दोस्तों आम लोकधारणा के अनुसार न्यूनतावाद को मुक्ति का पर्याय माना जाता है। यह धारणा शास्त्रों से बनी है। पर शास्त्रों का मतलब मुझे कुछ और ही लगता है। अगर न्यूनतावाद ही मुक्ति की पहचान होती, तब तो सभी गरीब और भिखारी लोग मुक्त और परम ज्ञानी होते। पर असल में उनकी दशा तो सबसे खराब होती है। मुझे शास्त्रों की इस उक्ति का तात्पर्य लगता है कि अगर कोई आदमी योग साधना में सफलता की सीढ़ियां चढ़ रहा है तो उसे न्यूनतम जरूरत से ज्यादा भौतिकता की तरफ भागने की जरूरत नहीं है। क्योंकि उसकी भौतिकता की तरफ की दौड़ उसकी योग साधना में विघ्न पैदा कर सकती है। मतलब ज्यादा महत्व योग साधना का है, न्यूनतावाद का नहीं। हां, अगर उसकी योग साधना में भौतिकता विघ्न ना पैदा कर रही हो तो भौतिकता में बुराई भी नहीं है। दरअसल भौतिकता नहीं, बल्कि भौतिकता की तरफ दौड़ ही विघ्न पैदा करती है। इससे जो ऊर्जा योग साधना में लगनी थी, वह भौतिकता में या भौतिकता को प्राप्त करने में बर्बाद हो जाती है। अगर किसी को मुफ्त में भौतिक सुख समृद्धि मिल रही हो, तो उससे तो उसकी ऊर्जा की बचत ही होगी। उस बची हुई अतिरिक्त ऊर्जा को वह योग साधना में लगा सकता है। शास्त्रों में फकीरों के जैसे न्यूनतावाद का इसीलिए समर्थन किया गया है ताकि ज्यादा शारीरिक कामों से भी ऊर्जा की बर्बादी ना होए और ज्यादा शारीरिक उपभोगों से भी ऊर्जा बर्बाद ना होए। बल्कि इसके विपरीत थोड़ा शारीरिक श्रम भी होता रहे और थोड़ा शारीरिक उपभोग भी होता रहे। इससे ऊर्जा का संचय होता है। यह संचित ऊर्जा योगसाधना में लगाई जा सकती है। यह बुद्ध का मध्य मार्ग ही है। अगर कोई बिल्कुल ही कंगाल होगा तो भोजन के अभाव में भोगों का मध्यम उपभोग कैसे करेगा और कैसे मध्यम शारीरिक श्रम कर पाएगा? इससे बेशक ऊर्जा का अपव्यय तो नहीं होगा, पर ऊर्जा का संचय भी तो नहीं होगा। इसी तरह यदि कोई अति धनाढ्य होगा तो वह भी लापरवाही व अहम के कारण बिल्कुल भी शारीरिक काम नहीं करेगा और साथ में वह भोगों का अति उपभोग भी करेगा। इससे उसकी ऊर्जा का संचय भी नहीं होगा और बचीखुची उर्जा भी भोग भोगने में नष्ट हो जाएगी। फिर वह योग कैसे करेगा। पर यदि कोई धनाढ्य होता हुआ भी मध्यम श्रम और भोगों का मध्यम उपभोग करता है, और उससे संचित ऊर्जा से योग करता है, तो वह न्यूनतावादी या फकीर ही माना जाएगा। मतलब शास्त्रों में न्यूनतावादी का हवाला देते हुए परोक्ष रूप से योग का ही समर्थन किया गया है। राजा जनक महान धनाढ्य थे, पर फिर भी योगी थे। इसी से उनके अंदर न्यूनतावादी स्वभाव खुद ही पनप गया था। दरअसल दुनिया के आम लोग मोटी बुद्धि के होते हैं, इसलिए मोटी बात ज्यादा समझते हैं। योग पर लोगों का ध्यान आसानी से नहीं जाता। इसीलिए शास्त्रों में कई स्थानों पर न्यूनतावाद को ही मुक्ति का पर्याय बताया गया है, योग को नहीं। ऋषियों का मत रहा होगा कि शायद न्यूनतावाद से लोगों में खुद ही योग की आदत पड़ जाए। बहुतों में ऐसा हुआ भी होगा पर मुझे तो ऐसे कम ही मामले नजर आते हैं। ज्यादातर लोग तो न्यूनतावाद में ही उलझे रहते हैं, और योग की तरफ जाते हुए नहीं दिखते। “न माया मिली न राम” यह कहावत उन्हीं लोगों के लिए बनी प्रतीत होती है जो न्यूनतावादी तो बनते हैं पर योग नहीं करते। वैसे ज्यादा असली ज्यादा और सार्थक न्यूनतावाद वही है जो योग से खुद पैदा होए।
कुंडलिनी योग ही न्यूनतावाद अर्थात मिनिमेलिज्म की जननी है
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demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन
I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है। View all posts by demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन