कुंडलिनी योग प्रकृति को पुरुष की तरफ धकेलता है

दोस्तों! मिथक कल्पनाओं का आकर्षण हमेशा से रहा है। यह मानव मनोविज्ञान है जो मिथकों से बड़ा प्रभावित होता है। पुराने युग में भी विद्वान लोगों को छोड़कर आम लोग सीधे तौर पर दर्शन को ज्यादा महत्व नहीं देते थे। दर्शन उन्हें उबाऊ लगते थे। इसीलिए ऋषियों ने सत्य दर्शन पर आधारित मिथक कथाओं की रचना की जिनसे वेद पुराण भरे पड़े हैं। आज भी लोग टाइम ट्रेवल, स्पेस ट्रैवल आदि वैज्ञानिक सिद्धांतों से जुड़ी मिथक कथाओं के दीवाने हैं। इनसे मीडिया भरा पड़ा है। युग बदलता है पर मानव मनोविज्ञान वही रहता है। इसलिए सत्य को जगत में फैलाने के लिए दो किस्म के लोगों का परस्पर सहयोग अपेक्षित होता है। एक वह जो प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर सिद्धांत को प्रस्तुत करता है, और दूसरा वह जो उस पर आधारित मिथक कथाएं बनाता है। हो सकता है कि इस वेबसाइट के शास्त्र आधारित अध्यात्मवैज्ञानिक सिद्धांत भी कभी युगानुरूप मिथक कथाओं के रूप में उभरें।

आजकल के सुविधापूर्ण और वैज्ञानिक युग में लोगों के पास किसी भी विषय को विस्तार से समझने के लिए पर्याप्त समय और बल उपलब्ध है। पहले ऐसा नहीं था। एक बार महात्मा बुद्ध के एक शिष्य ने उनसे पूछा कि यह सांसारिक जन्ममरण रूपी दुख शुरु कैसे होता है। तो महात्मा बुद्ध ने कहा कि इसको जानने में समय बर्बाद करने की जरूरत नहीं है। बस इतना समझो कि इस दुख का अंत किया जा सकता है और उसके लिए प्रयास करो। आजकल लोगों के पास ब्लैकहोल और टाइम मशीन को समझने के लिए तो पर्याप्त समय है, पर उस आध्यात्मिक दर्शन को समझने के लिए नहीं है, जो मानव जीवन के मुख्य लक्ष्य से जुड़ा हुआ है। यह एक विडंबना ही है।

मित्रो, हम जिस चर्चा को छेड़े हुए हैं, वह पूरी तरह से शास्त्र सम्मत है। इसलिए यह प्रामाणिक भी मानी जा सकती है। यह कोई ख्याली पुलाव नहीं है। वैदिक सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति और पुरुष दो अजर अमर और सर्वव्यापी तत्त्व हैं। शुद्ध पुरुष तो कभी सृष्टि को चला ही नहीं सकता क्योंकि वह तो पूर्ण परमात्मा है। उसकी संसार में प्रवृत्ति ही नहीं होती। लोक में भी अक्सर देखा जाता है कि जो संत पूर्ण समाधि में स्थित होता है, उसकी संसार में कोई प्रवृत्ति नहीं होती। बेशक उसमें प्रेरक शक्ति होती है। लोग उससे प्रेरणा लेकर या कहो उसकी तरह पूर्ण बनने के लिए बड़े-बड़े और अच्छे-अच्छे सांसारिक काम और आचरण करते हैं। परमात्मा के मामले में भी ऐसा ही होता है। उससे प्रकृति को विकास करने की अर्थात उसके जैसा पूर्ण बनने की प्रेरणा मिलती रहती है। इसी से सृष्टि के सभी काम चलायमान रहते हैं। काम करने वाली तो प्रकृति होती है। सृष्टि से काम कराने वाली प्रकृति है, तो शरीर से काम करवाने वाला अहंकार या जीवात्मा है।

लोग बोलते हैं कि सृष्टि के सभी काम अंधेरे में हो रहे हैं, मतलब उन्हें करने वाली कोई प्रकाशमय चेतना शक्ति नहीं है। बात सही भी है और गलत भी। देखा जाए तो वही अंधेरा तो काम करवा रहा है। पर इसमें प्रकाश का अप्रत्यक्ष योगदान भी होता है। अंधेरा किसके लिए काम करवा रहा है। अंधेरा प्रकाश के लिए काम करवा रहा है। प्रकृति पुरुष के लिए काम करवा रही है। पुरुष ही प्रकृति को खींच रहा है। अहंकार निरंकार के लिए काम करवा रहा है। जीवात्मा परमात्मा के लिए काम करवा रहा है। परमात्मा ही जीवात्मा को खींच रहा है। जीवात्मा तो कभी परमात्मा बन जाएगा। तो क्या प्रकृति भी कभी पुरुष बनेगी। अगर एक जीवात्मा परमात्मा बनेगा तो दूसरा जीवात्मा फिर पैदा हो जाएगा। अगर प्रकृति पुरुष बनेगी तो दूसरी प्रकृति कहां से आएगी क्योंकि प्रकृति तो एक ही है। जीवात्मा अनेक हैं। जब नई प्रकृति नहीं बनेगी तो सृष्टि भी थम जाएगी। जीवात्मा भी प्रकृति से ही बनते रहते हैं।

जीवात्मा प्रकृति और पुरुष का मिश्रण है। अगर प्रकृति पुरुष बन गई तो नए जीव भी पैदा नहीं हो पाएंगे, क्योंकि जीवात्मा ही नहीं बनेगी। मतलब प्रकृति कभी पुरुष में नहीं मिलती। या अगर मिलती है तो नई प्रकृति फिर से बन कर तैयार हो जाती है। कुंडलिनी योग तो है ही प्रकृति को पुरुष की तरफ अंतिम और निर्णायक धक्का देने के लिए। पर बनेगी कैसे। इसका हम अगली पोस्ट में विस्तार से विश्लेषण करेंगे।

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demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

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