दोस्तो, मत्स्यपुराण की मूल व मुख्य कथा में आता है कि पूर्वकाल में आत्मज्ञानी सूर्यपुत्र महाराज वैवस्वत मनु ने पुत्र को राज्य सौंप कर मलयाचल के एक भाग में घोर तप किया। उससे उन्हें उत्तम योग की प्राप्ति हुई। उनके तप करते हुए करोड़ों वर्ष बीतने पर ब्रह्मा ने प्रकट होकर वर मांगने को कहा। इस पर मनु ने यह वर मांगा कि वह प्रलय होने पर सभी जीवों की रक्षा करने में स्मर्थ हो जाए। ब्रह्मा ने यह वर दे दिया। एकबार आश्रम में पितृ तर्पण करते हुए मनु को हथेली पर जल के साथ ही एक मछली आ गिरी। उसे उन्होंने दयावश कमंडलु में डाल दिया। एक ही दिनरात में वह सोलह अंगुल बड़ी हो गई और रक्षा कीजिए रक्षा कीजिए कहने लगी। तब राजा ने उसे मिट्टी के घड़े में डाल दिया। वहां भी वह मत्स्य एक ही रात में तीन हाथ बढ़ गया। फिर वह ऐसा ही कहने लगा कि वह उनकी शरण में है, रक्षा करें। तब मनु ने उस मत्स्य को कुएं में रखा। वहां वह फिर से एक योजन बड़ा हो गया। और वही कहने लगा। तब मनु ने उसे गंगा में छोड़ा। जब वह वहां भी विशाल हो गया तो मनु ने उसे समुद्र में डाल दिया। मनु ने डर के पूछा कि क्या वह कोई असुरराज या भगवान हैं। तब मत्स्य रूप में भगवान ठीक है, ऐसा कहते हुए बोले कि उसने उन्हें पहचान लिया है। भगवान बोले, “राजन, थोड़े समय में पर्वत, वन और काननों सहित यह पृथ्वी जल में निमग्न हो जाएगी। इसलिए सभी जीवों की रक्षा के लिए देवताओं ने इस नौका का निर्माण किया है। सभी जीवों को इस पर चढ़ाकर तुम इसकी रक्षा करना। जब युगांत वायु से आहत होकर यह नौका डगमगाने लगेगी, उस समय तुम उसे मेरे सींग में बांध देना। फिर प्रलय की समाप्ति में तुम जगत के सभी प्राणियों के प्रजापति होओगे। इस प्रकार कृतयुग के प्रारंभ में सर्वज्ञ और धैर्यशाली नरेश के रूप में तुम मन्वंतर के अधिपति होओगे। उस समय देवगण तुम्हारी पूजा करेंगे। फिर मनु ने कुछ प्रश्न किए जिसका जवाब मधुसूदन ने निम्न प्रकार से दिया। आज से लेकर सौ वर्ष तक इस भूतल पर वृष्टि नहीं होगी। इससे भयंकर दुर्भिक्ष पड़ेगा। फिर उस युगांतक प्रलय के उपस्थित होने पर तपे हुए अंगार की वर्षा करने वाली सूर्य की सात भयंकर किरणें सभी जीवों को संतप्त करने लगेंगी। बड़वानल भी बहुत भयानक रूप ले लेगा। पाताल लोक से ऊपर उठकर संकर्षण के मुख से निकली हुई विषाग्नि तथा भगवान रुद्र के ललाट से उत्पन्न तीसरे नेत्र की अग्नि भी तीनों लोकों को भस्म करती हुई भभक उठेगी। इस तरह जब सारी धरती जलकर राख का ढेर बन जाएगी और गगनमंडल ऊष्मा से संतप्त हो उठेगा, तब देवताओें और नक्षत्रों सहित सारा जगत नष्ट हो जाएगा। उस समय सात प्रकार के मेघ अग्नि के प्रस्वेद से उत्पन्न हुए जल की घोर वृष्टि से धरती को डुबो देंगे। तब सातों समुद्र क्षुब्ध होकर एकमेक हो जाएंगे, और तीनों लोकों को एकार्णव में परिवर्तित कर देंगे। उस समय तुम इस वेदरूपी नौका को ग्रहण करके इस पर सभी जीवों और बीजों को लाद देना तथा मेरे सींग में बांध देना। ऐसे में जब सारा देवसमूह भी भस्म हो जाएगा, तब भी तुम मेरी शक्ति से जिंदा रहोगे। इस आंतर प्रलय में सोम, सूर्य, मैं, चारों लोकों सहित ब्रह्मा, नर्मदा नदी, महर्षि मार्कंडेय, शंकर, चारों वेद, विद्याओं द्वारा घिरे हुए पुराण और तुम्हारे साथ यह विश्व (नौकारूप), ये ही बचे रहेंगे। चाक्षुष मन्वंतर के प्रलय काल में जब इसी प्रकार सारी पृथ्वी एकार्णव में निमग्न हो जाएगी और तुम्हारे द्वारा सृष्टि का प्रारंभ होगा, तब मैं वेदों का पुनः उद्धार करूंगा। ऐसा कह कर मत्स्य भगवान अंतर्धान हो गए।
मत्स्य पुराण के मुख्य मिथक कथानक का पर्दाफाश
सूर्यपुत्र आत्मा को कहा गया होगा, क्योंकि प्रकाशमान सूर्य को अक्सर साक्षात परमात्मस्वरूप कहा जाता है। मनु मतलब एक मनुष्य। मलयाचल मतलब सफेद चंदन का वृक्ष। करोड़ों वर्ष बीत गए तप करते हुए मतलब मनुष्य साधारण जीव से करोड़ों वर्षों के दौरान विकसित हो कर बना है। ब्रह्मा का वर देना मतलब कुदरती तौर पर उस काबिल होना क्योंकि कुदरत में सबकुछ ब्रह्मा ही करता है। प्रलय होने मतलब आदमी के मरने पर वह सभी जीवों की रक्षा करने में मतलब प्रजनन से नए आदमी पैदा करने में समर्थ हो जाए। मछली शक्ति को कहा है। उसे इसलिए भगवान कहा गया है क्योंकि शिव और शक्ति में तत्त्वतः कोई अंतर नहीं है। वह वही कुंडलिनी शक्ति है जो मूलाधार से ऊपर चढ़कर तेजी से बढ़ते हुए उस शेषनाग का रूप ले लेती है, जो पूरे शरीररूपी महासागर में व्याप्त हो जाता है। नौका शायद प्रजनन इंद्रिय को कहा है। क्योंकि देवताओं ने ही शरीर के सभी अंगों का निर्माण किया है। वह युगांतक वायु मतलब प्राणवायु से डगमगाने मतलब क्रियाशील हो जाएगी। उसे मछली के सींग से मतलब मछली की तरह मुंह वाले अंग से के अगले भाग में बांधा। प्रलय की समाप्ति पर मतलब बच्चे के जन्म पर सभी प्राणियों के पिता हो जाओगे, क्योंकि सभी प्राणियों सहित संपूर्ण सृष्टि आदमी के मन में ही है। मन्वंतर मतलब मनुष्य का अंतर। एक मनुष्य के मरने के बाद जब उसका दूसरा मनुष्य जन्म हुआ तो वही मन्वंतर हुआ। वह दूसरा जन्म कृतयुग या सतयुग है, क्योंकि एक मनुष्य जन्म में बिगड़ा मनुष्य अपने अगले जन्म में अक्सर सुधर जाता है। युगों का चक्र जैसे बाहर घूमता है, वैसे ही भीतर भी। मन्वंतर के अधिपति मतलब पिता। सर्वज्ञ इसलिए क्योंकि उसे उस नए मनुष्य के पिछले जन्म के बारे में सब ज्ञात है, बेशक सूक्ष्म या अवचेतन रूप में। धैर्यशाली इसलिए क्योंकि नई सृष्टि की उत्पत्ति मतलब नए मनुष्य के विकास में बहुत समय लगा, जिसका मनु ने बखूबी इंतजार किया। देवगण पूजा करते हैं पिता की। पुत्र का शरीर देवताओं से बना हुआ होता है। पुत्र पिता की सेवा या पूजा करेगा, मतलब देवगण पूजा करेंगे। सौ वर्ष ही मनुष्य का जीवनकाल होता है। उस दौरान उसके मन में जो सृष्टि होती है, वह बिना वर्षा के होती है, क्योंकि वर्षा स्थूल जगत में होती है, मस्तिष्क में उसके सूक्ष्म रूप में नहीं। इसी को दुर्भिक्ष कहा है। फिर सौ साल की उम्र पूरी होने पर आदमी की मृत्यु के रूप में प्रलय का वर्णन है। शरीर का ज्वर सात प्रकार का होता है। इसे ही सूर्य की सात किस्मों की किरणें कहा गया है। बड़वानल मतलब समुद्र में अग्नि। शास्त्रों में मूलाधार को समुद्र की उपमा दी गई है। उसमें आग मतलब उसमें शिवशक्ति का ध्यान, जैसा रावण ने किया था। बड़वानल को शास्त्रों में घोड़े का रूप दिया गया है। घोड़े की आकृति कुछकुछ ड्रेगन से मिलती जुलती है। इसका मतलब कि कुंडलिनी शक्ति ही बड़वानल है, जो अश्व जैसी आकृति की नाड़ी से होकर ऊपर चढ़ती है। इसीलिए बड़वानल का शत्रु पर अस्त्र की तरह प्रयोग भी दिखाया जाता है। शक्ति ही अस्त्र की तरह होती है। वैसे भी घोड़े पीठ में सुषुम्ना नाड़ी के ठीक ऊपर शरीर की केंद्रीय रेखा में पीठ पर पूंछ से सिर, यहां तक कि कुछेक जातियों में भ्रूमध्य बिंदु तक विशेष बाल होते हैं। शायद इसीलिए घोड़े में तेज दिमाग होता है। आपातकाल में या मुसीबत में शरीर को शक्ति देने के लिए मूलाधार सक्रिय होने लगता है। मरते हुए आदमी की सांसें तेज और गहरी हो जाती हैं। उन सांसों के बल से मूलाधार की शक्ति भी तेजी से ऊपर चढ़ने लगती है, और सुषुम्ना नाड़ी से होकर ऊपर उठकर पूरे मस्तिष्क में फैलकर शेषनाग अर्थात संकर्षण का रूप ले लेती हैं। मुंह से बाहर निकलती हवा ही उसकी विषाग्नि है। विष इसलिए कहा है क्योंकि प्राचीन लोगों को पता था कि अगर बाहर की ताजा हवा न मिले तो अपनी ही छोड़ी हवा में सांस लेने से दम घुटने से मौत हो जाती है। जब शक्ति ऊपर चढ़ेगी तो स्वाभाविक है कि वह आज्ञा चक्र पर कांसेंट्रेट हो जाएगी। यही अग्नि उगलता शिव का तीसरा नेत्र है। क्योंकि इन दोनों किस्म की घटनाओं के बाद मृत्यु हो जाती है, इसलिए कहा गया है कि इससे शरीर जलकर राख बन जाएगा। वैसे भी मृत शरीर को जलाते ही हैं। ज्वर के बाद पसीना अर्थात प्रस्वेद पड़ता है। सात प्रकार के ज्वर से सात प्रकार का पसीना हुआ। उन्हें ही सात किस्म के समुद्र कहा गया है। सब समुद्र इकट्ठे हो गए मतलब अंत में शरीर पूरी तरह से ठंडा पड़ जाता है। मन समेत पूरा शरीर समुद्र मतलब मूलाधार में सूक्ष्मरूप में समा जाता है। मतलब कोई आदमी मर गया। मृत व्यक्ति का अपना सारा संसार सूक्ष्मरूप में रूपांतरित होकर होने वाले पिता मतलब मनु के मूलाधार में स्थित हो जाता है। श्य मतलब शयन करने वाला। मनु के मूलाधार में शयन करने वाला प्राणी ही मनुष्य हुआ। उसी मूलाधार रूपी समुद्र में एक इंद्रिय रूपी नौका स्थित होती है। उसी नौका पर वह सूक्ष्म रूप में स्थित मृत व्यक्ति को जीवों और बीजों मतलब वीर्य के रूप में चढ़ाता है। बीज भी जीव ही है। मछली आदि की आगे की कहानी तो खुद ही समझ में आ जाती है। क्योंकि शरीर नष्ट हो गया, इसलिए देवता भी नष्ट हो गए। मृत व्यक्ति के सांस न लेने से वायुदेव नष्ट हो गए, गर्मी न पैदा करने से अग्नि देवता नष्ट हो गए, और रक्तसंचार न करने से जल देवता। ये तीन मुख्य देवता हैं। अन्य भी विभिन्न अंगों से संबंधित सभी देवता नष्ट हो गए। कुछ शाश्वत चीजें जैसे सोम, सूर्य, और मैं (ईश्वर रूपी मत्स्य), मार्केंडेय, नर्मदा आदि बताई हैं। शायद ये ऐसी चीजें हैं जो परमात्मा के सनातन स्वरूप से जुड़ी हुई हैं। सोम मतलब मन संघात, सूर्य मतलब आत्मा आदि। सूक्ष्म शरीर में तो वैसे सबकुछ ही होता है, पर इसे सूक्ष्म विश्व के रूप में बताया गया है संक्षेप में। सूक्ष्म शरीर विश्वरूप ही होता है, क्योंकि यही इंद्रियों से शरीर में घुसकर दबकर सूक्ष्म हो जाता है। शरीर को हम विश्व को दबाने वाली मशीन कह सकते हैं। विस्तार से कहें तो सूक्ष्म शरीर में आत्मा, बुद्धि, मन, इंद्रियां आदि बताई गई हैं, पर यह केवल दार्शनिक विस्तार है, क्योंकि ये सभी चीजें विश्व के अंतर्गत ही आती हैं। जब मनु के द्वारा सृष्टि रूपी गर्भ स्थापित कर दिया जाएगा, तब भगवान हयग्रीव बन कर वेदों को राक्षस से छुड़ाकर लाएंगे, जिसे अगली पोस्ट में बताएंगे। इस तरह जब मत्स्य भगवान नौका को महासागर में खींच रहे थे, उस समय वे मनु को ज्ञान विज्ञान की बातें बता रहे थे, जिनसे मत्स्य पुराण बन गया। वैसे तथाकथित मत्स्य की क्रियाशीलता से शक्ति खुद ही सुषुम्ना में क्रियाशील रहती है जो नए नए ज्ञानविज्ञान के अनुभव प्रदान करती रहती है। जैसे सृष्टि का हरेक कण भगवत रूप है, वैसे ही शरीर का हरेक अंग और कण भी है।
क्योंकि तप और योगसाधना से ही शक्ति तेजी से ऊपर चढ़ती है, इसीलिए जल तर्पण करते हुऐ ऋषि के हाथ में आई। तर्पण में एक पवित्र तांबे के चम्मच से जल हाथ पर गिराया जाता है। मछली हाथ में मतलब शक्ति अनाहत पर महसूस होती है, क्योंकि तर्पण के समय दिल से दृढ़ भावना की जाती है। शक्ति को इंद्रियां दुनिया में उलझा कर एक प्रकार से खा जाती हैं। यही मछली का हिंसक जलचरों से डरना और मनु से सुरक्षा मांगना है। इससे मनु ने एनर्जी कल्टीवेशन का अभ्यास शुरु किया। वह शक्ति जब बढ़ी तो नाभि चक्र रूपी कमंडलु को उतरी। और बढ़ने पर वह मूलाधार रूपी कुएं को उतरी। वहां बढ़ने पर वह बैक चैनल यानि सुषुम्ना मतलब गंगा से ऊपर चढ़ी। इस प्रकार वह फन ऊपर को उठाए शेषनाग की तरह विस्तृत हो गई। उसे फिर आगे के चेनल से नीचे मूलाधार रूपी समुद्र को उतारा गया। मतलब विशाल मत्स्य को समुद्र में छोड़ दिया गया।
मुझे लगता है कि कुंडलिनी जागरण को ही रूपक के तौर पर देवदर्शन के रूप में दिखाया जाता है। जिस बात को मन में लेकर आदमी कुंडलिनी साधना में लगता है, वह जागृति मिलने पर पूरी हो जाती होगी। इसी को रूपक के तौर पर ऐसा कहा गया है कि देवता ने प्रकट होकर वरदान दिया। योग के अनुसार शुद्ध वैज्ञानिक और सैद्धांतिक कुंडलिनी जागरण तो ऐसा होता है कि आदमी मानसिक ध्यान चित्र के साथ एकाकार होकर और पूरा खुलकर अनंत रूप हो जाता है, उस चित्र से कोई बात वगैरह नहीं होती। ऋषिमुनि मन में अच्छा ध्येय रखकर साधना करते थे, पर राक्षस बुरा ध्येय रखकर। मनु के मन में सृष्टि रक्षा का ध्येय था, जैसा हरेक पिता के मन में होता है। पर रावण के मन में सारी दुनिया को पराजित करने का ध्येय था। इसलिए उनके मुंह से वैसे ही वरदान की मांग निकली। मनु को कुंडलिनी जागरण ही हुआ था, जब उसने कई करोड़ योजन विस्तार के आकार वाले मत्स्य को देखा। एक करोड़ योजन लगभग 13 करोड़ किलोमीटर के बराबर होता है, जो लगभग पृथ्वी से सूर्य की दूरी है। ऐसे कई दूरियों के विस्तार वाले मत्स्य को देखना कुंडलिनी जागरण के इलावा अन्य कुछ नहीं लगता। मत्स्य इतना फैल गया मतलब नाग के आकार वाली शक्ति सहस्रार से होकर पूरे ब्रह्मांड में फैल गई। शक्ति शिव के साथ एक हो गई। क्योंकि किसी ध्यान चित्र के बिना ही मनु की शक्ति जागृत होकर अनंत में फैल गई, इसीलिए शिव, विष्णु, गणेश आदि किसी देवता से मनु को वरदान मांगते नहीं दिखाया गया है, पर सीधे ही मत्स्य के रूपक में ढाली शक्ति से मांगते या उससे मदद लेते दिखाया गया है। इसका मतलब है कि मत्स्य पुराण अन्य पुराणों से काफी पुराना हो सकता है। उस समय शायद ध्यान चित्र के लाभों की खोज नहीं हुई थी, और लोग सीधे ही आध्यात्मिक कार्य किया करते थे। ध्यान चित्र तो वैसे अध्यात्म से खुद ही बनता है, पर शायद उसे जागृत करने लायक विशेष बल नहीं देते थे, क्योंकि इसके वैज्ञानिक सिद्धांत का पता न होने से इस पर पूरा विश्वास नहीं था। जिस जल से भरे गढ्ढे की गहराई का पता न हो, आदमी उस पर अपनी कार नहीं ले जाता। इससे लंबे समय से इकट्ठी हो रही आध्यात्मिक ऊर्जा खुद ही अचानक से आश्चर्य जागृति की झलक के रूप में महसूस हो जाती थी। पतंजलि का वैज्ञनिक अष्टांग योग बाद में लिखा गया होगा, जिससे ध्यान चित्र के महत्त्व का और उससे शीघ्रता से जागृति के बारे में पता चला होगा। इसीलिए पुराणों में हर जगह ध्यान और ध्यान चित्र का बोलबाला है। इसी के आधार पर बाद में रामायण भी लिखी गई, जिसमें ऋषि राम को ध्यान चित्र बना कर लंका रूपी मूलाधार में भेजा जाता है, जहां से वह सीता रूपी सोई हुई कुंडलिनी शक्ति को सुषुम्ना रूपी पुष्पक विमान से उठाकर सहस्रार रूपी अयोध्या में लाकर जागृत कर देते हैं।
यह भी हो सकता है कि जागृति के बाद रूपांतरण को ही प्रलय के बाद नई सृष्टि पैदा होना दिखाया गया हो। जागृति को वैसे भी नया जन्म ही कहते हैं। इसीलिए तो मनु उस प्रलय में मरता नहीं है। मस्तिष्क में पुराना सबकुछ खत्म हो जाता है, पर उसका सूक्ष्म बीज रहता है, तभी तो वह नए रूप में फिर से जन्म ले लेता है। इसका मतलब है कि जैसे पुरानी सृष्टि समय के साथ विकृत और दुख से भरी हो गई थी, उसी तरह नई भी हो सकती है। इसीलिए तो जागृति के बाद भी संभल के रहना पड़ता है और निरंतर योगसाधना करते रहना पड़ता है ताकि नई सृष्टि विकृत होने से बची रहे। मत्स्य रूपी शक्ति उसके रूपांतरण में मदद करती है। रूपांतरण के दौरान आदमी नई नई और अच्छी चीजें सीखता है, इसे ही मत्स्य भगवान द्वारा मनु को मत्स्य पुराण सुनाना कहा गया है। दोनों किस्म के विश्लेषण भी सही हो सकते हैं, क्योंकि पुराणों की कथाएं अक्सर बहुअर्थी होती हैं।
मलय सफेद चंदन को कहते हैं। मलयाचल मतलब सफेद चंदन के वृक्षों से भरा पर्वत। यह मस्तिष्क ही लगता है। इसी में प्रकाशमान और आनन्दमय संकल्प चित्र उभरते हैं। ध्यान मास्तिष्क में ही होता है। मछली ध्यानचित्र का प्रतीक भी हो सकता है। संकल्प जल का गिराना कुंडलिनी शक्ति का माइक्रोकॉस्मिक ऑर्बिट में घूमने का प्रतीक है। इसलिए शक्ति के घूमने से एक ध्यान चित्र खुद ही मनु की पकड़ में आ गया, मतलब हाथ में आ गया। बोलते भी हैं कि फलां चीज या मछली उसके हाथ लग गई या उसके जाल में फंस गई। पुराण आम बोलचाल के शब्दों का ही ज्यादा प्रयोग करते हैं। ध्यानचित्र रूपी मछली शक्ति रूपी जल में ही जीवित रहती है। वह ध्यानचित्र तांत्रिक साधना से बहुत तेजी से बढ़ता है। हाथ अनाहत चक्र से जुड़ा होता है। यह चक्र दिल का और भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है। जिस प्रेम से कुंडलिनी योग का प्रारंभ होता है, वह हृदय में ही उपजता है। इसी प्रेम मिश्रित दयाभाव से उसने दिल में महसूस हुए मछली रूपी इष्टचित्र को संभाल कर कमण्डलु मतलब उससे निचले चक्र मणिपुर चक्र को उतार दिया। जब दिल में ध्यान मजबूत हो जाता है, तब वह खुद ही नाभि को उतरता है। कहते भी हैं कि प्यार के बाद भूख लगती है। नाभि का आकार भी कमण्डलु मतलब पूजा के पवित्र लोटे की तरह टेढ़े मेढ़े गड्ढे के जैसा होता है। संसारसागर में भौतिक दोष रूपी बड़े बड़े मांसाहारी मतलब दुखदायी मच्छ होते हैं, जिनसे उसे बचाना पड़ता है। प्रेम से उसका ध्यान जारी रखने से वह तेजी से बढ़ता ही गया। इससे वह खुद ही घड़ा रूपी स्वाधिष्ठान चक्र को उतर गया। वैसे भी इस चक्र को बैगेज मतलब बैग या घड़े जितने आकार का कंटेनर ऑफ इमोशंस कहते हैं। वहां भी वह मनु के प्रेम से बढ़ता गया, इससे वह मूलाधार रूपी कुएं को उतर गया। सबसे बड़ा गड्ढा मूलाधार ही है, और कुएं से बड़ा गड्ढा क्या हो सकता है। वहां से वह मनु की योगसाधना से बढ़कर सुषुम्ना से होते हुए वह कुंडलिनी शक्ति के साथ ऊपर चढ़ गया। इसीको मनु के द्वारा मत्स्य को गंगा में डालना कहा गया है। कथा के शुरु में ही लिखा है कि मनु को तप करते हुए उत्तम योग की प्राप्ति हुई। इससे इशारा मिलता है कि यह कुंडलिनी योग का ही वर्णन हो रहा है, क्योंकि कुंडलिनी योग सभी प्रकार के योगों में सर्वोत्तम है। गंगा से वह मत्स्य समुद्र यानि सहस्रार चक्र को चला गया। कई लोग बोलेंगे कि पहले मूलाधार को समुद्र बोला और अब सहस्रार को बोल रहे हैं। इसमें कोई विरोधाभास नहीं है। दोनों सुषुम्ना नाड़ी से सीधे आपस में जुड़े हुए हैं। मूलाधार और सहस्रार, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सहस्रार पहुंचते ही उसका आकार फन उठाए विशाल नाग की तरह हो गया। मतलब मनु को कुंडलिनी जागरण हुआ, जिससे उसका रूपांतरण शुरु हो गया।