कुंडलिनी, तंत्र और क्रिया: परम आनंद का सबसे तेज़ रास्ता

दोस्तों, कुंडलिनी ऊर्जा रहस्यमयी है। यह आपको परम आनंद तक ले जा सकती है, या फिर इधर-उधर बिखर सकती है। जब मैंने पहली बार अभ्यास शुरू किया, तो मुझे किसी जटिल विधि की परवाह नहीं थी—बस परिणाम चाहिए थे। धीरे-धीरे अनुभव से मैंने देखा कि सिर्फ क्रिया योग की ऊर्जा किसी ठोस दिशा में नहीं जाती जब तक कि उसे किसी गहरी साधना से जोड़ा न जाए।

सिर्फ क्रिया योग क्यों काफ़ी नहीं है?

क्रिया योग को सीधा रास्ता कहा जाता है, लेकिन मैंने अनुभव किया कि अगर ध्यान के लिए कोई स्थिर आधार न हो, तो ऊर्जा सांसारिक बनी रहती है। यह शक्तिशाली लगती है, पर स्थायित्व नहीं आता। जब मैंने क्रिया योग के साथ एक निश्चित ध्यान-प्रतीक जोड़ा, तो सब बदल गया। आनंद ज़्यादा देर तक रहा, मन शांत हुआ और ऊर्जा चारों ओर बिखरने की बजाय ऊपर उठने लगी

पतंजलि के अष्टांग योग से यह अलग क्यों है?

मैंने कई बार सोचा कि क्रिया योग और पतंजलि के धारणा (एकाग्रता), ध्यान (मेडिटेशन) और समाधि (अवस्था) के क्रम में क्या अंतर है। पतंजलि के योग में ये चरण-दर-चरण विकसित होते हैं, लेकिन क्रिया योग में ये तीनों एक साथ घटित होते हैं

जब साँस नियंत्रण में आती है, तो धारणा अपने आप बन जाती है। जब ऊर्जा बहने लगती है, तो ध्यान स्वतः घटित होता है। और जब यह गहराता है, तो समाधि अपने आप आ जाती है। इसमें कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, कोई संघर्ष नहीं होता।

मुझे लगता है कि पतंजलि का तरीका उन लोगों के लिए था जो एक अनुशासित मार्ग चाहते थे, लेकिन जब ऊर्जा सही तरीके से प्रवाहित होती है, तो मन को ज़बरदस्ती केंद्रित करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती—यह अपने आप होता है

तंत्र सबसे तेज़ क्यों है?

अगर क्रिया तेज़ है, तो तंत्र वज्र की तरह है। जब मैंने पहली बार तंत्र की साधना की, तो मैं चौंक गया। इसमें दिनों या महीनों का इंतज़ार नहीं होता—यह आपको तुरंत इस संसार से बाहर फेंक देता है

तंत्र के प्रभाव में ऊर्जा पूरी तरह से आज्ञाकारी हो जाती है, जैसे कोई पालतू जानवर जो हर आदेश मानता है। तुरंत आत्मसाक्षात्कार या मोक्ष भी संभव हो सकता है

लेकिन तंत्र की रोज़ाना साधना संभव नहीं है। यह बहुत तीव्र है, भारी है और इसे लंबे समय तक बनाए रखना कठिन होता है। यहीं पर क्रिया योग काम आता है। क्रिया तंत्र की अनुभूति को दिनों तक स्थिर बनाए रखता है, ताकि मन सामान्य जीवन में वापस गिरने से बच सके।

तंत्र रॉकेट की तरह है, और क्रिया उसे कक्षा में स्थिर रखती है।

मेरा अपना क्रिया-कुंडलिनी योग

समय के साथ, मैंने अपना खुद का तरीका विकसित किया। मैं यह करता हूँ:

अनुलोम-विलोम, कपालभाति और दोनों नासिका से प्राणायाम
आसन और प्रत्येक चक्र पर ध्यान
बीज मंत्रों का उच्चारण और रंगों की कल्पना
ध्यान के लिए एक निश्चित प्रतीक
महा बंध ऊर्जा स्थिर करने के लिए
बाह्य और आंतरिक कुम्भक के साथ चक्र ध्यान

मैं ठोकर, योनि मुद्रा, त्रिभंगमुरारी, या महामुद्रा नहीं करता। वैसे अब ठोकर क्रिया करने लगता हूं। जरूरी नहीं कि इसे करते समय ॐ नमो भगवते वासुदेवाय जैसा जटिल मंत्र ही बोला जाए। सीधा ओम भी मन में जप सकते हैं। त्रिभंगमुरारि का मतलब तो रीढ़ की हड्डी के तीन सहज मोड़ हैं, जिनसे होकर शक्ति गुजरती है। इसीलिए पीठ को तख्त की तरह सीधा न रखकर इसके कुदरती आकार में रखा जाता है।

वैसे तो ठोकर और महामुद्रा महाबंध के समय भी हल्के रूप में हो ही जाती हैं। अगर सुबह के चार बजे साधना करो तो योनिमुद्रा भी हल्के रूप में खुद ही हो जाती है। योनिमुद्रा में आंख, कान, नाक और मुंह को उंगलियों से बंद किया जाता है। सुबह के चार बजे न कोई आवाज होती है, न कोई दृश्य। कुंभक प्राणायाम के समय नाक तो खुद ही बंद रहती है। तीन से चार बजे का समय साधना के लिए सर्वोत्तम होता है। उस दौरान समय की कोई कमी नहीं होती। इससे समय की तरफ ध्यान नहीं जाता। इसलिए आदमी निश्चिंत होकर साधना करता है। इसी दौरान केवल कुंभक वाली समाधि लगने की संभावना भी काफी ज्यादा होती है। अनोखा अनुभव होता है। सांस इतनी धीमी हो जाती है कि कई बार पता ही नहीं चलता कि सांस चल भी रही है या नहीं। आसन खुद ही स्थिर लग जाता है। बेशक थोड़ी देर बाद फिर सेट कर लो। सांस थोड़ी देर चलेगी और फिर बंद हो जाएगी। आज्ञा चक्र पर ध्यानचित्र एकसार स्पष्ट महसूस होता है। ऐसा लगता है कि इस चित्र को लगातार बनाए रखने के लिए ऑक्सीजन कहां से आ रही है। कहते हैं कि उस समय रीढ़ की हड्डी में अंदरूनी सांस चल रही होती है। पर रीढ़ की हड्डी में भी ऑक्सीजन कहां से आई। स्थूल विज्ञान भी इसे अभी तक नहीं समझ पाया है। शायद यही प्राण है, जिसे मूलरूप में ऑक्सीजन की जरूरत ही न पड़ती हो। हो सकता है कि सांस लेने का मकसद ऑक्सीजन देना न होकर प्राणों को सीधे गति देना हो। ऑक्सीजन इसमें अतिरिक्त मदद करता हो। हो सकता है कि सांस चलती हुई बेशक महसूस न होए पर सूक्ष्म सांस चल रही हो। हो सकता है कि शारीरिक काम न होने से ऑक्सीजन की मांग शून्य जैसी हो जाती हो। पर सोते समय तो अच्छी सांस चल रही होती है। ये सब अटकलें हैं और इन पर गहरे शोध की जरूरत है। जीवन और मृत्यु का गजब सा मिश्रण होती है वह अवस्था। सांस है भी और नहीं भी। केवल कुंभक क्रियायोग वाली लंबी, गहरी, धीमी और खींचतान वाली 20 या 30 सांसों के बाद लगती है। इन गहरी सांसों के बाद फिर सो~हम मंत्र से सांसों पर ध्यान दो। सांस अंदर जाते हुए सो और बाहर निकलते हुए हम का मन में उच्चारण करो। जैसी सांस चले चलने दो, इससे छेड़छाड़ न करो। कुछ ही देर में सांस धीमी होते होते शून्य सी हो जाएगी। सो~हम जपते रहो चाहे सांस चलने का सिर्फ आभास या चिन्ह ही क्यों न हो। आज्ञा चक्र पर ध्यानचित्र पर ध्यान बना कर रखो। यही केवल कुंभक है। उपरोक्त गहरी सांसें एक मिनट में  लगभग दो तीन ही लग पाती हैं। इससे मूलाधार की ऊर्जा आनंद के साथ ऊपर चढ़ती महसूस होती है। शायद यही सुषुम्ना में सांस या प्राण को चालू करती हैं। केवल कुंभक के गहन अभ्यास से ही योगी लोग कई दिनों तक वायु की कमी वाले स्थानों में जैसे गड्ढे में बंद तहखाने आदि में समाधि लगा कर जिंदा रहते हैं। हालांकि यह भी अंतिम सिद्धि नहीं है। अंतिम सिद्धि तो आत्मज्ञान ही है। बेशक केवल कुंभक दुनियादारी के बीच भी मन को स्थिर, एकाग्र और ज्ञानवान बना कर रखने में मदद करता है। इसे केवल कुंभक इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें सांस को बलपूर्वक नहीं रोका जाता। बिना किसी कष्ट के सांस खुद ही रुक जाती है और वह भी बहुत देर तक।

मेरा अनुभव यह कहता है कि सिर्फ क्रिया से ऊर्जा तो जाग्रत होती है, लेकिन बिना किसी ध्यान-प्रतीक के, वह दिशाहीन हो जाती है। जब कोई ध्यान-प्रतीक साथ हो, तो ऊर्जा अधिक आध्यात्मिक और स्थायी हो जाती है

निष्कर्ष

कुंडलिनी सिर्फ ऊर्जा उठाने का खेल नहीं है—यह इस बात पर निर्भर करता है कि ऊर्जा किस ओर प्रवाहित हो रही है

तंत्र आपको तुरंत बाहर फेंकता है, क्रिया इसे स्थिर करती है, और ध्यान-प्रतीक इसे गहराई से आत्मसात करता है। बेशक तंत्र के साथ भी ध्यान आलंबन जरूरी है, तभी उसकी ऊर्जा आध्यात्मिक आयाम के साथ जुड़ पाएगी, अन्यथा दुनियादारी में बिखर जाएगी, जो नुकसान भी कर सकती है।

पतंजलि का मार्ग धीमा और क्रमबद्ध है। क्रिया तेज़ और स्वाभाविक है। तंत्र क्षणिक और तीव्र है। लेकिन जब तंत्र और क्रिया को सही से मिलाया जाए, तो आपको गति और स्थिरता दोनों मिलती हैं—जागरण और स्थायित्व, मुक्ति और संतुलन

तो क्या यह कहना सही होगा कि तंत्र आपको ब्रह्मांड से जोड़ता है और क्रिया इसे स्थायी बना देती है?

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demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

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