दोस्तों, पिछली पोस्ट को जारी रखते हुए, वह बलिरूपी अहंकार वामन को मजबूरन आने देता है, और उसे अंदेशा भी हो जाता है कि वह कुंडलिनी जागरण के बाद बच नहीं सकता। वैसे महिमा ऐसे गाई गई है कि राजा बलि सबसे बड़ा दानवीर था, जिसने अपना भावी नाश जानते हुए भी वामन को तीन पग जमीन दान में दी। हरेक जीव राजा बलि की तरह परम दानवीर होता है। वह यह जानकर कि कुंडलिनी योग से उसका अहंकार नष्ट हो जाएगा, उसका असीमित भौतिक संसार नष्ट हो जाएगा, फिर भी वह कभी न कभी जरूर कुंडलिनी साधना करता है। जब आदमी राजा बलि की तरह अच्छे कर्मों में लगा होता है, तब कभी न कभी भगवान विष्णु उसका भला करने एक ध्यानचित्र के रूप में उसके पास आते हैं। वे मित्र, प्रेमी, गुरु या देवता किसी भी रूप में हो सकते हैं। गुरु को भी तो भगवान का ही रूप समझा जाता है। वैसे भी हर किसी के लिए अपना प्रेमी भगवान ही होता है। उदाहरण के लिए मान लो कि किसी पुरुष की जिंदगी में एक स्त्री का प्रवेश होता है। पुरुष के बीसों कारोबार होते हैं, और सैंकड़ों रिश्ते। उनके कारण उसके मन में अनगिनत विचारचित्र बने होते हैं। इसलिए वह उस स्त्री को हल्के में ले लेता है, और सोचता है कि उसके विस्तृत भौतिक संसार के सामने एक स्त्री कुछ भी नहीं है। वह उसे अपने मन में जगह बनाने देता है, मतलब वह उससे जुड़े भाव या सत्त्वगुणरूपी पहले कदम, गति या रजोगुणरूपी दूसरे कदम, और अंधकार या तमोगुणरूपी तीसरे कदम को अपने मनरूपी साम्राज्य में पड़ने देता है। पर धीरेधीरे उसका उसके प्रति प्यार बढ़ता रहता है, और समय के साथ वह उसके मन में ज्यादा से ज्यादा जगह घेरती रहती है। आखिर में वह उसके पूरे साम्राज्य में फैल जाती है, और फिर जागृत होकर आदमी के राजाबलिरूपी अहंकार को खत्म ही कर देती है। कुंडलिनी योग में भी ऐसा ही होता है। इसका मतलब है कि योग और प्रेम के बीच में तत्त्वतः कोई अंतर नहीं है। राजा बलि भी बहुत बड़ा यज्ञ मतलब अच्छा काम ही कर रहा था। आदमी को पता चल जाता है कि वह ध्यानचित्र के चक्कर में पड़कर बावला प्रेमी या योगी या प्रेमयोगी या प्रेमरोगी बन जाएगा, फिर भी वह उसे अपनाता है, और आगे बढ़ाता है। उसने कुण्डलिनी जागरण के माध्यम से एक कदम से मतलब सत्वगुण से सारा स्वर्ग कब्जे में कर लिया। स्वर्ग सतोगुण प्रधान होता है। क्योंकि कुंडलिनी जागरण के समय तीनों गुण अनंत हो जाते हैं, इसीलिए कहा गया है कि कुंडलिनी या वामन से तीनों लोक पूरी तरह से व्याप्त हो गए मतलब भर गए। दूसरे कदम मतलब रजोगुण से कुण्डलिनी चित्र पूरी धरती में फैल गया, क्योंकि धरती रजोगुणप्रधान है। तमोगुणरूपी तीसरे कदम से अहंकार व उससे जुड़े कर्मविचार मूलाधार के अँधेरे अवचेतन अर्थात पाताल में चले जाते हैं। क्योंकि तमोगुण किसी को मारकर या नष्ट करके ही बनता है, इसलिए वह अहंकार और उससे पोषित मानसिक सृष्टि को नष्ट करने से बनता है। पाताल लोक के द्वारपाल के रूप में भगवान विष्णु के स्थित हो जाने का मतलब है कि ध्यानचित्र कुंडलिनीयोग के माध्यम से उन राक्षसों को अर्थात अवचेतन में दबे विचारों को ऊपर अर्थात मस्तिष्क या स्वर्ग की तरफ जाने देकर शुद्ध करता रहता है, ताकि सब देवता ही बन जाएं। साथ में, विष्णुस्वरूप ध्यानचित्र को कुंडलिनी योग से स्वाधिष्ठान और मूलाधार चक्रों पर केंद्रित किया जाता रहता है, जिससे उनमें दबी हुई राक्षसरूपी भावनाएं उजागर होकर उसके संपर्क में आने से शुद्ध बनी रहती हैं, जिससे वे योगी को बंधन में नहीं डाल पातीं, मतलब राक्षस देवताओं को परेशान नहीं कर पाते, क्योंकि शरीर में ही सभी देवता बसे हुए हैं। वैसे भी स्वाधिष्ठान चक्र को इमोशनल बैगेज मतलब भावनाओं की गठरी कहते हैं।
यज्ञ में बलि के पुरोहित बने हुए राक्षसगुरु शुक्र आचार्य पहले बलि को बहुत समझाते हैं कि वह वामन पर भरोसा न करे क्योंकि वह तीन कदमों में ही उसका सबकुछ छीन लेंगे। पर जब बलि नहीं मानता तो शुक्राचार्य संकल्पजल गिरा रहे शंख के सुराख़ में घुस जाते हैं, पर वामन उसमें कुशा डालकर उसकी आंख फोड़ देते हैं? एक बात और, क्योंकि शंख भी जीव की पीठ पर होता है, और रीढ़ की हड्डी की तरह ही उसे सुरक्षा देता है, इससे भी पक्का हो जाता है कि सुषुम्ना नाड़ी को ही शंख कहा गया है। साथ में, शंख का आकार भी एक फन उठाए नाग या ड्रेगन के जैसा ही होता है, जिसकी समानता मेरुदंड व उसमें स्थित सुषुम्ना के साथ की जाती है। एक अनुभवी कुलपुरोहित कभी भी अपने यजमान को अध्यात्म के बीहड़ में नहीं खोने देना चाहता, बेशक उससे यजमान का फायदा ही क्यों न हो। उसे पता होता है कि अगर यजमान को सत्य का पता चल गया तो उसे ठगकर उससे यज्ञ आदि कर्मकांड के नाम पर पैसा ऐंठना आसान नहीं रहेगा। हालांकि अपनी जगह पर कर्मकाण्ड सही है और जागरण के लिए महत्त्वपूर्ण सीढ़ी है, पर मंजिल मिलने पर कौन सीढ़ी की परवाह करता है। वैसे भी वह भौतिकवादी गुरु है। शुक्राचार्य अर्थात भौतिक विज्ञानवादी व्यक्ति या गुरु द्वारा शुक्र अर्थात वीर्य को बाहर बहा कर सुषुम्ना के शक्ति प्रवाह को ब्लॉक करना ही शंख में घुसना है। वामन का उसको कुशा डंडी द्वारा खोलना ही योगी द्वारा कुण्डलिनी ध्यानचित्र के माध्यम से मूलाधार से शक्ति को ऊपर चढ़ाना है। यह मूलाधार से लेकर सहस्रार तक फैली हुई संवेदना की रेखा जैसी होती है जो रीढ़ की हड्डी में होती है। यह झाड़ू या कुशा की सींक जैसी पतली फील होती है। यही सुषुम्ना जागरण है। अगर संभोग से पहले पीठ की विशेषकर मेरुदंड की ढंग से मालिश करवा ली जाए, तो यह संवेदना रेखा आसानी से और आनंद के साथ महसूस होती है। फिर वीर्य शक्ति आसानी से ऊपर चढ़ती है, जिससे संभोग बहुत आनंदमय और आध्यात्मिक बन जाता है। यौनांगों का दबाव भी एकदम से खत्म हो जाता है। आदमी अक्सर ऐसा कुंडलिनीजनित आनंद के लालच से प्रेरित होकर करता है, इसीलिए मिथक कथा में कहा गया है कि वामन ने ऐसा किया। इससे शुक्राचार्य की आंख फूटना मतलब कुण्डलिनी के प्रभाव से वीर्यशक्ति की द्वैत दृष्टि अर्थात दोगली नजर नष्ट होना है। जब वीर्यशक्ति द्वैत से भरे संसार की तरफ न बहकर अद्वैत से भरी आत्मा की तरफ बहेगी, तो स्वाभाविक है कि वीर्यशक्ति की दोगली नजर नष्ट होगी ही। बलि या अहंकार पाताल को चला जाता है, मतलब कुंडलिनी जागरण के बाद आदमी व्यक्त अर्थात प्रकाशमान जगत का अहंकार नहीं कर सकता क्योंकि उसने सबसे अधिक प्रकाशमान कुंडलिनी जागरण का अनुभव कर लिया है। इसलिए वह स्थूल जगत से उपरत सा होकर अपने सूक्ष्म शरीर के रूप में अव्यक्त अन्धकार सा बन जाता है। यही उसका पातालगमन है। हालांकि सूक्ष्म शरीर के धीरे-धीरे स्वच्छ होने से स्वच्छ होता रहता है। इसे ही ऐसे कहा गया है कि भगवान विष्णु उसके द्वारपाल के रूप में पहरा देते हैं।
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कुंडलिनीपरक संभोग योग ही मस्तिष्क को जागरण के लिए तैयार करती है
दोस्तों, पिछली पोस्ट में कुंडलिनी ध्यान और मनोरोग के बीच तुलनात्मक अध्ययन के बारे में बात हो रही थी। उसी कड़ी में ऐसा भी लगता है कि ऐसे मनोरोगियों का इलाज प्रेमचिकत्सा से भी हो सकता है। इसलिए अक्सर यह कहावत आम है कि प्यार व्यक्ति को नशामुक्ति में मदद करता है। प्यार एक सुपरटोनिक है। मानसिक रोग हमेशा ही बुरे नहीं होते, जैसी कि आम मान्यता है, पर एक गॉडगिफ्ट भी हो सकते हैं। संभवतः हिंदु धर्म में इसीलिए मानसिक रोगियों को विशेष दैवीय नजरिए से देखा जाता है, सम्मान से देखा जाता है। यहां उन्हें मानसिक हस्पताल कम ही भेजा जाता है, जब तक कोई गंभीर खतरा ही पैदा न हो जाए। वे मनोरंजन का मुख्य स्रोत होते हैं, और समारोह आदि में आकर्षण का मुख्य बिंदु होते हैं। फिर भी ज्यादातर उनके साथ सम्मानजनक व्यवहार किया जाता है, और उन्हें पीड़ा नहीं पहुंचाई जाती। उन्हें समाज पर बड़ा बोझ भी नहीं समझा जाता।
मुझे लगता है कि मूलाधारवासिनी कुंडलिनी शक्ति मस्तिष्क को दबाव झेलने में सक्षम बनाती है। यह शायद रक्तवाहिनियों का लचीलापन बढ़ाकर उन्हें ज्यादा और बिना दबाव के रक्त प्रवाह बढ़ाने में मदद करती है। विचित्र सा लगता था जब ध्यान के नाम से ही आम लोग सिर पकड़कर बैठ जाते थे, पर मेरे मस्तिष्क में हर समय ध्यान–समाधि लगी होती थी, यौनयोग के बल से। जब मुझे क्षणिक कुंडलिनी जागरण हुआ था, उस समय मैं तांत्रिक यौनयोग के पूरे प्रभाव में था। नहीं तो वह मुझे होता ही न। शरीर को पता होता है कि अपने साथ कब क्या करना है। इसने तभी जागृति के लिए बैक चैनल पूरी तरह से खोली, जब मस्तिष्क दो तीन महीनों से लगातार यौनयोग की कुंडलिनी शाक्ति के प्रभाव में रहकर ज्यादा से ज्यादा दबाव झेलने में सक्षम बन गया था। मैंने अनजाने में कुंडलिनी को इसलिए नीचे नहीं उतारा कि मैं उसका दबाव सहन नहीं कर पा रहा था, बल्कि इसलिए क्योंकि मुझे यह भय था कि कहीं मैं भौतिक रूप से पिछड़ न जाऊं। क्योंकि ऐसा ही मेरा एक पुराना अनुभव भी था। यह ऑर्गेज्मिक शक्ति पता नहीं क्या जादू करती है। यह एक आन्नदमयी शक्ति है।
सेक्सुअल यिनयांग एकदूसरे के प्रति समर्पण से बढ़ता है। इसीलिए समर्पण भाव पर बहुत जोर दिया जाता है। होता क्या है कि एकदूसरे के प्रति पूरे समर्पण से ही यिन और यांग आपस में एकदूसरे से पूरी तरह से मिश्रित हो पाते हैं। यौन समर्पण से बड़ा भला कौनसा समर्पण हो सकता है। यिनयांग तो हरेक वस्तु में होता है, पर समर्पण केवल पुरुष और स्त्री के ही बीच में होता है। जितना निकटता और अंतर्संबंध एक प्रेमी पुरुष और स्त्री के जोड़े के बीच बनता है, उतना किसी और के बीच में नहीं बनता। इसीलिए प्रेमसंबंध और समर्पण से भरा हुआ संभोग ही सर्वोत्तम यिनयांग एकत्व का भंडार है। इसलिए स्वाभाविक है कि यही भौतिक और आध्यात्मिक प्रगति का भी सर्वोत्तम आधार है। यिनयांग ही पूर्णता है, कुंडलिनी जागरण ही पूर्णता है, ईश्वरत्व ही पूर्णता है। भौतिक संसार भी इसी पूर्णता के अंतर्गत आता है, इससे अलग नहीं है।
कुंडलिनी ध्यान व मानसिक रोग के बीच तांत्रिक यौन ऊर्जा की एक पतली दीवार होती है
पिछली पोस्ट को जारी रखते हुए, केवल प्रह्लाद ही हिरण्यकशिपु को मनाने गया, क्योंकि वह किसी भी देवता के मनाने से नहीं मान रहा था। जागृति के बाद अक्सर ऐसा ही होता है। इसे ऐसे समझ लो कि अनंत चेतना से गिरा हुआ आदमी बहुत तेजतर्रार और क्रियाशील होता है। वह बाकि लोगों को भी रास्ते पर लाने की कोशिश करेगा क्योंकि कोई भी आदमी समाज के बिना आगे नहीं बढ़ सकता। वैसे ऐसा ज्यादातर तभी होता है, जब आदमी को जागृति उस समय मिलती है, जब वह स्वस्थ ऊर्जा से भरा होता है, जैसे किशोरावस्था और यौनावस्था। एक बीमार, कमजोर और बूढ़ा व्यक्ति समाज को कैसे बदल सकता है, वह तो अपने को भी बदल ले, तो भी काफी है। जब प्रह्लाद को जागृति मिली, उस समय वह ऊर्जावान बचपन की अवस्था में था। ऐसी अवस्था में उससे लोग ईर्ष्या करेंगे, उसपर क्रोध करेंगे, उसको सता भी सकते हैं, जैसा यीशु के साथ भी हुआ था। इससे समाज को पाप लग सकता है, जिससे उसमें रह रहे लोगों की दुर्गति हो सकती है। मतलब अपनी तरफ से तो लोग जागृति को शांत करने की कोशिश करते हैं, क्योंकि लोगों के विभिन्न अंगों के रूप में देवता उनके शरीर में ही स्थित हैं। देवता कभी नहीं चाहते कि कोई भी साधु जैसा बन जाए, क्योंकि वे तो जगत को भड़काने और विस्तार देने का काम करते हैं। पर साधु जगत को शांत करता है। इसलिए लोग उसे कुंडलिनी योग करने के लिए प्रेरित करते हैं। यह खुद भी होता है, जब लोग उसे बहिष्कृत सा कर देते हैं। फिर अकेलेपन के उबाऊ माहौल में जागृत व्यक्ति कुंडलिनी ध्यान नहीं करेगा, तो क्या करेगा। दूसरों को तो ध्यानचित्र दिखता नहीं है। वे तो अंदाजा लगाते हैं कि वह डरावना भूत है। जैसा देवताओं ने शेररूप नरसिंह कल्पित कर लिया। पर प्रह्लाद तो उसे जानता था कि वह तो परम प्रेमी व हितैषी है, कोई काल्पनिक भूत वगैरह नहीं। शायद लोग पागलपन या हैलूसिनेशन या भूतप्रेतबाधा या अवसाद या नशे आदि की अवस्थाओं से भी ध्यानसाधना की तुलना करते हैं, बेशक अनजाने में ही, अवचेतन मन में सदियों से पले हुए भ्रम के कारण। और हां, प्यार में धोखा खाया हुआ आदमी भी तो इसी तरह एक भ्रष्ट ध्यानयोगी की तरह अपने प्रेमी की याद में पगलाया जैसा रहता है। सम्भवतः इसीलिए जल्दी से कहीं उसकी शादी कराने पर जोर दिया जाता है, ताकि उसे तांत्रिक यौनबल से कुछ सहारा मिल सके। अधिकांश फिल्में इसी मामले पे तो बनी होती हैं। अजीब लोचा है भाई। कहीं एकबार मैने गलती से तंबाकू खा ली थी, एकबार भांग, और एकबार गुस्सा कम करने की दवाई। तीनों ही स्थितियों में मेरे मस्तिष्क में ध्यानचित्र छलांगें लगा रहा था। हैलुसिनेशन की हद तक असली आदमी की तरह स्पष्ट लग रहा था। पर यह डलनेस और मूर्खता के साथ था। आनंद भी कम था। कुछ अवसाद जैसा भी था। किसी से बात न करने अपनी ही पागल जैसी मस्ती में रहने को मन करता था। सिर में दबाव के साथ कुछ थकान व बेचैनी भी थी। योग में शारीरिक स्वास्थ्य को उत्तम बनाए रखने पर भी इसीलिए जोर दिया जाता है। मुझे लगता है कि ध्यानचित्र के आनंद में मूलाधार की सम्भोगीय संवेदना का बहुत बड़ा योगदान है। यह ध्यानचित्र से जुड़े तथाकथित नकारात्मक और अवसादीय लक्षणों को खत्म करके आदमी को सामान्य से भी ज्यादा सही ढंग से सामान्य अर्थात स्वस्थ बना देती है। शायद यह यिनयांग से ही पैदा होती है, क्योंकि बिना जोड़े के संवेदना का कोई अर्थ जैसा नहीं रह जाता। यही संवेदना मस्तिष्क को कुंडलिनी जागरण का दबाव सहने में सक्षम बनाती है, क्योंकि दोनों का स्वभाव एकजैसा ही है। अर्थात आनंदरूप। जहां भ्रम रूप में चीजों के दिखने के पीछे मानसिक रोग या मानसिक थकान या मानसिक रसायनों की गड़बड़ी या अन्य मानसिक अनियमितता आदि मुख्य रूप में वजह होते हैं, वहीं ध्यान या कुंडलिनी जागरण की अवस्था में मन बिल्कुल स्वस्थ व तरोताजा होता है, यहां तक कि एक आम तंदुरुस्त आदमी से भी ज्यादा। जहां मानसिक रोग की हालत में आदमी काम करने में अक्षम जैसा होता है, वहीं दूसरी ओर ध्यान की अवस्था में पूरी तरह से सक्षम होता है, यहां तक कि एक आम इंसान से भी ज्यादा। जहां ध्यान की अवस्था में आदमी को दुनियावी कामों और संकल्पों के प्रति साक्षीभाव के कारण आनंद मिलता है, वहीं मानसिक रोगी को नहीं। इसीलिए वह उद्विग्न और मुरझाया सा दिखता है। साक्षीभाव तो वह तब करेगा न जब उसके लिए उसके मस्तिष्क में दुनियावी कामों के तंदुरुस्त संकल्प बनेंगे। पर अक्सर ऐसा होता नहीं है। सच्चाई यही है कि एक स्वस्थ आदमी ही स्वस्थ ध्यान कर सकता है। जब योगी कुंडलिनी ध्यान में आनन्दमग्न रहने लगता है, तब लोग उसके तथाकथित पागलपन से छुटकारा पाकर अपनेअपने कामधंधों में पूर्ववत आसक्ति और जोशखरोश से लग जाते हैं, जिससे देवता खुश हो जाते हैं। इसीको ऐसे कहा गया है कि प्रह्लाद ने नृसिंह भगवान को स्तुति से प्रसन्न किया। इससे क्रोध छोड़कर वे शांत हो गए, जिससे देवता और संसार नष्ट होने से बच गए।
कुण्डलिनीयोगानुसार शरीर कभी भी नहीँ मरता, कभी यह दिखता है, कभी नहीं दिखता, रहता हमेशा है, अनुभव के रूप में

मित्रों, मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि कैसे मन की गतिशीलता पतंग की उड़ान की तरह है। ऐसा लगता है कि प्राणायाम पतंग की डोरी को नियंत्रित गति देने की तरह है, जिससे पतंगरूपी मन अच्छे से और आत्मविकासरूपी आनंद पैदा करते हुए उड़ सके। मुझे तो यहाँ तक लगता है कि जो आनंद यौनक्रीड़ा के दौरान आता है, उसमें भी अनाच्छादित अर्थात नग्न शरीर के सम्पूर्ण उद्घाटन का काफी योगदान है। उसमें तो अन्नमय शरीर और प्राणमय शरीर दोनों एकसाथ उच्चतम अभिव्यक्ति के करीब होते हैं। कई लोग बोलते हैं कि असली प्यार मन से होता है, शरीर से नहीं। ये क्या बात हुई। सीधे कोई कैसे बाहरी तहखानों को लांघे बिना ही सबसे अंदरूनी तहखाने में पहुंच सकता है। जब लड़की के शरीर से हल्की यौन छेड़छाड़ होती है, बेशक अप्रत्यक्ष या मानसिक रूप में ही, तब लड़की का अन्नमय कोष सक्रिय हो जाता है। होली पर इसका अच्छा मौका मिलता है, उसे गवाएं नहीँ। हाहा। उसे पहली बार अपने शरीर की सबसे गहरी पहचान महसूस होती है। वह शरीर से ज्यादा ही सक्रिय व क्रियाशील होने लगती है। उसके मुख पर लाली और मुस्कान छा जाती है। इससे उसका प्राणमय कोष भी सक्रिय हो जाता है। प्राणों से उपलब्ध शक्ति को पाकर उसका मन रंगीनियों में बहुत दौड़ता है। वह हसीन सपने देखती है। सपनों में विभिन्न लोकों और परलोकों का भ्रमण करती है। इससे उसका मनोमय शरीर भी सक्रिय हो जाता है। क्योंकि यौन आकर्षण के कारण उसका ध्यान हर समय अपने शरीर और प्राणों पर भी बना रहता है, इसलिए उसका विज्ञानमय कोष भी खुद ही सक्रिय बना रहता है। उससे स्वाभाविक है, आनंदमय शरीर भी सक्रिय ही रहेगा। यह सब चेन रिएक्शन की तरह ही है। यही तो प्रेमानन्द है। यह आनंदमय कोष लम्बे समय तक सक्रिय बना रहता है। उसके पूरा खुल जाने के बाद तो आत्मा ही बचता है पाने को। वह भी विवाह के बाद तांत्रिक कुण्डलिनीयोग आधारित सम्भोगयोग से मिल ही जाता है। ऐसा नहीं कि यह स्त्री के साथ ही होता है। पुरुष के साथ भी ऐसा ही होता है। मुझे तो लगता है कि स्त्री की लावण्यमयी भावभंगिमा को देखकर जो पुरुष का तन और मन उससे देहसंबंध बनाने को उछालें मारने लगता है, वही उसके प्राणों का क्रियाशील होना है। यह अलग बात है कि कोई उस प्राणशक्ति का सदुपयोग करता है, तो कोई दुरुपयोग। कोई उसे आध्यात्मिक विकास में लगाता है, कोई भौतिक विकास में, और कोई संतुलित रुप से दोनों में।
थोड़ा मन की पतंग को उड़ने दें, एकदम न उतारें। हल्की सी तिरछी सी यह भावना रखें कि यह जुड़ी है। फिर थोड़ी देर बाद पतंग खुद आराम से लैंड करेगी। कोई झटका नहीँ लगेगा। मजा भी आएगा। लैंड होके उसे वापस भी जाने दें इच्छानुसार। खुद वापिस आएगी। अगर पतंग तूफानी जोर से ऊपर जा रही हो, और आप उसे जबरदस्ती नीचे खींचोगे, तो या तो पतंग फट सकती है, या धागा टूट सकता है। दोनों कमजोर तो पड़ेंगे ही, और उन पर दबाव भी बनेगा। ऐसा ही मन के साथ भी जबरदस्ती कर के होता है।
जिस समय दिमाग में थकान, दबाव या सिरदर्द जैसी हो रही हो, उस समय कपालभाति जैसी साँस खुद चलती है। उससे बाहर निकलती साँस पर ध्यान जाता है, जिससे कुण्डलिनी नीचे उतरती है। मतलब बाहर निकलती साँस धागे को नीचे खींचने मतलब खींच की तरह है, जिससे उड़ती हुई मनरूपी पतंग नीचे आती है, और दिमागी थकान रूपी तेज तूफ़ान से फटने से बचती है ।
विचारों के प्रकाश में ही नहीं, उनके अभाव के अंधकार में भी अनुभव शरीर से ही जुड़ा होता है, क्योंकि कुछ न कुछ मस्तिष्क की हलचल उसमें भी रहती ही है। यहाँ तक कि मृत्यु के बाद भी आत्मा का जो विशेष रूप में अनुभव होता है, वह भी शरीर से ही जुड़ा होता है, क्योंकि वह शरीर से ही निर्मित हुआ है। इसका मतलब है कि शरीर कभी भी नहीँ मरता। कभी यह दिखता है, कभी नहीं दिखता, रहता हमेशा है, अनुभव के रूप में।
कुण्डलिनीयोगानुसार क्वांटम एन्टेंगलड पार्टिकल्स डार्क मैटर से आपस में ऐसे ही जुड़े होते हैं जैसे दो प्रेमी सूक्ष्मशरीर से आपस में जुड़े होते हैं
दोस्तों, सूक्ष्मशरीर से सम्पर्क अक्सर होता रहता है। जिससे प्रेमपूर्ण संबंध हो, उसके सूक्ष्मशरीर से सम्पर्क जुड़ा होता है। इसी तरह जिसके सूक्ष्मशरीर से सम्पर्क जुड़ा होता है, उससे प्यार भी होता है। खाली स्थूलशरीर से प्यार नहीं हो सकता। सऊलमेट को ही देख लो। उनको ऐसा लगता है कि वे एकदूसरे की मिरर इमेज़ हैं। बेशक उनकी शक्ल आपस में न मिलती हो, पर उनके मन आपस में बहुत ज्यादा मेल खाते हैं। उनमें एक लड़का होता है, और एक लड़की। बेशक यौन आकर्षण भी उन्हें एकदूसरे के नजदीक लाते हैं, पर इससे एकदूसरे से नजदीकी से रूबरू ही हो सकते हैं, इससे प्यार पैदा नहीँ किया जा सकता। तभी तो आपने देखा होगा कि आदमी सेक्स से संतुष्ट ही नहीं होता। यदि सम्भोग में प्यार पैदा करने की शक्ति होती तो आदमी का कभी तलाक न हुआ करता, आदमी एक से ज्यादा शादियां न करता, और न ही एक से ज्यादा महिलाओं से यौनसंबंध बनाता। मुझे लगता है कि सेकसुअल सम्पर्क एक निरीक्षण अभियान है, जिससे आदमी नजदीक जाकर यह पता लगाता है कि उसे अमुक से प्यार है कि नहीँ। यह अलग बात है कि कई लोग इस सर्वे में इतना गहरा घुस जाते हैं कि बाहर ही नहीं निकल पाते और मजबूरी में वहीं रहकर समझौता कर लेते हैं। कइयों को लगता होगा कि मैं विरोधी बातें करता हूँ। मैं ओपन माइंड रहना पसंद करता हूँ, किसी भी विशेष सोच से चिपके रहना नहीं। कई जगह मैंने कहा है कि संभोग में प्यार को पैदा करने की शक्ति है। यह भी सही है, पर शर्त लागू होती है। इसके लिए काफी समय, प्रयास व संसाधनों की आवश्यकता होती है। जब बना बनाया खाना मिलने की उम्मीद हो, तो खुद क्यों बनाना भाई।
गहरे स्त्रीपुरुष प्यार में सूक्ष्मशरीर बेशक आपस में जुड़े हों, पर वे एकदूसरे से बदले नहीँ जा सकते। गहरे प्यार में एकदूसरे से टेलीपेथीक सम्पर्क बन जाता है, एकदूसरे की सोच और जीवन एकदूसरे को प्रभावित करने लगते हैं। अगर एक पार्टनर कुछ सोचे तो दूसरे के साथ वैसा ही होने लगता है, बेशक वह कितना ही दूर क्यों न हो। मतलब साफ है कि वे एकदूसरे के सूक्ष्मशरीर से प्रभावित होते हैं। पर पता नहीँ क्यों तीसरे सूक्ष्मशरीर के अखाड़े में प्रवेश करने से सभी परेशान होने लगते हैं। हाहा। इससे यह भी सिद्ध होता है कि सूक्ष्मशरीर अनंत आकाश की तरह सर्वव्यापी है। एकबार मेरे विश्वविद्यालय के मित्र के पिता का देहावसान हुआ था। उनसे मैं कई बार प्रेमपूर्ण माहौल में मिला भी था। वह मुझसे सैंकड़ों किलोमीटर दूर थे। मुझे कुछ पता नहीँ था। उसी रात मुझे नींद में अपने पिता की मृत्यु की जीवंत तस्वीर दिखी थी। मैं उसकी वजह नहीँ समझ पा रहा था। अगले दिन जब मुझे खबर मिली तब बात समझ में आई। उस दौरान मैं गहन तांत्रिक कुण्डलिनी योग अभ्यास करता था, संभवतः उससे ही इतना जीवंत महसूस हुआ हो। लगता है कि क्वांटम एन्टेंगलमेंट भी यही है। दोनों एन्टेंगलड क्वांटम पार्टिकल्स आपस में सूक्ष्मशरीर जैसी चीज से जुड़े हो सकते हैं। यह तो जाहिर ही है कि दृश्य ब्रह्माण्ड के आधार में डार्क मैटर और डार्क एनर्जी से भरा अनंत अंतरिक्ष होता है। यह भी पता है कि वही दृश्य जगत के रूप में उभरता है, उसी के नियंत्रण में रहता है, और नष्ट होने पर वही बनकर उसी में समा जाता है। इसका मतलब है कि डार्क मेटर और दृश्य जगत केवल आपस में बारबार रूप बदलता रहता है, कभी न तो कुछ नया बनता है, और न ही बना हुआ नष्ट होता है। यह दुनिया पहले भी हनेशा थी, आज भी है, और आगे भी हमेशा रहेगी। इसमें रोल प्ले करने वाले नए-नए कलाकार आते रहेंगे, और मुक्तिरूपी परमानेंट नेपथ्य में जाते रहेंगे। एन्टेंगलड क्वांटम पार्टिकल्स का सूक्ष्मशरीर एक ही होता है। वह सूक्ष्म शरीर उन पार्टिकल्स का डार्क मेटर है, जिससे वे बने हैं। इसीलिए जब एक पार्टिकल से छेड़छाड़ होती है, तो वह दूसरे को भी उसी समय प्रभावित करती है, बेशक वे दोनों एकदूसरे से कितनी ही दूरी पर क्यों न हो, बेशक एक कण गेलेक्सी के एक छोर पर हो और दूसरा दूसरे छोर पर। इसका मतलब है कि हरेक फंडामेन्टल पार्टिकल का अपना अलग डार्क मेटर है, जो अनंत अंतरिक्ष में फैला होकर अनंत अंतरिक्षरूप ही है। इसी तरह जैसे हरेक जीव एक अलग अनंत अंतरिक्षरूप है, अपनी किस्म का। जैसे आदमी का हरेक क्रियाकलाप उसके सूक्ष्मशरीर में दर्ज हो जाता है, और उसीके अनुसार वह उसीके जैसा बारबार बनाता रहता है, उसी तरह हरेक मूलकण का हरेक क्रियाकलाप उसके डार्क मेटर में दर्ज होता रहता है। प्रलय के बाद जब पुनः सृष्टि प्रारम्भ होने का समय आता है, तब उस डार्क मेटर से पुनः वह मूलकण बन जाता है, और उसमें दर्ज सूचनाओं के अनुसार आगे से आगे सृष्टि निर्माण करने लगता है। इसी तरह से सभी मूलकणों के सहयोग से सृष्टि पुनः निर्मित हो जाती है। शास्त्रों में इसे ऐसे कहा है कि पहले ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई, उनसे प्रजापतियों की उत्पत्ति हुई आदि-आदि। मतलब शास्त्रों में भी मूलकणों को मनुष्यों का रूप दिया गया है, क्योंकि दोनों के स्वभाव एकजैसे हैं। लगता है कि भौतिक विज्ञान सूक्ष्मशरीर को अलग तरीके से समझ रहा है। इसके अनुसार एन्टेंगलड क्वांटम पार्टिकल्स की तरंग आपस में जुड़ी होती है। वह अनंत अंतरिक्ष की दूरी तक भी आपस में जुड़ी ही रहती है।
फिर कहते हैं कि दो मूलकणों को एन्टेगल किया जा सकता है, अगर उन्हें एकदूसरे के काफी नजदीक कर दिया जाए। सम्भवतः इससे उनके डार्क मेटर आपस में एकदूसरे तक पहुंच बना लेते हैं। यह ऐसे ही है, जैसे दो नजदीकी प्रेमियों के सूक्ष्मशरीर एकदूसरे तक पहुंच बना लेते हैं, जैसा ऊपर बताया गया है।
उपरोक्त विवरण से कुछ वैज्ञानिकों और शास्त्रों का यह दावा भी सिद्ध हो जाता है कि भूत, भविष्य और वर्तमान सब आपस में जुड़े हैं, मतलब समय का अस्तित्व नहीं है। जो आज हो रहा है, और जो आगे होगा, वैसा ही पहले भी हुआ था, कुछ अलग नहीँ। सबकुछ पूर्वनिर्धारित है। हालांकि आदमी के कर्म और प्रयास का महत्त्व भी है।
कुंडलिनी-ध्यानचित्र का वाममार्गी तांत्रिक यौनयोग में महत्त्व
मित्रो, मैं इस पोस्ट में शिवपुराण में वर्णित राक्षस अंधकासुर, दैत्यगुरु शुक्राचार्य, देवासुर संग्राम और शिव के द्वारा देवताओं की सहायता का रहस्योदघाटन करूंगा।
शिवपुराणोक्त अन्धकासुर कथा
एक बार भगवान शिव पार्वती के साथ काशी से निकलकर कैलाश पहुंचते हैं, और वहाँ भ्रमण करने लगते हैं। एकदिन शिव ध्यान में होते हैं कि तभी देवी पार्वती पीछे से आकर उनके मस्तक पर हाथ रखती हैं, जिससे शिव के माथे की गर्मी से उनकी अंगुली से एक पसीने की बूंद जमीन पर गिर जाती है। उससे एक बालक का जन्म होता है, जो बहुत कुरूप, रोने वाला और अंधा होता है। इसलिए उसका नाम अंधकासुर रखा जाता है। उधर राक्षस हिरण्याक्ष पुत्र न होने से बहुत दुखी रहता है। वह शिव को प्रसन्न करने के लिए घोर तप करता है, और उनसे पुत्र-प्राप्ति का वर मांगता है। शिव अंधक को उसे सौंप देते हैं। वह शिवपुत्र अंधक की प्राप्ति से अति प्रसन्न और उत्साहित होकर स्वर्ग पर चढ़ाई कर देता है, जिससे देवता स्वर्ग से भागकर धरती पर छिप कर रहने लगते हैं। वह धरती को समुद्र में डुबोकर पाताल लोक में छुपा देता है। फिर भगवान विष्णु देवताओं की सहायता करने के लिए वाराह के रूप में अवतार लेकर हिरण्याक्ष को मार देते हैं और धरती को अपने दाँतों पर रखकर पाताल से ऊपर उठाकर पूर्ववत यथास्थान रख देते हैं। उधर बालक अंधक जब अपने भाई प्रह्लाद आदि अन्य राक्षस बालकों के साथ खेल रहा होता है, तो वे उसे यह कह कर चिढ़ाते हैं कि वह अंधा और कुरूप है इसलिए वह अपने पिता हिरण्याक्ष की जगह राजगद्दी नहीं संभाल सकता। इससे अन्धक दुखी होकर भगवान शिव को खुश करने के लिए घोर तप करने लगता है। वह धुएं वाली अग्नि को पीता है, अपने मांस को काटकाट कर हवनकुण्ड में हवन करता है। इससे वह हड्डी का कंकाल मात्र बच जाता है। शिवजी उससे प्रसन्न होकर उसके मांगे वर के अनुसार उसे बिल्कुल स्वस्थ व आँखों वाला कर देते हैं, और कहते हैं कि वह केवल तभी मरेगा जब किसी महान योगी की पतिव्रता स्त्री को अपनी स्त्री बनाने का प्रयास करेगा। वर से खुश और दंभित होकर अन्धक उग्र भोगविलास में डूब जाता है, अनेकों कामिनियों के साथ विभिन्न रतिवर्धक स्थानों में रमण करता है, और अपनी आयु का दुरुपयोग करता है। वह साधुओं और देवताओं पर भी बहुत अत्याचार करता है। वे सब इकट्ठे होकर भगवान शिव के पास जाते हैं। शिव उनकी मदद करने के लिए कैलाश पर पार्वती के साथ विहार करने लगते हैं। एकदिन अन्धक के सेवक की नजर देवी पार्वती पर पड़ती है, और वह यह बात अन्धक को बताता है। अंधक पार्वती पर आसक्त होकर शिव को गंदा तपस्वी, जटाधारी आदि कह कर उनका अपमान करता है और कहता है कि उतनी सुंदर नारी उसी के योग्य है, न कि किसी तपस्वी के। फिर वह सेना के साथ शिव से युद्ध करने चला जाता है। उसे शिव का गण वीरक अकेले ही युद्ध में हरा कर भगा देता है, और उसे शिवगुफा के अंदर प्रविष्ट नहीं होने देता। फिर शिव पाशुपत मंत्र प्राप्त करने के लिए दूर तप करने चले जाते हैं। मौका देखकर अंधक फिर हमला करता है। पार्वती अकेली होती है गुफा में। उसे वीरक भी नहीं रोक पा रहा होता है। डर के मारे पार्वती सभी देवताओं को सहायता के लिए बुलाती है, जो फिर स्त्री रूप में अस्त्रशस्त्र लेकर पहुंच जाते हैं। स्त्री रूप इसलिए क्योंकि देवी के कक्ष में पुरुष रूप में जाना उन्हें अच्छा नहीं लगता। घोर युद्ध होता है। अंधक का सैनिक विघस सूर्य चन्द्रमा आदि देवताओं को निगल जाता है। चारों ओर अंधेरा छा जाता है। हालांकि वे किसी दिव्य मंत्र के जाप से उसके मुंह में घूँसे मारकर बाहर भी निकल आते हैं। तभी शिव भी वहाँ पहुँच जाते हैं। उससे उत्साहित गण राक्षसों को मारने लगते हैं। पर राक्षस गुरु शुक्राचार्य अपनी संजीवनी विद्या से सभी मृत राक्षसों को पुनर्जीवित कर देते हैं। शिव को यह बात शिवगण बता देते हैं कि शुक्राचार्य उनकी दी हुई विद्या का कैसे दुरूपयोग कर रहा है। इससे नाराज होकर शिव उसे पकड़ कर लाने के लिए नंदी बैल को भेजते हैं। नंदी राक्षसों को मारकर उसे पकड़कर ले आता है। शिव शुक्राचार्य को निगल जाते हैं। वह शिव के उदर में बाहर निकलने का छेद न पाकर चारों तरफ ऐसे घूमता है, जैसे वायु के वेग से घूम रहा हो। वह वहाँ से निकलने का वर्षों तक प्रयास करता है, पर निकल नहीं पाता। फिर शिव उसे शुक्र अर्थात वीर्य रूप में अपने लिंग से बाहर निकालते हैं। इसीलिए उनका नाम शुक्राचार्य पड़ा।
दरअसल संजीवनी विद्या उन्हें एक बहुत पुराने समय में शिव ने दी होती है। वह एक बहुत सुंदर स्थान पर शिव का लिंग स्थापित करते हैं। उस पर वे शिव की कठिन अराधना करते हैं। अग्निधूम को पीते हैं, और कठिन तप करते हैं। उससे शिव लिंग से प्रकट होकर उन्हें संजीवनी विद्या देते हैं, और वर देते हैं कि वे भविष्य में उनके उदर में प्रविष्ट होकर उनके वीर्य रूप में जन्म लेंगे। वे लिंग का नाम शुक्रेश और उनके द्वारा स्थापित कुएँ का नाम शुक्रकूप रख देते हैं। वे भक्तों द्वारा उस कूप में स्नान करने का अमित फल बताते हैं।
अंधकासुर कथा का कुंडलिनी-आधारित विश्लेषण
शुक्र मतलब ऊर्जा या तेज। शुक्र, ऊर्जा और तेज तीनों एकदूसरे के पर्याय हैं। शुक्राचार्य को निगल गए, मतलब योगी शिव ने खेचरी मुद्रा में जिह्वा तालु से लगाकर कुंडलिनी ऊर्जा को आगे के नाड़ी चैनल से नीचे उतारा, जिससे वीर्यशक्ति के रूपान्तरण से निर्मित कुंडलिनी ऊर्जा मूलाधार चक्र से पीठ की सुषुम्ना नाड़ी से होते हुए ऊपर चढ़ गई। वायु के वेग से वे इधरउधर भटकने लगे, मतलब साँसों की गति से कुंडलिनी ऊर्जा माइक्रोकोस्मिक औरबिट लूप में गोल-गोल घूमने लगी। शुक्राचार्य को बहुत समय तक घुमाने के बाद योगी शिव ने उन्हें वीर्य मार्ग से बाहर निकाल दिया, मतलब बहुत समय तक शक्ति को चक्रोँ में घुमाते हुए व उससे चक्रोँ पर इष्ट देव या गुरु आदि के रूप में कुंडलिनी चित्र का ध्यान करने के बाद जब वह शक्ति क्षीण होने लगी मतलब शुक्राचार्य शिथिल पड़ने लगे, तब उसे वीर्यरूप में बाहर निकाल दिया। उन्हें योगी शिव ने पुत्र रूप में स्वीकार किया, मतलब कि जिसे ओशो महाराज कहते हैं, ‘संभोग से समाधि’, वह तरीका अपनाया। इस यौनतंत्र में सहस्रार चक्र के समाधि चित्र को स्खलन-संवेदना के ऊपर आरोपित किया जाता है। इससे वही बात हुई जैसी एक पिछली पोस्ट में लिखी गई है कि गंगा नदी के किनारे पर उगी सरकंडे की घास पर शिववीर्य से बालक कार्तिकेय का जन्म हुआ, मतलब शुक्राचार्य ने कार्तिकेय के रूप में शिवपुत्रत्व प्राप्त किया। उपरोक्त कथा के ही अनुसार सबसे प्रसिद्ध, प्रिय व शक्तिशाली लिंग शुक्रलिंग ही माना जाएगा, क्योंकि यह पूरी तरह से असली है, अन्य तो प्रतीतात्मक ज्यादा हैं, जैसे कोई पाषाणलिंग होता है, कोई पारदलिंग, तो कोई हिमलिंग आदि। शुक्रकूप आसपास में एक ठंडे जल का कुआँ है, जो संभोगतंत्र में सहयोगी है, क्योंकि जैसा एक पिछली पोस्ट में दिखाया गया है कि कैसे ठंडे जल से स्नान यौनऊर्जा को गतिशील व कार्यशील बनाने का काम करता है।
शुक्राचार्य जो राक्षसों को जिन्दा कर रहे थे, उसका यही मतलब है कि वीर्यशक्ति बाह्यगामी होने के कारण संसारमार्गी मानसिक दोषों, आसक्तिपूर्ण भावनाओं और विचारों को बढ़ावा दे रही थी। शिव ने नंदी को शुक्राचार्य को पकड़ कर लाने को कहा, इसका मतलब है कि नंदी अद्वैत भाव का परिचायक है क्योंकि वह एक ऐसा शिवगण है जिसमें बैल के रूप में पशु और गण के रूप में मनुष्य एक साथ विद्यमान है। वह एक यिन-यांग मिश्रण है। अद्वैत से कुंडलिनी शक्ति को मूलाधार से ऊपर चढ़ने में मदद मिलती है।
देवी पार्वती ने महादेव शिव की आँखें बंद कीं, इससे वे अंधे जैसे हो गए। इसको यह समझाने के लिए कहा गया है कि कोई भावी योगी अज्ञान वाली अवस्था में था, न तो उसे लौकिक व्यवहार का ज्ञान था, और न ही आध्यात्मिक ज्ञान। फिर वह इश्कविश्क़ के चक्कर में पड़ गया। उससे उसकी शक्ति तो घूमने लगी, पर वह बिना कुंडलिनी चित्र के थी। कुंडलिनी चित्र माने ध्यान चित्र आध्यात्मिक ज्ञान की उच्चावस्था में बनता है। आध्यात्मिक ज्ञान लौकिक ज्ञान व अनुभव के उत्कर्ष से प्राप्त होता है। ऐसा होने में जीवन का लम्बा समय बीत जाता है। ज्ञानविज्ञानरहित प्यार-मोहब्बत से क्या होता है कि आदमी यौन शक्ति को ढंग से रूपान्तरित और निर्देशित नहीं कर सकता, जिससे उसका क्षरण या दुरुपयोग होता है। वही दुरुपयोग अंधक नाम वाला पुत्र है। इसका सीधा सा अर्थ है कि अमुक भावी योगी ने शक्ति को घुमाया तो जरूर। ऐसा उक्त कथानक की इस बात से सिद्ध होता है कि पार्वती ने दोनों नेत्रों को एकसाथ बंद किया, मतलब यिन-यांग संतुलित हो गए। पर परिपक्वता की कमी से इस संतुलन से किंचित चमक रहे कुंडलिनी चित्र को समझ नहीं पाया और उसे जानबूझकर व्यर्थ समझ कर त्याग दिया। चमक बुझने से स्वाभाविक है कि अंधेरा छा गया, जिसे आँखों को बंद करने के रूप में दिखाया गया है। क्योंकि शक्ति से मस्तिष्क में जो उच्च स्पष्टता के साथ छवि बनती है, उसे ही पुत्र कहा जाता है, जैसे कि इस ब्लॉग की एक पोस्ट में सिद्ध भी किया गया था। बिना किसी भौतिक सहवास के असली या भौतिक पुत्र तो पैदा हो ही नहीं सकता, वह भी मिट्टी-पत्थर से भरी जमीन के ऊपर या सरकंडों के ऊपर। क्योंकि इस पोस्ट के भावी योगी के मस्तिष्क में उस शक्ति से अंधेरा ही घनीभूत हुआ, इसलिए उसे पुत्र अंधक के रूप में दिखाया गया। चूंकि अँधेरे से भरा व्यक्ति किसी को प्रिय व कार्यक्षम नहीं लगता, इसलिए इसे ऐसा दिखाया गया है कि वह अंधकासुर सबको अप्रिय था और उसके बालमित्र उसे राजगद्दी के अयोग्य बताकर उसका मजाक उड़ाते थे। स्वाभाविक है कि भावी योगी दुनिया में सम्मान, सुखसमृद्धि और यहाँ तक कि जागृति के रूप में सम्पूर्णता को प्राप्त करने के लिए भरपूर प्रयास करता है, क्योंकि उसमें बहुत शक्ति होती है, केवल स्थिर ध्यानचित्र की ही कमी होती है। उसे दुनिया में ठोकरें खाने के बाद इस कमी का अप्रत्यक्ष अहसास हो ही जाता है, इसलिए वह कुंडलिनी ध्यानयोग के लिए एकांत में चला जाता है। इसे ही ऐसे दिखाया गया है कि अंधक फिर वन में जाकर शिव या ब्रह्मा का ध्यान करते हुए घोर तप करता है। अपने मांस को टुकड़ों में काटकाट कर वह उन्हें अग्नि में होम करता रहता है। साथ में अग्निधूम का पान करता है। इसका मतलब है कि भावी योगी कठिन हठयोग करता है, जिससे उसकी अतिरिक्त चर्बी तो घुलती ही है, साथ में मांसल शरीर भी योगाग्नि से जलकर दुबला हो जाता है। इस दहन से जो कार्बन डायक्साइड गैस निकलती है, उसे ही धुआँ कहा है। क्योंकि योग में अक्सर सांस को अंदर रोक कर रखा जाता है, इसलिए उसे ही धुएं को पीना कहा गया है। जब वह इतना कमजोर हो जाता है कि वह हड्डी का ढांचा जैसा दिखने लगता है, तब भगवान शिव उसे दर्शन दे देते हैं। इसका मतलब है कि जब हठयोगाभ्यास करते हुए काफी समय हो जाता है, जिससे योगी को अपने सहस्रार चक्र में बढ़ी हुई सात्विकता के कारण अपना शरीर अस्थिपंजर की तरह हल्का लगने लगता है, तब कुंडलिनी जागृत हो जाती है। मतलब अदृश्य या सुप्त कुंडलिनी शक्ति मानसिक शिवचित्र के रूप में जागृत हो जाती है। अब शिव अंधक को बिल्कुल स्वस्थ व सुंदर बना देते हैं। ठीक है, कुंडलिनी जागरण से ऐसा ही अकस्मात और सकारात्मक रूपान्तरण होता है। अब वह शिव से वर मांगता है कि वह कभी न मरे। शिव कहते हैं कि ऐसा सम्भव नहीं। विश्व की रक्षा के लिए भी यह जरूरी है। अमरता पाकर तो कोई भी अत्याचारी बनकर दुनिया को तबाह कर सकता है, क्योंकि उसे रोकने व डराने वाला कोई नहीं होगा। इसलिए ब्रह्मा उससे कोई न कोई मौत का कारण चुनने को कहते हैं, बेशक वह असम्भव सा ही क्यों न लगे। इस पर ब्रह्मा कहते हैं कि जब वह माँ के समान आदरणीय महिला को पत्नि बनाना चाहेगा, वह तब मरेगा। अब ये तंत्र की गूढ़ बातें हैं, जिनके यदि रहस्य से पर्दा उठाया जाए, तो आम जनमानस को अजीब लग सकता है। तिब्बतन यौनतंत्र में गुरु की यौनसाथी उनकी अनुमति से उनके शिष्यों को तांत्रिक यौनकला प्रयोगात्मक रूप में सिखाती है। गुरुपत्नि को माँ के समान माना गया है। मतलब कि तांत्रिक यौनयोग सीखने के बाद अंधक अंधी दुनियादारी से उपरत होकर अपनी आत्मा या अपने आप में शांत हो जाएगा, मतलब वह एक प्रकार से मर जाएगा। बाद में हुआ भी वैसा ही, मरने के बाद उसे शिव ने अपना गण बना लिया, मतलब वह मुक्त हो गया। आम मृत्यु के बाद तो कोई मुक्त नहीं होता। इसका एक मतलब यह भी है कि जब विवाह या सम्भोग के अयोग्य सम्मानित नारी से प्यार होता है, तब उसका रूप बारबार मन में आने लगता है, जिससे वह समाधि का रूप ले लेता है, जैसा कि प्रेमयोगी वज्र के साथ भी हुआ था। ब्रह्मा के वर को पाकर अन्धक राजा बन गया, और बहुत अय्याश हो गया। सुंदर व सुडोल शरीर तो उसे मिला ही था, इसलिए वह अनगिनत कामिनियों के साथ विभिन्न मनोहर स्थानों में रमण करते हुए अपना बहुमूल्य समय नष्ट करने लगा। इस यौन शक्ति के बल से वह बहुत पाप भी करने लगा। देवताओं को स्वर्ग से भगा कर वहाँ खुद राज करने लगा। जब कोई बुरे काम करेगा तो शरीर रूपी स्वर्ग में स्थित देवता दुखी होकर भागेंगे ही, क्योंकि देवताओं का मुख्य उद्देश्य है शरीर से अच्छे काम करवाना। अब मैं इससे जुड़ी हाल की घटना बताता हूँ और फिर पोस्ट को खत्म करता हूँ क्योंकि नहीं तो यह बहुत लंबी होकर पढ़ने में मुश्किल हो जाएगी। अगले हफ्ते तक शेष कथा के रहस्य को उजागर करने की कोशिश करूंगा, क्योंकि अभी मैं लगभग इतना ही समझ सका हूँ। हो सकता है कि आप मेरे से पहले उजागर कर दें, यदि ऐसा है तो कमेंट बॉक्स में जरूर लिखना।
आफताब-श्रद्धा से जुड़ा बहुचर्चित लवजिहाद काण्ड
आजकल बहुचर्चित आफताब पूनावाला से संबंधित मर्डर मिस्ट्री उपरोक्त अंधक कथा से बहुत मेल खा रही है। सूत्रों के अनुसार वह मुस्लिम युवक श्रद्धा नामक हिंदु लड़की के साथ लिव इन रिलेशनशिप में था। वह डेटिंग ऐप के माध्यम से अपना घरपरिवार छोड़कर उसके साथ लम्बे अरसे से रह रही थी। कई मकान मालिकों को तो वह उसे अपनी पत्नि तक बता कर साथ रखता था, क्योंकि यहाँ के परिवेश में लिव इन रिलेशनशिप को अच्छा नहीं समझा जाता। चोरी छुपे उसके 20 अन्य हिंदु लड़कियों के साथ भी प्रेमसंबंध थे। श्रद्धा को शायद यह बात पता चली होगी और वह उसे ऐसा करने से रोककर उससे शादी करना चाहती होगी। इसको लेकर झगड़े भी हुए और मारपीट भी। अंततः उसने उसका गला दबाकर हत्या कर दी और बिना अफ़सोस के उसके पेंतीस टुकड़े करके उन्हें फ्रिज में पैक कर दिया। धीरेधीरे करके वह उन्हें निकट के जंगल में फ़ेंकता रहा। छः महीने बाद श्रद्धा के पिता द्वारा लिखी शिकायत के बाद पुलिस उसे पकड़ सकी। यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि आज की तथाकथित आधुनिक महिलाओं को प्रसन्न करने के लिए कैसे आफताब की तरह शातिर, बेईमान, नशेड़ी, धूम्रपानी, मांसभक्षी, हिंसक और धोखेबाज बनना पड़ता है, हालाँकि ऐसे अतिवाद को कोई सभ्य व पढ़ालिखा समाज कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता, जिसमें मानवता का हनन होता हो। दूसरी ध्यान देने योग्य बात यह है कि बहुत से हिन्दुओं द्वारा शिवपुराण का कहीं गलत अर्थ तो नहीं निकला जा रहा, या बिना जानेबूझे कहीं वैसी विकृत सोच अवचेतन मन में तो नहीं बैठी हुई है। पुराण से प्राप्त आम धारणा के अनुसार महादेव शिव बिना कुलपरम्परा वाले एक भूतिया किस्म के आदमी थे, जिनको पति रूप में पाने के लिए पार्वती कई जन्मों तक घरपरिवार को छोड़कर भटकती रही। पति-पत्नि के परस्पर प्रेम को परवान चढ़ाने के लिए कुछ हद तक ऐसा पागलपन ठीक भी है, पर वह भी कुछ जरूरी शर्तों के साथ ही पूरा सफल होता है, और वैसे भी अति तो कहीं भी अच्छी नहीं है, ख़ासकर उस कौम के व्यक्ति के साथ तो बिल्कुल भी संबंध अच्छा नहीं है, जिनके तथाकथित लवजिहाद से जुड़े जालिमपने और जाहिलियत के उदाहरण आए दिन मिलते रहते हैं। सब पता होते हुए भी बारम्बार गलती करना तो ऐसा लगता है कि या तो परिवार में बच्चों को सही व संस्कारपूर्ण शिक्षा नहीं दी जा रही या ऐसी लड़कियों के ऊपर जादूटोना कर दिया गया है, या यह हिन्दुओं के पवित्र और ज्ञानविज्ञान से भरे शास्त्रों और पुराणों को बदनाम करने की एक सोचीसमझी और बहुत बड़ी साजिश चल रही है। कई लोग सख्त कानून की कमी को भी मुख्य वजह बता रहे हैं। कुछ लोग विकृत दूरदर्शन, ऑनलाइन व बॉलीवुड कल्चर को भी बड़ी वजह मानते हैं। कई लोग लिव इन रिलेशनशिप और डेटिंग एप्स को दोष दे रहे हैं। इससे हिंदु पुरुषों को भी शिक्षा लेनी चाहिए और महिलाओं की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की कोशिश करनी चाहिए। जिसके अंदर ध्यान-कुंडलिनी चित्र नहीं है, यदि वह भी यौनतंत्र का अभ्यास करे, तो उसका हाल भी अंधक जैसा हो सकता है, जैसा आपने ऊपर पढ़ा, फिर यदि जिसको यौनतंत्र का कखग भी पता नहीं, यदि वह यौनसंबंधों के मामले में मनमर्जी करे, तो उसका उससे भी कितना बुरा हाल हो सकता है, यह उपरोक्त हाल की घटना से प्रत्यक्ष देखने को मिल रहा है।
प्रेमरोग से बचने का बेजोड़ उपाय
दोस्तों, इस समस्या का हल भी है। सौभाग्य से आज “शरीरविज्ञान दर्शन~एक आधुनिक कुंडलिनी तंत्र(एक योगी की प्रेमकथा)” नामक पुस्तक ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों तरह से उपलब्ध है। यह ईबुक के रूप में भी और प्रिंट पुस्तक के रूप में भी उपलब्ध है। इसमें ऐसा लगता है कि शिवपुराण का विवेचन आधुनिक शैली में किया गया है, जो हर किसी को समझ आ जाए, और उसके बारे में गलतफहमी दूर हो जाए। यह सत्य जीवनी और सत्य घटनाओं पर आधारित है। इसमें आधारभूत यौनयोग पर सामाजिकता के साथ प्रकाश डाला गया है। इस पुस्तक में स्त्री-पुरुष संबंधों का आधारभूत सिद्धांत भी छिपा हुआ है। यदि कोई प्रेमामृत का पान करना चाहता है, तो इस पुस्तक से बढ़िया कोई भी उपाय प्रतीत नहीं होता। इस पुस्तक में प्रेमयोगी वज्र ने अपने अद्वितीय आध्यात्मिक व तांत्रिक अनुभवों के साथ अपनी सम्बन्धित जीवनी पर भी थोड़ा प्रकाश डाला है। इस उपरोक्त “शरीरविज्ञान दर्शन” पुस्तक को एमाजोन डॉट इन पर एक गुणवत्तापूर्ण व निष्पक्षतापूर्ण समीक्षा में पांच सितारा, सर्वश्रेष्ठ, सबके द्वारा अवश्य पढ़ी जाने योग्य व अति उत्तम (एक्सेलेंट} पुस्तक के रूप में समीक्षित किया गया है। गूगल प्ले बुक की समीक्षा में भी इसे फाईव स्टार व शांतिदायक (कूल) आंका गया है। कुछ गुणग्राही पाठक तो यहाँ तक कहते हैं कि अगर इस पुस्तक को पढ़ लिया तो मानो जैसे सबकुछ पढ़ लिया। आशा है कि पुस्तक पाठकों की अपेक्षाओं पर खरा उतरेगी।
कुंडलिनी ही वह औरोबोरस सांप है जो अपने मुंह में अपनी पूँछ दबाकर यब-युम जैसा लूप बनाता है
श अक्षर दिल का अक्षर है~ श्री बीजमंत्र
दोस्तों, जैसा कि पिछली पोस्ट में विषय चल रहा था कि स या श अक्षर इसलिए भी कुंडलिनी प्रभाव को पैदा करता है, क्योंकि नाग की आवाज भी हिसिंग या स जैसी ही होती है। इसी तरह श्री में भी सर्प की सर सर चलने का शब्द भी समाहित है। श व स शब्द से ही श्री शब्द या श्रीं बीजमंत्र बना है, जो देवी का मुख्य बीज मंत्र है। इसमें शं, रं, और ह्रीं तीनों बीजमन्त्रों की सम्मिलित शक्ति होती है। सम्भवतः अंग्रेजी का शी शब्द इसी श्री से बना है। मुझे तो श अक्षर से शक्ति हृदय चक्र को उतरी हुई महसूस होती है। श से ही शंकर और शम्भु शब्द बने हैं। शं का अर्थ ही शांति होता है। पुरुष में भी श अक्षर मुख्य है। मुझे तो श अक्षर भावनाओं का और दिल का अक्षर लगता है। बीजमंत्र का ध्यान करते समय मन के विचारों को रोकना नहीं चाहिए, तभी उनकी शक्ति कुंडलिनी को लगती है। यदि विचारों को बलपूर्वक रोक दिया जाए, तब उनकी शक्ति खत्म हो जाएगी, फिर वो कुंडलिनी को कैसे लग पाएगी।
अंधेरा अल्प अवधि का होता है, जबकि प्रकाश चिर अवधि तक रहता है~ नॉनवेज और ड्रिंक
फिर मैं बता रहा था कि कैसे हिंसक जीव शिकार के समय खूंखार हो जाते हैं। शिकार को मारकर उसे भोजन के तौर पर खाते समय तो शेर आदमखोर भी हो जाता है, जैसा हम बड़े बुजुर्गों से सुना करते थे। दरअसल ननवेज में शक्ति तो होती है पर उसे पचाने के लिए भी बहुत शक्ति लगती है। यह ऐसे ही है जैसे गढ़े हुए पत्थर से बनी इमारत शक्तिशाली या मजबूत तो होती है, पर पत्थर गढ़ने के लिए भी ज्यादा शक्ति लगती है, साथ में गढ़े हुए बड़ेबड़े पत्थरों को इमारत तक ढोने और उन्हें सही जगह पर फिट करने में भी ज्यादा ऊर्जा खर्च होती है। ननवेज आदि का बेवजह उपयोग करने वाले का हाल उस कृपण सेठ की तरह होता है, जो अपना कीमती और दुर्लभ जीवन बेवजह धन सम्पत्ति इकट्ठा करने में बर्बाद कर देता है, पर वह कुछ भी उसके उपयोग में नहीं आती। या कह लो कि यह ऐसे ही है जैसे कोई सिरफिरा व्यक्ति अपना घर बन जाने के बाद भी सारी उमर पत्थर ही गढ़ता रहे। शिकारभोज के समय तेन्दुए की शक्ति पेट को चली जाती है, और मस्तिष्क में शक्ति की कमी से सोचने समझने की शक्ति नहीं रहती, जिससे वह अपने नजदीक हर किसी को उकसावा समझकर उस पर हमला बोल देता है, जवाबी हमले की परवाह किए बगैर। यह अलग बात है कि आदमी का व्यवहार उससे भी गिरा हुआ प्रतीत होता है क्योंकि उसने बिना उकसावे के ही चीते का इतना शिकार किया कि वे देश से विलुप्त ही हो गए, इसीलिए उन्हें पुनः बढ़ावा देने के लिए नामीबिया से आठ चीते विशेष विमान से यहाँ पहुंचा दिए गए हैं। सम्भवतः इसीलिए किसी भोजन करते हुए से मिलने या बात करने से मना किया जाता है। एकबार मैं बचपन में अपनी खाना खाती हुई मुख्याध्यापिका के कक्ष में प्रविष्ट होकर किसी काम के सिलसिले में बात करने लगा। मुझे वे उस समय एक शेरनी की तरह लगीं और मैं एकदम बाहर दौड़ आया। हमेशा के लिए अच्छी सीख भी मिल गई थी। मेरा एक दोस्त था। जिस दिन वह बाजार से ननवेज खाकर या ड्रिंक करके आता था, सीधा बिस्तर में जाकर सो जाता था, और किसीसे भी बात नहीं करता था, अगले दिन तक। सम्भवतः उसे एहसास था कि ऐसे समय में थोड़ी सी कहासुनी से बात बढ़ जाती, क्योंकि मस्तिष्क में शक्ति की कमी से अंधेरा होने से भले-बुरे का भान नहीं रहता। सम्भवतः इस वजह से भी यह धार्मिक मान्यता बनी हो कि ननवेज से मन में अंधेरा छाता है, और पाप लगता है।
रूपान्तरण ही जीव की नियति है जो उसे परम तक ले जाती है~ क्या योग ज़ेलेंस्की और पुतिन की मदद कर सकता है
रूपान्तरण धीरेधीरे होता है। इसे हम ऐसे समझ सकते हैं कि जब दो लोग बहुत वर्षों बाद मिलते हैं, तो आपसी दुश्मनी भूलकर दोस्त बन जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अलगाव के दिनों में उन्होंने बहुत कुछ नया सीख लिया होता है, जिससे पुरानी भावनाएं कमजोर पड़ जाती हैं। यह ऐसे ही है जैसे यदि लिखे हुए ब्लैकबोर्ड पर आप जितना ज्यादा नया लिखेंगे, पुराने लिखे शब्द उतने ही मिटते जाएंगे। रूपान्तरण की यह रप्तार योग से इसलिए बहुत तेज हो जाती है क्योंकि इससे मन का कचरा बहुत जल्दी साफ हो जाता है। योग को आप मन रूपी ब्लैकबोर्ड का डस्टर कह सकते हैं। जैसे डस्टर के प्रयोग से पुराना लेख ज्यादा मिटता है, और नया लेख ज्यादा स्पष्ट हो जाता है, उसी तरह योग के प्रभाव से पुरानी भावनाएँ ज्यादा मिटती हैं, और नई स्वस्थ भावनाएँ ज्यादा स्पष्ट हो जाती हैं। यदि जैलेंस्की और पुतिन अगले जन्म में मिले तो सम्भवतःआपस में दुश्मनी बिल्कुल न रखें, पर यदि एक-दो महीने भी ढंग से योगाभ्यास कर लें, तो सम्भवतः तुरंत ही दुश्मनी भूलकर लड़ना बंद कर दें।
सभी धार्मिक गतिविधियां योग धारणा को बढ़ावा देने के कारण योग की प्राथमिक सीढ़ी की तरह हैं~ जब ध्यान शुरू होता है
जितनी भी धार्मिक गतिविधियां हैं, वे इसी योग धारणा को बनाए रखने के लिए है, जो मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था। इससे स्पष्ट होता है कि सभी धर्म योग विज्ञान के अंतर्गत ही आते हैं। धारणा से ही ध्यान की शुरुआत होती है, और ध्यान से ही समाधि अर्थात कुंडलिनी जागरण की।
धमाके में चेतना का आनंद ढूंढती आधुनिक मानव संस्कृति~ महा विस्फोट (big bang) इतना आध्यात्मिक है
बम का धमाका भी कुंडलिनी जागरण का तुच्छ और पापपूर्ण और अमानवीय विकल्प लगता है मुझे। इसमें वैसी ही प्रकाश, गर्मी, चेतनता और आनंद की अनुभूति होती है, जैसी कुंडलिनी जागरण में, हालांकि उससे बहुत कम और क्षणिक रूप में। समारोह, त्यौहार आदि में चलाए जाने वाले पटाखे इसका अच्छा उदाहरण है। हालांकि यह मानवीय है अगर सीमा में रहे। सम्भवतः इसीलिए कई सिरफिरे चेतना की इसी क्षुद्र झलक की प्राप्ति के लिए युद्धाभ्यास के नाम पर धमाके करने लग जाते हैं। इससे जाहिर होता है कि योग से इस पर लगाम लग सकती है।
गंगास्नान से जो पाप धुलते हैं, वे योग से ही धुलते हैं~ सहस्रार के लिए एक अद्भुत मार्ग
गंगा में स्नान करने से पाप धुलते हैं, ऐसा कहा जाता है। दरअसल ऐसा कुंडलिनी शक्ति के मूलाधार से सहस्रार की तरफ चढ़ने से होता है। कहते हैं कि उन पापों को वहाँ आने वाले ऋषिमुनि ग्रहण कर लेते हैं। इसका मतलब है कि जब मस्तिष्क में शक्ति के पहुंचने से वह बहुत शक्तिशाली हो जाता है, तब उसमें किसी देवता या गुरु का जो चित्र कुंडलिनी चित्र अर्थात ध्यान चित्र के रूप में उभरता है, उसमें उन तपस्वी लोगों का बहुत ज्यादा योगदान होता है। वही कुंडलिनी चित्र पापों को जलाता है, सीधा गंगास्नान नहीं। मतलब कि पापों का नाश गंगास्नान से हो रहे योग से ही होता है। यदि ध्यान चित्र नहीं बनेगा, तब मस्तिष्क की बेकाबू शक्ति अमानवीय कामों या लड़ाईझगड़े की तरफ भी जा सकती है। पुतिन बर्फीले पानी में आराम से नहा लेते हैं, पर कुंडलिनी जागरण के लिए नहीं, लड़ने के लिए। इसलिए योग के साथ ध्यान भी जरूरी है। मैं यह भी बता रहा था कि यदि कमजोरी या ठंड महसूस होए तो ठंडे पानी से नहीं नहाना चाहिए। इसी तरह यदि समय की कमी हो तो भी ठंडे पानी से नहीं नहाना चाहिए। कम से कम आधा घंटा तो चाहिए ही शीतजल स्नान के लिए। नहाते समय बीचबीच में मांसपेशियों की सिकुड़न के साथ कुंडलिनी शक्ति को घुमाते रहना पड़ता है, ताकि उससे गर्मी पैदा होती रहे और ठंड का असर कम होए। स्नान के एकदम बाद योग व व्यायाम कर लेना चाहिए ताकि जल्दी से जल्दी शरीर को पर्याप्त गर्मी मिल सके। शाम के समय अतिरिक्त समय भी ज्यादा होता है, और दिनभर की क्रियाशीलता से गर्मी भी चढ़ी होती है, इसलिए शाम को नहाया जा सकता है।
दिल दा मामला है~ इसे बहुत ठंड से बचाएं
सबसे ज्यादा ठंड का प्रभाव दिल पर पड़ता है। इसलिए दिल पर विशेष रूप से कुंडलिनी चित्र का ध्यान करते रहो, ताकि पूरे शरीर की शक्ति वहाँ विशेष रूप से केंद्रित होती रहे। इससे हृदय क्षेत्र की मांसपेशियों में सिकुड़न होगी जिससे वहाँ गर्मी बढ़ेगी और रक्तसंचार बढ़ेगा। साथ में शक्ति को घुमाते भी रहें माइक्रोकोस्मिक औरबिट में। वैसे भी दिल शरीर के बीच में ही प्रतीत होता है, अगर सभी चक्रोँ को लेकर चलें तो। नाभि चक्र तो तब शरीर के केंद्र में महसूस होता है, जैसा कि कहा भी जाता है, यदि टांगों को भी चक्रोँ के साथ जोड़ा जाए। दिल से ही शक्ति को शक्ति मिलती है, और शक्ति ही दिल को भी शक्ति देती है। हिसाब बराबर। इसीलिए दिल केंद्र में है। जब शीर्ष चक्र को शक्ति चढ़ने से दिल कुछ थक सा जाता है, तब उस शक्ति का कुछ हिस्सा दिल की ओर वापिस मुड़कर उसे भी शक्ति देता है।इससे जुड़ा मैं दो तीन साल पुराना एक वाकया सुनाता हूँ। एकबार मैं किसी समारोह दावत आदि से घर आ रहा था। ठंड का मौसम था। दावतकक्ष में तो गर्मी के सारे इंतजाम थे, जिससे मेरी स्किन की रक्तवाहिनियाँ खुली हुई थीं। पर रात को एक जंगली घाटी से गुजरते हुए मोटरसाइकल पर मुझे बहुत ठंड लगी। ठंड का मौसम शुरु ही हुआ था इसलिए मैंने गर्म कपड़े भी नहीं पहने थे। चलती बाईक पर तो ठंडी हवा के थपेड़े ज्यादा ही लगते हैं। आसपास घर भी नहीं थे जहाँ रुक जाता। जानवरों से भरा हुआ रात का डरावना जंगल ही था चारों तरफ। तभी मुझे दिल में अजीब सी धड़कनेँ महसूस हुईं। ऐसा लगा जैसे मेरी छाती का दौड़ता हुआ घोड़ा कभी छलांगें लगा रहा है, और कभी रुक रहा है। कुदरती चेष्टा से मैंने बाइक रोकी और मैं घुटनों को बाजुओं से घेरकर बैठ गया ताकि हृदय को गर्मी और राहत मिल सके। फिर दिल सामान्य हो गया। जैसे ही मैं उठने लगा, वैसे ही मेरा दिल फिर वैसे ही नखरे करने लगा। मैं फिर से दिल को ढक कर बैठ गया। मैंने उसी हालत मैं जेब से फोन निकाला और एक दोस्त को कार लेकर आने को कहा। वो खुद ही मुझे सहारा देकर कार के अंदर ले गए। उन्होंने मेरी बाइक खुद ही सही जगह पर लगा दी क्योंकि मैं कुछ नहीं कर पा रहा था। जैसे ही मैं जरा सा भी अपने को खुला छोड़कर ठंडी हवा के सम्पर्क में आता था वैसे ही दिल वैसी ही हरकत शुरु कर देता था। मैंने अपने आपको ऐसे पैक किया हुआ था कि कम से कम हवा के सम्पर्क में आऊं। उन्होंने कार का हीटर चलाया जिससे मैं एकदम सामान्य हो गया। फिर वो कहने लगे कि डॉक्टर को दिखा लो, चेकअप करा लो आदि। मैंने कहा वह घटना बिमारी से नही, ठंड से थी, इसलिए अल्पकालिक थी, क्योंकि मैं फिर अपने को पहले से भी ज्यादा स्वस्थ महसूस कर रहा था। ठंड के मौसम में लेट नाइट दावतों से बचना चाहिए। उनमें ड्रिंक का प्रयोग तो बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। इससे चमड़ी की रक्तवाहिनियाँ और ज्यादा खुल जाती हैं। इससे दो नुकसान होते हैं। एक तो आदमी को बाहर की ठंड का अहसास ही नहीं होता, क्योंकि चमड़ी में झूठी गर्मी बनी रहती है। दूसरा, इससे शरीर की बहुत सारी गर्मी बाहर निकल जाती है। मेरे मामा के एक प्रोढ़ उम्र के चचेरे भाई को ड्रिंक करने की आदत थी। वे सर्दियों के मौसम में एक सुनसान जैसे रास्ते पर मृत मिले। दरअसल वे ड्रिंक करके देर रात की ठंड में अकेले रास्ते से गुजर रहे थे। वहाँ ठंड लगने से वे गिर पड़े होंगे। नशे की हालत में अपने को गर्मी देने के उनके सारे प्रयास विफल रहे होंगे। देर रात होने की वजह से उन्हें किसी की सहायता भी नहीं मिली होगी।
योग-साँसों से वीर्यशक्ति ऊपर चढ़ती है~ नासिकाग्र (nose tip) टिप ध्यान का आसान तरीका
गहरे और धीमे सांस योगविधि से पेट से लेने से और नाक से आतीजाती हवा पर ध्यान देने से जो योगलाभ मिलता है, वह दरअसल वीर्य शक्ति के मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्रोँ से ऊपर चढ़ने से ही मिलता है। इसमें सांसों का कोई प्रत्यक्ष योगदान नहीं लगता मुझे। कोई ऑक्सीजन वगैरह का रोल भी नहीं लगता ज्यादा। सम्भोगयोग के समय भी अधिकांशतः इन्हीं सांसों के बल पर ही वीर्यशक्ति के आधोगमन को रोकते हुए उसे ऊपर चढ़ाया जाता है। नाकों से आतीजाती सांसों पर ध्यान देने से नाक या नासिका शिखा पर खुद ही ध्यान चला जाता है, जो शरीर के ठीक बीचोंबीच है। इससे बीच वाली नाड़ी सुषुम्ना के क्रियाशील होने से वीर्यशक्ति के रूपान्तरण से बनने वाली प्राणशक्ति शरीर के बीचोंबीच चारों तरफ ज्यादा अच्छे से घूमने लगती है।
शक्ति को प्रेरित करने वाला चेतन आत्मा ही है और हम सभी औरोबोरस सांप जैसे हैं~ कुंडलिनी शक्ति मूलाधार में क्यों रहती है
योग का जो जलंधर बंध होता है, वह इसलिए लगाया जाता है ताकि मस्तिष्क तक चढ़ी हुई कुंडलिनी शक्ति आगे के चैनल से नीचे उतर सके और इस तरह एक बंद लूप में गोलगोल घूमती हुई सभी चक्रोँ को एकसाथ शक्ति देती रह सके। ठंडे पानी से नहाते समय सिर खुद ही आगे को नीचे झुक जाता है। इससे स्वाधिष्ठान चक्र का दबाव भी कम हो जाता है। यह ऐसे ही है जैसे एक विशालकाय और अनेक फनों वाला नाग अपनी दुखती पूँछ को मुंह से पकड़ने के लिए आगे को झुक जाता है और उसे अपने केंद्रीय फन से पकड़ने का प्रयास करता है। मिस्र और यूनान का Ouroboros अर्थात औरोबोरस सांप भी इसीको दर्शाता है। लगता तो है कि पुराने समय में गंगास्नान करते हुए जब आध्यात्मिक लोगों को इन स्वयं होने वाली शरीरवैज्ञानिक प्रक्रियायों का बोध हुआ, तो उन्होंने इनके आधार पर कृत्रिम हठयोग का निर्माण कर दिया होगा। वैसे भी शक्ति को मूलाधार में स्थित बताया जाता है। उस शक्ति को दिमाग तक पहुंचाना होता है, क्योंकि मस्तिष्क ही पूरे शरीर और मन का मुखिया है। अगर मस्तिष्क में शक्ति है, तो पूरे तनमन में खुद ही शक्ति रहेगी। औरोबोरस की पूंछ उसके मुंह में होने का मतलब है कि योगी तांत्रिक कुंडलिनी योग से शक्ति को मुलाधार से मस्तिष्क तक पहुंचा रहा है। पर ऐसा भी नहीं है कि मूलाधार के इलावा कहीं शक्ति नहीं है। अगर ऐसा होता तो नपुंसक या बच्चे बिल्कुल शक्तिहीन होते। पर ऐसा नहीं है। सामान्य शक्ति तो उनमें भी होती है। इसका सीधा सा मतलब है कि मूलाधार में अतिरिक्त शक्ति होती है, जो मस्तिष्क को प्राप्त हो सकती है। वही अतिरिक्त शक्ति कुंडलिनी के लिए बहुत जरूरी होती है, क्योंकि सामान्य शक्ति से वह ढंग से क्रियाशील नहीं हो पाती, जागरण तो दूर की बात है। सम्भवतः कुंडलिनी शक्ति को ही मुलाधार में रहने वाली बताया गया है, सामान्य शक्ति को नहीं। हालांकि अपवाद तो हर जगह है। मूलाधार शक्ति के बिना भी कुंडलिनी जागृत हो सकती है, बेशक विरले मामलों में ही।
यब-युम जैसा यौनक्रीड़ामय आसन ही औरोबोरस सांप है~ सूक्ष्म ब्रह्मांडीय कक्षा (microcosmic orbit) का सबसे आसान तरीका
इसमें वैसे ज्यादा विस्तार से जाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इस पैराग्राफ की हैडिंग से ही बात स्पष्ट है। फिर भी इससे जुड़ा वैज्ञानिक सिद्धांत तो डिस्कस कर ही सकते हैं। क्योंकि सांप की पूँछ पूरा झुकने पर भी काफी नीचे रह जाती है, जिससे वह उसे अपने मुंह में नहीं ले सकता, इसलिए वह सर्वोपयुक्त चीज को अपनी पूँछ से जोड़कर उसे इतना लम्बा करता है, ताकि वह उसके मुंह तक आसानी से पहुंच सके। इससे सांप का ऊर्जा चक्र पूर्ण हो जाता है, जिससे वह आनंद के साथ अतिरिक्त शक्ति प्राप्त करता है। उस रूपकात्मक नर सांप की पूँछ में जोड़ने के लिए सर्वोत्तम चीज क्या हो सकती है, यह सबको ही पता है। मादा सांप के जुड़ने से यिन-यांग भी आपस में जुड़ जाते हैं, इससे अद्वैत और कुंडलिनी अभिव्यक्त होने से और अतिरिक्त आनंद प्राप्त होता है, और आध्यात्मिक विकास भी होता है, जिसका चरम कुंडलिनी जागरण है। हैरतङ्गेज सृष्टि रचने वाले से बढ़कर बुद्धिमान भला कौन हो सकता है। इसका अनुभव के अतिरिक्त एक और प्रमाण है, कई जगह इस सांप को यिन-यांग के रूप में दिखाना। इसके लिए सांप का ऊपर वाला हिस्सा काले और नीचे वाला आधा हिस्सा सफेद रंग का दिखाया जाता है। इससे तो काफी स्पष्ट हो जाता है कि यब-युम को ही ओरोबोरस सांप के रूप में दिखाया गया है, क्योंकि इसी आसन में काला रंग मतलब यिन मतलब स्त्री भाग ऊपर होता है, और श्वेत रंग मतलब यांग मतलब पुरुष भाग निचली साइड होता है। कुछ सांप हकीकत में विरले मामले में अपनी पूँछ को खाते हैं, खासकर तब जब वे बाहरी वातावरण की बहुत ज्यादा गर्मी से और भूख से परेशान होते हैं। हो सकता है कि वे किसी कुशल तांत्रिक की तरह ही मूलाधार से ऊर्जा लेते हों, और उसे गोलगोल घुमाते हों, ताकि शरीर की ऊर्जा की कमी को पूरा कर के स्थिर हो सकें। पर दिमाग़ की कमी से वे मजबूरन पूँछ को निगल ही जाते हैं, और आगे बढ़ते हुए खुद को भी। सम्भवतः सर्प की यह ऊर्जा-ट्रिक भी विभिन्न धर्मों में उसका महत्त्व बनाने में जिम्मेदार हो।
अध्यात्मवैज्ञानिक खोजों और अविष्कारों का युग शुरु हो गया है~ यौन उपकरण ज्यादा बन रहे हैं
लगता है कि अति आदर्शवादी मध्ययुग और आधुनिक युग में उपरोक्त यब-युम जोड़े से यब भाग गायब सा हो गया, और युम ही बचा रहा। उसकी जगह पर साधारण कुंडलिनी योग का प्रचलन बढ़ा, जिसमें यब की कमी को कुंडलिनी को आगे के चक्रोँ से नीचे उतार कर किया गया। हालांकि यब के साथ भी कुंडलिनी ऐसे ही उतरती थी, यद्यपि यब से इस प्रक्रिया को बहुत बल मिलता था, और जीवंतता मिलती थी। आदर्शवादी योग में यम के अंदर ही यब को कल्पित कर दिया गया। एक ही व्यक्ति में यब को यम के साथ स्थायी तौर पर जोड़ दिया गया, असरदारी की कीमत पर। फिर यब-युम गठजोड़ का असर बढ़ाने वाले अन्य बहुत से कृत्रिम उपायों का सहारा लिया गया हो, जैसे कि दोनों हाथों को एकसाथ जोड़कर नमस्कार मुद्रा बनाना, ऊर्धव-त्रिपुण्ड लगाना, जनेऊ धारण करना आदि। हो सकता है कि वैज्ञानिक इस पोस्ट को पढ़कर इस कमी का फायदा उठाकर यब अर्थात यिन की कृत्रिम डम्मी बना कर बाजार में पेश कर दे। विज्ञान आज व्यवसाय से जुड़ा है, और पैसा कमाने का कोई भी तरीका नहीं छोड़ना चाहता। आज अधिकांश भौतिक खोजें हो चुकी हैं। अधिकांश वैज्ञानिकों के पास अतिरिक्त समय है। वे भौतिक खोजों से ऊब भी चुके हैं, विशेषकर इनके पर्यावरणीय दुष्प्रभावों से तंग आकर। इसीलिए आज अध्यात्मवैज्ञानिक खोजें बहुत हो रही हैं। कोई कुंडलिनी को घुमाने वाली मशीन बना रहा है, तो कोई मूलाधार की संवेदना बढ़ाने वाले विशेष और यौन प्रकार के यंत्र या औजार बना रहा है।
हरेक व्यक्ति के अंदर पुरुष और स्त्री दोनों भाग समाहित हैं~ चार बराबर हिस्सों से एक पूरा शरीर बनता है
दरअसल हम सब यब-युम जोड़े के रूप में ही हैं, पर उसे भूल चुके हैं। उसे याद दिलाने के लिए ही पुरुष और स्त्री की अलगअलग रचना हुई है। पुरुष स्त्री का आलिंगन करना चाहता है, अपने शरीर के यब हिस्से को जगाने के लिए। उसके शरीर का केवल युम हिस्सा ही क्रियाशील होता है। हमारे शरीर का पीठ वाला भाग युम है। वह युम या पुरुष भाग वज्र नाड़ी से शुरु होकर, सुषुम्ना के रूप में मेरुदण्ड से होता हुआ सहस्रार चक्र पर समाप्त होता है। यब या स्त्री भाग भी वज्र नाड़ी को घेरने वाली लिंग संरचना से शुरु होकर शरीर के आगे के चक्रोँ से ऊपर होता हुआ सहसरार चक्र पर खत्म होता है। पुरुष और स्त्री भाग वज्र शिखा पर, जिसे प्रकारान्तर से मूलाधार चक्र भी कह सकते हैं, और सहस्रार चक्र पर पूरी तरह से आपस में जुड़े होते हैं, यह मान के चल सकते हैं। बाकि चक्रोँ पर भी ये आपस में जुड़ने की कोशिश करते हैं। चित्रों में भी ऐसा ही दिखाया जाता है। वहाँ आगे और पीछे के चक्र आपस में एक रेखा से जुड़े दिखाए जाते हैं। चित्रों में तो शरीर के बाएं और दाएं भाग में इड़ा और पिंगला दिखाए जाते हैं। ये भी सही है। इड़ा यब है, और पिंगला युम है। सुषुम्ना मेरुदण्ड के बीच में है। पर सम्भोग योग से तो शक्ति सीधी ही सुषुम्ना से होते हुए सहस्रार में ली जाती है। मेरे को लगता है कि इड़ा और पिंगला वाले टोटके तो साधारण किस्म के योगों में होते हैं। तांत्रिक सम्भोग योग तो शोर्टेस्ट रूट है, क्योंकि इसमें इड़ा और पिंगला आती ही नहीं, शक्ति सीधी सहस्रार में पहुंच जाती है। कमजोरी की अवस्था में कई बार इड़ा और पिंगला की वजह से व्यवधान आ तो सकता है, पर वह हल्का होता है, और आसानी से काबू में आ जाता है। इसीलिए तो सम्भोग के प्रति दुनिया में सबसे ज्यादा आकर्षण दिखाई देता है। पर आम आदमी इसकी अध्यात्मवैज्ञानिकता को समझ नहीं पाता। वह इसीमें उलझा रहकर अपना जीवन समाप्त कर लेता है। पर योगी इससे योग-लाभ उठाकर अपने शरीर में ही यब-युम को पूरी तरह से अभिव्यक्त करके उभयलिंगी अर्थात अर्धनारीश्वर बन जाते हैं, और पृथक स्त्री अर्थात यब के आकर्षण के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। इसका यह मतलब नहीं कि वे फिर सम्भोग योग नहीं करते। वे करते हैं, पर उन्हें इसकी कम जरूरत पड़ती है। उससे वे अपने स्वसम्भोग योग अर्थात एकलिंगी सम्भोग योग को बल देते रहते हैं। कई तो इतने अभ्यस्त, कार्यकुशल और निपुण हो जाते हैं कि वे कभी भी मूलाधार स्थित वीर्यशक्ति को नहीं गिराते, और हमेशा उसे ऊपर चढ़ाकर अपने शरीर में आत्मसात कर लेते हैं। उपरोक्त चर्चा से यह बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि जैसे शरीर का बायां और दायां भाग यब और युम है, उसी तरह से शरीर का आगे और पीछे का भाग भी यब और युम ही है। मतलब कि पूरा शरीर चारों तरफ से दो विपरीत टुकड़ों को जोड़कर बना है। सम्भवतः त्रिआयामी स्वस्तिक चिह्न का यही मतलब हो। सम्भवतः शक्ति को स्त्री के रूप में इसीलिए दिखाया जाता है, क्योंकि शरीर का आगे का भाग जो स्त्रीरूप है, वही आकर्षक है, और उसीकी शक्ति इकट्ठी होकर और नीचे जाकर मूलाधार क्षेत्र में स्थित हो जाती है, जहाँ से वह पीठ से होते हुए ऊपर चढ़ने का प्रयास करती है।
शीतजल स्नान से यबयुम जनित कुंडलिनी लाभ कैसे मिलता है~ मांस शरीर तंत्रिका शरीर पर मढ़ा हुआ
जब पूरे शरीर पर ठंडा जल गिरता है, तो उसकी संवेदना नाड़ियों के द्वारा ग्रहण कर ली जाती है, क्योंकि पूरे शरीर में नाड़ियों का जाल है। इससे नरम बाहरी शरीर और सख्त आंतरिक शरीर आपस में जुड़ जाते हैं, मतलब यब और युम एक हो जाते हैं। इससे अद्वैत भाव और उससे कुंडलिनी शक्ति क्रियाशील हो जाती है, कुंडलिनी चित्र के साथ। प्रत्येक संवेदना समान प्रभाव डालती है, इसलिए किसी भी दर्द की अनुभूति के बाद अद्वैत के साथ आनंद की अनुभूति होती है।
प्रकृति स्त्री-रूप है और आत्मा पुरुष-रूप है~ दो महत्वपूर्ण कोष या शरीर
नाड़ी संरचना पुरुष है और उस पर मृदु व सुंदर पेशीय संरचना नारी है। बेसिक नर्वस स्ट्रक्चर सेंसिटिव लाइफ पाने के लिए सॉफ्ट बाहरी स्ट्रक्चर को आकर्षित करता है। अंत में, आत्मा ही पुरुष है क्योंकि यही तंत्रिका तंत्र की सभी संवेदनाओं का आनंद लेती है। सारा दृश्यमय जगत स्त्री या प्रकृति रूप है, क्योंकि यह पुरुष को संवेदना प्रदान करता है। सांख्य दर्शन में भी ऐसा ही कहा गया है। इसमें प्रकृति को भोग्या और पुरुष को भोक्ता कहा गया है। क्यों न इन दो मुख्य आवरणों को ही दो मुख्य कोष न मान लें, जटिल पांच कोशों के विपरीत।
हिंदू स्वस्तिक चिह्न का अध्यात्मवैज्ञानिक रहस्य~ स्वस्तिक का केंद्रीय बिंदु एक पूर्ण और संतुलित इंसान का प्रतिनिधित्व करता है
त्रिआयामी स्वस्तिक चिह्न में आगे की तरफ की छोटी डंडी यम है, और पीछे की तरफ की छोटी डंडी यब है। दोनों डंडियां सीधी खड़ी लम्बी डंडी से जुड़ी हैं, मतलब यब और युम एक होकर बढ़ी हुई जागृति का निर्माण कर रहे हैं। इसी तरह दो छोटी डांडियां शरीर के बाएं भाग के यब और शरीर के दाएं भाग के युम को दर्शाती हैं, क्योंकि वे दोनों इसी दिशा में थोड़ी लम्बी व तिरछी डंडी से आपस में जुड़ी हैं। यह भी बढ़ी हुई जागृति दिखाती है। फिर खड़ी और तिरछी दोनों लम्बी डंडीयां केंद्र में एक बिंदु पर आपस में जुड़ी हैं। इसको दोनों तरफ के यब-युम जोड़ों की बराबर शक्ति मिल रही है, इसलिए यह बिंदु सबसे शक्तिशाली है। इसका मतलब है कि अपने शरीर के अंदर के दाएं-बाएं भाग के यब-युम को संतुलित करने के साथ ही स्त्री-पुरुष जोड़े वाला अर्थात शरीर के आगे-पीछे के भागों वाला यब-युम भी संतुलित होना चाहिए। और दोनों किस्म के यब-युम जोड़े भी आपस में संतुलित होने चाहिए। यह अलग बात है कि क्या कोई अपने शरीर के अंदर ही स्त्री-पुरुष जोड़ा ढूंढ लेता है, तो कोई बाहर से किसी यौन साथी की सहायता लेता है।
पुरुष के लिए स्त्री स्त्री है और स्त्री के लिए पुरुष स्त्री है~ यौन भेदभाव भ्रमपूर्ण और सापेक्ष है, सत्य और निरपेक्ष नहीं है
दरअसल स्त्री का अस्तित्व ही नहीं है। हर जगह पुरुष ही पुरुष है। स्त्री हमें भ्रम से दिखाई देती है। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि सम्भोग योग के समय स्त्री भी अपनी रज शक्ति को इसी तरह अपनी पीठ से ऊपर खींचती है जिस तरह पुरुष वीर्य शक्ति को अपनी पीठ से ऊपर खींचता है। मेरुदण्ड ही दरअसल पुरुष है, जो पुरुष और स्त्री में एकसमान है। इसी तरह आत्मा ही पुरुष है जो दोनों में एकसमान है। इसी तरह शरीर का अगला हिस्सा ही स्त्री है, और वह भी दोनों में एकसमान है। जो स्त्री सम्भोग योग के लिए पहल करती है, वह पुरुष की तरह लगती है। ऐसा इसलिए क्योंकि वह यौन योग से अपनी मूलाधारनिवासिनी शक्ति को ऊपर खींचना चाहती है। जो पुरुष सम्भोग योग से शर्माए, वह स्त्री की तरह प्रतीत होता है। वह इसलिए क्योंकि वह इसलिए सम्भोग योग से दूर भाग रहा है, क्योंकि वह शक्ति को ऊपर नहीं खींच पाएगा, और उसे नीचे की ओर गिरा देगा, शरीर के स्त्रीरूप अगले भाग की तरह। इसलिए स्त्री को स्त्रीरूप समझना मुझे ऐतिहासिक साजिश लगती है, जिसके अनुसार स्त्री अपनी शक्ति गिराती रहे, और पुरुष अपनी शक्ति उठाता रहे। पर तंत्र में ऐसा नहीं है। तंत्र में अपनी शक्ति उठाने का दोनों को समान अधिकार है। इसीलिए तंत्र में स्त्री पुरुष दोनों बराबर हैं। हालांकि यह अलग मामला है कि पुरुष को यौन शक्ति के संरक्षण की ज्यादा आवश्यकता है, क्योंकि तुलनात्मक रूप में उससे स्त्री साथी से कहीं ज्यादा शक्ति की बर्बादी होती है।
स्त्रीपुरुष का जोड़ा जितना बराबर उतना अच्छा, हालांकि बेमेल जोड़ यिन-यांग गठबंधन को बढ़ावा देते हैं
मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि एकसमान कद-काठी होने से पूरे शरीर में व्याप्त यिन और यांग आपस में ज्यादा अच्छे से घुलमिल जाते हैं, जिससे ज्यादा अच्छा अद्वैत भाव पैदा होता है। इससे ज्यादा कुंडलिनी लाभ मिलता है। वैसे तो पुरुष और स्त्री दोनों अपने एक ही शरीर में होते हैं, पर उसे पाने के लिए बाहर से मदद लेनी ही पड़ती है। देखा जाए तो यौन शक्ति के आध्यात्मिक रूपान्तरण के लिए दो-चार इंच का क्षेत्र ही काफी होता है, पर यिन-यांग के गठजोड़ के लिए तो भरापूरा और विपरीतता के साथ मिलताजुलता शरीर चाहिए होता है। इससे अतिरिक्त लाभ मिलता है। लगता है कि पुराने जमाने में इसपर ज्यादा गौर नहीं किया जाता था, इसीलिए विवाह से पहले शरीर मिलाने की बजाय नवग्रह-जन्मपत्री मिलाई जाती थी। पता नहीं इसमें क्या विज्ञान है कि प्रत्यक्ष को नजरन्दाज करके अनुमान पर भरोसा किया जाए। सम्भवतः यह नियम सामाजिक समरसता बनाए रखने के लिए भी था, ताकि सभी मर्द चंद खूबसूरत औरतों पर ही न टूट पड़ते, और कुरूप औरतें अविवाहित ही न रह जातीं या उन्हें निम्न दर्जे के मर्द से ही संतुष्ट न होना पड़ता। दरअसल व्यवहार में होता क्या है कि यदि यिन-यांग अच्छे से मैच हो जाए, तो कदकाठी मैच नहीं करते, और यदि कदकाठी अच्छे से मैच हो जाए, तो यिनयांग अच्छे से मैच नहीं होते। इसलिए समझौता करना पड़ता है। यदि दोनों गुण सर्वोत्तम रीति से मैच हो जाए, तो सर्वोत्तम जोड़ी मानी जाए। मेरे साथ भी ऐसा ही होता था। यिनयांग बहुत जबरदस्त ढंग से मैच होता था, पर कदकाठी जरा भी मैच नहीं होते थे। अंततः जन्मपत्री के ऊपर ही सभी कुछ छोड़ना पड़ा। इससे सब ठीक ही रहा। बोलने का मतलब है कि यदि प्रत्यक्ष से काम न बने, तभी पूरी तरह से अदृश्य के सहारे होना चाहिए। वैसे कुल मिलाकर यह निष्कर्ष भी निकलता है कि छोटी कद-काठी यिन है, और बड़ी कद-काठी यांग होता है। इसलिए लम्बू-छोटू जोड़ी बनना भी स्वाभाविक और योगानुसार ही है।
चाइनीज यिन सुस्त और यांग चुस्त है, जबकि तांत्रिक यिन चुस्त और यांग सुस्त है~ दो प्रकार के यौन तंत्र
इसका मतलब है कि चाइनीज सिस्टम में विषमवाही तंत्र को ज्यादा मान्यता है, जबकि भारतीय तंत्र में समवाही तंत्र को। विषमवाही तंत्र मतलब औरत को एक तांत्रिक मशीन समझा जाता है। उसकी इससे ज्यादा अपनी कोई अहमियत नहीं। इसलिए वह सुस्त और दबी हुई सी रहती है। उसकी सहायता से प्रकाश अर्थात कुंडलिनी को घुमाया जाता है। उस कुंडलिनी के रूप में कोई भी मानसिक चित्र हो सकता है, पर वह स्त्री नहीं। इसके विपरीत समवाही तंत्र में स्त्री को कुंडलिनी अर्थात देवी का रूप दिया जाता है। इससे वह अपनी मनमोहक छटाएं प्रदर्शित करती है। इससे स्त्री को भरपूर सम्मान मिलता है। उसे पुरुष के बराबर या उससे भी बढ़कर माना जाता है। आपने देखा होगा कि कैसे भगवान विष्णु देवी लक्ष्मी की, भगवान शिव देवी पार्वती की और भगवान ब्रह्मा देवी सरस्वती की सेवा में लगे रहते हैं। बाकि अपवाद तो हर सिस्टम में ही देखे जाते हैं।
क्या हम स्वाधिष्ठान चक्र के जागरण को बिमारी तो नहीं मान रहे? प्रोस्टेट संभोग शिश्न संभोग से बेहतर है
यहाँ पर बेनाइन प्रॉस्टेट हाइपरट्रॉफी मतलब बीएचपी या प्रॉस्टेट की जलन अर्थात इन्फलेमेशन का जिक्र हो रहा है। परमात्मा शिव ने पूर्वोक्त कार्तिकेय जन्म की कथा में कबूतर बने अग्निदेव को कहा था कि तेरी जलन ठंडे जल से स्नान करने वाली ऋषिपत्नियां हर लेंगी। उस जलन को ही विज्ञान की भाषा में प्रॉस्टेट इंफ्लेमेशन अर्थात प्रॉस्टेटाइटिस या बीएचपी नामक रोग कहते हैं। कहीं यही स्वाधिष्ठान चक्र का जागरण तो नहीं, जिसे शीतजल स्नान से व कुंडलिनी योग से ठीक किया जा सकता हो। वैसे स्वास्थ्य विशेषज्ञ भी मान रहे हैं कि ज्यादातर प्रॉस्टेट प्रॉब्लम चिंता या अवसाद से होती है, जिसे दूर करने के लिए योग एक रामबाण उपाय है। बात कुल मिलाकर वही है। ठंडे जल के स्पर्ष से वह जलन दूसरे चक्रोँ पर चली जाती है, मतलब वे जागृत हो जाते हैं। इसमें सबसे ज्यादा सम्भावना मणिपुर चक्र के जागृत होने की होती है, क्योंकि चक्र क्रमवार ही जागृत होते हैं। पर ऐसा भी नहीं हमेशा। यह जलन सीधी विशुद्धि चक्र और अनाहत चक्र को भी जा सकती है। उक्त कथा के अनुसार महादेव एक हजार वर्षों तक देवी पार्वती के साथ एक गुफा में विहार करते रहे, और अंततः उनका मूलाधार चक्र और फिर स्वाधिष्ठान चक्र जागृत हो गया। जब स्वाधिष्ठान चक्र जागृत हुआ, तब वे गुफा से बाहर आए मतलब आध्यात्मिक कामक्रीड़ा से विरत हुए। मेरे बोलने का मतलब है कि स्वाधिष्ठान चक्र के जागरण के रूप में जो कुदरत का तोहफा मिलता है, लोग उसे दूर करने के लिए इलाज करवाने भागते हों या उससे परेशान होते हैं, जबकि उसकी ऊर्जा अन्य चक्रोँ को देकर कुंडलिनी लाभ भी मिलता हो, और वह शांत भी रहता हो। ये मैं इसलिए भी कह रहा हूँ क्योंकि आजकल प्रॉस्टेट की उत्तेजना या जलन से प्राप्त प्रॉस्टेट आर्गेस्म प्राप्त करने की होड़ सी लगी है। बहुत से यंत्र और तकनीकें विकसित हो रही हैं इसके लिए। अनुभवी लोग बताते हैं कि पेनाइल आर्गेस्म के विपरीत प्रॉस्टेट आर्गेस्म बहुत ज्यादा चिरस्थायी होता है, और आनंद भी ज़्यादा देता है। पेनाईल आर्गेस्म तो स्खलन के कुछ क्षणों तक ही मौजूद रहता है। इसमें वाकई अध्यात्मवैज्ञानिक शोध की जरूरत है।
यौन संयम क्यों न अपनाया जाए~ वामपंथी और दक्षिणपंथी जीवन शैली के बीच एक स्वस्थ संतुलन
जैसा कि शिवपुराण में रहस्यात्मक रूप में कहा गया है कि वीर्यपात-अवरोधी सम्भोग से प्रॉस्टेट में स्थायी जलन अर्थात इन्फलेमेशन हो सकती है, हालांकि उसे दूर करने का उपाय भी बताया गया है, तब क्यों न यह मान लिया जाए कि वैष्णवों का दक्षिणाचार ही अच्छा है। या कम से कम यह मान लो कि मध्यमार्ग अच्छा है, जिसमें पुरुष-स्त्री के बीच में असीम सात्विक प्रेम होता है, पर शारीरिक संबंध नहीं होता। इससे यब-युम लाभ मिलने से कुंडलिनी भी घूमेगी, और स्वास्थ्य समस्या भी पैदा नहीं होगी। मतलब हर तरफ लाभ ही लाभ। तो मेरा मानना है कि विवाह न होने तक ऐसा ही परहेज रखना चाहिए। इससे स्वस्थ सामाजिकता भी बनी रहेगी और कुंडलिनी भी बनी रहेगी। विवाह के बाद तो प्रेम के साथ ज्यादा संयम रखना मुश्किल हो जाता है। साथ में, मुझे यह भी लगता है कि कुंडलिनी जागरण को प्राप्त करने के लिए बहुत शक्ति की जरूरत होती है, इसलिए भगवान शिव की तरह अविरत सम्भोग योग जरूरी है। जब एक-दो महीने के भीतर जागरण हो जाए, तो स्वास्थ्य सुरक्षा को देखते हुए सम्भोग कम कर दे। यदि जागरण न होए, तो भी 1-2 महीने ही प्रयास करे, क्योंकि इसका मतलब है कि व्यक्ति जागरण के लिए परिपक्व नहीं है, और अतिरिक्त प्रयास अधिकांशतः विफल ही जाएगा, व स्वास्थ्य समस्याएं भी पैदा करेगा। फिर कुछ वर्षों तक साधारण तांत्रिक कुंडलिनी योग का अभ्यास करते हुए जागरण के लिए पात्र बनाने वाला लाइफस्टाइल अपनाए, और उचित समय और अवसर और एकांत मिलने पर जैसे कि शांति, तनाव व काम के बोझ में कमी महसूस होने पर और शक्ति का अहसास होने पर फिर 1-2 महीने के लिए अविरत व समर्पित सम्भोग योग करे। इस तरह करता रहे। या दूसरा तरीका यह अपनाए कि भगवान शिव की तरह सर्व-आनंदमयी सम्भोग योग में सालों तक अर्थात तब तक दिनरात इच्छानुसार लगा रहे, जब तक कि प्रॉस्टेट में जलन न होने लगे अर्थात जब तक स्वाधिष्ठान चक्र जागृत न हो जाए, और उससे खुद ही सम्भोग से मन न ऊबने लगे। उस अवस्था के बाद आदमी उभयलिंगी सा बनकर अपने साथ ही संभोग योग करने लगता है। कामकाज के बोझ से उसके आगे के स्वाधिष्ठान चक्र पर जलन के रूप में शक्ति इकठ्ठा होती रहती है, जिसे वह योग व शीतजल स्नान की सहायता से पीठ से ऊपर चढ़ाता रहता है। यह चक्र चलता रहता है। इससे वह अंततः धीरेधीरे क्रमवार चक्रोँ को जागृत करते हुए सहस्रार को जागृत करके पूर्ण जागृति प्राप्त कर लेता है, उपरोक्त प्रथम उपाय की तरह एक-दो महीने के ताबड़तोड़ सम्भोग योग से एकदम से जागृति प्राप्त नहीं करता। इस पर भी मनोवैज्ञानिक शोध की जरूरत है।
शक्ति का प्रवाह नाड़ियों के माध्यम से होता है, जिसे विज्ञान की भाषा में नर्व कहते हैं~ कैसे शिव तक पहुँचती है शक्ति
कोई भी काम शक्ति से ही होता है। यदि सड़क पर गाड़ी चल रही है तो कहेंगे कि इंजन शक्ति से गाड़ी चली। अगर टांगा चल रहा है तो कहेंगे कि यह अश्व शक्ति से या संक्षेप में शक्ति से चल रहा है। शक्ति का भी कोई प्रेरक जरूर होता है। इंजन शक्ति और अश्व शक्ति, दोनों का प्रेरक ईंधन या अग्नि है। हमारा शरीर भी नाड़ी शक्ति या सिर्फ शक्ति से चलता है। यदि नाड़ी शक्ति न हो, तो हट्टाकट्टा शरीर भी किसी काम का नहीं है। आपने देखा होगा कि पक्षाघात के बाद कैसे बाजू या टांग काम करना बंद कर देती है। वैज्ञानिक रूप से शक्ति या नाड़ी शक्ति नर्व फाइबर्स की क्रियात्मक उत्तेजना के रूप में ही होती है। शरीर की इसी नाड़ी शक्ति को ही संक्षेप में शक्ति कहते हैं। क्या आपने कभी सोचा कि इस शक्ति को प्रेरित करने वाली क्या चीज है? दार्शनिकों ने ऐसा सोचा भी और लिखा भी, जो धर्मशास्त्रों में पढ़ने को मिल जाता है। इंजन की गति रूपी नाड़ी शक्ति को भोजन रूपी ईंधन के सहयोग से प्रेरित करने वाला तत्त्व अग्नि-चिंगारी रूपी चेतन आत्मा ही है। मूलाधार में जो आनंदपूर्ण संवेदना महसूस होती है, वही इस शक्ति को प्रेरित करती है। अर्थात यह सबसे बड़ी मात्रा वाली शक्ति को प्रेरित करती है, जिसे हम कुंडलिनी शक्ति कहते हैं। जब इसे प्राण वायु का विशेष बल भी साथ में मिले, तब इसे ही प्राण शक्ति भी कहते हैं। वैसे तो हर प्रकार का चेतन अनुभव हमारी शक्ति को प्रेरित करता रहता है, जिससे हम जीवित बने रहते हैं, पर क्योंकि मूलाधार की अनुभूति सबसे अधिक आनंददायक और चेतना से भरी है, इसीलिए इसे ही शक्ति या कुंडलिनी शक्ति या प्राण शक्ति का स्रोत कहा जाता है। मुझे आज यह बात समझ में आई कि शास्त्रों में ऐसा क्यों कहा गया है कि परमात्मा अर्थात चेतना ही शक्ति का मूल स्रोत है। शास्त्रों में वैज्ञानिक रूप से ज्यादा विस्तार नहीं लगता मुझे तथ्यों का, सम्भवतः इसीलिए क्योंकि पुराने युग में तथ्य विश्वास के आधार पर समझे या माने जाते थे, वैज्ञानिक जाँचपड़ताल के आधार पर नहीं। चेतना के इसी शक्तिप्रेरक योगदान के कारण ही डोपामीन अर्थात रिवार्ड कैमिकल काम करता है। जो चढ़दी कला में होते हैं, उनके आगे सफलता के द्वार एक के बाद एक खुलते जाते हैं। पर कई बार ज्यादा ही चढ़दी कला से उच्च रक्तचाप और तनाव आदि से संबंधित समस्याएं भी पैदा हो जाती हैं। यह ऐसे ही होता है जैसे बिजली की जरूरत से ज्यादा वोल्टेज से बल्ब ही फ्यूज हो जाता है। मूलाधार की संवेदना पर पैदा हुई शक्ति तो चढ़ेगी ही चक्र तक, क्योंकि उसके साथ चक्र पर चेतन कुंडलिनी का ध्यान किया जा रहा होता है। जिस रास्ते से शक्ति गुजरती है, उसे नाड़ी या चैनल कहते हैं। चक्र पर वह शक्ति ज्यादा प्रभाव पैदा करती है, क्योंकि वहाँ जड़ जैसी संवेदना के साथ चेतन कुंडलिनी चित्र का भी ध्यान होता है। इसीलिए कहते हैं कि शक्ति शिव की ओर गमन करती है। कई लोग कुंडलिनी योग से तृप्त नहीं होते। इसकी मुख्य वजह है कि उनके मूलाधार पर शक्ति ही पैदा नहीं हुई होती है। मूलाधार को हम शक्ति उत्पादक यंत्र कह सकते हैं। वे चक्रोँ पर कुंडलिनी चित्र का ध्यान भी करते हैं, पर फिर भी प्यासे से बने रहते हैं। शक्ति की प्यास को तो मूलाधार ही बुझा सकता है। प्रजनन से सृष्टि के विस्तार के लिए ही मूलाधार को विशेष शक्ति दी गई है। होता तो सब नर्व फाइबर से ही। मतलब कि मूलाधार में यह उत्तम गुणवत्ता का है। यह तो मुर्गी और अंडे के जैसी कहानी है। पहले मूलाधार में नर्व फाइबर की उत्तेजना से शक्ति पैदा होती है, फिर वह शक्ति मेरुदण्ड से होकर मस्तिष्क तक जाती है, और उससे मस्तिष्क में आनंदमयी संवेदना महसूस होती है, फिर वह आनंदमयी संवेदना भी नर्व फाइबरस को उत्तेजित करती है, जिससे और शक्ति पैदा होती है। मस्तिष्क से वह शक्ति नाड़ीजालों के माध्यम से पूरे शरीर में और मूलाधार तक फैल जाती है। मतलब शक्ति एक बंद लूप जैसा बनाती है। शक्ति का लूप में घूमना ही माईक्रोकोस्मिक औरबिट के आधार में है। यही बंद लूप ही औरोबोरस सांप है। चिकित्सा विज्ञान की भाषा में इसे रिफ़लेक्स आर्क कहते हैं। यदि उस समय हम किसी विशेष चक्र पर कुंडलिनी चित्र का ध्यान करें, तो शरीर के अन्य हिस्सों की अपेक्षा शक्ति उसी चक्र पर ज्यादा पहुंचती है, जिससे वहाँ कुंडलिनी चित्र और अधिक चमकने लगता है। मतलब कि शक्ति मानसिक चित्र को ज्यादा से ज्यादा चमकाने की कोशिश करती है, ताकि वह जागृत होकर शिव बन सके। यही शक्ति का शिव की तरफ गमन है। कुंडलिनी चित्र का मतलब किसी के ऊपर प्रेम न्योछावर करना नहीं है, बल्कि उसकी मदद से शक्ति को काबू करना है। कहीं ज़ख्म वगैरह हो जाए तो वहाँ दर्द और लाली पैदा हो जाती है। दर्द वह चेतन संवेदना है जो लाल रंग की शक्ति को अपनी ओर खींचती है। फिर कहेंगे कि जिन अंगों की दर्द महसूस नहीं होती, वहाँ शक्ति कैसे पहुंचती है और उनकी हीलिंग कैसे होती है। इसमें चेतना द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से काम होता है। जब दर्द वाले हिस्से से नाड़ी ऊर्जा मस्तिष्क को पहुंचती है, तो मस्तिष्क के अनुभव न होने वाले हिस्से में संवेदना पैदा करती है। इससे वहाँ बहुत सी नाड़ी ऊर्जा और उससे जुड़े रसायनों की खपत हो जाती है। इससे मस्तिष्क के चेतन अनुभव पैदा करने वाले हिस्से में नाड़ी ऊर्जा की कमी हो जाती है। इससे आदमी आनंदहीन सा रहने लगता है। इसलिए चेतना के आनंद को पैदा करने के लिए यही रास्ता बचता है कि शरीर की गहराई में दबे ज़ख्म को जल्दी से जल्दी भरा जाए। इसके लिए नाड़ी ऊर्जा उस ज़ख्म पर केंद्रित होने लगती है। दरअसल रक्त प्रवाह के आधार में यही नाड़ी ऊर्जा होती है। रक्त प्रवाह अगर गाड़ी है, तो उसे नियंत्रित करने वाली नाड़ी ऊर्जा उसका चालक है। चेतन आत्मा को आप स्टेशन मास्टर कह सकते हैं। जब हम नाड़ी ऊर्जा को मूलाधार से मेरुदण्ड के रास्ते ऊपर चूसते हैं, तब रक्त प्रवाह भी खुद ही ऊपर चला जाता है। इससे ही मूलाधार के आसपास का दबाव घटा हुआ महसूस होता है। रक्त तो मेरुदण्ड से ऊपर नहीं चढ़ सकता, क्योंकि उसमें नर्व फाइबर की एक रस्सी है, कोई रक्त की नलिका नहीं है। इसलिए कुंडलिनी योग का साधारण सा सिद्धांत है कि गाड़ी चालक को नियंत्रित करो, गाड़ी खुद नियंत्रित हो जाएगी।
नाड़ियों का जाल ही शिव पर लिपटे सर्प हैं~ नागों से भरा मानव शरीर
भगवान शिव पर लिपटे सर्प आदि को देखकर पार्वती की मां मैना डर गई थीं। दरअसल शिव एक महा योगी थे। उनके शरीर की हरेक नाड़ी जागृत थी, केवल सुषुम्ना ही नहीं। इससे वे हरेक नाड़ी में सरसराहट के साथ कुंडलिनी को महसूस करते रहते थे हमेशा। स्वाभाविक है कि उन सरसराहटों को अनुभव करते हुए उनके अंगों का स्वभाव व उनकी चाल भी सर्प की तरह हो गई हो, जिसे मैना महसूस कर पा रही हो। शायद योगी गोपीकृष्ण के साथ भी ऐसा ही होता था। उन्हें अपने शरीर की हरेक नाड़ी की गति महसूस होती थी। इससे वे परेशान भी हो गए थे। फिर वे उसके अनुसार ढल भी गए थे। इसी पर आधारित सुंदर रचना है शिवपुराण में, त्रिपुरासुर वध की, जो मैं निचले पैराग्राफ में लिख रहा हूँ, संक्षेप में।
त्रिपुरासुर राक्षस प्रकृति के तीन गुण हैं, और कुंडलिनी जागरण ही उनको मारना है~ एक शिव पुराण कथा का रहस्योद्घाटन
एक राक्षस का पुर सोने का, एक का चांदी का और एक का लोहे का था। ये क्रमशः सत्त्व, रजस और तमो गुण के प्रतीक हैं। राक्षस मतलब इन गुणों के साथ उठने वाली आसक्तिपूर्ण भावनाएँ। इनको मारने के लिए शिव मतलब आत्मा ने शरीर रूपी रथ बनाया, मंन्द्राचल मतलब मेरुदण्ड को धनुष बनाया, और वासुकि नाग मतलब सुषुम्ना नाड़ी को बाण बनाया। राक्षसों से युद्ध किया मतलब मूलाधार से कुंडलिनी शक्ति को योगसाधना से सुषुम्ना के रास्ते ऊपर चढ़ाया और उसे सहस्रार में जागृत किया। उससे प्रकृति के तीनों गुणों के प्रति सारी आसक्ति खत्म हो गई मतलब त्रिपुरारि राक्षस मर गए। इससे शरीर में बसने वाले देवता खुश हो गए क्योंकि वे शरीर के बंधन से मुक्त हो गए। कभी समय लगा तो इस पर और प्रकाश डालूंगा, पर मूल चीज यही है।
उज्जैन का महाकाल ज्योतिर्लिङ्ग
उज्जैन में महाकाल मंदिर में यह त्रिपुरासुर वाली घटना घटी थी, ऐसा कहते हैं। इसीलिए अभी हाल ही में निर्मित भव्य महाकाल कोरिडोर में इसको दर्शाती मूर्तियां और कलाकृतियाँ प्रमुखता से सबसे मुख्य स्थान पर लगाई गई हैं। त्रिपुरासुरों को मारने के कारण ही महादेव शिव को त्रिपुरारि भी कहते हैं।
शक्ति का गमन बिना सीधी नाड़ी के भी होता है~ मन एक विद्युत चुम्बकीय तरंग के रूप में और कुंडलिनी छवि एक इलेक्ट्रॉन के रूप में तंत्रिका रूपी विद्युत तार में यात्रा करती है
वैसे शक्ति का गमन बिना सीधी नाड़ी के भी होता है, हालांकि लगता है कि पीठ की सुषुमना नाड़ी से ही सबसे ज्यादा शक्ति का गमन होता है, जिससे कुंडलिनी जागरण होता है। शरीर के आगे के भाग के चैनल में तो पीठ की तरह सीधी नाड़ी होती ही नहीं। वहाँ तो कुंडलिनी चित्र की मदद से ही स्टेप बाय स्टेप चक्रोँ से होते हुए गमन होता है। अगर आप फ्रंट आज्ञा चक्र पर कुंडलिनी चित्र का ध्यान करो तो आपका पेट अंदर की ओर सिकुड़ेगा, मतलब शक्ति फ्रंट आज्ञा चक्र से फ्रंट मणिपुर चक्र तक पहुंच गई। यह एकदम कैसे हुआ जबकि दोनों चक्रोँ को जोड़ने वाली कोई सीधी नाड़ी नहीं है। दरअसल योगाभ्यास में हम ऊपर से नीचे तक बारीबारी से सभी चक्रोँ पर कुंडलिनी चित्र का ध्यान करते हैं। जिस चक्र पर कुंडलिनी चित्र होता है, वहाँ शक्ति क्रियाशील हो जाती है, क्योंकि चेतन शिव शक्ति को नचाता है अर्थात उसे क्रियाशील करता है, और शक्ति फिर बदले में शिव को भी नचाती है मतलब उसे ज्यादा अभिव्यक्त करती है। इससे वहाँ सिकुड़न सी महसूस होती है, और कुंडलिनी चित्र भी ज्यादा चमकने लगता है। शक्ति तो पहले भी वहाँ होती है, पर वह सोई जैसी अवस्था में होती है। विज्ञान की भाषा में इसे ऐसे कह सकते हैं कि वहाँ नाड़ी चलाने वाले कैमिकल अर्थात न्यूरोट्रान्समिटर तो मौजूद हैं, पर क्रियाशील अवस्था में नहीं हैं। बिल्कुल विद्युत तरंग की तरह काम होता है। जैसे वास्तव में इलेक्ट्रोन तो बहुत धीमी गति से चलते हैं, एक घंटे में कुछ मीटर ही, पर उन इलेक्ट्रोनों को धक्का देने वाली विद्युतचुम्बकीय तरंग प्रकाश की गति से चलती है, इसलिए धरती के एक छोर पर स्विच ऑन करने पर धरती के दूसरे छोर पर उसी क्षण विद्युत करेंट पहुंच जाता है। उसी तरह नाड़ी चलाने वाले रसायन तो घूम फिर कर निचले चक्र पर पहुंचने में कुछ सेकंड लगा सकते हैं, क्योंकि सभी नर्व फाइबर्स आपस में कहीं न कहीं से जुड़े हैं, बेशक अगले चक्रोँ को कोई सीधी नाड़ी आपस में नहीं जोड़ती, पर मन से सोचा गया कुंडलिनी चित्र एक क्षण में ही निचले चक्र पर पहुंच जाता है। वह कुंडलिनी चित्र ही वहाँ की स्थानीय नाड़ियों को क्रियाशील करके वहाँ चमक के साथ संकुचन पैदा करता है। यह ऐसे ही है जैसे विद्युतचुंबकीय तरंग अपने दायरे में आने वाले इलेक्ट्रोनों को गति देते हुए एक क्षण में ही हजारों किलोमीटर लम्बी विद्युत तार में फैल जाती है। इसलिए हम मन की तुलना विद्युतचुम्बकीय तरंग से कर सकते हैं।
कुंडलिनी योग में सहायक शीतजल स्नान~कुंडलिनी जागरण के स्वघोषित दावे की पुष्टि के लिए जाँच में अहम
दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि कि कैसे सम्भोग योग पूरी तरह से शिवपुराण में उल्लिखित कार्तिकेय जन्म की प्रसिद्ध कथा पर आधारित है। कबूतर बने अग्निदेव ने कैसे शिवतेज को सप्तऋषि-पत्नियों के रूप में निरूपित चक्रोँ को देकर अपनी जलन को कम किया। वे ऋषिपत्नियां कड़ाके की ठंड के महीने में सुबह के ब्रह्म मुहूर्त में ठंडे पानी से नहाती थीं। दरअसल वे ठंड से काम्पती हुई ऋषिपत्नियां अग्निदेव के पास तपिश लेने गईं। अग्नि की चिंगारी के साथ शिवतेज उनके अंदर प्रविष्ट हो गया। होता क्या है कि ठंडे पानी से नहाते समय चक्रोँ की मांसपेशियों में ठंड से सिकुड़न पैदा हो जाती है जिससे पेट में ऊपर की तरफ खिंचाव लगता है। इससे स्वाधिष्ठान चक्र के निकट यौनाँग पर स्थित वीर्यतेज ऊपर की तरफ चढ़कर सभी सातों चक्रोँ में फैल जाता है। इससे प्रॉस्टेट का दबाव भी कम हो जाता है, या यूँ भी कह सकते हैं कि ऊर्जा की कमी से पेशाब को रोक कर रखने वाली मांसपेशियां ढीली पड़ जाती हैं, इसीलिए ठंडे पानी से नहाते समय बारबार और खुलकर पेशाब आता है। डर के समय भी लगभग यही प्रक्रिया होती है, इसीसे यह कहावत बनी है कि वह इतना डर गया कि उसकी पेंट गीली हो गई। दरअसल डर से मस्तिष्क में अंधेरा या शून्य सा छा जाता है, जो ऊर्जा को नीचे से ऊपर की ओर चूसता है। उस तेज की शक्ति से चक्रोँ पर मांसपेशियों की सिकुड़न और ज्यादा बढ़ने से उन पर गर्मी पैदा हो जाती है। यही ऋषिपत्नियों के द्वारा आग की तपिश लेना और उसके माध्यम से शिवतेज को प्राप्त करना है। इससे चक्रोँ पर रक्तसंचार बढ़ जाता है, जिससे वहाँ कुंडलिनी चित्र चमकने लगता है, क्योंकि जहाँ पर रक्त या वीर्य या प्राण है, वहीं पर कुंडलिनी है। दरअसल रक्त की अपेक्षा वीर्य तेज कुंडलिनी को बहुत अधिक शक्ति देता है। इसीलिए कहते हैं कि रक्त की हजारों बूंदों से वीर्य की एक बूंद बनती है। चक्र की सिकुड़न के साथ यदि स्वाधिष्ठान व मूलाधार चक्र की वीर्य जलन का ध्यान न किया जाए, तो उस चक्र पर कुंडलिनी चित्र नहीं बनता, सिर्फ सिकुड़न ही रहती है। इसीलिए कहते हैं कि कुंडलिनी मूलाधार में निवास करती है। इसी कुंडलिनी चित्र को ऋषिपत्नियों का गर्भस्थित बालक कहा गया है, क्योंकि जैसे वीर्य से गर्भ बनता है, उसी तरह कुंडलिनी चित्र भी बनता है। इसीलिए भगवान शिव देवी पार्वती द्वारा शापित कबूतर बने अग्निदेव को आश्वासन देते हुए कहते हैं कि वह उनके वीर्य तेज को सप्तऋषि पत्नियों को दे, जिससे उसकी जलन शांत हो जाएगी। आश्चर्य होता है शिवपुराण की इस नायाब और वैज्ञानिक तरीके से कही गई कथा पर। जैसे सम्भोग योग से वीर्यतेज ऊपर चढ़ता है, वैसे ही ठंडे जल से स्नान से भी। इसीलिए सम्भोग योग और शीतजल स्नान दोनों क्रियाओं को एक जैसा दिखाया गया है। यानी सामाजिक रूप से शर्मनाक कारणों से ठंडे पानी के स्नान के रूप में यौन योग से ओतप्रोत कहानी को अच्छी तरह से बताया गया है। यह एक अच्छा विकल्प है। यह एक बुद्धिमान युक्ति है। हो सकता है कि जो भगवान शिव को बर्फीली पर्वत चोटियों में निवास करते हुए दिखाया गया हो और शिवलिंगम को लगातार बूँदबूँद गिर रहे पानी से नहाया जाता हो, और बरसात के मौसम के वर्तमान के जुलाई-अगस्त अर्थात श्रावण के महीने को भी इसी कारण से शिव-विशिष्ट महीना माना गया हो। स्वर्ग से नीचे गिरती हुई गंगा नदी शिव को स्नान कराते हुए ही धरा के ऊपर प्रविष्ट होती है। मैं यहाँ कुछ दार्शनिक जुगाली भी करना चाहूंगा। सम्भोग का प्राथमिक उद्देश्य कुंडलिनी जागरण लगता है, संतानोत्पत्ति तो द्वितीयक या सहचर उद्देश्य है सम्भवतः। संतान इस इनाम के तौर पर है कि फलां आदमी ने कुंडलिनी जागरण प्राप्त करके अपना जीवन सफल कर लिया है, अब वह अपने जैसी संतान को पैदा करके उसका जीवन सफल करने में भी मदद करे। इसका प्रमाण है, गृहस्थ आश्रम से पहले ब्रह्मचर्य आश्रम का होना। इसमें आदमी द्विज मतलब जागृत बन जाता था। ब्रह्मचर्य का मतलब ही वीर्य शक्ति को बर्बाद न करके ऊपर चढ़ाना है। यह अलग बात है कि यदि इस आश्रम अवस्था में कोई कमजोर आदमी कुंडलिनी जागरण को प्राप्त न कर पाए, तो गृहस्थ आश्रम में भी कुछ वर्षों तक सम्भोग योग की मदद ले सकता है। यह ऐसे ही है जैसे कोई कमजोर बच्चा अगली कक्षा में जाने के बाद भी पिछली कक्षा की कमी को पूरा करने के लिए अतिरिक्त समर्पित कोचिंग या प्रशिक्षण लेता है। इसे सुपर ब्रह्मचर्य या आपातकालीन ब्रह्मचर्य या एकस्ट्राआर्डिनरी ब्रह्मचर्य कह सकते हैं। जब से संतानोत्पत्ति सम्भोग का प्राथमिक उद्देश्य बना, तब से ही लोग कुंडलिनी जागरण को भी भूलने लगे और विश्व की जनसंख्या भी बेतरतीब बढ़ने लगी। मैं फेसबुक में पढ़ रहा था कि फलां आदमी ने तीस हजार लोगों को उनके पिछले जन्मों की याद दिला दी, और फलां आदमी ने दस हजार लोगों को। क्या किसी ने किसी को कुंडलिनी जागरण भी करवाया, इसकी कोई चर्चा नहीं। मुख्य काम पीछे, गौण काम आगे। इधर ये वर्तमान जीवन ही भुलाए नहीं भूलता, और उधर कुछ लोग गत जन्मों के जीवनों को भी याद कराने में लगे हैं। अजीब और हास्यास्पद विडंबना लगती है यह। मुझे तो यह भी लगता है कि आगे वाले चैनल को अर्धनारीश्वर के बाएं अर्थात स्त्री भाग और मेरुदण्ड वाले चैनल को दाएं अर्थात पुरुष भाग के रूप में दिखाया गया है। यब-युम आसन भी तो ऐसा ही होता है। सम्भवतः यब-युम आसन के प्रति लज्जा संकोच के कारण ही ऐसा दिखाया गया हो। वैसे भी फोटो वगैरह टू डिमेंशनल बैकग्राउंड पर थ्री डिमेंशनल यब-युम को दिखा भी नहीं सकते। पर मूर्ति में तो दिखा सकते थे। इसलिए लज्जा संकोच ही मुख्य वजह लगती है। ये दोनों चैनल जुड़कर एक होने की कोशिश करते हैं। इससे मूलाधार की शक्तिशाली कुंडलिनी ऊर्जा एक तरंग के रूप में ऊपर चढ़ती हुई और सभी चक्रोँ को भेदती हुई सहस्रार में प्रविष्ट हो जाती है, और मुड़कर वापिस नीचे नहीं आती, क्योंकि आगे वाला कुंडलिनी चैनल पीछे वाले चैनल में मर्ज हो जाता है। मतलब दोनों चैनलों के जुड़ने से सुषुम्ना नाम का एक केंद्रीय चैनल खुल जाता है। सम्भवतः रीढ़ की हड्डी से थोड़ा आगे स्थित बायाँ अर्थात इड़ा चैनल है, और रीढ़ की हड्डी के थोड़ा पीछे मतलब पीठ की चमड़ी को छूता हुआ चैनल दायां अर्थात पिंगला है। रीढ़ की हड्डी के केंद्र में स्थित स्पाइनल कॉर्ड सुषुम्ना चैनल है। सम्भवतः यही यिन-यांग अर्थात स्त्री-पुरुष आकर्षण का मूलभूत वैज्ञानिक सिद्धांत है। वैसे बहूक्त बायाँ और दायां चैनल भी यथावत अस्तित्व में है। मैं तो बाएं चैनल को मेरुदण्ड के आगे खिसकाकर और दाएं चैनल को मेरुदण्ड के पीछे को खिसकाकर उन्हें अतिरिक्त आयाम प्रदान कर रहा हूँ।
सबको पता है कि जैसे ही चक्र सिकुड़न के माध्यम से गर्मी प्राप्त करते हैं, वैसे ही उनको वीर्यतेज भी प्राप्त हो जाता है। ऋषिपत्नियों ने वह तेज हिमालय को मतलब रीढ़ की हड्डी को दिया। ज़ब शरीर पर ठंडा पानी गिरता है तो योग-श्वासों के साथ उड्डीयान बंध खुद ही लगता है। इसमें पेट अंदर और ऊपर की तरफ भिंचता है। इससे चक्रोँ की जलन मेरुदण्ड को चली जाती है। मेरुदण्ड उस तेज को गंगा नदी मतलब सुशुम्ना नाड़ी को दे देता है। सुषुम्ना उसे किनारों पर उगे सरकंडों मतलब सहस्रार चक्र को देती है, जहाँ कार्तिकेय का जन्म मतलब कुंडलिनी जागरण या कुंडलिनी क्रियाशीलन होता है। यदि सुषुम्ना नाड़ी पूरी खुल जाए तो कुंडलिनी जागरण अन्यथा कुंडलिनी क्रियाशीलन होता है। मतलब कुंडलिनी चित्र मस्तिष्क में सजीव या वास्तविक भौतिक चित्र के जैसा बन जाता है। यही ठंडे पानी से स्नान का महत्त्व है, जिसका वर्णन हर धर्म में है। ईसाई धर्म के बैपटिस्म में भी सम्भवतः ठंडे पानी से सम्भव इसी शारीरिक क्रिया से मस्तिष्क में कुंडलिनी चित्र जीवंत हो जाता है, जिसे इनीशिएशन कहते हैं, जिससे आदमी आध्यात्मिक मुक्ति के पथ पर आरूढ़ हो जाता है। इसीलिए बैपटिस्म चमत्कारी असर दिखाता है अक्सर। गंगा नदी में स्नान के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ इसीलिए लगी रहती है। गंगा नदी का पानी बर्फीला ठंडा होता है जिसमें नहाने से कुंडलिनी शक्ति आनंद पैदा करते हुए दौड़ती है। हिन्दुओं में एक ऋषि पंचमी का व्रत होता है, जिसमें महिला को ठंडे पानी के झरने या तलाब में लगातार लम्बे समय तक नहाना पड़ता है, और पवित्र दाँतुन भी करते रहना पड़ता है। सम्भवतः दाँतुन करने से मस्तिष्क की अतिरिक्त ऊर्जा आगे के चैनल से नीचे उतरती रहती है, जिससे कुंडलिनी को घूमने में आसानी होती है, जिससे ठंड भी नहीं लगती। दरअसल मांसपेशियों की सिकुड़न और नाड़ी का चालन शरीर में गर्मी पैदा करके ठंड से बचाने की शरीर की कुदरती चेष्ठा है, कुंडलिनी लाभ तो सहलाभ अर्थात सेकण्डरी है। तिब्बती बुद्धिस्ट बर्फ की शिलाओं को अपने ऊपर रख कर पिघलाते हैं। इस मुकाबले में जो जितनी ज्यादा शिलाएं पिघलाता है, वह उतना ही बड़ा योगी माना जाता है। सबसे ज्यादा बर्फ की शिलाएं पिघलाने वाला विजयी घोषित किया जाता है। यह ध्यान शक्ति को मापने का अच्छा तरीका है। चक्रोँ पर कुंडलिनी ध्यान से वहाँ पर मांसपेशी की सिकुड़न से गर्मी पैदा होती है, जो बर्फ को पिघलाती है। मैं पिछली पोस्ट में सोच रहा था कि काश किसी के कुंडलिनी जागरण के स्वघोषित दावे को जाँचने का तरीका होता। चाह के कुछ न कुछ मिल ही जाता है। बर्फ की शिलाओं को शरीर पर पिघलाने वाला वही यह तरीका है। यह साधारण, अप्रत्यक्ष, कारगर और व्यावहारिक तरीका है। इसमें खून का सैंपल लेकर उसमें संभावित कुंडलिनी मार्कर को खोजने की जरूरत नहीं है। बेशक कुंडलिनी जागरण का इससे प्रत्यक्ष तौर पर पता न चलता हो, पर कुंडलिनी ध्यान की शक्ति को मापकर अप्रत्यक्ष तौर पर तो पता चल ही जाता है, क्योंकि कुंडलिनी जागरण से कुंडलिनी ध्यान शक्ति में एकदम से इजाफा होता है। यह अलग बात है कि कुंडलिनी योग के लम्बे ध्यान से कुंडलिनी ध्यान शक्ति में बिना जागरण के ही इजाफा हो जाता है। मुख्य चीज यही कुंडलिनी ध्यान शक्ति है, कुंडलिनी जागरण नहीं, ऐसा लगता है मुझे। हालांकि कुंडलिनी जागरण का अपना अलग ही शैक्षणिक और आधिकारिक महत्त्व है। इस जाँच तकनीक से कुंडलिनी जागरण का अंदाजा ही लगाया जा सकता है, उसकी पुष्टि नहीं की जा सकती। इस तकनीक में एक कमी और लगती है। यदि किसी योगी में पर्याप्त कुंडलिनी ध्यान शक्ति है, पर वह कमजोर है, तो सम्भवतः वह ज्यादा देर तक चक्रोँ की सिकुड़न नहीं बनाए रख पाएगा, ऊर्जा की कमी से। यह मेरा अपना अनुमान है, हो सकता है कि ऐसा न हो। पर आम लोगों को बिना अभ्यास के ऐसा नहीं करना चाहिए। ठंड भी लग सकती है। पहाड़ों की तरह ठंडे स्थानों में रहने वाले लोग कुंडलिनी शक्ति के कारण ही ज्यादा चुस्त होते हैं, ऐसा लगता है।
नई चीज को पुरानी चीज से जोड़ने से उसके प्रति लोगों की सकारात्मक सोच कुप्रभावित हो सकती है
मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि जहाँ तक मुझे लगता है, ओशो महाराज ने सम्भोग योग से संबंधित अपने दर्शन को पुरानी मान्यताओं से ज्यादा नहीं जोड़ा। इससे उनकी दार्शनिक चतुराई और निपुणता भी झलकती है। होता क्या है कि हर कोई पुरानी चीज से उबा हुआ जैसा होता है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। आप एकबार स्टेच्यु ऑफ़ यूनिटी घूम आओ, तो दुबारा वहाँ जाने से अच्छा किसी नई जगह को जाना लगता है। इसी तरह, लोगों का अक्सर पुरानी चीजों के प्रति लगाव नई और आधुनिक चीजों से कम होता है। हालांकि कुछ लोगों के साथ उल्टा भी होता है। वे बनी बनाई पुरानी मान्यताओं पर ज्यादा विश्वास करते हैं। उन्हें उनके रहस्योद्घाटन से विशेष लाभ मिल सकता है। कईयों का किसी विशेष धर्म या जीवनपद्धति से पहले ही विशेष पूर्वाग्रह या दुराग्रह बना होता है। अगर वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार खोजी गई तकनीक या दर्शन के लिए बारबार पुरानी या किसी विशेष पद्धति का हवाला दिया जाता रहेगा, तो उसकी नवीनता और रोचकता क्षीण होने लगेगी। इसलिए लगता है कि यह अच्छा रहेगा यदि ऐसा हवाला कम से कम और केवल संदर्भ मात्र के लिए दिया जाए। इससे नवीनता का लाभ भी मिलेगा, और नई पद्धति की प्रामाणिकता पर भी संदेह नहीं होगा। हाँ, पुरानी पद्धतियों का वैज्ञानिक व अनुभव आधारित रहस्योद्घाटन निःसंकोचतापूर्वक किया जा सकता है। सम्भवतः इसीलिए महान चाइनीज दार्शनिक कन्फुसियस कहते थे कि नई परम्पराएं पुरानी परम्पराओं से जुड़ी होनी चाहिए।
कुंडलिनी तंत्र आधारित संभोग योग और ओशो~एक सच जो अधूरा समझा गया
मित्रो, मैं पिछली पोस्ट में ओशो महाराज के सम्मान में उनकी दार्शनिक रचनाओं पर प्रकाश डाल रहा था। वे अपनी दार्शनिक कौशलता से अपनी रचनाओं को सार्थक विस्तार देते थे। सार्थक मतलब उनसे मन की उलझनेँ दूर होती थीं। इसके विपरीत, कई लोगों द्वारा कई जगह निरर्थक विस्तार भी किया जाता है, जिससे मन की उलझनेँ सुलझने की बजाय बढ़ती हैं। इसी तरह सार्थक विस्तार कई रहस्यों को अपने अंदर छुपा कर रखते हैं, ताकि वे अयोग्य व्यक्ति को आसानी से उपलब्ध न हो सकें, पर योग्य व्यक्ति उन्हें अच्छी तरह समझ सकें। पुराणों की शैली भी इसी तरह की सार्थक विस्तारवाद की होती है। विस्तृत कथाओं के बीच में किस्मकिस्म के रहस्य उजागर किए गए होते हैं, जो ज्ञानचक्षु को खोलते रहते हैं। सबसे ज्यादा कारगर लेख बड़े लेख ही होते हैं। बड़े लेखों में दुर्लभ ज्ञान इसी तरह छिपा होता है, जैसे मिट्टी से भरी विस्तृत खदान में सोना। गूगल भी इस बात को समझता है, इसीलिए बड़े लेखों को ज्यादा तवज्जो देता है। अधिकांश लोग विशेषतः जो जल्दबाजी से भरे होते हैं, वे बड़े लेखों के अंदर छिपे हुए दिव्य ज्ञान से वँचित रह जाते हैं। मेरे हाल ही के पिछले कुछ लेख बहुत बड़े-बड़े थे, यहाँ तक कि एक तो आठ हजार के करीब शब्दों से भरा लेख था। इतने शब्दों से बहुत सी लघु पुस्तिकाएँ बनना शुरु हो जाती हैं। उन लेखों को लिखकर मुझे सबसे ज्यादा संतुष्टि मिली, क्योंकि उनमें वैसे उत्कृष्ट ज्ञान की और रहस्योद्घाटनों की झलक दिखी मुझे, जो बहुत कम दिखाई देती है। उनसे मुझे कई नई अंतःदृष्टियां भी मिलीं। हालांकि मुझे लगता है कि सम्भवतः उसे कम ही पाठक पूरा पढ़ पाए होंगे, समय की कमी के कारण। वैसे लेखक की मानसिकता पूरा लेख पढ़कर ही अच्छे से पकड़ में आती है। मैं एक पुस्तक लेखक ज्यादा हुँ, ब्लॉग लेखक कम। इसीलिए मेरी सभी ब्लॉग पोस्टें आपस में जुड़ी हुई सी लगती हैं। पिछली ब्लॉग पोस्ट की कमी अगली पोस्ट में पूरी कर लेता हुँ। इस तरह श्रृंखला में बंधी पोस्टें पुस्तक के रूप में भी संकलित की जाती रहती हैं। यह पुस्तक लिखने का अच्छा तरीका है, क्योंकि आज के व्यस्त युग में कोई आदमी एक बैठक में तो पुस्तक नहीं लिख सकता। साथ में, इन पोस्टों को बहुत सोचसमझ कर, बारबार निरिक्षण करने के बाद, पूर्ण विस्तार के साथ, और व्याकरण के अनुसार शुद्ध रूप में लिखा जाता है, ताकि पाठकों को कमेंट करने की जरूरत ही न पड़े। इसीलिए तो मेरे ब्लॉग में कमेंट होते ही नहीं, केवल पाठक ही होते हैं। अगर कमेंट होते हैं, तो तारीफ के ही होते हैं। हहा😄। पुस्तक में भी कमेंट सेक्शन नहीं होता। पुस्तक रूप में सम्भवतः वे बड़ी ब्लॉग पोस्टें काफी पसंद की गईं, जिसका पता बुक डाउनलोड रिपोर्ट में इजाफे से चला। किसी लेखक की सम्पूर्ण मानसिकता का पूरा पता उसकी सभी रचनाओं को पढ़कर चलता है। क्योंकि किसी में कुछ विशेष होता है, तो किसी में कुछ। अगर किसी एक रचना में कमी रह गई हो, तो लेखक उसे अपनी दूसरी रचना में पूरी कर देता है। अधूरी रचनाएं पढ़ने से रचनाकार के प्रति गलतफहमी पैदा हो सकती है। लिटल नॉलेज इज ए डेंजरस थिंग। इसमें कोई संदेह नहीं कि ओशो की सभी रचनाएं पढ़कर कोई भी व्यक्ति महामानव बन सकता है। ओशो की रचनाएं बहुत ज्यादा हैं, मेरी रचनाएं तो उनके मुकाबले बहुत कम हैं। मेरी सभी रचनाएं भी अगर कोई पढ़ ले, तो भी वह इनाम का पात्र बन जाए, ओशो की सभी रचनाएं पढ़ना तो दूर की बात है। हालांकि यह अलग बात है कि ओशो जैसे महान अवतारी पुरुष के आगे मैं कहीं भी नहीं ठहरता। महान लोगों को समझना भी कई बार कैसे कठिन हो जाता है, इसका मैं एक उदाहरण देता हुँ। मैं जब किशोरावस्था में था तो कई अय्याश किस्म के लोगों से, मुख्यतः कॉलेज टाइम में इस तरह से ओशो के सम्भोग-योग को सुना करता था, जैसे कि वे बड़ी ख़ुशी और उत्साह से अपनी बुराइयों को ढकने की कोशिश कर रहे हों। कुछ-कुछ मज़ाकिया लहजा भी होता था उनका सुनाने का। हालांकि वे लोग उसे शुद्ध सम्भोग मानकर चलते थे, योग का तो उसमें नामोनिशान नहीं दिखता था। इसलिए मुझे ओशो द्वारा प्रदत्त शिक्षा पर संदेह होता था। क्योंकि उस समय मैं कुंवारा था, और सम्भोग के अनुभव से अपरिचित था। हाँ, कुछ रहस्यमयी सच्चाई उसमें जरूर झलकती थी मुझे। इसकी वजह थी, उस समय के आसपास मुझे शुद्ध प्रेमयोग से क्षणिक आत्म जागृति का प्राप्त होना, बेशक स्वप्नकाल में ही सही। पर वह इतनी मज़बूत थी जिसने मुझे एक झटके में पूरी तरह से रूपातंरित करके आध्यात्मिक पथ पर लगभग पूरी तरह से धकेल दिया था। इसकी एक वजह यह भी रही होगी कि बाल्यकाल जैसी अवस्था के कारण मेरा मस्तिष्क तरोताज़ा व संवेदनशील था उस समय, इसलिए बहुत रिसप्टेव था रूपातंरण के लिए। मेरा शुद्ध मानसिक प्रेमयोग बेशक सम्भोग से नहीं बना था, पर सम्भोग की मानसिकता और लालसा उसके आधार में जरूर थी, जैसी कि पुरुष-स्त्री के हरेक प्रेम के संबंध में अक्सर होता ही है। इसमें विशेष बात यह थी कि सम्भवतः सम्भोग की सूक्ष्म मानसिकता और लालसा दोनों पक्षो में बराबर और बढ़चढ़ कर थी, मतलब वह एकतरफा प्यार की तरह नहीं था, ऐसा लगता है मुझे। हालांकि सबकुछ मन के अदृश्य आकर्षण से ही था, स्थूल रूप में कुछ भी नहीं था, कोई बोलचाल नहीं थी, कोई व्यक्तिगत मेलमिलाप नहीं था, सबकुछ लोगों या छात्रों के समूह तक ही सीमित था। यह अलग बात है कि स्त्रीपक्ष से ही प्रेम से भरी और नादानी या बचपने जैसे से भरी हुई पहलें हुआ करती थीं, शुद्ध मित्रता या प्रेम का संबंध बनाने के लिए। देवीमाता की विशेष कृपा से मुझे तो जैसे प्रेम के क्षेत्र में पीएचडी ही मिल गई थी, ऐसा लगता था मुझे, क्योंकि मुख्यतः वह वही प्रेम लगता था मुझे, जिससे मेरे सहस्रार का कमल खिल जैसा उठा था अंत में, क्योंकि यही सृष्टि की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसके लिए और भी बहुत सी अनुकूल वजहें रही थीं, पर वे प्रेम को परवान चढ़ाकर ही रंग ला सकी थीं, सीधे तौर पर नहीं, ऐसा लगता है मुझे। क्योंकि शरीरीक सम्भोग से न सही पर मानसिक या सूक्ष्म या अव्यक्त सम्भोग जैसे सुख से मुझे वह समाधि मिली थी, इसलिए मुझे ओशो से अपना अदृश्य संबंध भी महसूस होता था, बेशक दार्शनिक स्तर का ही सही। हालांकि मैंने उनकी शिक्षाओं को कभी ढंग से पढ़ा नहीं था। सम्भवतः मैं इसीलिए स्थूल सम्भोग से समाधि को नकारता था, बेशक बाहरबाहर से ही सही, क्योंकि अपने मन में ऐसी सम्भावना मुझे लगती भी थी। जब भी ओशो के व वामपंथी तांत्रिकों के अनुसार सम्भोग योग आदि के बारे में या कोई भी रोमांटिक किस्सा सुनता, तो मैं आनंद से भरी हुई समाधि में खोने लगता, कुंडलिनी मेरे सहस्रार में जोरों से चमकने लगती, मेरा रोमरोम खिल उठता और मेरे शरीर में कंपन जैसा होने लगता व सिर में भारीपन जैसा आ जाता। सम्भवतः मेरे मुलाधार पर बनी यौन ऊर्जा के ऊपर चढ़ने से ऐसा होता था। मेरी पीठ सीधी हो जाती, मेरे मुख पर लाली आ जाती, सांस तेज जैसी चलने लगती और मानसिक प्रेमिका का मनमोहक व समाधि चित्र जैसे जीवंत सा होकर मेरे सामने हँसता हुआ नाचने-गाने सा लगता, जिसे वश में करने के लिए कई बार उन वृद्ध आध्यात्मिक पुरुष का मानसिक चित्र भी जीवंत हो जाता। यह अलग बात है कि अनेक वर्षों के बाद पूर्ण समाधि या कुंडलिनी जागरण की झलक वाला अनुभव मुझे उन्ही पुरुष के मानसिक चित्र के यौनयोग सहायित कुण्डलिनीयोग के माध्यम से ध्यान से मिला, प्रेमिका के मानसिक चित्र से नहीं। साथ वाले छात्र या लोग उसे अन्यथा न समझे, इसके लिए मैं सम्भोग योग की वार्ता को बंद करवाने की कोशिश करता, या वे मुझे असहज जानकर खुद ही बंद कर देते, या मैं उनसे दूर हो जाने की कोशिश करता। सब उससे कुछ हैरान जैसे होते और सम्भवतः मुझे नपुंसक जैसा समझते। वैवाहिक जीवन में भी लम्बे समय तक मैं सम्भोग-समाधि का रहस्य समझ नहीं पाया, हालांकि स्वाभाविक रूप से मैं उसकी तरफ जा रहा था क्योंकि कुदरतन हर कोई पूर्णता की तरफ बढ़ता है, पर यह पता नहीं था कि यही समाधि है, और यह सम्भोग से सबसे शीघ्रता से मिलती है। मतलब कि जैसे एक अंधा आदमी हाथी को छू तो पा रहा था, पर उसे यह पता नहीं था कि वह हाथी था। एकबार मैंने अख़बार में ओशो के सम्भोग-समाधि से संबंधित एक लेख को पढ़ा, तो मैं झुंझला गया। खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे वाली बात हुई। मैं अपने शुद्ध प्रेमयोग पर गर्वित जैसा होते हुए एक पिता समान वृद्ध व्यक्ति के सामने उस लेख का खंडन करने लगा। उन्होंने बड़े गुस्से में भड़कते हुए एक ही बात कही, वह ठीक कहता है। उस समय तो कुछ समझ नहीं आया पर अब लगता है कि वे ओशो जैसे महान व्यक्तित्व के कथन का खंडन भी नहीं कर पा रहे थे, और उसे समझ भी नहीं पा रहे थे। साथ में लोकलाज के डर से उसपर कुछ बोल भी नहीं पा रहे। खैर, समय बीतता गया, और मेरे अनुभव का दायरा बढ़ता गया। बहुत वर्षों के बाद की बात है। मानो किसी दैवीय शक्ति से आधिभोतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक, तीनों तापों से तपे हुए मुझ राहगीर को एक सरोवर के निकट उपजे वटवृक्ष की छाया तले जैसे स्थान पर लगभग 2-3 वर्ष विश्राम का मौका मिला। उस सकारात्मक विश्राम से शक्ति अर्जित करके मैं इंटरनेट पर तंत्र से संबंधित लेख और पुस्तकें पढ़ने लगा। लगभग 10-15 वर्षों से शरीरविज्ञान दर्शन के साथ जीवनयापन करने से तंत्र की तरफ मेरा झुकाव पहले से ही बना हुआ था। मतलब कि बारूद तैयार था, उसे सिर्फ चिंगारी की जरूरत थी। साथ में, बहुत से कुंडलिनी संबंधी ऑनलाइन वार्ता मंचों में भी शामिल होने लगा। वैज्ञानिक व खोजी स्वभाव तो मेरा पहले से था ही। इसलिए यौनतंत्र की सहायता से कुंडलिनी को खोजने की इच्छा हुई, जो कुछ हद तक सफल भी हो गई। तब मैं ओशो के उपरोक्त वैश्विक महावक्य को लगभग पूरी तरह समझ पाया। एक युगपुरुष को पूरी तरह तो कौन समझ सकता है, इसीलिए साथ में लगभग शब्द जोड़ रहा हुँ। यह अलग बात है कि सम्भोग योग कोई आधुनिक या मध्य युग की खोज नहीं है। शिवपुराण में भी इसका बेहतरीन उल्लेख मिलता है। वहाँ इसे रहस्यात्मक तरीके से लिखा गया है, जैसे अग्निदेव का कबूतर बनकर शिवतेज को धारण करना, उस तेज को सात ऋषिपत्नियों के द्वारा ग्रहण करना, ऋषिपत्नियों के द्वारा उसे हिमालय को देना, हिमालय के द्वारा उसे गंगा में उड़ेलना, गंगा के किनारे पर उगे सरकंडों पर उससे बालक कार्तिकेय का जन्म होना आदि। इस आख्यान को इसी ब्लॉग की एक पोस्ट में विस्तार से रहस्योद्घाटित भी किया गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि देशकालातीत भगवान शिव ही संभोग योग के जनक हैं, कोई पार्थिव व्यक्ति नहीं। जहाँ तक मेरे सीमित ज्ञानचक्षु देख पा रहे हैं, मुझे नहीं लगता कि प्रिय ओशो महाराज ने संभोग योग के वर्णन के दौरान भगवान शिव की इस कथा का हवाला देते हुए इसका श्रेय उन्हें दिया हो। अगर इसकी जानकारी किसी को हो तो कृपया मुझे बताए ताकि मेरे ज्ञान में भी वृद्धि हो सके। सम्भवतः इसी वजह से वे कुछ व्यर्थ के विवादों से भी घिरे रहे। होता क्या है कि जब अपने कथन का श्रेय किसी अन्य को, गुरु को या उच्चाधिकारी को या देवता को या ईश्वर को, या यहाँ तक कि काल्पनिक नाम को दिया जाता है, तो एक तो उससे अनावश्यक अहंकार पैदा नहीं होता, और दूसरा लोगों की गलतफहमी से अनावश्यक बवाल या विवाद भी पैदा नहीं होता। इसीलिए हरेक मंत्र के शुरु में ॐ लगाया जाता है, जिसका मतलब है कि यह कथन ईश्वर का है, मेरा नहीं। मैं भी शुरु से कहता आया हूँ कि इस बारे में मेरा कथन अपना नहीं है। मैं तो वही कह रहा हूँ जो पहले से ही भगवान शिव और ओशो महाराज या युगों पुरातन तांत्रिक कुंडलिनी योगियों ने कहा हुआ है। यह अलग बात है कि सूत्रों के अनुसार नूपुर शर्मा ने भी वही कहा था, जो कुरान में लिखा था, और उसने इस बात का हवाला भी दिया था। फिर भी उस बेचारी अकेली महिला के खिलाफ बहुत से मुस्लिम संगठन और इस्लामिक देश लामबंद हो गए, यहाँ तक कि उस बात पर जेहादियों ने कुछ हिन्दू लोगों का कत्ल तक कर दिया। इससे सिद्ध हो जाता है कि धर्माँधों के मामले में यह सोशल इंजिनीयरिंग तकनीक भी कम ही काम करती है। मुझे तो यह भी लगता है, और जैसी कुछ खबरें और गिरप्तारियां भी सुनने में आईं हैं कि यह नूपुर शर्मा को फँसाने का एक झूठा बहाना था, क्योंकि वह अपने ऊपर अंगुली उठाने का मौका ही नहीं देती थी। यह बहाना ऐसा था कि एक शेर नदी में ऊपर की तरफ पानी पी रहा था। उसकी निचली तरफ एक मेमना भी पानी पी रहा था। शेर ने मेमने से कहा कि तू मेरा पानी जूठा कर रहा है, मैं तुझे खा जाऊंगा। तो मेमने ने कहा कि महाराज, आप तो मेरे से ऊंचाई पर हैं, मेरा जूठा पानी तो आपतक आ ही नहीं रहा, बल्कि मैं आपका जूठा पानी पी रहा हुँ। तो शेर ने कहा कि फिर जरूर तेरे मांबाप ने मेरा पानी जूठा किया होगा, और ऐसा कहकर वह उसको खा गया। प्रखर और तेजस्वी भाजपा प्रवक्ता थी नूपुर शर्मा। हर राजनीतिक या धार्मिक प्रश्न का जवाब बड़ी चतुराई से, तहजीब से, दबदबे से, गहराई से और साक्ष्य के साथ प्रस्तुत करती थी। सरस्वती, लक्ष्मी और काली की एकसाथ छटाएं दिखती थीं कई बार उनके अंदर। दूरदर्शन की चर्चाओं में अनर्गल और बेतुके तर्क-वितर्क करने वाले इस्लामिक विद्वानों को छठी का दूध याद दिलाती थी वह। भैंस के आगे बीन बजाओगे तो वह माला तो नहीं पहनाएगी न। करे कोई, मरे कोई। अब समय आ गया है कि धार्मिक असहिष्णुता का रोग जड़ से खत्म कर दिया जाए। जब तक मानवतापूर्ण और क़ानूनबद्ध तरीके से ऐसा न कर लिया जाए, तब तक ऐसी उद्वेगकारी बयानबाजी से बचना चाहिए। जब पता है कि बोतल का ढक्कन खोलने से जिन्न बाहर निकलेगा, तो उसे खोलना ही क्यों। दरअसल भोलेभाले और बड़बोले लोगों को भड़काने वाले दूसरे ही शातिर लोग होते हैं। हम किसी का पक्ष-विपक्ष नहीं लेते, न किसी की प्रशंसा करते, न किसी की बेइज्जती, सच को सच और झूठ को झूठ बोलते हैं, धर्माँधों के बिलकुल उलट। चलो भाई, फिर से थोड़ा सा मुख्य विषय कुंडलिनी की तरफ और चलते हैं। मेरे द्वारा या किसी अन्य के द्वारा कुंडलिनी की खोज कोई विशेष बात नहीं है। कुंडलिनी की खोज कोई आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत की खोज नहीं है, कि जिसे एकबार खोज लिया, तो दूसरों को दुबारा खोजने की जरूरत नहीं है। कुंडलिनी की खोज हरेक आदमी को खुद करनी पड़ेगी, और उसके अनुसार जीवनयापन करना पड़ेगा, औरों की खोज से विशेष लाभ नहीं मिलने वाला। दूसरों की खोज से यह अंदाजा जरूर लग सकता है कि वह देखने में कैसी है, और उसे कहाँ और कैसे खोजा जा सकता है।
ओशो महाराज कट्टर धार्मिकता के प्रखर विरोधी थे
ओशो महाराज को मैं इसलिए भी बहुत मानता हूँ, क्योंकि वे धार्मिक कट्टरता के प्रखर विरोधी थे। वे मानते थे कि यह उन्मुक्त आध्यात्मिक चिंतन को नहीं पनपने देती। इससे आदमी के ज्ञान का कमल ढंग से विकसित नहीं हो पाता। वे जेहाद के खिलाफ भी खुलकर अपनी बात रखते थे। उनका कहना था कि परम तत्त्व को धर्म की सुरक्षा के लिए किसी सिपाही की जरूरत नहीं है। वे खुद पूर्ण सक्षम हैं। वे कट्टर धार्मिक अधिष्ठाताओं को मानसिक रोगी जैसा कहते थे। अभी हाल ही में इसी हफ्ते जिहादियों ने राजस्थान के उदयपुर में कन्हैया लाल नाम के एक दर्जी का इसलिए आईएसआई और तालिबानी स्टाइल में बेरहमी से गला रेत कर कत्ल कर दिया क्योंकि उसने नूपुर शर्मा के समर्थन में एक फेसबुक पोस्ट डाली थी। यह घटना फ्रांस में घटित चार्ली हैब्दो जेहादी कांड की याद दिलाती है। यह बेहद निंदनीय है।
कुंडलिनी ही सांख्य दर्शन का पुरुष है, जिसका समाधि रूपी कुंडलिनी जागरण के द्वारा पूर्ण व प्रकृति से पृथक रूप में अनुभव ही योग का मुख्य ध्येय है
दोस्तो, पिछली पोस्ट में मैं कुंडलिनी के बारे में कुछ दुर्लभ रहस्य साझा कर रहा था। गुरु आदि अपने देह स्वरूप में जितने ज्यादा जीवंत और आध्यात्मिक होते हैं, कुंडलिनी के रूप में उनका मानसिक रूप भी उतना ही ज्यादा मजबूत होता है। यहाँ तक कि वह आंतरिक मानसिक रूप इतना मजबूत होता है कि उसके आगे दूसरे मानसिक रूप या विचार तो फीके पड़ते ही हैं, पर साथ में सारे बाहरी भौतिक रूप भी फीके पड़ जाते हैं। कृष्ण और राम ऐसे ही कुंडलिनी पुरुष थे, इसीलिए उन्हें अवतार माना जाता है। उनके कुंडलिनी रूप अर्थात ध्यान रूप से अनगिनत लोग संसारसागर से तर गए। युगों बीत गए, पर आज भी वे असरदार हैं। वैसे तो कुंडलिनी पुरुष में सभी मानवीय और आध्यात्मिक गुण होने चाहिए, पर निःस्वार्थ भाव, निरहंकारता, और उदारता इनमें सबसे महत्वपूर्ण गुण प्रतीत होते हैं। आप खुद ही सोचो कि अगर कोई अपने स्वार्थ, अहंकार और संकीर्णता के भाव को जरा भी प्रदर्शित करता है, तो उससे बनी-बनाई दोस्ती भी बिगड़ जाती है, प्रेम गया तेल लेने। और जहाँ प्रेम नहीं, वहाँ कुंडलिनी भी नहीं, क्योंकि कुंडलिनी प्रेमपूर्ण मानसिक चिंतन के आश्रित ही तो है। मैं एक संयुक्त और सामाजिक परिवार में पला-बढ़ा। चारों ओर प्रेमपूर्ण व्यवहार का बोलबाला होता था। थोड़ी-बहुत खटपट तो तब भी होती थी, पर तब वह गौण और निंदनीय होती थी, आजकल की तरह मुख्य और प्रशंसनीय नहीं। आज तो अगर कोई किसी के बुरे व्यवहार के बारे में शिकायत भी करे, तो भी उसे ही किनारे लगाया जाता है, उसके साथ ज्यादा से ज्यादा दिखावे की सहानुभूति प्रदर्शित करके। प्रश्नकर्ता पर ही प्रश्नचिन्ह लगाया जाता है। इसलिए चुप ही रहना पड़ता है। उस समय तो बुरा वर्ताव करने वालों की समाज के द्वारा खटिया खड़ी करके रख दी जाती थी। उस समय ज्यादातर लोगों में निःस्वार्थता और उदारता भरी होती थी। आँगन में आया हुआ कोई भी आदमी हो या जानवर, भूखा-प्यासा नहीं जाता था। परिचितों या रिश्तेदारों के बीच एक-दुसरे के परिवारों और घरों में स्थायी तौर पर बस जाने का रिवाज़ आम होता था, क्योंकि एकदूसरों के ऊपर विश्वास होता था, छोटामोटा धोखा खाते रहने के बाद भी। आजकल तो लोगों के पास मेहमानों के लिए, और यहाँ तक कि अपने परिवार के लिए भी समय नहीं है। उस समय अपनों से ज्यादा दूसरों को सम्मान व सुविधाएं देने का प्रयास किया जाता था। आज तो परिवार के असली सदस्य को भी यह महसूस नहीं होता कि वह उस परिवार का सदस्य है।
पिछली पोस्ट के अनुसार, कुंडलिनी को मूलाधार चक्र में इसीलिए सोया हुआ कहते हैं, क्योंकि वह वहाँ अनभिव्यक्त होती है, नष्टभूत नहीं। आदमी नींद में अनभिव्यक्त रहता है, नष्टभूत नहीं। वह सुबह होने पर फिर जाग जाता है। जिस चीज का अस्तित्व है, वह कभी नष्ट नहीं हो सकती, केवल अनभिव्यक्त हो सकती है। समय आने पर वह अभिव्यक्त भी जरूर होगी, क्योंकि अनभिव्यक्ति से अभिव्यक्ति के बीच में रूप बदलते रहना प्रकृति का स्वभाव है। चक्र नाम भी ग्रहीय कक्षाओं से पड़ा है, ऐसा लगता है मुझे। जैसे सौरमंडल में ग्रहों की या परमाणु के अंदर इलेक्ट्रोनों की अलगलग गोलाकार कक्षाएं अलगलग ऊर्जा स्तरों को दर्शाती हैं, उसी तरह अलग-अलग कुंडलिनी चक्र भी कुंडलिनी अर्थात मन की अभिव्यक्ति रूपी ऊर्जा के अलगलग स्तरों को दर्शाते हैं। चक्र का मतलब ही पहिए के जैसा गोल घेरा होता है। कुंडलिनी के आगे से पीछे के चक्र को और पीछे से आगे के चक्र को जाते रहने को कुंडलिनी का गोलाकार घेरे में घूमना भी कह सकते हैं। यह ऐसे ही है जैसे इंजन के पिस्टन की आगे-पीछे की गति करैंक शाफ़्ट से जुड़े फ्लाइ व्हील की गोलाकार गति में बदल जाती है।
मैं यह भी बता रहा था कि कैसे हरेक जीव में, यहाँ तक कि घोरतम अन्धकारमय योनियों और अवस्थाओं में भी उसी तरह परमात्मा बसा होता है, जैसे एक छोटे से बीज में विशाल वृक्ष छिपा होता है। बेशक उन अवस्थाओं में परमात्मा सर्वाधिक अव्यक्त या अनभिव्यक्त होता है, पर पूर्णतः नहीं। इसीलिए वैदिक सांख्य दर्शन में घोरतम मूल प्रकृति को अव्यक्त या प्रधान भी कहते हैं। इसे भी परमात्मा की तरह अनादि और अनंत कहा गया है। यही शक्ति या पवित्र भूत है। यहीं से सभी जीवों की आत्मा आती है। इसीलिए तो यदि सभी जीवात्माएं एकसाथ भी मुक्त हो जाएं, तो भी नए जीव पैदा होते ही रहेंगे, क्योंकि उनकी जीवात्माओं का स्रोत मूल प्रकृति तो अविनाशी है। मुक्ति के बाद जीवात्मा फिर कभी भी मूल प्रकृति की तरफ वापिस नहीं लौटता। वह उसकी पकड़ से हमेशा के लिए छूट जाता है, क्योंकि वह परमात्मा से एकाकार हो जाता है। ऐसा शास्त्रों का कहना है। मेरा अपना छोटा सा अनुभव भी यही कहता है। मुझे सपने में केवल दस सेकंड की आत्मज्ञान जैसी अनुभूति की झलक मिली थी। उसने मुझे लम्बे समय तक दुनिया से अलगथलग सा मतलब अनासक्त बना कर रखा। मुझे पूरी तरह वापिस आने में लगभग दस साल लग गए। तो सोचिए, जब सपने में दस सेकंड के लिए परमात्मा से एकाकार जैसे होने पर (वह भी पूरी तरह से एकाकार नहीं) आदमी दुनिया के चंगुल से छूटने के करीब पहुंच जाता है, तब जो परमात्मा अनादि काल से अपने पूर्ण स्वरूप में स्थित है, वह कैसे इसके चंगुल में फंस सकता है। जीवित अवस्था में ऐसी पूर्ण अवस्था को लाखों में एक-आध लोग ही प्राप्त कर पाते होंगे, आज के भौतिक युग में तो इतने भी नहीं लगते मुझे। कुंडलिनी जागरण और पूर्ण अवस्था में तो जमीन और आसमान का फर्क है। कुंडलिनी जागरण तो सिर्फ एक शुरुवात भर है मुक्तियात्रा की। सबसे पहले जो जीवात्मा बनी, वो कहाँ से आई? यह यक्ष प्रश्न बहुत से लोग उठाते रहते हैं। उपरोक्तानुसार ऐसा भी नहीं कह सकते कि वह परमात्मा से आई। और ऐसा भी नहीं कह सकते कि वह पहले थी ही नहीं, क्योंकि जो पदार्थ असल में है ही नहीं, वह पैदा नहीं हो सकता। कोई भी वस्तु कभी पैदा नहीं हो सकती, और न ही कभी नष्ट हो सकती है, सिर्फ रूप ही बदल सकती है। विज्ञान भी तो इसी भारतीय दर्शन की पुष्टि करता है। विज्ञान में इसे द्रव्यमान और ऊर्जा के संरक्षण का सिद्धांत कहते हैं, अर्थात प्रिंसिपल ऑफ़ मास एनर्जी कंजर्वेशन। मतलब कि जो चीज हमें नष्ट होती हुई सी लगती है, वह नष्ट न होकर पहले दृश्य ऊर्जा में और फिर अदृश्य ऊर्जा या डार्क एनर्जी में रूपांतरित हो जाती है। इसी सिद्धांत से परमाणु बम बना है, जिसकी धमकी रूस बारबार युक्रेन और नाटो के खिलाफ दे रहा है। शून्य का भी अपना अस्तित्व है। इसी शून्य को विज्ञान में काली ऊर्जा अर्थात डार्क एनर्जी कहते हैं। इसलिए यही मानना पड़ेगा कि शून्यरूप मूल प्रकृति से ही पहली जीवात्मा आई। इससे प्रकृति का अनादि और अनंत रूप खुद ही सिद्ध हो जाता है। अद्वैत वेदांत दर्शन के अनुसार तो मूल प्रकृति भी परमात्मा से भिन्न नहीं है। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जैसा मैं पिछली पोस्टों में बता रहा था। अब मैं यह बताता हूँ कि ‘पवित्र भूत’ यह नाम मूल प्रकृति को क्यों दिया गया है। दरअसल यह परम अव्यक्त है, मतलब कि इसमें सब कुछ पूरी तरह से और बराबर मात्रा में अव्यक्त है। इसलिए यह बच्चे या परमात्मा की तरह निष्पक्ष हुई, जिसके लिए सब कुछ बराबर है। इसीलिए इसे सांख्य दर्शन के अनुसार समगुणावस्था भी कहते हैं। यानि कि इसमें स्थूल प्रकृति के सभी गुण या स्वभाव बराबर मात्रा में हैं, हालांकि अव्यक्त रूप में। मतलब कि अगर इससे कभी कुछ व्यक्त होएगा, तो सब कुछ बराबर मात्रा में होएगा, मतलब पूरी सृष्टि इससे अभिव्यक्त होएगी। सृष्टि में कुल मिलाकर सबकुछ बराबर ही होता है, प्लस और माईनस बराबर होते हैं। है तो यह भूत की तरह अन्धकारमय ही, पर है पवित्र। जबकि साधारण भूत में बुरे काम अव्यक्त रूप में ज्यादा छिपे होते हैं। इसलिए वे दूसरों का नुकसान करते हैं, और व्यक्त होने पर या जन्म लेने पर बुरे कर्म करते हैं। साधारण भूत के अँधेरे में ज्यादातर बुरे काम ही छिपे होते हैं, जबकि पवित्र भूत के अँधेरे में सम्पूर्ण सृष्टि छिपी होती है। हालांकि साधारण भूत के रूप में अच्छे काम भी छिपे हो सकते हैं, पर वे परमात्मा की तरह सम या बराबर या निष्पक्ष या निर्लिप्त नहीं होते। उनका झुकाव किसी विशेष कर्म या प्रवृत्ति की तरफ ज्यादा होता है। इसीलिए कहते हैं कि पवित्र भूत परमात्मा की तरफ ले जाता है। यह स्वाभाविक ही है क्योंकि दोनों में उपरोक्तानुसार बहुत सी समानताएं हैं। खासकर दोनों परिवर्तनरहित, अद्वैत रूप और अनासक्त हैं। यह पुस्तक शरीरविज्ञान दर्शन में बहुत अच्छे से दिखाया गया है। यही अद्वैत तंत्र है, जो सबसे जल्दी फल देता है। तांत्रिक अद्वैतभाव के साथ पंचमकारों का सेवन करते हैं। इससे वे मूल प्रकृति की तरह अव्यक्त बन जाते हैं। फिर यौनयोग की शक्ति से एकदम से उनकी कुंडलिनी सहस्रार में प्रविष्ट हो जाती है। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनके मन में किसी विशेष वस्तु की चाह नहीं थी। यदि ऐसा होता तो उनकी शक्ति उस विशेष वस्तु की अभिव्यक्ति पर अटक जाती, मतलब किसी विशेष चक्र पर अटक जाती। हरेक चक्र विशेष पदार्थों व भावों का प्रतिनिधित्व करता है। जैसे कि मुलाधार चक्र सुरक्षा आदि, मणिपुर चक्र खाद्य आदि, अनाहत चक्र सामाजिक भावनात्मक संबंध आदि, विशुद्धि चक्र वाणी-व्यवहार आदि, आज्ञा चक्र बुद्धि या चतुराई आदि से जुड़े पदार्थों और भावों का प्रतिनिधित्व करता है। सहस्रार चक्र सर्वसमभाव या अद्वैत का प्रतिनिधित्व करता है। इसी वजह से ही विशेष पदार्थ या भाव से जुड़ी आसक्ति के कारण कुंडलिनी उससे संबंधित चक्र पर अटक जाती है। जिस तरह मन से उस आसक्ति को नष्ट करके उससे संबंधित चक्र खुल जाता है, और कुंडलिनी को आगे निकलने का रास्ता दे देता है, उसी तरह हठयोग क्रियाओं से उस संबंधित चक्र को खोलने से उससे जुड़ी आसक्ति खुद ही नष्ट हो जाती है। इस तरह से अद्वैत साधना और कुंडलिनी योग साधना एकदूसरे की अनुपूरक हैं। मैं एक पुस्तक में पढ़ रहा था कि एक आदमी अपने शरीर की मालिश करके अपने चक्रोँ को अर्थात मन की गांठों को खोल रहा था। वह हड्डी तक को छूती हुई गहरी तेल की मालिश करता था। दरअसल मन की आसक्तियाँ या गांठें चक्रोँ से होते हुए शरीर के विभिन्न हिस्सों में जमा हो जाती हैं। जब मालिश से उन्हें खोला जाता है, तो चक्र भी खुल जाते हैं, क्योंकि वे चक्रोँ से जुड़ी होती हैं। ऐसा ही भारी व्यायाम जैसे कि कठिन परिश्रम या कार्डीएक या साईकलिंग से भी होता है। ऐसा ही कुंडलिनी योग से भी सबसे अच्छे और वैज्ञानिक तरीके से होता है। पूरे शरीर के आसनों से चक्रोँ की मालिश तो होती ही है, साथ में सभी सुदूरस्थ नसों और नाड़ियों की मालिश भी हो जाती है, जिससे उनमें फँसी आसक्ति की गांठेँ खुल जाती हैं। मूल प्रकृति के उपरोक्त वर्णन से प्रथमदृष्टया साफ दिख रहा है कि मूल प्रकृति या मूल शक्ति से ज्यादा साधारण, व्यावहारिक, व्याख्यात्मक, जानदार और सारगर्भित शब्द पवित्र भूत या पवित्र आत्मा प्रतीत होता है।
सांख्य दर्शन में दो शाश्वत तत्त्व हैं, प्रकृति और पुरुष। इनके संयोग से जीव बनता है, जैसे वह रज और शुक्र के संयोग से बनता है। इसमें अंधकारमय या रज या यिन या जड़ भाग प्रकृति है, और प्रकाश या शुक्र या यांग या चेतन भाग पुरुष है। सभी जीवों को पुरुष इस जुड़े हुए रूप में ही महसूस होता है, शुद्ध या बिना जुड़े या मूलरूप में नहीं। मतलब उसने कभी मूल प्रकृति को तो शुद्ध रूप में अनुभव किया था, क्योंकि कभी उसने अपनी जीवनयात्रा वहीं से शुरु की थी। उस समय पुरषोत्तम रूपी परमात्मा से उसमें पुरुष रूपी बीज पड़ा था। इसीलिए परमात्मा को वीर्यबीज डालने वाला पिता और प्रकृति को सृष्टि की योनिरूप माता कहा गया है। पर एकबार जीवनयात्रा को शुरु करने के बाद वह शुद्ध मूल प्रकृति को कभी अनुभव नहीं कर पाया, क्योंकि फिर हमेशा उसमें पुरुष का अंश विद्यमान रहा, कभी कम तो कभी ज्यादा। शुद्ध पुरुष को उसने कभी भी महसूस किया ही नहीं था। उसको महसूस करके ही जीव की मुक्ति की शुरुआत होती है। कुंडलिनी रूपी पुरुष को शुद्ध रूप में अनुभव करने के लिए किए जाने वाले अभ्यास का नाम ही कुंडलिनी योग है। अभ्यास करते हुए एक समय ऐसा आता है जब कुंडलिनी का ध्यान इतना प्रगाढ़ हो जाता है कि आदमी अपने आप को कुंडलिनी के साथ पूरी तरह एकाकार महसूस करता है, अतीव आनंद व अद्वैत के साथ। यही समाधि है। यही कुंडलिनी जागरण है। यही शुद्ध पुरुष का अनुभव है। यही प्रकृति पुरुष का विवेक है। इसे विवेकख्याति भी कहते हैं। मतलब कि प्रकृति और पुरुष के बीच का अंतर और उनका गठजोड़ अच्छे से समझ आ जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कुंडलिनीजागरण के अतिरिक्त आदमी का हरेक अनुभव प्रकृति और पुरुष के मिश्रण से बना होता है। आदमी का अपना रूप प्रकृति होता है, और अनुभव का रूप पुरुष होता है। इसीलिए उन अनुभवों में द्वैत भाव होता है, मतलब आदमी को अनुभव के साथ अपनी एकता महसूस नहीं होती। उसे लगता है कि वह एक दर्शक की तरह अपने से अलग अनुभव दृश्यों को अनुभव कर रहा है। पर कुंडलिनी जागरण के समय आदमी को अनुभव का रूप अपना ही रूप लगता है, अपने से जरा भी अलग नहीं, मतलब पूर्ण अद्वैत भाव होता है। उसे लगता है कि वह बेशक दर्शक है, पर दृश्य अनुभव से अलग नहीं, और अपने को ही दृश्य अनुभव के रूप में महसूस कर रहा है। इसका मतलब हुआ कि आदमी ने शुद्ध पुरुष अर्थात आत्मा का अनुभव किया। खैर ये तो थ्योरेटीकल बातें हैं, जो सांख्य दर्शन का निर्माण करती हैं। इसका प्रेक्टिकल रूप तो समाधि का अनुभव है, जो योगदर्शन का निर्माण करता है। योग सांख्य दर्शन को वैज्ञानिक प्रयोग से प्रमाणित करता है।
फिर मैं कह रहा था कि रूपक या रहस्यात्मक रूप में जो बात कही जाती है वह स्पष्ट बात से कहीं ज्यादा प्रभावशाली होती है, क्योंकि वह सीधे अवचेतन मन में बैठकर संस्कार बन जाती है। इसलिए मैं कभी नहीं चाहता था कि हिन्दु शास्त्रों और पुराणों का वैज्ञानिक रहस्योदघाटन करूँ। पर जब मैंने देखा कि तथाकथित छद्म हिन्दू या धर्मनिरपेक्षतावादी या आधुनिकतावादी, और अन्य हिन्दुविरोधी मानसिकता वाले लोग लगातार दुष्प्रचार करते हुए हिंदु धर्म को नष्ट करने पर ही उतारू हो गए हैं, तब मुझे ऐसा करना पड़ा। यह विशेषतः उन्हीं का मुँह बंद करने के लिए है। ऐसा तभी होगा, जब वे हिन्दु दर्शन के विज्ञान को समझकर उससे लाभ उठाएंगे। यदि अच्छी भावना के साथ उनका रहस्योद्घाटन न किया जाए तो हिन्दुविरोधी लोग बुरी भावना के साथ उनका रहस्य उजागर करेंगे, या झूठा रहस्योद्घाटन करेंगे। जैसे आजकल ज्ञानवापी मस्जिद में मिले शिवलिंग के बारे में किया जा रहा है। वैसे दरअसल न तो मैंने ऐसा कभी सोचा और न ही कुछ ऐसा किया। सब कुछ खुद ही होता गया जरूरत के अनुसार। यह मैं प्रकृति की सोच और उसके कर्म को दर्शा रहा हूँ। इसलिए इसे मेरा नहीं, प्रकृति का योगदान समझा जाए तो ही उचित है। अगर कोई मुझे पढ़ने के लिए देगा, तो मैं तो उसी रहस्यात्मक मूलरूप को पढ़ना पसंद करूंगा। इसी तरह किसी की अच्छी रचना को पढ़ना हो या उसे पसंद करना हो, तो उसमें मुख्यतः माँ शक्ति का योगदान देखना चाहिए, रचनाकार का नहीं। कई लोग अच्छी रचनाओं को इसलिए नहीं पढ़ते या इसलिए पसंद नहीं करते, क्योंकि वे उसे केवल रचनाकार की कृति मानते हैं, और कई बार तो उनका रचनाकार के प्रति पूर्वाग्रह भी होता है। यदि वे रचना को प्रकृति माता की कृति मानें, तो वे भी उस रचना से लाभ उठा सकते हैं, और रचनाकार का हौंसला भी बढ़ा सकते हैं। मैं यह नहीं कह रहा कि आदमी हर किसी रचना पर ध्यान दे। पर यदि असल में उसे रचना अच्छी लग रही है, तो उसे मन मसोस कर नहीं रहना चाहिए, रचना से पूरा लाभ उठाना चाहिए। इससे रचनाकार को भी अच्छा लगेगा। आजकल मैं फेसबुक और व्हाट्सएप पर ऐसी गुटबंदी अक्सर देखता हूँ जब लोग रचना को न देखकर उस गुट को या व्यक्ति को देखते हैं, जहाँ से साहित्यिक आदि रचना आई है। अपने गुट या बड़बोले आदमी से आई छीँक पर भी ढेर सारी प्रतिक्रियाएं मिलती हैं, जबकि अगर विरोधी गुट का आदमी या ज्यादातर शांत-मौन रहने वाला व्यक्ति जन्नत से महफ़िल भी उतार दे, तब भी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलती, बेशक मन में लड्डू फूट रहे हों। यह अलग बात है कि असली लेखक प्रतिक्रिया से अपेक्षा नहीं रखता, पर सच्ची प्रतिक्रिया से पाठक को ही अतिरिक्त लाभ मिलता है। ऋषियों-फकीरों ने बहुत पहले ही आदमी की इस कमी को भांप लिया था, इसलिए उन्होंने युगों पहले ही इस बारे यह दोहा बनाकर चेता दिया था, “मोल करो तलवार का, पड़ी रहने दो म्यान”। आदमी को नीरक्षीर ग्राही होना चाहिए। जैसे हँस पानी मिले दूध में से केवल दूध ही पीता है, इसी तरह आदमी को भी अच्छी चीज हर जगह से ग्रहण कर लेनी चाहिए। कई लोग स्वार्थवश रचना को पढ़ते हैं। कइयों का मकसद समाज में अपना दबदबा कायम करना होता है। कई लोग इसलिए किसीकी रचना पढ़ते हैं, ताकि बदले में वह भी उनकी रचनाएं पढ़े। मुझे तो वैसे पाठक सबसे अच्छे लगते हैं जो निस्वार्थ भाव से रचना का आकलन करते हैं। वैसे भी मुझे लेखकों से अच्छे पाठक लगते हैं। लेखक में अहंकार पैदा हो सकता है, पर पाठक में नहीं। इसीलिए रचना का लाभ लेखक से ज्यादा पाठक को मिलता है। रचना को पढ़ने और पसंद करने से पाठक को भी उत्कृष्ट रचना बनाने की प्रेरणा मिलती है। मैं बहुत सी उत्कृष्ट किताबें, कविताएं पढ़ा करता था, और उन्हें पसंद भी करा करता था। इससे क्या हुआ कि मुझे भी रचना निर्माण की शक्ति मिलती रही, जिससे मेरी रचनाओं में निरंतर सुधार होता रहा। अब मैं अपने पाठकों में बहुत से भावी उत्कृष्ट रचनाकार देखता हूँ। यह परम्परा निरंतर चलती रहती है, और समाज जागृति की ओर कदम दर कदम बढ़ता रहता है।
इसी तरह पिछले लेख में बात चली थी कि बेशक योग के दौरान कुंडलिनी चित्र का ध्यान किया जा रहा हो, पर असल में वह उस चित्र या प्रतिबिम्ब का या उसको बनाने वाले बिम्ब का नहीं होता, बल्कि साधक द्वारा अपने रूप का ध्यान हो रहा होता है। किसी के मन के जो भी चित्र या भाव हैं, वे सब मिलकर उस आदमी का अपना रूप या मन बनाते हैं। कुंडलिनी चित्र को नियमित ध्यान से सबसे मज़बूत बनाया जाता है, ताकि वह पूरे मन का नेता बन सके। भीड़ को नेता के माध्यम से ही नियंत्रित किया जा सकता है, सीधे तौर पर नहीं। मन को आप एक दरी समझ लो। विचारों और भावों को आप उस पर चिपकी धूल समझ लो। डंडे को आप कुंडलिनी चित्र समझ लो। डंडे से दरी को जोरजोर से पीटने को आप कुंडलिनी ध्यानयोग समझ लो। उससे जो धूल के कण बाहर झड़ते हैं, उन्हें आप मन में दबे हुए चेतन और अवचेतन किस्म के विचार और भाव समझ लो। बहुत गहराई से चिपके कणों को अवचेतन किस्म के विचार समझ लो। ऊपर-ऊपर से हल्के तौर पर चिपके कणों को चेतन किस्म के सतही विचार समझ लो। धूल के कण पहले बाहर निकलते हुए दिखते हैं, फिर खुले वायुमंडल में विलीन हो जाते हैं। इसी तरह मन के दबे विचार पहले महसूस होते हैं, फिर ऐसा लगता है कि कहीं शून्य में विलीन हो गए। आसपास में जैसे अधिक गति से वायु के चलने से धूल के कण ज्यादा मात्रा में बाहर निकलकर खुले गगन में गायब हो जाते हैं, उसी तरह लम्बी और गहरी साँसें लेने से मन के दबे विचार ज्यादा मात्रा में बाहर निकलकर आत्मा रूपी खुले आकाश में विलीन हो जाते हैं। यही साक्षीभाव या विपासना है। इस तरह से आत्मा की सफाई होती जाती है, और वह निर्मल से निर्मल होती रहती है। इसीको आत्मा का ध्यान कहा है, कुंडलिनी की सहायता से। जैसे मध्यम, एकसार व एक दिशा में चलने वाली हवा की गति से दरी के धूलकण ज्यादा अच्छी तरह से बाहर निकलकर गायब हो जाते हैं, वैसे ही इसी तरह की सांसों से मन के विचार ज्यादा अच्छी तरह से गायब होते हैं। जैसे हल्की हवा चलने से धूलकण दुबारा दरी पर बैठ जाते हैं, उसी तरह ठीक से सांस न लेने पर विचारों का कचरा पुनः मन पर बैठ जाता है। जैसे दरी को झाड़ने के बाद डंडे को हटा देते हैं, उसी तरह मन के पूरी तरह से साफ होने के बाद कुंडलिनी चित्र भी खुद ही गायब होने लगता है। यह अलग बात है कि नियमित योगसाधना से उसे हमेशा जिंदा रखा जाता है, ताकि मन पर लगातार जमने वाली विचारों की धूल साफ होती रहे। यह ऐसे ही है जैसे प्रतिदिन सुबह-शाम डंडे से दरी को झाड़ा जाता रहता है, और दिन में डंडे को साइड में रखा जाता है। पवित्र कुंडलिनी चित्र पिछली पोस्ट में दर्शाया गया वही फरिश्ता है, जिसे इस्लाम में सच्चा मुसलमान माना जाता है। अन्य मानसिक चित्र काफ़िर जिन्न भी हो सकते हैं, जो अल्लाह से दूर ले जाते हैं।
पिछले लेख में यह बात भी चली थी कि कुंडलिनी को एकदम से मूलाधार से सहस्रार को उठाने के लिए लोग सम्भोग की ओर आकर्षित होते हैं। पर वे उसके लिए पर्याप्त समय व शक्ति नहीं दे पाते, जिससे लाभ कम और कई बार तो नुकसान भी हो जाता है, जैसे वीर्यशक्ति का बहिर्गमन, अनचाहा गर्भ, यौन संक्रमण या प्रॉस्टेट आदि की समस्या। सम्भोग जीवन का सबसे सुखद और निर्णायक काम है। उसके लिए रात्रि का वह बचा-खुचा समय रखा गया है, जिस समय उसमें किसी भी कार्य को करने की शक्ति नहीं बची रहती, और जिस समय आदमी बेहोशी जैसी अवस्था में होता है। यह तो सम्भोग की दिव्यता है कि यह उस हालत में भी आदमी को तरोताज़ा कर देने का पर्याप्त प्रयास करता है। तब सोचो कि पहले से ही तरोताज़ा होने पर यह कितनी ज्यादा दिव्यता और कुंडलिनी शक्ति देता होगा। शास्त्रों में भी इसका वर्णन है। एक ऋषि ने एकबार अपनी कामातुर पत्नि के साथ संध्या के समय सम्भोग किया था, जिससे उसके गर्भ से दो भयानक व शक्तिशाली राक्षसों का जन्म हुआ था। यह उसी सम्भोग शक्ति से हुआ था। यह अलग बात है कि किसी वजह से वे सम्भोग शक्ति को कुंडलिनी देव को नहीं दे पाए, जिससे वह खुद ही उसके विपरीत स्वभाव वाले राक्षस को मिली। अगर कुंडलिनी देव को वह शक्ति मिलती तो सम्भवतः दो देवों का जन्म होता। मतलब कि उन्होंने सम्भोग को यौनयोग की तरह नहीं किया। सम्भवतः इसीलिए शास्त्रों में गैरवक्त में सम्भोग को वर्जित किया गया है। इतना तो इससे प्रमाणित हो ही गया है कि दिन के समय किए सम्भोग में बहुत शक्ति होती है। जिस शक्ति से राक्षस पैदा हो सकता है, उससे देवता भी पैदा हो सकता है। राक्षस सम्भवतः रूपक की तरह आसक्ति से भरी दुनियादारी को कहा गया है। देवता अर्थात कुंडलिनी फिर अनासक्ति व अद्वैत से भरी दुनियादारी हुई। आप इड़ा और पिंगला को दो राक्षस कह सकते हैं। सुषुम्ना चैनल को एकल देवता माना जा सकता है। यदि इड़ा और पिंगला की शक्ति आसक्तिपूर्ण सांसारिक भोगों के बजाय सुषुम्ना को हस्तांतरित कर दी जाए तो इड़ा और पिंगला को भी दो देवता कहा जा सकता है। इस तरह समाज के द्वारा सम्भोग को नजरन्दाज करने का मतलब है कि इसको सबसे फालतू और गैरज़रूरी काम माना गया है, जबकि सच्चाई यह है कि जीवन की सभी तरक्कियों और मुक्ति का रास्ता इसीसे होकर जाता है। दुनियादारी के बंधनों के लिए अच्छे से अच्छे समय चिन्हित किए जाते हैं, और इस शक्तिजागरण पैदा करने वाली क्रिया के लिए वह समय दिया जाता है, जब आदमी हर जगह से थकहार कर बैठ जाता है। मेरा एक हमउम्र जैसा गांव का चाचा बता रहा था कि वह जब एकबार जंगल के बीच बने रास्ते से गुजर रहा था, तो उस रास्ते के ऊपर कुछ स्थानीय महिलाएं पशुओं के लिए घास काट रही थीं। उनमें से एक महिला बाकियों को सुना रही थी कि एक तो पूरे दिनभर काम करके थक कर घर जाएं और ऊपर से वे रात को बेलन जैसे सरका दें। सभी भुक्तभोगी साथी महिलाओं ने उसकी दुख भरी दास्तान का अनुमोदन किया। अजीब विडंबना है। नारी जाति का कितना बड़ा अपमान है यह, और उसे इसे इस बात की भनक नहीं। उल्टा महिला अधिकार वाले केस कर दें ऐसी तथ्यपूर्ण बातों को लेकर। मेरा एक यूएसए का ब्लॉग मित्र भी यही अनुभवसिद्ध बात कर रहा था कि एक बार में ही लगातार काफी देर तक वीर्यनिरोधक सम्भोग करते हुए ही एक ऐसा थरेशहोल्ड या सीमाबिंदु आता है, जब मूलाधार की कुंडलिनी ऊर्जा पीठ से ऊपर चढ़ती हुई पूरे शरीर को तरोताज़ा और जागरण की ओर रूपांतरित करने लगती है। हालांकि कई बार यह ऊपर की ओर चढ़ने वाली और रूपान्तरण करने वाली ऊर्जा उस समय महसूस नहीं होती, पर एक-दो दिन बाद महसूस होने लगती है, विशेषकर कुंडलिनी योग के साथ। दरअसल यह सीधी सम्भोग की ऊर्जा नहीं होती, जैसी कि आम आदमी गलतफहमी से सोचते हैं, पर उसके रूपान्तरण से बनी आध्यात्मिक या कुंडलिनी ऊर्जा होती है। इसलिए इसके लिए हम आम बोलचाल का सम्भोग शब्द भी इस्तेमाल नहीं कर सकते। यौनयोग ज्यादा उपयुक्त शब्द लगता है। ऐसा समझ लो कि इसके लिए सभी कामधंधे छोड़कर पूर्णतः एकांत में (यहाँ तक कि इसकी कभी किसीको कानोंकान खबर न लगे, क्योंकि यौनकुंठित लोगों की इस पर बड़ी बुरी नजर लगती है, वैसे भी इसे सामाजिक नहीं कहा जा सकता, इसीलिए इसको गुह्य या गुप्त विद्या कहते हैं), बिना किसी विघ्न या व्यवधान के, समर्पित किए गए दिन के प्रातःकालीन या अन्य समय की तरोताज़ा तन-मन की अवस्था में 3-4 घंटे काफी है, इस जागरण-प्रारम्भ के लिए जरूरी सीमाबिंदु को प्राप्त करने के लिए। किसी के पास शक्ति और समय हो तो बीच-बीच में नींद की झपकियां लेते हुए जितने लम्बे समय तक चाहे कर सकता है। दुनिया में प्रेम और सुख से ज्यादा जरूरी भला क्या कामधंधा हो सकता है। पर ऐसी बातें किसीको बताना नहीं मांगता। सेक्स-कुंठित समाज में सेक्स की बात करने वाला व्यक्ति हंसी का पात्र बनता है। हाहाहा। 😄। लगता है इसी यौन कुंठा के कारण ही लोगों को पर्याप्त यौन संतुष्टि नहीं मिल रही है, जिससे समाज में महिला उत्पीड़न, व्यभिचार और बलात्कार के मामले बढ़ रहे हैं। मुझे तो लगता है कि समाज के सभी झगड़ों और समस्याओं के मूल में यही कारण है। वैसे भी बीच-2 में कुंडलिनी को यौन योग से पुनारवेशित या रिचार्ज करते रहना पड़ता है, नहीं तो यह उबाऊ या अल्प प्रभावी सा लगने लगता है। ओशो महाराज ठीक कहते थे कि सम्भोग के बारे में कभी पर्याप्त शोध हुए ही नहीं हैँ। समाज आज के तथाकथित आधुनिक युग में भी इतना उन्मुक्त नहीं हुआ है कि कोई कह दे कि वह कुछ दिनों के सम्भोग के लिए भ्रमण या आऊटिंग पर जा रहा है या काम से छुट्टी ले रहा है। आजकल तो कर्मोन्माद है हर जगह। काम, काम और बस काम। सम्भोग को तो केवल संतान पैदा करने वाली मशीनी कार्यवाही भर मान लिया गया है, लगता है। साथ में इसको फालतू और सबसे ओछे काम की तरह मान लिया गया है। परिणाम, जनसंख्या विस्फोट। ऐसी मानसिकता के साथ किए सम्भोग से जो जनसंख्या बनेगी, उसकी गुणवत्ता पर भी प्रश्नचिन्ह तो लगेगा ही। व्यक्तिगत जीवन और मुक्तिपथ का बोध ही नहीं है। इसी अंधे कर्मोन्माद से ही तो दुर्घटनाएं और युद्ध हो रहे हैं, जिनसे आम बेगुनाह लोग मारे जा रहे हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध को ही देख लो। क्या इसी के लिए दिनरात जीतोड़ मेहनत करके इतना विकास किया था। जिस अंधे काम से सदबुद्धि ही नष्ट हो जाए, उस काम से क्या लाभ। अभी चार-पांच दिन पहले दिल्ली के अवैध कारखाने में आग लगने से बीस से ज्यादा लोग जल कर मर गए और इतने ही लोग लापता हो गए। माना कि प्रशासन की लापरवाही है, पर आम जनता की भी कम नहीं है। हालांकि मासूम लोग ग़रीबी और घनी जनसंख्या से मजबूर हैं खतरे के नीचे जीवनबसर करने के लिए। सबसे ज्यादा दोषी तो वे बड़े लोग हैं, जो ज्यादा मुनाफे के लिए ऐसा अवैध काम कर रहे हैं। एक नवयुवती बालिका की चीखें यह कहते हुए कि अगर उसकी लापता बहिन नहीं मिली तो वह अपनी माँ और अन्य बहन के साथ सामूहिक आत्महत्या कर लेगी, दिल को चीर देती है। पहले भी ऐसी घटनाएं बहुत हुई हैं, पर उनसे ठीक सबक नहीं लिया, ऐसा लगता है। बस विकास, विकास और विकास। अगर जनसंख्या को नियंत्रित नहीं किया तो चाहे जितना मर्जी विकास कर लो, सब थोड़ा पड़ जाएगा। विकास भी ऐसा कि आजादी को मिले सत्तर साल से ज्यादा समय हो गया, पर बच्चों के स्कूल बैग का वजन घटने की बजाय बढ़ रहा है। एक दिन में अपने बेटे का स्कूल बैग पीठ पर लेकर उसको बाईक पर स्कूल छोड़ने गया। बैग इतना भारी लगा मुझे कि मेरे से संतुलन बिगड़ गया, और जैसे ही बाईक रोकी, वैसे ही बाईक के साथ हम दोनों एक तरफ को गिर गए। बेटे ने बैग पकड़ा हुआ था, इसलिए वह भी उसके साथ एकतरफ को झूल गया। संतुलन से संबंधित ज्यादातर बाईक की दुर्घटनाएं पीछे बैठने वाले के कारण होती हैं, इसलिए उसे ही पीछे बैठाएं, जिसे बाईक पर बैठना आता हो, या बैठना सिखा दें। हालांकि वहाँ जमीन भी समतल न होते हुए थोड़ी तिरछी थी। दरअसल आजकल के आधुनिक मोटरसाइकलों में न्यूट्रल गियर दूसरे और पहले गियर के बीच में आता है, इससे धोखा लगता है। मैंने डॉउनशिफ्ट किया तो जीरो गियर लग गया। इससे बाईक ने रेस नहीं ली। इससे संतुलन बिगड़ गया। गनीमत यह रही कि चोट नहीं लगी और एक स्कूल बस पर्याप्त दूरी पर चल रही थी बहुत धीरे से, क्योंकि वहाँ मोड़ था और ट्रेफिक का रश था। हालांकि उसने मौके को भाम्पते हुए पहले ही बस रोक दी थी। स्कूल वालों को बच्चों की किताबें स्कूल में ही रखवाई रखनी चाहिए। यहाँ ट्रेफिक नियमों की अनदेखी भी अक्सर होती रहती है। मेरी पत्नि की एक मित्र की मित्र जो विदेश में भी जाके रहती है कह रही थी कि यहाँ की ड्राइविंग तो बड़ी विचित्र और क्रन्तिकारी या जानलेवा जैसी है। पर मुझे तो लगता है कि यहाँ के ड्राइवर बड़े सेंसिबल हैं, इसीलिए तो मूलभूत सुविधाओं के अभाव में और इतनी ज्यादा जनसंख्या होने के बावजूद भी अपेक्षाकृत कम सड़क दुर्घटनाएं होती हैं। फिर भी यहाँ रोड पर चलने वाले को काफ़ी अतिरिक्त सावधानी बरतनी पड़ती है। भगवान बचाए। ऐसा ही विकास काशी विश्वनाथ मंदिर में हुआ सत्तर सालों में। आज भी वहाँ मुस्लिम आक्रमणकारियों के द्वारा जो मंदिर गिराकर मस्जिद बनाई गई, उसका शिवलिंग उस मस्जिद के वजूखाने तलाब में एक सर्वे के द्वारा मिलना बताया जा रहा है। अयोध्या को तो अपना राम मंदिर वापिस मिल गया, पर उन हजारों मंदिरों का क्या होगा जिनको तोड़कर मस्जिदें बनाई गईं। क़ुतुब मीनार में भी बहुत से मंदिरों के साक्ष्य मिले हैं। जिस ताजमहल को दुनिया के अजूबों में जगह मिली है, वह भी तेजोमहालय नाम का शिव मंदिर था, जिसकी पुष्टि बहुत से ऐतिहासिक साक्ष्य करते हुए बताए जा रहे हैं। मथुरा के मुख्य श्रीकृष्ण मंदिर की भी यही कहानी है।