कुंडलिनी योग से आत्मा की चेतनता बढ़ने से वह स्वर्ग को जाती है

दोस्तों मृत्यु के बाद आत्मा की अवस्था को जानना एक बहुत पेचीदा काम है। कठोपनिषद के नचिकेता को यमराज ने वर देने के वचन के पालन की मजबूरी से ही यह रहस्य बताया था। यमराज ने कहा था कि इसका पूरा रहस्य उनके सिवा देवता आदि भी कोई नहीं जानते। आत्मा सूक्ष्म शरीर से युक्त होती है। मतलब आत्मा जीवित प्राणी द्वारा किए जाने वाले सभी काम कर सकती है। तो फिर क्या परमात्मा भी सूक्ष्म शरीर से युक्त होता है? शास्त्र कहते हैं कि परमात्मा स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर तीनों से परे हैं। पर तब आत्मा की तरह परमात्मा की चेतनता कैसे सिद्ध होगी। चेतना तो शरीर से और उससे किए जाने वाले कामों से ही सिद्ध होती है।

शास्त्रों में कहा गया है कि प्रलय का समय खत्म होने पर परमात्मा ने इच्छा जाहिर की कि वह अकेला ऊब रहा है, इसलिए वह एक से अनेक रूप हो जाए। इससे सृष्टि का विकास शुरू हुआ। इच्छा मन से होती है, और निर्णय बुद्धि से होता है। अपने आप का अहम तो परमात्मा में है ही। यह शुद्ध अहम है, विकृत अहंकार नहीं। फिर जो कर्मेंद्रियों और ज्ञानेंद्रियों से होने वाले सृष्टि निर्माण और विकास के काम निरंतर हो रहे थे, उन्हें एक प्रकार से परमात्मा ही कर रहे थे। आज भी वही कर रहे हैं। उन इंद्रियों को चलाने वाले प्राण भी परमात्मा के अंदर ही थे। मतलब चेतनता के सारे अंग या गुण मूल रूप में परमात्मा के ही हैं। गीता में भी भगवान के विराट शरीरयुक्त रूप का वर्णन किया गया है।  इस रूप में भगवान की अनगिनत विशेषताएँ हैं, जैसे कि उनके अनेक मुख, अनेक आँखें, अनेक बाहें, और अनेक पैर हैं। बाद में ये चेतना को अभिव्यक्त करने वाले सारे गुण और अंग साधारण जीव या मानव शरीर में निर्मित हुए, जिसमें आत्मा का वास होने लगा। आत्मा भी परमात्मा का ही अंश है। वह शरीर में आकर अपने मूल परमात्मा की अनंत चेतना को भूल गया और शरीर की सीमित चेतना से बंध गया। फिर जितनी शरीर की चेतनता होती थी, उतनी ही उसमें भी रहने लगी। शरीर के मरने के बाद शरीर वाली चेतना उसमें सूक्ष्म शरीर के रूप में समा जाती थी। इसीलिए पशुओं की आत्मा की चेतनता कम होती है। इसीलिए पशु की आत्मा किसी से मिलने नहीं आती और ना किसी से बात कर पाती है, क्योंकि पशु खुद भी बात नहीं कर पाते। परमात्मा को जो तीनों शरीरों से परे बताया गया है, इसका मतलब यही लगता है कि हैं तो परमात्मा के भी यह तीनों शरीर पर वह इनसे बंधा नहीं है, और अपने पूर्ण सच्चिदानंद स्वरूप से जरा भी नहीं डगमगाता। यह तो आश्चर्य ही है? यह उच्चतम कोटि की अनासक्ति ही है। कुल मिलाकर अनासक्ति से बढ़कर कोई धर्म नहीं लगता। मुझे इसी में सारे धर्म और नियम समाए हुए लगते हैं। मानवता, जो धर्म का सबसे मूलभूत आधार है, वह भी अनासक्ति से ही जुड़ा हुआ है।

हां, तो हम कह रहे थे कि आदमी की चेतनता उसके मरने के बाद उसके सूक्ष्म शरीर में चली जाती है। मेरी इस बात के लिए शास्त्र भी प्रमाण हैं। शास्त्रों में आता है कि अच्छे कर्म करने से स्वर्ग मिलता है। अच्छे कर्म से आदमी का स्वभाव व दृष्टिकोण भी अच्छा हो जाता है। इससे उसका सूक्ष्म शरीर भी अच्छा हो जाता है। अच्छे सूक्ष्म शरीर को ही स्वर्ग का मिलना कहा गया है। स्थूल शरीर तो स्वर्ग जा नहीं सकता। कहावत भी है कि मरे बगैर स्वर्ग नहीं जाया जाता। मतलब आदमी के अच्छे कर्म से जो उसके सूक्ष्म शरीर की चेतनता बढ़ती है, वही उसे मरने के बाद स्वर्ग का सुख प्रदान करती है। चेतनता ही आनंद है, चेतनता ही ज्ञान है, चेतनता ही सुख है। स्वर्ग ही आनंद है, स्वर्ग ही ज्ञान है, स्वर्ग ही सुख है। इसी तरह शास्त्र कहते हैं कि बुरे कर्म करने से नरक मिलता है। बुरे कर्म करने से आदमी का स्वभाव व दृष्टिकोण भी बुरा हो जाता है। इससे उसका सूक्ष्म शरीर भी बुरा हो जाता है। बुरे सूक्ष्म शरीर को ही नर्क का मिलना कहा गया है। मतलब आदमी के बुरे कर्म से जो उसके सूक्ष्म शरीर की चेतनता घटती है अर्थात उसकी जड़ता बढ़ती है, वही उसे मरने के बाद नर्क का दुख प्रदान करती है। जड़ता ही अज्ञान है, जड़ता ही दुःख है। नर्क ही अज्ञान है, नर्क ही दुख है।

इन बातों से स्पष्ट है कि कुंडलिनी योग से आत्मा की चेतनता बढ़ती है। आत्मा यहां जीवात्मा का ही पर्याय है। शुद्ध आत्मा को तो परमात्मा ही कहना चाहिए। वह तो पहले से ही परम चेतन है। उसकी चेतनता कैसे बढ़ सकती है। कई जगह आत्मा और जीवात्मा का भेद बता कर भ्रम पैदा किया जाता है। वैसे ऐसा भी नहीं है। वे विस्तार से समझा रहे होते हैं। वैसे अगर जीवात्मा और परमात्मा दोनों के लिए आत्मा शब्द का प्रयोग किया जाए तब भी विषय के अनुसार शब्द का भाव समझ में आ जाना चाहिए। पर सभी लोगों को बुद्धि स्तर एक जैसा नहीं होता। कुंडलिनी योग से सूक्ष्म शरीर में भरा हुआ विचारों का कचरा साफ हो जाता है। इससे आदमी में काम करने की और ज्ञान को ग्रहण करने की शक्ति आ जाती है। इसे वह अनासक्ति से करता है क्योंकि योग से उसका ऐसा ही स्वभाव बन जाता है। अनासक्ति से उसकी ताकत की व्यर्थ बर्बादी रुकने से ताकत की बचत भी होती है। काम वह अच्छे ही करता है क्योंकि अनासक्ति से ज्यादातर अच्छे ही काम होते हैं।

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demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

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