दोस्तों, मैं हाल ही में एक ब्लॉगपोस्ट पढ़ रहा था जो मुझे अच्छी लगी। हालांकि उसमें मुझे अपनी टिप्पणी पर कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। उसमें लिखा था कि सिर्फ़ हिंदु धर्म ही आस्तिक धर्म है, अन्य सब नास्तिक हैं। संस्कृत शब्द आस्तिक ‘अस्ति’ शब्द से बना है, जिसका मतलब ‘है’ होता है। मतलब जो ‘है’ अर्थात नामरूप से रहित सत्ता मात्र को मानता है, वह आस्तिक है। ‘न अस्ति अर्थात नास्ति’ का मतलब ‘नहीं है’ है। जो ‘नहीं है’ को मानता है, वह नास्तिक हुआ। वैसे भी नामरूप का आस्तित्व तो है ही नहीं। बर्फ से जल बनता है, जल से भाप, भाप से बादल और उससे पुनः जल बनता है। इतने नाम और रूप बदले पर रहता सब में जल ही है। अगर हम इस कार्य कारण की परंपरा को पीछे से पीछे बढ़ाते जाएं तो सबकुछ सूक्ष्म से सूक्ष्म होता जाता है, और अंत में आकाश ही बचता है। मतलब सबकुछ आकाश या शून्य या आत्मा रूप ही है। शून्य भी अभाव या अंधकारनुमा नहीं बल्कि अनिर्वचनीय रूप वाला शून्य। इसीलिए हिंदू धर्म पलायनवादी जैसा भी लगता है, पर असल में ऐसा नहीं है। असली आस्तिक वह नहीं जो नामरूप को बिल्कुल नकारता है। बल्कि असली आस्तिक वह है जो सच्चे व असली अस्तित्व को नामरूप वाले झूठे और नकली अस्तित्व से ऊपर माने। अगर नामरूप को बिल्कुल नहीं मानेंगे तो दुनियादारी कैसे चलेगी, कैसे मानव सभ्यता का विकास होगा। ऐसे में तो सभी विरक्त संन्यासी जैसे हो जाएंगे। सारा विज्ञान नामरूप के आश्रित है। किसी वस्तु को नामरूप नहीं देंगे तो उसे समझेंगे कैसे और कैसे उसे वश में करेंगे। नामरूप न मानने से विज्ञान संभव ही नहीं होगा। दूसरी ओर, अन्य धर्म भी पूरी तरह से नास्तिक नहीं हैं। असली नास्तिक वह नहीं है जो सिर्फ नामरूप को ही माने और शुद्ध अस्तित्व को नकारे। बल्कि असली नास्तिक वह है जो नामरूप के अस्तित्व को शुद्ध और असली अस्तित्व से ज्यादा महत्त्व दे। नामरूप के अस्तित्व को मानते समय शुद्ध अस्तित्व तो खुद ही मानने में आ जाता है, क्योंकि ‘है’ तो सबके साथ लगता है। शुद्ध ‘है’ का अस्तित्व और नामरूप का अस्तित्व एकदूसरे के आश्रित हैं, और दोनों एकदूसरे के साथ रहते हैं। ये एक दूसरे से अलग नहीं रह सकते। फर्क यह है कि मन में किसे ज्यादा महत्त्व दिया जाता है। मतलब मन की धारणा का ही अंतर है। आस्तिक की दुनियादारी भी वैसी ही चलती है जैसी नास्तिक की। फर्क दोनों की विचारधारा या मन की धारणा का होता है। सिर्फ मन की धारणा के बदलने से ही आकाश-पाताल के जैसा विपरीत असर पैदा हो जाता है। मतलब साफ है कि कोई भी पूरा आस्तिक या पूरा नास्तिक नहीं हो सकता। व्यवहार में सब मिश्रित स्वभाव के होते हैं। मन की धारणा को आस्तिक बनाए रखने के लिए ही विभिन्न धर्मशास्त्र बने हैं। अध्यात्म केवल मन की धारणा को सुधारता है। दुनियादारी तो विज्ञान से ही चलेगी। मन की धारणा का बनना और सुधरना एक सहज प्रवृत्ति है, वैसे ही जैसे आदमी सुख के अनुभव की तरफ खुद ही खिंचा चला जाता है। इसमें मुझे धर्म का बहुत ज्यादा योगदान नहीं लगता। आदमी को यह धर्म तो नहीं सिखाता कि कौनसी परिस्थिति सुखद है, बल्कि आदमी अपने अनुभव से खुद ही सीखता है। वैसे भी मानव मनोविज्ञान बहुत जटिल और विविधतापूर्ण है। इसके संबंध में ऐसा कोई सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता, जैसा कि जड़ वस्तुओं के लिए गुरुत्वाकर्षण आदि जैसा सामान्य नियम बनाया जाता है। यहां तो हरेक आदमी का मन अपने आप में अद्वितीय है, जिसके लिए नियम भी अद्वितीय ही होना चाहिए। हां धार्मिक पुस्तक सबके लिए एक सामान्य साधारण सिद्धान्त का बखान कर सकती है, पर वह भी सर्वसम्मत और वैज्ञानिक या अध्यात्मवैज्ञानिक रूप से प्रमाणित होना चाहिए। हालांकि उसके भी मानवीय अपवाद हो सकते हैं। लौकिक व्यावहारिक कदम तो आदमी को समय व परिस्थिति के अनुसार खुद ही उठाने पड़ते हैं। मतलब सब कुछ लिखा या बताया नहीं जा सकता। इसीलिए हरेक धर्म में हर किस्म की धारणा के लोग मिल जाएंगे। हां, विभिन्न कारणों से प्रोपोर्शन या अनुपात अलग-अलग हो सकता है। उदाहरण के लिए, यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा कि दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है। इसपर युधिष्ठिर ने जवाब दिया कि लोग रोज मरते हैं, पर ऐसा देखते हुए भी जीवित आदमी ऐसा सोचते हैं कि वे कभी नहीं मरेंगे। इससे बड़ा कोई आश्चर्य नहीं। इस जवाब से यक्ष संतुष्ट हो गया। इस कथानक को सकारात्मक धारणा वाला आदमी ऐसे लेगा कि जिंदादिली से जीवन बिताते हुए भी आदमी को यह हमेशा याद रखना चाहिए कि कभी उसके जीवन का अंत हो जाएगा, इसलिए जीवन के प्रति आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। मतलब नामरूप में आसक्ति न रखो मतलब दुनियादारी को देशकाल के अनुसार बरतते हुए भी आस्तिक धारणा को अपनाओ, नास्तिक धारणा को नहीं। पर नकारात्मक धारणा वाला आदमी इसको ऐसे लेगा कि जीवन में कुछ नहीं रखा है, इसलिए हमेशा मरे हुए जैसे की तरह रहना चाहिए। नामरूप से भरी दुनियादारी को पूरी तरह से त्याग दो और घोर अर्थात कट्टर अर्थात पूर्ण आस्तिक बनो। धर्मशास्त्र ने तो अपनी तरफ से अच्छा कथानक लिखा था, पर उसके लेखक को क्या पता कि कई लोग इसका गलत अर्थ निकाल सकते हैं। इसी तरह गुरु भी अपने जीवन के अनुभव से सामान्य नियम और सिद्धांत ही समझा सकते हैं, हर कदम तो वे भी साथ नहीं चल सकते।
कुछ पल सांस रोकने से और फिर लंबी गहरी सांसों से विचारों के शुद्ध अस्तित्व पर ज्यादा ध्यान जाता है, और उनकी नामरूप वाली विविधता पर कम। अगर उस प्राणायाम के साथ कुंडलिनी शक्ति का साथ भी मिले तो प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है, क्योंकि उससे दबे विचारों के उघड़ने को ज्यादा बल मिलता है, जिससे आस्तिकता और ज्यादा प्रभावी बन जाती है। तांत्रिक बल से तो प्रभाव उससे भी कई गुना बढ़ जाता है। तेज और उथली सांस से विचार सांस के साथ लगातार बदलते रहते हैं। इससे उनके सतही नामरूप पर ही ध्यान जाता है, उनकी गहराई में जाने का समय ही नहीं मिलता। पर जब सांस धीमी, लंबी या रुकी होती है, तब मन का एक ही विचार सांस के रुके रहने तक या एक सांस के पूरा होने तक या लगातार कई सांसों तक बना रहता है। इससे वह विचार हमें पैदा होते, बढ़ते, ठहरते और आत्मा में विलीन होते दिखता है। ॐ शब्द भी इसी प्रक्रिया को दर्शाता है, जिसमें अ, उ और म अक्षर क्रमशः पैदा होने को, बढ़ने और रुकने को और विलीन होने को दर्शाते हैं। ॐ सहस्रार का बीजमंत्र इसलिए है क्योंकि मस्तिष्क में ही सारा ब्रह्मांड विचारों के रूप में पैदा होता रहता है, बढ़ता रहता है और विलीन होता रहता है। इस अक्षर की दो भुजाओं में जो दो तीखे मोड़ या रिंग हैं वे त्रिआयामी हैं, कागज पर दो आयामी दिखते हैं। बाईं तरफ का रिंग बाएं मस्तिष्क के कर्वेचर के साथ दुसरी तरफ को मुड़ जाता है, और दाईं ओर का कर्वेचर दाएं मस्तिष्क में पीछे की तरफ को कवर करता है। मतलब ओम से पूरा मस्तिष्क कवर हो जाता है। इसके ऊपर जो चंद्र बिंदी है, वह सहस्रार चक्र बिंदु है। इससे हमें महसूस हो जाता है कि नामरूप तो मिथ्या ही थे, विचारों का असली रूप तो शून्य आकाश या आत्मा जैसा ही है, यानि बिना नामरूप की सत्ता मात्र ही असली है, जहां से वे पैदा होते दिखते हैं और उसमें विलीन होते भी दिखते हैं। तेज और उथली सांसों से विचार फटाफट बदलते हैं। इसलिए न तो हमें वे शून्य आत्मा से पैदा होते दिखते हैं और न ही शून्य आत्मा में विलीन होते दिखते हैं। इससे वे हमें सत्य से दिखते हैं। हमें लगता है कि वह पुराना विचार जिसकी जगह अब नए विचार ने ले ली है, वह सत्य है, और हमारे दिमाग ने ही उसकी जगह नया विचार पकड़ लिया है। वैसे भी उथली तेज सांसों पर ध्यान देना कठिन है।
मतलब साफ है कि कुंडलिनी योग से आस्तिक बनने में मदद मिलती है। इसकी एक वजह यह भी है कि कुंडलिनी योग के समय सांस और शरीर पर ध्यान कायम रहने से विचारों के नामरूप पर ज्यादा ध्यान नहीं जाता और केवल उनके अस्तित्व का ही बोध होता रहता है। यह साक्षीभाव साधना की तरह ही है, मतलब हम उन्हें साक्षी की तरह देख रहे होते हैं। और उनसे प्रभावित नहीं होते। साथ में, योगासन के समय शरीर निश्चित पोज में रहता है, और विचारों के अनुसार प्रतिक्रिया या हिलने जुलने का विरोध करता है। इससे भी विचारों की नामरूपता प्रभावी नहीं हो पाती।
विचारों का हैंडल सांस है। ऐसा इसलिए क्योंकि विचार सांसों के साथ तालमेल बैठा कर गति करते हैं। बिना सांसों के विचारों को पकड़ना बहुत कठिन है। सांस को देखते रहने का मतलब है विचारों को देखना मतलब साक्षी भाव। जब हम सांसों को नहीं देख रहे होते तब विचारों को भी नहीं देख रहे होते। उस समय हम खुद विचार बने होते हैं। जब हम सांसों को नहीं देख रहे होते तो खुद सांस बने होते हैं। अपने को तो कोई नहीं देख सकता। देखा तो दूसरे को ही जाता है। मतलब तब साक्षीभाव नहीं रहता। दो ही भाव हो सकते हैं, या तो दर्शक भाव या दृश्य भाव। यदि देखने वाले का दर्शक भाव नहीं है तो खुद ही दृश्य भाव पैदा हो जाता है। मतलब दर्शक दृश्य से असक्तिपूर्वक जुड़कर दृश्य ही बन जाता है। ऐसा पिता को अपने पुत्र को मैदान में खेलते देखते समय हो सकता है। अगर दर्शक भाव है तो दृश्य भाव नहीं हो सकता। दोनों भाव एकसाथ नहीं रह सकते। दर्शक भाव का यह लक्षण है कि वह दृश्य के सुख दुख से प्रभावित नहीं होता। अगर आदमी अपने विचारों से प्रभावित हो रहा है तो उसका मतलब है कि उसका दृश्यमान विचारों के प्रति दर्शक या साक्षी भाव नहीं बल्कि दृश्य या आत्मभाव है। विचारों को आत्मरूप समझो तो वह ज्ञान है, पर अगर आत्मा अर्थात आदमी विचाररूप बन जाए तो वह अज्ञान है।
इस मामले में एक तिब्बती बौद्ध योगी की बात अच्छी लगी कि सांस पर भी ध्यान रखो और विचारों पर भी, मतलब विचारों को भी खुला छोड़ दो, तभी मेडिटेशन होती है। मतलब विचारों को न तो दबाओ और न ही उनकी अवहेलना करो। जब सांसों पर ध्यान रहेगा या बीचबीच में जाता रहेगा तब खुद ही उनसे लगाव कम हो जाएगा और उनके प्रति दर्शक भाव पैदा हो जाएगा।
संभवतः जो कई बार समझा जाता है कि निर्जीवता का एकसार अंधेरा ही नामरूपता से रहित है, वह गलत है। दरअसल उस अंधेरे के रूप में नामरूप वाले दुनियावी विचार सूक्ष्म रूप में स्थित होते हैं, जो मौका मिलने पर पुनः स्थूल रूप में प्रकट हो जाते हैं। असली नामरूप से रहित सत्ता तो पूर्ण शुद्ध आत्मा अर्थात परमात्मा की ही है, जो अनिर्वचनीय है। हालांकि उसकी प्राप्ति नामरूप वाली दुनिया से ही होती है, क्योंकि कण कण में उसका वास है।
शास्त्रों में लिखा मिलता है कि निर्जीवता के अंधेरे का अस्तित्व नहीं है। वह हमें दुनियादारी की आसक्ति से पैदा हुए भ्रम से महसूस होता है। यह ऐसा ही भ्रम है जेसे गोल चक्के पर घूमने के बाद उससे बाहर उतरकर चारों ओर की सभी चीजें भी कुछ समय घूमती हुई दिखाई देती है। जितनी तेजी से या जितने समय तक हम उस पर घूमते हैं, वे चीजें भी उतनी ही तेजी से और उतने ही ज्यादा समय तक घूमती महसूस होती हैं। इसी तरह जिस किस्म की दुनियादारी होगी, उसके बाद का निर्जीवता का अंधेरा भी वैसा ही महसूस होगा। इसी को सूक्ष्म शरीर कहा जाता है। फिर तो जैसे घूमने का अहसास थोड़ी देर बाद खत्म हो जाता है, वैसे ही कुछ समय बाद सूक्ष्म शरीर का अंधेरा भी वैसे ही छंट जाना चाहिए। मतलब आदमी मृत्यु के बाद खुद मुक्त हो जाना चाहिए। पर शास्त्रों में ऐसा कहीं नहीं लिखा है। तर्क बुद्धि से तो ऐसा लगता है कि जेसे घूमने के झूठे एहसास के बाद आदमी अपनी पूर्व की दुनिया वाली अवस्था में आ जाता है, इसी तरह निर्जीवता के भ्रम के बाद आदमी अपनी पुरानी दुनियावी जिंदगी में फिर से प्रवेष कर जाना चाहिए मतलब उसका पुनर्जन्म हो जाना चाहिए। पर जिसने पहले पूर्ण मुक्ति का या जागृति का अनुभव कर लिया हो, शायद वह अपनी पूर्व की मुक्ति वाली अवस्था में चला जाता हो मतलब मुक्त हो जाता हो। यह बात फिर भी कुछ कुछ शास्त्रसम्मत लगती है। जो ब्लैकहोल जितना ज्यादा भारी होता है, वह उतना ज्यादा प्रकाश को निगल कर अपने अंदर उतना ही ज्यादा अंधेरा पैदा करता है। उसी आभासी अंधेरे के रूप में उसके मूल सितारे की सूचना उसमें संचित रहती होगी। हो सकता है कुछ समय बाद वह अंधेरा उसी जैसे सितारे के रूप में फिर से जन्म ले लेता होगा। इसको वैज्ञानिक कहते हैं, व्हाइट होल से उसकी ऊर्जा का निकलकर किसी दूसरे ब्रह्मांड में चले जाना। जबकि जो कम वजन के सितारे होते हैं, उनके नष्ट होने से थोड़े समय के लिए अंधेरा रहता है, और वे अनंत ऊर्जा से भरे अनंत आकाश में विलीन हो जाते हैं, मतलब मुक्त हो जाते हैं। वे हमारे संन्यासियों और वैरागियों की तरह होते होंगे, जो अपनी दुनियादारी को हल्का रखते हैं।