कुण्डलिनी चित्र विज्ञानमय कोष को विकसित करता है

शास्त्रों में ऐसा बहुत वर्णन है कि आनंद भीतर है अर्थात आत्मा में है, बाहर नहीँ। पर इसका वैज्ञानिक स्पष्टीकरण मुझे कहीं नहीँ मिला। सम्भवतः आत्मा का स्वरूप सत्तामयी शून्य या आकाश की तरह है। अविद्या या अंधकार में आत्मा का एक गुण होता है, शून्य या आकाश या सत्ता वाला। प्रकाश का गुण इसमें गायब होता है। इसलिए उसमें आनंद काफी कम हो जाता है, क्योंकि आत्मा के सभी गुण एकदूसरे से जुड़े होते हैं। किसी भी रूप में जगत की अनुभूति से जो प्रकाश की अनुभूति होती है, वह आत्मा के प्रकाश की कमी को पूरा करने का प्रयास करती है। होता क्या है कि जब वह अनुभूति बहुत तेज, बदलती हुई अर्थात गतिशील जैसी या भड़कीली या वास्तविक जैसी हो, तब यह आत्मा से मिश्रित नहीँ हो पाती, क्योंकि आत्मा है तरंगरहित या परिवर्तनरहित आसमान के जैसे स्वभाव वाली पर इसके विपरीत तेज अनुभूतियाँ ताबड़तोड़ उतार-चढ़ाव की लहरों अर्थात परिवर्तन के स्वभाव वाली होती हैं। इनसे क्षणिक सुख तो मिलता है, जब तक ये रहती हैं, पर इनके हटते ही आत्मा का अंधेरा और भी ज्यादा घना होता हुआ महसूस होता है। यह ऐसे ही होता है, जैसे रात को तेज रौशनी से बाहर निकलते ही आदमी थोड़ी देर के लिए अंधा जैसा हो जाता है। जब अनासक्ति या कुण्डलिनी आदि से वे प्रकाशमय अनुभूतियाँ मंद या कम गतिशील जैसी हो जाती हैं, तब वे शून्य आत्मा से मेल खाने लगती हैं। इससे वे आत्मा को अपना प्रकाश प्रदान करती हैं। इससे आत्मा की कमी पूरी होने से आनंद प्रकट होता है, क्योंकि उपरोक्त शास्त्रानुसार आत्मा में ही आनंद है, बाहर नहीं। इसे ही सतोगुणी अविद्या कहा गया है। सतोगुण प्रकाशप्रधान होता है। यह कोई आध्यात्मिक महत्त्व ही नहीँ बल्कि व्यावहारिक महत्त्व का विषय भी है। हर कोई ऐसे आदमी को पसंद करता है, जो शांत स्वभाव का हो, न कि भड़कीले स्वभाव वाले को। शांत स्वभाव वाले का मानसिक अंधेरा भी शांत होता है, जबकि भड़कीले स्वभाव वाले की मानसिक अँधेरे के रूप में रजोगुणी अविद्या भी भड़कीली, गहरी और दुखदाई होती है। सज्जन और दुष्ट में यह मुख्य अंतर होता है। साधु की अविद्या सत्त्वगुण से उत्पन्न होने के कारण सत्त्वगुण सम्पन्न होती है, जबकि दुष्ट की रजोगुणतमोगुण से उत्पन्न होने के कारण वैसी ही होती है।

जब रजोगुण के कारण विचार या मानसिक चित्र जल्दी जल्दी बदल रहे हों, तब अपने प्राणमय और अन्नमय कोष के साथ उनके एकरूप होने की भावना नहीं की जा सकती। मतलब उन्हें अपने एक ही मिलेजुले शरीरसंघात के साथ एकरूप मानना कठिन होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि मन की तुलना में शरीरसंघात के अन्य सभी भाग बहुत धीमी गति वाले या स्थिर जैसे होते हैं। साथ में आम दुनियादारी या जीविका से संबंधित मानसिक चित्र भौतिक होते हैं, क्योंकि वे तथाकथित भौतिक दुनिया से जुड़े होते हैं, पर आत्मा अभौतिक है, इसलिए भी इनका मिलान नहीं होता। स्थिर या धीमे जैसे व अभौतिक समझे गए मानसिक चित्र को इस संघात के साथ मिलाना आसान होता है। पंजाबी भाषा में और संस्कृत भाषा में धीमापन या घुमाव होता है, जिससे सतोगुण बढ़ता है। इसीलिए इन भाषाओं के प्रयोग से आनंद पैदा होता है। इनके माध्यम से दुनियादारी के दौरान जो अविद्या का अंधकार पैदा होता रहता है, वह सतोगुणी अविद्या रूप होता है। वह आनंदरूप होता है। इसी तरह साधु बाबा की तरह दाढ़ी रखने से भी आदमी का वर्ताव धीमा, चिंतनशील अर्थात सात्विक हो जाता है। इसी वजह से बाबा आनंद के नशे में मस्त रहते हैं।

जब कोई आदमी उच्च पद या वस्तु प्राप्त करता है, तो उसे घर के बड़े-बूढ़े लोग ज्यादा उछलने से रोककर शांत बनाए रखते हैं। हमें बचपन में हमारी माताजी किसी बड़ी उपलब्धि के बाद एकदम से आसमान से जमीन पर उतार दिया करती थीं। ज्यादातर मामले में तो हमें अहंकार के आसमान में उड़ने ही नहीँ देती थीं। वे अच्छे व वैदिक संस्कारों वाले परिवार के वंश से संबंध रखती थीं। किसी के दायरे में अगर बुजुर्गों और साधुओं का सम्पर्क न हो, तो वह उपलब्धियों से थोड़े समय तो उड़ता ही है। फिर उड़ान का नशा टूटने पर जब गिरकर पाताल के गर्त में डूबने लगता है, और दुनिया उसे क्रेजी या पागल जैसा समझने लगती है, तब उसे होश आता है। पर तब तक वह काफी आनंद को और आत्मा की उन्नति को गवां भी चुका होता है। इसलिए ऐसा नहीँ कि यह सत्त्वगुणी अविद्या वाला मनोवैज्ञानिक सिद्धांत अध्यात्म में ही लागू होता है। यह दुनियावी व्यवहार में भी उतना ही लागू होता है। शायद इसीलिए शास्त्रों में यह बहुतायत में आता है कि ज्ञानप्राप्ति के लिए कष्ट उठाना पड़ता है, या तप करना पड़ता है। तप के कष्टों से परेशान आदमी जरूर आत्मा में आनंद ढूंढेगा, ऐसा शास्त्रों का विश्वास है।

जब विचारों के साथ स्थूल शरीर की भी भावना की जाती है तब उनकी शक्ति शरीर को मिलती है और मस्तिष्क का बोझ कम होता है। मतलब जो शक्ति मस्तिष्क में दबाव पैदा कर रही थी, वह मांसपेशियों की सिकुड़न के रूप में तब्दील हो जाती है। विचार रहते हैं पर आनंद के साथ हल्के पड़ते हुए विभिन्न चक्रोँ पर आकर विलीन हो जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि चक्रोँ पर बदलते विचारों की बाढ़ नहीँ उमड़ती जैसी मस्तिष्क या मन में उमड़ती है। क्योंकि चक्र विचारों के लिए समर्पित अंग नहीं हैं मस्तिष्क की तरह। चक्रोँ पर तो एक ही चित्र मुख्यतः कुण्डलिनी चित्र लम्बे समय तक बना रहता है। यह सतोगुण का प्रतीक है। इससे जो अविद्या पैदा होती है, वह सतोगुणी अविद्या है। यही आनंदमय कोष है। यह ऐसे है जैसे घुप्प और शांत अँधेरे में एक अभौतिक, शांत और हल्का, हालांकि अनौखा दिया जल रहा है। लम्बे समय तक स्थिर बना रहने वाला कुण्डलिनी चित्र ही सर्वोत्तम विज्ञानमय कोष बनाता है। वह आत्मा के जैसा स्थिर सत्ता का ज्ञान है, पर फिर भी विशेष ज्ञान है। मतलब न तो यह आत्मज्ञान है, और न साधारण लौकिक ज्ञान है, पर विशेष ज्ञान या विज्ञान है जो बेशक आत्मज्ञान के करीब है।

कुण्डलिनीयोग आत्मरूप को पाने की कुदरती चेष्ठा के तरीके को सीधा करता है

कई बार आदमी मन-पतंग में इतना डूब जाता है कि उसे यह एहसास ही नहीं रहता कि वह उसके शरीर से जुड़ी है। न धागा दिखता है, न उसको खींचने वाला, सिर्फ पतंग दिखती है। सम्भवतः यही अज्ञान है। इसमें ऐसा लगता है कि मन के दृश्यों का अपना पृथक अस्तित्व है, और हम उन्हें बनावटी भूत बनाकर उनसे डरने लगते हैं। वैसे तो कुण्डलिनीयोग में भी ध्यानचित्र ही दिखता है, पर वह एक ही होता है, और उसे अपने रूप में और अपने शरीर के अंदर देखा जाता है। साथ में, ज्यादातर मामलों में उसका भौतिक अस्तित्व नहीं होता या उसके भौतिक अस्तित्व को नकार दिया जाता है। उदाहरण के लिए अगर कोई देवता, पूर्वज, दिवंगत या पूर्णतः बिछड़ा प्रेमी ध्यान चित्र के रूप में है, तब तो उसके प्रति भौतिक सत्यता की बुद्धि खुद ही नहीं होगी। पर अगर कुण्डलिनी चित्र किसी जीवित प्रेमी, गुरु या अन्य भौतिक वस्तु के रूप में है, तो उसके भौतिक रूप से अनासक्ति रखनी पड़ती है, और उसके साथ अद्वैतमय व्यवहार रखना पड़ता है। वैसे ऐसा स्वभाव व व्यवहार कुण्डलिनी योग से खुद ही बनने लगता है। जैसा कि मैंने एक पिछली पोस्ट में बताया था कि कुण्डलिनी योग से कैसे महसूस होता है कि अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष और आनंदमय कोष सब आपस में जुड़े हैं। इससे यह विश्वास पक्का बना रहता है कि कुण्डलिनी चित्र अपने मन के ही अंदर है, अपने ही देहसंघात का हिस्सा है, अपना ही स्वरूप है, कोई बाहरी पृथक भौतिक वस्तु नहीं। यह स्वयं आदमी की अनासक्ति और अद्वैत की प्रकृति को बढ़ाता है। क्योंकि अपने आप से किसी को आसक्ति नहीं हो सकती है, और न ही अपने आप में किसीको द्वैत महसूस हो सकता है। किसी को नहीँ लगता कि वह एक आदमी नहीं बल्कि दो आदमियों का मिश्रण है। अपने कर्म का फल उसी अकेले आदमी को भोगना पड़ता है, कोई दूसरा नहीं आता। अगर कोई दिनरात भी आईने में बनता-ठनता रहे तो भी वह किसी दूसरे के या ईश्वर के प्रेम में पड़कर करता है, अपने लिए नहीं। प्रेम के लिए दो का होना जरूरी है। अकेले में प्रेम नहीं होता। आसक्ति और प्रेम में सैद्धांतिक अंतर नहीं है केवल स्तर, व्यवहार व दृष्टिकोण का ही अंतर है। इसी मनोवैज्ञानिक सिद्धांत के अनुसार कुण्डलिनी चित्र के प्रति स्वयं ही हो रही आत्मभावना से आत्मा शुद्ध होती रहती है। मतलब कि कुण्डलिनी चित्र को अपने पूर्ण आत्मरूप को जानने के लिए सहारे के रूप में अपनाया जाता है। मुझे तो लगता है कि जब कुंडलिनी ध्यान एक विशेष महत्वपूर्ण या शीर्ष बिंदु तक पहुँचता है, तब यह आत्मा को अस्तित्वगत स्व-अभिव्यक्ति की इतनी अधिक शक्ति देता है कि वह उस बिंदु से परे अव्यक्त रहने में अस्मर्थ हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप कुंडलिनी जागरण होता है। सम्भवतः आत्मरूप को जानने की कुदरती चेष्ठा के रूप में ही मन में विचार आते हैं। पर उन विचारों को समझने का और अपनाने का तरीका उल्टा होता है। हम उन्हें अपना आत्मरूप न समझकर बाहरी,  पराया, स्थूल और भौतिक समझने लगते हैं। इससे उन विचारों से आत्मरूप को शक्ति मिलने की बजाय उनसे संसार की उलझनें और भी आगे से आगे बढ़ती रहती हैं। मतलब कि आत्मा शुद्ध होने की बजाय ज्यादा से ज्यादा अशुद्ध होता जाता है। सम्भवतः यही मोहमाया है। कुण्डलिनी योग इस तरीके को सीधा करने की कोशिश करता है। इससे आदमी का रोजाना का व्यवहार भी सकारात्मक रूप से रूपान्तरित होने लगता है। उसके जीवन में अनासक्ति और अद्वैत का प्रभाव बढ़ने लगता है। इससे स्वाभाविक है कि उसके मन की उलझनें सुलझने लगती हैं। मन स्वस्थ रहने से शरीर भी स्वस्थ रहने लगता है। व्यक्तिगत स्वास्थ्य से सामाजिक स्वास्थ्य में भी सुधार होता है। सामाजिक स्वास्थ्य से समाज के सभी लोग भी अपने अच्छे स्वास्थ्य को महसूस करते हैं। इस तरह समाज से व्यक्ति में और व्यक्ति से समाज में सुधार एक चेन रिएक्शन की तरह आगे से आगे बढ़ता हुआ पूरे विश्व में फैल जाता है, जिसे युग परिवर्तन भी कहते हैं।

कुण्डलिनीयोग में कपालभाति प्राणायाम की अहम भूमिका है

बाएं और दाएं नथुने से बारीबारी साँस ली जाती है, और छोड़ी जाती है, ताकि इड़ा और पिंगला, दोनों साइड की नाड़ियों में कुण्डलिनी शक्ति झूलती रहे, और धीरे-धीरे बीच वाली सुषुम्ना नाड़ी में ऊपर चढ़ती रहे। पतंग भी इसी तरह उड़ती है। डोरी को ढील देने पर कभी वह बहती हवा के थपेड़े से दाईं तरफ के आकाश में फैल जाती है, और फिर खींच देने पर सीधी ऊपर चढ़ती है। कभी विपरीत दिशा में हवा बहने से वह बाईं तरफ के आकाश में पसर जाती है, और फिर खींच देने पर सीधी ऊपर उठती है। दोनों साइड को झूलने से वह बहुत ऊँचाई में पहुंच जाने पर भी आदमी के सिर के ऊपर सीधी बनी होती है। यह सीधाई ही सुषुम्ना नाड़ी के समकक्ष है। कुण्डलिनी योग के समय भी, जब शरीर के बाएं हिस्से में प्राण की कमी होती है, और शरीर को ढीला छोड़ा जाता है, तो कुण्डलिनी शरीर के बाएं हिस्से मतलब इड़ा नाड़ी में बहने लगती है। इसी तरह जब शरीर के दाएं भाग में प्राणों की कमी हो जाती है, तो कुण्डलिनी दाएं भाग अर्थात पिंगला नाड़ी में बहती महसूस होती है। ऐसा लगता है कि जैसे आनंदमयी जैसी हलचल हो रही है, कोई करेंट वाली पतली तार जैसी नाड़ी मुझे तो महसूस होती नहीं। हो सकता है कि यह अव्यवहारिक किताबी बातें हों या उच्च स्तर के अभ्यास में महसूस होती हो। मुझे तो साधारण अनुभव से ही काफ़ी शक्ति महसूस होती है। आकाश में भी उस हिस्से की तरफ हवा चलती है, जिस हिस्से में वायु का दबाव कम हो जाता है, मतलब प्राण कम हो जाता है, क्योंकि वायु ही प्राण है। इससे स्वाभाविक है कि प्राण या हवा के बहाव के साथ कुण्डलिनी या मन या पतंग उसी तरफ चली जाती है। फिर जब वहाँ हवा या प्राण ज्यादा बढ़ जाता है, तो वह थोड़ा उल्टी दिशा की तरफ वापिस भागता है, जिसके साथ पतंग या कुण्डलिनी भी उसके साथ बह जाती है, और मान लो सीधी सिर के ऊपर या सुषुम्ना में आ जाती है। क्षणभर वहाँ रुक के वायु या प्राण दाएं आसमान में या पिंगला में पहुंच जाता है, जिसके साथ पतंग या कुण्डलिनी भी होती है। वहाँ से फिर बाईं ओर का सफर शुरु होता है। कुण्डलिनीरूपी मन या पतंग का इस तरह का पेंडुलम के जैसा दोलन चलता रहता है, और वह सुषुम्ना में या आसमान में ऊपर उठती रहती है।

जब पतंग बहुत ऊपर उठ जाती है, तब डोर पर खींच लगाकर उसे नीचे उतारते हैं। इसी तरह जब कुण्डलिनी काफी ऊँचाई तक उठकर दिमाग़ में दबाव, थकान, और सिरदर्द पैदा करती है, तब निःश्वास झटके के साथ चलने लगते हैं। ऐसा कपालभाती प्राणायाम में होता है, जहाँ बाहर जाती सांस झटके और दबाव से चलती है, पर अंदर जाती साँस इतनी शांति से व धीरे चलती है कि उसका पता ही नहीँ चलता। इससे निःश्वास पर ज्यादा अवेयरनेस रहती है। साथ में, इसमें शरीर की मांसपेशियां भी नीचे की तरफ धक्का लगाती हैं। इन दोनों बातों से कुण्डलिनी शक्ति फ्रंट चैनल से नीचे उतरती है, जिससे मस्तिष्क का दबाव कम होने से आदमी पुनः तरोताज़ा होकर फिर से दिमागी काम के लिए तैयार हो जाता है। चमत्कारी प्रभाव पैदा करता है कपालभाती। इसलिए काम के दबाव व समय की कमी के दौरान केवल इसी तरह की साँस ली जाए, तो बहुत लाभ प्रदान करती है। यहाँ एक बात बता दें कि मन-पतंग स्थायी तौर पर नीचे नहीं रहती, यह फिर बैक चैनल से ऊपर चढ़ जाती है। यह लगातार उपरनीचे घूमती रहती है। यह ऐसे ही है जैसे पतंग को हल्की खींच या तुनका लगाया जाता है, तो वह और ऊपर उठती है। साँसें तो यथार्थ में ही मन की डोर हैं, जैसा अक्सर कहा भी जाता है कि फलां की सांसों की डोर लंबी खिंच गई मतलब कोई जिन्दा बचगया, या सांसों की डोर टूट गई मतलब कोई मर गया। श्रीमदभागवत गीता में जब अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं कि भगवन, मन को वश में करना तो बहुत कठिन है, वायु को वश में करने से भी कठिन है, तब भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे कौन्तेय, मन अभ्यास से वश में आ जाता है, विशेषकर प्राणायाम के अभ्यास से।

ठंडे पानी से नहाते समय साँस तेजी से और झटकों से बाहर की ओर चलने लगती है। अधिकांश समय मुंह भी पूरा खुला होता है, जिससे साँसें धौकनी की तरह बाहर निकलती हैं। इससे दिमाग़ का दबाव नीचे उतरता है जिससे सिरदर्द से बचाव होता है। सम्भवतः ब्रेन हीमोरेज का खतरा भी कम हो जाता है। इससे ठंडा पानी झेलने की क्षमता बढ़ती है और वह आनंद दायी लगने लगता है। इसी तरह खाना खाने के बाद वज्र-आसन से भी लगभग ऐसा ही होता है। इससे दिमाग़ की शक्ति पाचन अंगों तक उतरती है जिससे पाचन दुरस्त होता है। साँस का ये स्टाइल कपालभाती ही है।

कुण्डलिनीयोगानुसार शरीर कभी भी नहीँ मरता, कभी यह दिखता है, कभी नहीं दिखता, रहता हमेशा है, अनुभव के रूप में

सभी मित्रों को होली की शुभकामनाएं

मित्रों, मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि कैसे मन की गतिशीलता पतंग की उड़ान की तरह है। ऐसा लगता है कि प्राणायाम पतंग की डोरी को नियंत्रित गति देने की तरह है, जिससे पतंगरूपी मन अच्छे से और आत्मविकासरूपी आनंद पैदा करते हुए उड़ सके। मुझे तो यहाँ तक लगता है कि जो आनंद यौनक्रीड़ा के दौरान आता है, उसमें भी अनाच्छादित अर्थात नग्न शरीर के सम्पूर्ण उद्घाटन का काफी योगदान है। उसमें तो अन्नमय शरीर और प्राणमय शरीर दोनों एकसाथ उच्चतम अभिव्यक्ति के करीब होते हैं। कई लोग बोलते हैं कि असली प्यार मन से होता है, शरीर से नहीं। ये क्या बात हुई। सीधे कोई कैसे बाहरी तहखानों को लांघे बिना ही सबसे अंदरूनी तहखाने में पहुंच सकता है। जब लड़की के शरीर से हल्की यौन छेड़छाड़ होती है, बेशक अप्रत्यक्ष या मानसिक रूप में ही, तब लड़की का अन्नमय कोष सक्रिय हो जाता है। होली पर इसका अच्छा मौका मिलता है, उसे गवाएं नहीँ। हाहा। उसे पहली बार अपने शरीर की सबसे गहरी पहचान महसूस होती है। वह शरीर से ज्यादा ही सक्रिय व क्रियाशील होने लगती है। उसके मुख पर लाली और मुस्कान छा जाती है। इससे उसका प्राणमय कोष भी सक्रिय हो जाता है। प्राणों से उपलब्ध शक्ति को पाकर उसका मन रंगीनियों में बहुत दौड़ता है। वह हसीन सपने देखती है। सपनों में विभिन्न लोकों और परलोकों का भ्रमण करती है। इससे उसका मनोमय शरीर भी सक्रिय हो जाता है। क्योंकि यौन आकर्षण के कारण उसका ध्यान हर समय अपने शरीर और प्राणों पर भी बना रहता है, इसलिए उसका विज्ञानमय कोष भी खुद ही सक्रिय बना रहता है। उससे स्वाभाविक है, आनंदमय शरीर भी सक्रिय ही रहेगा। यह सब चेन रिएक्शन की तरह ही है। यही तो प्रेमानन्द है। यह आनंदमय कोष लम्बे समय तक सक्रिय बना रहता है। उसके पूरा खुल जाने के बाद तो आत्मा ही बचता है पाने को। वह भी विवाह के बाद तांत्रिक कुण्डलिनीयोग आधारित सम्भोगयोग से मिल ही जाता है। ऐसा नहीं कि यह स्त्री के साथ ही होता है। पुरुष के साथ भी ऐसा ही होता है। मुझे तो लगता है कि स्त्री की लावण्यमयी भावभंगिमा को देखकर जो पुरुष का तन और मन उससे देहसंबंध बनाने को उछालें मारने लगता है, वही उसके प्राणों का क्रियाशील होना है। यह अलग बात है कि कोई उस प्राणशक्ति का सदुपयोग करता है, तो कोई दुरुपयोग। कोई उसे आध्यात्मिक विकास में लगाता है, कोई भौतिक विकास में, और कोई संतुलित रुप से दोनों में।

थोड़ा मन की पतंग को उड़ने दें, एकदम न उतारें। हल्की सी तिरछी सी यह भावना रखें कि यह जुड़ी है। फिर थोड़ी देर बाद पतंग खुद आराम से लैंड करेगी। कोई झटका नहीँ लगेगा। मजा भी आएगा। लैंड होके उसे वापस भी जाने दें इच्छानुसार। खुद वापिस आएगी। अगर पतंग तूफानी जोर से ऊपर जा रही हो, और आप उसे जबरदस्ती नीचे खींचोगे, तो या तो पतंग फट सकती है, या धागा टूट सकता है। दोनों कमजोर तो पड़ेंगे ही, और उन पर दबाव भी बनेगा। ऐसा ही मन के साथ भी जबरदस्ती कर के होता है।

जिस समय दिमाग में थकान, दबाव या सिरदर्द जैसी हो रही हो, उस समय कपालभाति जैसी साँस खुद चलती है। उससे बाहर निकलती साँस पर ध्यान जाता है, जिससे कुण्डलिनी नीचे उतरती है। मतलब बाहर निकलती साँस धागे को नीचे खींचने मतलब खींच की तरह है, जिससे उड़ती हुई मनरूपी पतंग नीचे आती है, और दिमागी थकान रूपी तेज तूफ़ान से फटने से बचती है ।

विचारों के प्रकाश में ही नहीं, उनके अभाव के अंधकार में भी अनुभव शरीर से ही जुड़ा होता है, क्योंकि कुछ न कुछ मस्तिष्क की हलचल उसमें भी रहती ही है। यहाँ तक कि मृत्यु के बाद भी आत्मा का जो विशेष रूप में अनुभव होता है, वह भी शरीर से ही जुड़ा होता है, क्योंकि वह शरीर से ही निर्मित हुआ है। इसका मतलब है कि शरीर कभी भी नहीँ मरता। कभी यह दिखता है, कभी नहीं दिखता, रहता हमेशा है, अनुभव के रूप में।

कुण्डलिनी योग से मनोमय कोष रूपी पतंग प्राणमय कोष और अन्नमय कोष रूपी माँझे और चकरी से जुड़कर विज्ञानमय कोष रूपी उड़ान भरकर आनंदमय कोष रूपी मजा देती है

होता क्या है कि जब योग करते समय अन्नमय शरीर और प्राणमय शरीर के क्रियाशील होते ही मनोमय शरीर क्रियाशील होता रहता है, तब यह विश्वास पक्का होता रहता है कि मनोमय शरीर बेशक बाहरी और अनंत अंतरिक्ष में फैला महसूस होए, पर वह हमारे शरीर से जुड़ा हमारा ही स्वरूप है। हालांकि दुनियादारी के सभी कामों, खेलों, व व्यायामों के दौरान भी अन्नमय कोष, प्राणमय कोष और मनोमय कोष एकसाथ सक्रिय हो जाते है, पर वे इतनी तेजी से सक्रिय होते हैं कि उनकी आपस में एकत्व भावना करने का मौका ही नहीं मिलता। साथ में आदमी का ध्यान काम की पेचीदगी, उससे जुड़ी तकनीक, उससे जुड़े फल पर और अन्य लौकिक दुनियादारी पर भी रहता है, जिससे भी एकत्व की भावना की तरफ ध्यान नहीं जाता। वैसे भी एकत्व की भावना द्वैत से भरी दुनियादारी की विरोधी है। दो विरोधी चीजें साथ नहीं रह सकतीं। जल और अग्नि साथ नहीं रह सकते। मनोमय शरीर के प्रति इसी आत्मभावना से विज्ञानमय शरीर भी क्रियाशील हो जाता है। दुनियादारी का हर किस्म का ज्ञान साधारण ज्ञान की श्रेणी में आता है। किसी को डॉक्टरी का ज्ञान है, किसी को दर्जी का, किसी को नाई का, किसी को अध्यापन का, किसी को उपदेश देने का, किसी को यज्ञ या कर्मकांड करने या अन्य धार्मिक परम्परा निभाने का है। सब साधारण ज्ञान में आते हैं क्योंकि सभी रोजीरोटी के लिए और लौकिक व्यवहार के लिए हैं। विशेष ज्ञान या विज्ञान इन सबसे हटकर व अकेला है, जो न तो जीविकोपार्जन के लिए है, और न ही लौकिक व्यवहार की सिद्धि के लिए है, बल्कि केवल आत्मा की पूर्ण व प्रत्यक्ष अनुभूति के लिए है। विज्ञानमय शरीर का मतलब ही विशेष ज्ञान वाला शरीर है। इसमें स्थित होने पर साधक को ऐसा महसूस होता है कि वह स्थूल शरीर, प्राण, और मन का मिलाजुला रूप माने संघातमात्र है। जैसा मैंने पिछली पोस्ट में भी पतंग के उदाहरण से स्पष्ट किया था। अगर भटकते मन को अपना आत्मरूप न भी समझ सको तो यह तो समझ ही सकते हैं कि वह शरीर से साँस के माध्यम से ऐसे ही जुड़ा है जैसे एक पतंग मांझे के माध्यम से गट्टू या चकरी से जुड़ी होती है। पतंग उड़ाने का बहुत मजा आएगा। कभी बादलों के ऊपर, कभी दूर देश, कभी दूर ग्रह या तारे पर, कभी दूसरे ब्रह्माण्ड में, कभी परलोक में, तो कभी बिल्कुल पास में या चकरी में लिपटी हुई, कभी आँखों से ओझल होगी और सिर्फ चकरी और धागा ही नजर आएगा, फिर एकदम कहीं प्रकट हो जाएगी, कभी तूफ़ान में जैसी फँसी हुई बेढंगी उड़ेगी और बेढंगी दिखेगी, इस तरह अनंत आकाश में वह हर जगह उड़ेगी, पर हमेशा जुड़ी रहेगी शरीर के चक्रोँ के साथ। शायद चकरी से ही चक्र नाम पड़ा हो। हाहा। अब मनोवैज्ञानिक भी कह रहे हैं कि सूक्ष्मशरीर स्थूलशरीर के साथ एक चांदी के धागे से जुड़ा होता है। यह धागा नाभि से जुड़ा होता है। जैसे मांझा चकरी से बँधा होता है, वैसे ही योगा सांस नाभि से ही चलती है। सीधी सी बात है, अनुभव रूपी पतंग हमेशा अपने से अर्थात आत्मा से अर्थात अपने शरीर से जुड़ी हुई है। सम्भवतः इसीलिए नाभि चक्र को आदमी के शरीर का केंद्र बिंदु कहते हैं। नाभि पर एक अंदर की तरफ भिंचाव सा महसूस भी होता है, जब सूक्ष्म शरीर के साथ स्थूल शरीर का ध्यान भी किया जाता है। सम्भवतः नाभि चक्र से ही पतंग की चकरी का नाम पड़ा हो। उससे भौतिक दुनिया का प्रकाश आत्मा को मिलेगा ही, क्योंकि आत्मभावना जुड़ी है सबके साथ। फिर पूर्वोक्तानुसार आनंद भी पैदा होगा ही और कुण्डलिनी भी अभिव्यक्त होगी ही, क्योंकि कुण्डलिनी चित्र ही ऐसी भौतिक वस्तु है, जो ध्यान के माध्यम से आत्मा से सबसे ज्यादा जुड़ी होती है। मतलब कुण्डलिनी आत्मा से भौतिक दुनिया के जुड़ाव की प्रतिनिधि है। विशेष ज्ञान या विज्ञान के विपरीत साधारण ज्ञान दुनियादारी के मामले में होता है। ज्ञान जल्दी ही अज्ञान में परिवर्तित हो जाता है अगर उसे विज्ञान का साथ प्राप्त न हो। यह साइंस वाला विज्ञान नहीं है। प्राणमय शरीर का मतलब साँस पर ही ध्यान नहीं है, पर साँस से उत्पन्न शरीर की गति और शरीर के अन्य हिलने-डुलने पर ध्यान भी है। इस मामले में पैदल चलना एक सर्वोत्तम अध्यात्मवैज्ञानिक व्यायाम लगता है। इसमें पूरे शरीर पर, उसकी गति पर, उसकी संवेदनाओं पर और सांसों पर अच्छे से ध्यान जाता है। साथ में मन में भी सात्विकता के साथ विचारों की क्रियाशीलता भी काफी अच्छी होती है।

कुण्डलिनीयोग एक अध्यात्मवैज्ञानिक मशीन के रूप में

मनोमय शरीर भी आदमी खुद ही होता है। वह कोई और नहीं होता। वह बहुत विस्तृत होता। जब उसे अपने आप के रूप में अनुभव किया जाता है, तब वह क्षीण होने लगता है, और कुण्डलिनी छवि का रूप लेने लगता है। खालीपन, हल्कापन और आनंद सा भी महसूस होता है। इसी तरह, दरअसल ज्ञान आत्मा का होता है। पर विज्ञान मतलब विशेष ज्ञान तब होता है, जब आत्मा के साथ मन मतलब मनोमय शरीर भी जुड़ जाता है। मन आत्मा का ही विशेष रूप है। इसलिए मन का ज्ञान जब आत्मा के विशेष ज्ञान के रूप में किया जाता है, तब यही विज्ञानमय कोष है। मन का साधारण व पराई वस्तु के रूप में ज्ञान तो मनोमय कोष है। पर जब उसे ही अपना रूप समझा जाता है, तब यही विज्ञानमय कोष है। यह भी शरीर से जुड़ा हमारा ही भाग या कोष है, पर लगता है जैसे बाहर अनंत दिशाओं और दूरियों में फैला है। दरअसल आदमी एक उड़ती हुई पतंग की तरह है। मन उड़ने वाला रंगीन कागज है, इसके शरीर से जुड़े होने की भावना डोर है, और शरीर उस डोर को पकड़ने वाला है। जब तक डोर है, तभी तक पतंग सलामत है, नहीँ तो भटक कर नष्ट हो जाएगी। एक जगह मैंने बस के डेशबोर्ड पर लिखा हुआ पढ़ा था कि मन एक पैराशूट की तरह है, यह तभी अच्छे से काम करता है, जब यह खुला हुआ होता है। शायद इसका भी यही अर्थ है। शास्त्रों में इसे ऐसे कहा है कि मन को दृष्य रूप न समझकर द्रष्टा रूप समझना है। साक्षीभाव भी यही है, बल्कि इसका ही हल्का और आसान तरीका है। जब आत्मा मन को चुपचाप साक्षी बनकर देखता है, तब भी मन की ध्यान छवि अभिव्यक्त होने लगती है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि मन आत्मा का ही विशेष रूप है, मतलब मन विज्ञान रूप है। मन तभी तक है, जब तक इसे बाहरी या पराया समझा जाए। जब इसे अपना आत्मरूप समझा जाता है, तब यह हल्का पड़ने लगता है। घर की मुर्गी दाल बराबर। महत्त्वबुद्धि बाहरी या पराई चीज के लिए होती है, अपनी चीज या अपने लिए नहीं। इसमें मन नष्ट नहीँ होता, बल्कि महत्त्वहीन सा होकर धीमा पड़ जाता है। इससे आनंद पैदा होता है। पहले की भटकी हुई अवस्था में मन ने जो अतिरिक्त शक्ति ली हुई थी, वह कुण्डलिनी छवि को मिल जाती है। इससे आनंद में और इजाफा होता है, क्योंकि कुण्डलिनी छवि लम्बे समय तक बने रहकर बिना आदमी के दार्शनिक प्रयास के खुद ही भटकते मन की अतिरिक्त चर्बी उतारकर चूसती रहती है, जिससे आनंद लम्बे समय तक, और पहुंचे हुए कुण्डलिनी योगियों में तो स्थायी ही बना रहता है। मन की हल्की वृत्ति सत्त्वगुणरूप है। इसलिए मन के  क्षीण होने से जो मनमिश्रित अंधेरा जैसा पैदा होता है, उसे सतोगुणी अविद्या कहते हैं, जैसा पिछली पोस्ट में बताया गया था। इसी से इसमें आनंद होता है। यही आनंदमय कोष है। इसके विपरीत मन का बिल्कुल नष्ट होना तमोगुणरूप है, और मन का पूरे वेग में होने से उसका वास्तविक जैसा लगना रजोगुणरूप है। इनके साथ जुड़ा अविद्यारूपी अंधेरा क्रमशः तमोगुणी अविद्या और रजोगुणी अविद्या है। पहली अवस्था में दुःख और दूसरी अवस्था में सुख होता है, आनंद नहीँ। सुख और दुःख एकदूसरे से जिन्दा रहते हैं। आनंद सुख व दुःख से परे है, और हमेशा एक जैसा बना रहता है। आनंद को सुख और दुःख का मिश्रित रूप भी कह सकते हैं, क्योंकि इसमें मन और अंधेरा दोनों बराबर संतुलन में एकसाथ रहते हैं। रजोगुण में मन बहुत भड़कीला होता है, जिसके साथ अंधेरा बिल्कुल नहीँ रहता, इसलिए यह सुख है। जब मन थककर बैठ जाता है, तब पूरी तरह से बेजान सा हो जाता है, जिससे मस्तिष्क में घुप्प अंधेरा छा जाता है। यह दुःख है। यही घोर तमोगुण भी है। सुख और दुःख का चक्र चलता रहता है, जिससे आत्मा की सफाई नहीं होती। मुझे अपनी प्रारम्भिक पुस्तक के समय इसका इतना गहरा विश्लेषण पता नहीं था, हालांकि ऐसा व्यावहारिक अनुभव जरूर था। उसमें मैंने इसे ऐसे लिखा है कि अनासक्ति से ही आनंद पैदा होता है। बात सही भी है। अनासक्ति से मन धीमे और संतुलित चलता है। वैसे आसक्ति औरों के प्रति ही होती है, अपने प्रति नहीँ। इसलिए मन को आत्मा समझने से अनासक्ति खुद पैदा होती है। मैंने अनासक्ति सिद्धांत के बहुत से उदाहरण दिए थे। जैसे कि आनंद मदिरा से नहीं बल्कि उससे मन के धीमा होने से होता है, जो अनासक्ति व सत्त्वगुण का लक्षण है। इसी तरह आनंद मांसभक्षण से नहीं बल्कि उससे उत्पन्न जीवन के प्रति नश्वर बुद्धि से पैदा वैराग्य से उत्पन्न अनासक्ति से पैदा होता है। ऐसे बहुत से उदाहरण दिए थे।

कुण्डलिनी योग से यही प्रभाव पैदा होता है। अनासक्ति अर्थात अद्वैत और कुण्डलिनी साथसाथ रहते हैं। इसलिए कुण्डलीनियोग से कुण्डलिनी छवि के मन में रहने पर आनंद पैदा होता है। अतः कुण्डलीनियोग एक अध्यात्मवैज्ञानिक मशीन या तकनीक या ट्रिक की तरह है, जो अनासक्ति के दार्शनिक झमेले से बचाते हुए स्वचालित रूप से अनासक्ति का प्रभाव पैदा करता है। इसका उदाहरण मैं अपने से देता हूँ। मैंने बहुत पैसा खर्च करके कुछ विकासात्मक काम किए थे। पर कुछ अटल कारणों से उनमें से कुछ चीजें छूट गईं और कुछ में घाटा हुआ। मुझे पछतावा भी हुआ और नहीं भी, क्योंकि चलना ही जीवन है। जब आदमी बाहर नजर घुमाए रखता है तब वह अपनी चीज से संतुष्ट नहीँ होता। उससे उसका अपना आनंद भी गायब हो जाता है। मैं डिस्टर्ब सा रहने लगा। मैंने कहीं से कुण्डलिनी योग सीखा और सोचा कि सब ठीक हो जाएगा। योग से मेरा खोया हुआ आनंद लौट आया, वह भी सूद समेत। मैंने आध्यात्मिक उन्नति भी बहुत की। उस समय तो इसके आधारभूत मनोवैज्ञानिक सिद्धांत का पता नहीं था, पर आज इसका पता चला है। कुण्डलिनी एक चमत्कारिक मानसिक ध्यान छवि है, जो एक स्वचालित यंत्र की तरह हर प्रकार से लाभ करती है। हुआ क्या कि कुण्डलिनी ने मेरे भटके हुए मन की शक्ति हर ली। इससे कुण्डलिनी की सहायता से अनायास ही मेरा मनोमय कोष विज्ञानमय कोष में बदल गया। विज्ञानमय कोष आनंदमय कोष में तब्दील हो गया। उक्त विकासात्मक दुनियादारी से मेरे प्रारम्भिक तीनों कोष बहुत विकसित हो गए थे। वैसे तो अद्वैत की सहायता से विज्ञानमय कोष और आनंदमय कोष को भी मैं इनके साथ विकसित कर रहा था, पर अंतिम दो कोशोँ को रॉकेट गति कुण्डलिनी योग से ही मिली जिससे कुण्डलिनी जागरण की तथाकथित मामुली सी झलक भी मिली थी।

कुण्डलिनी योग आनंदमय कोष के साथ शरीर के सभी कोषों को एकसाथ खोलता है

शास्त्रों के अनुसार हमारी स्थूल देह का नाम अन्नमय कोष है, जो कि मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है। शरीर में स्थित पांच वायु और पांच कर्मेंन्द्रियों के समूह को प्राणमय कोष कहते हैं। मन सहित पांचों ज्ञानेनिद्रियों के समूह को मनोमय कोष कहा गया है। बुद्धितत्व युक्त पांचोँ ज्ञानेंद्रियों के समूह को विज्ञानमय कोष कहते हैं। सबसे भीतरी और सूक्ष्म कोष आनंदमय कोष है, वह सत्वगुणी अविद्या से संचालित है। परन्तु आत्मा इन सब से अछूती है। इसका थोड़ा विश्लेषण करते हैं। स्थूल शरीर मतलब अन्नमय कोष तो सबके प्रत्यक्ष है ही। कर्मेंन्द्रियों को प्राणमय कोष में इसलिए लिया गया है, क्योंकि प्राणों का सबसे पहले स्पष्ट प्रभाव कर्म-इन्द्रियों पर ही नजर आता है। कुण्डलिनी योग के दौरान जब प्राण को विशेष चक्र पर केंद्रित करते हैं, तो वहाँ सिकुड़न जैसी हलचल होती है, और उससे जुड़ी कर्मेंन्द्रियों को शक्ति मिलती है। तभी तो व्यायाम, खेल, दौड़ व भारी काम से सांस तेज चलती है, जिससे कर्मेंन्द्रियों को प्राणों का संचार बढ़ता है। मानसिक काम से वैसी साँस नहीँ फूलती, इसलिए इसे मनोमय कोष में रखा गया है। दूरदर्शन देखते और सुनते समय साँस नहीँ फूलती। किसी भोजन को सूंघते और चखते हुए या उसको स्पर्श करते हुए भी साँस नहीँ फूलती। इसीलिए त्वचा, आँख, कान, नाक और जिव्हा पांचोँ को ज्ञानेंद्रियों में रखा गया है। मतलब ये कर्मप्रधान की अपेक्षा ज्ञानप्रधान हैं। कर्म तो इनसे भी होता है। जननेन्द्रिय को भी कर्मेंन्द्रिय में रखा गया है, क्योंकि इसके प्रयोग से भी साँस फूलती है। गुदा इन्द्रिय को भी कर्मप्रधान कर्मेंन्द्रियों के साथ रखा गया है। पांचोँ ज्ञानेंन्द्रियों को मन के साथ इसलिए मनोमय कोष में रखा जाता है, क्योंकि इनसे संवेदनाओं के अनुभव से मन क्रियाशील हो जाता है। सुंदर दृश्य देखने से या सुंदर संगीत सुनने से मन में सुंदर विचार आते हैं। विचारों को साधारण ज्ञान कह सकते हैं। विशेष ज्ञान बुद्धि के सहयोग से ही पैदा होता है। जैसे कार के शोरूम में बहुत से साधारण विचार आते हैं। आदमी जब बुद्धि से कार खरीदने का निर्णय लेता है, तो उसकी खरीद से जुड़े विचार ज्यादा ताकतवर, प्रभावशाली, व्यावहारिक और कर्मप्रेरक होते हैं। ‘वि’ मतलब विशेष, इसलिए विज्ञान मतलब विशेष ज्ञान। इससे आनंद पैदा होता है। कार का मालिक बन कर किसको आनंद नहीं होता। वह आनंदमय कोष से महसूस होता है। दरअसल आनंद बिना लहरों की शुद्ध आत्मा में महसूस होता है। विज्ञान और कर्म की ताकतवर व्यक्त लहरों से सूक्ष्मशरीर में ताकतवर छाप पड़ती है। उस छाप को ही सत्त्वगुणी अविद्या कहा गया है। मतलब कार खरीदने की क्रिया को आप सत्त्वगुणप्रधान कह लो, क्योंकि यह काम आराम से, आनंद से, तसल्ली से, इंसानियत से और शिष्टाचार से होता है। इसलिए इससे जो छाप सूक्ष्मशरीर अर्थात अविद्या अर्थात विशेष अँधेरे पर पड़ती है, वह भी वैसी ही होती है। सीमित समय के लिए ही इस छाप का प्रभाव शेष अनंत सूक्ष्मशरीर के मुकाबले ज्यादा होती है, क्योंकि यह छाप ताज़ा होती है, बाद में तो यह सूक्ष्मशरीर में मौजूद अनगिनत छापों में घुलमिलकर उनकी तरह साधारण बन जाती है। इसीलिए भौतिकता से मिला आनंद हमेशा के लिए नहीँ रहता। दूसरे उदाहरण के लिए आप कल्पना करो कि आप परिवार व किसी अच्छे रिश्तेदार के साथ सुंदर कार से पहुंच कर किसी सुंदर रिसोर्ट में बैठे हैं। बाहर लॉन में आरामदायक कुर्सी पर धूप सेंक रहे हैँ। सामने कांच के गोल टेबल पर पीने के लिए शुद्ध जल है। और भी खाने-पीने के लिए आर्डर पर एकदम मिल जाता है। नजदीक में आपका परिवार आनंद से टहल रहा है। बच्चे सामने पार्क में खेल रहे हैं। सामने ही स्विमिंग पूल है। आप लंबी और धीमी सांस लेते हुए सुस्ता रहे हैं। आपको अपनी आत्मा के अँधेरे में बहुत बढ़िया आनंद महसूस होगा। है तो वह आम अँधेरे की तरह ही जिसे अविद्या कहा गया है, पर वह अन्य सामान्य अंधेरों के विपरीत आनंद से भरा होगा। यह इसलिए क्योंकि यह अंधेरा स्वयं की सत्ता और अस्तित्व से भरा होगा। यह सत्त्वगुणी अंधेरा है। मतलब सत्ता बढ़ाने वाली सारी सुविधाएं आपको सामने उपलब्ध हैं, पर आप अविद्या में आनंद का मजा ले रहे हैं। आदमी की सुखसुविधा भोगने की भी सीमा है। उससे थकने के बाद सत्त्वगुणी अविद्या से ही आनंद मिलता है। दरअसल आनंद का स्रोत सत्त्वगुणी अविद्या ही है, सीधे तौर पर सुखसुविधा नहीँ। अविद्या मतलब विद्या या ज्ञान का निषेध है। इसलिए यह अज्ञान का अंधेरा ही है। आपको सत्त्वगुणी अविद्या का एक और उदाहरण देता हूँ। मानलो आप ऐसी जगह पर हैं, जहाँ से एक तरफ मैदानी क्षेत्र शुरु होता है। आपके सामने दूसरी तरफ पर्वतमाला दिख रही है। आपको उस मिश्रित जैसे मैदानी भाग में शुद्ध मैदानी भाग से भी ज्यादा आनंद आएगा, क्योंकि सामने का दुर्गम व कठिनाइयों से भरा पर्वत आप की सत्ता को सापेक्ष रूप से वास्तविक सत्ता से भी ज्यादा बढ़ा हुआ महसूस कराएगा। ऐसी ही एक जगह है आनंदपुर। सम्भवतः इसी विशेष आनंद के कारण इसका यह नाम पड़ा है। यहाँ पर सिख धर्म का प्रसिद्ध गुरुद्वारा आनंदपुर साहब स्थित है। सत्त्वगुणी अविद्या के विपरीत जो अंधेरा गुस्से, डर, अभाव, चिंता आदि के साथ पैदा होता है, उसमें आनंद नहीँ होता। इनमें अविद्या का अंधेरा स्व-अस्तित्व के विरुद्ध होता है। एक ही अंधेरा अलगअलग परिस्थितियों में अलगअलग ढंग से महसूस होता है। यह रोचक मनोविज्ञान है।आनंदमय कोष से भी एक कदम ज्यादा गहराई में पूर्ण शुद्ध आत्मा है। इसके साथ आनंद जैसा कोई शब्द नहीं जुड़ा है, क्योंकि यह अनिर्वचनीय है, आनंद से भी ऊपर। अधिकांश लोग आनंदमय कोष के ब्लिस या आनंद को शुद्ध आत्मा जानकर उससे मोहित हुए रहते हैं, और आत्मजागृति के लिए विशेष प्रयास नहीँ करते। शुद्ध आत्मा में स्थूल जगत की कोई छाप नहीं होती। इसलिए यह अपने मूलरूप में पूर्ण प्रकाशमान होता है। दरअसल प्रकाश शब्द भी लौकिक है, आत्मा इससे भी परे होता है। इसीलिए आत्मा को सबसे अप्रभावित अर्थात अछूता कहा गया है।

सभी कोष बारीबारी से और क्रमवार ही अच्छे खुलते हैं, जैसे किसी महल के सुरक्षा घेरे लांघे जाते हैं। बचपन में खाने-पीने से अन्नमय कोष विकसित होकर खुल जाता है। खेलकूद, व्यायाम और विभिन्न कामों को सीखने से प्राणमय कोष विकसित होकर खुल जाता है। फिर माध्यमिक विद्यालय स्तर की ऊँची कक्षाओं में पहुंच कर वह जटिल व विशेष विषय वाली शिक्षा को ग्रहण करते हुए मनोमय कोष को खोलता है। महाविद्यालय या विश्वविद्यालय स्तर पर तकनीकी और व्यावहारिक शिक्षा लेकर वह विज्ञानमय कोष को खोलता है। फिर नौकरी या व्यापार करते हुए वह धन कमाने लगता है, और विज्ञानमय कोष की सहायता से आनंदमय कोष को खोलता है। उसको भी पूरा विकसित करके वह तांत्रिक कुण्डलिनी योग की तरफ खुद ही आकर्षित होकर उससे आत्मा तक पहुंचने का प्रयास करता है।

कुण्डलिनी योग से वैसे सभी कोष एकसाथ भी खुल सकते हैं। योगासन व प्राणायाम से भूख लगती है, और शरीर स्वस्थ रहता है। इससे अन्नमय कोष खुला रहता है। प्राणायाम से प्राणमय कोष खुला रहता है। प्राणमय कोष खुलने से मनोमय कोष खुलता है। फिर चक्रोँ पर कुण्डलिनी ध्यान से विज्ञानमय कोष खुल जाता है। विज्ञानमय कोष खुलने से आनंदमय कोष खुद ही खुल जाता है। अंत में कुण्डलिनी जागृत होने से आदमी आत्मा तक भी पहुंच जाता है।

आनंदमय कोष को लाँघने का आसान तरीका बताता हूँ। आराम से धूप में कुर्सी पर बैठें। पूरे शरीर को देखते हुए उसका ध्यान करें। इससे अन्नमय कोष खुलेगा। निद्रा देवी का ध्यान करके और नींद शब्द का मानसिक उच्चारण करते हुए मस्तिष्क को ढीला व तनावरहित कर दें। गहरी साँस आएगी। उस पर ध्यान दें। धीमी और गहरी सांसें चलने लगेंगी। उससे प्राणमय कोष खुलेगा। उससे मन में पुरानी यादों के साथ अन्य विचार जागेंगे। इससे मनोमय कोष खुलेगा। फिर बुद्धि से निश्चय करके उन पर साक्षीभाव रखते हुए शरीर पर, सांसों पर और निद्रा पर ध्यान जारी रखेंगे। इससे विज्ञानमय कोष जागेगा। थोड़ी देर में विचार आत्मा में विलीन हो जाएंगे। इससे मन में विचारशून्यता का अंधेरा जैसा महसूस होगा। इसे सत्त्वगुणी अविद्या कहेंगे। यह इसलिए क्योंकि यह जानबूझकर पवित्र सत्त्वगुण से पैदा की गई। यह रजोगुणी अविद्या की तरह लड़ाई-झगड़े या जीवन के रोजाना के संघर्ष से पैदा नहीँ हुई। न ही यह नशे, आमिष आदि से पैदा तमोगुण से पैदा हुई। सत्त्वगुणी अँधेरे से आनंद महसूस होने से आनंदमय कोष भी खुल जाएगा। लगभग एक घंटे में यह पूरी साधना हो जाएगी। आनंदमय कोष के खुले होने पर यदि आदमी लगभग एक-दो घंटे तक तांत्रिक कुण्डलिनीयोग का अभ्यास भी करता रहे, तो कुण्डलिनी जागरण के रूप में आत्मा की तरफ भी बढ़ता रहेगा।

मृत्यु अटल सत्य है। पर मरना किसीके लिए कला है, तो किसी के लिए किस्मत है। कोई सतोगुणी अविद्या के माध्यम से सुख और आनंद से मरता है, तो किसी को मजबूरन रजोगुणी और तमोगुणी अविद्या के पाले पड़कर बहुत दुःख और कष्ट के साथ मरना पड़ता है।

कुंडलिनी जागरण ब्लैक होल विज़ुअलाइज़ेशन से अलग है

दोस्तों, पिछली पोस्ट लंबी हो रही थी इसलिए विषय को वहीं रोकना पड़ा था। अब इस पोस्ट में उसे जारी रखते हैं। जब सभी लोगों के अनुभव एक ही अनंत अंतरिक्ष के अंदर हो रहे हैं, तब कोई भी आदमी किसी भी दूसरे आदमी के अनुभव से जुड़ सकता है। मेरे बोलने का मतलब है कि मैं भी हरेक जीव की तरह अनंत अंतरिक्ष रूप हूँ। मैं प्रेमयोगी वज्र नाम के आदमी के मस्तिष्क में बने सूक्ष्म शरीर से जुड़ा हुआ हूँ। फिर मैं अपने दोस्तों, रामू और श्यामू के मस्तिष्क में बने सूक्ष्म शरीर के साथ क्यों नहीँ जुड़ सकता। जैसा मेरा अपना असली रूप अनंत अंतरिक्ष है, उसी तरह रामू और शामू का असली रूप भी वही अनंत अंतरिक्ष है। एक ही अनंत अंतरिक्ष तीन अलग-अलग सूक्ष्म शरीरों के साथ जुड़ा है। उससे मेरा अनंत अंतरिक्ष रूप अलग अनुभव वाला हो गया, उनका अलग अनुभव वाला हो गया। मतलब एक ही अनंत अंतरिक्ष हम तीनों लोगों के रूप में अलग-अलग प्रतीत होने लगा, हालांकि है एक ही। सम्भवतः मैं अपने पूर्वोक्त परिचित के सूक्ष्मशरीर से कुछ क्षणों के लिए जुड़ गया था। यह कोई चमत्कार नहीं बल्कि आध्यात्मिक मनोविज्ञान है। एक बद्ध आदमी जिस समय जैसा अनुभव कर रहा होता है, उस समय वह वैसा ही बना होता है। इसलिए उस सूक्ष्म शरीर को अनुभव करते समय मैं वही सूक्ष्मशरीर बन गया था। इसके विपरीत कुण्डलिनी जागरण के अनुभव के दौरान आदमी पूर्ण मुक्त अवस्था में होता है। उस समय वह अपने असली अनंत चेतन-अंतरिक्ष में स्थित होता है। उस समय उसके सभी अनुभव, चाहे वे स्थूल शरीर से संबंधित हो या सूक्ष्मशरीर से, अपने में तरंग रूप में अर्थात मिथ्या होते हैं। वे उसे महसूस होते हुए भी महसूस नहीँ होते। जागृति का कुछ क्षणों का अनुभव खत्म होते ही जैसे उस चिन्मय अनंत आकाश की चेतना की रौशनी बुझ जाती है, और वह फिर से पहले की तरह अंधेर अनंत आकाश ही महसूस होता है। उस अँधेरे के रूप में उस आदमी का सूक्ष्म शरीर दर्ज होता है। तो यह क्यों न समझा जाए  कि सूक्ष्म शरीर किसी भी क्वांटम हलचल के रूप में नहीँ अपितु आत्म-आकाश की रौशनी को ढकने वाले अँधेरे के रूप में रहता है। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि जिस परिचित के सूक्ष्म शरीर को मैंने अनुभव किया, उनकी मृत्यु हो चुकी थी इसलिए उनके पास अपना शरीर नहीं था। जीवात्मा शरीर के बाहर किसी भी हलचल से जुड़कर उसे महसूस नहीँ कर सकती। अगर ऐसा होता तब तो शरीर के बाहर अनगिनत तरंगों के रूप में अनगिनत हलचलें होती रहती हैं। फिर तो हरेक विद्युत्चुंबकीय तरंग जिन्दा होती। यहाँ तक कि मिट्टी, पत्थर, कुर्सी आदि सभी कुछ जिन्दा और जीवात्मा से युक्त होता, पर ऐसा नहीँ है। इसका मतलब है कि जीवनयात्रा की शुरुवात से लेकर आदमी के जीवन का अनेक जन्मों का पूरा ब्यौरा उसके अनंत आत्म-आकाश में अनुभव होने वाले अँधेरे की विशेष किस्म व मात्रा के रूप में दर्ज रहता है। उसे ही सूक्ष्मशरीर कहते हैं। अब इसको ब्लैक होल पर लेते हैं। ऐसा समझ लो कि आदमी की मृत्यु की तरह तारा पूरी तरह से नष्ट हो जाता है। मतलब वह भौतिक रूप में कुछ भी नहीं बचा रहता। यह मैं ही नहीँ बोल रहा हूँ। आइंस्टीन ने भी जटिल गणितीय गणना से सिद्ध करके बताया है कि ब्लैकहोल सिंगुलेरिटी तक कंम्प्रेस हो जाता है। यह अलग बात है कि ज्यादातर वैज्ञानिक सबसे छोटे अकेले कण को सिंगुलेरिटी समझ रहे हैं, पर मैं एक कदम नीचे शून्य आकाश तक जा रहा हूँ। बेशक वह सबसे बड़ा लगता है, पर सबसे छोटा भी वही है। मतलब कि ब्लैकहोल सूक्ष्म शरीर की तरह एक अँधेरे से भरा आसमान बन जाता है। बेशक उसे अनुभव करने वाला कोई नहीँ होता, क्योंकि जब तारे की जिन्दा अवस्था में उसमें जीवात्मा की तरह कोई विशेष आत्मा नहीँ बंधी थी, तब उसकी मृत्यु के बाद उससे कैसे बंध सकती है। आत्मा के बंधन की मशीन केवल हाड़मान्स का बना शरीर ही है। जब कोई अनुभव करने वाला ही नहीँ, तब अँधेरे आसमान का क्या औचित्य है। हम ऐसा भी नहीँ कह सकते। अगर ऐसा है तब मिट्टी, पत्थर जैसी वस्तुओं के रूप में अनगिनत तरंगों का भी क्या औचित्य है, जब वे स्वयं अनुभवरूप नहीँ हैं, मतलब स्वयं को अनुभव नहीँ कर सकतीं। जिस तरह चिदाकाश अपने में स्थित इन वस्तुओं को अनुभव नहीँ कर सकता, उसी तरह इनके नष्ट होने से बने अपने आभासी अँधेरे को भी अनुभव नहीँ कर सकता। वह आभासी अंधेरा ही डार्क मैटर और डार्क ऐनर्जी है। आदमी के मरने के बाद बहुत से लोग दुःख के कारण उसकी तरफ खिंचे चले जाते हैं। सम्भवतः शुरु की प्रेतात्मा डार्क मैटर ही होती है। ब्लैक होल भी शुरु में डार्क मैटर ही होता है, इसीलिए अपने मजबूत गुरुत्वाकर्षण से सभी को अपनी तरफ खींचता है। कुछ समय बाद प्रेतात्मा को सभी भूल जाते हैं, और उससे नफ़रत सी करते हुए सभी अपने-अपने कामों में पहले की तरह लग जाते हैं। मतलब प्रेतात्मा सभी को अपने से दूर धकेलती है। सम्भवतः उस समय प्रेतात्मा डार्क एनर्जी बनी होती है, क्योंकि उसमें भी दूर सबको धकेलने का बल होता है। सम्भवतः इसी तरह समय के साथ ब्लैक होल का डार्क मैटर भी अनंत आकाश में समाकर डार्क एनर्जी बन जाता है। यह तो विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिया है कि ब्लैकहोल भी लगातार सूक्ष्म रेडिएशन छोड़ते रहते हैं जिसे हाव्किंस रेडिएशन कहते हैं, और इस तरह से बहुत लम्बे समय बाद खत्म हो जाते हैं। डार्क एनर्जी के रूप में फिर यह अन्य पिंडों को खींचने का नहीँ बल्कि धकेलने का काम करता है। दिवंगत आदमी के अँधेरे अनंत अंतरिक्ष रूपी सूक्ष्मशरीर में दर्ज सूचना क्या पता कौन से ब्रह्माण्ड में जन्मे आदमी के अंदर अभिव्यक्त होए, कोई कह नहीँ सकता। अनंत अंतरिक्ष के किसी भी कोने में उस आदमी का पुनर्जन्म हो सकता है। इसी तरह नष्ट हुए तारे के अँधेरे अनंत अंतरिक्ष रूपी ब्लैकहोल नामक सूक्ष्मशरीर में दर्ज सूचना क्या पता किस ब्रह्माण्ड में जाकर नए तारे के जन्म के रूप में अभिव्यक्त हो जाए, कुछ कह नहीं सकते। इसी सिद्धांत के अंदर व्हाइट होल और टेलीपोर्टेशन छुपा हुआ है। इससे विज्ञान का वह सिद्धांत भी क़ायम रहता है कि क्वांटम इनफार्मेशन कभी नष्ट नहीँ होती। तारे से इनफार्मेशन डार्क मैटर में चली गई, डार्क मैटर से डार्क एनर्जी में चली गई, और डार्क एनर्जी से फिर तारे में आ गई। इस तरह यह चक्र आदमी के जन्ममरण की तरह चलता रहता है। कई लोग कहेंगे कि प्रेतात्मा ब्लैक होल की तरह घेरा बना कर तो नहीँ रहती। हाहा। भाई यह अध्यात्म विज्ञान है। इसमें भौतिक विज्ञान की तरह एक जमा एक दो नहीँ कर सकते। समानता दिखा सकते हैं। आदमी के मरने के बाद कुछ समय उसकी आत्मा ब्लैक होल की तरह लोकेलाइज रहती है। उसे भटकी हुई आत्मा कहते हैं। कई लोगों को इसका अहसास होता है। फिर वह डार्क एनर्जी की तरह अनंत अंतरिक्ष में समा जाती है। विभिन्न धर्मों में विभिन्न आध्यात्मिक कृत्य इसीलिए किए जाते हैं, ताकि जल्दी से जल्दी उसकी गति लग सके और वह अनंत अंतरिक्ष में समा कर नया जन्म ले सके।

उपरोक्त वैज्ञानिक विवरण से यह बात स्पष्ट होती है कि पुराने लोगों को वर्महोल, व्हाइट होल और टेलीपोर्टेशन आदि का पता था, हालांकि अपने तरीके से। उन्हें पता था कि स्थूल शरीर के साथ यह संभव नहीं है, पर सूक्ष्मशरीर के साथ संभव है। इसलिए वे अच्छे कर्मों से अपने सूक्ष्मशरीर को ज्यादा से ज्यादा अच्छा बनाते थे, ताकि वह उन्हें अच्छे ग्रह, सितारे या ब्रह्माण्ड में ले जा सके, क्योंकि उन्हें यह भी पता था कि क्वांटम इनफार्मेशन कभी नष्ट नहीं होती।

कुण्डलिनी योग भी एक लहर ही है

दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में एक विचार-प्रयोग के माध्यम से बता रहा था कि सृष्टि के अंत में कैसे गुरुत्वाकर्षण सभी चीजों को निगल जाएगा। कई वैज्ञानिक भी ऐसा ही अंदाजा जता रहे हैं, जिसे बिग क्रन्च नाम दिया गया है।

साथ में मूलकण के तरंग स्वभाव के बारे में भी बात चली थी। हवा, पानी आदि भौतिक तरंगों के मामले में देखने में आता है कि क्रेस्ट और ट्रफ एकसाथ नहीं बन सकते। जब क्रेस्ट बनाने के लिए जल सतह से ऊपर की तरफ उठेगा, तो उसी समय उसी जगह पर वह ट्रफ के रूप में सतह के नीचे नहीं डूब सकता। पर आकाश की तरंग के मामले में ऐसा हो सकता है, क्योंकि यह आभासी है, और इसके लिए किसी भौतिक वस्तु या माध्यम की जरूरत नहीं है। इसीलिए एकसाथ त्रिआयामी क्रेस्ट और ट्रफ बनने से मूलतरंग मूलकण की तरह भी दिखती है, और उसके जैसा व्यवहार भी करती है, जैसा कि पिछली पोस्ट में चित्रोक्त किया गया है। मूलकण रूपी तरंग ऐसे ही क्रेस्ट और ट्रफ बनाते हुए आगे से आगे बढ़ती रहती है, क्योंकि प्रकृति और पुरुष हर जगह विद्यमान हैं, और प्रकृति से पुरुष की तरफ दौड़ हर जगह चली रहती है। इसीलिए मूलकण कई जगह एकसाथ दिखाई देते हैं। पिछले क्रेस्ट से अगला ट्रफ बनता है, और पिछले ट्रफ से अगला क्रेस्ट, क्योंकि प्रकृति को सीमेट्री प्यारी है। इस तरह अनगिनत तरंगों के रूप में अंतरिक्ष में अनगिनत सूक्ष्म लूप बन जाते हैं। मतलब पूरा आकाश लूपों में बंटा हुआ सा लगता है। क्वांटम लूप थ्योरी भी यही कहती है कि अंतरिक्ष सपाट न होकर सूक्ष्मतम टुकड़ों में बंटा है। उससे छोटे टुकड़े नहीं हो सकते। पर अगर सिद्धांत से देखा जाए तो हरेक चीज टूटते हुए सबसे छोटी जरूर बनेगी। वह विशेषता से रहित शून्य आसमान ही है। जिसे अंतरिक्ष का क्वांटम लूप कहा गया है, वह दरअसल शून्य अंतरिक्ष का अपना स्वाभाविक रूप नहीं है, बल्कि अंतरिक्ष में आभासी मूलकण है। इससे इन सभी बातों का उत्तर मिल जाता है कि तरंग कण के जैसे क्यों व्यवहार करती है, स्टैंडिंग वेव और प्रॉपेगेटिंग वेव कैसे बनती है आदि। कोई भी लहर वास्तव में ध्यानरूप ही है, जैसा पिछली पोस्ट में बताया गया है। इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियाँ लहर के रूप में ही चलती हैं। लहर में कोई चीज आगे नहीं बढ़ती, लहर बनाने वाली चीज केवल अपने स्थान पर आगे-पीछे या ऊपर-नीचे कांप कर अपनी पूर्ववत जगह पर आ जाती है। केवल लहर आगे बढ़ती है। वैसे भी शून्य जैसे अंतरिक्ष में कोई चीज है ही नहीं प्रकट होने को। इसलिए एकमात्र लहर का ही विकल्प बचता है। वहाँ तो अपनी जगह पर कांपने के लिए भी कोई चीज नहीं है। इसलिए झूठमूठ में ही कंपन दिखाया जाता है। यह नहीं पता कि कैसे। प्रकाश जिसको ईश्वररूप या दैवरूप माना जाता है, लहर के रूप में ही चलता है। इसी तरह अग्नि भी।

नाड़ी की गति भी लहर के रूप में ही होती है

नाड़ी में संवेदना लहर के रूप में आगे बढ़ती है। इसमें सोडियम-पोटाशियम पम्प काम करता है। सोडियम और पोटाशियम आयन अपनी ही जगह पर नाड़ी की दीवार से अंदर-बाहर आते-जाते रहते हैं, और संवेदना की लहर आगे बढ़ती रहती है।

लहर सूचना को आगे ले जाती है

तालाब में कहीं पर कंकड़ मारने से उसके पानी पर लहर पैदा होकर चारों तरफ फैल जाती है। उससे जलीय जंतु संभावित खतरे से सतर्क हो जाते हैं। जमीन पर चलने से उस पर एक लहर पैदा हो जाती है, जिसे सांप आदि जंतु पकड़कर सतर्क हो जाते हैं या भाग जाते हैं। वायु से आवाज के रूप में सूचना संप्रेषण के बारे में तो सभी जानते हैं। मूलाधार से संवेदना की लहर सहस्रार तक जाती है, जिससे सहस्रार सतर्क अर्थात क्रियाशील हो जाता है। सतर्क कालरूपी शत्रु से होता है, जो हर समय मौत के रूप में आदमी के सामने मुंह बाँए खड़ा रहता है। इसलिए सहस्रार अद्वैत के साथ सांसारिक अनुभूतियों के रूप में जागृति या आध्यात्मिक जीवनयापन के लिए प्रयास करता है। वैसे दुनियादारी में सफलता भी सहस्रार से ही मिलती है, क्योंकि वही अनुभूति का केंद्र है।

जीवात्मा विद्युतचुंबकीय तरंगों की सहायता से अपने अंदर आभासी संसार को महसूस करता है

नाड़ी में चार्जड पार्टिकलस की गति से आसपास के आकाश में विद्युत्चुंबकीय तरंग बनती है। उस तरंग से सहस्रार के आत्म-आकाश में आभासी तरंगें बनती महसूस होती हैं। इसीलिए कहते हैं कि आत्मा का स्थान सहस्रार है। यह आश्चर्य की बात है कि अनगिनत स्थानों पर विद्युत्चुंबकीय तरंगों से आकाश में अनगिनत आभासी कलाकृतियाँ बनती रहती हैं, पर वे केवल जीवों के मस्तिष्क के सहस्रार में ही आत्मा को महसूस होती हैं। अगर उसकी बनावट व उसकी कार्यप्रणाली की सही जानकारी मिल जाए तो हो सकता है कि कृत्रिम जीवकृत्रिम मस्तिष्क का निर्माण भी विज्ञान कर पाए।

कुण्डलिनी योग से ही सृष्टि के मूलकण, मूल तरंग व प्लेन्क लेंथ जैसे क्वांटम तत्त्व बनते हैं

मन के अंदर और बाहर दोनों एकदूसरे के सापेक्ष और मिथ्या हैं

मन के बाहर किसी भी चीज या जगत का अस्तित्व सिद्ध नहीं किया जा सकता

दोस्तों मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि कैसे जगत सत्य नहीं, बल्कि आत्माकाश के अंदर एक आभासी तरंग है। इसी तरह, स्थूल जगत का भी कोई अस्तित्व नहीं है, इसकी रचना भी मन ने की है। यह कोई आज की खोज नहीं है, जैसा कि कई जगह दिखावा हो रहा है। यह ऋषिमुनियों और अन्य अनेकों जागृत व्यक्तियों ने हजारों साल पहले अनुभव कर लिया था, जो उन्होंने आगे आने वाली हमारी जैसी पीढ़ियों के फायदे के लिए अध्यात्म शास्त्रों में लिखकर छोड़ा। विशेषकर योगवासिष्ठ ग्रंथ में इन तथ्यों का बड़ा सुंदर और वैज्ञानिक जैसा वर्णन है। कभी उसका इतना आकर्षण होता था कि उसको शांति से पढ़ने के लिए या उसे पढ़कर कई लोग घरबार छोड़कर ज्ञानप्राप्ति के लिए निर्जन आश्रम में चले जाते थे। यह पाठक को क्वांटम या पारलौकिक जैसे आयाम में स्थापित कर देता है। इसमें पूनरुक्तियां बहुत ज्यादा हैं, इसलिए बारबार एक ही चीज को विभिन्न आकर्षक तरीकों से दोहराकर यह माइंडवाश जैसा कर देता है। कट्टर भौतिकवादी कह सकते हैं कि जागृति से अनुभव हुए आत्माकाश के अंदर मानसिक सूक्ष्म जगत के बारे में तो यह बात सही है, पर बाहर के स्थूल भौतिक जगत के बारे में यह कैसे मान लें। पर वे उसी पल यह बात भूल जाते हैं कि मन के इलावा स्थूल जगत जैसी चीज का कोई अस्तित्व ही नहीं है, क्योंकि मन के इलावा आदमी कुछ नहीं जान सकता। सिर्फ उस जगत की एक कल्पना कर सकते हैं, पर वह काल्पनिक जगत भी तो सूक्ष्म ही है। फिर कुछ तर्क जिज्ञासु लोग यह कल्पना कर सकते हैं कि चेतन आकाश को ही मूल क्यों समझा जाए, जड़ आकाश को क्यों नहीं, क्योंकि दुःख अभाव आदि जड़ आकाश के टुकड़े हैं।

अचेतन आकाश भी चेतन आत्माकाश में जगत की तरह आभासी व मिथ्या है

इसका जवाब जागृत लोग इस तरह से देते हैं कि चिदाकाश-लहर की तरह ही अचेतन आकाश का अस्तित्व भी नहीं है। वह भ्रम से अपनी आत्मा के रूप में महसूस होता है। वह भ्रम जगत के प्रति आसक्ति से बढ़ता है, और अनासक्ति से घटता है। जैसे चेतन आकाश में जगत आभासी है, उसी तरह अचेतन आकाश भी। इसीलिए सांख्य दर्शन अचेतन आकाश को भी चेतन आकाश की तरह शाश्वत मानता है। हालांकि सर्वोच्च स्कूल ऑफ़ थॉट वेदांत दर्शन स्पष्ट करता है कि अचेतन आकाश चेतन आत्माकाश में वास्तविक नहीं आभासी है।

पूर्णता की अनुभूति भाव रूपी चेतन आकाश के अनुभव से ही होती है, अभाव रूपी अचेतन आकाश के अनुभव से नहीं

जरा गहराई से सोचें तो यह अनुभवसिद्ध भी है। किसीको अचेतन आत्माकाश के अनुभव से यह महसूस नहीं होता कि उसे सबकुछ महसूस हो गया या वह पूर्ण हो गया, उसे कुछ जानने, करने और भोगने के लिए कुछ शेष बचा ही नहीं। पर ऐसा चेतन आत्माकाश के अनुभव से महसूस होता है। इससे मतलब स्पष्ट हो जाता है कि असल में चेतनाकाश ही सत्य और अनंत है, आम अनुभव में आने वाला भौतिक जगत तो उसमें मामुली सी, व मिथ्या अर्थात आभासी तरंग की तरह है।

सृष्टि ब्रह्म की तरह अनिर्वचनीय व अनुभवरूप है

जगत कल्पनिक है, मतलब स्थूल भौतिक जगत काल्पनिक है, क्योंकि उस तक हमारी पहुंच ही नहीं है। मानसिक सूक्ष्म जगत काल्पनिक नहीं क्योंकि यह तो अनुभव होता है। हालांकि सूक्ष्म भी स्थूल के सापेक्ष ही है। जब स्थूल ही नहीं तो सूक्ष्म कैसे हो सकता है। मतलब कि स्थूल-सूक्ष्म आदि सभी विरोधी व द्वैतपूर्ण भाव काल्पनिक हैं। इसलिए जगत सिर्फ अनुभव रूप है, अनिर्वचनीय है। इसे ही गूंगे का गुड़ कहते हैं। हर कोई ब्रह्म में ही स्थित है, केवल स्तर का फर्क है। जागृत व्यक्ति ज्यादा स्तर पर, अन्य विभिन्न प्रकार के निचले स्तरों पर। पूर्ण कोई नहीं।

एक दार्शनिक थोट एक्सीपेरिमेंट

विज्ञान जो अपने को कट्टर प्रयोगात्मक, वास्तविक व वस्तुपरक मानता है, वह भी आजकल बहुत से दार्शनिक विचार-प्रयोग प्रस्तुत कर रहा है, जिन्हें भौतिक प्रयोगों से बिल्कुल भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। फिर हम थोट एक्सपेरिमेंट करने से क्यों हिचकिचाएं, क्योंकि कुण्डलिनी का क्षेत्र भौतिक विज्ञान से ज्यादा दार्शनिक व अनुभवात्मक है। वह विचार-प्रयोग है, सृष्टि के सूक्ष्मतम मूलकण को कुण्डलिनी योग का अभ्यास मानना। वैसे शास्त्रों से यह बात प्रमाण-सिद्ध है। वेद-शास्त्रों को भी भौतिक प्रत्यक्ष प्रमाण की तरह प्रत्यक्ष प्रमाण माना गया है, कई मामलों में तो भौतिक से भी ज्यादा, जैसे ईश्वर व जागृति के मामलों में।

इड़ा और पिंगला नाड़ियाँ ही सूक्ष्मतम तरंग के क्रेस्ट या शिखा और ट्रफ या गर्त हैं

मूलकणरूपी स्टैंडिंग वेव वह हो सकती है, जब स्वाधिष्ठान चक्र और आज्ञा चक्र के जोड़े को या मूलाधार और सहस्रार बिंदु के जोड़े को एकसाथ अंगुली से दबाकर उनके बीच कभी इड़ा से शक्ति की तरंग दौड़ती है, कभी पिंगला से, और बीचबीच में सुषुम्ना से। मूलाधार यिन या पाताल या प्रकृति है,और आज्ञा या सहस्रार यांग या स्वर्ग या पुरुष है। बीच वाली सुषुम्ना नाड़ी ही मूल कण या दुनिया का असली रूप है, क्योंकि उससे ही कुण्डलिनी अर्थात मन अर्थात दुनिया का प्रदुर्भाव होता है।

अस्थायी मूलकण अल्प योगाभ्यास के रूप में है जबकि स्थायी मूलकण सम्पूर्ण योगाभ्यास के रूप में

जैसे आदमी में मूलाधार और सहस्रार के बीच में शक्ति का प्रवाह लगातार जारी रहता है, उसी तरह मूलकण में प्रकृति और पुरुष के बीच। इसीलिए तो तरंग लगातार चलती रहती है, कभी स्थिर नहीं होती। यह स्थिर या असली कण के जैसा है। आभासी कण उस प्रारम्भिक योगाभ्यास की तरह है, जिसमें इड़ा और पिंगला में शक्ति का प्रवाह थोड़ी-थोड़ी देर के लिए होता है, और कम प्रभावशाली होता है। इसीलिए ये अस्थायी कण थोड़े ही समय के लिए प्रकट होते रहते हैं, और आकाश में लीन होते रहते हैं।

पार्टिकल मूलाधार से सहस्रार की ओर चल रही तरंग के रूप में है, जबकि एंटीपार्टिकल सहस्रार से मूलाधार को वापिस लौट रही तरंग के रूप में है

सृष्टि के अंत में सभी कणों के एंटीपार्टिकल पैदा हो जाएंगे जो एकदूसरे को नष्ट करके प्रलय ले आएंगे

मूलाधार यहाँ प्रकृति का प्रतीक है, और सहस्रार पुरुष का। उपरोक्त अस्थायी आभासी कण प्लस और माइनस रूप के दो विपरीत कणों के रूप में पैदा होते रहते हैं। इसका मतलब है कि कभी न कभी स्थायी मूलकणरूपी तरंग भी खत्म होगी ही, बेशक सृष्टि के अंत में। फिर विपरीत मूलकण रूपी तरंग सहस्रार से मूलाधार मतलब पुरुष से प्रकृति की तरफ उल्टी दिशा में चलेगी। ऐसे में हरेक प्लस मूलकण के ठीक उलट माइनस मूलकण बनेंगे। इससे मूलकण और प्रतिमूलकण एकदूसरे से जुड़कर एकदूसरे को निगल जाएंगे, और सृष्टि का अंत हो जाएगा। इसीको प्रलय कहते हैं। फिर लम्बे समय तक कोई तरंग नहीं उठेगी। इसे ही नारायण का योगनिद्रा में जाना कहा गया है। मतलब निद्रा में तो है, पर भी अपने पूर्ण आत्मजागृत स्वरूप में स्थित है। विज्ञान कहता है कि पार्टिकल के बनते ही एंटीपार्टिकल भी बन जाता है, पर वह कहीं गायब हो जाता है। हो सकता है कि सृष्टि के अंत में वे एंटीपार्टिकल दुबारा वापस आ जाते हों।

इस समय एंटीपार्टिकल गुरुत्वाकर्षण के रूप में हैं

मैं यह इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि कई वैज्ञानिक किस्म के लोग भी ऐसा ही कह रहे हैं। ग्रेविटी अंतरिक्ष में गड्ढे की तरह है। तरंग का आधा भाग भी गड्ढे की तरह होता है। दोनों किसी बल के कारण मिल नहीं पाते। इसलिए कण से निर्मित ग्रेविटी कण को अपनी तरफ खिंचती तो है, पर पूरी तरह उससे मिल नहीं पाती। जब तरंग का ऊपर का आधा भाग ही दिखता है, तो वह कण की तरह ही दिखता है। जब ग्रेविटी का गड्ढा भी उसके साथ देखा जाता है, तो वह कण तरंग रूप में आ जाता है। इसका मतलब है कि प्रलय के समय गुरुत्वाकर्षण ही सारी सृष्टि को निगल जाएगा।

क्वांटम ग्रेविटी का अस्तित्व है

उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि इलेक्ट्रोन, क्वार्क आदि मूलकणों की भी ग्रेविटी है। यह सूक्ष्म कण द्वारा निर्मित अंतरिक्ष के आभासी सूक्ष्म गड्ढे के जैसे एंटीपार्टिकल के रूप में है। इसे विज्ञान ढूंढ नहीं पा रहा है, पर क्वांटम ग्रेविटी के अस्तित्व को नकार भी नहीं पा रहा है।

मूल तरंग का पहला नोड प्रकृति है, और दूसरा नोड पुरुष है

ये चित्रोक्त बिंदू स्टैंडिंग वेव के दो नोड हैं। एक कोने पर ब्लू डॉट नेगेटिव या नॉर्थ पोल नोड है और दूसरे कोने पर रेड डॉट पॉजिटिव या साउथ पोल नोड है। दोनों तरफ को झूलती तरंग ही सृष्टि बनाने के लिए इच्छा या सोचविचार है। केंद्रीय रेखा ही ध्यान रूपी या भाव रूप सुषुम्ना है, जो सृष्टि बनाने का पक्का निश्चय है। इसीलिए कहते हैं कि ब्रह्मा ने ध्यान रूपी तप से सृष्टि को रचा। मतलब प्रकृति एक नोड है और पुरुष दूसरा नोड। वैसे भी सृष्टि की उत्पत्ति प्रकृति-पुरुष संयोग से मानी गई है। प्रकृति अंधेरा आसमान है, और पुरुष स्वयंप्रकाश आकाश है। दोनों शाश्वत हैं। प्रकृति नेगेटिव नोड है, और पुरुष पॉजिटिव नोड है। इन दोनों के बीच बनने वाली स्थिर तरंग ही सबसे छोटा मूलकण है। इस तरह के कण आकाश में पॉप आउट होते रहते हैं और उसीमें मर्ज होते रहते हैं। इनको किसी चीज से जब स्थिरता मिलती है तो ये आगे से आगे जुड़कर अनगिनत कण बनाते हैं। इससे सृष्टि का विस्तार होता है। इसका मतलब कि सृष्टि का प्रत्येक कण योग कर रहा है। पूरी सृष्टि योगमयी है।

मूलकण एक कुण्डलिनी योगी है, जो कुण्डलिनी ध्यान कर रहा है

सूक्ष्मतम तरंग की नोड से नोड के बीच की न्यूनतम दूरी प्लेँक लेंथ बनती है

वैज्ञानिकों को क्वार्क से छोटा कोई कण नहीं मिला है। यह भी हो सकता है कि क्वार्क से छोटी तरंगें भी हैं, जैसा कि स्ट्रिंग थ्योरी कहती है, पर वे क्वार्क के स्तर तक बढ़ कर ही अपने को कण रूप में दिखा पाती हैं। केवल कण के स्तर पर ही तरंगें पकड़ में आती हैं। हो सकता है कि सबसे छोटी तरंग प्लेंक लेंथ के बराबर है, जो सबसे छोटी लम्बाई संभव है। उस प्लेँक तरंग का एक नोड प्रकृति है, और दूसरा पुरुष। वैसे प्रकृति और पुरुष एक ही हैं, केवल आभासी अंतर है। इस तरह प्लेँक लेंथ भी वास्तविक नहीं आभासिक है। आकाश में तरंग भी तो आभासी ही हो सकती है, असली नहीं। प्रकृति मतलब मूलाधार से एक शक्ति की तरंग पुरुष मतलब सहस्रार की तरफ उठती है, मतलब देव ब्रह्मा योगरूपी तप के लिए ध्यान लगाते हैं। वह तरंग इड़ा और पिंगला के रूप में बाईं और दाईं तरफ बारी-बारी से झूलने लगती है, मतलब ब्रह्मा ध्यान में डूबने की कोशिश करते हैं। ध्यान थोड़ा स्थिर होने पर शक्ति की तरंग बीच वाली आभासी जैसी सुषुम्ना नाड़ी में बहने लगती है। इसीलिए कण भी आभासी या एज्यूम्ड ही है, असली तो तरंग ही है। इससे कुण्डलिनी चित्र मन में स्थिर हो जाता है, मतलब पहला और सबसे छोटा मूलकण बनता है। फिर तो आगे से आगे सृष्टि बढ़ती ही जाती है। आज भी तो सारी सृष्टि बाहर के खुले व खाली अंतरिक्ष की तरफ भाग रही है, मतलब वही मूल स्वभाव बरकरार है कि प्रकृति से पुरुष की तरफ जाने की होड़ लगी है। सृष्टि की हरेक वस्तु और जीव का एक ही मूल स्वभाव है, अचेतनता से चेतनता की ओर भागना।

मूलकण