दोस्तों पुरुष से ही आभासी प्रकृति को अनुभवात्मक अस्तित्व मिला। अनुभवात्मक मस्तिष्क बनने से पहले प्रकृति छाया की तरह आभासी होते हुए भी सृष्टि को चला रही थी। मतलब उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं था, पेड़ की छाया की तरह। जब पहला अनुभवात्मक मस्तिष्क बना तो उसके नाड़ी स्पंदनों से पुरुष के अंदर तरंगें पैदा हुई। वह पुलिस को महसूस हुई जिससे पुरुष के अपने अनंत प्रकाशरूप आत्मस्वरूप में अंधेरा छा गया। मतलब पुरुष प्रकृति बन गया। हालांकि जो मस्तिष्क में विचाररूपी नाड़ी स्पंदन उभरते रहे, वे उसे पुरुष की तरह प्रकाशमान और चेतन महसूस होते रहे। मतलब प्रकृतिपुरुष युग्म की उत्पत्ति हुई। यह ऐसे ही है जैसे एक पेड़ तूफान से टूट कर अपनी छांव के ऊपर गिर गया और छांव की तरह अस्तित्वहीन हो गया। पहले, तूफान से पेड़ के हिलने से उसकी छाया पर उसके रेखाचित्र बन और मिट रहे थे। पर उस पेड़ के ठूंठ से नई कोंपल निकलने से पुनः नया पेड़ बन गया। अब उस नए पेड़ के छायाचित्र उस पुराने गिरे हुए पेड़ पर बनने लगे। मतलब पेड़ की छाया भी अस्तित्व में आ गई थी और उस पर पड़ने वाले पेड़ के रेखाचित्र भी उसे असली पेड़ की तरह महसूस होने लगे। पुरुष के साथ भी ऐसा ही हुआ। बेशक प्रकाशरूप पुरुष अपनी तरंगों को महसूस करके अंधकार रूप प्रकृति बन गया। पर एक मूल पुरुष भी था जो कभी भी अपने सिवाय मतलब अपनी शुद्ध आत्मा के सिवाय कुछ भी महसूस नहीं करता, अपने अंदर बनने वाली अपनी तरंगों को भी नहीं। इसलिए वह कभी भी आत्मच्युत होकर प्रकृति नहीं बन सकता। उसे शास्त्रोक्त पुरुषोत्तम कह सकते हैं। पुरुष आसमान की तरह ही है। एक आसमान से चाहे जितने मर्जी आसमान बना लो।
उपरोक्त तथ्य का प्रमाण कुंडलिनी जागरण से मिलता है। कुंडलिनी जागरण के दौरान आत्मा पूर्ण प्रकाशरूप महसूस होती है, और उसमें समस्त सृष्टि तरंगों के रूप में महसूस होती है। पर जैसे ही आदमी उन सृष्टिरूपी तरंगों के प्रति आसक्त होने लगता है, वैसे ही आत्मा का अनंत प्रकाश ओझल हो जाता है। मतलब पुरुष की छाया अस्तित्व में आ जाती है। दरअसल भौतिक अस्तित्त्व में तो वह पहले भी थी, इससे तो अनुभवात्मक अर्थात आत्मिक सत्ता मिली। मतलब अब छाया अपने को महसूस करने लगी कि वह है। पहले तो वह मिट्टी पत्थर की तरह थी जैसे वे भी अपने को आत्मिक रूप में महसूस नहीं करते कि वे हैं, पर वे भौतिक रूप से होते हैं। आदमी फिर से पहले की तरह अपनी आत्मा को अंधकारमय प्रकृति के रूप में और उसमें उमड़ रहे मानसिक विचारों को प्रकाशमान पुरुषतरंगों के रूप में महसूस करने लगता है। पुरुषतरंगें तभी बन रही हैं न जब बैकग्राउंड में एक पुरुष अर्थात पुरषोत्तम बैठा है। नहीं तो तरंगें कहां से आएंगी? इस तरह से कई बार तो मुझे कुंडलिनी जागरण ही सांख्य दर्शन का आधारभूत सिद्धांत लगता है।