शिवपुराण में गौतम ऋषि और उनकी पत्नि अहल्या की एक मिथक कथा आती है। उन्होंने दस हजार वर्षों तक दक्षिण दिशा में ब्रह्मगिरि पर्वत पर तप किया।100 वर्षों तक वहां पर अनावृष्टि पड़ी। एक भी हरा पत्ता नहीं दिखता था। फिर प्राणियों को जिलाने वाला पानी कहां मिलता। सारे मुनि, मनुष्य, पशुपक्षी दसों दिशाओं को भाग गए। कुछ ऋषि प्राणायाम व ध्यान करके उस भयंकर काल को बिताने लगे। गौतम ने भी प्राणायाम के साथ 6 माह तक तप किया। इससे उनके सामने वरुण देव प्रकट हुए और उन्होंने उनसे वर्षा का वर मांगा। वरुण ने कहा कि वे दैव की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकते। फिर गौतम ने उनसे अक्षय, दिव्य तथा नित्य फल प्रदान करने वाला जल मांगा। वरुण ने गड्ढा खोदने को कहा। गौतम ने एक हाथ का गड्ढा खोदा। वरुण ने उसे दिव्य जल से भर दिया। वरुण ने कहा कि इस स्थान पर किया गया कोई भी धार्मिक और उत्तम कर्म अक्षय होगा। गौतम ने उस दुर्लभ जल से नित्य नैमित्तिक कर्म संपन्न किए। उन्होंने वहां पर हवन के लिए विविध धान्य बोवाए। वहां विविध फलफूल वाले वृक्ष पैदा हो गए। ऐसा देखसुन वहां अन्य हजारों ऋषि आ गए और सपरिवार गृहस्थ धर्म से रहने लगे। एकदिन जल लेने आई ऋषिपत्नियों ने जल लेने आए गौतमशिष्यों को जल लेने से यह कहकर रोका कि पहले वे जल ग्रहण करेंगी। शिष्यों ने जब गौतमपत्नी अहिल्या से शिकायत की तो वे खुद उनके साथ जल लेने चली गईं और जल लाकर ऋषि को दिया, जिससे उन्होंने अपना नित्य कर्म संपन्न किया। उन ऋषिपत्नियोंं ने गौतमपत्नी को फटकारा और घर लौटकर अपने पतियों से उल्टी सीधी शिकायत की। ऋषियों ने क्रुद्ध होकर गणेश की तपस्या की और उनके द्वारा गौतम ऋषि का नुकसान करवाने का वर जबरदस्ती ले लिया। मजबूर होकर गणेश एक बहुत कमजोर गाय बनकर गौतम का उगाया साग खाने लगे। गौतम के तिनकों से हटाते ही वह मर गई। उससे सभी ऋषि खुश होकर ऋषि को गौहत्यारा कहकर कोसने लगे। उन्होंने गौतम को अपने इलाके से निकल जाने का आदेश दिया और उन्हें पत्थरों से मारने लगे। साथ में यह भी कहा कि जबतक उन्हें गौहत्या का पाप लगा है, तब तक वे कोई धार्मिक कार्य नहीं कर सकते। जब गौतम ने माफी मांगी तब ऋषियों ने उन्हें यह प्रायश्चित करने को कहा कि वह अपने गौहत्या के पाप का डंका बजाते हुए तीन बार पृथ्वी का चक्कर लगाए। फिर वहां वापिस आकर मासव्रत को करे और उसके बाद उस ब्रह्मगिरि पर्वत की परिक्रमा करे, और फिर गंगाजल के सौ घड़ों से स्नान करके पुनः पार्थिवपूजन करे। या इसके बदले में उन्हें वहीं पर गंगा को लाकर उसमें स्नान करने, फिर शिव के एक करोड़ पार्थिव लिंग बनाने और उनकी पूजा करने, फिर 11 बार ब्रह्मगिरि की परिक्रमा करने, और फिर गंगाजल के सौ घड़ों से स्नान करके पुनः पार्थिवपूजन करने को कहा। गौतम और अहल्या ने वह दूसरा तरीका अपनाया, और उनके शिष्य उस दौरान उनकी सेवा करते रहे। फिर प्रसन्न होकर शिवपार्वती प्रकट हुए और वर मांगने को कहा तो गौतम ने उनसे अपने पाप खत्म करने का वर मांगा। शिव ने कहा कि उनका भक्त कभी पापी नहीं रह सकता। साथ में गौतम को उन कुटिल ऋषियों की सारी करतूत बताई और पूछा कि वे उन्हें क्या दंड दें। गौतम ने उन्हें यह कहकर क्षमा करने को कहा कि अगर वे कुटिलता न करते तो उन्हें उनके दर्शन न होते। इससे शिव बहुत प्रसन्न हुए और फिर वर मांगने को कहा। गौतम ने यह वर मांगा कि इन ऋषियों का वचन झूठा न होए।
उसके बाद पृथ्वी तथा स्वर्ग के सारभूत जिस जल को निकालकर पूर्व में रख लिया था, और विवाहकाल में ब्रह्मा द्वारा दिया गया जो कुछ शेष जल बचा था, उसे शिव ने उन मुनि को दिया। वह गंगाजल स्त्री के रूप में प्रकट हुआ। गौतम ने उन्हें प्रणाम करके उनसे अपने को पवित्र करने की याचना की। शिव ने भी गंगा से निवेदन किया। फिर गंगा ने गौतम के परिवार को पवित्र करके अपनी वापसी बारे बताया। गंगा को रोकते हुए शिव ने उन्हें वैवस्वत मन्वंतर के अठाईसवें कलियुग तक वहीं निवास करने को कहा। फिर गंगा ने कहा कि वह तभी धरती पर निवास करेगी अगर यहां उसका माहात्म्य सबसे ज्यादा रहेगा। साथ में उसने शिव से अपने गणों व पार्वती के सहित अपने निकट निवास करने का निवेदन किया। इस पर शिव बोले कि वह उससे पृथक नहीं हैं, क्योंकि वह उनकी शक्ति हैं, फिर भी वे वहां निवास करेंगे। तभी देवता सहित सभी दिव्य आत्माएं वहां आए, जो गौतम, शिव और गंगा की जयकार करने लगे। शिव ने प्रसन्न होकर देवों से वर मांगने को कहा। तो देवों ने शिव और गंगा से वहीं निवास करने का निवेदन किया। तब गंगा ने देवों से पूछा कि वे कैसे उसकी विशिष्टता बनाए रखेंगे। तब देवों ने कहा कि जब बृहस्पति सिंह राशि पर रहेंगे, तब वे सभी लोग उसके समीप रहेंगे। तथा 11 वर्षों तक लोगों के पाप धोने से जब वे मलिन हो जाएंगे, तो उसे धोने के लिए उनके पास आएंगे। वहां पर वह गंगा गौतमी नाम से तथा शिवलिंग त्र्यंबक नाम से प्रसिद्ध हुए। उपरोक्त मुहूर्त के दौरान देवों के साथ सभी दिव्य आत्माएं वहां आते हैं, और जब तक वहां रहते हैं, तब तक फल नहीं मिलता, मतलब वहां से वापिस जाने पर ही फल मिलता है।
गंगा ब्रह्मगिरि पर्वत से प्रकट हुईं थीं। जब गूलर वृक्ष की शाखा से उसकी धारा निकली, तब गौतम, उनके शिष्यों, और अन्य सभी आए हुए लोगों ने उसमें स्नान किया। तभी से उस क्षेत्र का नाम गंगाद्वार पड़ा। उसका दर्शन करने से सभी पाप नष्ट होते हैं। जब गौतम का बुरा करने वाले वे ऋषि भी नहाने पहुंचे, तब गंगा अंतर्धान हो गई। जब गौतम ने गंगा से प्रकट होने के लिए विनती की तो गंगा ने कहा कि वे कपटी ऋषि पहले आपकी आज्ञा से इस पर्वत की 101 बार परिक्रमा कर के प्रायश्चित करे, तभी ये उसके दर्शन कर सकते हैं। जब उन्होंने यह कर लिया, तब उनके लिए गौतम के द्वारा नामित गंगाद्वार के नीचे वाले स्थान कुशावर्त में गंगा फिर प्रकट हुईं। यहां नहाने वाला सभी पापों को त्यागकर दुर्लभ विज्ञान प्राप्त कर शीघ्र मोक्ष का अधिकारी बन जाता है।
उपर्युक्त मिथक का स्पष्टीकरण
होता क्या है कि पुराणों की कथाओं से अनासक्ति के साथ दुनियादारी की आदत पड़ती है। क्योंकि ये सच भी लगती हैं, और बनावटी भी। इसलिए इनके प्रति अनासक्त बुद्धि बनी रहती है। इसीलिए इनमें आनंद होता है। कोई बोलेगा कि ऐसी तो हैरी पॉटर की कहानियां भी हैं। पर वे मुख्य उद्देष्य से रहित हैं। मुख्य उद्देष्य है कुंडलिनी जागरण। पुराणों की मिथक कथाएं योग, कुंडलिनी और जागृति के वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित होती हैं, इसलिए इनका अध्ययन करने वाले को अनजाने में ही इनकी तरफ ले जाती हैं। ऋषि गौतम की ये कथा मुझे मिश्रित आध्यात्मिक व भौतिक लगती है। ऐसा नहीं है कि पुराने लोगों में समझ कम थी, इसलिए एक ही साधारण योग पर अनगिनत शास्त्र बना दिए। बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि योग से आदमी का उम्र भर और हरपल संपर्क बना रहना चाहिए। एक ही बात को बारबार पढ़कर आदमी ऊब सकता है, इसलिए योग को विविध रूपाकार वाली अनगिनत कथाओं और गतिविधियों में ढाला गया। उदाहरण के लिए शिव रूपी ध्यान चित्र तो सुषुम्ना में गुजर रही शक्ति के निकट खुद ही सैद्धांतिक रूप में बना रहता है। इसी को कहा है कि शिव ने गंगा को उनके निकट रहने का वचन दिया। संभवतः कुंडलिनी शक्ति ध्यानचित्र को इसलिए लगती है, क्योंकि यह यौन आधारित है, और सब जानते हैं कि यौन संबंधी मामले अतीव घनिष्ट संबंधी या प्रेमी के सामने ही उजागर किए जाते हैं। सबसे नजदीकी व घनिष्ट प्रेमी मानसिक ध्यानचित्र ही है। भौतिक वस्तु या व्यक्ति से तो लज्जा महसूस होती है, साथ में अपने ऊपर उनके व्यक्तित्व की छाप भी पड़ सकती है। पर गुरु या देवता पृथक व्यक्तित्व से रहित या परमात्मा रूप ही होते हैं, इसलिए वे आदमी के अपने व्यक्तित्व में बाधा नहीं डालते, अपितु उसे और ज्यादा सुधारने में अप्रत्यक्ष या मूक मदद ही करते हैं। इसीलिए अधिकांशतः उन्हें ही ध्यान चित्र बनाया जाता है। वैसे तो कोई भी चीज हो सकती है, क्योंकि हरेक शुद्ध मनसिक चीज पवित्र है, अपवित्रता तो भौतिकता से आती है। इसीलिए ऐसे चित्र को कुंडलिनी चित्र भी कह सकते हैं। सुषुम्ना से होकर शक्ति सीधी सहस्रार को जाती हैं, जहां अद्वैतभाव का साथी एकाकी कुंडलिनी चित्र ही होता है। इसीलिए इन कुंडलिनी आधारित कथाओं को शास्त्रीय कथाएं या पुस्तकें कहते हैं। संगीत तो कुछ भी हो सकता है, पर जो बहुत सोचविचार के और प्रत्यक्ष अनुभव से बना है और आदमी को उसके चरम लक्ष्य तक ले जाने में मदद करे, वही शास्त्रीय संगीत है। इसी प्रकार शास्त्रीय नृत्य, खेल आदि कुछ भी सांसारिक गतिविधि हो सकती है।
वर्षा वह है जिसमें ज्ञानरूपी या शक्तिरूपी जल की भरमार होए। ऐसा तो कोई देवता नहीं कर सकते, क्योंकि जब चारों ओर भौतिकता और दुष्टता का बोलबाला हो, तब देवता उसमें क्या कर सकते हैं, क्योंकि लोगों की सोच कोई भी जबरदस्ती नहीं बदल सकता। हां, देवता दर्शन देकर अपने भक्त को कुछ ऐसा करने की सलाह दे सकता है, जिससे बाहरी माहौल का बुरा असर उस पर न पड़े। इसलिए वरुण देव गौतम मुनि को एक हाथ का गड्ढा खोदने की सलाह देते हैं। यह मूलाधार को क्रियाशील करना ही है, जिसमें सोई हुई कुंडलिनी शक्ति रूपी जल दबा होता है। वही लुप्त सा जल इसमें भर जाता है। वैसे वे पहले भी प्राणायाम व ध्यान से गुजारा चला रहे थे, पर यह जागृति रूपी वर्षा के सामने नाकाफी था। सौ वर्ष का अकाल बताना आम बात है पुराणों में। शास्त्रों में सी वर्ष ही आदमी की उम्र कही गई है। सौ वर्ष तक जागृति न होना ही सौ वर्ष का अकाल लगता है मुझे, जिससे जीवों की मृत्यु बताई जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि सभी जीवों सहित सारी सृष्टि आदमी के दिमाग में ही होती है। दिमाग मर गया मतलब सभी मर गए। गहरे गड्ढों में तो भूमिगत जल भर भी जाता है, पर एक हाथ की लंबाई मतलब 10 या 12 इंच के गड्ढे में तो कभी खुद से पानी भरते नहीं दिखा। अगर ऐसा होता तो उसके लिए तप करके वरदान क्यों मांगते, पहले ही खोद देते। वैसे भी साधारण जल अक्षय फल देने वाला और दिव्य भी नहीं होता। इसका मुझे यह मतलब भी लगता है कि अंधेरे गड्ढे में मतलब एकांत में, सुखसुविधाओ और सांसारिक प्रवृत्तियों से दूर रहकर साधना करना, जिससे दुनिया में खर्च होने से बची हुई ऊर्जा, जो अंधेरे में कैद रहती है, वह सारी कुंडलिनी चित्र को चमकाने में खर्च होए, और साथ में उसे सम्भोगतंत्र का अतिरिक्त बूस्टर बल भी मिले जिससे वह तेजी से जागृत हो जाए, दुनियादारी के झंझट दुबारा शुरु होने से पहले ही। कई बार क्या होता है कि दुनियादारी से दूर रहने का थोड़े से ही समय का मौका मिलता है। उस दौरान अगर कछुआ या साधारण चाल से साधना की गई, तो जागृति नहीं मिल पाती। गौतम ऋषि को देशनिकाला देकर ऋषियों ने अप्रत्यक्ष रूप से उनका भला ही किया था, तभी वे एकांत में तीव्र साधना से कुंडलिनी को जागृत कर सके। उस सीमित समय में न कर पाते तो नए देश में उनकी नई दुनिया बन जाती और वही पुरानी कहानी शुरु हो जाती। क्योंकि नए देश में घुलनेमिलने से पूर्व ही उन्होंने जागृति प्राप्त कर ली, इसलिए उनकी उपलब्धि देखकर पुराने देशवासियों ने उन्हें वापिस अपने बीच बुला लिया। ये कथाएं ऊपर से देखने पर अजीब लगती हैं, पर गहराई से देखने पर परम व्यावहारिक व हितकारी नजर आती हैं। ऐसा आम आदमी के साथ अक्सर होता है। जो आदमी असल में आध्यात्मिक रूप से कर्म करता हुआ उसके माध्यम से आध्यात्मिक संदेश देता रहता है, उससे दुनिया वाले तो क्या, परिवार वाले व रिश्ते नाती भी जलते हैं, और उससे लड़ाई का बहाना ढूंढते रहते हैं। असल में इसलिए कह रहा हूं क्योंकि नकली, ढोंगी और पाखंडी किस्म के धार्मिक लोगों की जयजयकार होती रहती है। फिर उसे अपने बीच से भगाकर ही उन्हें चैन महसूस होता है। हालांकि वे धोखे में होते हैं, क्योंकि दिया हटने से वे अंधेरे में जा रहे होते हैं। जब दूर एकांत में वह जागृत हो जाता है, तब उसके पुराने विरोधी लोग तो जैसे गायब ही हो जाते हैं, पर दिल से उसके लिए नरमी रखने वाले कुछ पछताते दिखते हैं। पर जागृत व्यक्ति के मन में उन विरोधियों के प्रति कोई नाराजगी नहीं होती, क्योंकि उन्हीं की अप्रत्यक्ष वजह से उसे जागृति मिली होती है। ऐसा बहुतों के साथ होता है क्योंकि यही दुनियावी सिद्धांत है, इसीलिए पुराणों में लिखा गया है। केवल खाली कथा लिखने से क्या लाभ।
मुझे लगता है कि उस समय गौतम नाम के या परिवर्तित नाम वाले व्यक्ति ने मूलाधार से दुनियावी सुखों समेत जागृति को प्राप्त करने की खोज की होगी। इन खोजों को ऐसे ही अप्रत्यक्ष या मिथक कथाओं के रूप में वर्णित किया गया होगा, ताकि लोग इन्हें गलत न समझें या इनका दुरुपयोग न करें। ऐसे ऋषि वैज्ञानिक ही होते थे, सत्य की खोज करने वाले अध्यात्मवैज्ञानिक। उनसे सीखकर अन्य ऋषियों ने भी ऐसा ही किया मतलब सभी को जल मिल गया। पहले वे जल मतलब ज्ञान या शक्ति की खोज में इधर उधर भाग गए। वैसे भी पुराने जमाने में लोग ज्ञान की खोज में दूर दूर तक जाया करते थे। आगे की कहानी कि जल पर झगड़ा हुआ आदि आदि, यह लगता है कि सामान्य भौतिक घटनाओं को जोड़ा गया है कथा को रोचक बनाने के लिए, जिसका अध्यात्म से ज्यादा संबंध नहीं। हो सकता है कि इनका भी कोई गूढ़ रहस्य हो। फिर शिव प्रकट हुए। गौतम ने शिव से अपने दुश्मनों को क्षमा करने का निवेदन किया। यह स्वाभाविक है कि जब आदमी दुनिया के द्वारा दुत्कारा और सताया जाता है, तभी वह एकांत में ध्यान व तप कर पाता है। शिव के ध्यान से उनकी जागृति तो हो गई, पर अब उस जागृति के प्रभाव को जीवनभर निरंतर बना के रखना था। यह ताउम्र सुषुम्ना की क्रियाशीलता से ही संभव हो सकता था। इसी को गंगा का अवतरण और योग आदि के द्वारा इसे स्थायी तौर पर बने रहना बताया गया है। क्षणिक जागृति तो बिना सुषुम्ना के अनुभव से भी हो जाती है, पर दैनिक क्रियाकलाप में सुषुम्ना का अपना महत्त्व है, क्योंकि यह निरंतर शक्ति की आपूर्ति करती रहती है। इसी शक्ति से पाप नष्ट होते रहते हैं।
मुझे लगता है कि पौराणिक कथाओं पर संदेह करना चाहिए। इससे आदमी अपना दिमाग हर तरफ दौड़ाता है कि इसका मतलब क्या हो सकता है। इससे उसके आगे अनजाने में ही रहस्यों के द्वार खुलते हैं। अगर इन कथाओं को अक्षरशः सत्य मान लिया, तब आदमी अंधविश्वासी सा, अवैज्ञानिक सा, और मूर्ख सा बन जाता है। मतलब इनको सत्य तो मानना चाहिए पर छुपे हुए रहस्य के रूप में, साधारण भौतिक तरीके में अक्षरशः नहीं। ऐसी असामान्य मिथकीय कथाओं से हमारा दायां मास्तिष्क सक्रिय हो जाता है, जो अधिकतर समय सुप्त सा रहता है। जागृति के लिए मस्तिष्क के दोनों भाग संतुलित रूप से सक्रिय रहने चाहिए। यह बच्चा भी समझ सकता है कि गंगा नदी पेड़ की एक टहनी से बाहर नहीं निकल सकती। इसी तरह भौतिक जल की कमी प्राणायाम व ध्यान से पूरी नहीं हो सकती। हां, कुछ हद तक शक्ति की कमी की पूर्ति जरूर हो सकती है। फिर इसे यदि रहस्यमयी उपमा के तौर पर समझें तो पहाड़ मतलब मस्तिष्क से दुनियावी उपलब्धियों के रूप में शक्ति मतलब गंगा फ्रंट चैनल से नीचे आती हुई गूलर वृक्ष मतलब मूलाधार चक्र की एक शाखा मतलब सुषुम्ना या ब्रह्म नामक नाड़ी से गंगाद्वार मतलब सहस्रार में निकली, जिसमें गौतम ऋषि मतलब जीवात्मा के स्नान करने से सारे पाप नष्ट हो गए। उनकी खोज को उनके शिष्यों ने भी अपनाया। उनके परिवारजनों को लाभ उनकी संगति से मिला। गूलर का वृक्ष एक दैवीय पौधा है, जिस पर शुक्र का आधिपत्य माना गया है, जो प्रेम, सौंदर्य, आकर्षण, यौनसुख, प्रेमविवाह, धनदौलत आदि का प्रतिनिधि ग्रह है। इससे खुद ही समझा जा सकता है कि गूलर की शाखा किसे कहा गया होगा। कुछ तांत्रिक भी लगता है। मुझे तो यह भी लगता है कि प्रेमी प्रेमिका को एकदूसरे के मूलाधार से शक्ति मिलती है। इसीलिए गंगा को स्त्री का रूप दिया गया लगता है। वैसे भी शक्ति को स्त्रीलिंग ही समझा जाता है। अब जब कुटिल ऋषि भी उनकी नकल करने लगे, तो उनके हाथ कुछ नहीं लगा, क्योंकि सुषुम्ना की क्रियाशीलता के लिए बच्चे की तरह नादान और भोले बनना पड़ता है, जो कुटिल आदमी बन नहीं सकते। प्रेम और कुटिलता एक दुसरे के विरुद्ध हैं। स्वाधिष्ठान चक्र का तत्त्व जल है। जल प्रेम का प्रतीक भी है। गौतम ने उन पापियों के लिए उससे नीचे के चक्र में उतरवाया। इसी को कुशावर्त कहा गया होगा। वैसे भी पापियों की चेतना नीचे वाले चक्रों पर ही अटकी होती है।
शक्ति से ही प्रजनन होता है। और उसी से नया मनुष्य बनता है, जिसमें स्वर्ग और पृथ्वी समाए हुए हैं। उस गतिविधि से जो शक्ति बची थी, वही शक्ति ब्रह्मा मतलब शरीर समेत सारी सृष्टि को बनाने वाले मन ने शिव को उनके विवाह के समय दी। उसी को शिव की प्रेरणा से ब्रह्मा रूपी मन ने सुषुम्ना में से गंगा के रूप में गुजारा। वैसे इसका वैज्ञानिक आधार भी है। अभी तक की वैज्ञानिक खोजों से ज्ञात हुआ है कि जल का निर्माण धरती पर नहीं हुआ है, बल्कि यह धूमकेतु आदि बाहरी अंतरिक्षीय पिंडों से आया है। प्राचीन लोगों को भी यह अंदेशा था क्योंकि उन्हें धरती पर कहीं पर भी जल का निर्माण होते नहीं दिखता था। एक ही जल बर्फ, भाप, बादल आदि के रूप में रूप बदलता रहता था। इसीलिए इसे ज्यादा दैवीय माना गया होगा।
पापों का बोझ सबसे ज्यादा शरीर पर पड़ता है, जो शरीर को संचालित करते हैं। शरीर व्रतों, तीर्थों, योग व अन्य आध्यात्मिक साधनाओं से उन पापों से आदमी को बचाता रहता है। शायद इन्हीं से शायद इन्हीं से कथा में 11 वर्ष लिया गया है, क्योंकि हिंदु धर्म में अधिकांश चीजें व गतिविधियां 11 किस्म की हैं। पर उन पापों की सूक्ष्म छाप शरीर के चक्रों पर जमा होती रहती है। इसीलिए चक्रों की सफाई के लिए सुषुम्ना की शक्ति की जरूरत पड़ती है।
बृहस्पति ग्रह का सिंह राशि में होना बहुत उत्तम योग है। इसमें आदमी हर क्षेत्र में चढ़दी कला में होता है। बृहस्पति का सिंह राशि में होना प्रेम और संबंध में भी प्रगाढ़ रिश्ते बनाने में मदद करता है। सिंह राशि वाले लोग अपने साथी के प्रति अधिकार की भावना रखते हैं, लेकिन उनका प्यार भी निष्ठावान और वफादार होता है। बृहस्पति का सिंह राशि में होना किसी एक योग से अधिक अनेक योगों का कारण है। बृहस्पति सबसे शुभ ग्रह माने जाते हैं, जो धर्म, ज्ञान, भाग्य, धन, विवाह, संतान, शिक्षा, व्यवसाय, राजनीति आदि के क्षेत्र में शुभ फल देते हैं। सिंह राशि भी बृहस्पति की उच्च राशि है, जो राजसी, सूर्यमय, तेजस्वी, गर्वी, नेतृत्वपूर्ण, रचनात्मक और उदार है। इसलिए, बृहस्पति का सिंह राशि में होना इन दोनों के गुणों का सम्मिलन है, जो व्यक्ति को अनेक शुभ फल देता है। दरअसल ऐसे ही चहुंमुखी विकास व अनुकूलता के समय सुषुम्ना जागरण और कुंडलिनी जागरण की सर्वाधिक संभावना होती है। इसीको ऐसा कहा गया है कि देवता ऐसे योग मके समय गंगा के निकट रहेंगे। क्योंकि यह योग दुर्लभ लगता है, इसीलिए इसका 11 साल के बाद आना कहा गया है। क्योंकि कुंडलिनी जागरण के समय एकदम लाभ नहीं मिलता पर धीरे धीरे साधना के साथ वर्षों में मिलता है, जब उसका अंतःकरण काफी साफ हो जाता है।
कथा के शुरु में ऋषि गौतम और अहल्या के द्वारा दस हजार वर्षों की तपस्या करने का क्या मतलब होगा, इसका उत्तर पाठकों के लिए छोड़ता हूं।