सांस: मन, ऊर्जा और मेटाबॉलिज्म का सेतु

अक्सर हम सांस को केवल ऑक्सीजन लेने-देने की प्रक्रिया मानते हैं, लेकिन इसका असली काम शरीर में ऊर्जा (प्राण) को प्रवाहित करना है। मन, सांस और ऊर्जा एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। जब मन डगमगाता है, तो सांस भी उसी के अनुरूप चलती है और ऊर्जा इधर-उधर बहने लगती है।

बेचैन मन → तेज, असंतुलित सांस → बिखरी हुई ऊर्जा।

शांत मन → गहरी, धीमी, लयबद्ध सांस → ऊर्जा सहज रूप से ऊपर बहती है।

भावनात्मक स्थिति → भारी या असामान्य सांस → ऊर्जा हृदय में केंद्रित हो जाती है।

यह उतार-चढ़ाव मेटाबॉलिज्म को भी प्रभावित करता है। जब प्राण अस्थिर होता है, तो मेटाबॉलिज्म तेज़ हो जाता है और शरीर ज्यादा ऑक्सीजन खींचने लगता है। वहीँ, जब सांस संतुलित होती है, तो प्राण भी स्थिर रहता है, मेटाबॉलिज्म धीमा पड़ता है और ऑक्सीजन की जरूरत कम हो जाती है।

गहरे ध्यान में जब विचार शांत हो जाते हैं, तो सांस अपने आप धीमी हो जाती है या कभी-कभी रुक भी जाती है। तब शरीर कैसे चलता है? क्योंकि ऑक्सीजन की जरूरत घट जाती है। हृदय की गति धीमी हो जाती है, कोशिकाओं की गतिविधि कम हो जाती है और जीवन केवल प्राण पर निर्भर करने लगता है। गहरे ध्यान में डूबे योगी सांस के बिना भी जीवित रह सकते हैं क्योंकि वे केवल ऑक्सीजन पर नहीं, बल्कि प्राण ऊर्जा पर टिके रहते हैं।

प्राणायाम सिर्फ सांस पर नियंत्रण नहीं है, यह ऊर्जा को साधने की विधि है। जब हम सांस को नियंत्रित करते हैं, तो प्राण संतुलित होता है, मेटाबॉलिज्म सुचारू रहता है और मन स्थिर होता है। जब प्राण सहज रूप से बहता है, तो जीवन भी बिना किसी अवरोध के चलता रहता है। यही आंतरिक शांति और जीवनशक्ति का रहस्य है।

एक और राज की बात। जब शरीरविज्ञान दर्शन का प्रैक्टिकल ध्यान किया जाता है, तब भटकी हुई सांस संतुलन में आने लगती है। यह राजयोग है, यह सहज योग, यह ज्ञानयोग है। मतलब हम मस्तिष्क की विचार शक्ति से योग की ओर जा रहे हैं। अंत में योग वाले सभी रास्ते आपस में मिल जाते हैं, चाहे विचार वाला रास्ता हो,या चाहे सांस वाला रास्ता हो।

अधिकतर योगीराज अपने प्राणायाम के अनुभव को ऐसे लिखते हैं कि सांस भीतर ही भीतर बहने लग गई। इसका मतलब यह है कि प्राण भीतर ही भीतर अपने आप में बहने लग गया। अब वह अपने संचार के लिए सांस की गति पर निर्भर नहीं है। सांस तो वे अब सिर्फ ऑक्सीजन की प्राप्ति के लिए ले रहे हैं। इसके लिए बहुत कम सांस की जरूरत होती है। इसका मतलब है कि प्राणों को गति देने के लिए ली गई सांस में हमें बिना जरूरत के ऑक्सीजन लेनी पड़ती है। फिर बिना जरूरत के ही इसका उपयोग भी करना पड़ता है। इससे मेटाबॉलिज्म बढ़ता है। इससे हममें बेचैनी और तनाव बना रहता है और थकान भी, जिससे सही से आराम नहीं मिलता। मतलब अगर कम ऑक्सीजन में सांस लिया जाए तो दम घुटेगा क्योंकि सांस से पैदा किया हुआ प्राण और मेटाबॉलिज्म आपस में जुड़े हुए हैं। इन्हें अलग नहीं कर सकते। पर अंदरूनी प्राण या अंदरूनी सांस मेटाबोलिज्म को अपने हिसाब से या आधारभूत स्तर पर होने देती है, इसे कम या ज्यादा नहीं करती।

सांस से बढ़ाया हुआ प्राण हमेशा अधिक ऑक्सीजन की मांग करेगा, क्योंकि यह मेटाबॉलिज्म को तेज करता है। यदि कम ऑक्सीजन वाली जगह में गहरी सांस लेकर प्राण बढ़ाने का प्रयास किया जाए, तो प्राण-ऊर्जा बनाए रखने के लिए पर्याप्त ऑक्सीजन न मिलने से दम घुटने जैसा अनुभव होगा। पहाड़ों में योगी इसीलिए धीमी और स्वाभाविक श्वास लेते हैं, न कि गहरी योगिक सांस, ताकि प्राण और ऑक्सीजन की मांग में संतुलन बना रहे। जब तक प्राण सांस से स्वतंत्र नहीं होता, तब तक ऑक्सीजन की जरूरत बनी रहेगी, इसलिए श्वास और प्राण को संतुलित करना आवश्यक है। केवली कुंभक में सांस प्राण से अलग होने लगती है।

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demystifyingkundalini by Premyogi vajra- प्रेमयोगी वज्र-कृत कुण्डलिनी-रहस्योद्घाटन

I am as natural as air and water. I take in hand whatever is there to work hard and make a merry. I am fond of Yoga, Tantra, Music and Cinema. मैं हवा और पानी की तरह प्राकृतिक हूं। मैं कड़ी मेहनत करने और रंगरलियाँ मनाने के लिए जो कुछ भी काम देखता हूँ, उसे हाथ में ले लेता हूं। मुझे योग, तंत्र, संगीत और सिनेमा का शौक है।

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