दोस्तों, गीता में श्रीकृष्ण भगवान कहते हैं कि वे सृष्टि के पिता हैं, जो ब्रह्म के रूप में अपनी पत्नी प्रकृति के अंदर अपना वीर्य-बीज डालते हैं। उससे संपूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति होती है। आओ, इसे हम वैज्ञानिक रूप से समझते हैं। हम अगर शास्त्रों की गहराई में जाएं , तो उसमें बहुत से रहस्य छिपे मिलेंगे। तमस-आकाश मतलब प्रकृति के अंदर ज्योतिर्मय आकाश मतलब पुरुष की लकीरों से एक छल्ला बना। वह मूलकण था। वह ऐसा ही था जैसे हम ब्लैकबोर्ड पर चाक से एक छल्ले का चित्र बनाते हैं। यह प्रकाश मतलब पुरुष और अंधकार मतलब प्रकृति से मिलकर बना होता है। ब्लैक बोर्ड पर निर्मित छल्ले में भी प्रकाश की रेखा की सीमाभित्ति के अंदर वह गोलाकार क्षेत्र अंधकाररूप होता है। ऐसा ही कुछ मूल कण भी था। पुरुषोत्तम अर्थात परमात्मा का वीर्यबीज उस छल्लानुमा रेखाचित्र की प्रकाशमान सीमाभित्ति के रूप में था। वह वीर्य पुरुष ही था। पुरुष और पुरुषोत्तम में मूलतः कोई अंतर नहीं है। उसी तरह जैसे नर जीव और उसके वीर्य के बीच में कोई अंतर नहीं है, क्योंकि उसके सारे गुण उसके वीर्य में सूक्ष्म रूप में छिपे होते हैं। या ऐसे समझ लो कि जैसे पूरा वृक्ष उसके बीज में छिपा होता है।
छल्ले के अंदर का अंधकार रूप गोलाकार क्षेत्र प्रकृति माता का अंडाणु था। वह अंडाणु भी प्रकृति रूप ही था। मादा जीव और उसके अंडाणु या ओवम के बीच में कोई अंतर नहीं है। दरअसल उसके सारे गुण अंडाणु में छिपे होते हैं। ऐसे समझ लो जैसे मुर्गी और उसके अंडे के बीच में तत्त्वतः कोई अंतर नहीं है। दोनों आपस में जुड़ गए मतलब अंडाणु शुक्राणु से निषेचित हो गया था। इसीलिए गीता में प्रकृति को क्षेत्र मतलब खेत और पुरुष को क्षेत्रज्ञ मतलब खेत को जानने वाला या बीजधारी किसान भी कहा गया है। जो खेत को समझेगा, वही उस पर हल चलाना चाहेगा और उसमें बीज भी डालना चाहेगा। फिर प्रकृति माता के गर्भ में वह निषेचित अंडाणु मूल कण बनकर वृद्धि और विकास करने के लिए क्रियाशील हो गया। उसने अपने विभाजन से अपने जैसे और भी मूल कण बनाए। वे मूल कण आगे से आगे आपस में जुड़कर बड़ी से बड़ी संरचनाएं बनाने लगे। शायद सृष्टि के प्रारंभ के महा विस्फोट या बिग बैंग से एकदम पहले वही एकमात्र मूलकण बना था। उसमें विस्फोट का और आगे से आगे फैलने का मतलब गर्भ में एककोशिकीय जाईगोट का बनना और उसका त्वरित और विस्फोटक विभाजनों से बाहर की तरफ बढ़ना अर्थात फैलना है। गौर करें कि माता के गर्भ में भी भ्रूण का विकास बिल्कुल ऐसे ही होता है। आज तक यह सृष्टि का वृद्धि-विकास अनवरत चल रहा है, और आगे भी चलता रहेगा। क्योंकि प्रकृति माता का गर्भ अपरिमित आकाश के रूप में है, इसलिए इसमें स्थान की कोई कमी नहीं है। इसीलिए सृष्टि को गर्भ से बाहर निकलने की कभी जरूरत ही नहीं पड़ती। इसके विपरीत जीव-स्त्री के गर्भ में सीमित स्थान होने से कुछ समय बाद बच्चे को गर्भ से बाहर निकालना पड़ता है। उसका उसके बाद का विकास गर्भ के बाहर होता है। बच्चा भी मां और बाप दोनों के अंश से मिलकर बना होता है। शुक्राणु और अंडाणु के मिलने से जो जाएगोट नाम की पहली गोल कोशिका बनती है, उसमें माता और पिता के आधे-आधे गुण होते हैं। इससे संतान के पूरे नए शरीर में भी माता-पिता के गुण आधे-आधे और बराबर हो जाते हैं। इसीलिए तो संतान की शक्ल माता-पिता दोनों से मिलती है। इसी तरह से, क्योंकि प्रथम मूल कण ही पुरुष और प्रकृति के आधे-आधे और बराबर गुण समेटे हुए होता है, इससे पूरी सृष्टि में उन दोनों के गुण बराबर और आधे-आधे आ जाते हैं, क्योंकि उस एकमात्र मूलकण से ही पूरी सृष्टि विकसित होती है। इसीलिए किसी भी चीज को देखकर हमें परमात्मा की और कुदरत की याद आती है। यह ऐसे ही होता है, जैसे संतान को देखकर उसके माता-पिता के बारे में अंदाजा लग जाता है। इसीलिए धातु, पत्थर आदि की मूर्तियों की पूजा की जाती है। हम पिता-परमात्मा को तो नहीं देख सकते, पर उसकी संतानों के रूप में उसे जरूर देख सकते हैं। संतान माता-पिता की नकल करते हुए वृद्धि और विकास करते हुए उनके कार्यों और व्यवसाय को संभालते हुए हर समय उनके जैसा बनने की कोशिश करती रहती है। उसी तरह प्रकृति और पुरुष की संतान जो सृष्टि है, और उसके सभी पदार्थ भी उत्तम से उत्तम रचना बनाने के लिए अपने पिता परमात्मा की अनंत ऊंचाई से प्रेरित होकर विकसित होते रहते हैं, और साथ में अपनी माता प्रकृति से भी शक्ति लेते रहते हैं।
जैसे पुरुष-पिता शरीर के सहस्रार में रहते हैं, उसी तरह प्रकृति-माता भी शरीर के मूलाधार में शक्ति के रूप में सोई रहती है। बच्चों का सीधा संपर्क माता से ज्यादा होता है। पिता तो अपने कार्य, व्यापार आदि में व्यस्त रहता है। माता ही उसका संपर्क पिता से स्थापित करती रहती है। इसी तरह आदमी भी सीधा ही सहस्रार चक्र में स्थित पिता-पुरुष या शिव से नहीं मिल सकता। उसे उनसे मिलने के लिए मूलाधार में स्थित माता-प्रकृति या शक्ति के सुकून से भरे आंचल की सहायता लेनी पड़ती है। माता-शक्ति उसे पिता-शिव से मिला देती है। इसे ही कुंडलिनी योग और कुंडली जागरण कहते हैं।