सभी मित्रों को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।
दोस्तों, शास्त्रों के अनुसार सृष्टि पुरुष और प्रकृति के सहयोग से बनी है। प्रकृति में ही तीनों गुण होते हैं। पुरुष में नहीं। पुरुष तो गुणातीत है। वह तीनों गुणों से परे है। पुरुष शुद्ध आत्मा ही है। प्रकृति जड़ है। मतलब प्रकृति का अपना अस्तित्व नहीं है। प्रकृति आभासी है। फिर प्रकृति के तीनों गुणों को कौन महसूस करता है? यह पुरुष ही है जो प्रकृति के गुणों को महसूस करता है। प्रकृति को स्त्रीलिंग रूप इसलिए दिया गया है क्योंकि दोनों में ज्यादा समानता है। स्त्री भी अपने रूप और सौंदर्य को सजधज कर ज्यादा से ज्यादा दुनिया के लोगों को दिखाना चाहती है और प्रकृति भी। सुंदर प्रकृति को देखकर बरबस ही सुंदर स्त्री की याद आने लगती है। इसी तरह सुंदर स्त्री को देखकर मनमोहक प्रकृति जीवंत सी हो जाती है। पुरुष को बिना स्त्री को साथ लिए कहीं भी घूमने में पूरा मजा नहीं आता। दरअसल पुरुष प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ अर्थात बंधा हुआ होता है। इसी को हम बद्ध जीवात्मा कहते हैं। जब गुणों के प्रति अनासक्ति के व्यवहार से वह प्रकृति से अलग हो जाता है तब वह फिर से मुक्त आत्मा अर्थात शुद्ध आत्मा बन जाता है। यहां यह ध्यान योग्य बात है कि मुक्त होने के लिए बंधना भी जरूरी है। मुक्ति का पहला कदम बंधन ही है। जो पशु खूंटे से बंधा ही नहीं है, वह उससे छूटेगा कैसे। आदमी की जीवित अवस्था में उसकी आत्मा प्रकृति के तीनों गुणों की चढ़ती उतरती तरंगों को महसूस करती है। इसी को आदमी की जीवित अवस्था का लक्षण माना जाता है। जिसमें जितनी ज्यादा और जितनी तेजी से लहरें बनती हैं, उसे उतना ही ज्यादा जीवंत माना जाता है। जब किसी प्रेमी से मिलन होता है तो सतोगुण की लहर ऊपर चढ़ती है। मन में चारों और प्रेम और आनंद सा उमड़ आता है। पुरानी यादें हसीन रूपों में ताजा हो जाती हैं। चेहरे पर मुस्कान और चमक छा जाती है। अच्छी भूख लगती है, काम करने को मन करता है। आदमी उत्तम मनस्कता से परिपूर्ण रहता है। जब उससे वियोग होता है तो सतोगुण की ऊपर चढ़ी हुई लहर नीचे उतरकर धरातल से भी नीचे गिर जाती है। सारा आनंद गायब सा हो जाता है। मनस्कता अवसाद में बदल जाती है। पुरानी हसीन यादें गहरे अंधेरे में गायब हो जाती हैं। मन में घृणा और उदासी का जैसा भाव छा जाता है। चेहरे पर शिकन और अंधेरा सा छा जाता है। भूख गायब हो जाती है। काम करने को मन नहीं करता। जो पहले सतोगुण की लहर थी, वह तमोगुण की लहर बन जाती है। सतोगुण और तमोगुण के बीच के परस्पर बदलाव के दौरान रजोगुण की छोटी लहर की अवस्था भी होती है। मतलब सतोगुण से तमोगुण में और तमोगुण से सतोगुण में एकदम से बदलाव नहीं होता बल्कि रजोगुण से होकर जाता है। रजोगुण को हम हल्की सी ऊपर उठी हुई लहर कह सकते हैं। आदमी का मूल स्वभाव रजोगुणी माना जाता है। मतलब वह काम में इतना व्यस्त रहता है कि मानसिक लहर को सतोगुण के ऊंचे स्तर तक कम ही उठा पाता है। साधु लोग साधना से उठा लेते हैं। देवता को सतोगुणी कहा जाता है। मतलब उनका सतोगुण उच्च स्तर का होता है। बेशक उसमें लहर नहीं होती क्योंकि उनके पास स्थूल शरीर नहीं होता। यह जो विभिन्न देवताओं को विभिन्न मनुष्याकार मूर्तियों के रूप दिए गए हैं, वे सब कल्पित हैं, हालांकि उनके वास्तविक रूप से बहुत मिलते हैं। इसी तरह सभी पशु योनियों को तमोगुणी कहा गया है। ऐसा उनमें दिमाग अर्थात मन की कमी से होता है। इसीलिए कहते हैं कि सतोगुणी देवलोक को जाते हैं या मुक्त हो जाते हैं, रजोगुणी दोबारा मनुष्य योनि को प्राप्त करते हैं और तमोगुणी पशु योनि को प्राप्त करते हैं।
अब प्रश्न है कि मृत्यु के बाद जब तक शरीर नहीं मिलता तब तक आत्मा में गुण किस अवस्था में रहते हैं। हमने पिछले लेख में भी शास्त्र के इस तथ्य पर प्रकाश डाला था कि उस समय तीनों गुण साम्यावस्था में रहते हैं। साम्यावस्था का मतलब है कि तीनों गुणों की मात्रा आपस में भिन्नता रख सकती है, पर हर एक गुण एक निश्चित स्तर पर ही होगा। मतलब बदलेगा नहीं। क्योंकि शरीर के बिना उसमें लहरें नहीं बन पाएंगी। मुझे पवित्र आत्मा में सतोगुण की ज्यादा मात्रा अनुभव हुई थी। ऐसा लगा था कि एक अनंत आकाश के जैसा सूर्य एक पतली झिल्ली या वील से ढका हुआ है और जिस से अंधेरा बन गया है। पर वह अंधेरा काजल जैसा चमकीला है, और जैसे सूर्य की किरणों का दबाव उस ढकने वाली झिल्ली को फोड़ना चाहता है। सतोगुण प्रकाश का भी प्रतीक है। फिर भी कुछ नहीं बदल रहा था। कहीं कोई गति नहीं थी। जो उबाल के जैसी अदृश्य गति सी महसूस हो रही थी, वह शायद आधारभूत रजोगुण था। हालांकि वह आभासी गति ही थी, असली नहीं। तमोगुण तो काजल के जैसे अंधेरे के रूप में था ही। काजल में जो चमक है उसे सतोगुण मान लो। फिर भी वह आत्मा मुझे पवित्र और सात्विक लग रही थी। एक बार योग के दौरान एक दुष्ट आत्मा भी मुझे कुछ क्षणों के लिए महसूस हुई थी। उसका अंधेरा डरावना और पाप, घृणा और बदले की भावना से भरा लग रहा था। उस आत्मा ने मेरे एक परिचित का उसी दिन नुकसान भी किया था, पर वह सुरक्षित बच गया था। मतलब कि आत्माओं के बीच में विभिन्न गुण-समूहों के रूप में सूक्ष्म वेरिएशंस अर्थात विभिन्नताऐं होती हैं। सतही तौर पर हमें सभी आत्माएं एक जैसी लगती है, पर ऐसा नहीं होता। किसी आदमी का आत्मा वैसा ही होता है जैसे उसके सभी जन्मों के गुण और कर्म होते हैं।
यहां एक मनोवैज्ञानिक तथ्य भी है जो योग से संबंधित है। आसक्ति के साथ अपनाई गई दुनियादारी से तमोगुण बनता है। पर अगर कुंडलिनी योग से उससे आसक्ति निकाल दी जाए तो वही दुनियादारी सतोगुण बन जाती है। मतलब कि योग से सतोगुण बढ़ता है। रजोगुण तो गति का ही नाम है। मतलब तमोगुण सतोगुण की तरफ जाते हुए रजोगुण से होकर जाता है। मतलब कि सतोगुण के तमोगुण में और तमोगुण के सतोगुण में परिवर्तित होने की क्रिया को ही रजोगुण कहते हैं। इसमें सतोगुण और तमोगुण दोनों की हिस्सेदारी होती है, क्योंकि एक गुण मिट रहा होता है और दूसरा गुण बन रहा होता है। जो तमोगुण से सतोगुण की तरफ जाने की आत्मा की स्वाभाविक या नैसर्गिक प्रवृत्ति है, वह स्वाभाविक रजोगुण है, और वही मुझे आत्मा में एक आभासी उबाल या उफान के रूप में महसूस हुई थी। सतोगुण से तमोगुण की तरफ लोग स्वाभाविक प्रवृत्ति को नजरअंदाज करते हुए बुरे या घटिया या पापपूर्ण काम करके जानबूझ कर जाते हैं। कई बार सतोगुण से सीधे तमोगुण में घुस जाते हैं और कई बार रजोगुण से होकर धीरे धीरे जाते हैं। रजोगुण वैसे तो दोनों परिस्थितियों में बीच में आता है। बेशक पहली स्थिति में थोड़ा सा और दूसरी स्थिति में ज्यादा। तमोगुण से कई योगी एग्रेसिव अर्थात जबरदस्त तांत्रिक कुंडलिनी योग से एकदम से सतोगुण में घुस जाते हैं और कई लोग आम दुनियादारी से होकर और लंबे समय तक रजोगुण से होते हुए सतोगुण तक पहुंचते हैं। गुण परिवर्तन या गुण रूपांतरण का यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहता है।