दोस्तों, शास्त्रों में कही गई बातों के गहरे मतलब होते हैं। जैसे कि हम चर्चा कर रहे थे कि योग स्थूलता से सूक्ष्मता की तरफ जाता है। मृत्यु या प्रलय को भी स्थूलता से सूक्ष्मता की तरफ जाने को ही कहते हैं। फिर योग में और मृत्यु में क्या अंतर है, इसे जरा गहराई से समझते हैं। मृत्यु वाली सूक्ष्मता अहंकार पर रुक जाती है। पर योग वाली सूक्ष्मता आत्मा तक पहुंच जाती है। आत्मा सूक्ष्मता की अंतिम सीमा है। आत्मा से सूक्ष्म अन्य कुछ नहीं है। इसमें ब्लैक होल के जैसा आकर्षण भी है। जो इसको पा लेता है, वह फिर कभी भौतिक दुनिया में वापस नहीं लौटता। फिर हमेशा के लिए आत्मा की सूक्ष्म और अनंत दुनिया ही उसकी दुनिया बन जाती है। दूसरी तरफ मृत्यु वाली सूक्ष्मता अहंकार पर पहुंचकर रुक जाती है। आदमी का अहंकार बेशक सूक्ष्म है, और उसमें आदमी के सारे पिछले क्रियाकलाप सूक्ष्म कोडों के रूप में दर्ज हैं। पर फिर भी यह परमसूक्ष्म आत्मा के सामने पहाड़ जैसा स्थूल है। आत्मा में जगत का बिल्कुल भी नामोनिशान नहीं है, सूक्ष्म या कोड रूप में भी नहीं।
कई लोग इसी अहंकार को जीवात्मा कहते हैं। कई लोग इसी को अवचेतन मन कहते हैं। कई इसी को सूक्ष्म शरीर कहते हैं। यह सब शब्दों का जाल है। चीज एक ही है। इसे अहंकार इसलिए कहते हैं क्योंकि यह सभी लोगों को अपने आप के रूप में दिखता है, पराए रूप में नहीं। पर दरअसल में यह अपना रूप नहीं होता। इसीलिए शास्त्रों में अहंकार को झूठा और धोखा कहा जाता है। संस्कृत शब्द “अहम” का मतलब ही “मैं” होता है। जिस दुनिया से आदमी व्यवहार करता है, वह पराए रूप में होती है। जैसे आदमी बोलता है कि उसने गाड़ी चलाई। वह ऐसे तो नहीं बोलता कि उसने अपने को चलाया। पर उसे पता ही नहीं चलता कि वे दुनिया की पराई चीजें ही सूक्ष्म रूप होकर उसके अपने आप के स्वरूप वाले अहंकार को बनाती हैं और बढ़ाती हैं।
उपरोक्तानुसार आदमी के अहंकार अर्थात अवचेतन मन में सभी पराई चीजें भरी होती हैं। पर आदमी उन्हें कभी पराया नहीं समझता। वह इसलिए क्योंकि वे बहुत सूक्ष्म रूप में होती हैं। वे आत्मा से इतनी नजदीकी से चिपकी होती हैं कि मरने पर भी नहीं छूटती। वे हमेशा आदमी की आत्मा के साथ जन्म जन्मांतरों में और लोक लोकांतरों में भ्रमण करती रहती हैं। इसीलिए वे आत्मा को अपना स्वरूप लगती हैं। एक प्रकार से आदमी पूरी दुनिया को अपने साथ घुमाए फिरता रहता है। बोलते हैं कि फलां की उम्र पूरी हो गई और उसने दुनिया को छोड़ दिया। पर दुनिया उसे कहां छोड़ती है। वह तो उसके अहंकार के रूप में उसी के साथ हो लेती है।
प्रत्येक पराई वस्तु या पराए विचार की छाया आदमी की आत्मा में अहंकार के रूप में दर्ज होती रहती है। कई दुनियादारी में निपुण लोग बड़ा दावा या नाटक करते हैं कि उनमें अहंकार नहीं है, पर ऐसा होना असंभव है। कई महान अहंकारी तो आत्मज्ञानी बनकर घूमते फिरते हैं। मैं यह किसी धर्म के अधिष्ठाता के बारे में नहीं बोल रहा। दुनिया की छाया तो आत्मा पर बनेगी ही, चाहे आदमी अपना जितना मर्जी बचाव कर ले। हां, अगर वह साथ में कुंडलिनी योग भी प्रतिदिन करता रहे, तब वह छांव कमजोर बनेगी और बनी हुई छांव मिटने लगेगी। फिर हम कह सकते हैं कि अमुक आदमी में बहुत कम अहंकार है। मतलब साफ है कि कुंडलिनी योग ही किसी के अहंकार का पैमाना है, दुनियादारी नहीं।
या तो आदमी स्थूल जगत को भी सूक्ष्म जगत की तरह अपना स्वरूप समझे या किसी को भी अपना स्वरूप ना समझे। गड़बड़ वहां होती है, जब स्थूल जगत को पराया रूप समझा जाता है, और सूक्ष्म जगत को अपना रूप समझा जाता है। जब आदमी अपने अहंकार की तरह ही स्थूल जगत को भी अपना रूप समझेगा तो उसके प्रति उसकी आसक्ति कम हो जाएगी। अपने से भला कौन आसक्ति करता है। इससे आत्मा पर उसकी कम गहरी छाया बनेगी। इससे अहंकार भी खुद ही कम हो जाएगा। अगर आदमी जगत के साथ अहंकार को भी पराया समझेगा तो वह कुंडलिनी योग साधना की तरफ झुकेगा और उसकी मदद से अपनी शुद्ध आत्मा से चिपकी पराई और गंदी चीज को बाहर निकालना चाहेगा।
आम आदमी को अपनी शुद्ध आत्मा का पता ही नहीं होता। इसलिए वह अहंकार को ही अपनी आत्मा समझे रखता है। पर कुंडलिनी जागरण से आदमी को अपनी शुद्ध आत्मा का अनुभव होता है। बेशक कुंडलिनी जागरण का अनुभव और उससे जुड़ा आत्मा का अनुभव कुछ ही क्षणों के लिए होता है। इससे अहंकार स्पष्ट रूप से पराया और अज्ञान की वजह से शुद्ध आत्मा से चिपका हुआ सा नजर आने लगता है। यह अज्ञान आत्मा का अज्ञान ही है, जिसे शास्त्रों में ज्ञान से मतलब आत्मा के ज्ञान से खत्म करने की सलाह हर जगह दी गई है। मतलब परोक्ष रूप से कुंडलिनी जागरण की सलाह दी गई है, क्योंकि उसी से आत्मा का ज्ञान अर्थात आत्मा का अनुभव होगा। आत्मा का ज्ञान कोई किताबी ज्ञान की तरह नहीं है कि पढ़ा और हो गया, जैसा कई लोग समझते हैं। बल्कि यह आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव है। वैसे भी पढ़ा तो किसी दूसरी चीज के बारे में ही जा सकता है। अपने को कोई कैसे पढ़ेगा। अपने को तो केवल प्रत्यक्ष रूप में महसूस ही किया जा सकता है। इसलिए जागृत अर्थात आत्मज्ञानी आदमी कुंडलिनी योग समेत विभिन्न प्रकार की साधनाओं से उस विषबेल रूपी अहंकार को परे हटाने का प्रयास भी करता रहता है। शायद दार्शनिक शैली में अहंकार को ही विषबेल कहा गया है, क्योंकि दोनों लिपटते हैं, और जिससे लिपटते हैं, उसे मार देते हैं। इसी तरह अहंकार को ही आकाशबेल कहा गया है। आकाशबेल मतलब ऐसी बेल जो आकाश से लिपटती है। आत्मा आकाश की तरह स्वच्छ और शून्य है। अहंकार ही इससे लिपट सकता है, अन्य तो कुछ भी आकाश से नहीं चिपक सकता। यह भी आश्चर्य ही है कि अहंकार शून्य आकाश को भी नहीं छोड़ता।
मतलब साफ है कि कुंडली जागरण कोई स्थाई उपलब्धि नहीं है। पर इसका महत्त्व इसी में है कि यह आदमी को योग की तरफ प्रेरित करता रहता है। हां, सबको तो कुंडली जागरण मिलता नहीं है। इसीलिए जागृत व्यक्ति की संगत करने को कहा जाता है। जैसे स्वर्ण का जानकार पूरी दुनिया को स्वर्ण की पहचान बताता है। उसी तरह एक जागृत व्यक्ति ही पूरे समाज को आत्मा और अहंकार की सही पहचान बता सकता है। इसीलिए शास्त्रों में कुंडलिनी जागरण को बहुत महत्व दिया गया है। आजकल के सत्संगों आदि में बेशक मुख्य प्रवचक आदि लोग जागृत नहीं होते, पर वे शास्त्रों में लिखे जागृत लोगों के वचनों की पुनरावृत्ति करते हैं। इससे भी काम चल पड़ता है। इसीलिए व्यास या कथावाचक को भी बहुत महत्त्व व सम्मान दिया जाता है। बेशक वे जागृत नहीं होते पर जागृत लोगों के वचनों को अपनी दार्शनिक चतुराई और वाकपटुता से श्रोता गणों को अच्छे से समझाते हैं। हम भी इस वेबसाइट पर लगभग यही करने का प्रयास करते हैं, क्योंकि हम शास्त्रों के ही आध्यात्मिक तथ्यों को आधुनिक, वैज्ञानिक और तार्किक रूप में समझने की और दुनिया के सामने प्रस्तुत करने की कोशिश करते रहते हैं।