कुंडलिनी जागरण सच्चाई के बाहर होने की बजाय भीतर होने की पुष्टि करता है

दोस्तों शास्त्रों के अनुसार फिर पंचज्ञानेंद्रियों से पंचतन्मात्राओं की रचना होती है। तन्मात्राएं महाभूतों का सूक्ष्म रूप हैं, जो इंद्रियों के अनुभव में आता है। यह अविभक्त अनुभव होता है, जैसे कि रूप तन्मात्रा सभी किस्म के पदार्थों का दिखने में आने वाला सामान्य रूप है। यह पत्थर, पानी, पेड़ आदि सब चीजों के लिए सामान्य है। मतलब कि जल और पृथ्वी दो अलग-अलग महाभूत हैं पर उनकी रूप तन्मात्रा एक ही है। ये दोनों इसी रूप तन्मात्रा के कारण दिखते हैं। आंखें इंद्रियां इन दोनों की केवल रूप तन्मात्रा को ग्रहण करती हैं, अन्य कुछ नहीं। यह रूप तन्मात्रा प्रकाश की किरणों के माध्यम से आंख तक पहुंचती है। इसी तरह नासिका इंद्रिय गंध तन्मात्रा को ग्रहण करती है। कान शब्द तन्मात्रा को और चमड़ी स्पर्श तन्मात्रा को ग्रहण करती है। जीभ इंद्रिय रस तन्मात्रा को ग्रहण करती है। ये तन्मात्राएं इंद्रियों को अनुभव देने का और पंचमहाभूतों का एहसास कराने का काम करती हैं। इसी को ऐसा कहा गया है कि तन्मात्राओं से महाभूतों का निर्माण होता है। जब हम पत्थर की रूप तन्मात्रा को ग्रहण करते हैं तो हमें किसी चीज के उपस्थित होने का आभास होता है। जब हम उसकी स्पर्श तन्मात्रा को भी अनुभव करते हैं, तब हमें उसके कठोर होने का आभास होता है। जब हम उसकी गंध तन्मात्रा को और रस तन्मात्रा को भी ग्रहण करते हैं, तब हमें उसके भोजन ना होने का पता चलता है। जब उसकी शब्द तन्मात्रा को भी ग्रहण करते हैं, तो पता चलता है कि वह कोई अटूट धातु नहीं है, पर एक टूटने वाला पत्थर है। इस तरह से पांचों तन्मात्राओं से हमें किसी भी पदार्थ की सभी विशेषताओं का पता चलता है। फिर ऐसा क्यों कहा गया है कि गंध तन्मात्रा से पृथ्वी की, रस तन्मात्रा से जल की, रूप तन्मात्रा से अग्नि की, स्पर्श तन्मात्रा से वायु की, और शब्द तन्मात्रा से आकाश की उत्पत्ति होती है। यह इसीलिए क्योंकि इन सभी तन्मात्राओं में से एक तन्मात्रा ही किसी एक महाभूत में मुख्य होती है। बाकि तन्मात्राएं तो सामान्य होती हैं, या दूसरे महाभूतों के मिश्रित होने से बनी होती हैं। शुद्ध जल गंधहीन होता है। इसलिए उसमें गंध तन्मात्रा की उपस्थिति नहीं मानी जाती। पर अगर उसमें कठोर दाल पकी हो तो गंध आएगी। इसीलिए पृथ्वी मतलब कठोर वस्तु को गंध का मुख्य गुण दिया गया। हम जो कुछ भी स्वाद ले पाते हैं, तभी ले पाते हैं जब भोजन हमारे मुंह के लार द्रव से मिश्रित होता है। यह द्रव जल जैसा ही होता है। अगर भूख ना होने से मुंह सूखा हो तो कुछ भी स्वाद नहीं आता। इसीलिए जल महाभूत को रस नामक मुख्य गुण दिया गया है। रस का मतलब स्वाद भी होता है, और तरल पदार्थ भी। जब सूरज चमकता है या दीपक जलता है, तभी हमें सभी रूपों का आभास होता है। इसीलिए अग्नि को रूप का मुख्य गुण दिया गया है। सबसे संवेदनात्मक, अच्छा और सुखद स्पर्श वायु से ही मिलता है। इसीलिए वायु को स्पर्श तन्मात्रा से उत्पन्न माना गया है। दो लोगों के बीच अगर दीवार या पहाड़ हो तो उनकी आवाज एक दूसरे तक नहीं पहुंचती। मतलब आवाज या शब्द को ले जाने के लिए खुला आकाश होना चाहिए। इसीलिए आकाश को शब्द तन्मात्रा से निर्मित बताया गया है। मतलब अगर हम पंचमहाभूतों को महसूस न करें, तो उनका अस्तित्व ही नहीं माना जाएगा। अंधेरे में महल होने का क्या महत्त्व हो सकता है। सारे महाभूत और उनसे बना सारा जगत अंधेरे में ही हैं, अगर उन्हें कोई भी महसूस न कर पाए। फिर तो वे न होने के बराबर ही हैं। तन्मात्राओं से ही हमें वे महसूस होते हैं। मतलब सूक्ष्म तन्मात्राओं से ही उनकी उत्पत्ति हुई। यह अंदर से बाहर की ओर की अप्रोच है। यही अध्यात्म है। यही सत्य एप्रोच है। बाहर से अंदर की ओर एप्रोच भौतिक विज्ञान है। यह आध्यात्मिक रूप से असत्य अप्रोच है। हां, भौतिक रूप से सत्य हो सकती है। पर भोतिकता खुद भी असत्य ही है, बेशक व्यवहार के लिए उसे कामचलाउ सत्य मानना पड़ता है।

सच्चाई अंदर है, बाहर नहीं। यही वास्तविकता है। कुंडलिनी जागरण के दौरान इस वास्तविकता का साक्षात अनुभव होता है, जब सारा जगत अपनी उस अंतरात्मा में महसूस होता है, जो हृदय की गहराईयों में सबसे भीतर स्थित रहती है, और सामान्य तौर पर अहंकाररूपी अंधेरे के रूप में महसूस होती है।

पंचमहाभूत के तन्मात्रा में विलीन होने का यह मतलब नहीं कि जल, वायु आदि पंचमहाभूत नष्ट हो गए। इसका मतलब है कि इंद्रियों से वे पंचमहाभूत स्पष्ट या पृथक वस्तुओं के रूप में या अलग-अलग रूप में महसूस नहीं हुए। बल्कि वे तन्मात्राओं के रूप में महसूस हुए। समुद्र पृथक व सत्य वस्तु के रूप में महसूस नहीं हुआ। पर वह रूप तन्मात्रा, रस तन्मात्रा, स्पर्श तन्मात्रा, गंध तन्मात्रा और शब्द तन्मात्रा के मिश्रण के रूप में महसूस हुआ। यह ऐसे ही है कि कंप्यूटर अलग वस्तु के रूप में महसूस नहीं हुआ पर सीपीयू, हार्ड डिस्क, मदर बोर्ड आदि के मिश्रण के रूप में महसूस हुआ। मतलब एक प्रकार से कंप्यूटर नष्ट न होकर वैसा ही बना रहा, पर अपने घटकों में विलीन हो गया। वैसे भी अद्वैत दर्शन कहता है कि घटक ही सत्य हैं, घटक से निर्मित वस्तु नहीं। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि रूप तन्मात्रा से सभी चीजों का रूप और आकार तो महसूस हुआ पर आंख उन चीजों का गहराई से अवलोकन नहीं कर सकी। मतलब सिर्फ सामान्य रूप का ही पता चला, रूपों में विभिन्नताओं का नहीं। यह सामान्य रूप ही रूप तन्मात्रा है। इसमें विभिन्नता महसूस होने से यह सामान्य रूप विभिन्न वस्तुओं के रूप में दिखने लगता है। मतलब रूप तन्मात्रा से अग्नि महाभूत की उत्पत्ति हो जाती है। इस अग्नि महाभूत की मात्रा सभी वस्तुओं में भिन्न भिन्न है। ऐसा ही सभी महाभूतों के साथ होता है।

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demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

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