कुंडलिनी योग के लिए दूरदर्शन फिल्म व सिनेमा मूवी देखना जरूरी है

दोस्तों, इंद्रियों के भ्रम को हम एक और उदाहरण से समझ सकते हैं। जब हम दूर रखे टेलीविजन की आवाज ब्लूटूथ इयरबड्स से सुनते हैं, तो हमें लगता है कि वह आवाज टेलीविजन में पैदा हो रही है, जबकि वह हमारे कानों में पैदा हो रही होती है। हम टेलीविजन के जिस दृष्य के प्रति जितना ज्यादा आसक्त होते हैं, वह दृष्य हमें उतना ही ज्यादा टेलीविजन के अंदर महसूस करते हैं। जब हम अनासक्त होकर देखने लगते हैं या ऊब जाते हैं, या कान थक जाते हैं, तो वह आवाज हमें अपने कानों के अंदर महसूस होती है। मतलब कानों में पैदा हो रही आवाजों ने और आंखों में बन रहे चित्रों ने मिलकर टेलीविजन में दिख रहे दृष्यों में स्थित पंचमहाभूतों का निर्माण कर दिया था। जब हम ऊब गए या थक गए तो टीवी के नजारों पर ज्यादा ध्यान नहीं गया, जिससे सिर्फ आवाजें और चित्र ही बचे रहे, जैसे मानो पंचमहाभूत तन्मात्राओं में विलीन हो गए। जब कान में बन रही आवाजों और आँखों में बन रहे चित्रों से भी ऊब गए तो उन पर भी ध्यान नहीं जाने लगा। कान और आंख थके हुए थे, इसलिए उनकी थकान महसूस हो रही थी। या कह लो नींद आ गई या टीवी को बंद कर दिया। इससे तन्मात्राएं भी नहीं रहीं, और बस कान और आँखें ही रही। मतलब तन्मात्राएं इंद्रियों में विलीन हो गईं। जागने के बाद इंद्रियां तरोताजा हो गईं पर उनमें वे आवाजें और दृष्य नहीं रहे। इंद्रियों में एकदम से काम शुरु करने की शक्ति नहीं रही, क्योंकि वे अभी भी अपनी क्षतिपूर्ति ही कर रही थीं। इंद्रियां शांत होने से प्राणवायु अच्छे से चलने लगी। जिस समय इंद्रियां टीवी देखने में व्यस्त थीं, उस समय सांसों से ध्यान हट कर टीवी पर लगा हुआ था। आपने देखा भी होगा कि जब हम टीवी पर मनोरंजक कार्यक्रम देख रहे होते हैं, उस समय सांसें अटक सी जाते हैं। अगर उस समय हम सांसों पर ध्यान देते हुए लंबी लंबी और नियमित सांस लेने की कोशिश करें तो टीवी देखने का मजा ही नहीं आता और उसे बंद करने का मन करता है। इससे अंतर्मुखी बनने के लिए सांसों और प्राणायाम का महत्त्व खुद ही सिद्ध हो जाता है। इससे यह संदेश भी मिलता है कि जब इंद्रियां थकी हुई हों, तो प्राणायाम कर लेना चाहिए। इससे इंद्रियों को भी सुकून मिलता है, और मन के क्रियाशील होने से जीवन में आनंद और प्रकाश भी बना रहता है। हां, तो इंद्रियां शांत होने से जो उनसे संवेदनाओं की अनुभूतियां हो रही थीं, वे प्राण में विलीन हो गईं। प्राण सांस ही है और उसमें वे अनुभूतियां ज्यादा समय तक नहीं रह सकतीं। प्राण एक प्रकार से संवेदनाओं को इंद्रियों से लेकर मन तक पहुंचाता है। यह उन अनुभूतियों को महसूस नहीं करता। इसे हम डाकिए की तरह समझ सकते हैं, जो चिट्ठियां इधर से उधर ले जाता है, पर खुद चिट्ठियां नहीं पढ़ता। प्राणों से मन हरकत में आ जाता है। उसमें इंद्रियों द्वारा महसूस की गई संवेदनाएं उमड़ने लगती हैं, हालांकि अब मन के रूप में, क्योंकि अब उन संवेदनाओं के निर्माण में सहायक टीवी के दृष्य तो नहीं रहे। यह एक प्रकार से याद आने की तरह ही है। फिर उन अनुभूतियों के साथ मन में अन्य विविध विचार भी उमड़ने लगते हैं। यह प्राणों का मन में विलीन होना है। फिर कुछ समय तक ऐसे विचारों की स्वप्निल दुनिया में खोने के बाद आदमी को होश आता है कि कुछ दुनियादारी के काम भी करने चाहिए। मतलब बुद्धि क्रियाशील हो जाती है। मन नष्ट नहीं होता पर बुद्धि के रूप में रूपांतरित होने लगता है या बुद्धि में विलीन होने लगता है। मतलब उसकी बुद्धि उसी तरीके से काम करने लगेगी, जैसा उसका मन था। तभी तो कहते हैं कि अगर मन को अच्छा रखेंगे, तभी काम भी अच्छे होंगे। आजकल के बच्चे जो रातदिन भरपूर और भयानक हिंसा से भरी वीडियो गेमों को देखते और खेलते रहते हैं, वे आगे चलकर कैसे अच्छे काम कर पाएंगे। उन्हें यह पोस्ट जरूर पढ़ानी और समझानी चाहिए। अच्छी बुद्धि से वह कुछ दिनों तक अच्छी दुनियादारी निभाता है, और अच्छी तरक्की भी करता है। फिर वह थक सा जाता है, और दुनियादारी से ऊब सा भी जाता है। इससे उसकी बुद्धि शांत होने लगती है, जिससे उसकी आत्मा के अंदर अंधेरा सा बढ़ने लगता है। मतलब उसकी बुद्धि उसके अहंकार के रूप में रूपांतरित हो जाती है। फिर कोई कुंडलिनी योगी अगर चाहे तो इसके आगे आत्मा को प्राप्त कर सकता है। पर आम आदमी यहां से वापिस लौट आता है। थोड़े दिन अहंकार के अंधेरे में आराम से बिताने के बाद दुनियादारी में लौट आता है, और बुद्धि के सहयोग से पुनः अपनी पैठ जमाता है। फिर कुछ तरक्की करके सैकड़ों इच्छाएं पालकर मन की शरण में पहुंचता है। मतलब बुद्धि मन में विलीन हो जाती है। फिर मन के उकसावे में आकर मूवी देखने सिनेमा थिएटर चला जाता है। वह वैसी ही मूवी देखना पसंद करेगा जैसी उसकी बुद्धि और दुनियादारी थी, क्योंकि बुद्धि ही मन के रूप में बन कर सामने आई। सिनेमा हॉल घर से जितना दूर होता है, उतना ही मजा आता है, क्योंकि मन को प्राणों के रूप में रूपांतरित होने के लिए भी समय चाहिए होता है। सिनेमा जाने के रास्ते में उसकी बड़ी अच्छी, लंबी, नियमित और आनंददायी सांसें चलती हैं, क्योंकि मन की सिनेमा देखने की इच्छा खत्म हो रही होती है मतलब मन खत्म हो रहा होता है, और उसकी शक्ति प्राणों को मिल रही होती है। फिर भी मन की सूक्ष्म सोच प्राणों में भी कायम रहती है, क्योंकि कारण कभी नष्ट नहीं होता, पर कार्य के रूप में मौजूद रहता है। मूवी देखना शुरु करते ही उसकी सांसें थम सी जाती हैं, और वह अपनी आंखों और अपने कानों में मधुर संवेदनाओं का आनंद लेने लगता है। मतलब उसके प्राण इंद्रियों में रूपांतरित हो जाते हैं। जब तक पर्दे पर विज्ञापन चलते हैं, तब तक वह उन दृष्यों का गहराई से अवलोकन नहीं करता। मतलब उसे संवेदनाएं आंखों और कानों में ही महसूस हो रही होती हैं, कहीं बाहर से आती हुई प्रतीत नहीं होतीं। यह इंद्रियों की अभिव्यक्ति की अवस्था ही होती है। थोड़ी देर बाद जब मूवी शुरु होने के बाद उसे मूवी कुछ समझ में आने लगती है, तो उसे वे अनुभूतियां सिनेमा के पर्दे से मिलती हुई महसूस होती हैं। मतलब उसकी इंद्रियां तन्मात्राओं में विलीन हो जाती हैं। बाद में फिल्म में गहरे डूबने पर उसे पर्दे पर दिख रहे पहाड़, महल आदि असली लगने लगते हैं। मतलब तन्मात्राएं पंचमहाभूतों के रूप में प्रकट हो जाती हैं। मतलब उसकी सृष्टि की रचना पूर्ण हो गई।

अब फिल्म खत्म होती है। सारे दृष्य खत्म। मतलब उसके व्यक्तिगत सूक्ष्म ब्रह्मांड की प्रलय शुरु हो जाती है। पर्दे पर विज्ञापन आने लगते हैं। अब उसे उन विज्ञापनों में दिखाए गए पहाड़ और महल असली नहीं लगते, क्योंकि वह उन्हें ध्यान से नहीं देखता। उसे बस आंख से कुछ दिख रहा होता है और कान से सुनाई दे रहा होता है। आदमी को उन्हें थोड़ी देर देखना अच्छा लगता है। क्योंकि सभी को स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर क्रमवार आना और जाना जाना अच्छा लगता है। मतलब पंचमहाभूत तन्मात्राओं में विलीन हो गए। फिर आदमी थोड़ी देर बाद उन संवेदनाओं को अपनी इन्द्रियों में ही महसूस करने लगता है, बाहर नहीं। उससे भी ऊबकर और अपनी आंखों और अपने कानों की थकान को महसूस करते हुए सिनेमा हॉल से बाहर निकलता है। मतलब तन्मात्राएं इंद्रियों में विलीन हो गईं। वह थोड़ा चायपानी करके तरोताजा होता है। फिर उसकी सांसें अच्छी, गहरी और नियमित चलने लगती हैं। जब आंखों और कानों को मलने से उन पर ध्यान जाता है, तो उन्हें शक्ति देने के लिए सांस खुद ही चलने लगती है। हालांकि उससे वे तरोताजा ही हो सकती हैं, पुनः काम नहीं कर सकती। क्योंकि वे इतना ज्यादा काम करने के बाद अपनी क्षतिपूर्ति कर रही होती हैं। फिर सांसों की अतिरिक्त शक्ति मन को लगती है। मतलब इंद्रियां प्राण में विलीन हो गईं और प्राण मन में। फिर प्राण या सांस की शक्ति से मन भागने लगता है। मन को भगा कर सांस फिर उथली और अनियमित हो जाती है। मतलब प्राण मन में रूपांतरित हो गया। उस मन की चहलपहल से प्रेरित होकर वह शोपिंग माल में घुस जाता है। वहां विभिन्न चीजों की गुणवत्ता और उनका मोलभाव जांचते हुए उसकी बुद्धि क्रियाशील हो जाती है और मन सुस्त पड़ जाता है। मतलब मन बुद्धि में रूपांतरित हो गया। बुद्धि के भी थकने से जब उसकी आत्मा में अहंकार का अंधेरा काफी बढ़ने लगता है, तब वह परिवारसहित गाड़ी में बैठकर घर को चल देता है। मतलब बुद्धि अहंकार में रूपांतरित हो गई। उस अहंकार में उसके पूरे दिवस के क्रियाकलापों का खाका सूक्ष्म रूप में दर्ज हो जाता है। घर आकर वह तांत्रिक कुंडलिनी योग से आत्मा के अंधकार को कुंडलिनी ध्यान से रौशन कर देता है। मतलब अहंकार आत्मा में विलीन हो जाता है। बेशक पूर्ण आत्मा न सही, उसका कुछ अंश ही सही। अगले दिन फिर उसे न चाहते हुए भी आत्मा से क्रमवार नीचे गिरना पड़ता है, ताकि वह पुनः दुनियादारी को अच्छे से निभा सके। यह सिलसिला ऐसे ही चक्रवत चलता रहता है। यह सभी किस्म की अनुभूतियों, सभी किस्म के क्रियाकलापों, सभी किस्म की सांसारिकताओं, सभी किस्म के लोगों, सभी इंद्रियों और सभी किस्म के शरीरों के साथ ऐसा ही होता है। यह एक सामान्य सिद्धांत है। शास्त्रों में ऐसे अनेकों सिद्धांत बड़ी सूक्ष्मता व गहराई से वर्णित किए गए हैं, जहां तक मुझे लगता है आज भी आधुनिक मनोविज्ञान नहीं पहुंच सका है। उपरोक्त चलचित्र या दूरदर्शन वाला उदाहरण तो समझाने के लिए एक छोटा सा बिंदु है। आदमी जो कुछ भी करता है, उसे अपने स्वभाव अर्थात अहंकार के वशीभूत होकर ही करता है, बेशक उसे लगे कि वह स्वतंत्रता से करता है। यही अहंकार है, यही स्वभाव है, यही अवचेतन मन है, यही संस्कार है। यह सब शब्दों का खेल है। चीज एक ही है। जिसने अहंकार को नहीं जीता है, वह हमेशा उसी के वश में रहता है। पूर्ण स्वतंत्रता तो केवल योगी को ही प्राप्त होती है।

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demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

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