दोस्तों, पिछली पोस्ट में शक्तिजल की बात हो रही थी। मुझे तो लगता है कि इंद्र जो बारिश करता है, वह जागृति की ही बारिश है, वही सुषुम्नाशक्ति रूपी वज्र चलाता है। इंद्र की प्रसन्नता मतलब सभी देवताओं की प्रसन्नता या अनुकूलता। यही चढ़दी कला है। मैं यह नहीं कह रहा कि भौतिक वर्षा के साथ इंद्र का संबंध नहीं है। वह भी जरूर है क्योंकि जो भीतर है, वही बाहर भी है। जैसे बारिश होने के लिए सभी देवताओं के साथ से पैदा होने वाली अनुकूल परिस्थितियां चाहिए, वैसे ही जागृति के लिए भी। पुराणों पर प्रेम और विश्वास बना रहे, तो सभी रास्ते खुद ही खुलने लगते हैं। फिर कथा में आया था कि गौतम मुनि ने वरुण देव के वरदान से अक्षय जल पाया। वरुण देवता वेदों के एक प्रमुख देवता हैं। वे जल के अधिपति देवता हैं। जलरूपी शक्ति के बिना गूढ़ आध्यात्मिक वेदों का सही ज्ञान होना संभव नहीं है। वरुणदेव सीमित जल ही दे सकते हैं। ख्वाजा भी सिंधुघाटी सभ्यता का ऐसा ही देवता था, जो समुद्र, नदियों और जल का अधिपति था। मैंने एक भूमिगत जल का पता लगाने वाले आदमी के बारे में सुना था जो काफी सटीक आकलन करता था, और ख्वाजा का सिद्ध उपासक था। वैसे आज भी कई गांवों में ख्वाजा की जलदेव के रूप में पूजा करते हैं। हो सकता है कि वेदों में गुप्त भाषा में वरुणदेव उसके प्रतीक के तौर पर कहा गया हो, जिसकी सहायता से शरीर में शक्तिजल की उपलब्धता बराकरार रहती हो, पर उसके पाठकों या व्याख्याकारों ने उसे भौतिक जल का देवता मान लिया हो। कुछ भी हो, बाहर भीतर में समानता तो है ही, इसलिए एकदूसरे को जरूर प्रभावित करते होंगे। मुझे खुद महसूस होता है कि शुद्ध जल से भरे झील, सरोवर आदि जलस्रोतों के निकट कुंडलिनी शक्ति बहुत अच्छे से घूमने लगती है, क्योंकि दोनों के स्वभाव में बहना है। दोनों में संबंध तो है ही। हिंदुओं और बौद्घों में नागदेवता को भी जल का देवता माना जाता है। कुंडलिनी शक्ति नाड़ी भी नाग की आकृति में होती है। हमारे गांव में नेउआ मतलब दिव्य नाग या सर्प और ख्वाजा दोनों को स्थानीय जल और उसके आसपास उपजी वनस्पति का अधिपति माना जाता था। जो जल के आसपास वनस्पति काटता था, उसे नेऊआ सांप के द्वारा पीछा करने का भय दिखाया जाता था, जिससे वनों का अच्छा सरंक्षण होता था। कई जगह मैंने ख्वाजा को मछली के रूप जैसी मूर्ति में भी देखा। इसका मतलब है कि वरुण, नाग और ख्वाजा आपस में जुड़े हैं और तीनों जलरूपी शक्ति के देवता हैं। यह भी मान्यता है कि ये सिर्फ़ जल ही नहीं देते, बल्कि अन्य दुनियावी समृद्धियां और सुरक्षाएं भी देते हैं। मतलब ये शक्ति के देवता ज्यादा लगते हैं।
इसी तरह इंद्र देव भी वेदों में बहुतायत में वर्णित हैं। जो देव जागृति के लिए जरूरी है, उसका ज्यादा वर्णन होगा ही। क्योंकि वेद का मूल ध्येय जागृति ही है। गुप्त तरीके से शायद इसे ही वर्षा लिखा है। जहां वर्षा है, वहीं कर्म, यज्ञ, धनधान्य और समस्त वैभव हैं। इन्हीं से सब चढ़दी कला में रहते हैं। ऐसी ही अवस्था में जागृति होती है। बेशक इसके भौतिक और आध्यात्मिक दोनों अर्थ हों, पर दूसरा ही ज्यादा सटीक लगता है, क्योंकि वेद अध्यात्म को डील करते हुऐ लगते हैं, न कि भौतिकता को।
मुझे लगता है कि जागरण और आत्मसाक्षात्कार के बीच अंतर है। पहली अवस्था प्रारंभ है, तो दूसरी अवस्था आध्यात्मिक विकास का चरम या अंत। मुझे यह जीपीटी एआई पावर्ड बिंग सर्च से पता चला। कहते हैं कि कईयों की कुंडलिनी बचपन से ही जागृत होती है। अगर कुंडलिनी जागरण पूर्णता होती तो उसके बाद पुनर्जन्म क्यों होता। यह भी हो सकता है कि पूर्णता के अनुभव के बाद भी आत्मा की पूरी सफाई जरूरी हो, जिसके लिए कई बार नया जन्म लेना पड़ता होए। यह भी बोलते हैं कि महान व्यक्तियों जैसे कलाकारों और नेताओं की कुंडलिनी भी जागृत होती है। बिंग एआई निःशुल्क है और सबसे अच्छी जानकारी देने वाला लगा मुझे, हिंदी अंग्रेजी दोनों में। आजकल ब्लॉग लिखने में और शोध करने में एआई से बहुत मदद मिल रही है। जब शरीर के भौतिक संपर्क के बिना आदमी को अंधेरा सा महसूस होता है, तो उसे कहते हैं कि शक्ति सोई हुई है। पर जब अंधेरे के बीच में भी एक ध्यान चित्र हमेशा चमकता है, तब उसे कहते हैं कि शक्ति जागी हुई है। यहां से साधना शुरु होती है, जिससे ध्यानचित्र उत्तरोत्तर चमकता जाता है, मतलब कुंडलिनी शक्ति को ज्यादा से ज्यादा जगाया जाता है। फिर एक समय ऐसा आता है, जब ध्यानचित्र इतना ज्यादा मजबूत हो जाता है कि साधक को अपने और ध्यानचित्र के बीच फर्क ही महसूस नहीं होता, न ही उसे ऐसा लगता है कि वह उसका ध्यान कर रहा है। मतलब इसमें ध्यान करने वाला, ध्यानचित्र, और ध्यान की प्रक्रिया, तीनों एकाकार हो जाते हैं। इसे ही समाधि कहते हैं। इसी के दौरान कभी भी आत्मसाक्षात्कार अर्थात आत्मज्ञान का अनुभव हो सकता है। शायद मैं इसे ही पहले कुंडलिनी जागरण कह के वर्णन कर रहा था। कोई बात नहीं, यह सिर्फ़ शब्दावलियों का अंतर है, अनुभव में कोई अंतर नहीं पड़ता।
पिछली कथा के अनुसार गंगा रूपी शक्तिजल ने देवताओं से इस शर्त पर हमेशा सुषुम्ना में बसे रहने को कहा था कि उसे सर्वाधिक महत्त्व देना होगा। मतलब साफ है कि अगर रोज योग करते हुए सुषुम्ना में बह रही शक्ति को महसूस न किया गया, तो वह धूमिल पड़ जाएगी। मतलब बेशक कुछ भी काम छूट जाए, पर योग नहीं छूटना चाहिए। अक्सर होता यह है कि भैतिक कर्म ही दिखता है, मानसिक या आध्यात्मिक कर्म नहीं। प्राचीन भारत में लोग ज्ञान, भक्ति आदि जैसे मानसिक कर्म में लगे होते थे, जो सबसे बड़ा कर्म है, क्योंकि इसी से मुक्ति और सृष्टि चक्र को सही गति मिलती है। शेष दुनिया विशेषकर पश्चिम में भौतिकता, साफसफाई आदि में ही व्यस्त रहते थे लोग, जो काम के रूप में स्पष्ट नजर आते हैं। वैसे सर्वोत्तम तरीका कर्मयोग है, जिसमें भौतिक कर्म और योगसाधना खुद ही एकसाथ होते रहते हैं।
दरअसल कुंडलिनी योग जीवनरूपी विविध धुनों को जोड़ने वाला बैकग्राउंड म्यूजिक है। जब किसी कारणवश मुख्य संगीत बजना बंद हो जाता है, तो यही पार्श्व संगीत सुखी जीवन के लिए सहारा होता है। जैसे मुख्य संगीत बंद होने से पार्श्व संगीत बहुत तेज लगने लगता है, वैसे ही जीवन की सांसारिक गतिविधियों के शोर के शांत होने से योग का ध्यानचित्र बहुत तेज चमकने लगता है, जिससे वह जागृत भी हो सकता है। संभवतः पुराणों में इसी को गड्ढे में साधना या समुद्र के भीतर बंद व अंधेरे कारागार में साधना आदि की उपमा दी गई है।
ऋषि गौतम की पिछली कथा का एक दूसरा रूपांतर भी है। इसमें गाय के मरने पर गौतम को कुटिल ऋषियों के षड्यंत्र का पता चल जाता है। इससे क्रुद्ध होकर वे उन्हें और उनकी संतानों को शैवधर्म से बहिष्कृत रहने का और उससे नरकगामी बनने का श्राप देते हैं। कहते हैं कि फिर कलियुग उन्हीं के जैसे लोगों से भर गया। उस कथा रूपांतर में उन्हें शिवदर्शन होने का कोई उल्लेख नहीं है। मतलब साफ है कि दुष्ट ऋषियों की साजिश को उन्होंने सकारात्म सकारात्मकता से लेते हुए शिवसाधना नहीं की, बल्कि अपनी संचित ऊर्जा क्रोध में और श्राप देने में लगा दी, इसीलिए उन्हें जागृति नहीं मिली। हरेक क्रिया की प्रतिक्रिया होती ही है।