवताओं को जी भर कर परेशान कर सकता है। यही देवताओं का नारद मुनि से शिकायत करना है। इससे उत्साहित रावण के मन ने सोचा कि क्यों न वह एकबार फिर सहस्रार में जाकर देख ले कि उसे सच में शक्ति मिली है। वह शिव की भक्ति में डूबा हुआ था और हर चीज में शिव को ही देख रहा था, बेशक स्वार्थ के वशीभूत होकर। अचानक उसके सहस्रार में जाने से उसका वह शिवभक्ति का प्रवाह रुक गया, क्योंकि सहस्रार में अद्वैत का माहौल है, और जहां अद्वैत होता है, वहां भक्ति नहीं होती। भक्ति द्वैत में ही होती है। इसलिए थोड़े समय के लिए शिव की भक्ति से संबंधित सांसारिक वस्तुएं गिर गईं। इसी को ऐसा कहा है कि कैलाश में सबकुछ उलटपुलट हो गया। कैलाश को यहां भक्तिभाव से भरा मस्तिष्क जानना चाहिए और उसको ऊपर उठाने को सहस्रार क्षेत्र। जो ज्यादा ही अद्वैत भाव में रहता है, वह दुनियावी द्वैत से भरा प्रेमपूर्वक भाईचारा नहीं जानता। इससे उसमें अहंकार भी पनप सकता है। इससे स्वाभाविक है कि उसके दुश्मन भी बहुत हो जाते हैं, जिनमें से कोई उसका काल भी बन सकता है। इसी को शिव के द्वारा नाराज होकर शाप देना कहा गया है। इससे देवता खुश हो गए, क्योंकि अगर सभी पूरे अद्वैतवादी बन गए तो उनकी बनाई हुई दुनिया कैसे चल पाएगी। सुना है कि भारत के प्राचीन मंदिरों में और गुफाओं में कामुक चित्र इसलिए बनाए गए थे, क्योंकि अद्वैतवाद की लहर से लोग घरबार छोड़कर जंगल को जा रहे थे। अब पता नहीं यह विश्लेषण कितना सही है, पर कथा को वैज्ञानिकता के साथ कुंडलिनी योग में फिट बैठाने के लिए और याद रखने के लिए जरूरी लगता है।
शिव के दर्शन को कुंडलिनी जागरण के इलावा और क्या कह सकते हैं, क्योंकि दोनों ही सर्वोच्च उपलब्धियां हैं। सर्वोच्च उपलब्धि एक ही हो सकती है, दो नहीं, इसलिए दोनों एक ही हैं। ऐसा भी हो सकता है कि देव दर्शन ध्यान की ऐसी प्रगाढ़ अवस्था हो जिसमें देवता स्पष्ट सामने दिखते हों और उनसे बात भी हो सकती हो। बेशक यह कुंडलिनी जागरण रूपी सर्वोच्च स्तर से थोड़ा सा नीचे हो। क्योंकि अगर देवदर्शन ही कुंडलिनी जागरण होता तो देवदर्शन से कम से कम किसी एक राक्षस को तो सद्बुद्धि मिलती, पर देखने में तो यह आता है कि किसी को भी नहीं मिली, बल्कि उल्टा जो थी वह भी गई शक्ति के घमंड से। दूसरा, कुंडलिनी जागरण की अवस्था में तो कोई कुछ मांग ही नहीं सकता क्योंकि परम के साथ पूर्ण एकता महसूस होने से आदमी को अपनी पूर्णता भी महसूस होती है, फिर मांगने को बचा ही क्या। उधर देवदर्शन के दौरान तो राक्षस देवता के सामने लंबा चौड़ा मांगपत्र रख देते थे। खैर, अगर दोनों अनुभव मिलते जुलते भी हैं, तब भी इस कहानी से इस मान्यता का भी खंडन हो जाता है कि जागृत व्यक्ति कोई गलत काम नहीं कर सकता। वास्तव में जागृति से अच्छा काम करने की प्रेरणा मिलती है, पर इसकी कोई गारंटी नहीं कि अच्छा ही काम होगा। यह ऐसे ही है कि किसी को महान व्यक्ति की संगति मिले पर वह उसकी प्रेरणा को नजरंदाज करके कोई महान काम न करे। अच्छे या बुरे काम के लिए संस्कार, मानसिकता, व अभ्यास जिम्मेदार होते हैं। इस कथा से यह पता भी लगता है कि जैसे अच्छे काम शक्ति से होते हैं, वैसे ही बुरे काम भी शक्ति से ही होते हैं। शक्तिहीन तो कुछ भी नहीं कर सकता। खुराफाती लोगों में बहुत शक्ति होती है। यदि उनकी शक्ति को सही दिशा में मोड़ा जाए तो वे सबसे जल्दी जागृत हो सकते हैं। शायद रावण के साथ भी यही हुआ था। वह खुराफाती था पर अधिक शक्ति की आकांक्षा से शिव की पूजा करने लगा। खुराफाती लोगों का दिमाग एकदम फल चाहता है, वैसे ही जैसे चोर कमाई का इंतजार नहीं कर सकता, इसलिए किसी चीज को एकदम पाने के लिए उसकी चोरी करता है। वैसे ही जब रावण को पूजा से कोई लाभ मिलता नहीं दिखा तो उसने दूसरा तरीका अपनाया। मतलब शातिर दिमाग को आम जनसमुदाय की तरह सीधा, धीमा, आदर्शवाद वाला और साधारण तरीका कब पसंद आने लगा। इसलिए उसने टेढ़ा, तेज, आदर्शविहीन और असाधारण तांत्रिक तरीका अपनाया। शायद तांत्रिक तरीके की सफलता से वह इस भ्रम में रहा होगा कि वह तो यौन क्रिया में निपुण है, और किसी के साथ भी बिना रोकटोक के कर सकता है। इसी भ्रम के कारण ही उसने कुबेर की होने वाली पुत्रवधु रंभा अप्सरा का शील भंग किया होगा, और इसी भ्रम में आकर उसने सीता हरण किया होगा, जिस वजह से वह सीतापति राम के हाथों मारा गया।
मुझे लगता है कि रावण का अपना घर सहस्रार चक्र था, क्योंकि वहीं आत्मा का निवास माना जाता है। इसीलिए लंका को सोने की नगरी कहा जाता है। चीनी ताओ दर्शन में गोल्डन फ्लावर मेडिटेशन के अंतर्गत गोल्डन फ्लावर आज्ञा चक्र पर महसूस होता है। आज्ञा चक्र भी सोने की लंका हो सकती है क्योंकि रावण जैसा अहंकारी आदमी सहस्रार जैसे दिव्य स्थान में तो रहने नहीं वाला, बेशक भौतिकवादी और बुद्धिवादी आज्ञा चक्र में जरूर रह सकता है। एक पौराणिक कथा आती है कि लंका से एक कमल के नाल जैसी सुरंग पाताल लोक को जाती थी। यह बताता है कि लंका एक चक्र था जो नाड़ी से मूलाधार से जुड़ा था, क्योंकि मूलाधार को अक्सर पाताल कहा जाता है। लंका को त्रिकूट पर्वत मतलब तीन पर्वत शिखरों के बीच में बताया गया है। अगर एक शिखर को बाईं भौंह वाली हड्डी मानें, दूसरे शिखर को दाईं वाली और तीसरे को नाक की हड्डी मानें तो लंका आज्ञा चक्र ही लगती है।
शिव को पता था कि रावण स्वभाव से ही दुष्ट है, इसलिए अगर उसकी बुद्धि को शिवलिंग का तेज मिल गया तो वह और ज्यादा दुष्ट बनेगा। ऐसा भी हो सकता है कि सहस्रार ही उसका घर हो, पर वह उसकी दिव्यता का दुरुपयोग करता था। इसका मतलब है कि यह जरूरी नहीं है कि सहस्रार पर जाकर आदमी खुद सज्जन बन जाए। प्रयास तो उसे तब भी करना पड़ेगा। कई विशेष धर्मों के अधिष्ठाता शायद सहस्रार को जगा कर हमेशा उसमें स्थित रहते थे, पर उन्होंने धर्म और ईश्वर के नाम पर अंतहीन नरसंहार करवाया, जो आजतक जारी है। ऐसे लोग अगर बिगड़ जाएं तो कालस्वरूप ही होते हैं। कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता क्योंकि वे खुद परम पद पर स्थित होते हैं। संभवतः इसीलिए प्राचीनकाल में ब्रह्मविद्या को गुप्त रखा जाता होगा। अब परमाणु बम भी गुप्त नहीं रहा, अब किस बात का डर। मुझे यह भी लगता है कि जो जागृति के लिए तंत्र आदि से जबरदस्ती प्रयास करते हैं, उन्हें क्षणिक या आंशिक जागृति ही मिलती है, जैसी रावण को मिली, पूर्ण जागृति नहीं। रावण उसी पूर्ण जागृति को शिव से मांग रहा था, जिसको ऐसा कहा गया है कि वह शिवलिंग को स्थायी तौर पर अपने घर में रखना चाहता था। पर शिव ने उसे अनाधिकारी जानकर ऐसा नहीं होने दिया। मतलब जागृत बनने से पहले इंसान बनना पड़ता है।
इस कहानी को थोड़ा सा और ट्विस्ट भी दे सकते हैं। रावण अहंकार ही है। दसवां सिर अंहकार रूप ही था। उसे काटने का प्रयास मतलब वह बहुत कमजोर हो गया था और ख़त्म ही होने वाला था कि शिव प्रकट हो गए। मतलब अहंकार के शून्य होने से तो आदमी मर ही जाएगा, फिर जागृति किसे और कैसे मिलेगी। शिव का दर्शन देना मतलब बचेखुचे अंहकार का शिव में विलीन हो जाना है, नष्ट होना नहीं। रावण की लंका मूलाधार भी है, क्योंकि यह समुद्र के बीच में है, और ज्यादातर कथाओं में मूलाधार को समुद्र के रूप में दिखाया गया है। रावण रूपी दस इंद्रियां सीता रूपी शक्ति को हर के लंका रूपी मूलाधार में ले जाती हैं। मतलब कि दस इन्द्रियों से आदमी दुनियादारी में भटकता है। इससे दुनिया के चित्र उसके मन में शक्ति के नाम से व्यक्त रूप में आ जाते हैं, और फिर शीघ्र ही अवचेतन मन में अव्यक्त रूप में दब कर दर्ज हो जाते हैं। यही सीता रूपी शक्ति का लंका रूपी मूलाधार को जाना है। अब पाठक कहेंगे कि पहले आज्ञा चक्र को लंका बोला, और अब मूलाधार चक्र को बता रहे हैं। इसमें कोई विरोधाभास नहीं है, क्योंकि मूलाधार और आज्ञा चक्र सीधे आपस में जुड़े हैं।
यह शंका भी हो सकती है कि पहले मन को ब्रह्मा कहा था, और अब नारद मुनि को बोल रहे हैं। इसमें भी कोई विरोधाभास नहीं है। नारद मुनि ब्रह्मा के पुत्र हैं, मतलब ब्रह्मा रूपी संपूर्ण मन का एक छोटा सा भाग ही नारद रूप