दोस्तों आजकल मन में वैसे भाव नहीं उठते, जैसे आधुनिक संचार युग के आने से पहले उमड़ा करते थे। पुराने समय में मन में बहुत मीठे और सूक्ष्म भाव उमड़ा करते थे। किस्म किस्म के भाव होते थे। प्रेम के भाव होते थे, दया के भाव होते थे, मित्रता के भाव होते थे, खुशी के भाव होते थे और भी कई किस्म के भाव मन में आते थे। वे भाव चेहरे पर भी साफ परिलक्षित होते थे। अपनी ऊंची अवस्था में होने पर भी ये सभी भाव नियंत्रित और संयमित होते थे। आजकल तो आदमी जल्दी ही भाव में बहने लगता है। अब मस्तिष्क में वह शक्ति नहीं रही जो भावों की आसक्ति से बचा सके और आदमी को उनमें बहने से रोक सके। आजकल की पीढ़ी मुझे भावशून्य सी लगती है। बच्चों में वह बचपना नहीं दिखता, किशोर भी किशोर कम और बच्चे ज्यादा लगते हैं, और युवाओं में भी वह यौवन नहीं दिखता। हमने तो पुराना युग भी देखा है, इसलिए नए युग से ज्यादा कुप्रभावित नहीं होते, पर वह नई पीढ़ी जिसने पुराने युग के अनुभव का जरा भी मजा नहीं लिया है, उसका क्या होगा। उन्हें हम प्यार से ही अपने अनुभव प्रेषित कर सकते हैं। वो अगर समझ गए तो वो भी अपने से नई पीढ़ी को उनको प्रेषण कर सकते हैं। इस तरह से मानव सभ्यता प्रकृति के मार्ग से दिग्भ्रमित होने से बच सकती है। और तो और, अगर पुराने समय में घृणा, क्रोध, ईर्ष्या, शत्रुता आदि के भाव भी होते थे, तो वे भी नियंत्रित और संतुलित होते थे। आदमी के पास इतना नियंत्रण होता था कि वह उन्हें हल्का कर सके और उनकी छाप को चेहरे पर आने से रोक सके।
मुझे लगता है कि आजकल की कुंठित मानसिकता के लिए संचार की अदृश्य तरंगें जिम्मेदार हैं। इन्हें हम विज्ञान की भाषा में इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगे कहते हैं। भौतिक स्तर पर तो वे इस शरीर को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकती, क्योंकि उनमें बहुत कम ऊर्जा होती है। ये सूर्य के प्रकाश की तरंगों की तरह होती हैं। पर मुझे तो लगता है कि प्रकाश की तरंगें भी मन के सूक्ष्म विचारों पर कुछ ना कुछ असर तो डालती ही हैं। इसीलिए संध्या के समय जब सूर्य का प्रकाश बहुत कम होता है, उस समय मन में बहुत ही सुंदर सुविचार उमड़ते हैं। इसी तरह योगी लोग अंधेरी गुफा में साधना करना पसंद करते थे क्योंकि वहां प्रकाश का व्यवधान भी नहीं होता था। इसके अलावा, वीएफएक्स (विशेषकर छायादार ग्राफिक्स) से भरी फिल्में, प्राकृतिक प्रकाश से भरी फिल्मों की तुलना में अधिक आनंददायक और भावनाओं से भरी लगती हैं। इसी तरह जहां पर फोन टीवी आदि के सिग्नल कम होते हैं, वहां पक्षी ज्यादा तादाद में दिखाई देते हैं। इस पर एक फिल्म भी बनी हुई है। एक बार मुझे ऐसी सुदूर घाटी में रहना पड़ा था जहां पर कोई मोबाइल नेटवर्क नहीं था। वहां मुझे पुराने जमाने के जैसी अनोखी शांति महसूस हुई थी। मन के भाव भी वहां अच्छे से बन रहे थे। इसका मतलब है कि बेशक सामान्य विद्युत चुंबकीय तरंगों में न्यूनतम ऊर्जा होती है पर ये आत्मा को और उसकी अनुभव करने की क्षमता को प्रभावित कर सकती हैं। वैज्ञानिक बताते हैं कि जो मस्तिष्क के न्यूरॉन्स में स्पंदनशील विद्युत प्रवाह बनता है, उससे जो स्पंदनशील व अदृश्य विद्युत विद्युतचुंबकीय क्षेत्र बनता है, उसी को आत्मा विचारों के रूप में अनुभव करती है। देखा जाए तो विद्युत चुंबकीय तरंगें भी बदलते हुए विद्युत चुंबकीय क्षेत्रों के रूप में ही होती हैं। इसलिए अगर दोनों एकदूसरे को प्रभावित करे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
इससे यह अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि संचार साधनों की विद्युत चुंबकीय तरंगे मन के विचारों को प्रभावित करती हैं। पर फिर भी इनसे घबराने की जरूरत नहीं है। ठीक ही कहा है कि जहां चाह वहां राह। कुंडलिनी योग से मस्तिष्क की विद्युतचुंबकीय शक्ति इतनी बढ़ जाती है कि बाहरी विद्युतचुंबकीय तरंगों का उस पर कम ही असर पड़ता है। योग के दौरान तो ऐसा होता ही है पर अगर योग को दिन में दो या तीन बार किया जाए तो यह शक्ति दिनभर बनी रहती है। आज के युग में विद्युत चुंबकीय तरंगों से मुक्त क्षेत्र में ज्यादा समय बिताना एक सपने की तरह ही लगता है। हम पूरी धरती को तो चमड़े से मढ़ नहीं सकते, पर चमड़े के जूते जरूर पहन सकते हैं। मतलब कि हम जमाने को तो एकदम से नहीं बदल सकते पर अपने को जमाने के अनुसार जरूर बदल सकते हैं।