कुंडलिनी योग बनाम क्रिया योग: अंतर, लाभ और आपके लिए कौन सा बेहतर है?

दोस्तों, क्रिया योग अक्सर चर्चा में रहता है। पर क्या यह पतंजलि योग से भिन है? बिलकुल भी नहीं। क्रिया योग तो पतंजलि योग सूत्रों में ही छुपा हुआ है। शुरु में यम, नियम तो अपनाना ही पड़ेगा तभी तो मन शांत और स्थिर होगा। आसन तो फिर खुद ही लगेगा। क्योंकि चंचल मन वाला आदमी ही दौड़ लगाता है। शांत मन वाला तो चुपचाप बैठकर आराम फरमाता है। जब आदमी बैठेगा तब सांस तो लेगा ही। सांस भी अच्छी तरह से ठोक बजा कर लेगा। चंचल आदमी की तरह डरकर नहीं लेगा। जब प्राण की शक्ति फालतू दौड़ में बरबाद होने से बचेगी, तो वह सांस के लिए ही प्रयुक्त होगी। अच्छी, लंबी और गहरी सांस लेने से उसे आनंद भी आएगा। गहरी सांस से मूलाधार की शक्ति ऊपर चढ़ेगी। उससे दबे विचार उभरेंगे और आत्मा से जुड़ेंगे। दबे विचार का उभरना भी नहीं कह सकते। खिला हुआ फूल बनना कह सकते हैं। मतलब है तो सबकुछ वही पुराना पर वह अब बंद फूल की तरह सम्पीड़ित और अंधकारमय नहीं बल्कि खुले फूल की तरह मुक्त और प्रकाशमान है। इसीलिए चक्रों को कमल पुष्पों का रूप दिया गया है। फूल खिलने से ही आनंद आता है। आम आदमी यहीं रुक जाएगा। पर खास जिज्ञासु आदमी योग को अपनाते हुए सांसों की खूब खींचतान करेेगा। इससे उसकी शक्ति मूलाधार, स्वाधिष्ठान और मणिपुर चक्रों को पार कर जाएगी। उसके ऊपर वह शक्ति खुद ऊपर चढ़ेगी। कई योगी लोग ऐसा कहते हैं कि फिर वह नीचे नहीं आएगी पर मुझे लगता है कि बीच-बीच में खींचतान लगानी ही पड़ेगी। क्योंकि स्थायी स्थिति किसी की भी नहीं है, शक्ति की भी नहीं। यह खींचतान गहरे श्वास और प्रश्वास को रोक कर लगती है। बेशक प्रतिदिन का अभ्यास साधारण गहरे प्राणायाम का हो, सांस रोकने का न हो, पर हफ्ते में एक दो दिन तो झटके देने ही पड़ते हैं। अज्ञानरूपी शत्रु का क्या भरोसा, कब हमला कर दे। शत्रु को कमजोर नहीं समझना चाहिए। होता क्या है कि अगर सांसों की खींचतान से शक्ति को हम हमेशा ऊपर ही चढ़ाते रहेंगे तब आज्ञा चक्र में पर्याप्त ध्यान नहीं हो पाएगा। क्योंकि हम प्राणायाम के दौरान रीढ़ की हड्डी पर और चक्रों पर सनसनी पर ध्यान देते हुए शक्ति को ऊपर चढ़ाने में व्यस्त रहेंगे। इसलिए वह शक्ति भौतिक दुनियादारी में खर्च हो जाएगी। इसीलिए कहा है कि जब शक्ति आज्ञा चक्र में पहुंच जाए तो ध्यान शुरु कर दो। जब ध्यान लग गया तब तो वह अपने को खुद बढ़ाता रहेगा क्योंकि वह आनंद है और आनंद खुद सबको अपनी तरफ खींचता है। जब प्राण शक्ति आज्ञा चक्र में पहुंचती है तो खुद पता चल जाता है। महान सत्त्वगुण महसूस होता है। आदमी रूपांतरित सा हो जाता है। सभी दैवीय गुण खुद ही आ जाते हैं। कुछ करने या पढ़ने की जरूरत नहीं होती। पशु पक्षी भी उसे ध्यान और कौतूहल से देखने लग जाते हैं। यही तो सांस और प्राण का कमाल है। इससे प्रत्याहार भी खुद ही होगा। क्योंकि जब आदमी को अंदर ही आनंद मिलेगा तो वह उसके लिए इंद्रियों वाला खर्चीला रास्ता क्यों अपनाएगा? आज्ञा चक्र में तो धारणा, ध्यान, ध्यान, समाधि खुद ही लगते हैं। मतलब ध्यान चित्र बहुत स्पष्ट हो जाता है। कई तांत्रिक किस्म के लोग आज्ञा चक्र तक एकदम से पहुंचने के लिए पंचमकारों का प्रयोग करते हैं। उसके बाद उन्हें छोड़ देते हैं। क्योंकि आज्ञा चक्र का सत्त्वगुण उन्हें उनके प्रयोग से रोकता है। मतलब सीढ़ी से ऊपर चढ़ो और फिर उसे फेंक दो। अगर सीढ़ी लगाकर रखोगे तो फिर गलती से दोबारा नीचे उतर जाओगे। कोई साधक अगर इनका प्रयोग जारी रखता है तो उसे कुंडलिनी जागरण जल्दी से तो मिल जाएगा पर वह उस अनुभव को ज्यादा देर तक झेल नहीं पाएगा। और कुंडलिनी को एकदम से नीचे उतार देगा। क्योंकि पंचमकारों में तमोगुण और रजोगुण होता है, जो सतोगुण को ज्यादा नहीं झेल पाता। फिर भी न होने से तो अच्छा ही है यह क्षणिक अनुभव भी। आज्ञा चक्र का ध्यान अंदर घुसकर दिमाग के बीच में त्रिकोण जैसा बनाता है। इसके तीनों छोरों पर तीन बिंदु हैं। मतलब यह त्रिकोण पतली नाड़ियों की सनसनी रेखाओं और सनसनी बिंदुओं के रूप में महसूस होता है। उसके बीच में श्री बिंदु पर भी ध्यान और संवेदना जमते हैं। श्री बिंदु से थोड़ी सी पीछे को एक सनसनी रेखा और जाती है। वह सहस्रार बिंदु पर खत्म हो जाती है। यही परम दिव्य स्थान है। यही अंतिम लक्ष्य है। यहीं पर मोक्ष मिलता है। वहां पर पीठ से रीढ़ की हड्डी से ऊपर आ रही मूल सनसनी या सुषुम्ना भी जुड़ जाती है। ये सब अभ्यास के अनुभव हैं। ये कोई भौतिक रेखा, बिंदु, त्रिकोण, चक्र आदि नहीं हैं। कई योगी बोलते हैं कि आज्ञा चक्र से सहस्रार चक्र बिंदु तक जाते समय अंधेरमय आकाश, फिर प्रकाशमय गुहा आदि आदि महसूस होते हैं। ये सब अनुभव सुनकर और पढ़कर अजीब लगते हैं। पर अभ्यास जारी रखने पर ये खुद महसूस होते हैं। किसी को बताने की जरूरत नहीं। कई योगी कहते हैं कि योग के समय चक्रों पर या पीठ आदि पर ध्यान नहीं देना चाहिए। बल्कि केवल भ्रुवों के बीच में, आज्ञा चक्र बिंदु पर टिका कर रखना चाहिए। वे भी तो ठीक ही कहते हैं। मुख्य लक्ष्य आज्ञा चक्र ही है। क्यों न सीधे टारगेट पर निशाना लगाएं? बाकि के चक्र खुद ही आज्ञा चक्र से जुड़े होते हैं। इसलिए आज्ञा चक्र के ध्यान से खुद ही अन्य चक्रों का ध्यान भी हो जाता है। सूरज के पीछे भागोगे तो चंदा रास्ते में खुद ही पकड़ में आ जाएगा। केवल चांद को पाने से सूरज नहीं मिलेगा। हां, रास्ता थोड़ा हल्का या आसान हो जाएगा पर समय बहुत लगेगा। क्या पता तब तक आदमी दुनिया में जिंदा भी रहे। ऐसे ही कई लोग चक्रों पर अपना बहुत सा कीमती समय बरबाद करते हैं। जब पतंजलि कहते हैं कि ध्यान से ही परम सिद्धि मिलेगी, तो ध्यान आज्ञा चक्र से नीचे तो होगा नहीं? कई तांत्रिक आज्ञा चक्र पर ध्यान चित्र को संभोग योग से एकदम से बहुत मजबूत कर देते हैं और बहुत जल्दी या यूं कहो कि चमत्कारिक रूप से समाधि और आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। पर बात वही जो पहले कही थी। कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है। वहां जगमगाता ध्यान चित्र कब सहस्रार में पहुंचकर समाधि बन जाता है, और कब आत्मज्ञान में बदल जाता है, पता ही नहीं चलता। यह इतना जल्दी होता है कि फलां फलां रेखाचित्र, फलां बिंदु, और फलां त्रिकोण को अनुभव करने का मौका ही नहीं मिलता। तभी तो अगर उनसे योग के तरीके और अनुभव के बारे में पूछा जाए तो उन्हें ज्यादा पता नहीं होता। वे तो बस आत्मज्ञान की बात करते हैं और उसे प्राप्त कराने वाले संभोग योग की। उन्हें तो बस फल चाहिए होता है, पेड़ पे चढ़े उनके दुश्मन। पर यह सब के बस की बात भी नहीं है। खैर आत्मज्ञान के बाद जगत के फायदे के लिए वे जानबूझकर सही तरीके से योग करके उसके सभी अनुभव सबको बताते भी हैं। उन्हें अपने लिए तो उनकी जरूरत नहीं, पर जनहित के लिए ही ऐसा करते हैं। यही बोधिसत्व की निशानी है। कई रूढ़ीवादी योगी तो अनुभव को कोहिनूर हीरे की तरह छुपाते हैं। जैसी अनुभव की चमकती रेखा सुषुम्ना के रूप में महसूस होती है, वैसा ही चक्र की जगह पर अनुभव रेखाओं का गोलाकर जाल होता होगा। इसे ही चक्र दर्शन कहते होंगे। पर इनसे फायदा क्या? सीधा आज्ञा चक्र में जाओ और मुक्त हो जाओ।

धारणा ध्यान के बाद सभी योग एकसमान ही हैं। यहां तक पहुंचने के लिए ही विभिन्न उपाय व तकनीकें हैं। हालांकि मूल मकसद तो यही है कि शक्ति चाहिए होती है। इसके लिए कोई मूलाधार से अतिरिक्त शक्ति उठाता है। कोई दुनियादारी छोड़कर शक्ति को बचाता है। तो कोई दुनियादारी में ही अद्वैत भाव रखकर शक्ति को बचाता है। हो गए न तीन किस्म के योग। कुंडलिनी योग या हठ योग, संन्यास योग और कर्म योग। मूल तो ये तीन योग ही हैं। बाकि जितने मर्जी योग बना लो। भक्ति योग भी कर्म योग का ही उप योग है।

मूल क्रिया योग तो यही कहता है कि भ्रूमध्य में ध्यान करते हुए ओम जाप के साथ प्राणायाम के इलावा कुछ नहीं करना है। पर इसको कई बाद के योगियों ने इतना जटिल बना दिया है कि मूल क्रिया योग तो गायब सा ही लगता है। मानसिक ओम जाप की यह खासियत है कि यह भ्रूमध्य पर ध्यान चित्र को मजबूत करता है। 4 से छह बार सांस भरते हुए मन में उच्चारण करो और इतना ही सांस छोड़ते समय। अनुलोम विलोम प्राणायाम करते समय जो एक उंगली की टिप भ्रूमध्य पर टिकी होती है, उससे भी ध्यान को वहां केंद्रित करने में कुछ मदद मिलती है। कई लोग बेचारे उनके झमेले में पड़ कर सारी उम्र चक्रों और सुषुम्ना में ही उलझे रहते हैं। असली ध्यान तक पहुंच ही नहीं पाते। कुछ योगी लोग गजब की साधना करके इन तथाकथित अजीबोगरीब अनुभव रेखाओं, बिंदुओं, त्रिकोणों, प्रकाशों, अंधकारों, गुफाओं, और चक्रों को अनुभव तो कर लेते हैं और किस्म किस्म की सिद्धियां भी हासिल कर लेते हैं। पर आत्मज्ञान से और यहां तक कि असली समाधि से भी कोसों दूर होते हैं। इसीलिए वे आत्मज्ञान का अनुभव नहीं बता पाते और पूछने पर कहते हैं कि गुरु इसे औरों को बताने को मना करते हैं। कई बोलते हैं कि जो कहता है कि उसे आत्मज्ञान हुआ है, उसे नहीं हुआ है, और जो कहता है कि उसे नहीं हुआ है, उसे हुआ है। वे कहते हैं कि अहंकार आने से आत्मज्ञान गायब हो जाता है। पर ऐसा कैसे हो सकता है। अगर कोई अपने गले में लटके हुए अपने जीते हुए पारितोषिक को लोगों को दिखाए तो वह भला कैसे गायब हो जाएगा? माना कि उसे तो कोई चुरा भी सकता है पर आंतरिक अनुभव को तो कोई चुरा भी नहीं सकता। हो सकता है कि कुछ और मतलब हो। खैर हम इस चर्चा में नहीं पड़ना चाहते।

एक हल यह है कि जैसा ठीक लगे वैसा करो पर योग के मुख्य लक्ष्य आज्ञा चक्र में धारणा, ध्यान और समाधि और सहस्रार चक्र में आत्मज्ञान पर भी हमेशा नजर बनी रहे। तकनीकें बदलो, सुधारो, कुछ भी करो पर चलते रहो। खड़े न रहो, एक ही जगह। प्रयोग से समझो और आगे निकलो। हो सकता है कि कोई आदमी दुनिया को कोई नई योग तकनीक ही दे जाए। भ्रूमध्य पर ध्यान का मतलब यह नहीं कि ऊपर को तिरछा या भेंगा देखो पर यह कि अंधेरे में आँखें बंद करके उनके बीच में ध्यान करो। हालांकि आँखें खोलकर तिरछा देखने से भी शक्ति तो ऊपर चढ़ती ही है, पर यह ध्यान नहीं होता। इससे शक्ति ही मूलाधार से ऊपर चढ़ती है। बेशक ध्यान शक्ति से ही होता है। ऐसा शांभवी मुद्रा में किया जाता है। अंधेरे में भ्रूमध्य पर ध्यान करते समय बेशक बीचबीच में बंद आंखों को हिलाते रहो, ताकि आज्ञा चक्र गुम न हो जाए। जितना यह चक्र बाहर है उससे कहीं ज्यादा भीतर को भी है। सीधी सी बात है कि ज्ञान बढ़ाते रहना चाहिए और जरूरत के हिसाब से चलते रहना चाहिए। सिद्धासन से अगर बेचैनी हो तो सिंपल पालथी मार कर सुखासन में बैठ जाओ। कूल्हे के नीचे मोटा सा तकिया रख लो ताकि घुटने में दर्द न होए।

यह जो दीक्षा की बात की जाती है, वह इसीलिए ताकि दीक्षा देने वाले का ध्यान चित्र बन जाए। अगर पहले से ही ध्यान चित्र बना है तो दीक्षा की भी क्या जरूरत है? एक बर एक मंदिर के पुजारी ने मूझसे पूछा कि क्या मैने किसी से मंत्र दीक्षा ली थी? मैंने उनका इरादा भांप कर तपाक से कहा कि मेरे पूज्य दादा जी ही मेरे गुरु हैं। वह बहुत खुश हुए और मुझसे हमेशा के लिए  सद् प्रभावित हो गए।

Published by

Unknown's avatar

demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

Leave a comment