कुंडलिनी योग खरपतवार को नर्सरी में ही नष्ट कर देता है

दोस्तों, बुलेट ट्रेन रुक सकती है, पर लेखनी अगर एक बार चल पड़े तो नहीं रुक सकती। मेरे मन में एक विचार आया कि शास्त्रों में अहंकार को ही सूक्ष्म शरीर कहा गया है। वैसे तो सूक्ष्म शरीर को बताया गया है कि वह आत्मा, अहंकार, बुद्धि, मन, पांच प्राण, पांच ज्ञानेंद्रियों, पांच कर्मेंद्रियों से मिलकर बना है। पर साथ में यह भी कहा गया है आदमी द्वारा किए गए सभी कर्म और भोगे गए सभी फल उसकी इंद्रियों में विलीन हो जाते हैं। इंद्रियां प्राण में विलीन हो जाती हैं। प्राण मन में विलीन हो जाते हैं। मन बुद्धि में विलीन हो जाता है, और बुद्धि अहंकार में विलीन हो जाती है। तो इसे ऐसा क्यों न समझा जाए कि मृत्यु के बाद सिर्फ अहंकार ही बचा रहता है। मतलब आदमी का पूरा जीवन उसके अहंकार में दर्ज हो जाता है। इसीलिए कहावत भी है कि रस्सी जल गई पर ऐंठन नहीं गई। मतलब शरीर नष्ट हो जाता है पर उससे जुड़ा अहंकार नष्ट नहीं होता। वह केवल मोक्ष मिलने पर ही नष्ट होता है। ऋषि दुष्टों और राक्षसों से अक्सर कहते हैं कि अरे दुष्ट, तेरा अनकार जल्दी ही नष्ट हो जाएगा। मतलब आदमी का अहंकार हमेशा नहीं रहता। इसका यही मतलब है कि ज्ञान हो जाएगा। अहंकार आत्मा की तरह शाश्वत नहीं है। यह जगत की परछाई होने के कारण उसी की तरह झूठा है। कभी न कभी तो इसने नष्ट होना ही है। तभी कहते हैं कि राम नाम सत्य है। मतलब आत्मा ही सत्य है जो कभी नष्ट नहीं होती।

कर्मों और फलों के इंद्रियों में विलीन होने का मतलब है कि उनसे जुड़े अनुभव शरीर के चक्रों में सूक्ष्मरूप में दर्ज हो गए। योगी लोग इन्हें कुंडलिनी योग से बाहर निकालकर खत्म कर देते हैं, जिससे ये अहंकार तक नहीं पहुंच पाते और उन्हें कर्मफल के बंधन में नहीं डाल पाते। इंद्रियों के प्राणों में विलीन होने का यह मतलब नहीं कि इंद्रियां नष्ट हो गई। इसका मतलब है कि शरीर की क्रियाशीलता कम होने से इंद्रियां क्षीण हो गईं। इससे उनको मिलने वाली शरीर की जीवनी शक्ति की बचत हो गई। वह अतिरिक्त शक्ति प्राण शक्ति के रूप में शरीर को उपलब्ध हो गई। उस अतिरिक्त प्राण की शक्ति मन को लगने लगी। इसीलिए तो बैठे-बिठाए आदमी का मन बहुत भागता है। साक्षीभाव साधना का अभ्यास करने वाले या राजयोगी इन मन के विचारों के प्रति उदासीन रहकर इन्हें क्षीण करते हैं। इससे वे भी कर्मफल के बंधन में नहीं पड़ते। पर चक्रों पर ही विचारों को कुचलने का कुंडलिनी योग का तरीका ज्यादा आसान और प्रभावशाली है। अगर आप खरपतवार को नर्सरी में ही नष्ट कर दो तो ज्यादा अच्छा है, क्योंकि खेत में पहुंचने के बाद तो यह बहुत ज्यादा बढ़कर बहुत ज्यादा दायरे में फैल जाता है। जब योग से मन को भी काबू किया गया तो उसकी शक्ति बुद्धि को लग गई। इसीलिए तो जो मन पर काबू पा लेता है वह बहुत से रचनात्मक कार्य जैसे कि लेखन, गायन, कविता निर्माण, चित्रकारी आदि में निपुण होकर दुनिया को श्रेष्ठ रचनाएं प्रदान करता है। ये सब काम बुद्धिरूपी एकाग्र मन से ही होते हैं, भटकते मन रूपी साधारण मन से नहीं। फिर जब योग से बुद्धि पर भी लगाम लगा दी जाती है तब बुद्धि की शक्ति अहंकार को लगती है। मतलब बुद्धि नष्ट नहीं होती पर अहंकार में समा जाती है। इसीलिए तो अपनी बुद्धि से दुनिया में झंडे गाड़ने वाले का अहंकार बहुत बढ़ जाता है। लोग उसे ताने मारने लगते हैं कि उसका घमंड बहुत बढ़ गया है। लोग उससे जलने लगते हैं। जब आदमी कुंडलिनी योग से अहंकार को भी काबू में कर लेता है, तब उसकी शक्ति आत्मा को लगने लगती है। अहंकार के बाद पाने को आत्मा ही तो बचता है। वैसे तो अहंकारी आदमी दुनिया में अपना डंका बजाते हुए दौड़ता भागता रहता है। पर जब वह कुंडलिनी योग में लग जाता है तो अहंकार खुद ही आत्मा या कुंडलिनी जागरण के अनुभव में रूपांतरित होने लगता है। यह इसलिए क्योंकि अहंकार से महान और व्यापक केवल आत्मा ही है। अहंकार को महतत्त्व इसीलिए कहते हैं क्योंकि यह सबसे महान तत्त्व है। जिन चीजों से दुनिया बनी है, उन्हें तत्त्व कहते हैं। अहंकार इनमें सबसे बड़ा है। यह अकाश की तरह ही व्यापक है। बेशक यह आत्मा जैसा परम चेतन नहीं है। आत्मा दुनिया के सभी तत्त्वों से परे है। अहंकार की इसी विशालता और व्यापकता के कारण ही शरीर छोड़कर गई आत्मा में कई अलौकिक जैसी शक्तियां होती हैं। कई तांत्रिक उन आत्माओं को सिद्ध करके उन शक्तियों को प्राप्त करते हैं। इन सब बातों से साफ है कि अहंकार पूरे सूक्ष्म शरीर को अपने अंदर समेटे होता है। हालांकि होता वह काजल के जैसे चमकीले और अंधेरे आसमान के जैसा ही।

आत्मज्ञान के बाद यह प्रक्रिया उल्टी भी चलती है। खासकर जब योगी दुनियादारी में प्रवेश करने लगता है। उसकी आत्मा तनिक मलिन होकर अहंकार के रूप में बन जाती है। अहंकार बुद्धि के रूप में आ जाता है। बुद्धि मन के रूप में, मन प्राणों के रूप में और प्राण इंद्रियों के रूप में स्थूल हो जाते हैं। इसलिए देखा गया है कि अच्छे विचारों से अच्छी साँसें बहने लगती हैं। साथ ही, अच्छी साँसों से इन्द्रियाँ पर्याप्त रूप से सक्रिय हो जाती हैं और अच्छे कार्य करने के लिए प्रेरित होती हैं। फिर इंद्रियां विभिन्न कर्मों और फलों के रूप में पूरे जगत में फैल कर उस आदमी के अपने व्यक्तिगत और सीमित संसार का निर्माण करती हैं। हालांकि फिर वह राजा जनक की तरह कर्मयोगी बनता है, और बंधन में कम ही पड़ता है।

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demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

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