कुंडलिनी योग बनाम आजादी

दोस्तों, आजकल मेरा ज्यादातर समय यात्राओं में गुजरता है। यात्राओं के बीच में ही कुछ न कुछ लिखता रहता हुं। मनोरम नजारे होते हैं प्रकृति के। किस्म किस्म के पशु पक्षी अपनी अपनी मर्जी की दुनिया को समेटे हुए आजादी से विचरण कर रहे होते हैं। बेशक उनमें दिमाग कम है, पर आजादी उन्हें भरपूर मिली है। बेशक उनको सुरक्षा भी कम मिलती है। वे आजादी के महत्त्व को भलीभांति पहचानते हैं। इसीलिए तो उन्हें पालतु बनाना लगभग असंभव सा ही होता है। वे समझते हैं कि मनुष्य समाज में बेशक उन्हें बेहतर विकास और सुरक्षा व्यवस्था मिले पर जंगल जैसी आजादी नहीं मिल सकती। विकास और सुरक्षा के साथ सामाजिक बंधन, तनाव, और गुलामी जैसे हानिकारक दोष बिन बुलाए मेहमानों की तरह खुद ही चले आते हैं।

कितना अच्छा हो कि अगर मनुष्य जैसा दिमाग और जंगली जानवर के जैसी स्वतंत्रता एकसाथ मिल जाए। यह तो सोने पे सुहागे जैसी बात हो जाएगी। इससे विकास और सुरक्षा के साथ आजादी भी पूरी प्राप्त होती रहेगी। दोस्तों, जब हम बचपन में होते थे, तब हमारे घर में बहुत से पालतु पशु जैसे गाय, भैंसें, कुत्ते, बिल्लियां आदि हुआ करते थे। हमारे पूर्वजों को पशुओं की स्वतंत्रता की चिंता सबसे ज्यादा हुआ करती थी। सूरज निकलने के साथ ही उन्हें खूंटों से खोलकर हम बच्चों के सुपुर्द कर दिया करते थे कि उन्हें जंगल में चरा कर लाओ। हम सभी बच्चे अपने अपने झुण्डों को पेड़ की पतली टहनियों से हांकते हुए जंगल में इकट्ठे होकर खूब खेल तमाशा किया करते थे। कभी ऊंची पहाड़ी पर चढ़कर खड़ी चट्टानों के बीच में बने छोटे छोटे केबिनों में बैठ जाते ताकि बारिश में भीगने से भी बचाव हो सके। कभी गिरे पड़े पेड़ की टहनी पर चढ़कर झूला झूलते। कभी तालाब में नहाने घुस जाते। उस तालाब के एक कोने में बने एक सुराख से झांकता हुआ एक सर्प हमें अक्सर दिखाई देता था। पर वह कभी बाहर नहीं आता था। उसे हम देवता की तरह मानते थे। बच्चे तो बच्चे ही होते हैं। कहां डरने वाले और नहाने से कहां रुकने वाले। आज वह दृश्य याद करके रूह कांप जाती है। एक बार एक शरारती किस्म के बच्चे ने उस सर्प के बिल के ऊपर पड़ी चट्टान से ऊंची छलांग लगाते हुए तालाब में डुबकी लगाई। वह बड़ी देर तक बाहर नहीं निकला। हमें लगा कि वह दम घुटने से मर गया होगा। हम सभी चिंता में पड़ गए। तभी वह बाहर निकला, वह भी बिल्कुल तरोताजा, जैसे कि कुछ हुआ ही न हो। मुझे आजतक हैरानी होती है कि वह कैसे हुआ। क्या वह सांप सच में कोई देवता था ! वैसे मैं एक अंधविश्वासी नहीं हूं। कई मामले संयोगवश भी हो जाते हैं। इसी तरह, एक बार तो सभी बच्चे एक कोबरा नाग के पीछे दौड़ गए थे और उसे लाठी डंडे से परेशान कर रहे थे। वह नाग भी बचाव में अपना फन ऊंचा उठाता और गुस्से में जोर की फुंकार मारता। तब वे थोड़ा पीछे हट जाते। मैं खतरे को भांप गया था और मुझे उस सांप पर दया भी आ रही थी। मेरे बारंबार समझाने से वे मुश्किल से मान गए और उसे छोड़ दिया। इसी तरह की अजीबोगरीब किस्म की अनेकों शरारतें किया करते जिन्हें यहां लिखा भी नहीं जा सकता।

दोस्तो, यात्राओं के दौरान मुझे एक झील में बने एक छोटे से सुंदर टापू के बारे में पता चला। वहां एक सुंदर विश्राम गृह भी है। वहां साहसिक पर्यटक लोग अक्सर रात्रि निवास के लिए जाकर रुकते हैं। उसे कुछ लोग नागलोक भी कहते हैं। वहां पर जहरीले कोबरा नागों की भरमार है। वे आपको अक्सर वहां रेंगते हुए मिल जाएंगे, एक दो की संख्या में नहीं पर अनेकों। और तो और वे सर्दियों में भी धूप सेकते हुए मिल जाएंगे। वैसे आमतौर पे सांप सर्दियों में नहीं दिखते क्योंकि वे ठंड से बचने के लिए गहरे सुराखों में छिप जाते हैं। उस विश्रामघर में डर के मारे कोई कर्मचारी भी नहीं जाना चाहता। इसीलिए वहां तीस सालों से एक ही स्थानीय व्यक्ति बतौर कर्मचारी नियुक्त हैं। वे ज्यादातर समय वहां रात दिन अकेले ही रहते हैं, क्योंकि पर्यटक तो कभी कभी आते हैं। और वैसे भी, साहसी पर्यटक तो कम ही होते हैं। वे अब वृद्ध भी हो चुके हैं। उनके अनुसार तीस सालों के इतिहास में विश्राम गृह समेत उस टापू में किसी की भी मौत सांप काटने से नहीं हुई है। यह भी आश्चर्य ही है। शायद सांप डर के मारे ही काटते हैं। क्योंकि उस द्वीप पर उन्हें स्वतंत्र माहौल मिलता है, इसलिए वहां डरते नहीं। यदि कोई सर्प विश्राम घर के अन्दर घुस जाए तो वे उसे नंगे हाथों से पूंछ से उठाकर दूर फेंक देते हैं। शायद अभ्यस्त हो चुके हैं। विश्राम घर की रखवाली में जंगली मोर भी उसके आसपास घूमते रहते हैं। उनके डर से भी सांप दूर रहते हैं। शायद पशु पक्षी भी अपने कर्तव्यों को पहचानते हैं। मुझे कईयों ने वहां चलने, वहां घूमने और वहां रुकने के लिए प्रोत्साहित किया पर सच कहूं तो मेरी कभी हिम्मत नहीं हुई। अपनी झूठी शेखी क्यों बघारनी।

दोस्तो, इसी तरह बचपन में कभी हम पहाड़ी की चोटी पर बने गुमनाम से खेतों से मक्की चुरा कर लाते और जंगल में ही आग जलाकर उन्हें भुट्टे बनाकर खा जाते। इससे एक अच्छी सी कैंप फायर पार्टी हो जाती। कभी शहर गए लोगों के बगीचे से केले चुराकर खा जाते। कभी घर से नारियल, गुड़ आदि चुराकर जंगल को ले जाते और वहां सब मिलकर दावत मनाते। कभी कुछ ज्यादा शरारती बच्चे जानबूझकर अपने पशुओं को कांटों की बाड़ लंघवा कर दूसरों की घासनियों में घुसाते ताकि उन्हें एक जगह ही भरपूर घास मिलने से उन्हें लागतार हांकना न पड़े और वे दूध भी ज्यादा दें। कभी बैलों को आपस में लड़ाकर अच्छा खासा मनोरंजन कर लेते। एक बच्चा अपने बैल को सबसे बड़ा चैंपियन मानता था और बड़े गर्व से उसकी बड़ाई किया करता था। एक दिन मेरे दोनों बैलों ने मिलकर उसकी बादशाहत ध्वस्त की। बेशक वह बच्चा चीटिंग चीटिंग करता रहा पर जो होना था वह तो हो गया था। उसके बैल ने मेरे दोनों बैलों की गुलामी स्वीकार कर ली थी। उन दोनों बैलों में बहुत ज्यादा आपसी प्यार होता था। वे दोनों सगे भाई थे। छोटा बैल बहुत ताकतवर था और हर जगह उसका डंका बजता था। पर वह बड़े भाई का सम्मान करते हुए उससे डरा हुआ रहता था और कभी उसकी तरफ आंख नहीं उठाता था। बेशक बड़ा बैल शरीफ और कमजोर था और छोटा बैल उस पर हमला कर रहे बैलों के ऊपर बिजली की तरह टूट पड़ता था। फिर उसका साथ पाकर बड़े बैल में भी लड़ने की हिम्मत आ जाती थी। उनकी जोड़ी मुझे बिल्कुल राम लक्ष्मण की जोड़ी की तरह लगती थी। छोटे बैल को बड़ा बैल ही नियंत्रण में रखता था क्योंकि अति हर जगह खराब होती है। छोटा बैल अक्सर आदमियों को भी मारने दौड़ पड़ता था। उस समय बड़ा बैल भी उसे मारने दौड़ पड़ता था जैसे कि उसे समझा रहा हो। मुझे लगता है कि ये ऐसे ही इशारों से आपस में बातें करते हैं।

दोस्तो, कहने का मतलब है कि स्वतंत्रता के साथ आपसी प्यार और सहयोग से भरे माहौल में समय गुजार कर ही कुंडलिनी अच्छे से विकसित होती है, जिसे समय आने पर अतिरिक्त बल देने से वह जाग भी जाती है। स्वतंत्रता सबको इसलिए अच्छी लगती है क्योंकि आत्मा परम स्वतंत्र है और हर कोई आत्मा को पाना चाहता है। भौतिक स्वतंत्रता का असली सदुपयोग यही है कि उससे आध्यात्मिक स्वतंत्रता मिल सके। नहीं तो कोई फायदा नहीं। जो तनिक फायदा दिखता है, वह भ्रम से दिखता है। वह क्षणिक अर्थात अस्थायी फायदा है। इस अनंत काल की जीवन धारा में अस्थायी चीज का कोई अस्तित्व नहीं है, बेशक वह चाहे कितनी ही बड़ी क्यों न दिखती हो। अगर आजादी मिलने पर भी कुंडलिनी योग नहीं किया तो वह आजादी व्यर्थ है। उससे अच्छी तो वह गुलामी है जिसमें कुंडलिनी योग करने का मौका मिलता हो। बेशक वह बाहर से गुलामी दिखे पर असल में वह परम स्वतंत्रता की ओर ले जा रही होती है। इसीलिए तो पुराने ज़माने में अध्यात्म जिज्ञासु लोग कठिन अनुशासन का पालन करते हुए योग्य गुरु की संगति में रहते थे और उनके बताए हुए मार्ग पर चलते हुए योगसाधना करते थे। बाहर से तो वे गुरु की गुलामी सी करते हुए दिखते थे, पर वास्तव में वे सबसे अधिक या कहो परम स्वतंत्र होते थे। योगी लोग ध्यानयोग से उत्पन्न आत्मा की स्वतंत्रता के बल से ही सारी उम्र एक निर्जन गुफा की कैद या गुलामी में योगसाधना करते हुए बिता देते थे। कई बार जो दिखता है, वह सत्य नहीं होता, और जो सत्य होता है वह दिखता नहीं है। योग और मानवता वाली गुलामी कई बार इसलिए अखरती है क्योंकि उसमें प्रेम की कमी महसूस होती है। इसका अर्थ है कि प्रेम मानवता का सर्वप्रमुख अंग है। साथ में यह भी कि गुलामी की भावना को प्रेम से कम किया जा सकता है। एक तरह से यह कहा जा सकता है कि बच्चे, पशु और अधिकांश महिलाएं सिर्फ प्यार के लिए गुलामी स्वीकार करते हैं। साथ में, इसीलिए तो तांत्रिक योग को सर्वोत्तम योग माना जाता है, क्योंकि इसमें योग, प्रेम के साथ मिश्रित होता है। इससे आम जनमानस में उबाऊ और बंधक जैसा समझा जाने वाला योग परम मनोरंजक और परम स्वतंत्र बन जाता है। दोस्तो, इस पोस्ट को पूर्ण रूप से समझने के लिए इसी ब्लॉग की अगली पोस्ट,”कुंडलिनी योग बनाम जातीय व्यवस्था” भी पढ़ लेनी चाहिए। इस पोस्ट को पूरी तरह से समझने के लिए कृपया इस ब्लॉग की पिछली पोस्ट “कुंडलिनी योग बनाम आजादी” पढ़ें।

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demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

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