मित्रों, शिवपुराण की एक कथा के अनुसार एकबार कुछ शिष्यों ने कथावक्ता से पूछा कि क्या शिवलिंग लिंग होने के कारण ही हर जगह पूजित है या कोई अन्य कारण है। इस पर वे एक कथा सुनाते हैं कि दारुक नाम के एक श्रेष्ठ वन में शिवजी के ध्यान में नित्य तत्पर शिवभक्त रहा करते थे। किसी समय वे समिधा लेने वन में गए हुए थे। उसी समय शिव उन्हें शिक्षा देने और उनकी परीक्षा लेने के लिए एक तांत्रिक अवधूत के वेष में आए, जो लिंग को हाथ में धारण कर के दुष्ट चेष्टा कर रहे थे। उनको देखकर ऋषिपत्नियां बहुत डर गईं। और अन्य बेताब और आश्चर्यचकित होकर वहां चली आईं। कुछ अन्य स्त्रियों ने एकदूसरे का हाथ पकड़कर परस्पर आलिंगन किया। कुछ स्त्रियां उस आलिंगन के घर्षण से आनंदमग्न हो गईं। उसी समय ऋषिवर आ गए और उस आचरण को देखकर दुखी और क्रोध से व्याकुल हो गए। वे आपस में कहने लगे, यह कौन है, यह कौन है। जब तांत्रिक अवधूत ने कुछ नहीं कहा तो उन्होंने उसे यह कहते हुए श्राप दिया कि वह वेदविरुद्ध आचरण कर रहा था इसलिए उसका लिंग भूमि पर गिर जाए। ऐसा ही हुआ। उस लिंग ने अग्नि की तरह सामने स्थित सभी वस्तुओं को जला दिया। जहां वह जाता, वहां सबकुछ जला देता। वह पाताल में गया, स्वर्ग में गया, भूमि पर भी सर्वत्र गया, पर कहीं स्थिर नहीं हुआ। सभी लोक व्याकुल हो गए, और वे ऋषिगण भी बहुत दुखी हुए। किसी भी देवता या ऋषि को शांति नहीं मिली। जिन देवों और ऋषियों ने शिव को नहीं पहचाना, वे ब्रह्मा की शरण में गए। ब्रह्मा ने यह कहते हुए उन्हें खूब लताड़ा कि आम आदमी अगर शिव को न पहचान पाए तो बात समझ आती है पर उनके जैसे ज्ञानी लोग शिव को कैसे नहीं पहचान पाए, और कहा कि अगर देवी पार्वती योनिरूपा बन जाए तो यह स्थिर हो जाएगा। देवी को प्रसन्न करने को यह निम्न विधि उनको बताई। अष्टदल वाला कमल बनाकर उसके ऊपर एक कलश स्थापित कर उसमें दूर्वा तथा यवांकुरों से युक्त तीर्थ का जल भरना चाहिए। फिर वेदमंत्रों के द्वारा उस कुंभ को अभिमंत्रित करना चाहिए। फिर वेदोक्त रीति से उसका पूजन करके शिव का स्मरण करते हुए शतरुद्रीय मंत्रों से कलश के जल से उस शिवलिंग का अभिषेक करना चाहिए। फिर उन्हीं मंत्रों से लिंग का प्रोक्षण मतलब छिड़काव करें, तब वह शांत हो जाएगा। फिर गिरिजायोनि रूपी बाण को स्थापित करके उस पर लिंग को स्थापित करना चाहिए, और फिर उसको अभिमंत्रित करना चाहिए। फिर षोडशोपचार मतलब सोलह किस्म की सामग्रियों से परमेश्वर का पूजन करना चाहिए, और फिर उनकी स्तुति करनी चाहिए। इससे लिंग स्थिर और स्वस्थ हो जाएगा, तथा तीनों लोक विकार से रहित और सुखी हो जाएंगे।
वैसे इस कथा का स्पष्टीकरण नहीं हो सकता। यह आस्था से जुड़ा हुआ एक संवेदनशील धार्मिक मामला है। इसे खुद ही समझा जा सकता है। हां इतना जरूर कह सकते हैं कि हरेक आदमी अपने यौनसाथी की खोज में कभी न कभी जरूर भटकता है। उस दौरान उसके मन में जो समाधि चित्र बना होता है, वह उसे चिड़चिड़ा सा और जलाभुना सा जरूर बना सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि समाधि के लिए अतिरिक्त ऊर्जा की जरूरत होती है, जो किसी नजदीकी साथी के सहयोग से ही मिल सकती है। अष्टदल कमल अनाहत चक्र का प्रतीक है, और प्रेम उस पर ही उपजता है। उस पर तीर्थों के जल से भरे कलश को रखने का मतलब उस पर ध्यान शक्ति को इकट्ठा करके केंद्रित करना है। विभिन्न तीर्थ मतलब विभिन्न चक्र। दूर्वा घास प्रजनन, वृद्धि और विकास का प्रतीक है। यव अंकुर मतलब अंकुरित हुए जौ चढ़दी कला मतलब चहुंमुखी विकास का प्रतीक हैं, क्योंकि उसमें हर किस्म के टॉनिक, विटामिंस और मिनरल्स होते हैं, इसीलिए इसे ग्रीन ब्लड भी कहते हैं। इसका आम भाषा में यही मतलब लगता है कि दिल पर अर्थात प्यार पर अपना सबकुछ न्यौछावर कर देना। जोगी भी ऐसे ही होते हैं, जो घरबार छोड़कर अपने देवता की पूजा अर्चना में लग जाते हैं, और ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। उस कलश के पूजन का मतलब है, हृदय से शक्ति के साथ जुड़े देवरूप आदि ध्यानचित्र का पूजन। जिससे वह ज्यादा प्रकाशित अर्थात प्रसन्न होता है, जैसे किसी आदमी की सेवा से वह आदमी प्रसन्न हो जाता है। वेदमंत्राें से पूजन का मतलब है, उस चित्र को और ज्यादा धार देते हुए और स्पष्ट, शुद्ध और प्रकाशमान बनाना। बीजमंत्र भी ऐसा ही करते हैं। वह मानसिक ध्यान चित्र गुरु, प्रेमिका, देवता, बीजमंत्र आदि किसी का भी हो सकता है। उस पूजित चित्र से मिश्रित शक्ति को फिर अनाहत चक्र से स्वाधिष्ठान और मूलाधार चक्र को उतारा जाता है। यही कलश के जल से उस दिव्य लिंग का अभिषेक है। अभिषेक में पवित्र जलरूपी शक्ति की धारा निरंतर चलती है। प्रोक्षण जल के छिड़काव को कहते हैं। हृदयकलश से शक्ति को सुबहशाम की साधना से बारंबार नीचे उतारना ही ही दिव्य प्रोक्षण है। शतरुद्रीय मंत्र में विभिन्न बीजमंत्र आदि हैं, जो विभिन्न अदृश्य तरंगें छोड़ते हैं, जो आदमी के मन पर अदृश्य दिव्य आध्यात्मिक प्रभाव डालते हैं। वैसे कुदरती बाणलिंग नर्मदा नदी में मिलते हैं, पर लगता है कि कथा में बाण को लिंग के आसन अर्थात पीठ के रूप में कहा गया है। मैंने जब बिंग एआई से पता किया तो उसने जवाब दिया कि एक अभिमंत्रित बाण को जमीन के अंदर गाड़ा जाता है, और उसके ऊपर शिवलिंग को स्थापित किया जाता है। हो सकता है कि यह ठीक कह रहा हो। क्योंकि कई स्थानों पर ऐसे शिवलिंग देखे जाते हैं जिनकी पीठ या आधार ही नहीं होता। पूछने पर वहां के पुजारी आदि बताते हैं कि यह शिवलिंग जमीन में गहराई तक गढ़ा होता है। हो सकता है, जमीन के अन्दर बाण ही उसकी पीठ हो। वैसे पीठ का आकार भी बाण से मिलता जुलता सा होता है। फिर उसके आगे तो आम आदमी की भाषा में तांत्रिक या दैवीय संभोगयोग ही लगता है। वैसे सबकी अपनी अपनी सोच हो सकती है। उससे तीनों लोक मतलब पूरा शरीर शांत और स्वस्थ मतलब अपने शुद्ध आत्मरूप में स्थित हो जाता है, क्योंकि सब लोक शरीर में ही हैं। यह दुनिया में अक्सर देखा जाता है इसीलिए बिगड़े हुए या बिगड़ रहे नौजवानों का विवाह उनके परिवार वाले जल्दी में करते हैं। उसके बाद मैंने बहुत से सुधरते हुए देखे हैं। पर कुछ नहीं भी सुधरते। इसमें उनकी पत्नियों का कसूर भी लगता है मुझे, शायद हालांकि ज्यादा कसूरवार तो पुरुष ही होते हैं। इसीलिए कहा है कि शिवलिंग को पार्वती रूपी पीठ ही धारण कर सकती है। इसीलिए तो स्त्री को अध्यात्मिक संस्कार देना पुरुष से भी ज्यादा जरूरी समझा जाता था, क्योंकि स्त्री ही पूरे परिवार की नींव होती है। मैंने एक व्यस्क आदमी को अपनी निजी राय जाहिर करते सुना था कि अगर पुरुषों का विवाह न हुआ करता तो वे एकदूसरे को कच्चा ही खा जाया करते, क्योंकि पत्नियां ही पुरुषों को नियंत्रित करती हैं। उन्होने खुद अपनी पहली पत्नि की मृत्यु के बाद एक अन्य महिला से विवाह क्रिया हुआ था। बात सही भी है। एक मित्र भी कह रहे थे कि तांत्रिक संभोग तो संभोग ही नहीं लगता, वह तो कोई और ही अति पवित्र अध्यात्मिक कर्म बन जाता है। मुझे लगता है कि मूर्ख, नकारात्मक, असफल और विधर्मी लोग ही दोनों को एक श्रेणी में रखकर अपने दिल की भड़ास निकालते हैं। एक पुस्तक लव स्टोरी ऑफ ए योगी में तो लेखक एक महिला के द्वारा उसके कुंडलिनी जागरण की मुख्य वजह पूछे जाने पर अपना अनुभव प्रश्नकर्ता को चिह्नित करने की बजाय सबको सुनाते हुऐ कहता है कि उसने वज्रशिखा की संवेदना पर कुंडलिनी चित्र का ध्यान करते हुए उसे उसके पूरक अंग में अंदरबाहर करते हुए ही जागृति प्राप्त की, पर जो उसने किया वह संभोग नहीं था। इस पर ऑनलाइन कुंडलिनी ग्रुप पर मौजूद वह प्रश्न पूछने वाली पाश्चात्य या संभवतः अमेरिकन महिला प्रेमभरी हैरानी और कुछ मजाकिया लहजे से उसे पिनपोइंट करते हुए उससे कहती है कि हमारे देश में तो उसे संभोग ही कहते हैं, वह पता नहीं कौनसी अचरजभरी संस्कृति या भूमि से ताल्लुक रखता है। उसके बाद उस विषय पर उस ग्रुप में सबके संवाद बंद हो गए थे, और तंत्र की उपयोगिता का विषय सामने आ गया था, जिसमें जागृति के लिए तंत्र की सर्वाधिक महत्ता को सभी स्वीकार कर रहे थे। मतलब लेखक ने अपने दिल की बात भी रख दी थी और अप्रत्यक्ष तौर पर मुख्य प्रश्न का जवाब भी दे दिया था। वैसे यह कथा मिस्र की अंखिंग तकनीक की तरह भी लग रही है।
मतलब यह साफ है कि इस कथा में विधर्मियों या हिंदु विरोधियों द्वारा फैलाए गए दुष्प्रचार का खंडन किया गया है। ऋषि बहुत दूरदर्शी होते थे। उन्हें पता था कि आने वाले समय में ऐसा हो सकता था। यह कथा भी समाज में घटने वाली आम घटना को दर्शाती है, कोई दिव्य पारलौकिक आदि नहीं। अविवाहित किशोर व्यक्ति ऐसे ही होते हैं। वे मौका मिलने पर युवतियों से लिंगोन्मुखी मजाक करते रहते हैं। उनमें से कोई शिव किस्म का तंत्र का असली हकदार भी होता है। पर लोग तो सबको एक जैसा लंपट बदमाश समझते हैं। कहते हैं कि दाने के साथ घुन भी पिसता है। उन्हें क्या पता कौन सच्चा है और कौन झूठा। इसलिए औरों के साथ वे शैव का भी अपमान करके शाप दे देते हैं, मतलब उसे भी बुरी नजर से देखते हैं। वस्तुतः शैव का लिंग कोई सामान्य लिंग नहीं होता। शैवतंत्र के प्रभाव से वह साक्षात इष्ट देवता होता है। एक प्रकार से साधना के प्रभाव से वह शैव व्यक्ति लिंगरूप बन जाता है। वह जहां भी जाता है, एक किस्म से उसके रूप में उसका इष्टदेवरूपी लिंग ही जा रहा होता है। उस इष्टदेव की नाराजगी सबको परेशान करती है, मतलब जलाती है। ऐसा भी हो सकता है, क्योंकि सारा विश्व लोगों के भटकते मन में है, और उस शैवलिंगरूपी इष्टदेव के सान्निध्य से उनका अपने भटकते मन से मोहभंग हो रहा होता है, इसीको जगत का जलना कहा गया हो सकता है। उस माहेश्वर लिंग को पार्वती के जैसी तंत्रयोगिनी ही सही से धारण कर सकती है, ताकि उसके साथ इष्टदेव रूपी ध्यानचित्र का ध्यान भी हो सके। आम महिला तो ध्यान में सहयोग कर ही नहीं पाएगी। मतलब इससे इष्टदेव नाराज मतलब बिना जागृति के ही रहेगा। बिना जागृति की कुंडलिनी क्रियाशीलता नुकसानदायक भी हो सकती है, क्योंकि वह नियंत्रण से बाहर भी हो सकती है। अनियंत्रित शक्ति सबको जलाएगी ही। जागृति आदमी को शक्ति का असली और पूर्ण रूप दिखाती है। और वह रूप सबसे सुंदर और शक्तिशाली होने पर भी परम शांत होता है। इससे आदमी शांत रहता है, मतलब जागृति के नियंत्रण में रहता है।
यह कथा मुझे शिवपुराण की सबसे सारगर्भित कथा लगी। इस पर कोई जितना चाहे लिख सकता है। ऋषियों ने जो शुरु में पूछा था कि क्या शिवलिंग लिंग होने के कारण ही पूजित है, या कोई अन्य कारण है, इसका उत्तर बहुत सभ्य तरीके से दिया गया है इसमें। यह ऐसा ही है जैसा उत्तर उपरोक्त लेखक ने दिया था। मतलब शिवलिंग सामान्य लौकिक लिंग नहीं है, जैसा कि मूर्ख, दुष्ट, लंपट बदमाश, भौतिकवाद की मोहमाया में उलझे हुए, अति कर्मप्रधान, धर्मविरोधी या सैक्सी किस्म के लोग समझते हैं या बोलते हैं। हैरानी तब होती है जब बहुत से हिंदु भी उनके बहकावे और उकसावे में आ जाते हैं, और वैसा ही समझने लगते हैं। वे सोशल मीडिया आदि पर हर जगह शिवलिंग को शिव के शरीर का अंग समझने पर ही पाबंदी लगा देते हैं, कहने लगते हैं कि यह तो केवल शिव का चिह्न या प्रतीक है, या केवल शिवशक्ति मिलन का प्रतीक है, किसी शारीरिक कर्म आदि का नहीं आदि आदि। वैसे अपनी जगह पर और अध्यात्मवैज्ञानिक सोच के हिसाब वे सही ही कह रहे होते हैं, क्योंकि साधारण सांसारिक वस्तु या अंग जैसी इसमें कोई बात ही नहीं है। उनसे सीखकर बिंग एआई भी ऐसा ही कहता है। इस मामले में अगर विधर्मी लोग अति नीचे गिरते हैं, तो वे तथाकथित हिंदुरक्षक अति ऊपर उठ जाते हैं। व्यावहारिक दुनिया के बीच में अर्थात मध्यमार्ग पर कोई नहीं रहते। अति सर्वत्र वर्जयेत। मध्यमार्ग ही सर्वोत्तम है। इसको एक उदाहरण से समझ सकते हैं। एक ही बंदूक होती है। एक सभ्य आदमी उससे आतंकवादी को मारता है, तो दूसरा सिरफिरा व्यक्ति आम जनता को। इसमें बंदूक का क्या दोष। इसी तरह शिवनियंत्रित शिवलिंग अज्ञानरूपी राक्षस को मारता है, तो इसके विपरीत आमजनप्रयुक्त इसका साधारण रूप ज्ञानरूपी देवता को। एकबार मेरी मुलाकात एक तांत्रिक व्यक्ति से हुई थी, जो मेरे मित्र का मित्र था। उसने कामाक्षी मंदिर में गुरु से दीक्षा ली हुई थी। वह बता रहा था कि उसके सामने एक तांत्रिक ने भीड़ भरी सड़क से गुजर रही आम व अनजानी महिला पर अपनी वशीकरण विद्या चलाई थी, जिससे वह उसके बुलाने पर उसके पीछे आकर उसके साथ कुछ भी करने को तैयार थी। हालांकि वह तो अपनी विद्या का परीक्षण कर रहा था, इसलिए उसने वशीकरण को बंद कर दिया, जिससे वह महिला वापिस अपने रास्ते चली गई। सच्चे तांत्रिक तो कभी गलत काम करते भी नहीं हैं, अगर करते हैं तो सीधे नरक को जाते हैं। बोलने का मतलब है कि उपरोक्त पौराणिक कथा के अन्दर भी कोई ऐसा ही वशीकरण रहस्य छिपा हुआ, क्योंकि पुराने जमाने के लोगों के लिए तो जागृति ही सबसे अहम उपलब्धि हुआ करती थी, जिसके लिए वे सबसे अधिक प्रयास किया करते थे। आजकल तो और भी बहुतेरी विद्याओं और कलाओं का बोलबाला है, जिसके लिए लोग बहुत संघर्ष करते हैं। फिर भी वे पौराणिक विद्याएं अभी भी गुरुपरंपराओं में जीवित हो सकती हैं, जिन्हें यदि राजसहायता मिले तो उन्हें खोजा जा सकता है, और उन्हें भविष्य के लिए संरक्षित किया जा सकता है।