दोस्तों, स्थूल जगत और उसका अभाव दोनों का ही अस्तित्व नहीं है। आदमी दोनों को अस्तित्व प्रदान करता है। जगतभाव पुरुष का अविभाजित अंश है। इसलिए जगतअभाव भी पुरुष का अंश ही सिद्ध हुआ। बेशक भाव की अपेक्षा बहुत छोटा। अगर जगत भाव को हम पुरुष का अविभाजित अंश कहते हैं तो अभाव को प्रकृति का अविभाजित अंश कहने में कोई समस्या नहीं है। ज्ञान और साधना से आदमी पूर्ण पुरुष तो बन सकता है पर पूर्ण प्रकृति कैसे बनेगा। पूर्ण पुरुष का अस्तित्व है पर पूर्ण प्रकृति का तो अस्तित्व ही नहीं है। वैसे अस्तित्व तो संपूर्ण जगतभाव का भी नहीं है। मतलब आंशिक जगतभाव का अस्तित्व ही संभव है। यह इसलिए क्योंकि जगतभाव को अस्तित्व जीवों के अनुभव से मिलता है। और ऐसा कोई जीव नहीं है जो संपूर्ण जगतभाव को एक साथ अनुभव कर सके। सृष्टि के सभी जीव मिलकर भी ऐसा नहीं कर सकते। इसी तरह संपूर्ण जगतअभाव अर्थात प्रकृति का भी अस्तित्व संभव नहीं है। मतलब यह है कि बेशक समग्र जगतभाव का और समस्त जगतअभाव का भौतिक अस्तित्व है पर उनमें आत्मा नहीं है, और उन्हें कोई जीवात्मा भी अनुभव नहीं करता।
क्योंकि पुरुष तो कभी नष्ट नहीं होता इसलिए उसका अभाव नहीं होता। मतलब पुरुष की छाया बन ही नहीं सकती। छाया वास्तव में अभाव को ही कहते हैं। पेड़ की छाया वस्तुतः पेड़ की नहीं होती बल्कि प्रकाश किरणों की होती है। जिस क्षेत्र पर प्रकाश किरणों का अभाव हो गया, उस क्षेत्र में पेड़ की छाया पड़ी हुई मानी जाती है। इसी तरह से जगत से जो छाया बनती है, वह पुरुष के अभाव से बनती है। मतलब जगत एक पेड़ की तरह है, और पुरुष सूर्य की तरह है। इसी तरह समग्र सृष्टि की छाया ही मूल प्रकृति है, पुरुष का इससे कुछ लेना देना नहीं। समग्र जगत के अभाव को मूल प्रकृति कहेंगे। क्योंकि समग्र जगत भी पुरुष का ही अविभाजित अंश है, इसलिए व्यवहार में मूल प्रकृति को पुरुष की छाया कहा जाता है। लघु मतलब व्यष्टि या व्यक्तिगत जगत के द्वारा पैदा किए गए छायानुमा अभाव को लघु या व्यष्टि या व्यक्तिगत प्रकृति कहेंगे। मतलब व्यष्टि जगत को ही अनुभवात्मक सत्ता मिलती है, समष्टि जगत को नहीं। हालांकि भौतिक अस्तित्व दोनों का होता है।
प्रकृति सीधी पुरुष तक नहीं जा सकती। उसे पुरुष अंशों से होकर ही क्रमवार ऊपर चढ़ना पड़ता है। इसलिए यह पुरुष के अविभाजित अंश को धीरे-धीरे बढ़ाती रहती है। सबसे छोटे जीव जैसे कि जीवाणु आदि में जरा भी पुरुष अंश नहीं होता। पर यह पुरुष अंश पैदा करने वाली शरीररूपी सीढ़ी का पहला पायदान होता है। फिर मेंढक, मछली आदि जीवो में प्रकृति बनी जीवात्मा को पुरुष अंश महसूस होने लगता है। कुत्ता, बंदर जैसे प्राणियों में यह अंश काफी बढ़ जाता है। आदमी में यह अंश सर्वोच्च स्तर पर होता है। इस स्तर से प्रकृति कुंडलिनी योग से सीधे ही पुरुष तक छलांग लगा सकती है। मतलब मनुष्य शरीर से ज्यादा विकसित शरीर की जरूरत नहीं पड़ती। महामानव आदि तो मिथकीय परिकल्पना ही लगती हैं इस मामले में, जिनका कोई विशेष उद्देश्य नहीं दिखता।
हम स्थूल जगत को कभी सीधे तौर पर अनुभव नहीं कर सकते, न इसके भाव को और न इसके अभाव को। स्थूल जगत का जो सूक्ष्म चित्र हमारी आत्मा पर बनता है, हम उसे ही महसूस कर सकते हैं। स्थूल जगत के भाव का चित्र तो हमें पहाड़, नदी, सूर्य आदि विविध पदार्थों के रूप में महसूस होता है। इन पदार्थों के अभाव का चित्र हमें अंधेरे के रूप में महसूस होता है। वह तो अंधेरे का सूक्ष्म रूप है। पर उसका स्थूल रूप भी बाहर मौजूद होता है, उसी तरह जैसे आत्मा में अनुभव हो रहे सूक्ष्म जगत का स्थूल रूप बाहर के स्थूल जगत के रूप में होता है। उस स्थूल अंधेरे को ही शायद डार्क एनर्जी, डार्क मैटर आदि कहते हैं।
भौतिक शरीर की तरह भौतिक जगत की भी एक जीवन सीमा है। जैसे शरीर उस सीमा को छू लेने पर मर जाता है, उसी तरह जगत भी अपनी आयु पूरी होने पर नष्ट हो जाता है। स्थूल शरीर सूक्ष्म शरीर रूपी व्यष्टि प्रकृति में समा जाता है। स्थूल जगत डार्क एनर्जी एंड डार्क मैटर जैसे नाम वाली समष्टि प्रकृति अर्थात मूल प्रकृति में समा जाता है। उस सूक्ष्म शरीर से नया शरीर फिर से जन्म ले लेता है। उसी तरह मूल प्रकृति से भी नया जगत पैदा हो जाता है। यह सिलसिला चक्रवत चलता रहता है।
कई लोग बोलते हैं कि इस जगत की उत्पत्ति परमात्मा से हुई है। वास्तव में पुरुष से कुछ पैदा नहीं होता। वह बिल्कुल असंग है। वह आश्चर्यमय और अद्वितीय है। हां, उसकी निकटता से जगत को अनुभवात्मक सत्ता मिलती है। जगत तो पुरुष की तरह ही अनादि, अनंत है। यहां यह अंतर है कि पुरुष हमेशा पूर्ण और एकसमान रहता है, जबकि जगत बदलता रहता है। जगत कभी भाव रूप में होता है तो कभी अभाव रुप में। इसके भाव रूप में अभिव्यक्ति के भी अनगिनत स्तर हैं और अभाव रुप में अभियुक्ति के भी अनगिनत स्तर हैं। इसी जगत को प्रकृति कहते हैं। जब इसे पुरुष की समीपता मिलती है, तब यह अनुभव के दायरे में आता है, अन्यथा बिना अनुभव के ही चलायमान रहता है, जैसे कि कोई नर्तकी अंधेरे में नाच रही हो। इसीलिए कहते हैं कि अनुभव में आने वाला समस्त संसार प्रकृति और पुरुष के सहयोग से बना है।
इसी तरह से लोग कहते हैं कि बच्चे परमात्मा से आते हैं इसलिए परमात्मा का साक्षात रुप है। आदमी के जन्म के साथ ही वह अपने मस्तिष्क में जगत के चित्र महसूस करने लगता है। मस्तिष्क में वे तभी महसूस हो सकते हैं, अगर वे बच्चे के सूक्ष्म शरीर में पहले से मौजूद हों, अन्यथा वे चित्र बनेंगे तो जरूर पर किसी को महसूस ही नहीं होंगे। बोलने का मतलब है कि अंधेरा रूपी सूक्ष्मशरीर पर ही वे प्रकाशमान चित्र बन सकते हैं। अगर बच्चों की आत्मा अंधेरे सूक्ष्म शरीर की बजाय प्रकाशमान पुरुष के रूप में हो तब उस पर प्रकाशमान चित्र कैसे बन सकते हैं। प्रकाशमान दीवार पर प्रकाश से रेखाचित्र तो नहीं बन सकते। पहले दीवार को काला या अंधेरानुमा करना होगा। हां यह जरूर है कि बच्चे परमात्मा के सबसे निकट होते हैं, क्योंकि उनमें अहंकार भाव बहुत कम होता है।
प्रकृति व्यक्त और अव्यक्त होती रहती है। यह शाश्वत चक्र है। इसमें पुरुष का कोई लेना देना नहीं है। वह स्थिर, शाश्वत और चेतन तत्व है। उसकी समीपता से प्रकृति को ऐसे ही शक्ति और गति मिलती रहती है, जैसे चुंबक की समीपता से लोहे को। अव्यक्त प्रकृति को डार्क मैटर कह सकते हैं। डार्क मैटर में सिर्फ गुरुत्व होता है, अन्य कुछ नहीं। मतलब डार्क मैटर का अस्तित्व है भी और नहीं भी है। इसलिए “नहीं है”, क्योंकि इसमें अस्तित्ववान वस्तु की कोई विशेषता नहीं है। इसे न देख सकते हैं, न सुन सकते हैं, न छू सकते हैं। यह इंद्रियों की पहुंच में नहीं है। यह “है” इसलिए है, क्योंकि इसमें गुरुत्व बल है। गुरुत्व बल भी सत्ता का या होने का ही सामान्य या छोटा सा लक्षण है। तभी तो कहते हैं कि फलां की बातों में वजन या गुरुत्व है। मतलब फलां की बातों का व्यावहारिक अस्तित्व है। डार्क एनर्जी भी मूल प्रकृति हो सकती है। यह भी डार्क मैटर और मूल प्रकृति की तरह अनिर्वचनीय ही है। यह “नहीं है”, क्योंकि इसमें भौतिक वस्तु का कोई भी लक्षण नहीं है। यह “है”, क्योंकि यह ऊर्जा के जैसा प्रभाव पैदा करती है। इसलिए हो सकता है कि दोनों एक ही चीज हों। किसी चीज के अस्तित्व के साथ उसका प्रभाव भी जुड़ा होता है। प्रभाव के बिना अस्तित्व अधूरा है। यदि एक कठोर चट्टान चोट न पहुंचा सके, तो उस चट्टान के होने का कोई मतलब नहीं रह जाता। डार्क मेटर उसी कठोर चट्टान की तरह है, और डार्क एनर्जी उसके द्वारा लगाई गई चोट है, जो ब्रह्मांड को बाहर की ओर धकेल रही है। जैसे नदी में पड़ी चट्टान किसी बहते आदमी को रोक भी सकती है, और किसी आदमी को अपने साथ बहा भी सकती है, उसी तरह मूल प्रकृति डार्क मैटर की तरह व्यवहार करके सभी अंतरिक्षीय पिंडों को गुरुत्व बल से आपस में बांध भी सकती है, और डार्क एनर्जी की तरह व्यवहार करके उन्हें एक दूसरे से दूर भी धकेल सकती है। आम आदमी के मन का अंधेरा डार्क मैटर जैसा होता है, जो उसके जगत को अपने में खींच कर और बांध कर रखता है। पर कुंडलिनी योगी के मन का अंधेरा डार्क एनर्जी की तरह व्यवहार करता है, जो उसके जगत को अपने से बाहर धकेलने की कोशिश करता रहता है। वह जगत फिर बाहर निकल कर उसके मन में पुनः उभरता रहता है, और प्रकाशमान आत्मा में विलीन होता रहता है। एक संतुलित व्यक्ति में डार्क एनर्जी और डार्क मैटर एक संतुलित अनुपात में रहते हैं, वैसे ही जैसे बाहर के भौतिक ब्रह्मांड में होते हैं।
इस लिहाज से तो आदमी के मस्तिष्क की सृष्टि भी व्यक्त और अव्यक्त के बीच झूलने वाली होनी चाहिए, अनादि काल से। मतलब आदमी का बंधन अनादि होना चाहिए। इसका विश्लेषण हम अगली पोस्ट में करेंगे।