कुंडलिनी योग बनाम संभोग आधारित गुह्य तंत्र योग: अंतर और संबंधों की विवेचना

दोस्तों! अब कुछ कुछ लगता है कि इस ब्लॉग का फेस तनिक चेंज सा हो गया है। इसमें आज तक संभोग योग या संभोगमिश्रित कृत्रिम योग पर बहुत कुछ लिख लिया गया है। वही सब योगों का मूल भी लगता है। संभवतः इसीलिए खुद ही उस पर सबसे पहले लिखा गया। अब अन्य पूर्ण कृत्रिम योगों की तरफ झुकाव बढ़ रहा है। इनमें से ज्यादातर तो संभोग शक्ति पर ही आधारित हैं। हालांकि सभी योगों का एक जैसा प्रभाव होता है। सिद्धि मिलने में लगने वाले समय में भिन्नता हो सकती है। इसका मतलब है कि मूल अनुभव का वर्णन तो हो ही गया है। यह हमने कहीं पढ़ा नहीं था पर अनुभव से लिखा था। अभी जो पूर्ण कृत्रिम योगों पर पढ़ रहे हैं, वह बिल्कुल अपने लिखे अनुभवों से मेल खा रहा है। मतलब सभी योग एक जैसे ही हैं। फिर भी पूर्ण कृत्रिम योगों के ताजा अनुभव पुनः ताजे रूप में लिखने का अपना अलग ही मजा है।

दिमाग का दबाव दोनों किस्म के योगों में एक जैसा होता है। पर उसे सहने की शक्ति संभोग योग में ज्यादा होती है। इसी तरह व्यवहार में या दुनियादारी में कुछ बाधा दोनों किस्म के योगों में आ सकती है पर संभोग योग से यह बाधा भी आनंदमय जैसी महसूस होते हुए एक खेल की तरह लगती है। साथ में उस बाधा से बचने में प्रकृति की सहायता ज्यादा मिलती है। उससे पैदा दुनियादारी में कमी को दुनिया के लोग ज्यादा बुरी नजर से नहीं देखते। सीधी सी बात है। दोनों किस्म के योगों से प्राण शक्ति मस्तिष्क को बहुतायत में मिलती है। इसीलिए तो दबाव महसूस होता है। इसी वजह से शरीर के अन्य अंग ज्यादा शक्ति न मिलने से दुनियादारी में कुछ पीछे से रह जाते हैं। लक्षण भी लगभग एकजैसे ही होते हैं। जैसे कि काम के प्रति लालसा न रहना, खासकर भौतिक काम के प्रति। हालांकि स्वयंप्रकट काम को आनंद, संतोष, गुणवत्ता व चैन से करता है। कभी एकदम भूख बढ़ाना, कभी एकदम घटना आदि। ऐसा लगता है कि शरीर में कई किस्म के परिवर्तन और एडजेस्टमेंट हो रहे हैं। रचनात्मकता दोनों में बढ़ती है। पर संभोग योग में तो गजब की गुणवत्ता, रोमांचकता, और व्यावहारिकता होती है। इसमें आदमी को आध्यात्मिकता और भौतिकता दोनों को गजब के सामंजस्य के साथ एकसाथ चलाने की शक्ति मिलती है। दोनों में बच्चों के जैसा स्वभाव हो जाता है। यह इसलिए क्योंकि योगी के मस्तिष्क को ज्यादा ऊर्जा मिलने से वह जागरण के लिए तेजी से रूपांतरित हो रहा होता है। बच्चों में भी ऐसा ही तेज मस्तिष्क विकास होता रहता है। दोनों योगों में चेहरे पर एकजैसी बढ़ी हुई लाली, चमक और तेजस्विता छा जाती है। बाहर से देखने पर बताना मुश्किल है कि कौन से किस्म का योग है।

कई मामलों में कृत्रिम योग इसलिए बेहतर है, क्योंकि इसे ताउम्र अच्छी तरह से किया जा सकता है। उल्टी सांस ही तो कृत्रिम योग है, क्योंकि सीधी सांस तो प्राकृतिक है। दरअसल सांस तो सांस ही है। वह उल्टी या सीधी कैसे हो सकती है। उल्टा या सीधा तो इसके साथ लगने वाला ध्यान या जागरूकपना होता है। कुदरती सीधी सांस में जागरूकता सांस की शक्ति के दुनियादारी में बहिर्गमन पर होती है। जबकि उल्टी सांस में जागरूकता सांस या प्राण की शक्ति के पीठ में उर्ध्वगमन पर होती है। मतलब उल्टी सांस की शक्ति शरीर में ही रहकर ऊपर नीचे बहती रहती है, पर सीधी सांस की शक्ति इंद्रियों के रास्ते दुनियादारी में व्यय होती रहती है। उल्टी सांस के दौरान पीठ में जो बाह्य हलचल महसूस होती है, वह धीरे धीरे अभ्यास से प्राणों की गहरी हलचल को क्रियाशील कर देती है। यही सांस और प्राण का संबंध। वास्तव में सांस खुद प्राण नहीं है, पर यह अपनी हलचल से प्राण को क्रियाशील कर देती है। इसीलिए सांस और प्राण को पर्यायवाची शब्दों की तरह प्रयोग किया जाता है। इसे ताउम्र तो बेशक किया जा सकता है पर उम्र बढ़ने के साथ मस्तिष्क की दबाव सहने की क्षमता घट सकती है, खासकर विशेष रोगों के साथ। इसलिए सावधानी की आवश्यकता होती है। हालांकि अभ्यास से क्या कुछ सुलभ नहीं होता। साथ में, इसके दुष्प्रभाव भी कम होते हैं। दूसरी ओर संभोग योग युवावस्था में ही अच्छे से किया जा सकता है। किशोरावस्था में यह अनुभव की कमी के करण संभवतः सिद्ध नहीं हो पाता। प्रौढ़ावस्था में इससे संबंधित अंगों में दोष पैदा होने की संभावना बढ़ जाती है। संक्रमण फैलने की संभावना तो लगभग हमेशा ही बनी रहती है। कहीं अनचाहा गर्भ ही ना ठहर जाए, इसके लिए भी बहुत सतर्क रहना पड़ता है। 

एक प्रकार से देखा जाए तो कुंडलिनी योग ज्यादा प्राकृतिक लगता है क्योंकि इसमें संभोग की सहायता नहीं ली जाती। संभोग तो सिर्फ बच्चे पैदा करने के लिए जवानी तक सीमित है कुदरती तौर पे। जैसी सांस से संभोग करते समय वीर्यपात रोका जाता है और जिससे वीर्य शक्ति ऊपर चढ़ती है, वैसी ही गहरी, धीमी और पेट और छाती से मिश्रित पूर्ण योगिक सांस से प्राणायाम करते समय भी वह ऊपर चढ़ती है। वही कुंडलिनी शक्ति है। यह शक्ति मन के विचारों के कुंडल को खोलकर उन्हें ब्रह्म जितना सर्वव्यापक बना देती है। इसीलिए इसे कुंडलिनी शक्ति कहते हैं। शक्ति को चढ़ाने के कारण वस्तुतः प्राणायाम ही योग है।

संभोग योग में ज्यादा बड़े सिद्ध योगी अपेक्षाकृत बहुत कम ही देखने सुनने में आते हैं। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि बहुत से योगी संभोग से मदद तो जरुर लेते हैं। पर जब सिद्धि का समय आता है, तब तक उनकी उम्र काफी बढ़ चुकी होती है। इससे उनकी साधना कृत्रिम योग में स्थानांतरित हो चुकी होती है। दूसरी वजह यह लगती है कि ज्यादातर लोगों की युवावस्था रोजगार से संबंधित चिंताओं और संघर्षों में ही बीत जाती है। जब तक वे सही से जीवन में सुकून से सेटल होते हैं, तब तक जवानी की उम्र और यहां तक कि कइयों की तो प्रौढ़ावस्था की उम्र भी बीत गई होती है। कई लोगों को तो बुढ़ापे में ही सुकून मिलता है। बहुत बिरले और बदकिस्मत लोगों को तो बुढ़ापे में भी नहीं मिलता, फिर योग गया अगले जन्म को। तीसरी वजह यह लगती है कि अगर किसी को इससे सिद्धि मिली होगी तो उन्होंने सामाजिक बहिष्कार के डर से या सामाजिक विरोध के डर से इसे छुपाया होगा, क्योंकि अक्सर इसे एक सामाजिक बुराई की तरह देखा जाता है।

दोनों ही किस्म के योगों से नशा जैसा चढ़ता है। यह अद्वैत का नशा होता है। प्यार का नशा भी कुछ इस तरह ही सिर चढ़ कर बोलता है। यह भी यिन यांग के मिश्रण से उत्पन्न अद्वैत का ही नशा होता है। दोनों से ही प्राण सिर को चढ़ते हैं। कुंडलिनी योग से नशा जैसा चढ़ने और प्राण या सांस सिर को चढ़ते का वर्णन बहुत से महान योगी करते आए हैं। मुझे लगता है कि पहाड़ को देखने से जो आनंद और शांति मिलते हैं, वे आँखों और प्राणों के आज्ञा चक्र या सिर की तरफ चढ़ने से मिलते हैं, क्योंकि नजर ऊपर की ओर होती है। एक सामाजिक योग है जिसके बारे में सबसे खुलकर बात कर सकते हैं और जिसे मिलकर कर सकते हैं। दूसरा असामाजिक योग है, जिसे छिप के और बिना किसी को बताए करना पड़ता है। इसीलिए इसे गुह्य तंत्र भी कहते हैं। हालांकि कुछ हद तक तो दोनों ही योग समाज से कटे होते हैं, पर गुह्य योग तो अक्सर घृणित भी बन जाता है। इसे ज्यादातर मामलों में गलत ही समझा जाता है। मुझे तो लगता है कि वह इसलिए क्योंकि लोग दुनियादारी के कामों में अंधे हुए होते हैं। वे इसके लिए शक्ति निकाल ही नहीं सकते। इसके लिए शक्ति और तनावमुक्त और एकांत माहौल चाहिए। इसलिए उन्हें इसके रूप में अपना विनाश जैसा दिखता है क्योंकि शक्ति न रहने से भला क्या बुरा नहीं हो सकता । मतलब अगर दुनियादारी में बेतरबी से उलझे हुए लोग अगर इसे बिना शक्ति के करेंगे, तो दुनियादारी के लिए शक्ति न बचने से नुकसान भी हो सकता है। क्योंकि दुनियादारी की शक्ति तो तंत्र योग खींच लेगा। इससे दुनियादारी में अभ्यस्त आदमी को संभलने का मौका ही नहीं मिलेगा। इससे उसकी शक्ति पर निर्भर लोग भी दुष्प्रभावित होंगे। शायद इसीलिए कहते हैं कि फलां आदमी ने तांत्रिक जादू टोना किया या बुरी नजर लगाई। दरअसल यह सब शक्ति का खेल होता है। इससे बेशक भौतिक शक्ति क्षीण होती है पर उसकी कीमत पर आध्यात्मिक शक्ति बढ़ती है। कई बार आदमी उस आध्यात्मिक शक्ति का प्रयोग किसी के प्रति बुरे विचारों, शब्दों, कर्मों या अपनी भौतिक तरक्की के लिए करता है। इससे जागृति का रास्ता बंद हो जाता है। कई बार आदमी अपने बचाव में दुनिया से उलझता है। पर शक्ति की हानि तो तब भी तो होती ही है। साथ में समाज में वैर विरोध भी बढ़ता है। इसीलिए कहते हैं कि गुह्य तंत्र को बिना गुरु या बिना अनुकूल परिवेश में करने से परहेज करना चाहिए। यह घर से दूर किसी वनवास जैसी एकांत जगह में ही ठीक रहता है, क्योंकि यह गुप्त विद्या है। एकांत को भी अधिकांश लोग ठीक ढंग से नहीं समझते। वे मानते हैं कि निर्जन बन जैसी जगह ही एकांत हैं। पर अगर वहां भी कोई व्यवधान है जैसे प्रकृति का या जानवरों का या बाहर से लोगों का ही, तो वह भी एकांत कहां है। पर यदि भीड़ भरे शहर में भी साधक को कोई नहीं पहचानता और न कोई व्यवधान डालता तो वह उसके लिए एकांत ही है। वैसे भी समाज में लोगों को गुप्त तंत्र की भनक लगने पर वे वैसे ही जीना हराम कर देंगे। शायद इसीलिए घुमक्कड़ योगी साधक बारंबार अपना स्थान बदलते रहते थे। पर साधारण योग हमेशा कर सकते हैं। यह धीरे धीरे आगे बढ़ता है।

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demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

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