कुंडलिनी योग से जगत इन्द्रियों में, इंद्रियां मन में, मन बुद्धि में, बुद्धि अहंकार में और अहंकार आत्मा में विलीन हो जाता है

दोस्तों, सूक्ष्म शरीर पर यह चर्चा बढ़ती ही जा रही है। मैं चाहता था कि कोई नई चर्चा शुरू होए, पर यह क्या है न कि चर्चा एक सृष्टि की विकास प्रक्रिया की तरह ही चरणों से गुजरती है। यह शुरू होती है, बढ़ती है, और निष्कर्ष पैदा करके खत्म हो जाती है। इस पर किसी की लगाम नहीं लगती। यह पोस्ट भी मुझे निष्कर्ष वाली लग रही है। पर फिर भी पता नहीं आगे कहां तक जाए।

हम बात कर रहे थे कि शरीररहित आत्मा अपने को ही सूक्ष्म शरीर के रूप में अनुभव करती है। आत्मा के अंदर उसके पिछले सभी जन्मों के किस्से सूक्ष्म रूप में मौजूद होते हैं। वह उन्हीं को सूक्ष्म शरीर के रूप में महसूस करती है। यह तो सब ठीक है पर स्थूल शरीर के बिना वह दूसरों के साथ कैसे संपर्क करेगी? और उसका विकास भी कैसे होगा? देखो, पिछले जन्मों का कभी उसे कोई हिस्सा ज्यादा महसूस होता होगा तो कभी कोई दूसरा। यह ऐसे ही है जैसे शरीरयुक्त आत्मा के मन में कभी कोई विचार उठता है, तो कभी कोई। पहले वह विचार भी सूक्ष्म अनुभव के रूप में आत्मा में महसूस होता है। उसके बाद वह अनुभव मन की तरंगों के माध्यम से उस अनुभव वाले विचार के रूप में स्थूलता ग्रहण करता है। वह विचार फिर मुख से बोल के रूप में निकलकर और ज्यादा स्थूल हो जाता है। उस बोल से जब उसके जैसा काम होता है तब वह काम के प्रभाव या जगत के रूप में और ज्यादा स्थूल हो जाता है। इस तरह से स्थूलता बढ़ती ही रहती है। इस तरह से आत्मा का विस्तार पूरे जगत में हो जाता है। अंत में यह जगत सिकुड़ कर फिर से आत्मा में समा जाता है। फिर सारी प्रक्रिया उल्टी चलने लगती है। जगत के स्थूल पदार्थ सूक्ष्म होकर कर्मेंद्रियों और ज्ञानेंद्रियों में समा जाते हैं। यह ऐसे ही है कि जगत चक्रों में समा जाता है। इसीलिए कुंडलिनी योग में चक्र साधना सबसे मुख्य अंग है। चक्र में ध्यान लगाने से उनसे अर्थात उनके या इंद्रियों के द्वारा पैदा हुए कर्मों और फलों से जुड़ी स्मृतियां मन में आ जाती है। वैसे भी कहते ही हैं कि सातों चक्र शरीर की सभी इंद्रियों से जुड़े होते हैं। इसको ऐसे कहा गया है कि इंद्रियां मन में समा जाती है। मन फिर और ज्यादा सूक्ष्म होकर बुद्धि में समा जाता है। मतलब मन के विचारों का लय होने से बुद्धि तेज हो जाती है, क्योंकि मस्तिष्क की जिस ऊर्जा को मन खा रहा था, वह अब बुद्धि को मिलती है। बुद्धि फिर और ज्यादा सूक्ष्म होकर अहंकार में समा जाती है। मतलब जब बुद्धि को लगने वाली ऊर्जा भी दुनियादारी में बर्बाद नहीं होती तो वह भी अहंकार में विलीन हो जाती है। अहंकार मतलब अंधेरा। जब आदमी सब कुछ ठुकरा देगा तो अंधेरा ही बचेगा। इसी अंधेरे में जब आदमी कुंडलिनी योग से कुंडलिनी की लौ जलाता है, तो वह जागृत होती हुई अवस्था में अहंकार को आत्मा में विलीन कर देती है, मतलब कुंडलिनी जागरण के रूप में कुछ क्षणों के लिए आत्मा का अनुभव प्राप्त होता है। यह सारा खेल शक्ति का ही है। जब वह बहिर्मुखी थी, तो दुनिया के रूप में बाहर ही बाहर फैलती गई। जब यह अंतर्मुखी हुई तो अंदर ही अंदर सिकुड़ती गई और अंत में कुंडलिनी योग के माध्यम से कुंडलिनी को लग गई और वह उस शक्ति से आत्मा में विलीन हो गई।

यह अहंकार आत्मा जैसा ही है पर उसमें आत्मा से कम चेतना होती है। इसे जीवात्मा कह लो क्योंकि इसमें आदमी का पिछला सारा इतिहास सूक्ष्म कोडों के रूप में छुपा होता है। अंत में शरीर छूटने से अहंकार भी आत्मा में समा जाता है। शरीर छूटने से अहंकार आत्मा में तो नहीं पर जीवात्मा में समा जाता है। आत्मा में समाने के लिए उसे कुंडली जागरण का अनुभव प्राप्त करना होगा। कुंडली जागरण के कुछ क्षणों के अनुभव के दौरान वह अहंकार अर्थात आदमी का अपना मूलभूत जीवात्मा वाला रूप आत्मा में समाया होता है। हालांकि उस अनुभव के बाद अहंकार पुनः वापिस आ जाता है क्योंकि अहंकार के बिना कोई जीवन जी ही नहीं सकता। उसके बिना या पूर्ण आत्मा के रूप में आदमी होगा तो पूर्ण पर होगा लकड़ी के ठूंठ की तरह। दुनिया के प्रति उसकी कोई प्रतिक्रिया शेष नहीं रह जाएगी। खैर, अहंकार की ऊर्जा जब बाहर नहीं भागती तो वह ऊर्जा कुंडलिनी जागरण को पैदा करती है। होता यह सब कुंडलिनी योग से ही है। ये सभी तत्त्व आत्मा में सूक्ष्म रूप में रहते हैं। कभी आत्मा से बाहर निकलते हैं, कभी उसमें समा जाते हैं। शास्त्रों में सृष्टि और प्रलय का और जीवन और मृत्यु का बिल्कुल ऐसा ही वर्णन मिलता है। यहां तक कि योग साधना से अज्ञान से ज्ञान की तरफ जाने का अर्थात बंधन से मुक्ति की तरफ जाने का जो सफर है, उसका वर्णन भी इसी तरह का आता है। दरअसल, ये सब प्रक्रियाएं एकसमान ही हैं। सिर्फ मानसिकता, उद्देश्य, और प्रक्रिया के तरीकों में ही फर्क है। यहां किसी चीज के किसी चीज में समाने का यह मतलब नहीं है कि वह चीज खत्म हो जाती है। बल्कि इसका यह मतलब है कि वह सूक्ष्म होकर अर्थात ऊर्जा के रूप में रूपांतरित होकर किसी मिलतेजुलते अन्य रूप में प्रकट हो जाती है। यह ऐसे ही है जैसे कहते हैं कि गागर में सागर समाना। शास्त्रों में इसे ऐसे कहा गया है कि आत्मा इस संसार को अपने अंदर से ऐसे ही फैलाता और अपने अंदर ऐसे ही समेटता रहता है, जैसे एक कछुआ अपने अंगों को अपने कवच से बाहर निकालता है और अपने कवच के अंदर को समेटता भी रहता है। दूसरा उदाहरण ऐसा दिया जाता है कि जिस तरह मकड़ी अपने मुंह से अपना जाला बुनती है और फिर उस जाले को अपने मुंह में ही निगल जाती है, उसी तरह परमात्मा भी सारे संसार को अपने आप से पैदा करता है, और अंत में अपने आप में ही विलीन भी कर लेता है।

Published by

Unknown's avatar

demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

Leave a comment