दोस्तों एक प्रासिद्ध कहावत है कि करत करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान। मतलब लगातार अभ्यास से मूर्ख व्यक्ति भी बुद्धिमान और कुशल बन जाता है। मुक्ति को प्राप्त करने के मामले में सभी लोग मूर्ख हैं। तो क्या कुंडलिनी योग के लगातार अभ्यास से मुक्ति अनायास ही पाई जा सकती है। आइए हम इस पोस्ट में इसका विश्लेषण करते हैं।
मैं पुराण पुरुष का परिचय पढ़ रहा था। उसमें लिखा था कि लेखक के परिचित एक गृहस्थ योगी की मृत्यु कैसे हुई? अंतिम समय में उन्होंने अपने प्राण को बिलकुल ठीक भृकुटी के मध्य में केंद्रित कर दिया था। इससे वहां तेज कंपन हो रहा था। फिर वहीं उनके प्राण छूट गए। माना जाने लगा कि वह मुक्त हो गए। उसी आज्ञा चक्र को राम दुवारा कहा गया है। आम बोलचाल में लोगों द्वारा रामद्वारे पर जो मृत्यु का जिक्र किया जाता था, वह आज्ञा चक्र ही था।
अब प्रश्न है कि अंतिम समय में जब सारी इंद्रियां ज्ञानशून्य सी हो जाती हैं, उस समय कोई कैसे शरीर के प्राण को आज्ञा चक्र पर केंद्रित कर सकता है? मुझे तो लगता है कि यह जीवन भर के अभ्यास से खुद ही हुआ। विज्ञान भी दिखाता है कि शरीर का रक्तसंचार गैरजरूरी अंगों से हटकर जरूरी अंगों की ओर स्थानांतरित होता रहता है। तब ऐसा तो बिना योग के भी होना चाहिए। वह तो होता ही है। चाहे कोई योग करे या ना करे, रक्तसंचार तो मस्तिष्क को ही महत्व देता है। आज्ञा चक्र मस्तिष्क के मुख्य भागों में से एक है, और शरीर की मुख्य नाड़ी के रास्ते में सबसे प्रभावी बिंदु है। पर ऐसा कंपन तो सभी में नहीं दिखता। यह तो योगी में ही दिखता है। ऐसा लगता है कि रक्तसंचार स्वचालित रूप से खुद ही नियंत्रित होता है। उसके बारे में जागरूक या अनुभवशील होने की जरूरत नहीं है। पर नाड़ी संचार को ज्यादा प्रभावी बनाने के लिए उसके प्रति जागरूक होना पड़ता है। मतलब उसे अनुभव करना पड़ता है। वैसे तो नाड़ी संचार आधारभूत स्तर पर बिना अनुभव के भी होता रहता है। उसी से तो शरीर क्रियाशील रहता है। पर उसे मुक्ति प्रदान करने के स्तर तक उठाने के लिए उसका अनुभव बढ़ाते रहना पड़ता है। यह कुंडलिनी योग से आसानी से होता है। सारा काम रक्तसंचार नहीं कर सकता। वह बेशक कोशिकाओं को काम करने के लिए सभी जरूरी पदार्थ पहुंचाता है, पर कोशिकाओं को उनका प्रयोग करके काम करने के लिए नाड़ी संचार ही प्रेरित करता है। शायद इस नाड़ी संचार को ही प्राण कहते हैं। अगर हम किसी आदमी के पास मकान बनाने की सामग्री रख दें तो वह एकदम से मकान बनाने नहीं लग जाएगा। उसे उस सामग्री का उपयोग करते हुऎ काम करने के लिए प्रेरित करना पड़ेगा। यह प्रेरक काम नाड़ी संचार से होता है। आप सबको पता है कि मुक्ति के लिए मन में दबे हुए सभी विचारों का आत्मा में प्रकट होना जरूरी है। साक्षी भाव में ऐसा ही तो होता है। इसीलिए तो उससे मुक्ति का अहसास होता है। हम बेशक साक्षी भाव से पिछले सारे दबे विचारों को आत्मा में अनुभव कर लेते हैं पर जो उसके बाद नए विचार पुनः दबते हैं, वे बंधन में डालने के लिए काफी हैं। मृत्यु के समय क्योंकि सभी इंद्रियों के निष्क्रिय होने से नई दुनियादारी अनुभव नहीं की जा सकती, मतलब नए विचार बनकर मन में नहीं दब सकते। ऐसे में यदि मस्तिष्क में प्राणों के महान संचरण से सभी पुराने दबे हुऎ विचार आत्मा में एक बर भी अनुभव हो जाएं तो मुक्ति में संदेह नहीं होना चाहिए।
शास्त्रों में लिखा है कि मृत्यु के समय अगर भगवान का नाम ले लिया जाए या उनका स्मरण हो आए तो मुक्ति मिलती है। साथ में कई जगह यह भी लिखा है कि अगर जीवन भर का अभ्यास हो, तभी ऐसा किया जा सकता है। यह अभ्यास कुंडलिनी योगाभ्यास की ओर ही इशारा करता है। क्योंकि आम अभ्यास तो उस समय काम नहीं आएगा। वह इसलिए क्योंकि सभी इंद्रियां लगभग मृतप्राय सी होंगी। उनसे कैसे कुछ सोचा जा सकता है। उन मृतप्राय इंद्रियों मैं तभी जान आ सकती है, अगर प्राणों की तेज लहर उन्हें झकझोड़े। अभी क्योंकि रक्तसंचार बाहरी इंद्रियों जैसे आंख, कान आदि से हटकर आंतरिक इंद्रियों जैसे कि मन, और बुद्धि में गया होगा। वह रक्त संचार भी इतना ज्यादा नहीं होगा कि वह वहां के नाड़ी तंत्र को पर्याप्त पोषण दे सके। ऐसे में मूलाधार से उठ रही प्राण की तेज लहर ही उसे क्रियाशील कर सकती है।
फिर कहते हैं कि आदमी अंतिम काल में जिसका चिंतन करता है, अगले जन्म में वह वही बनता है। जड़ भरत ने हिरण का चिंतन किया, इसलिए वह हिरण ही बना। शायद यह चिंतन एकाकी चिंतन है जो प्राण की कमी से होता है। एक चित्र के प्रति ही आसक्ति या श्रेय बुद्धि बनी रहती है। इसीलिए वैसा ही जन्म मिलता है। पर मूलाधार से आ रहे प्राणों के शक्तिशाली स्पंदन से सभी मानसिक चित्र एक साथ महसूस होकर आत्मा में शांत हो जाते हैं। फिर किसी विशेष चित्र से लगाव नहीं रहता।इससे मुक्ति मिलती है। या तो किसीसे आसक्ति न करो या सबसे आसक्ति करो। दोनों का फल एक ही है, अनासक्ति। या तो मृत्युकाल में किसीको याद न करो, या सबको करो। बात एक ही है। पर ऐसा नहीं होता क्योंकि प्राण किसी न किसी को तो याद कराएगा ही। सुषुम्ना में बहने वाली कुंडलिनी शक्ति में ही इतनी सामर्थ्य लगती है कि वह सबकुछ एकसाथ अनुभव या याद करवाती है। शायद यही इसका मूल सिद्धांत है।
पर मृत्यु हमेशा आराम से ऐसे तो नहीं आती कि वह विचारों को आत्मा में विलीन करने का मौका दे। अकाल मृत्यु एकदम से होती है। आजकल के आधुनिक, मशीनी, प्रदूषित, लड़ाई दंगों, और रोगों से भरे युग में यह ज्यादा होती है। पहले इसे बहुत अशुभ और मुक्ति में बाधा माना जाता था। यहां तक कि इससे आत्मा लंबे समय तक बिना शरीर के भटकते मानी जाती थी। इसीलिए कहते थे कि आध्यात्मिक रूप से मृत्यु के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए ताकि अगर अकाल मृत्यु भी आए, तो भी मुक्ति मिल सके। ऐसी तैयारी तो प्रतिदिन के कुंडलिनी योगाभ्यास से ही हो सकती है।
मुझे जब कोरोना हुआ था तो ऐसे ही प्राणों का संचरण मुझे पीठ से महसूस होता था, जो शायद बीमारी से लड़ने के लिए था। उन दिनों में मैं कुंडलिनी योग भी नहीं कर पा रहा था। बड़ी शांति से विचार उभर कर आत्मा में विलीन हो रहे थे। शायद ऐसा ही होता है कि जब योग का अभ्यास छूट जाए तो अभ्यस्त शरीर उस योग को खुद करने की कोशिश करता है। शायद प्राणायम और योग को इसीलिए मुक्तिदायक माना गया है। सदियों से अनगिनत योगियों ने इसे परखा है।