दोस्तों, जागृति के बाद आदमी की बुद्धि का नाश सा हो जाता है। इसे द्वैतपूर्ण भौतिक बुद्धि का नाश कहो तो ज्यादा अच्छा होगा। आध्यात्मिक प्रगति तो वह करता ही रहता है। ऐसा इसलिए क्योंकि भौतिक बुद्धि अहंकार से पैदा होती है। पर जागृति के तुरंत बाद अहंकार खत्म सा हो जाता है। आदमी में हर समय एक समान प्रकाश सा छाया रहता है। नींद की बात नहीं कर रहा। नींद में तो सब को अंधेरा ही महसूस होता है, पर फिर भी जागते हुए एक जैसा प्रकाश रहने के कारण नींद का अंधेरा भी नहीं अखरता। वह भी आनंददायक सा हो जाता है। अहंकार अंधेरे का ही तो नाम है। यह अज्ञान का ही अंधेरा होता है। कई भाग्यशाली लोगों को इस अहंकारविहीन स्थिति में लंबे समय रहने का मौका मिलता है। पर कईयों को दुनिया से परेशानी या अभाव महसूस होने के कारण वे जल्दी ही अहंकार को धारण करने लगते हैं। कई लोग, जो शरीर से पूरी तरह से स्वस्थ होते हैं, वे उन्नत तांत्रिक कुंडलिनी योग के अभ्यास से उस दुनियावी परेशानी के बीच में भी अहंकार से बचे रहते हैं। वे कामचलाऊ बुद्धि को भी धारण करके रखते हैं, और अहंकार को भी अपने पैर नहीं जमाने देते। पर जब शारीरिक दुर्बलता या रोग से सही से तांत्रिक कुंडलिनी योग नहीं कर पाते तो वे भी अहंकार के चंगुल में फंसने लगते हैं। अहंकार की गिरफ्त में आते ही उनकी बुद्धि बुलेट ट्रेन की तरह भागने लगती है। यह भी करना, वह भी करना। यह जिम्मेदारी, वह परेशानी। इस तरह से बुद्धि सैकड़ों कल्पित बहाने बनाते हुए अपने को पूरी तरह से स्थापित कर लेती है। जब अंदर ही अंधेरा बस जाए तो बाहर भी हर जगह अंधेरा ही दिखता रहेगा और आदमी उससे बचने के लिए छटपटाता ही रहेगा। अगर अंदर का अंधेरा मिटा दिया जाए तो बाहर खुद ही मिट जाएगा और आदमी शांति से बैठ पाएगा। काला चश्मा लगाकर बाहर सबकुछ काला ही दिखता है। चश्मा हटा दो तो सबकुछ साफ दिखने लगता है। फिर बुद्धि के भागते ही मन भी कहां पीछे रहने वाला। जब बुद्धि ने अच्छी सी आमदनी पैदा कर दी, तब मन उसे भोगने के लिए ललचाएगा ही। कभी सिनेमा जाने का ख्वाब देखेगा तो कभी पिकनिक का। कभी पहाड़ पर भ्रमण को तो कभी खाने पीने का। कभी यह करने का तो कभी वह करने का। इन ख्वाबों के साथ अन्य और भी अनगिनत विचार उमड़ने लगते हैं। इस तरह मन में पूरा संसार तैयार हो जाता है।
जब आदमी मन के सोचे हुए पर चलने लगता है तो सांसें तो तेज चलेंगी ही। परिश्रम जो लगता है। मतलब आदमी प्राण के स्तर पर पहुंच जाता है। उन सांसो से इंद्रियों में भोगों को भोगने की और उनसे काम करने की शक्ति आ जाती है। पहले पहले उसे भोगों का आनंद इंद्रियों में महसूस होता है, बाहर नहीं। बाद में जब वह भोगी जाने वाली वस्तु पर ज्यादा ध्यान देने लगता है, तब उसे महसूस होता है कि उनसे कुछ सूक्ष्म चीजें निकल कर उसकी इंद्रियों के संपर्क में आती हैं, जिन्हें वे महसूस करती हैं। वे तन्मात्रा ही हैं। फिर भोगी जाने वाली वस्तुओं के ज्यादा ही कसीदे पढ़ने से उसे महसूस होने लगता है कि यह आनंद का अनुभव भोग पदार्थों में ही है। इससे उसका उन पदार्थों से लगाव बढ़ता है, जिससे वह उन पदार्थों का गहराई से अध्ययन करने लगता है। मतलब पंचमहाभूतों की उत्पत्ति हो जाती है।
हम यहां यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हम इस वेबसाइट पर कहीं भी ऐसा नहीं कह रहे हैं कि ऐसा करना चाहिए या ऐसा नहीं करना चाहिए। सबकी अपनी अपनी व्यक्तिगत समस्या और जरूरत होती है, जिसके अनुसार सबको चलना ही पड़ता है। अगर आदमी समझबूझ से खुद कोई फैंसला ले तो ज्यादा अच्छा रहता है बजाय इसके कि उस पर जबरदस्ती थोपा जाए। हमारी संस्कृति में शायद ऐसा होने लग गया था, इसीलिए सैद्धांतिक और वैज्ञानिक ज्ञानविज्ञान का ह्रास हुआ। हम तो केवल सिद्धांत पक्ष को प्रस्तुत करते हैं। सच्चाई का तो पता होना ही चाहिए, उस पर चलना या न चलना व्यक्ति के अपने चुनाव पर निर्भर है। महात्मा बुद्ध कहते हैं कि जिंदगी में उठना गिरना चलता रहता है। पर बुराई इस चीज में है जब आदमी गिरा हुआ हो और यह न समझे कि वह गिरा हुआ है। जिसको अपने गिरे होने का अहसास है वह मौका मिलने पर उठने का प्रयास जरूर करेगा। पर जिसको अपने गिरे होने का अंदाजा ही नहीं है, वह अपनी अवस्था को सामान्य अवस्था या उठी हुई अवस्था मानने के भ्रम में जीता रहेगा और मौका मिलने पर भी उठने का प्रयास नहीं कर पाएगा।
शास्त्रों में ऐसा सब कुछ विशद वर्णन है, पर आजकल उनके बारे में लोगों की समझ विकृत सी हो गई है। एक बार कहीं लिखा हुआ पढ़ा था कि आदरणीय महेश योगी जी भी लगभग ऐसा ही कहते थे। विदेशों में उनकी अच्छी पैठ है। वैसे तो उनके विरोधियों की तरफ से उन पर कुछ आरोप भी लगते रहे हैं। उस लेख के अनुसार भारत में प्राचीन हिंदु संस्कृत विकृत सी हो गई है। मतलब लगता है कि इन वैज्ञानिक तथ्यों को अवैज्ञानिकता, लाचारी, गुलामी, दरिद्रता, रूढ़िवादिता, मूर्खता और कट्टरता जैसे दोषों ने ढक लिया है। वैसे यह अहसास किसी चीज को देखने के नजरिए, आध्यात्मिक और भौतिक विकास के स्तर, सांस्कृतिक परिवेश, देश और काल आदि विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है। एक आदमी को एक चीज बुरी लग सकती है, तो दूसरे आदमी को वही चीज अच्छी भी लग सकती है। जिस अहसास की तरफ ज्यादा लोगों का या ज्यादा सत्ता का रुझान होता है, वही समाज या दुनिया में मान्य समझा जाता है। फिर भी इन तथ्यों को इन दोषों से बाहर निकालने की जरूरत है। समय के साथ हर एक संस्कृति के ऊपर दोषारोपण होने लगते हैं। विश्व की अनेकों संस्कृतियां इस वजह से इतिहास बन गई हैं, पर हिंदू संस्कृति पुरानतम संस्कृतियों में होने के बावजूद भी आज तक इसीलिए बच पाई है, क्योंकि समय-समय पर विभिन्न दार्शनिक और समाज सुधारक इस पर लगे दोषारोपण को बाहर निकालने का प्रयास करते आए हैं। आज तो यह दोषारोपण चरम पर लगता है। इसलिए इसको बाहर निकालने के लिए भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले व सकारात्मक बुद्धिजीवियों को आगे आना होगा। वैसे हम यह बता देना चाहते हैं कि हम किसी धर्म वगैरह के साथ नहीं बल्कि सच्चाई के साथ हैं।