दोस्तों, कई लोग सोचते होंगे कि अगर अहंकार तक पहुंच गए तो आत्मा तक खुद ही पहुंच जाएंगे। पर ऐसा नहीं है। अपने आप कुछ नहीं होता। आत्मा के लिए प्रयास तो अंत तक करना होगा। मन, बुद्धि, अहंकार आदि तो आत्मा तक पहुंचने के विभिन्न स्तर मात्र हैं। जो प्रयास नहीं करेंगे, वे जल्दी ही अहंकार से भी वापस लौट जाएंगे। अहंकार से बुद्धि के स्तर तक आएंगे। फिर मन के स्तर तक, फिर प्राणों के, फिर इंद्रियों के, फिर तन्मात्राओं के और फिर महाभूतों मतलब पूर्ण भौतिकता के स्तर तक। यह सिलसिला चलता रहता है। अहंकार से आत्मा तक तो योगी लोग ही पहुंचते हैं। वैसे तो आत्मा को किसी भी तरीके से प्राप्त कर सकते हैं। पर हर चीज की तरह आत्मा को प्राप्त करने का भी एक सबसे आसान और वैज्ञानिक तरीका होता है। वह यही है कि पहले पंचमहाभूतों के स्तर पर कर्म योगी की तरह व्यवहार किया जाए। कर्म योग से आत्मा तक पहुंचने की आधारशिला तैयार होती है। फिर समय के फेर से या कुछ सालों तक इस स्तर पर मेहनत करने के बाद आदमी को खुद महसूस होता है कि वह रूपांतरित हो रहा है। वह खुद ही पंचतन्मात्रा के उच्चतर स्तर में प्रविष्ट हो जाता है। मतलब जब वह किसी चीज को देखता है तो उसे लगता है कि वह रूप को महसूस कर रहा है। उसे विभिन्न वस्तुओं को देखते हुए सर्वसामान्य रूप के इलावा कुछ भी अलग अलग महसूस नहीं होता। यह अद्वैत जैसा ही भाव होता है। उसी तरह उसे विभिन्न प्रकार की आवाजें सुनते हुए एक सामान्य शब्द का ही एहसास होता है। उन शब्दों के बीच का अंतर उसे ज्यादा महसूस नहीं होता। विभिन्न प्रकार के स्वाद को अनुभव करते हुए भी उसे केवल सामान्य रस भाव का ही अनुभव होता है। अलग-अलग उसे नजर नहीं आता। विभिन्न प्रकार का स्पर्श महसूस करते हुए उसे अलग-अलग पदार्थ महसूस नहीं होते। बस एकमात्र स्पर्श संवेदना की अनुभूति होती है, जो कभी ज्यादा तो कभी कम, कभी किसी तरह की तो कभी किसी तरह की। मतलब उसे पदार्थों का अंतर महसूस नहीं होता, बल्कि संवेदना में उतार-चढ़ाव महसूस होता है। फिर भी होती तो है एकमात्र संवेदना ही है। विभिन्न प्रकार के गंधयुक्त पदार्थ भी उसे अलग-अलग ना दिख कर सब में केवल गंध तन्मात्रा ही विभिन्न आभासी रूपों में महसूस होती है। अगर वह कर्मयोग और अद्वैत भाव को बनाकर रखता है तो उसका पंचतन्मात्रा के स्तर से पंचकर्मेंद्रियों और पंचज्ञानेंद्रियों के उच्चतर स्तर में प्रवेश हो जाता है। मतलब अब उसे यह पांचों ज्ञानेंद्रियों की संवेदनाएं और पांचों कर्मेंद्रियों की संवेदनाएं बाहरी पदार्थों में महसूस नहीं होतीं बल्कि अपनी इंद्रियों में महसूस होती हैं। मतलब उसे लगता है कि ये संवेदनाएं बाहर नहीं बल्कि उसकी इंद्रियों में पैदा हो रही हैं। फिर अपने शरीर की इंद्रियों के प्रति कैसा आकर्षण। इसलिए वह उन संवेदनाओं से मोहित ना होकर स्वतः ही आगे बढ़ने लगता है। हालांकि अगर वह आध्यात्मिक प्रयास छोड़ देता है तो इस स्तर से नीचे गिर कर फिर से पंचतन्मात्रा और पंचमहाभूत के स्तर तक भी गिर सकता है।
यदि वह कर्म योग और अद्वैत भाव बनाकर रखता है, तो प्राण के स्तर तक स्तरोन्नत हो जाता है। इसमें बीच-बीच में उसकी सांस लंबी और गहरी आने लगती है। देखा जाए तो प्रत्येक स्तर लंबे लंबे समय तक भी रहता है और सभी स्तर एकसाथ भी चलते रहते हैं। खासकर शरीरविज्ञान दर्शन से प्राप्त कर्मयोग से यह सभी स्तर एक साथ भी चलते रहते हैं। हां, फिर अपने आप एक लंबी और गहरी सांस चलने से ही मन क्रियाशील हो जाता है। आदमी जब कुंडलिनी योग से इस लंबी सांस को लंबे समय तक लेता है तब और ज्यादा लाभ मिलता है। यह भी लगता है कि प्राण के स्तर तक पहुंचने पर कुंडलिनी योग से ज्यादा लाभ मिलता है। वैसे तो इसे इससे पहले भी कर सकते हैं। मन पर भी जब शरीर विज्ञान दर्शन और कुंडलिनी योग से लगाम लगने लगती है तब आदमी बुद्धि वाले स्तर तक पहुंच जाता है। बुद्धि भी तभी आत्मा की खोज में लगेगी, अगर उसे जानबूझ कर निर्देशित किया जाता रहे। बुद्धि पर भी जब कुंडलिनी योग से अंकुश लगेगा तो वह अहंकार में विलीन हो जाएगी। अहंकार में सभी कुछ अंधेरी आत्मा के रूप में छुपा होगा। इसीलिए इस अवस्था में कुंडलिनी चित्र मन में हरदम छाया रहता है। यह इसीलिए क्योंकि मस्तिष्क की उर्जा ने कहीं ना कहीं तो खर्च होना ही है। अगर कुंडलिनी चित्र को बल पूर्वक हटाया जाएगा तो वह ऊर्जा पुनः दुनिया की तरफ भाग सकती है। इसलिए आत्मा तक पहुंचने के लिए कुंडलिनी का सहारा तो लेना ही पड़ेगा। इस स्तर पर अगर तीव्र और तांत्रिक कुंडलिनी साधना की गई तो कुंडलिनी जागृत होने से अहंकार आत्मा में विलीन हो जाता है। अगर नहीं किया गया तो अहंकार से आदमी फिर क्रमवार बाहर भी लौट कर आ सकता है। मतलब कुंडलिनी ही आत्मा के दिव्य महल के बाहर खड़े द्वारपाल के रूप में है। अगर इसका सम्मान किया गया तो ही आत्मा के अनंत महल में प्रवेश मिलेगा, नहीं तो बाहर के जगतरूपी जंगल में ही भटकते रहना पड़ेगा।