कुंडलिनी योग से डार्क मैटर डार्क एनर्जी के रूप में व्यवहार करने लगता है

दोस्तों, स्थूल जगत और उसका अभाव दोनों का ही अस्तित्व नहीं है। आदमी दोनों को अस्तित्व प्रदान करता है। जगतभाव पुरुष का अविभाजित अंश है। इसलिए जगतअभाव भी पुरुष का अंश ही सिद्ध हुआ। बेशक भाव की अपेक्षा बहुत छोटा। अगर जगत भाव को हम पुरुष का अविभाजित अंश कहते हैं तो अभाव को प्रकृति का अविभाजित अंश कहने में कोई समस्या नहीं है। ज्ञान और साधना से आदमी पूर्ण पुरुष तो बन सकता है पर पूर्ण प्रकृति कैसे बनेगा। पूर्ण पुरुष का अस्तित्व है पर पूर्ण प्रकृति का तो अस्तित्व ही नहीं है। वैसे अस्तित्व तो संपूर्ण जगतभाव का भी नहीं है। मतलब आंशिक जगतभाव का अस्तित्व ही संभव है। यह इसलिए क्योंकि जगतभाव को अस्तित्व जीवों के अनुभव से मिलता है। और ऐसा कोई जीव नहीं है जो संपूर्ण जगतभाव को एक साथ अनुभव कर सके। सृष्टि के सभी जीव मिलकर भी ऐसा नहीं कर सकते। इसी तरह संपूर्ण जगतअभाव अर्थात प्रकृति का भी अस्तित्व संभव नहीं है। मतलब यह है कि बेशक समग्र जगतभाव का और समस्त जगतअभाव का भौतिक अस्तित्व है पर उनमें आत्मा नहीं है, और उन्हें कोई जीवात्मा भी अनुभव नहीं करता।

क्योंकि पुरुष तो कभी नष्ट नहीं होता इसलिए उसका अभाव नहीं होता। मतलब पुरुष की छाया बन ही नहीं सकती। छाया वास्तव में अभाव को ही कहते हैं। पेड़ की छाया वस्तुतः पेड़ की नहीं होती बल्कि प्रकाश किरणों की होती है। जिस क्षेत्र पर प्रकाश किरणों का अभाव हो गया, उस क्षेत्र में पेड़ की छाया पड़ी हुई मानी जाती है। इसी तरह से जगत से जो छाया बनती है, वह पुरुष के अभाव से बनती है। मतलब जगत एक पेड़ की तरह है, और पुरुष सूर्य की तरह है। इसी तरह समग्र सृष्टि की छाया ही मूल प्रकृति है, पुरुष का इससे कुछ लेना देना नहीं। समग्र जगत के अभाव को मूल प्रकृति कहेंगे। क्योंकि समग्र जगत भी पुरुष का ही अविभाजित अंश है, इसलिए व्यवहार में मूल प्रकृति को पुरुष की छाया कहा जाता है। लघु मतलब व्यष्टि या व्यक्तिगत जगत के द्वारा पैदा किए गए छायानुमा अभाव को लघु या व्यष्टि या व्यक्तिगत प्रकृति कहेंगे। मतलब व्यष्टि जगत को ही अनुभवात्मक सत्ता मिलती है, समष्टि जगत को नहीं। हालांकि भौतिक अस्तित्व दोनों का होता है।

प्रकृति सीधी पुरुष तक नहीं जा सकती। उसे पुरुष अंशों से होकर ही क्रमवार ऊपर चढ़ना पड़ता है। इसलिए यह पुरुष के अविभाजित अंश को धीरे-धीरे बढ़ाती रहती है। सबसे छोटे जीव जैसे कि जीवाणु आदि में जरा भी पुरुष अंश नहीं होता। पर यह पुरुष अंश पैदा करने वाली शरीररूपी सीढ़ी का पहला पायदान होता है। फिर मेंढक, मछली आदि जीवो में प्रकृति बनी जीवात्मा को पुरुष अंश महसूस होने लगता है। कुत्ता, बंदर जैसे प्राणियों में यह अंश काफी बढ़ जाता है। आदमी में यह अंश सर्वोच्च स्तर पर होता है। इस स्तर से प्रकृति कुंडलिनी योग से सीधे ही पुरुष तक छलांग लगा सकती है। मतलब मनुष्य शरीर से ज्यादा विकसित शरीर की जरूरत नहीं पड़ती। महामानव आदि तो मिथकीय परिकल्पना ही लगती हैं इस मामले में, जिनका कोई विशेष उद्देश्य नहीं दिखता।

हम स्थूल जगत को कभी सीधे तौर पर अनुभव नहीं कर सकते, न इसके भाव को और न इसके अभाव को। स्थूल जगत का जो सूक्ष्म चित्र हमारी आत्मा पर बनता है, हम उसे ही महसूस कर सकते हैं। स्थूल जगत के भाव का चित्र तो हमें पहाड़, नदी, सूर्य आदि विविध पदार्थों के रूप में महसूस होता है। इन पदार्थों के अभाव का चित्र हमें अंधेरे के रूप में महसूस होता है। वह तो अंधेरे का सूक्ष्म रूप है। पर उसका स्थूल रूप भी बाहर मौजूद होता है, उसी तरह जैसे आत्मा में अनुभव हो रहे सूक्ष्म जगत का स्थूल रूप बाहर के स्थूल जगत के रूप में होता है। उस स्थूल अंधेरे को ही शायद डार्क एनर्जी, डार्क मैटर आदि कहते हैं।

भौतिक शरीर की तरह भौतिक जगत की भी एक जीवन सीमा है। जैसे शरीर उस सीमा को छू लेने पर मर जाता है, उसी तरह जगत भी अपनी आयु पूरी होने पर नष्ट हो जाता है। स्थूल शरीर सूक्ष्म शरीर रूपी व्यष्टि प्रकृति में समा जाता है। स्थूल जगत डार्क एनर्जी एंड डार्क मैटर जैसे नाम वाली समष्टि प्रकृति अर्थात मूल प्रकृति में समा जाता है। उस सूक्ष्म शरीर से नया शरीर फिर से जन्म ले लेता है। उसी तरह मूल प्रकृति से भी नया जगत पैदा हो जाता है। यह सिलसिला चक्रवत चलता रहता है।

कई लोग बोलते हैं कि इस जगत की उत्पत्ति परमात्मा से हुई है। वास्तव में पुरुष से कुछ पैदा नहीं होता। वह बिल्कुल असंग है। वह आश्चर्यमय और अद्वितीय है। हां, उसकी निकटता से जगत को अनुभवात्मक सत्ता मिलती है। जगत तो पुरुष की तरह ही अनादि, अनंत है। यहां यह अंतर है कि पुरुष हमेशा पूर्ण और एकसमान रहता है, जबकि जगत बदलता रहता है। जगत कभी भाव रूप में होता है तो कभी अभाव रुप में। इसके भाव रूप में अभिव्यक्ति के भी अनगिनत स्तर हैं और अभाव रुप में अभियुक्ति के भी अनगिनत स्तर हैं। इसी जगत को प्रकृति कहते हैं। जब इसे पुरुष की समीपता मिलती है, तब यह अनुभव के दायरे में आता है, अन्यथा बिना अनुभव के ही चलायमान रहता है, जैसे कि कोई नर्तकी अंधेरे में नाच रही हो। इसीलिए कहते हैं कि अनुभव में आने वाला समस्त संसार प्रकृति और पुरुष के सहयोग से बना है।

इसी तरह से लोग कहते हैं कि बच्चे परमात्मा से आते हैं इसलिए परमात्मा का साक्षात रुप है। आदमी के जन्म के साथ ही वह अपने मस्तिष्क में जगत के चित्र महसूस करने लगता है। मस्तिष्क में वे तभी महसूस हो सकते हैं, अगर वे बच्चे के सूक्ष्म शरीर में पहले से मौजूद हों, अन्यथा वे चित्र बनेंगे तो जरूर पर किसी को महसूस ही नहीं होंगे। बोलने का मतलब है कि अंधेरा रूपी सूक्ष्मशरीर पर ही वे प्रकाशमान चित्र बन सकते हैं। अगर बच्चों की आत्मा अंधेरे सूक्ष्म शरीर की बजाय प्रकाशमान पुरुष के रूप में हो तब उस पर प्रकाशमान चित्र कैसे बन सकते हैं। प्रकाशमान दीवार पर प्रकाश से रेखाचित्र तो नहीं बन सकते। पहले दीवार को काला या अंधेरानुमा करना होगा। हां यह जरूर है कि बच्चे परमात्मा के सबसे निकट होते हैं, क्योंकि उनमें अहंकार भाव बहुत कम होता है।

प्रकृति व्यक्त और अव्यक्त होती रहती है। यह शाश्वत चक्र है। इसमें पुरुष का कोई लेना देना नहीं है। वह स्थिर, शाश्वत और चेतन तत्व है। उसकी समीपता से प्रकृति को ऐसे ही शक्ति और गति मिलती रहती है, जैसे चुंबक की समीपता से लोहे को। अव्यक्त प्रकृति को डार्क मैटर कह सकते हैं। डार्क मैटर में सिर्फ गुरुत्व होता है, अन्य कुछ नहीं। मतलब डार्क मैटर का अस्तित्व है भी और नहीं भी है। इसलिए “नहीं है”, क्योंकि इसमें अस्तित्ववान वस्तु की कोई विशेषता नहीं है। इसे न देख सकते हैं, न सुन सकते हैं, न छू सकते हैं। यह इंद्रियों की पहुंच में नहीं है। यह “है” इसलिए है, क्योंकि इसमें गुरुत्व बल है। गुरुत्व बल भी सत्ता का या होने का ही सामान्य या छोटा सा लक्षण है। तभी तो कहते हैं कि फलां की बातों में वजन या गुरुत्व है। मतलब फलां की बातों का व्यावहारिक अस्तित्व है। डार्क एनर्जी भी मूल प्रकृति हो सकती है। यह भी डार्क मैटर और मूल प्रकृति की तरह अनिर्वचनीय ही है। यह “नहीं है”, क्योंकि इसमें भौतिक वस्तु का कोई भी लक्षण नहीं है। यह “है”, क्योंकि यह ऊर्जा के जैसा प्रभाव पैदा करती है। इसलिए हो सकता है कि दोनों एक ही चीज हों। किसी चीज के अस्तित्व के साथ उसका प्रभाव भी जुड़ा होता है। प्रभाव के बिना अस्तित्व अधूरा है। यदि एक कठोर चट्टान चोट न पहुंचा सके, तो उस चट्टान के होने का कोई मतलब नहीं रह जाता। डार्क मेटर उसी कठोर चट्टान की तरह है, और डार्क एनर्जी उसके द्वारा लगाई गई चोट है, जो ब्रह्मांड को बाहर की ओर धकेल रही है। जैसे नदी में पड़ी चट्टान किसी बहते आदमी को रोक भी सकती है, और किसी आदमी को अपने साथ बहा भी सकती है, उसी तरह मूल प्रकृति डार्क मैटर की तरह व्यवहार करके सभी अंतरिक्षीय पिंडों को गुरुत्व बल से आपस में बांध भी सकती है, और डार्क एनर्जी की तरह व्यवहार करके उन्हें एक दूसरे से दूर भी धकेल सकती है। आम आदमी के मन का अंधेरा डार्क मैटर जैसा होता है, जो उसके जगत को अपने में खींच कर और बांध कर रखता है। पर कुंडलिनी योगी के मन का अंधेरा डार्क एनर्जी की तरह व्यवहार करता है, जो उसके जगत को अपने से बाहर धकेलने की कोशिश करता रहता है। वह जगत फिर बाहर निकल कर उसके मन में पुनः उभरता रहता है, और प्रकाशमान आत्मा में विलीन होता रहता है। एक संतुलित व्यक्ति में डार्क एनर्जी और डार्क मैटर एक संतुलित अनुपात में रहते हैं, वैसे ही जैसे बाहर के भौतिक ब्रह्मांड में होते हैं।

इस लिहाज से तो आदमी के मस्तिष्क की सृष्टि भी व्यक्त और अव्यक्त के बीच झूलने वाली होनी चाहिए, अनादि काल से। मतलब आदमी का बंधन अनादि होना चाहिए। इसका विश्लेषण हम अगली पोस्ट में करेंगे।

Kundalini Yoga helping in Marriage, romance and procreation

Friends, Prakriti is like a giant mother. Space is its belly. When it was conceived by the Purusha-father, then the tiniest fundamental particle got established in its womb. Division and development started in it in the form of a big explosion. As this mega-embryo of the universe kept growing, the size of its belly also kept increasing. This is what scientists call the expansion of space. Even today space is expanding. When this child-universe grows up and becomes fully developed, then its further growth will stop. At that time the size of Prakriti’s belly will also become stable. This situation will remain for a long time. Then this man-form universe will start becoming old and weak. Due to this its size will also start decreasing. Due to this the size of mother Prakriti’s belly will also start decreasing. This is what scientists call the Big Crunch, when the expansion of space will stop and it will start shrinking slowly. Then in the end this mega-giant man will die and shrink in the form of the same original embryo cell from where its development started. Then that last root cell will also merge with the same Prakriti from which it was made. The last root cell was made from Prakriti itself, and it grew by getting nourishment from the same. That is why Prakriti or Shakti is also called mother. Purusha only helped Prakriti a little, by giving her his seed. Prakriti itself needs the son-form creation more, because through him she wants to compensate for her supposed deficiency and  inferiority. Purusha is like a happy madman. He is complete in himself. He does not need anyone. Something similar is seen in real worldliness also. Yes, clever people keep uniting Prakriti and Purusha through Kundalini Yoga every day, and keep creating the creation-child of their choice.

An empty egg never sprout. An empty female seed never becomes a tree. Empty soil can also never make a tree. A tree has parts of male seed, female seed and soil. But in creation, there are only parts of purusha and prakriti. Soil provides nourishment to the seed. The male seed gets diversity by mixing with the female seed. The female seed also gets diversity by mixing with the male seed. On the other hand, prakriti is also the female seed and also the soil. It means that it provides diversity to the male seed and also works as soil to nourish it. This is because in the beginning of creation, there was nothing other than purusha and prakriti. The very subtle elements hidden in prakriti in the unmanifested form keep growing the fundamental particle made from the mixture of male seed and female seed. At the time of Pralaya, the entire creation ends and gets absorbed in prakriti in a subtle form. It is called Avyakta or unmanifested in the language of Sankhya school of thought. From the same unmanifested, a new creation is created again. It is like all the animals and plants die and decay and get absorbed in the soil in the form of micro elements, and then by getting nutrition from the same micro elements of the soil, new animals are born and new trees and plants grow up. Along with this, by combining in different quantities and in different ways, the purusha-seed and the prakriti-seed also create diversity in the world. In the same way, the female seed and male seed of a tree also combine with each other in different quantities and in different ways and produce different varieties of trees.

कुंडलिनी योग ही पुत्र को पिता से आसानी से मिलवा सकता है

दोस्तों, गीता में श्रीकृष्ण भगवान कहते हैं कि वे सृष्टि के पिता हैं, जो ब्रह्म के रूप में अपनी पत्नी प्रकृति के अंदर अपना वीर्य-बीज डालते हैं। उससे संपूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति होती है। आओ, इसे हम वैज्ञानिक रूप से समझते हैं। हम अगर शास्त्रों की गहराई में जाएं , तो उसमें बहुत से रहस्य छिपे मिलेंगे। तमस-आकाश मतलब प्रकृति के अंदर ज्योतिर्मय आकाश मतलब पुरुष की लकीरों से एक छल्ला बना। वह मूलकण था। वह ऐसा ही था जैसे हम ब्लैकबोर्ड पर चाक से एक छल्ले का चित्र बनाते हैं। यह प्रकाश मतलब पुरुष और अंधकार मतलब प्रकृति से मिलकर बना होता है। ब्लैक बोर्ड पर निर्मित छल्ले में भी प्रकाश की रेखा की सीमाभित्ति के अंदर वह गोलाकार क्षेत्र अंधकाररूप होता है। ऐसा ही कुछ मूल कण भी था। पुरुषोत्तम अर्थात परमात्मा का वीर्यबीज उस छल्लानुमा रेखाचित्र की प्रकाशमान सीमाभित्ति के रूप में था। वह वीर्य पुरुष ही था। पुरुष और पुरुषोत्तम में मूलतः कोई अंतर नहीं है। उसी तरह जैसे नर जीव और उसके वीर्य के बीच में कोई अंतर नहीं है, क्योंकि उसके सारे गुण उसके वीर्य में सूक्ष्म रूप में छिपे होते हैं। या ऐसे समझ लो कि जैसे पूरा वृक्ष उसके बीज में छिपा होता है।

छल्ले के अंदर का अंधकार रूप गोलाकार क्षेत्र प्रकृति माता का अंडाणु था। वह अंडाणु भी प्रकृति रूप ही था। मादा जीव और उसके अंडाणु या ओवम के बीच में कोई अंतर नहीं है। दरअसल उसके सारे गुण अंडाणु में छिपे होते हैं। ऐसे समझ लो जैसे मुर्गी और उसके अंडे के बीच में तत्त्वतः कोई अंतर नहीं है। दोनों आपस में जुड़ गए मतलब अंडाणु शुक्राणु से निषेचित हो गया था। इसीलिए गीता में प्रकृति को क्षेत्र मतलब खेत और पुरुष को क्षेत्रज्ञ मतलब खेत को जानने वाला या बीजधारी किसान भी कहा गया है। जो खेत को समझेगा, वही उस पर हल चलाना चाहेगा और उसमें बीज भी डालना चाहेगा। फिर प्रकृति माता के गर्भ में वह निषेचित अंडाणु मूल कण बनकर वृद्धि और विकास करने के लिए क्रियाशील हो गया। उसने अपने विभाजन से अपने जैसे और भी मूल कण बनाए। वे मूल कण आगे से आगे आपस में जुड़कर बड़ी से बड़ी संरचनाएं बनाने लगे। शायद सृष्टि के प्रारंभ के महा विस्फोट या बिग बैंग से एकदम पहले वही एकमात्र मूलकण बना था। उसमें विस्फोट का और आगे से आगे फैलने का मतलब गर्भ में एककोशिकीय जाईगोट का बनना और उसका त्वरित और विस्फोटक विभाजनों से बाहर की तरफ बढ़ना अर्थात फैलना है। गौर करें कि माता के गर्भ में भी भ्रूण का विकास बिल्कुल ऐसे ही होता है। आज तक यह सृष्टि का वृद्धि-विकास अनवरत चल रहा है, और आगे भी चलता रहेगा। क्योंकि प्रकृति माता का गर्भ अपरिमित आकाश के रूप में है, इसलिए इसमें स्थान की कोई कमी नहीं है। इसीलिए सृष्टि को गर्भ से बाहर निकलने की कभी जरूरत ही नहीं पड़ती। इसके विपरीत जीव-स्त्री के गर्भ में सीमित स्थान होने से कुछ समय बाद बच्चे को गर्भ से बाहर निकालना पड़ता है। उसका उसके बाद का विकास गर्भ के बाहर होता है। बच्चा भी मां और बाप दोनों के अंश से मिलकर बना होता है। शुक्राणु और अंडाणु के मिलने से जो जाएगोट नाम की पहली गोल कोशिका बनती है, उसमें माता और पिता के आधे-आधे गुण होते हैं। इससे संतान के पूरे नए शरीर में भी माता-पिता के गुण आधे-आधे और बराबर हो जाते हैं। इसीलिए तो संतान की शक्ल माता-पिता दोनों से मिलती है। इसी तरह से, क्योंकि प्रथम मूल कण ही पुरुष और प्रकृति के आधे-आधे और बराबर गुण समेटे हुए होता है, इससे पूरी सृष्टि में उन दोनों के गुण बराबर और आधे-आधे आ जाते हैं, क्योंकि उस एकमात्र मूलकण से ही पूरी सृष्टि विकसित होती है। इसीलिए किसी भी चीज को देखकर हमें परमात्मा की और कुदरत की याद आती है। यह ऐसे ही होता है, जैसे संतान को देखकर उसके माता-पिता के बारे में अंदाजा लग जाता है। इसीलिए धातु, पत्थर आदि की मूर्तियों की पूजा की जाती है। हम पिता-परमात्मा को तो नहीं देख सकते, पर उसकी संतानों के रूप में उसे जरूर देख सकते हैं। संतान माता-पिता की नकल करते हुए वृद्धि और विकास करते हुए उनके कार्यों और व्यवसाय को संभालते हुए हर समय उनके जैसा बनने की कोशिश करती रहती है। उसी तरह प्रकृति और पुरुष की संतान जो सृष्टि है, और उसके सभी पदार्थ भी उत्तम से उत्तम रचना बनाने के लिए अपने पिता परमात्मा की अनंत ऊंचाई से प्रेरित होकर विकसित होते रहते हैं, और साथ में अपनी माता प्रकृति से भी शक्ति लेते रहते हैं।

जैसे पुरुष-पिता शरीर के सहस्रार में रहते हैं, उसी तरह प्रकृति-माता भी शरीर के मूलाधार में शक्ति के रूप में सोई रहती है। बच्चों का सीधा संपर्क माता से ज्यादा होता है। पिता तो अपने कार्य, व्यापार आदि में व्यस्त रहता है। माता ही उसका संपर्क पिता से स्थापित करती रहती है। इसी तरह आदमी भी सीधा ही सहस्रार चक्र में स्थित पिता-पुरुष या शिव से नहीं मिल सकता। उसे उनसे मिलने के लिए मूलाधार में स्थित माता-प्रकृति या शक्ति के सुकून से भरे आंचल की सहायता लेनी पड़ती है। माता-शक्ति उसे पिता-शिव से मिला देती है। इसे ही कुंडलिनी योग और कुंडली जागरण कहते हैं।

कुंडलिनी शक्ति ही अंधेरे से संपूर्ण सृष्टि की रचना करती है

गुप्त कालचक्र मुझे अवचेतन मन का खेल लगता है। आदमी के हरेक अंग से संबंधित सूचना उससे संबंधित चक्र में छुपी होती है। ये पिछले अनगिनत जन्मों की सूचनाएं होती हैं, क्योंकि सभी जीवों के शरीर, उनके क्रियाकलाप, उनसे जुड़ी भावनाएं और चक्र सभी लगभग एकजैसे ही होते हैं, मात्रा में कम ज्यादा का या रूपाकार का अंतर हो सकता है। चक्रों पर ध्यान करने से वे सूचनाएं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रकट होकर मिटती रहती हैं। जब स्थूल मन की सफाई हो जाती है, तब आदमी सूक्ष्म मन की सफाई के लिए खुद ही चक्रसाधना की ओर मुड़ता है। जैसे स्थूल मन की अवस्था समय के साथ प्रतिपल बदलती रहती है, वैसे ही सूक्ष्म अवचेतन मन की भी बदलती रहती है, क्योंकि सूक्ष्म मन भी स्थूल मन का ही प्रतिबिंब है, पर वह हमें नजर नहीं आता। इसीलिए इसे गुप्त कालचक्र कहते हैं। मतलब कि अगर अवचेतन मन पूरा साफ भी कर लिया तो इसकी कोई गारंटी नहीं कि यह फिर गंदा नहीं होगा। सभी चक्रों का ऊर्जा स्तर बदलता महसूस होता रहेगा चक्रसाधक को। काल के थपेड़ों से कुछ नहीं बच सकता। इसलिए भलाई इसी में है कि जो है, उसे स्वीकार करते रहो हर स्थिति में बराबर और अप्रभावित से बने रहते हुए। यही वैकल्पिक कालचक्र है। यही गुप्तकालचक्र साधना का मुख्य उद्देश्य लगता है मुझे।

कुंडलिनी शक्ति सृष्टि का निर्माण करती है, जो यह कहा जाता है इसका यह अर्थ नहीं लगता कि वह अंतरिक्ष के ग्रह तारों आदि भौतिक और स्थूल पिंडों का निर्माण करती है। बल्कि ज्यादा युक्तियुक्त तो यह अर्थ लगता है कि वह प्रजनक संभोगशक्ति के जैसी है जो एक बच्चे को जन्म देती है और उसके शरीर और मनमस्तिष्क के रूप में संपूर्ण सृष्टि का निर्माण करती है। हालांकि पहले वाली उक्ति भी अप्रत्यक्ष रूप से सही हो सकती है, क्योंकि जो पिंड में है वही ब्रह्मांड में है, पर दूसरी उक्ति तो प्रत्यक्ष, व्यवहारिक व स्पष्ट रूप से सत्य दिखती है।

कई लोग बोल सकते हैं कि संभोग शक्ति तो वंश परंपरा को बढ़ाने के लिए है, उसमें कुंडलिनी कहां से आ गई। आदमी तो कुछ भी मायने निकाल सकता है उस शक्ति के। अगर उसका असली उद्देश्य जानना हो तो पशु को देखना चाहिए। ये अपनी सोच या लक्ष्य के हिसाब से नहीं बल्कि कुदरती प्रेरणा या इंस्टिंक्ट अर्थात स्वाभाविक प्रवृत्ति से ज्यादा चलते हैं। उनके मन में संतानोत्पत्ति का उद्देश्य नहीं होता संभोग को लेकर। वे तो अज्ञान के अंधेरे में संकुचित मन को विस्तार देने के लिए ही संभोग के लिए प्रेरित होते हैं, वह भी तब जब प्राकृतिक अनुकूल परिस्थितियां उन्हें इसके लिए प्रेरित करे, ऐसे तो इसके लिए भी अपनेआप उनमें लालसा पैदा नहीं होती। एक भैंस और भैंसा तभी इसके लिए प्रेरित होंगे जब भैंस मद में अर्थात हीट में होगी जो महीने में एक या दो दिन के लिए आती है। गर्मियों के मौसम में तो वह हीट आना भी बंद हो जाता है। अन्य समय तो दोनों साथ में रहते हुए भी संभोग नहीं करेंगे। पर जब मद में होती है तो जानकार मानते हैं कि भैंस पच्चीस किलोमीटर तक भैंसे को खोजते हुए अकेले निकल सकती है, बेशक वह रास्ते में मर ही क्यों न जाए। आदमी विकसित प्राणी है। वह कुदरती नियमों से लाभ लेना जानता है। तंत्रयोगी एक कदम और आगे है। वह अंधेरे में संकुचित मन की एक ध्यानचित्र के रूप में छोटी सी लौ जलाता है। फिर वह उसे संभोगसहायित योग से इतना ज्यादा बढ़ाता है कि वह जागृत हो जाती है। यही कुंडलिनी जागरण है। अब चाहे ध्यानचित्र के रूप में संकुचित मन को कुंडलिनी कहो या अंधेरे में संकुचित मन को। बात एक ही है क्योंकि वही अंधेरा ध्यानसाधना से विकसित होकर ध्यानचित्र बन जाता है। जो संभोग शक्ति उसे विकसित होने का बल देती है, वह मूलाधार मतलब अंधेरे कुंड में रहती है, इसीलिए इसका नाम कुंडलिनी है। मतलब ध्यानचित्र का कुंडलिनी नाम तभी पड़ा जब उसे संभोग शक्ति अर्थात वीर्यशक्ति का बल मिला। मतलब कुंडलिनी शब्द ही तांत्रिक है। आम आदमी अंधेरे में या अनगिनत क्षुद्र और हल्के विचारों में संकुचित मन के साथ सीधे ही संभोग करता है, जिससे अनगिनत विचारों में वह शक्ति बंट जाती है। इससे उसे दुनियावी विस्तार या तरक्की तो मिल सकती है, पर जागृति के लाभ कम ही मिलते हैं।

जब शक्ति मूलाधाररूपी कुंड के अंधेरे में घुसती है, तभी जीव संभोग की ओर आकृष्ट होता है। हमेशा पूर्ण ज्ञान के प्रकाश में रहने वाले व्यक्ति का तो संभोग का मन ही नहीं करता। मेरे एक खानेपीने वाले एक वरिष्ठ अनुभवी मित्र थे जिन्होंने मुझे एकबार कहा था कि अगर मैं मांसाहार नहीं करूंगा तो संभोग कैसे कर पाऊंगा। मैं उस बात को मन से नहीं मान पाया था। आज मैं उनकी बात में छिपे तंत्र दर्शन को समझ पा रहा हूं। अंधेरा सिर्फ़ खानेपीने से ही पैदा नहीं होता। दुनियादारी में आसक्ति से कर्मशील रहते हुए भी पैदा होता है। मुझे लगता है कि शरीर की बनावट ही ऐसी है कि मस्तिष्क या मन का अंधेरा जैसे जैसे बढ़ता है, वैसे वैसे ही शक्ति नीचे जाती है। सबसे ज्यादा या घुप्प अंधेरे का मतलब है कि शक्ति मूलाधार पर इकट्ठी हो गई है। यह रक्तसंचार ही है जो कुदरतन नीचे की ओर इकट्ठा होता रहता है। मूलाधार तक पहुंचकर शक्ति फिर पीठ से होकर सीधी मस्तिष्क को चढ़ जाती है। मूलाधार पर शक्ति के पहुंचने से स्वाभाविक है कि वहां के यौनांग क्रियाशील हो जाएंगे। कई संयम रखकर उस शक्ति को वापिस ऊपर जाने का मौका देते हैं। कई तांत्रिक विधि से उसे बढ़ा कर फिर बढ़ी हुई मात्रा को ऊपर चढ़ाते हैं, और कई गिरा देते हैं। शक्ति के गिरने से मूलाधार में शक्ति फिर इकट्ठी होने लगती है जिसमें पहले से ज्यादा समय लग जाता है। अच्छी खुराक से वह जल्दी इकट्ठी होती है पर उसमें पापकर्म भी शामिल हो सकता है। साथ में, भोजन को पचाने और उसे शरीर में लगाने में भी ऊर्जा खर्च होती है, मतलब कुल मिलाकर प्राण ऊर्जा की हानि ही होती है। फिर ऐसे ही होगा कि आगे दौड़ और पीछे चौड़। इन साधारण लोकोक्तियों के बड़े गहन अर्थ होते हैं। चौड़ मतलब कुंडलिनी सर्पिणी का कुंडल। मतलब शक्ति पाप के अंधेरे के रूप में सो जाती है, बेशक उसे उस अंधेरे की शक्ति से ही ऊपर चढ़ाया गया हो। पर मुझे लगता है कि उतना पाप खाने पीने से नहीं लगता जितना दुनिया में आसक्तिपूर्ण व्यवहार से लगता है। इसीलिए तो शिव भूतों की तरह खाने पीने वाले दिखते हुए भी मस्तमलंग, निस्संग और निष्पाप बने हुए विचरते रहते हैं। पर जब आदमी का मन या आत्मा इतना साफ हो जाएगा कि उसमें अंधेरा होगा ही नहीं बेशक शक्ति मूलाधार को गई हुई हो, तब क्या होगा। शायद तब बिना संभोग के उसकी शक्ति ऐसे ही घूमती रहेगी। उसे यौनोन्माद भी होगा, इरेक्शन भी होगा, पर वह भौतिक संभोग के प्रति ज्यादा प्रेरित नहीं होगा, क्योंकि उसे महसूस होगा कि उससे शक्ति की हानि है, बेशक कितनी ही सावधानी क्यों न बरती जाए। मुलाधार में शक्ति के समय उसके मन में किसी कामुक स्त्री का चित्र छा सकता है, और सहस्रार में शक्ति के समय किसी गुरु या आध्यात्मिक व्यक्ति या प्रेमी पुरुष का। पर वह दोनों से ही अनासक्त रहते हुए अपने काम में व्यस्त रहेगा, जिससे वह शक्ति उसमें झूलती रहेगी और वह हमेशा आनंद में डूबा रहेगा।

जब ऊर्जा मूलाधार को जाएगी तो मास्तिष्क में तो उसकी कमी पड़ेगी ही जैसे जब बारिश का पानी जमीन में रिसेगा, तो पानी से भरे गढ्ढे सूखेंगे ही। इससे मन में कुछ न कुछ अंधेरा तो छाएगा ही, बेशक आदमी कितना ही ज्यादा शुद्ध और सिद्ध क्यों न बन गया हो। विकारशील दुनिया में इतना सिद्ध कोई नहीं हो सकता जिसका मन मस्तिष्क हमेशा उजाले से भरा रहता हो। आम सांसारिक आदमी के मन का उजाला तो ऊर्जा के सहारे ही है। बिना भौतिक ऊर्जा के उजाला रखने वाला तो कोई अति विरला साधु संन्यासी ही हो सकता है। फिर भी पूरा उजाला तो पूर्ण मुक्ति की अवस्था में में ही होना संभव है, जो शरीर के रहते संभव नहीं है। विकारी शरीर के साथ जुड़े होने पर कोई पूरी तरह कैसे निर्विकार रह सकता है। बैलगाड़ी में बैठने वाला हिचकोलों से कैसे बच सकता है। जो बिना संभोग के ही मन में उजाला बना कर रखते हैं, उन्होंने संभोग से इतर सात्त्विक तकनीकों में महारत हासिल कर ली होती है, जिनसे मूलाधार की ऊर्जा पीठ से ऊपर चढ़ती रहती है। यह सांसों पर ध्यान, शरीर पर ध्यान, वर्तमान पर ध्यान, चक्रों पर साधारण या बीजमंत्रो के साथ ध्यान, विपश्यना, देवपुजा आदि ही हैं। उदाहरण के लिए चक्रों पर बीजमंत्रों के ध्यान से प्राण खुलते हैं, सांसें खुलती हैं, चेतना और उससे मन विचारों की चमक बढ़ती है, बुद्धि बढ़ती है, और मूलाधार पर ऊपर की तरफ संकुचन बल लगता है। चमक चाहे शरीर के भीतर हो या बाहर, ऊर्जा से ही आती है।

मानसिक अंधेरा भी दो किस्म का होता है। एक खाने पीने, शारीरिक श्रम, नींद, आराम आदि से उत्पन्न अंधेरा होता है। उसमें शरीर में ऊर्जा तो बहुत होती है, पर मन में उसकी कमी होती है, क्योंकि हिंसा, नशे आदि से और दुनियावी आसक्ति के भ्रम के बाद अकेलेपन से मन की चेतना दबी हुई होती है। मतलब साफ़ है कि जब मास्तिष्क में नहीं, तब वह मूलाधार के दायरे में केंद्रित होती है। शरीर के दो ही मुख्य दायरे हैं। एक सहस्रार का तो दूसरा मूलाधार का। ऊर्जा एक दायरे में नहीं तो स्वाभाविक है कि दूसरे दायरे में होगी। अगर सिक्के का हैड नहीं आया तो टेल ही आएगा, अन्य कोई विकल्प नहीं। ऐसी अवस्था में तांत्रिक संभोग से लाभ मिलता है। दूसरी किस्म का अंधेरा वह होता है जिसमें पूरे शरीर में ऊर्जा की कमी होती है। यह तो रोग जैसी या अवसाद जैसी या थकावट जैसी या कमजोरी जैसी अवस्था होती है। इसीलिए इसमें संभोग का मन नहीं करता। अगर करेगा तो बीमार पड़ सकता है, क्योंकि एक तो पहले ही शरीर में ऊर्जा की कमी होती है, दूसरा ऊपर से संभोग में भी ऊर्जा को व्यय कर रहा है। सबको पता है कि घर की छत की टंकी में पानी जीवन के कई काम संपन्न करवाता है। पर पानी को छत तक चढ़ाने के लिए भी ऊर्जा चाहिए और भूमिगत टैंक में भी पानी होना चाहिए। अगर सूखे टैंक में या कम वोल्टेज में पंप चलाएंगे, तो पंप तो खराब होगा ही। वैसे तो तांत्रिक संभोग का भी संत वाला शांत तरीका भी है, जिससे उसमें कम से कम ऊर्जा की खपत होती है, और ज्यादा से ज्यादा ऊर्जा ऊपर चढ़ती है। मस्तिष्क में ऊर्जा होना सबसे ज्यादा जरूरी है, क्योंकि वही पूरे शरीर को नियंत्रित करता है। नीचे के चक्रों में, विशेषकर सबसे नीचे के दो चक्रों में ऊर्जा कुछ कम भी रहे तो भी ज्यादा नुकसान नहीं।

कई लोग बोल सकते हैं कि शून्य अंधेरे से विचाररूपी सृष्टि कैसे बनती है। अंधेरे का मतलब ही सूक्ष्म या अव्यक्त या छुपी हुई सृष्टि है। अंधेरा वास्तव में शून्य नहीं होता जैसा अक्सर माना जाता है। असली शून्य तो बौद्धों का शून्य मतलब परब्रह्म परमात्मा ही होता है। सृष्टि बनने के लिए दो चीजें ही चाहिए, अंधेरा और शक्ति अर्थात ऊर्जा। अगर ऊर्जा नहीं है तो अंधेरा सृष्टि के रूप में व्यक्त नहीं हो पाएगा। जीवात्मा के रूप में जो अंधेरा होता है, उसी को सृष्टि के रूप में प्रकट करने के लिए ही उसे शरीर मिलता है, जिससे ऊर्जा मिलती है। यह अलग बात है कि वह योगसाधना से उस सृष्टि को शून्य कर पाएगा या उसी अंधेरे में छुपा देगा या उससे भी ज्यादा आसक्तिमय दुनियादारी से अपने को उससे भी ज्यादा अंधेरे में बदल देगा, जिसके लिए उसे फिर से नया जन्म और नया शरीर प्राप्त करना पड़ेगा। नया शरीर कर्मों के अनुसार मिलेगा। अच्छे कर्म हुए तो मनुष्य शरीर फिर मिल जाएगा जिससे सृष्टि को शून्य करने का मौका पुनः मिल जाएगा। अगर कर्म बुरे हुए तो किसी जानवर का शरीर मिलने से अंधेरे का बोझ कुछ कम तो हो जाएगा पर शून्य नहीं हो पाएगा, क्योंकि जानवर योग नहीं कर सकते। इस तरह पता नहीं फिर कब मौका मिलेगा। यही वेदवाणी कहती है।

वैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध कर चुके हैं कि स्थूल भौतिक सृष्टि में भी ऐसा ही होता है। उन्होंने पाया कि अंतरिक्ष में हर जगह वे मूलभूत कण या तरंगें क्वांटम फ्लैकचुएशन के रूप में मौजूद हैं जिनसे सृष्टि का निर्माण होता है। क्योंकि वे बहुत सूक्ष्म और अव्यक्त जैसे हैं इसलिए पकड़ में न आने से अंधेरे के रूप में महसूस होते हैं। उदाहरण के लिए डार्क एनर्जी, डार्क मैटर यह सब अंधेरा ही तो है। जब कहीं से उन्हें ऊर्जा मिलती है तो उनका स्पंदन बढ़ने लगता है जिससे सृष्टि का या स्थूल पदार्थों का निर्माण शुरु हो जाता है। विचारों के लिए तो यह ऊर्जा शरीर से मिलती है पर स्थूल सृष्टि के लिए कहां से मिलती है। इसके बारे में अभी स्पष्टता और एकमतता नहीं दिखती। कुछ कहते हैं कि ब्लैकहोल आदि पिंडों के आपस में टकराने से जो गुरुत्वाकर्षण तरंगें आदि अंतरिक्ष में हलचलें पैदा होती हैं, उसीसे वह ऊर्जा मिलती है। जहां पर अंतरिक्ष में ज्यादा हलचल है, वहां ज्यादा तारों का निर्माण होता पाया गया है। पर सृष्टि की शुरुआत में अंतरिक्ष की सबसे पहली हलचल के लिए ऊर्जा कहां से आई, यह पता नहीं है। शास्त्र तो कहते हैं कि ओम ॐ की आवाज निकली जिससे सृष्टि का निर्माण शुरु हुआ। ओम की ध्वनि एक अंतरिक्ष की तरंग या हलचल ही है। हो सकता है कि उसी ने आगे की हलचलों और निर्माणों का सिलसिला शुरु किया हो। ॐ ध्वनि रूपी हलचल के लिए ऊर्जा कहां से आई, यह प्रश्न अनुत्तरित है। यह शायद परमात्मा की अपनी अचिंत्य शक्ति है, जिसका उत्तर योग के अतिरिक्त विज्ञान से मिल भी नहीं सकता। अगर शक्ति नहीं होगी तो शिव शव की तरह अंधेरा बना रहेगा, व्यष्टि शरीर के अंदर भी और समष्टि शरीर मतलब स्थूल भौतिक सृष्टि में भी।

कुंडलिनी योग ही हमें या एलियंस को लंबी दूरी की इंटरस्टेलर यात्रा की तकनीक दिखा रहा है

दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि अन्नमय कोष को खोलने के लिए शरीर का ध्यान बहुत जरूरी है। ध्यान से पहले ज्ञान का होना जरूरी है। इसीलिए शास्त्रों में शरीर के ब्रह्माण्ड के रूप में वर्णन की बहुतायत है। साथ में, ब्रह्माण्ड का अध्यात्मिक रूप में वर्णन ज्यादा है, शरीर का कम। क्योंकि सम्भवतः उस समय शरीर की सूक्ष्मता को जाँचने वाली कोई व्यावहारिक वैज्ञानिक तकनीक नहीं थी, इसलिए यही तरीका बचता था। शरीरविज्ञान दर्शन में आधुनिक विज्ञान और पुरातन अध्यात्म ज्ञान को मिश्रित किया गया है, जिससे इससे शरीर का उत्कृष्ट तरीके से ज्ञान हो जाता है। सम्भवतः इसीलिए पुस्तक शरीरविज्ञान दर्शन प्रशंसा की पात्र बनी है। इसे विज्ञान से अध्यात्म में प्रवेशद्वार कह सकते हैं। पिछली कुछ पोस्टों का ज्यादा झुकाव क्वांटम भौतिकी और अंतरिक्ष विज्ञान की ओर था। हालांकि वे भी कुण्डलिनी योग विज्ञान से जुड़ी हुई थीं। ऐसा इसलिए क्योंकि आजकल अधिकांश लोग भौतिक विज्ञान को ही विज्ञान मानते हैं, अध्यात्म विज्ञान को नहीं। अध्यात्म विज्ञान से ही टेलीपोर्टेशन संभव हो सकता है। हो सकता है कि अध्यात्म विज्ञान इतना उन्नत हो जाए कि इस धरती का आदमी सूक्ष्मशरीर बन कर पूरे ब्रह्माण्ड की सैर पर निकल जाए, और कहीं किसी ग्रह पर किसी जीव के शरीर में कुछ दिन निवास करके वापिस धरती पर आ जाए। यह भी हो सकता है कि अपने बराबर उन्नत प्राणी के साथ मिलकर आपस में सूक्ष्मशरीरों को कुछ समय के लिए एक्सचेंज करें और एकदूसरे के ग्रहों पर कुछ जीवन बिता कर अपने-अपने ग्रह वापिस लौट जाएं। सूक्ष्मशरीर के माध्यम से ही अनंत ब्रह्माण्ड को लंघा जा सकता है, स्थूल शरीर से नहीं। पुराने समय में योगी लोग ऐसी यात्राएं करते भी थे। कुल मिलाकर आत्मज्ञान होने पर आदमी हर समय हर जगह स्थित हो जाता है, जो सर्वोच्च स्तर की अंतरिक्ष यात्रा ही तो है। यही टाइम ट्रेवल और स्पेस ट्रेवल का सबसे आसान और सही तरीका लगता है मुझे, बेशक जो चाहे वह भौतिक शरीर के साथ भी प्रयास कर सकता है। हो सकता है कि एलियन्स को उनसे ही धरती का पता चला है, जिसके बाद वे यूएफओ से भी यहाँ आने लग गए हों। क्रायोस्लीप, लाइट सेल, वर्महोल और वार्प ड्राइव संभावित समाधान प्रदान करते हैं। दुर्भाग्य से, ये केवल दिवास्वप्न हो सकते हैं, जिसका अर्थ होगा कि लंबी दूरी की इंटरस्टेलर यात्रा संभव नहीं है। यह मैं नहीं, बहुत से वैज्ञानिक कह रहे हैं। मतलब तांत्रिक कुण्डलिनी योग व कर्मसिद्धांत ही धरती से अन्य ग्रह पर पहुंचा सकते हैं। मनोरंजन और उत्साहवर्धन के लिए प्रत्यक्ष व सीधे तौर पर शरीर के टेलीपोर्टेशन की कल्पना भी की जा सकती है। ऐसी ही नाटकीय कल्पना “लॉस्ट इन स्पेस” नामक वेबसेरीस में की गई है। मैंने हाल ही में यह देखी। मुझे अच्छी और बाँधने वाली लगी। मैं किसीका प्रचार नहीं कर रहा, बल्कि दिल की बात बता रहा हूँ। सच्ची बात कह देनी चाहिए, उसमें अगर किसी का प्रचार होता हो तो होता रहे, हमें क्या।

कुछ बिमारियां आदमी का महामानव बनने का प्रयास लगती हैं

वैज्ञानिक तो यह दावा भी कर रहे हैं कि आदमी में जो आनुवंशिक बिमारियां हो रही हैं, वे एलियन के डीएनए की वजह से हो रही है। कभी एलियन यहाँ की औरतों को उठाकर ले गए थे और उन्हें गर्भवती करके वापिस भेज दिया था या वहाँ उनसे संतान पैदा की थी। फिर वो डीएनए सबमें फैल गया। यह आदमी को महामानव बनाने के लिए हुआ। मुझे अपना एंकोलाईसिंग स्पोंडीलोआर्थराईटिस वैसी ही फॉरेन बिमारी लगती है। यह बिमारी मुझे योग करने के लिए मजबूर करती है। इससे वैज्ञानिकों का दावा कुछ सिद्ध भी हो जाता है। मुझे तो लगता है कि प्रॉस्टेट और बवासीर भी ऐसी ही आनुवंशिक बीमारियां हैं। ये भी आदमी को योगी जैसा बनाती हैं। पुराने लोगों ने इसे ऐसे समझा होगा कि कष्ट झेलने से योग सफल होता है, इसीसे तप शब्द का प्रचलन बढ़ा होगा। आजकल कैंसर भी बढ़ रहा है। यह भी आनुवंशीकी से जुड़ा रोग होता है। हो सकता है कि यह प्रकृति के मानव को महामानव बनाने के प्रयास के दौरान पैदा हुआ डिफेक्ट हो। वैसे भी बहुत से महान योगियों को कैंसर विशेषकर गले का कैंसर हुआ है। क्वांटम और स्पेस के बारे में लिखने का दूसरा उद्देश्य था कि वैज्ञानिकों की कुछ मदद हो जाए, क्योंकि वे इन क्षेत्रों में कुछ पजल्ड और फ़्रस्टेटिड दिखाई देते हैं। अब पुनः अध्यात्म विज्ञान की तरफ लौटते हैं, क्योंकि जो मजा इसमें है, वह और कहीं नहीं है। भौतिकता से प्यास बढ़ती है, तो अध्यात्म से प्यास बुझती है। दोनों का अपना महत्त्व है। गीता में भी श्रीकृष्ण स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि “अध्यात्मविद्या विद्यानाम्“। मतलब विद्याओं में मैं अध्यात्मविद्या हूँ। मतलब उन्होंने अध्यात्मविद्या को सभी विद्याओं में श्रेष्ठ माना है। फिर भी जैसे-जैसे भौतिक विज्ञान की पहेलियाँ सुलझती रहेंगी, हम बीचबीच में उनका भी उल्लेख करते रहा करेंगे।

कुण्डलिनी योग से मनोमय कोष रूपी पतंग प्राणमय कोष और अन्नमय कोष रूपी माँझे और चकरी से जुड़कर विज्ञानमय कोष रूपी उड़ान भरकर आनंदमय कोष रूपी मजा देती है

होता क्या है कि जब योग करते समय अन्नमय शरीर और प्राणमय शरीर के क्रियाशील होते ही मनोमय शरीर क्रियाशील होता रहता है, तब यह विश्वास पक्का होता रहता है कि मनोमय शरीर बेशक बाहरी और अनंत अंतरिक्ष में फैला महसूस होए, पर वह हमारे शरीर से जुड़ा हमारा ही स्वरूप है। हालांकि दुनियादारी के सभी कामों, खेलों, व व्यायामों के दौरान भी अन्नमय कोष, प्राणमय कोष और मनोमय कोष एकसाथ सक्रिय हो जाते है, पर वे इतनी तेजी से सक्रिय होते हैं कि उनकी आपस में एकत्व भावना करने का मौका ही नहीं मिलता। साथ में आदमी का ध्यान काम की पेचीदगी, उससे जुड़ी तकनीक, उससे जुड़े फल पर और अन्य लौकिक दुनियादारी पर भी रहता है, जिससे भी एकत्व की भावना की तरफ ध्यान नहीं जाता। वैसे भी एकत्व की भावना द्वैत से भरी दुनियादारी की विरोधी है। दो विरोधी चीजें साथ नहीं रह सकतीं। जल और अग्नि साथ नहीं रह सकते। मनोमय शरीर के प्रति इसी आत्मभावना से विज्ञानमय शरीर भी क्रियाशील हो जाता है। दुनियादारी का हर किस्म का ज्ञान साधारण ज्ञान की श्रेणी में आता है। किसी को डॉक्टरी का ज्ञान है, किसी को दर्जी का, किसी को नाई का, किसी को अध्यापन का, किसी को उपदेश देने का, किसी को यज्ञ या कर्मकांड करने या अन्य धार्मिक परम्परा निभाने का है। सब साधारण ज्ञान में आते हैं क्योंकि सभी रोजीरोटी के लिए और लौकिक व्यवहार के लिए हैं। विशेष ज्ञान या विज्ञान इन सबसे हटकर व अकेला है, जो न तो जीविकोपार्जन के लिए है, और न ही लौकिक व्यवहार की सिद्धि के लिए है, बल्कि केवल आत्मा की पूर्ण व प्रत्यक्ष अनुभूति के लिए है। विज्ञानमय शरीर का मतलब ही विशेष ज्ञान वाला शरीर है। इसमें स्थित होने पर साधक को ऐसा महसूस होता है कि वह स्थूल शरीर, प्राण, और मन का मिलाजुला रूप माने संघातमात्र है। जैसा मैंने पिछली पोस्ट में भी पतंग के उदाहरण से स्पष्ट किया था। अगर भटकते मन को अपना आत्मरूप न भी समझ सको तो यह तो समझ ही सकते हैं कि वह शरीर से साँस के माध्यम से ऐसे ही जुड़ा है जैसे एक पतंग मांझे के माध्यम से गट्टू या चकरी से जुड़ी होती है। पतंग उड़ाने का बहुत मजा आएगा। कभी बादलों के ऊपर, कभी दूर देश, कभी दूर ग्रह या तारे पर, कभी दूसरे ब्रह्माण्ड में, कभी परलोक में, तो कभी बिल्कुल पास में या चकरी में लिपटी हुई, कभी आँखों से ओझल होगी और सिर्फ चकरी और धागा ही नजर आएगा, फिर एकदम कहीं प्रकट हो जाएगी, कभी तूफ़ान में जैसी फँसी हुई बेढंगी उड़ेगी और बेढंगी दिखेगी, इस तरह अनंत आकाश में वह हर जगह उड़ेगी, पर हमेशा जुड़ी रहेगी शरीर के चक्रोँ के साथ। शायद चकरी से ही चक्र नाम पड़ा हो। हाहा। अब मनोवैज्ञानिक भी कह रहे हैं कि सूक्ष्मशरीर स्थूलशरीर के साथ एक चांदी के धागे से जुड़ा होता है। यह धागा नाभि से जुड़ा होता है। जैसे मांझा चकरी से बँधा होता है, वैसे ही योगा सांस नाभि से ही चलती है। सीधी सी बात है, अनुभव रूपी पतंग हमेशा अपने से अर्थात आत्मा से अर्थात अपने शरीर से जुड़ी हुई है। सम्भवतः इसीलिए नाभि चक्र को आदमी के शरीर का केंद्र बिंदु कहते हैं। नाभि पर एक अंदर की तरफ भिंचाव सा महसूस भी होता है, जब सूक्ष्म शरीर के साथ स्थूल शरीर का ध्यान भी किया जाता है। सम्भवतः नाभि चक्र से ही पतंग की चकरी का नाम पड़ा हो। उससे भौतिक दुनिया का प्रकाश आत्मा को मिलेगा ही, क्योंकि आत्मभावना जुड़ी है सबके साथ। फिर पूर्वोक्तानुसार आनंद भी पैदा होगा ही और कुण्डलिनी भी अभिव्यक्त होगी ही, क्योंकि कुण्डलिनी चित्र ही ऐसी भौतिक वस्तु है, जो ध्यान के माध्यम से आत्मा से सबसे ज्यादा जुड़ी होती है। मतलब कुण्डलिनी आत्मा से भौतिक दुनिया के जुड़ाव की प्रतिनिधि है। विशेष ज्ञान या विज्ञान के विपरीत साधारण ज्ञान दुनियादारी के मामले में होता है। ज्ञान जल्दी ही अज्ञान में परिवर्तित हो जाता है अगर उसे विज्ञान का साथ प्राप्त न हो। यह साइंस वाला विज्ञान नहीं है। प्राणमय शरीर का मतलब साँस पर ही ध्यान नहीं है, पर साँस से उत्पन्न शरीर की गति और शरीर के अन्य हिलने-डुलने पर ध्यान भी है। इस मामले में पैदल चलना एक सर्वोत्तम अध्यात्मवैज्ञानिक व्यायाम लगता है। इसमें पूरे शरीर पर, उसकी गति पर, उसकी संवेदनाओं पर और सांसों पर अच्छे से ध्यान जाता है। साथ में मन में भी सात्विकता के साथ विचारों की क्रियाशीलता भी काफी अच्छी होती है।

कुंडलिनी ही दृश्यात्मक सृष्टि, सहस्रार में एनर्जी कँटीन्यूवम ही ईश्वर, और मूलाधार में सुषुप्त कुंडलिनी ही डार्क एनर्जी के रूप में हैं

विश्व की उत्पत्ति प्राण-मनस अर्थात टाइम-स्पेस के मिश्रण से होती है

फिर हठ प्रदीपिका के पूर्वोक्त व्याख्याकार कहते हैं कि सृष्टि की उत्पत्ति मनस शक्ति और प्राण शक्ति के मिश्रण से हुई। यह मुझे कुछ दार्शनिक जुगाली भी लगती है। भौतिक रूप में भी शायद यही हो, पर आध्यात्मिक रूप में तो ऐसा ही होता है। जब मस्तिष्क में प्राण शक्ति पहुंचती है, तब उसमें मनस शक्ति खुद ही मिश्रित हो जाती है, जिससे हमें जगत का अनुभव होता है। “यतपिण्डे तत्ब्रह्मांडे” के अनुसार बाहर भी तो यही हो रहा है। शून्य अंतरिक्ष के अंधेरे में सोई हुई शक्ति में किसी अज्ञात कारण से हलचल होती है। उसमें खुद ही मनस शक्ति मिश्रित हो जाती है, क्योंकि चेतनामयी ईश्वरीय मनस शक्ति हर जगह विद्यमान है। इससे मूलभूत कणों का निर्माण होता है। सम्भवतः ये मूल कण ही प्रजापति हैं, जो आगे से आगे बढ़ते हुए पूरी सृष्टि का निर्माण कर देते हैं। यह ऐसे ही है, जैसे मूलाधार के अंधेरे में सोई प्राण ऊर्जा के जागने से होता है। तभी कहते हैं कि यह सृष्टि मैथुनी है। फिर मनस शक्ति को देश या स्पेस और प्राण शक्ति को काल या टाइम बताते हैं। फिर कहते हैं कि टाइम और स्पेस के आपस में मिलने से मूल कणों की उत्पत्ति हो रही है, जैसा वैज्ञानिक भी कुछ हद तक मानते हैं।

डार्क एनर्जी ही सुषुप्त ऊर्जा है

दोस्तो, खाली स्पेस भी खाली नहीं होता, पर रहस्यमयी डार्क एनर्जी से भरा होता है। पर इसे किसी भी यन्त्र से नहीं पकड़ा जा सकता। यही सबसे बड़ी एनर्जी है। हम केवल इसे अपने अंदर महसूस ही कर सकते हैं। ब्रह्मांड इसमें बुलबुलों की तरह बनते और मिटते रहते हैं। सम्भवतः यही तो ईश्वर है। यह शून्य हमें इसलिए लगता है, क्योंकि हमें अनुभव नहीं होता। इसी तरह मूलाधार में सोई हुई ऊर्जा भी डार्क एनर्जी ही है। हम इसे अपनी शून्य आत्मा के रूप में महसूस करते हैं। हम हर समय अनन्त ऊर्जा से भरे हुए हैं, पर भ्रम से उसका प्रकाश महसूस नहीं कर पाते। उसे मूलाधार में इसलिए मानते हैं, क्योंकि मूलाधार मस्तिष्क से सबसे ज्यादा दूर है। मस्तिष्क के सहस्रार क्षेत्र में अगर चेतनता का महान प्रकाश रहता है, तो मूलाधार में अचेतनता का घुप्प अंधेरा ही माना जाएगा। मस्तिष्क से नीचे जाते समय चेतना का स्तर गिरता जाता है, जो मूलाधार पर न्यूनतम हो जाता है। यदि ऐसे समय कुंडलिनी का ध्यान करने की कोशिश की जाए, जब मस्तिष्क थका हो या तमोगुण रूपी अंधेरे से भरा हो, तो कुंडलिनी चित्र नीचे के चक्रों में बनता है। मुझे जो दस सेकंड का क्षणिक आत्मज्ञान का अनुभव हुआ था, उसमें रहस्यात्मक कुछ भी नहीं है। यह शुद्ध वैज्ञानिक ही है। संस्कृत की भाषा शैली ही ऐसी है कि उसमें सबकुछ आध्यात्मिक ही लगता है। उसे विज्ञान की भाषा मेंआप “एक्सपेरिएंस ऑफ डार्क एनेर्जी” या “अदृश्य ऊर्जा दर्शन” कह सकते हैं। इसी तरह सुषुम्ना में ऊपर चढ़ने वाली ऊर्जा भी डार्क एनेर्जी की तरह ही होती है। इसीलिए उसे केवल बहुत कम लोग ही और बहुत कम मौकों पर ही अनुभव कर पाते हैं, सब नहीं। हालाँकि यह पूरी तरह से डार्क एनेर्जी तो नहीं है, क्योंकि यह सूक्ष्म तरंगों या सूक्ष्म अणुओं की क्रियाशीलता से बनी होती है। असली डार्क एनेर्जी में तो शून्य के इलावा कुछ नहीं होता, फिर भी उसमें अनगिनत ब्रह्मांडों का प्रकाश समाया होता है। एक पुरानी पोस्ट में मैंने लिखा था कि एकबार कैसे मैंने अपनी दादी अम्मा की परलोकगत आत्मा या डार्क एनेर्जी को ड्रीम विजिटेशन में महसूस किया था। ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई चमकीले कज्जल से भरा आसमान हो, जिसका प्रकाश किसीने बलपूर्वक ढका हो, और वह प्रकाश सभी पर्दे-दीवारें तोड़कर बाहर उमड़ना चाह रहा हो, यानि कि अभिव्यक्त होना चाह रहा हो।

यिन-यांग या प्रकृति-पुरुष से सृष्टि की उत्पत्ति

डार्क एनेर्जी में ही सृष्टि के प्रारंभ में सबसे छोटा औऱ सबसे कम देर टिकने वाला कण बना होगा। इसे ही काल या टाइम या विपरीत ध्रुव की उत्पत्ति कह सकते हैं। स्पेस या डार्क एनर्जी दूसरा ध्रुव है, जो पहले से था। टाइम के रूप में निर्मित वह सूक्ष्मतम कण एक महान विस्फोट के साथ स्पेस की तरफ तेजी से आगे बढ़ने लगता है। यही सृष्टि का प्रारंभ करने वाला बिग बैंग या महा विस्फोट है। वह कण तो एक सेकंड के करोड़वें भाग में विस्फोट से नष्ट हो गया, पर उस विस्फोट से पैदा होकर आगे बढ़ने वाली लहर में विभिन्न प्रकार के कण और उनसे विभिन्न पदार्थ बनते गए। आगे चलकर उन कणों की व उनसे बनने वाले पदार्थों की जीवन अवधि में इजाफा होता गया। वैसे भी कहते हैं कि दो विपरीत ध्रुवों के बनने से ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई। इन्हें यिन-यांग कह सकते हैं। यही प्रकृति-पुरुष है। शरीर में भी ऐसा ही है। मूलाधार में डार्क एनेर्जी है, जो कुंडलिनी योग से जागृत हुई। जागृत होने का मतलब है कि कुंडलिनी योग के सिद्धासन में वह मूलाधार चक्र पर पैर की एड़ी के दबाव से बनी संवेदना के रूप में अनुभव की गई। इस संवेदना में ध्यान चित्र मिश्रित होने से यह कुंडलिनी बन गई। इस संवेदना की उत्पत्ति को हम समष्टि के सबसे छोटे मूल कण की उत्पत्ति का शारीरिक रूप भी कह सकते हैं। वह कुंडलिनी एनेर्जी जागृत होने के लिए सहस्रार की तरफ जाने का प्रयास करते हुए मस्तिष्क में रंगबिरंगी सृष्टि की रचना बढ़ाने लगी। मतलब कि दो विपरीत ध्रुव आपस में मिलने का प्रयास करने लगे। शक्ति शिव से जुड़ने के लिए बेताब होने लगी। समष्टि में वह मूल कण बिग बैंग के रूप में आगे बढ़ने लगा और उस डार्क एनेर्जी के छोर को छूने का प्रयास करने लगा, जहाँ से वह आया था। वह मूलकण नौटंकी करते हुए यह समझने लगा कि वह अधूरा है, और उसने डार्क एनेर्जी को प्राप्त करने के लिए आगे ही आगे बढ़ते जाना है। ऐसा करते हुए उससे सृष्टि की रचना खुद ही आगे बढ़ने लगी। यह ऐसे ही होता है जैसे आदमी का मन या कुंडलिनी उस अदृश्य अंतरिक्षीय ऊर्जा को प्राप्त करने की दौड़ में भरे-पूरे जगत का निर्माण कर लेता है। कुंडलिनी भी तो समग्र मन का सम्पूर्ण प्रतिनिधि ही है। मन कहो या कुंडलिनी कहो, बात एक ही है। बिग बैंग की तरंगों के साथ जो सृष्टि की लहर आगे बढ़ रही है, उसे हम सुषुम्ना नाड़ी में एनर्जी का प्रवाह भी कह सकते हैं। पर उस डार्क एनेर्जी का अंत तो उसे मिलेगा नहीं। इसका मतलब है कि यह सृष्टि अनन्त काल तक फैलती ही रहेगी। पर इसे अब हम शरीर से समझते हैं, क्योंकि लगता है कि विज्ञान इसका जवाब नहीं ढूंढ पाएगा। जब आदमी इस दुनिया में अपनी सभी जिम्मेदारियों को निभाकर अपनी कुंडलिनी को जागृत कर लेता है, तब वह दुनिया से थोड़ा उपरत सा हो जाता है। कुछ समय शांत रहकर वह दुनिया से बिल्कुल लगाव नहीं रखता। वह जैसा है, उसी में खुश रहकर अपनी दुनियादारी को आगे नहीं बढ़ाता। फिर बुढ़ापे आदि से उसका शरीर भी मृत्यु को प्राप्त होकर नष्ट हो जाता है। इसी तरह जब इस सृष्टि का लक्ष्य पूरा हो जाएगा, तब उसके आगे फैलने की रप्तार मन्द पड़ जाएगी। फिर रुक जाएगी। अंत में सृष्टि की सभी चीजें एकसाथ अपनी-अपनी जगह पर विघटित हो जाएंगी। इसका मतलब है कि बिग बैंग रिवर्स होकर पुनः बिंदु में नहीं समाएगा। सृष्टि का लक्ष्य समय के रूप में निर्धारित होता होगा। निश्चित समय के बाद वह नष्ट हो जाती होगी, जिसे महाप्रलय कहते हैं। क्योंकि सृष्टि के पदार्थों ने आदमी की तरह असली जागृति तो प्राप्त नहीं करनी है, क्योंकि वे तो पहले से ही जागृत हैं। वे तो केवल सुषुप्ति का नाटक सा ही करते हैं। यह भी हो सकता है कि सृष्टि की आयु का निर्धारण समय से न होकर ग्रह-नक्षत्रों की संख्या और गुणवत्ता से होता हो। जब निश्चित संख्या में ग्रह आदि निर्मित हो जाएंगे, और उनमें अधिकांश मनुष्य आदि जीव अपनी इच्छाएं पूरी कर लेंगे, तभी सृष्टि की आयु पूरी होगी। ऐसा भी हो सकता है कि सृष्टि विघटित होने के लिए वापिस आए, बिग बैंग के शुरुआती बिंदु पर। क्योंकि आदमी का शरीर भी मरने से पहले बहुत कमजोर और दुबला-पतला हो लेता है। विज्ञान के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से भी ऐसा ही लगता है। जब बिग बैंग के धमाके की ऊर्जा खत्म हो जाएगी, तो गुरुत्वाकर्षण का बल हावी हो जाएगा, जिससे सृष्टि सिकुड़ने लगेगी औऱ सबसे छोटे मूल बिंदु में समाकर फिर से डार्क एनेर्जी में विलीन हो जाएगी। यह संभावना कुंडलिनी योग की दृष्टि से भी सबसे अधिक लगती है। मानसिक सृष्टि का प्रतिनिधित्व करने वाली कुंडलिनी ऊर्जा भी सहस्रार से वापिस मुड़ती है, और फ्रंट चैनल से नीचे उतरती हुई फिर से मूलाधार में पहुंच जाती है। वहाँ से फिर बैक चैनल से ऊपर चढ़ती है। इस तरह से हमारे शरीर में सृष्टि और प्रलय का क्रम लगातार चलता रहता है।

सांख्य दर्शन और वेदांत दर्शन में सृष्टि-प्रलय

सांख्य दर्शन में पुरुष और प्रकृति, दोनों को शाश्वत कहा गया है। पर वेदांत दर्शन में प्रकृति की उत्पत्ति पुरुष से बताई गई है, जैसा मैं भी कह रहा हूँ। यहां पुरुष मूल रूप में प्रकाशमान डार्क एनेर्जी है, और प्रकृति प्रकाश से रहित डार्क एनेर्जी है। मुझे लगता है कि सांख्य में शरीर के अंदर की सृष्टि और प्रलय का वर्णन हो रहा है। हमें अपने मन में ही डार्क एनेर्जी का अंधेरा हमेशा महसूस होता है, यहाँ तक कि कुंडलिनी जागरण के बाद भी। इसीलिए इसे भी शाश्वत कहा गया है। दूसरी ओर वेदांत में बाहर के संसार की सृष्टि और प्रलय की बात हो रही है। वहां तो प्रकृति या डार्क एनेर्जी और उससे पैदा होने वाले कणों का अस्तित्व ही नहीं है। ये तो केवल हमें अपने मन में महसूस होते हैं। वहाँ अगर इनकी उत्पत्ति होती है, तो सिर्फ नाटकीय या आभासिक ही। वहाँ तो सिर्फ प्रकाश से भरा हुआ एनेर्जी कँटीन्यूवम ही है। वैसे तो वेदांत भी मानसिक सृष्टि का ही वर्णन करता है, क्योंकि वे भी किसी भौतिक प्रयोगशाला का उपयोग नहीं करते, जो बाहर के जगत की उत्पत्ति को सिद्ध कर सके। पर वह उन महान योगियों के अनुभव को प्रमाण मानता है, जो हमेशा एनेर्जी कँटीन्यूवम से जुड़े रहते हैं।