कुंडलिनी जागरण दीपावली और राम की योगसाधना रामायण महाकाव्य के मिथकीय रूपक में निरूपित

शुभ दीपावली!

कुंडलिनी देवी सीता और जीवात्मा भगवान राम है

सीता कुंडलिनी ही है जो बाहर से आंखों की रौशनी के माध्यम से वस्तु के चित्र के रूप में प्रविष्ट होती है। वास्तव में शरीर की कुंडलिनी शक्ति नेत्रद्वार से बाहर गई होती है। शास्त्रों में कहा भी है कि आदमी का पूरा व्यक्तित्व उसके मस्तिष्क में रहता है, जो बाह्य इन्द्रियों के रास्ते से बाहर निकलकर बाहरी दुनिया में भटकता रहता है। बाहर हर जगह भौतिक दोषों अर्थात रावण का साम्राज्य है। वह शक्ति उसके कब्जे में आ जाती है, और उसके चंगुल से नहीं छूट पाती। मस्तिष्क में बसा हुआ जीवात्मा अर्थात राम उस बाहरी दुनिया में भटकती हुई सीता शक्ति को लाचारी से देखता है। यही जटायु के भाई सम्पाति के द्वारा उसे अपनी तेज नजर से समुद्र पार देखना और उसका हालचाल राम को बताना है। फिर राम योगसाधना में लग जाता है, और किसी मंदिर वगैरह में बनी देवता की मूर्ति को या वहाँ पर रहने वाले गुरु की खूब संगति करता है, औऱ तन-मन-धन से उनको प्रसन्न करता है। इससे धीरे-धीरे उसके मन में अपने गुरु के चित्र की छाप गहरी होती जाती है, और एक समय ऐसा आता है जब वह मानसिक चित्र स्थायी हो जाता है। यही लँका के राजा रावण से सीता को छुड़ाकर लाना, और उसे समुद्र पर बने पुल को पार कराते हुए अयोध्या पहुंचाना है। प्रकाश की किरण ही वह पुल है, क्योंकि उसीके माध्यम से बाहर का भौतिक चित्र मन के अंदर प्रविष्ट हुआ। मन ही अयोध्या है, जिसके अंदर राम रूपी जीवात्मा रहता है। मन से कोई भी युद्ध नहीं कर सकता, क्योंकि वह भौतिकता के परे है। हर कोई किसीके शरीर से तो युद्ध कर सकता है, पर मन से नहीं। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि मन को समझा-बुझा कर ही सीधे रास्ते पर लगाना चाहिए, जोरजबरदस्ती या डाँट-डपट से नहीं। टेलीपैथी आदि से भी दूसरे के मन का बहुत कम पता चलता है। वह भी एक अंदाज़ा ही होता है। किसी दूसरे के मन के बारे में पूरी तरह से कभी नहीं जाना सकता। पहले तो राम रूपी जीवात्मा लंबे समय तक बाहर की दुनिया में अर्थात रावण की लँका में भटकते हुए अपने हिस्से को अर्थात सीता माता को दूर से ही देखता रहा। मतलब उसने उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। अगर वह बाहर गया भी, तो अधूरे मन से गया। अर्थात उसने शक्ति को वापिस लाने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए। फिर जब राम उसके वियोग से बहुत परेशान हो गया, तब वह दुनियदारी में जीजान से कूद गया। यही राक्षसों के साथ उसके युद्ध के रूप में दिखाया गया है। दरअसल असली और जीवंत जीवन तो युद्धस्तर के जैसा संघर्षमयी और बाह्यमुखी जीवन ही होता है। मतलब कि वह मन रूपी अयोध्या से बाहर निकलकर आँखों की रौशनी के पुल से होता हुआ लँका में प्रविष्ट हो गया। दुनिया में वह पूरे जीजान से व पूरे ध्यान के साथ मेहनत करने लगा। यही तो कर्मयोग है, जो सभी आध्यात्मिक साधनाओं के मूल व प्रारंभ में स्थित है। मतलब कि वह लँका में सीता को ढूंढने लगा। फिर किसी सत्संगति से उसमें दैवीय गुण बढ़ने लगे। मतलब कि अष्टाङ्ग योग के यम-नियमों का अभ्यास उससे खुद ही होने लगा। यह सत्संग राम और राक्षस संत विभीषण की मित्रता के रूप में है। इससे जीवात्मा को कोई वस्तु  बहुत पसंद आई, और वह लगातार उसी एक वस्तु के संपर्क में बना रहने लगा। मतलब कि राम की नजर अपनी परमप्रिय सीता पर पड़ी, और वह उसीके प्रेम में मग्न रहने लगा। मतलब कि इस रूपक कथा में साथ में तंत्र का यह सिद्धांत भी प्रतिपादित किया गया है कि एक स्त्री अर्थात पत्नी ही योग में सबसे ज्यादा सहायक होती है। पुराणों का मुख्य उद्देश्य तो आध्यात्मिक और पारलौकिक है। लौकिक उद्देश्य तो गौण या निम्न है। पर अधिकांश लोग उल्टा समझ लेते है। उदाहरण के लिए, वे इस आध्यात्मिक मिथक से यही लौकिक आचार वाली शिक्षा लेते हैं कि रावण की तरह पराई स्त्री पर बुरी नजर नहीं डालनी चाहिए। हालांकि यह शिक्षा भी ठीक है, पर वे इसमें छिपे हुए कुंडलिनी योग के मुख्य और मूल उद्देश्य को या तो समझ ही नहीं पाते या फिर नजरअंदाज करते हैं। फिर जीवात्मा के शरीर की पोज़िशन और सांस लेने की प्रक्रिया स्वयं ही इस तरह से एडजस्ट होने लगी, जिससे उसका ज्यादा से ज्यादा ध्यान उसकी प्रिय वस्तु पर बना रहे।  इससे योगी राम का विकास अष्टाङ्ग योग के आसन और प्राणायाम अंग तक हो गया। इसका मतलब है कि राम सीता को दूर से व छिप-छिप कर देखने के लिए कभी बहुत समय तक खड़ा रहता, कभी डेढ़ा-मेढ़ा बैठता, कभी उसे लंबे समय तक सांस रोककर रखनी पड़ती थी, कभी बहुत धीरे से साँसें लेनी पड़ती थी। ऐसा इसलिए था ताकि कहीं दुनिया में उलझे लोगों अर्थात लँका के राक्षसों को उसका पता न चलता, और वे उसके ध्यान को भंग न करते। वास्तव में जो भौतिक वस्तु या स्त्री होती है, उसे पता ही नहीं चलता कि कोई व्यक्ति उसका ध्यान कर रहा है। यह बड़ी चालाकी से होता है। यदि उसे पता चल जाए, तो वह शर्मा कर संकोच करेगी और अपने विविध रूप-रंग व भावनाएं ढंग से प्रदर्शित नहीं कर पाएगी। इससे ध्यान परिपक्व नहीं हो पाएगा। अहंकार पैदा होने से भी ध्यान में क्षीणता आएगी। ऐसा ही गुरु के मामले में भी होता है। इसी तरह मन्दिर में जड़वत खड़ी पत्थर की मूर्ति को भी क्या पता कि कोई उसका ध्यान कर रहा है। क्योंकि सीता के चित्र ने ही राम के मन की अधिकांश जगह घेर ली थी, इसलिए उसके मन में फालतू इच्छाओं और गैरजरूरी वस्तुओं को संग्रह करने की इच्छा ही नहीं रही। इससे अष्टाङ्ग योग का पांचवां अंग, अपरिग्रह खुद ही चरितार्थ हो गया। अपरिग्रह का अर्थ है, वस्तुओं का संग्रह या उनकी इच्छा न करना। फिर इस तरह से योग के इन प्रारंभिक पांच अँगों के लंबे अभ्यास से जीवात्मा के मन में उस वस्तु या स्त्री का चित्र स्थिर हो जाता है। यही योग के धारणा और ध्यान नामक एडवांस्ड व उत्तम अंग हैं। इसका मतलब है कि राम ने लँका के रावण से सीता को छुड़ा लिया, और उसे वायुमण्डल रूपी समुद्र पर बने उसी प्रकाश की किरण रूपी पुल के माध्यम से आँख रूपी समुद्रतट पर पहुंचाया और फिर अंदर मनरूपी अयोध्या की ओर ले गया या जैसा कि रामायण में लिखा गया है कि लँका से उनकी वापसी पुष्पक विमान से हुई। यही समाधि या कुंडलिनी जागरण का प्रारंभ है। इससे उसकी इन्द्रियों के दस दोष नष्ट हो गए। इसे ही दशहरा त्यौहार के दिन दशानन रावण को जलाए जाने के रूप में मनाया जाता है। फिर जीवात्मा ने कुंडलिनी की जागृति के लिए उसे अंतिम व मुक्तिगामी छलांग या एस्केप विलोसिटी प्रदान करने के लिए बीस दिनों तक तांत्रिक योगाभ्यास किया। उस दौरान वह घर पहुंचने के लिए सुरम्य और मनोहर यात्राएं करता रहा। वैसे भी अपने स्थायी घर के ध्यान और स्मरण से कुंडलिनी को और अधिक बल मिलता है, क्योंकि कुंडलिनी स्थायी घर से भी जुड़ी होती है, जैसा मैंने एक पिछले लेख में बताया है। मनोरम यात्राओं से भी कुंडलिनी को अतिरिक्त बल मिलता है, इसीलिए तो तीर्थयात्राएं बनी हैं। उस चौतरफा प्रयास से उसकी कुंडलिनी बीस दिनों के थोड़े समय में ही जागृत हो गई। यही राम का अयोध्या अर्थात कुंडलिनी के मूलस्थान पहुंचना है। यही कुंडलिनी जागरण है। कुंडलिनी जागरण से जो मन के अंदर चारों ओर सात्त्विकता का प्रकाश छा जाता है, उसे ही प्रकाशपर्व दीपावली के रूप में दर्शाया गया है। क्योंकि कुंडलिनी जागरण का प्रभाव समाज में, विशेषकर गृहस्थान में चारों तरफ फैलकर आनन्द का प्रकाश फैलाता है, इसलिए यही अयोध्या के लोगों के द्वारा दीपावली के प्रकाशमय त्यौहार को मनाना है।

कुंडलिनी योग ही बौद्ध धर्म का गुप्त कालचक्र है

किसी समय दैत्य महाबलवान हो गए थे। वे लोकों को पीड़ित करने और धर्म का लोप करने लगे। परेशान होकर देवताओं ने देवरक्षक विष्णु से अपना दुख कहा। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए विष्णु कैलाशपर्वत के समीप जाकर स्वयं कुंड का निर्माण कर उसमें अग्निस्थापन कर उसी के समक्ष तप करने लगे। वे पार्थिव विधि से अनेक प्रकार के मंत्रों एवं स्तोत्रों द्वारा मानसरोवर में उत्पन्न हुए कमलों से प्रसन्नता के साथ शिवजी का पूजन करते रहे। वे हरि स्वयं आसन लगाकर स्थित रहे और विचलित नहीं हुए। बहुत समय तक भी शिव प्रकट नहीं हुए। इस पर विष्णु ने हैरान होकर शिव के सहस्रनाम का जाप शुरु कर दिया। वे एक एक नाममंत्र का उच्चारण कर उन्हें एक एक कमल अर्पित करते हुए शंभु की पूजा करने लगे। उस समय शिव ने विष्णु की भक्तिपरीक्षा के लिए उन सहस्र कमलों में से एक कमल का अपहरण कर लिया। विष्णु शिव की माया को न समझकर एक कमल को ढूंढने में लग गए। विष्णु ने उस कमल के लिए पूरी पृथ्वी का भ्रमण किया। उसके प्राप्त न होने पर उन्होंने उसकी जगह अपना एक नेत्र ही अर्पित कर दिया, बेशक शिव ने उन्हें अपना नेत्र निकालने से रोक दिया। तभी शिव प्रसन्न होकर प्रकट हुए और विष्णु को वर देने के लिए तैयार हो गए। पूछने पर विष्णु ने बताया कि उनका आयुध दैत्यों को मारने में सक्षम नहीं हो रहा है। विष्णु का यह वचन सुनकर शिव ने उन्हें अपना महातेजस्वी सुदर्शन चक्र प्रदान किया। उसे प्राप्त कर विष्णु ने बिना परिश्रम के शीघ्र ही उन महाबली राक्षसों को विनष्ट कर दिया। इस प्रकार संसार में शांति हुई। देवता सुखी हुए और सुंदर सुदर्शन चक्र प्राप्त कर अति प्रसन्न विष्णु भी परम सुखी हो गए।

कथा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण

विष्णु या विष्णु अवतार शरीर को संचालित करने वाला जीवात्मा है, और परब्रह्म विष्णु वह अनिर्वचनीय परमात्मा है जिससे वह अवतरित होता है। वही शरीर के रूप में तीनों लोकों का पोषण करता है और विभिन्न देवताओं से भी करवाता है। इसी तरह शिव अवतार रुद्र मृत्यु के निकट शरीर को नष्ट करने वाली उसी जीवात्मा की अवस्था है। ब्रह्मा भी उसी जीवात्मा की मनरूपी सृष्टि का निमार्ण करने बाली अवस्था है। ब्रह्मा का कोई परब्रह्म रूप नहीं, क्योंकि वह विष्णु रूपी जीवात्मा से उत्पन्न मन ही है। इसीलिए कहा जाता है कि ब्रह्मा का जन्म विष्णु की नाभि से होता है। देवताओं से संचालित शरीर तो बहुत कोशिश करता है अज्ञानरूपी दुर्दांत राक्षसों के चंगुल से निकलने के लिए, पर सफल नहीं हो पाता। अंतिम सहारा जीवात्मारूपी विष्णु ही होता है। वह इसके लिए तांत्रिक विधि से शिवसाधना करता है। कैलाश सहस्रार चक्र है जहां परब्रह्म शिव का निवास है। उसके समीप मूलाधार चक्र है जो कुंड की तरह है। दोनों चक्रों को एकदूसरे के करीब इसलिए कहा है क्योंकि दोनों सीधे नाड़ी के माध्यम से आपस में जुड़े हुए होते हैं बेशक भौतिक दूरी अन्य चक्रों के बजाए मूलाधार की अधिक है। कुंड शब्द शिवपुराण में गड्ढे या कुंड के लिए बहुत प्रयुक्त किया गया है। इसका मतलब है कि कुंडलिनी शब्द इसी कुंड से बना है। कुंड में सर्प कुंडली लगाकर बैठता है। कुंडल या कुण्डली वाला सर्प कुंडलिन हुआ और सर्पिणी कुंडलिनी हुई। वैसे ही जैसे धनिन का मतलब है धन वाला और धनिनी का मतलब है धन वाली। कुंडल कान में पहने जाने वाले छल्ले को कहते हैं। इसलिए कुंडलिन का अर्थ हुआ कान की बाली या छल्ले जैसी आकृति वाला। और कुंडलिनी का अर्थ हुआ कान की बाली या छल्ले जैसी आकृति वाली। कुंडल और कान के गड्ढे या कुंड के बीच संबंध है। इसी तरह कुंडलिनी और मूलाधार रूपी गड्ढे या कुंड के बीच भी संबंध है। कुंड में अग्नि स्थापन मतलब मूलाधार चक्र को प्राणवायु से क्रियाशील करना। उस कुंड में शिवसाधना मतलब मूलाधार चक्र पर इष्ट ध्यान। पार्थिव विधि से शिवपूजन किया मतलब मिट्टी का शिवलिंग बनाया। मनुष्य के शरीर को भी पार्थिव देह कहा जाता है। तो उसके अंग पार्थिव अंग हुए। मानसरोवर के फूल मतलब मन के या ध्यान के फूल। उन्होंने एक हज़ार फूल चढ़ाए मतलब हज़ार बार चक्रों की ऊर्जा को मूलाधार पर स्थापित किया और उसके साथ इष्ट ध्यान किया। मतलब ऊर्जा के एक हजार बार चक्कर लगाए। फूल यहां चक्र को कहा है। हजारवां फूल शिव ने चुरा लिया मतलब सहस्रार चक्र तक ऊर्जा नहीं जा पा रही थी। इससे विष्णु ने अपना नेत्र मतलब तीसरा नेत्र मतलब आज्ञा चक्र खोला और उसके ध्यान से अर्थात उस पर शांभवी मुद्रा में ध्यान देने से ऊर्जा सेंट्रल हुई। वह ऊर्जा पहले मूलाधार में पहुंची, वहां उससे प्रगाढ़ शिवध्यान लगा और फिर शिवध्यानचित्र के साथ सहस्रार में चली गई जहां उन्हें शिव के साक्षात दर्शन प्राप्त हुए मतलब उन्हें जागृति प्राप्त हो गई।

उपरोक्त कथा को दूसरे तरीके से भी समझ सकते हैं। एक पंखुड़ी को एक फूल कह सकते हैं क्योंकि कर्मकांड की पूजा के दौरान फूल की कुछ पंखुड़ियां चढ़ाना ही पूरा फूल चढ़ाना समझा जाता है। इससे फूलों की भी बचत होती है और एक ही फूल से बहुत से देवताओं का पूजन भी हो जाता है। सहस्रारचक्ररूपी कमलपुष्प में एक हजार पंखुड़ियां होती हैं। शिव के नाम से एक पुष्प चढ़ाने से मतलब शिव के ध्यान की किसी निश्चित मात्रा से सहस्रार की एक पंखुड़ी खिल रही थी। दरअसल जागृति पाने के लिए सभी चक्रों की पूरी ऊर्जा सहस्रार को अर्पित करनी होती है। जब सहस्रार एक पुष्प है और वह ध्यान से खिलता है तो स्वाभाविक है कि ध्यान भी एक पुष्प ही है। जैसे जल से भरे किसी बर्तन में जल डालने से उसका जल बढ़ता है, वैसे ही सहस्रार रूपी पुष्प में पुष्प जोड़ने से वह पुष्प बढ़ेगा ही। सहस्रार पूरा खिलने वाला था मतलब जागृति होने वाली थी पर उसकी अंतिम पंखुड़ी नहीं खिल पा रही थी। आज्ञाचक्ररूपी ध्यानपुष्प से वह भी खिल गई। कर्मकांड पूजा में ध्यान करते समय पुष्प को नमस्कार मुद्रा में बंद हाथों के अंदर रखा जाता है। ध्यान को देवता को समर्पित करने के रूप में उस अंजलिस्थित पुष्प को देवता के चरणों में अर्पित किया जाता है। सहस्रार को जब सभी चक्रों की समस्त ऊर्जा एकसाथ मिलती है, तभी यह जागृति के स्तर तक पहुंचता है। ऊर्जा को सीधे सहस्रार तक पहुंचाना कठिन है, इसलिए इसे मूलाधार तक लाने का व्यावहारिक तरीका सामने लाया गया है, जहां से यह आसानी से सीधे सहस्रार तक पहुंच जाती है।

यह लेख पिछले और अगले लेख से जुड़ा है। उसमें कालचक्र के ऊपर भी अच्छी अनुसंधानात्मक चर्चा है। बाह्य कालचक्र में अद्वैत भाव आंतरिक कालचक्र के ध्यान की सहायता से बनता है। ऐसा इसलिए क्योंकि आंतरिक कालचक्र के अंदर कहीं भी असक्तिजनित और द्वैतजनित बंधन नहीं दिखता। सभी देवता, कर्मकाण्ड आदि सब आंतरिक कालचक्र के ही अंग है। हरेक बाह्य पदार्थ में उनके अधिष्ठातृ देवताओं के रूप में मानवशरीरधारी देवताओं का ध्यान करना आंतरिक कालचक्र का ध्यान करना ही है। इससे आदमी धीरे धीरे पवित्र होकर गुप्त कालचक्र मतलब कुंडलिनी योगसाधना की और बढ़ता है। शरीरविज्ञान दर्शन देवसाधना को और ज्यादा मजबूती देता है क्योंकि यह वैज्ञानिक रूप से दर्शाता है कि देवताओं और साथ में मनुष्यों सहित सभी जीवों के शरीर के अंदर पूरा ब्रह्मांड मतलब बाह्य कालचक्र मौजूद है।

कुंडलिनी कुंड से जागकर सुदर्शन चक्र रूपी वैकल्पिक कालचक्र को क्रियाशील कर देती है, जिसमें शरीरविज्ञान दर्शन एक आधुनिक कुंडलिनी तंत्र पुस्तक बहुत मदद करती है

कुंडलिनी शब्द को कहते हैं कि यह शास्त्रों में नहीं है। पर कुंड शब्द तो शिवपुराण में बहुत है। संस्कृत भाषा में कान के कुंडल या छल्ले जैसे आकार वाला पुलिंग पदार्थ कुंडली हुआ और ऐसे आकार वाली स्त्रीलिंग वस्तु कुंडलिनी कहलाई। शायद कुंडल शब्द भी कुंड शब्द से बना है। दोनों में संबंध तो साफ दिखता है। कुंड का शाब्दिक अर्थ गोल गढ्ढा है, और कुंडल का अर्थ गोल छल्ला है। दोनों में यही अंतर है कि गड्ढे में धरातल होता है, पर छल्ले में नहीं होता, बाकि तो दोनों समान ही हैं। जैसे हर्ष से हर्षिल बना है वैसे ही कुंड से कुंडल बना हो सकता है। हर्ष मतलब हर्ष से युक्त और कुंडल मतलब कुंड से युक्त। मेरे इस अनुमान की जांच तो कोई संस्कृत व्याकरण विद्वान ही कर सकते हैं, अगर यह लेख पढ़ रहे हैं। कुंड से कुंडल न भी बना हो तो भी कुंडल के जैसे आकार में ढलकर सर्प कुंड अर्थात गढ्ढे में छिप जाता है। इसीलिए कहते हैं कि सांप ने कुंडली लगाई हुई है। जिस गड्ढे में सर्प कुंडली मारकर छिप जाता है, उसे अगर कुंड कहा जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। मूलाधार रूपी अंधेरे कुंड में मन की शक्ति सिकुड़ कर ध्यानचित्र के रूप में छिप जाती है। इसीलिए उस शक्ति को कुंडलिनी कहा जाता है। यही सभी चक्रों से होकर ऊपर चढ़ते हुए, फन उठाए नाग के जैसे आकार वाली पीठ और मास्तिष्क की नाड़ी में फैल जाती है। विष्णु ने कुंड में शिवलिंग को स्थापित किया। धार्मिक आस्था से जुड़ा होने के कारण इस बारे ज्यादा कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि कुछ कट्टर हिंदु तो पुराणों की कथाओं को मिथकीय कहने वाले के हिंदु होने पर ही संदेह करने लगते हैं। वैसे अपनी सोच से वे भी सही ही कहते हैं, क्योंकि ये कथाएं मनगढ़ंत नहीं हैं। मिथक भी दो किस्म के होते हैं, एक मनगढ़ंत या निरर्थक किस्म के और एक वैज्ञानिक सत्य पर आधारित या सार्थक किस्म के। पुराणों के मिथक दूसरे किस्म के हैं, मतलब बेशक ये मिथक लगे पर पूरी तरह से वैज्ञानिक सत्य पर आधारित हैं। इसीलिए हम इनके वैज्ञानिक सत्य को उजागर करते हैं ताकि इन्हें मनगढ़ंत मिथक न समझा जा कर इनका खोया सम्मान वापिस मिल सके। हालांकि आम लौकिक सोच से ऐसा समझ सकते हैं कि देव विष्णु की उपरोक्त शिवलिंग पुकार ऐसी ही है जैसे किसी कुशल तांत्रिक ने यबयुम आसन से उत्पन्न शिवध्यानयुक्त संभोगशक्ति मूलाधार को दी। लिंग पर शिव के ध्यान से ही वह पवित्र होकर शिवलिंग बनता है। देव विष्णु जैसे महान व आदर्श योगियों का तरीका बेशक उन्नत और सात्त्विक हो सकता है, पर सबका मकसद एक ही है, और वह है शक्ति को जागृत करना।

विष्णु एक हजार कमल पुष्पों से शिव की पूजा करने की कोशिश कर रहे थे मतलब सहस्रार चक्र तक शिवध्यानचित्र को मूलाधार से उठाने की कोशिश कर रहे थे मेरुदंड से। एक पुष्प शिव ने माया से छिपा लिया मतलब शिव की माया से मोहित होकर विष्णु अपने अंहकार को शिव को अर्पित नहीं कर पा रहे थे। विष्णु ने धरती पर उस आखिरी पुष्प को हर जगह ढूंढा पर वह नहीं मिला मतलब अंहकार भीतर होता है, बाहर नहीं। बाहर की सारी सृष्टि भी शिव को चढ़ा दें, तो भी चढ़ावा अधूरा ही रहेगा, क्योंकि मास्तिष्क के अंदर बसा अहंकार तो चढ़ाया ही नहीं। विष्णु ने फिर अपना नेत्र चढ़ाया मतलब तीसरे नेत्र मतलब आज्ञा चक्र को जागृत करके वे उसकी शक्ति को फ्रंट चैनल से नीचे उतारकर मूलाधार चक्र तक लाए। उससे वहां स्थित शिव उससे पूर्ण संतुष्ट होकर वहां से सहस्रार चक्र तक चढ़कर पूरी तरह से जागृत हो गए मतलब प्रसन्न होकर उन्होंने विष्णु को अपने दर्शन करा दिए। अंहकार का जंजाल बुद्धि के रूप में बसा हुआ होता है, और बुद्धि का प्रतीक आज्ञाचक्र है। मतलब जो मन की शक्ति बुद्धिवादी सांसारिकता के जंजाल में फंसी थी, वह मुक्त हो कर शिवध्यानचित्र अर्थात कुंडलिनी चित्र को लग गई, जिससे वह जाग गया। फिर शिव ने उन्हें सुदर्शन चक्र दिया, मतलब जो अच्छे दर्शन या शिवदर्शन अर्थात जागृति के बाद सहस्रार चक्र बना, वही सुदर्शन चक्र है। वही दुष्टों व राक्षसों का वध मतलब बुरे विचारों का खात्मा करता है। कई जगह पर उसे दंड की तरह भी दिखाया जाता है, जो सुषुम्ना नाड़ी का द्योतक लगता है।

श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र पर ही गोवर्धन पर्वत को उठाया था मतलब ज्ञानरूप जागृत सहस्रार चक्र से ही स्थूल जगत को इतना हल्का, सूक्ष्म और आकाशरूप बना दिया कि वह ऊपर उठकर शून्य आसमान के बीच में आ गया। इससे ग्वालबाल मतलब इन्द्रियों के वशीभूत आम सांसारिक आदमी दुखों की अंधाधुंध वर्षा से बच सके थे, जो अंहकार रूपी इंद्र के कारण हो रही थी। गाय इंद्रिय को कहते हैं और गाय चराने वाला अर्थात इंद्रियों के संसर्ग से पीड़ित अज्ञानी मानव हुआ। यह ऐसा ही मामला लगता है जैसा रावण के द्वारा कैलाश पर्वत को भुजाओं पर उठाने का है। सुदर्शन चक्र का केवल इच्छामात्र से चलना और प्रहार करके खुद वापिस लौट आना और हमेशा घूमते रहना इसके दिव्य चक्र मतलब सहस्रार चक्र होने की ओर इशारा करता है। इसकी अरे मतलब स्पोकें, धुरी आदि ऋतुओं आदि का संकेत करती हैं। बौद्धों में कालचक्र भी शायद इसे ही कहते हैं। कालचक्र में भी सुदर्शन चक्र के बराबर ही अरे आदि होते हैं जो कि समय, ऋतु आदि की चाल को इंगित करते हैं। दोनों में ही वज्र और विद्युत होती है। यह सुषुम्ना में बहने वाली और जागृति देने वाली ऊर्जा ही है। कालचक्र को भी सुदर्शन चक्र की तरह विष्णु, कृष्ण, शिव आदि से जोड़ा जाता है। दोनों का ही वर्णन वेदशास्त्रों में है। हालांकि कालचक्र का उपयोग मुख्यतः बौद्धों में होता है।

कालचक्र के तीन प्रकार हैं, बाह्य, आभ्यंतर और गुप्त। बाह्य में बाहरी स्थूल ब्रह्मांड, आभ्यंतर में शरीर के अंदर का सूक्ष्म ब्रह्मांड और गुप्त में योग आदि रहस्यमय मुक्तिदायी विद्याएं आती हैं। मुझे लगता है कि एक का पूर्ण ज्ञान होने से तीनों का ज्ञान हो जाता है। बहिर्मुखी आदमी के लिए बाह्य कालचक्र की साधना है। अंतर्मुखी व्यक्ति के लिए आंतरिक कालचक्र और संन्यासी किस्म के व्यक्ति के लिए गुप्त कालचक्र बना है। तीनों से ही ज्ञान और मुक्ति मिलती है। प्रेमयोगी वज्र रचित शरीरविज्ञान दर्शन को एक प्रकार का आंतरिक कालचक्र कह सकते हैं, क्योंकि उसमें शरीर के अंदर के ब्रह्मांड का वर्णन किया गया है। कालचक्र एक मंडल होता है, जिसमें विभिन्न देवताओँ, चिह्नों और आकृतियों को प्रदर्शित किया जाता है। वास्तव में भी तीनों कालचक्रों में भी ऐसे ही विविध रूपरंग वाला संसार है। इसकी साधना से स्वाभाविक है कि सुषुम्ना, सहस्रार और कुंडलिनी आदि जागृत हो जाते हैं, जो फिर दुष्ट विचारों और स्वभावों रूपी राक्षसों का नाश करते हैं। इस मामले में भी कालचक्र और सुदर्शन चक्र एक ही हैं। यह कह सकते हैं कि कालचक्र आम आदमी को मिलता है जबकि विष्णु जैसे परम आदर्श मनुष्य को मिलने वाले कालचक्र को सुदर्शन चक्र कहा गया है। आम आदमी तो केवल अपने ही अज्ञान का नाश करता है जबकि विष्णु और राम, कृष्ण, बुद्ध आदि उनके अवतार अनगिनत भक्त लोगों का अज्ञान नष्ट करते हैं। इसीलिए सुदर्शन चक्र को विशिष्ट कालचक्र कह सकते हैं।

वामन पुराण में  भी इस चक्र को कालचक्र कहा गया है। इसकी बारह स्पोकें बारह महीनों और छः नाभियां छः ऋतुओं को इंगित करती हैं। यह भी कहा जाता है कि मंत्र सहस्रात हुम फट इसकी स्पोकों पर खुदा है। यह एक बौद्ध मंत्र लगता है। सिख भी चक्र को हथियार की तरह इस्तेमाल करते थे, जिसे सीधे भी और फेंक कर भी चलाया जाता था। कई जगह यह भी आता है कि सुदर्शन चक्र का केंद्र वज्र से बना है। वज्र वही मेरूदंड है, जिससे होकर वज्र शक्ति सहस्रार तक गुजरती है। पूरी तरह से यह लेख अगले लेख को पढ़कर समझ आएगा क्योंकि उसमें शिवपुराण में वर्णित इसकी मूल कथा लिखी जाएगी।

ऋग्वेद में भी सुदर्शन चक्र को कालचक्र कहा गया है। तीनों कालचक्रों से अलग एक चौथा वैकल्पिक कालचक्र भी है, जिसमें मन को समय की चाल से प्रभावित नहीं होने दिया जाता। यही बुद्धत्व और आत्मज्ञान का कालचक्र है। यही अद्वैत है, यही द्वैताद्वैत मतलब द्वैत के बीच रहकर अद्वैत है। यही प्रेमयोगी वज्र कृत शरीरविज्ञान दर्शन नामक तंत्र दर्शन की अवधारणा है। विष्णु का दुष्टविनाशक सुदर्शन चक्र ये ही पूर्व के तीनों कालचक्र हैं, जो समय के थपेड़ों से आम आदमी के मन को द्वैत, अज्ञान और दुख में डालकर उसे बारंबार जन्म मृत्यु के चक्र में डालने वाले हैं। कृपा करने वाला सुदर्शन चक्र चौथा और अंतिम मतलब वैकल्पिक कालचक्र है, जो बेशक समय की रफ्तार से घूमता है, पर आदमी को उसके बीच अद्वैत से रहना सिखाकर उसे सुख समृद्धि और मुक्ति देता है। मारने वाला समय चक्र तो किसी के पास भी हो सकता है, पर बचाने वाला तो विष्णु जैसे आत्मज्ञानी के पास ही हो सकता है। वह तब मिलता है जब सहस्रार चक्र जागृत होता है। यह काल तो चक्र की तरह चलता ही रहता है, कभी नहीं रुकता। जन्म के बाद मृत्यु, मृत्यु के बाद जन्म और फिर मृत्यु। सृष्टि के बाद प्रलय, प्रलय के बाद सृष्टि और फिर प्रलय। ऋतुएं चक्रवत बदलती रहती हैं, सुख दुख चक्रवत आते जाते रहते हैं। इस चक्र से हम भाग नहीं सकते। चक्र को चक्र ही काटता है। वरदायी सुदर्शन या वैकल्पिक चक्र ही बचने का एकमात्र उपाय है। मतलब चक्र के साथ चलते रहो पर उससे अपनी अद्वैतमय शांति भंग न होने दो। यही सुदर्शन चक्र की स्तुति और पूजन है। 

शिशुपाल को सुदर्शन चक्र ने गले से काटा मतलब शिशुपाल के द्वैतपूर्ण व्यवहार से उसकी शक्ति विशुद्धि चक्र से ऊपर नहीं चढ़ी। क्योंकि आदमी गले के विशुद्धि चक्र की शक्ति से बोलता है, तो ऊपर चढ़ती शक्ति को गले ने रोककर गाली गलौज में खत्म कर दिया मतलब गले के पास शक्ति का रास्ता कट गया मतलब गला कट गया। शिशुपाल कृष्ण को बहुत गालियां निकाल रहा था। कुंडलिनी चक्र भी शायद इसीलिए चक्र कहलाते हैं क्योंकि इन पर भी शक्ति का स्तर चक्रवत बदलता रहता है। कभी शक्ति बढ़ते बढ़ते चरम पर पहुंच जाती है, जिसे चक्र का जागृत होना कहते हैं, और फिर घटते घटते न्यूनतम भी पहुंच जाती है। उदाहरण के लिए कभी दिल की भावनाएं उफान पर होती हैं और कभी वह भावशून्य सा हो जाता है। कुछ समय बाद दिल फिर भावनाओं से भर जाता है, जिससे कई बार अच्छी सी कविता का निर्माण भी हो जाता है। ऐसा चक्र चलता रहता है। चक्र जागृत हो गया तो इसका मतलब यह नहीं कि वह हमेशा जागृत रहेगा। उसकी शक्ति घटती बढ़ती रहेगी। इससे घबराना नहीं है और न ही प्रभावित होना है। यही वैकल्पिक कालचक्र है, मतलब बुद्धवादी विकल्प अर्थात कल्पना या दर्शन से कालचक्र के दुष्प्रभाव को ख़त्म करके उससे सद्प्रभाव पैदा करना है। इसी तरह सहस्रार चक्र भी कभी चरम शक्ति पर होता है। उस समय यह पात्र व्यक्ति को ज्ञान या वरदान देकर भौतिक समृद्धि और मुक्ति भी दे सकता है, और पापी व्यक्ति को श्राप देकर उसे भौतिक हानि और बंधन में भी डाल सकता है। फिर सहस्रार चक्र निम्न शक्ति स्तर पर भी होता है, जिस समय श्रीकृष्ण एक आम आदमी की तरह व्यवहार करते थे। सहस्रार की चरम शक्ति की अवस्था होने पर ही वे अवतारी पुरुष की तरह व्यवहार करते थे, और जिस समय सहस्रार चक्र के बाह्य और स्थूल प्रतीक के रूप में उनकी अंगुली पर सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखाया जाता था। आम आदमी तो मन या मस्तिष्क में छिपे सूक्ष्म सहस्रार चक्र को महसूस नहीं कर सकते। जागृत सहस्रार चक्र मतलब सुदर्शन चक्र से ही दिव्यता है, परमात्मता है, पुरुषोत्तमता है।

आदमी बाह्य कालचक्र में ही पैदा होता है और उसमें लंबे समय तक रहते हुए बहुत कुछ सीखता है। यह शुरुवाती अभ्यास का कालचक्र है। फिर उससे उत्पन्न दुखों के थपेड़ों से परेशान होकर उसे आंतरिक कालचक्र के ऊपर अध्यारोपित करने लगता है। मतलब वह अपने मन को यह दिलासा देने लगता है कि जो कुछ विस्तृत ब्रह्मांड में है वही सबकुछ उसके अपने छोटे से शरीर में भी है। मतलब यत्पिंडे तत् ब्रह्माण्डे। ऐसा करना “शरीरविज्ञान दर्शन, एक आधुनिक कुंडलिनी तंत्र, एक योगी की प्रेमकथा” नामक पुस्तक से बहुत आसान हो जाता है। उससे उसे कुछ अद्वैत की अनुभूति होती है जिससे वह काल के थपेड़ों से थोड़ी सुरक्षा महसूस करता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि शरीर के अंदर पूरा कालचक्र दौड़ता रहने के बावजूद उसका कोई भी घटक द्वैत के बंधन में नहीं पड़ता। लंबे समय तक उसमें स्थिर रहने के बाद जब वह काफी पवित्र हो जाता है, तब उसकी प्रवृत्ति खुद ही योगसाधना रूपी गुप्त कालचक्र की ओर झुक जाती है। योग करते हुए और आगे बढ़ते हुए वह खुद ही तांत्रिक कुंडलिनी योग की तरफ मुड़ जता है। तंत्र योग से उसकी कुंडलिनी सहस्रार चक्र में जागृत हो जाती है, मतलब वह वैकल्पिक कालचक्र या सुदर्शन चक्र का अधिकारी बन जाता है। फिर भी जब भी वह सहस्रार में ऊर्जा की कमी से इस सर्वोच्च कालचक्र से नीचे आता रहता है तब तांत्रिक ऊर्जा के थोड़े से धक्के से वह आसानी से उसमें पहुंचता रहता है।

अनंत विस्तृत बाह्य कालचक्र अद्वैत सूक्ष्म होता जाता है। पहले वह आंतरिक कालचक्र के स्तर पर पहुंचता है। फिर और सूक्ष्म होकर सात कुंडलिनी चक्रों तक सीमित होकर गुप्त कालचक्र बन जाता है। इसे गुप्त कालचक्र इसलिए कहते हैं क्योंकि सभी इसे महसूस नहीं कर सकते, पर केवल कुंडलिनी योगी ही इसे महसूस करते हैं। फिर जागृति के बाद यह सहस्रार चक्र के बिंदु के स्तर तक सूक्ष्म बनकर वैकल्पिक कालचक्र बन जाता है। कालचक्र शुरु से लेकर अंत तक रहता है, पर पहले वह अज्ञान के बंधन में डालने वाला था, अंत में ज्ञान और मुक्ति देने वाला बन जाता है। यह बेहद कारगर और व्यवहारिक साधना है जिसे जरूर अपनाना चाहिए। सबसे साधारण शब्दों में बोलें तो यह ऐसा है कि भौतिक दुनियादारी के बीचबीच में अपने शरीर को भी अनुभव करते रहना चाहिए, उसके आगे के रास्ते खुद खुलते जाते हैं। योग इसकी आदत डालने के लिए ही बना है। योगासन करते समय प्राणों की क्रियाशीलता से दुनियावी विचार भी आते रहते हैं और साथ में शरीर के विशेष पोज और सांस पर भी ध्यान लगा होता है मतलब बाह्य कालचक्र आंतरिक कालचक्र में रूपांतरित होता रहता है।

कुंडलिनी योग से मृत व्यक्ति भी जीवित हो सकता है

शिवपुराण में एक सुधर्मा ब्राह्मण की कथा आती है। वह संतुष्ट, प्रसन्न और अद्वैत भाव में स्थित रहता था। उसकी सुदेहा नाम की एक शिवधर्मपरायण पतिव्रता पत्नि थी। उनकी उम्र काफी बीत गई पर उनके कोई पुत्र नहीं हुआ। फिर भी तत्त्ववेत्ता सुधर्मा को जरा भी दुख नहीं हुआ। पर उसकी पत्नि को पुत्र न होने का बड़ा दुख था। वह अपने पति से पुत्र के लिए प्रयत्न करने को कहा करती। फिर सुधर्मा उसे डांटकर समझाते कि पुत्र क्या करेगा। कौन किसकी माता तथा कौन पिता है, कौन पुत्र है और कौन भाई या मित्र है। सभी स्वार्थ का ही साधन करने वाले हैं। एक बार किसी पड़ोसी औरत ने सुदेहा को पुत्र न होने का ताना देते हुए बहुत धिक्कारा। वह फिर अपने पति से शिकायत करने लगी। उसने उसे बहुत समझाया पर जब वह फिर भी नहीं समझी तो उसने उसके सामने दो पुष्प रखे और उसे उनमें से एक पुष्प उठाने को कहा। सुदेहा ने वह पुष्प उठाया जिस पर ब्राह्मण ने पुत्र न होना सोचा था। फिर भी वह न मानी और पुत्र के बिना आत्महत्या की धमकी दे दी। तब सुदेहा अपनी सगी बहन घुश्मा को लेकर आई और अपने पति को उससे पुत्र के लिए विवाह करने को कहा। सुधर्मा ने उसे समझाया कि वह उसके पुत्रवती होने पर उससे ईर्ष्या करने लगेगी, जिससे उसे दुख होगा। उस पर घुश्मा ने कहा कि वह अपनी सगी बहन से कैसे ईर्ष्या कर सकती थी। घुश्मा प्रतिदिन एक सौ एक पार्थिव लिंगों का निर्माण, पूजन और विसर्जन करती थी। इस तरह जब एक लाख लिंगों की संख्या पूरी हुई तो उसे सुंदर पुत्र प्राप्त हुआ। सुधर्मा उसे देखकर बहुत खुश हुआ और आसक्तिरहित होकर सुखभोग करने लगा। उसके बाद तो सुदेहा घुश्मा से बहुत ईर्ष्या करने लगी। सभी संबंधी घुश्मा का सम्मान करने लगे। हालांकि सुधर्मा तब भी सुदेहा को अधिक सम्मान और प्रेम देता था, पर उसके मन में कपट था। घुश्मा के बेटे का विवाह भी हो गया। जलती भुनती सुदेहा से एक दिन रहा न गया। उसने अपनी पत्नि के साथ सोए सौतेले पुत्र को मारकर उसके शरीर को खंडखंड करके उन खंडों को नदी में बहा दिया। संयोग से उसी स्थान पर ही सुदेहा भी पार्थिव लिंगों का विसर्जन करती थी। जब पुत्रवधु ने सुबह उठकर खून के छींटे और पति के शरीर के टुकड़े शैय्या पर बिखरे देखे तो रो पड़ी। सुदेहा भी नाटक करते हुए रोने लगी। पर घुश्मा ने जरा भी दुख नहीं किया और पार्थिव पूजन के व्रत में लगी रही। उसके पति ने भी कोई ध्यान नहीं दिया, जब तक शिवलिंग पूजन पूरा नहीं हुआ। वह स्थिरचित्त होकर शिव का नाम लेते हुए पार्थिव शिवलिंगों को बहाने गई और जब वह मुड़ लौटने लगी तो उसने उस सरोवर के तट पर अपने पुत्र को देखा। घुश्मा अपने पुत्र को जीवित देखकर भी ज्यादा खुश नहीं हुई, जैसे कि वह उसके मरने पर दुखी भी नहीं थी, पर यथावत शिवजी के ध्यान में तत्पर रही। उसी समय वहां से संतुष्ट हुए ज्योतिस्वरूप सदाशिव प्रकट हो गए और घुश्मा से वर मांगने को कहा। तब उसने अपनी बहन सुदेहा की रक्षा का वर मांगा। शिव ने जब इस पर आश्चर्य प्रकट किया तो घुश्मा ने कहा कि जो अपकार करने वाले का भी उपकार करता है, उसके दर्शन मात्र से ही सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। तब शिव ने इससे खुश होकर अन्य वर मांगने को कहा। तब घुश्मा ने शिव को हमेशा अपने पास रहने को कहा। इस पर शिव वहां पर घुश्मेश्वर लिंग नाम से स्थित हो गए। पुत्र को जीवित देखकर सुदेहा लज्जित हो गई और दोनों से क्षमा मांगकर अपने पाप को नष्ट करने वाले व्रत का आचरण करने लगी।

घुश्मेश्वर लिंग कथा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण

इस कथा के रूप में कर्मयोग, अनासक्ति और अद्वैतभाव की महिमा का वर्णन हुआ है। घुश्मा को पुत्र देखकर भी ज्यादा खुशी नहीं हुई। मतलब किसी अन्य व्यक्ति के लाभ की खुशी तो कर्मयोगी को भी होती है, पर ज्यादा नहीं, मतलब इतनी नहीं कि उसके प्रति आसक्ति ही हो जाए। अपने मृत पुत्र को देखकर घुश्मा को जरा भी दुख नहीं हुआ। जो जाना था, वह तो चला गया। उसके लिए दुख करने का क्या फायदा था। अपने लिए जरा भी दुख नहीं हुआ, मतलब कर्मयोगी अपने लिए दुख को जरा भी नहीं मानता। शायद अपने लिए खुशी को भी नहीं मानता। अपने जीवित पुत्र को देखकर जो उसे थोड़ी खुशी हुई, वह उसके लिए हुई होगी, अपने लिए नहीं। अद्वैतभाव में रहने पर खुद ही इष्ट पर ध्यान लगने लगता है। इसीको ऐसा कहा है कि वह अपने पुत्र को जीवित देखकर खुश नहीं हुई, पर शिवजी के ध्यान में तत्पर रही। संबंध न्याय से तो इष्ट के ध्यान से अद्वैतभाव पैदा होना चाहिए शायद यही हुआ हो। कुंडलिनी ध्यानयोग से आध्यात्मिक गुण पैदा होने के पीछे यही सिद्धांत कारण है। मृत व्यक्ति कभी जीवित नहीं हो सकता। वह जो उसे अपना मृत पुत्र दिखाई दिया, वह उसकी शिवसाधना के प्रभाव से उसका प्रगाढ़ ध्यान लगने के कारण उसे अपने मन में ही दिखाई दिया। तभी उसे शिव भी नजर आए, मतलब उस ध्यान से वह जागृत भी गई। अगर सचमुच उसका पुत्र जीवित हो गया होता तो सुदेहा तप करके प्रायश्चित क्यों करती, क्योंकि तब तो उसके पुत्र के जीवित होने से उसको मारने का पाप खुद ही नष्ट हो जाता। कहानी अप्रत्यक्ष रूप से बताती है कि सुदेहा द्वारा घुश्मा की ध्यानसिद्ध कल्पना में उसके द्वारा मारे गए उसके बेटे को देखे जाने से उसे बार-बार अपना वह पाप याद आया जिसने उसे तपस्या करने के लिए प्रेरित किया। इस तरह की सौतनों पर बहुत सी फिल्में बनी हैं। एक पंजाबी फिल्म सौंकण सौंकने तो हूबहू यही कथा लगती है। यही अंतर है कि उसमें सौतन कुछ नुकसान होने से पहले खुद ही अलग होकर अपने मायके चली गई। रही बात अपकार करने वाले को माफ करने की, तो ऐसे उदाहरणों से वेदपुराण भरे पड़े हैं। शायद हिंदु धर्म इसीलिए सबसे सहिष्णु कौम है। पर कई कौमों ने इसका नाजायज फायदा भी उठाया। कहते हैं कि यदि पृथ्वीराज चौहान मुहम्मद गौरी को तराईं के युद्ध में माफ न करता तो भारत सैंकड़ों सालों के लिए मुगलों का गुलाम सा न बनता। गुलामी की झलक तो आज तक दिखती है किसी न किसी रूप में। सबको पता है कि जनसंख्या नियंत्रण कानून और समान नागरिक संहिता को लागू करने में कौन सी कौमें सबसे ज्यादा अड़चन पैदा कर सकती हैं। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं। अब म्यांमार के बौद्ध संत विराथू को ही लें। उनकी यह बात सोशल मीडिया पर बड़ी चली थी कि प्यार और सहिष्णुता तो ठीक है पर आप पागल कुत्ते की बगल में तो नहीं ही सो सकते। खैर यह पुराण पर आधारित बात चल पड़ी, इसका कोई पृथक उद्देश्य नहीं। कुल मिलाकर अतिवाद हर जगह हानिकारक होता है। मतलब कि दूसरे को माफ करना बेशक बहुत पुण्यदायक है, पर अगर सामने वाला जान लेने पर ही उतारू है, तो उस पुण्य का क्या करोगे, क्योंकि सबकुछ शरीर पर ही निर्भर है। वैसे भगवान शिव इस अतिवाद के खिलाफ ही लगते हैं, क्योंकि वे लगभग हर जगह ऐसे अति सहिष्णु वरदान पर आश्चर्य प्रकट करते हैं। अगर ऐसा वर मांगना स्वाभाविक होता या बिल्कुल ठीक होता तो उन्हें आश्चर्य नहीं होना था। वैसे वे इस पर बहुत प्रसन्न भी होते थे। मतलब कि सहिष्णुता और अति सहिष्णुता को विभाजित करने वाली रेखा बहुत पतली है, और मौके के अनुसार ही प्रतिक्रिया होनी चाहिए। मुझे लगता है कि घुश्मा, अत्रि आदि लोग महान शिवभक्त होते थे जिन्होंने शिवलिंग की सहायता से जागृति प्राप्त की। उन्हीं को सम्मान देने के लिए ही उनके निवास स्थानों पर उनके नामों से स्थायी शिवलिंग बनाकर वहां तीर्थों के निर्माण कर दिए होंगे ताकि लोगों को उनसे प्रेरणा मिलती रहे। भौतिक वैज्ञानिकों को भी जब ऐसा श्रेय दिया जाता है तो आध्यात्मिक वैज्ञानिकों को क्यों नहीं। यही घुश्मेश्वर लिंग, अत्रीश्वर लिंग आदि के पीछे का कारण नजर आता है। इस कथा से एक अंदाजा यह भी लगता है कि किसी को मरणोपरांत याद करने से उसे परलोक में लाभ मिलता है। हो सकता है कि जब तीव्र ध्यान से घुश्मा ने अपने पुत्र को जीवित देखा तो वह सूक्ष्म रूप से जीवित हो गया हो, बेशक किसी को न दिखता हो। इसीलिए बहुत सी संस्कृतियों में हर वर्ष मृत संबंधियों को याद करते हुए उनकी पूजा करने की परंपरा है। शायद वह पुनर्जीवित आत्मा उसका ध्यान करने वाली आत्मा के नजदीक सूक्ष्म रूप में बस जाती है, और उसके द्वारा किए जा रहे कर्मों को करती है, उसके द्वारा भोगे जा रहे फलों को भोगती है, और उसके साथ ही मुक्त भी हो जाती है। शायद यह ऐसा ही संबंध होता है जैसा एक मां और उसके पेट में पल रहे बच्चे के बीच में होता है। कई बार जब कोई बुरी आत्मा किसी के शरीर में डेरा डालती है तो उससे गलत काम भी करवाती है। फिर उसे तांत्रिकों की सहायता से भगाना भी पड़ता है। इसीलिए बुरी संगति से बचने को कहा जाता है। अच्छी आत्माएं किसी के शरीर में ज्यादा दखलंदाजी नहीं करती क्योंकि वे अपनी मर्यादाएं समझती हैं, हालांकि मौका पड़ने पर सही रास्ते पर लगाती भी रहती हैं। इसलिए उन्हें भगाने की जरूरत नहीं होती, बल्कि उन्हें तो बुलाकर किया जाता है, जैसे कि देवताओं का इन्वोकेशन अर्थात आह्वान। वैसे भी इस अजूबों से भरी दुनिया में क्या कुछ अजीब नहीं घट सकता।

कुंडलिनी योग सांसारिक जीवन पर एक अतिरिक्त सुविधा मात्र है

दोस्तो, शिवपुराण में अंधक नामक एक दैत्य की कथा आती है। कहते हैं कि उस देवशत्रु दैत्य ने तीनों लोकों को अपने वश में कर लिया था। वह समुद्र में गर्त का आश्रय लेकर रहता था। वह अत्यंत पराक्रमशाली दैत्य उस गर्त से निकलकर प्रजाओं को पीड़ित करने के पश्चात पुनः उसी गड्ढे में प्रवेश कर जाता था। तब दुखी होकर सभी देवताओं ने बारंबार शिव की प्रार्थना करते हुए उनसे अपना सारा दुख निवेदन किया। इस पर शिव ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा कि वे उसे मारेंगे और उनसे कहा कि वे अपनी सेना के साथ वहां जाएं, वे खुद भी गणों के साथ वहां आ रहे हैं। तब उस गर्त से देवताओं और ऋषियों से द्वेष करने वाले उस भयंकर अंधक के निकल जाने पर देवता लोग उस गर्त में प्रवेष कर गए। तब देवताओं और दैत्यों ने परस्पर अत्यंत भयानक युद्ध किया। शिवजी की कृपा से देवता उस युद्ध में प्रबल हो गए। देवताओं से पीड़ित होकर वह ज्यों ही उस गड्ढे में प्रवेष करने लगा, उसी समय परमात्मा शिव ने उसे त्रिशूल में पिरो दिया। तब त्रिशूल में स्थित हुआ वह शिवजी का ध्यान करके प्रार्थना करने लगा,”हे देव, अंत समय में आपका दर्शन करके प्राणी आपके ही सदृश हो जाता है”। शिवजी ने खुश होकर उससे वर मांगने को कहा। तब सात्त्विक भाव को प्राप्त हुए उस दैत्य ने शिवजी को प्रणाम करके व उनकी स्तुति करके अपने लिए उनकी भक्ति मांगी और उनसे वहीं निवास करने की प्रार्थना की। इस पर शंकर ने दैत्य को उसी गड्ढे में फेंक दिया और लोकहित की कामना से वहीं लिंगरूप धारण कर स्थित हो गए।

उपरोक्त पौराणिक कथा का आध्यात्मिक-मनोवैज्ञानिक विश्लेषण

मुझे लगता है कि अवचेतन मन को ही अंधक राक्षस कहा गया है। यही आदमी को नियंत्रित करता है। अनजाने में जो आदमी से व्यवहार होता है, वह इसी के वश में आकर होता है। इसीलिए तो आदमी शराब आदि के नशे में मन में गहरी दबी हुई बातों, भावनाओं और शारीरिक क्रियाओं को प्रकट करता है। उस समय वर्तमान का चेतन मन निष्क्रिय सा रहता है, जिससे अवचेतन मन को शरीर को नियंत्रित करने का ज्यादा मौका मिलता है। समुद्र का गड्ढा मूलाधार चक्र है। समुद्र में भी जल होता है, और चक्रों में भी शक्तिरूपी जल होता है। समुद्र भी भूमि पर सबसे ज्यादा निचाई पर स्थित होता है, और मूलाधार चक्र भी शरीर में सबसे ज्यादा निचाई पर स्थित माना जाता है। चक्र के बीच में खाली घेरा ही वह गड्ढा है। जैसे मूलाधार चक्र शरीर का सबसे सुदूर और निष्क्रिय सा भाग है, उसी तरह अवचेतन मन भी संपूर्ण मन का सबसे सुदूर और निष्क्रिय सा हिस्सा है। जैसे समुद्र के गड्ढे की गहराई में प्रकाश न पहुंचने से वहां अंधेरा होता है, इसी तरह अवचेतन मन में भी अंधेरा होता है। इसलिए मूलाधार और अवचेतन मन, दोनों को एक स्थान पर साथ रहते दिखाया जाता है। अंधक मतलब अंधा या अंधेरा करने वाला। जब आदमी अवचेतन मन के प्रभाव में होता है, तो वह भी आदमी को अंधा सा या अंधेरानुमा बना देता है। जैसे नींद आदि के रूप में कुछ देर अवचेतन मन में रहने के बाद आदमी जागकर चुस्ती के साथ क्रियाशील हो जाता है, उसी तरह मूलाधार में अवचेतन मन के रूप में सोई हुई शक्ति जागकर और ऊपर उठकर पूरे शरीर और मन को स्वस्थ और क्रियाशील कर देती है। पुरानी इच्छाएं और आदतें अवचेतन मन में सूक्ष्म वासनाओं के रूप में दबी हुई होती हैं। ये आदमी के व्यवहार को निर्धारित करती हैं। आदमी की मानसिक शक्ति कमजोर पड़ने पर ये वासनाएं जागकर उसके मन में काम, क्रोध आदि छः दोष पैदा कर सकती हैं, जिससे वह कई बार बुरे कर्म कर बैठता है, जो उसे पतन या विनाश की ओर ले जाता है। वासनाओं से बुरे काम और बुरे काम से पुनः वासना का निर्माण होने से ये दोनों चक्रवत एकदूसरे को बढ़ाते रहते हैं। अच्छा काम भी बुरा ही माना जाएगा यदि उसके साथ आसक्ति जुड़ जाए, क्योंकि यही आसक्ति वासना के बनने में मदद करती है। हां बुरे काम की तुलना में इससे यह फायदा होगा कि अच्छे काम का फल भी अच्छा ही मिलेगा। हालांकि अच्छे फल को आसक्ति के साथ भोगने से उससे भी वासना बनकर अवचेतन मन में दर्ज हो जाएगी, जो आदमी से फिर अच्छा काम करवाएगी। जैसे मर्जी कर्म और फल हों, आसक्ति का साथ मिलने पर बंधन तो डालेंगे ही। अच्छे काम और फल को सोने की जंजीर समझ लो, और बुरे कर्मफल को लोहे की जंजीर। दोनों आदमी को जन्ममरण के चक्कर में जकड़ेंगी ही। उसके बाद आदमी को चेतना या होश आने पर थोड़ी देर के लिए जागी हुई वह वासना फिर से उसके अवचेतन मन रूपी गड्ढे में चली जाती है। ऐसा बारंबार होता रहता है। अंधक मतलब अवचेतन मन और उससे उत्पन्न विभिन्न दोष मतलब उसकी सेना के विभिन्न राक्षस। जैसे ही काम, क्रोध आदि दोष आदमी पर हावी होने लगता है, वैसे ही उसके द्वारा शरीरविज्ञान दर्शन आदि अद्वैत साहित्यों या देवपूजा आदि अद्वैतवर्धक कर्मों की सहायता से उत्पन्न अद्वैतमय देवताओं के ध्यान से शिवरूपी ध्यानचित्र नीचे के चक्रों पर उजागर होने लगता है। योग से भी ऐसा ही होता है। योग से जब शरीर की प्राण शक्ति घूमते हुए मूलाधार पर पहुंचती है, तो इसे ही देवताओं का वहां पहुंचना कह सकते हैं, क्योंकि देवता शरीर के अंगों और उनको चलाने वाली शक्ति के साथ जुड़े होते हैं। देवताओं की सेना आध्यात्मिक कृत्यों को कहा गया होगा और शिव की सेना मतलब गणसेना तांत्रिक कृत्यों को कहा गया होगा। दोनों एकदूसरे के पूरक हैं। शक्ति के साथ शिवरूपी ध्यान चित्र का आभिव्यक्त होना स्वाभाविक ही है। वहां राक्षसों के साथ युद्ध का मतलब है, वहां दबे स्थूल या इसी जन्म के विचारों का प्रकट होना और उससे उनका कमजोर होना या नष्ट होना। अवचेतन मन में तो अनगिनत जन्मों के विचार दबे होते हैं। इसलिए उसे हराना इतना आसान नहीं है। मस्तिष्क में शक्ति पहुंचने से वह स्थूल विचारों और क्रियाओं के रूप में प्रकट होता रहता है, और उससे सर्वाधिक दूर मूलाधार में शक्ति पहुंचने से वह अपने अंधकारमय मूलरूप में छिपता रहता है। मतलब आदमी पूरी तरह उसके नियंत्रण में होता है, बेशक उसे लगे कि वह सबकुछ अपनी मर्जी से कर रहा है। जैसे ही वह शक्ति के साथ मूलाधार में पहुंचता है, वह बैक चैनलस से ऊपर जाती हुई शक्ति के साथ फिर ऊपर चढ़ जाता है। मतलब जैसे ही वह नीचे जाते हुए मूलाधार चक्र पर पहुंचता है, वैसे ही वह इड़ा, पिंगला, और सुषुम्ना नाड़ियों से ऊपर उठने लगता है। यही शिव के द्वारा अंधक को त्रिशूल पर लटकाना है। उन नाड़ियों से मास्तिष्क में पहुंचकर वह शिवध्यान की संगति से पवित्र हो जाता है। वहां से फिर वह फ्रंट चैनल से नीचे गिरकर पुनः मूलाधार चक्र में पहुंच जाता है। यह चक्र चलता रहता है। क्योंकि मूलाधार चक्र उस अंधक को त्रिशूल पर उठाकर लगातार पवित्र करता रहता है, इसलिए यही अंधकेश्वर लिंग लगता है। वह शिवलिंग मतलब शिव का लिंग इसलिए है क्योंकि वह शिवरूप ध्यानचित्र के साथ जुड़ा होता है। क्योंकि ध्यानचित्र एक पार्श्व संगीत की तरह जीवनरूपी शोरभरे संगीत के झटकों से आदमी को बचाता है, इसीलिए कथा में कहा गया है कि शिव ने देवताओं और लोगों की अंधक से रक्षा की। मतलब योग अगर पुरानी दबी वासनाओं को बाहर निकालकर उन्हें साफ करता रहता है, तो उसमें प्रयोग किया गया ध्यानचित्र योगी को उनके वशीभूत होने से बचाता रहता है। तभी तो वे वासनाएं साफ होती हैं, नहीं तो उनके वशीभूत होने से फिर नई वासनाएं बन जाएंगी। मतलब साफ है कि ध्यानचित्र के बिना योग अधूरा है और यहां तक कि नुकसानदायक भी हो सकता है। मतलब योग सैशन के अंत में एक ध्यान सैशन भी होना चाहिए। बहुत समय लगता है वासनाओं की सफाई में। इसलिए योग जीवनभर निरंतर और प्रतिदिन नियमित रूप से चलता रहना चाहिए। वैसे यह ध्यान देने वाली बात है कि आम दुनियावी कामों से भी शक्ति घूमती रहती है। जब आदमी शारीरिक काम करता है, तो रक्तसंचार से, पहले तो शरीर और मन को काफी आनंदमय ताजगी और स्फूर्ति मिलती है। फिर थक जाने पर जब आदमी आराम करता है तब रक्त को घुमाने वाली शरीर की क्रियाशीलता नहीं रहती, जिससे भागता हुआ रक्त अपने भारीपन की वजह से मूलाधार चक्र पर जमा हो जाता है, और साथ में शक्ति भी। उससे फिर से आदमी अवचेतन मन के अंधेरे की गिरफ्त में आ जाता है। उससे ऊबकर वह फिर सांसारिक क्रियाशीलता को अपनाकर उस मूलाधार पर जमा हुई शक्ति को घुमाने की कोशिश करता है। इससे पूरे शरीर और मास्तिष्क में शक्ति पहुंचने से वह फिर से आनंदित हो जाता है। मतलब अंधक गड्ढे से बाहर आकर शरीररूपी विश्व को नियंत्रित करने लगता है। क्योंकि आदमी से काम वही होते हैं, जो उसके अवचेतन मन में दबे होते हैं। वैसे बड़ों, गुरुओं और ज्ञानियों की संगति से वह उसके प्रभाव में आकर बुरे काम करने से बचता भी है। पर कब तक। जब तक उसका समूल नाश नहीं किया गया, तब तक पूरी सुरक्षा नहीं।

दुनियावी कामों से अगर पुराने जमे विचार शिथिल होते रहते हैं, तो नए विचार अवचेतन मन पर जमते भी रहते हैं। मतलब आगे दौड़, पीछे चौड़। इसीलिए कामों को कर्मयोग के रूप में करने को कहा जाता है। इसमें कर्ता, कर्म, और फल में आसक्ति नहीं रखी जाती। अनासक्ति की वजह से वे अवचेतन मन पर गहरे नहीं जमते बल्कि ऊपर ही रहकर जल्दी ही बाहर निकलकर नष्ट भी होते रहते हैं। इससे कुल मिलाकर विचारों का नष्ट होना विचारों के जन्म से ज्यादा होता है, जिससे अवचेतन मन रूपी अंधक धीरे धीरे शुद्ध होता रहता है।

दूसरी बात, योग के समय प्रकट होने वाले दबे विचारों को हम खुलकर प्रकट होने देते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि वे हमारे से ऊटपटांग काम या व्यवहार नहीं करवा सकते, क्योंकि हम उस समय काम तो कर ही नहीं रहे होते हैं बल्कि एकांत में योग कर रहे होते हैं। इससे वह बार बार प्रकट होकर नष्ट होते रहते हैं। उन्हें गीले बारूद का मिसफायर होना कह सकते हैं। दूसरी ओर, काम के समय हम बुरे विचारों को खुलकर प्रकट नहीं होने देते, क्योंकि वे हमें दिग्भ्रमित करके हमसे बुरे कर्म और बुरे व्यवहार करवा सकते हैं।

तीसरी बात, योग के समय ध्यानचित्र ज्यादा प्रभावी होता है। वह ऊटपटांग किस्म के दबे विचारों के प्राकट्य के बुरे प्रभाव को कम करते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि ज्यादा ध्यान ध्यानचित्र पर रहता है, जिससे जाग रही बुरी मानसिक वृत्तियों की तरफ कम ध्यान जाता है। वैसे तो कर्मयोग के समय भी ध्यानचित्र प्रभावी रहता है, पर उतना नहीं, जितना योग के समय। हालांकि मेरे कर्मयोग के दौरान तो ध्यानचित्र साधारण योग से भी ज्यादा प्रभावी रहता था, फिर भी तंत्रयोग के ध्यानचित्र से तो थोड़ा कम ही प्रभावी होता था। थोड़ा ही फर्क था। बेशक जागृति योग्य बल तंत्रयोग से ही मिला। कर्मयोग में भी बहुत शक्ति होती है। ध्यानचित्र के इसी अध्यात्मवैज्ञानिक लाभ को देखते हुए उसे शिवपुराण रचयिता ने शिव का रूप दिया है। वह योग की सहायता से अंधक को बार बार त्रिशूल पर उठाता रहता है और उसे पवित्र करके पुनः गड्ढे में फेंकता रहता है। मतलब बैक चैनल की नाड़ियों के माध्यम से शक्ति और शिवचित्र के साथ अवचेतन मन ऊपर उठता रहता है, अपनी एनर्जी रिलीज करके पवित्र होता रहता है, और फ्रंट चैनल से होकर नीचे गिरता रहता है। फिर पुनः पीछे से ऊपर उठता है। यह चक्र चलता रहता है।

चौथी बात, दुनियावी कामों से शक्ति को इतना ज्यादा और जल्दी जल्दी नहीं घुमा सकते, जितना कि योग से। दिनभर योग करते रहने से शक्ति को सैंकड़ों बार घुमाया जा सकता है, जबकि काम करते हुए तो शक्ति ज्यादा से ज्यादा 4 5 बार ही घूम सकती है। सुबह के ब्रेकफास्ट के बाद के काम से शक्ति एकबार घूमती है। फिर लंच के समय आराम होता है। आराम के बाद के काम से शक्ति फिर एकबार घूमती है। लगभग 1 2 बार तो सभी शक्ति को घुमा लेते हैं। कई लोग शाम के समय आराम के साथ चायपानी कर लेते हैं। उसके बाद के काम से शक्ति तीसरी बार घूमती है। बहुत तेज लोग जल्दी सोकर उठने से लेकर ब्रेकफास्ट तक के काम से भी शक्ति को चौथी बार घुमा लेते हैं। अति क्रियाशील लोग तो शाम के पूजा के आराम और खाना खाने के बाद से लेकर सोने तक शक्ति को पांचवी बार भी घुमा लेते हैं। मतलब शक्ति को घूमने के लिए काम के साथ आराम भी जरूरी होता है।

ये सब बारूद का खेल है। अवचेतन मन में जमा विचारों के बारूद को इस तरह जलाना है कि धमाका भी न होए और वह जलता भी रहे। इसके लिए उस पर अनासक्ति रूपी हल्के जल का छिड़काव किया जा सकता है। यही योग का ध्येय है। कुदरती चेष्ठा भी हल्के दर्जे का योग ही है, जिसमें आदमी को उसके अवचेतन मन में दबे कर्मविचारों के जैसे फल मिलते रहते हैं। इससे वे कर्मविचार याद आ जाते हैं, मतलब वे दबी हुई ऊर्जा के रूप में थे, जो बाहर निकलकर आत्मा में विलीन हो जाती है। ऊर्जा न पैदा होती है और न ही नष्ट होती है। वह आत्मा से प्रकट होती रहती है और उसी में विलीन होती रहती है। इस जन्म के दबे विचार तो याद आ जाते हैं, पर पिछले जन्म के विचार बिना याद आए ही विलीन होते रहते हैं। हालांकि उसका अहसास जरूर होता है। इसीलिए तो किसी अच्छे या बुरे फल मिलने के बाद आदमी अपने में हल्कापन और आनंद सा पैदा होता हुआ महसूस करता है। क्योंकि आदमी बुरे फल से घबराकर उसे अन्यथा व नकारात्मक रूप में लेता है, इसलिए उसमें आनंद होने से भी वह उसे महसूस नहीं कर पाता। अगर आदमी अनासक्ति व अद्वैत भाव को अपना कर रखे, तो आनंद ही है, चाहे फल अच्छा हो या बुरा हो। इसी कुदरती योग को तेज गति देने के लिए ही कुंडलिनी योग बना है।

कुंडलिनी तंत्र का मूल आधार शिव-लिंग

मित्रों, शिवपुराण की एक कथा के अनुसार एकबार कुछ शिष्यों ने कथावक्ता से पूछा कि क्या शिवलिंग लिंग होने के कारण ही हर जगह पूजित है या कोई अन्य कारण है। इस पर वे एक कथा सुनाते हैं कि दारुक नाम के एक श्रेष्ठ वन में शिवजी के ध्यान में नित्य तत्पर शिवभक्त रहा करते थे। किसी समय वे समिधा लेने वन में गए हुए थे। उसी समय शिव उन्हें शिक्षा देने और उनकी परीक्षा लेने के लिए एक तांत्रिक अवधूत के वेष में आए, जो लिंग को हाथ में धारण कर के दुष्ट चेष्टा कर रहे थे। उनको देखकर ऋषिपत्नियां बहुत डर गईं। और अन्य बेताब और आश्चर्यचकित होकर वहां चली आईं। कुछ अन्य स्त्रियों ने एकदूसरे का हाथ पकड़कर परस्पर आलिंगन किया। कुछ स्त्रियां उस आलिंगन के घर्षण से आनंदमग्न हो गईं। उसी समय ऋषिवर आ गए और उस आचरण को देखकर दुखी और क्रोध से व्याकुल हो गए। वे आपस में कहने लगे, यह कौन है, यह कौन है। जब तांत्रिक अवधूत ने कुछ नहीं कहा तो उन्होंने उसे यह कहते हुए श्राप दिया कि वह वेदविरुद्ध आचरण कर रहा था इसलिए उसका लिंग भूमि पर गिर जाए। ऐसा ही हुआ। उस लिंग ने अग्नि की तरह सामने स्थित सभी वस्तुओं को जला दिया। जहां वह जाता, वहां सबकुछ जला देता। वह पाताल में गया, स्वर्ग में गया, भूमि पर भी सर्वत्र गया, पर कहीं स्थिर नहीं हुआ। सभी लोक व्याकुल हो गए, और वे ऋषिगण भी बहुत दुखी हुए। किसी भी देवता या ऋषि को शांति नहीं मिली। जिन देवों और ऋषियों ने शिव को नहीं पहचाना, वे ब्रह्मा की शरण में गए। ब्रह्मा ने यह कहते हुए उन्हें खूब लताड़ा कि आम आदमी अगर शिव को न पहचान पाए तो बात समझ आती है पर उनके जैसे ज्ञानी लोग शिव को कैसे नहीं पहचान पाए, और कहा कि अगर देवी पार्वती योनिरूपा बन जाए तो यह स्थिर हो जाएगा। देवी को प्रसन्न करने को यह निम्न विधि उनको बताई। अष्टदल वाला कमल बनाकर उसके ऊपर एक कलश स्थापित कर उसमें दूर्वा तथा यवांकुरों से युक्त तीर्थ का जल भरना चाहिए। फिर वेदमंत्रों के द्वारा उस कुंभ को अभिमंत्रित करना चाहिए। फिर वेदोक्त रीति से उसका पूजन करके शिव का स्मरण करते हुए शतरुद्रीय मंत्रों से कलश के जल से उस शिवलिंग का अभिषेक करना चाहिए। फिर उन्हीं मंत्रों से लिंग का प्रोक्षण मतलब छिड़काव करें, तब वह शांत हो जाएगा। फिर गिरिजायोनि रूपी बाण को स्थापित करके उस पर लिंग को स्थापित करना चाहिए, और फिर उसको अभिमंत्रित करना चाहिए। फिर षोडशोपचार मतलब सोलह किस्म की सामग्रियों से परमेश्वर का पूजन करना चाहिए, और फिर उनकी स्तुति करनी चाहिए। इससे लिंग स्थिर और स्वस्थ हो जाएगा, तथा तीनों लोक विकार से रहित और सुखी हो जाएंगे।

वैसे इस कथा का स्पष्टीकरण नहीं हो सकता। यह आस्था से जुड़ा हुआ एक संवेदनशील धार्मिक मामला है। इसे खुद ही समझा जा सकता है। हां इतना जरूर कह सकते हैं कि हरेक आदमी अपने यौनसाथी की खोज में कभी न कभी जरूर भटकता है। उस दौरान उसके मन में जो समाधि चित्र बना होता है, वह उसे चिड़चिड़ा सा और जलाभुना सा जरूर बना सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि समाधि के लिए अतिरिक्त ऊर्जा की जरूरत होती है, जो किसी नजदीकी साथी के सहयोग से ही मिल सकती है। अष्टदल कमल अनाहत चक्र का प्रतीक है, और प्रेम उस पर ही उपजता है। उस पर तीर्थों के जल से भरे कलश को रखने का मतलब उस पर ध्यान शक्ति को इकट्ठा करके केंद्रित करना है। विभिन्न तीर्थ मतलब विभिन्न चक्र। दूर्वा घास प्रजनन, वृद्धि और विकास का प्रतीक है। यव अंकुर मतलब अंकुरित हुए जौ चढ़दी कला मतलब चहुंमुखी विकास का प्रतीक हैं, क्योंकि उसमें हर किस्म के टॉनिक, विटामिंस और मिनरल्स होते हैं, इसीलिए इसे ग्रीन ब्लड भी कहते हैं। इसका आम भाषा में यही मतलब लगता है कि दिल पर अर्थात प्यार पर अपना सबकुछ न्यौछावर कर देना। जोगी भी ऐसे ही होते हैं, जो घरबार छोड़कर अपने देवता की पूजा अर्चना में लग जाते हैं, और ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। उस कलश के पूजन का मतलब है, हृदय से शक्ति के साथ जुड़े देवरूप आदि ध्यानचित्र का पूजन। जिससे वह ज्यादा प्रकाशित अर्थात प्रसन्न होता है, जैसे किसी आदमी की सेवा से वह आदमी प्रसन्न हो जाता है। वेदमंत्राें से पूजन का मतलब है, उस चित्र को और ज्यादा धार देते हुए और स्पष्ट, शुद्ध और प्रकाशमान बनाना। बीजमंत्र भी ऐसा ही करते हैं। वह मानसिक ध्यान चित्र गुरु, प्रेमिका, देवता, बीजमंत्र आदि किसी का भी हो सकता है। उस पूजित चित्र से मिश्रित शक्ति को फिर अनाहत चक्र से स्वाधिष्ठान और मूलाधार चक्र को उतारा जाता है। यही कलश के जल से उस दिव्य लिंग का अभिषेक है। अभिषेक में पवित्र जलरूपी शक्ति की धारा निरंतर चलती है। प्रोक्षण जल के छिड़काव को कहते हैं। हृदयकलश से शक्ति को सुबहशाम की साधना से बारंबार नीचे उतारना ही ही दिव्य प्रोक्षण है। शतरुद्रीय मंत्र में विभिन्न बीजमंत्र आदि हैं, जो विभिन्न अदृश्य तरंगें छोड़ते हैं, जो आदमी के मन पर अदृश्य दिव्य आध्यात्मिक प्रभाव डालते हैं। वैसे कुदरती बाणलिंग नर्मदा नदी में मिलते हैं, पर लगता है कि कथा में बाण को लिंग के आसन अर्थात पीठ के रूप में कहा गया है। मैंने जब बिंग एआई से पता किया तो उसने जवाब दिया कि एक अभिमंत्रित बाण को जमीन के अंदर गाड़ा जाता है, और उसके ऊपर शिवलिंग को स्थापित किया जाता है। हो सकता है कि यह ठीक कह रहा हो। क्योंकि कई स्थानों पर ऐसे शिवलिंग देखे जाते हैं जिनकी पीठ या आधार ही नहीं होता। पूछने पर वहां के पुजारी आदि बताते हैं कि यह शिवलिंग जमीन में गहराई तक गढ़ा होता है। हो सकता है, जमीन के अन्दर बाण ही उसकी पीठ हो। वैसे पीठ का आकार भी बाण से मिलता जुलता सा होता है। फिर उसके आगे तो आम आदमी की भाषा में तांत्रिक या दैवीय संभोगयोग ही लगता है। वैसे सबकी अपनी अपनी सोच हो सकती है। उससे तीनों लोक मतलब पूरा शरीर शांत और स्वस्थ मतलब अपने शुद्ध आत्मरूप में स्थित हो जाता है, क्योंकि सब लोक शरीर में ही हैं। यह दुनिया में अक्सर देखा जाता है इसीलिए बिगड़े हुए या बिगड़ रहे नौजवानों का विवाह उनके परिवार वाले जल्दी में करते हैं। उसके बाद मैंने बहुत से सुधरते हुए देखे हैं। पर कुछ नहीं भी सुधरते। इसमें उनकी पत्नियों का कसूर भी लगता है मुझे, शायद हालांकि ज्यादा कसूरवार तो पुरुष ही होते हैं। इसीलिए कहा है कि शिवलिंग को पार्वती रूपी पीठ ही धारण कर सकती है। इसीलिए तो स्त्री को अध्यात्मिक संस्कार देना पुरुष से भी ज्यादा जरूरी समझा जाता था, क्योंकि स्त्री ही पूरे परिवार की नींव होती है। मैंने एक व्यस्क आदमी को अपनी निजी राय जाहिर करते सुना था कि अगर पुरुषों का विवाह न हुआ करता तो वे एकदूसरे को कच्चा ही खा जाया करते, क्योंकि पत्नियां ही पुरुषों को नियंत्रित करती हैं। उन्होने खुद अपनी पहली पत्नि की मृत्यु के बाद एक अन्य महिला से विवाह क्रिया हुआ था। बात सही भी है। एक मित्र भी कह रहे थे कि तांत्रिक संभोग तो संभोग ही नहीं लगता, वह तो कोई और ही अति पवित्र अध्यात्मिक कर्म बन जाता है। मुझे लगता है कि मूर्ख, नकारात्मक, असफल और विधर्मी लोग ही दोनों को एक श्रेणी में रखकर अपने दिल की भड़ास निकालते हैं। एक पुस्तक लव स्टोरी ऑफ ए योगी में तो लेखक एक महिला के द्वारा उसके कुंडलिनी जागरण की मुख्य वजह पूछे जाने पर अपना अनुभव प्रश्नकर्ता को चिह्नित करने की बजाय सबको सुनाते हुऐ कहता है कि उसने वज्रशिखा की संवेदना पर कुंडलिनी चित्र का ध्यान करते हुए उसे उसके पूरक अंग में अंदरबाहर करते हुए ही जागृति प्राप्त की, पर जो उसने किया वह संभोग नहीं था। इस पर ऑनलाइन कुंडलिनी ग्रुप पर मौजूद वह प्रश्न पूछने वाली पाश्चात्य या संभवतः अमेरिकन महिला प्रेमभरी हैरानी और कुछ मजाकिया लहजे से उसे पिनपोइंट करते हुए उससे कहती है कि हमारे देश में तो उसे संभोग ही कहते हैं, वह पता नहीं कौनसी अचरजभरी संस्कृति या भूमि से ताल्लुक रखता है। उसके बाद उस विषय पर उस ग्रुप में सबके संवाद बंद हो गए थे, और तंत्र की उपयोगिता का विषय सामने आ गया था, जिसमें जागृति के लिए तंत्र की सर्वाधिक महत्ता को सभी स्वीकार कर रहे थे। मतलब लेखक ने अपने दिल की बात भी रख दी थी और अप्रत्यक्ष तौर पर मुख्य प्रश्न का जवाब भी दे दिया था। वैसे यह कथा मिस्र की अंखिंग तकनीक की तरह भी लग रही है।

मतलब यह साफ है कि इस कथा में विधर्मियों या हिंदु विरोधियों द्वारा फैलाए गए दुष्प्रचार का खंडन किया गया है। ऋषि बहुत दूरदर्शी होते थे। उन्हें पता था कि आने वाले समय में ऐसा हो सकता था। यह कथा भी समाज में घटने वाली आम घटना को दर्शाती है, कोई दिव्य पारलौकिक आदि नहीं। अविवाहित किशोर व्यक्ति ऐसे ही होते हैं। वे मौका मिलने पर युवतियों से लिंगोन्मुखी मजाक करते रहते हैं। उनमें से कोई शिव किस्म का तंत्र का असली हकदार भी होता है। पर लोग तो सबको एक जैसा लंपट बदमाश समझते हैं। कहते हैं कि दाने के साथ घुन भी पिसता है। उन्हें क्या पता कौन सच्चा है और कौन झूठा। इसलिए औरों के साथ वे शैव का भी अपमान करके शाप दे देते हैं, मतलब उसे भी बुरी नजर से देखते हैं। वस्तुतः शैव का लिंग कोई सामान्य लिंग नहीं होता। शैवतंत्र के प्रभाव से वह साक्षात इष्ट देवता होता है। एक प्रकार से साधना के प्रभाव से वह शैव व्यक्ति लिंगरूप बन जाता है। वह जहां भी जाता है, एक किस्म से उसके रूप में उसका इष्टदेवरूपी लिंग ही जा रहा होता है। उस इष्टदेव की नाराजगी सबको परेशान करती है, मतलब जलाती है। ऐसा भी हो सकता है, क्योंकि सारा विश्व लोगों के भटकते मन में है, और उस शैवलिंगरूपी इष्टदेव के सान्निध्य से उनका अपने भटकते मन से मोहभंग हो रहा होता है, इसीको जगत का जलना कहा गया हो सकता है। उस माहेश्वर लिंग को पार्वती के जैसी तंत्रयोगिनी ही सही से धारण कर सकती है, ताकि उसके साथ इष्टदेव रूपी ध्यानचित्र का ध्यान भी हो सके। आम महिला तो ध्यान में सहयोग कर ही नहीं पाएगी। मतलब इससे इष्टदेव नाराज मतलब बिना जागृति के ही रहेगा। बिना जागृति की कुंडलिनी क्रियाशीलता नुकसानदायक भी हो सकती है, क्योंकि वह नियंत्रण से बाहर भी हो सकती है। अनियंत्रित शक्ति सबको जलाएगी ही। जागृति आदमी को शक्ति का असली और पूर्ण रूप दिखाती है। और वह रूप सबसे सुंदर और शक्तिशाली होने पर भी परम शांत होता है। इससे आदमी शांत रहता है, मतलब जागृति के नियंत्रण में रहता है।

यह कथा मुझे शिवपुराण की सबसे सारगर्भित कथा लगी। इस पर कोई जितना चाहे लिख सकता है। ऋषियों ने जो शुरु में पूछा था कि क्या शिवलिंग लिंग होने के कारण ही पूजित है, या कोई अन्य कारण है, इसका उत्तर बहुत सभ्य तरीके से दिया गया है इसमें। यह ऐसा ही है जैसा उत्तर उपरोक्त लेखक ने दिया था। मतलब शिवलिंग सामान्य लौकिक लिंग नहीं है, जैसा कि मूर्ख, दुष्ट, लंपट बदमाश, भौतिकवाद की मोहमाया में उलझे हुए, अति कर्मप्रधान, धर्मविरोधी या सैक्सी किस्म के लोग समझते हैं या बोलते हैं। हैरानी तब होती है जब बहुत से हिंदु भी उनके बहकावे और उकसावे में आ जाते हैं, और वैसा ही समझने लगते हैं। वे सोशल मीडिया आदि पर हर जगह शिवलिंग को शिव के शरीर का अंग समझने पर ही पाबंदी लगा देते हैं, कहने लगते हैं कि यह तो केवल शिव का चिह्न या प्रतीक है, या केवल शिवशक्ति मिलन का प्रतीक है, किसी शारीरिक कर्म आदि का नहीं आदि आदि। वैसे अपनी जगह पर और अध्यात्मवैज्ञानिक सोच के हिसाब वे सही ही कह रहे होते हैं, क्योंकि साधारण सांसारिक वस्तु या अंग जैसी इसमें कोई बात ही नहीं है। उनसे सीखकर बिंग एआई भी ऐसा ही कहता है। इस मामले में अगर विधर्मी लोग अति नीचे गिरते हैं, तो वे तथाकथित हिंदुरक्षक अति ऊपर उठ जाते हैं। व्यावहारिक दुनिया के बीच में अर्थात मध्यमार्ग पर कोई नहीं रहते। अति सर्वत्र वर्जयेत। मध्यमार्ग ही सर्वोत्तम है। इसको एक उदाहरण से समझ सकते हैं। एक ही बंदूक होती है। एक सभ्य आदमी उससे आतंकवादी को मारता है, तो दूसरा सिरफिरा व्यक्ति आम जनता को। इसमें बंदूक का क्या दोष। इसी तरह शिवनियंत्रित शिवलिंग अज्ञानरूपी राक्षस को मारता है, तो इसके विपरीत आमजनप्रयुक्त इसका साधारण रूप ज्ञानरूपी देवता को। एकबार मेरी मुलाकात एक तांत्रिक व्यक्ति से हुई थी, जो मेरे मित्र का मित्र था। उसने कामाक्षी मंदिर में गुरु से दीक्षा ली हुई थी। वह बता रहा था कि उसके सामने एक तांत्रिक ने भीड़ भरी सड़क से गुजर रही आम व अनजानी महिला पर अपनी वशीकरण विद्या चलाई थी, जिससे वह उसके बुलाने पर उसके पीछे आकर उसके साथ कुछ भी करने को तैयार थी। हालांकि वह तो अपनी विद्या का परीक्षण कर रहा था, इसलिए उसने वशीकरण को बंद कर दिया, जिससे वह महिला वापिस अपने रास्ते चली गई। सच्चे तांत्रिक तो कभी गलत काम करते भी नहीं हैं, अगर करते हैं तो सीधे नरक को जाते हैं। बोलने का मतलब है कि उपरोक्त पौराणिक कथा के अन्दर भी कोई ऐसा ही वशीकरण रहस्य छिपा हुआ, क्योंकि पुराने जमाने के लोगों के लिए तो जागृति ही सबसे अहम उपलब्धि हुआ करती थी, जिसके लिए वे सबसे अधिक प्रयास किया करते थे। आजकल तो और भी बहुतेरी विद्याओं और कलाओं का बोलबाला है, जिसके लिए लोग बहुत संघर्ष करते हैं। फिर भी वे पौराणिक विद्याएं अभी भी गुरुपरंपराओं में जीवित हो सकती हैं, जिन्हें यदि राजसहायता मिले तो उन्हें खोजा जा सकता है, और उन्हें भविष्य के लिए संरक्षित किया जा सकता है।

कुंडलिनी योग जीवन का पार्श्वसंगीत है

दोस्तों, पिछली पोस्ट में शक्तिजल की बात हो रही थी। मुझे तो लगता है कि इंद्र जो बारिश करता है, वह जागृति की ही बारिश है, वही सुषुम्नाशक्ति रूपी वज्र चलाता है। इंद्र की प्रसन्नता मतलब सभी देवताओं की प्रसन्नता या अनुकूलता। यही चढ़दी कला है। मैं यह नहीं कह रहा कि भौतिक वर्षा के साथ इंद्र का संबंध नहीं है। वह भी जरूर है क्योंकि जो भीतर है, वही बाहर भी है। जैसे बारिश होने के लिए सभी देवताओं के साथ से पैदा होने वाली अनुकूल परिस्थितियां चाहिए, वैसे ही जागृति के लिए भी। पुराणों पर प्रेम और विश्वास बना रहे, तो सभी रास्ते खुद ही खुलने लगते हैं। फिर कथा में आया था कि गौतम मुनि ने वरुण देव के वरदान से अक्षय जल पाया। वरुण देवता वेदों के एक प्रमुख देवता हैं। वे जल के अधिपति देवता हैं। जलरूपी शक्ति के बिना गूढ़ आध्यात्मिक वेदों का सही ज्ञान होना संभव नहीं है। वरुणदेव सीमित जल ही दे सकते हैं। ख्वाजा भी सिंधुघाटी सभ्यता का ऐसा ही देवता था, जो समुद्र, नदियों और जल का अधिपति था। मैंने एक भूमिगत जल का पता लगाने वाले आदमी के बारे में सुना था जो काफी सटीक आकलन करता था, और ख्वाजा का सिद्ध उपासक था। वैसे आज भी कई गांवों में ख्वाजा की जलदेव के रूप में पूजा करते हैं। हो सकता है कि वेदों में गुप्त भाषा में वरुणदेव उसके प्रतीक के तौर पर कहा गया हो, जिसकी सहायता से शरीर में शक्तिजल की उपलब्धता बराकरार रहती हो, पर उसके पाठकों या व्याख्याकारों ने उसे भौतिक जल का देवता मान लिया हो। कुछ भी हो, बाहर भीतर में समानता तो है ही, इसलिए एकदूसरे को जरूर प्रभावित करते होंगे। मुझे खुद महसूस होता है कि शुद्ध जल से भरे झील, सरोवर आदि जलस्रोतों के निकट कुंडलिनी शक्ति बहुत अच्छे से घूमने लगती है, क्योंकि दोनों के स्वभाव में बहना है। दोनों में संबंध तो है ही। हिंदुओं और बौद्घों में नागदेवता को भी जल का देवता माना जाता है। कुंडलिनी शक्ति नाड़ी भी नाग की आकृति में होती है। हमारे गांव में नेउआ मतलब दिव्य नाग या सर्प और ख्वाजा दोनों को स्थानीय जल और उसके आसपास उपजी वनस्पति का अधिपति माना जाता था। जो जल के आसपास वनस्पति काटता था, उसे नेऊआ सांप के द्वारा पीछा करने का भय दिखाया जाता था, जिससे वनों का अच्छा सरंक्षण होता था। कई जगह मैंने ख्वाजा को मछली के रूप जैसी मूर्ति में भी देखा। इसका मतलब है कि वरुण, नाग और ख्वाजा आपस में जुड़े हैं और तीनों जलरूपी शक्ति के देवता हैं। यह भी मान्यता है कि ये सिर्फ़ जल ही नहीं देते, बल्कि अन्य दुनियावी समृद्धियां और सुरक्षाएं भी देते हैं। मतलब ये शक्ति के देवता ज्यादा लगते हैं।

इसी तरह इंद्र देव भी वेदों में बहुतायत में वर्णित हैं। जो देव जागृति के लिए जरूरी है, उसका ज्यादा वर्णन होगा ही। क्योंकि वेद का मूल ध्येय जागृति ही है। गुप्त तरीके से शायद इसे ही वर्षा लिखा है। जहां वर्षा है, वहीं कर्म, यज्ञ, धनधान्य और समस्त वैभव हैं। इन्हीं से सब चढ़दी कला में रहते हैं। ऐसी ही अवस्था में जागृति होती है। बेशक इसके भौतिक और आध्यात्मिक दोनों अर्थ हों, पर दूसरा ही ज्यादा सटीक लगता है, क्योंकि वेद अध्यात्म को डील करते हुऐ लगते हैं, न कि भौतिकता को।

मुझे लगता है कि जागरण और आत्मसाक्षात्कार के बीच अंतर है। पहली अवस्था प्रारंभ है, तो दूसरी अवस्था आध्यात्मिक विकास का चरम या अंत। मुझे यह जीपीटी एआई पावर्ड बिंग सर्च से पता चला। कहते हैं कि कईयों की कुंडलिनी बचपन से ही जागृत होती है। अगर कुंडलिनी जागरण पूर्णता होती तो उसके बाद पुनर्जन्म क्यों होता। यह भी हो सकता है कि पूर्णता के अनुभव के बाद भी आत्मा की पूरी सफाई जरूरी हो, जिसके लिए कई बार नया जन्म लेना पड़ता होए। यह भी बोलते हैं कि महान व्यक्तियों जैसे कलाकारों और नेताओं की कुंडलिनी भी जागृत होती है। बिंग एआई निःशुल्क है और सबसे अच्छी जानकारी देने वाला लगा मुझे, हिंदी अंग्रेजी दोनों में। आजकल ब्लॉग लिखने में और शोध करने में एआई से बहुत मदद मिल रही है। जब शरीर के भौतिक संपर्क के बिना आदमी को अंधेरा सा महसूस होता है, तो उसे कहते हैं कि शक्ति सोई हुई है। पर जब अंधेरे के बीच में भी एक ध्यान चित्र हमेशा चमकता है, तब उसे कहते हैं कि शक्ति जागी हुई है। यहां से साधना शुरु होती है, जिससे ध्यानचित्र उत्तरोत्तर चमकता जाता है, मतलब कुंडलिनी शक्ति को ज्यादा से ज्यादा जगाया जाता है। फिर एक समय ऐसा आता है, जब ध्यानचित्र इतना ज्यादा मजबूत हो जाता है कि साधक को अपने और ध्यानचित्र के बीच फर्क ही महसूस नहीं होता, न ही उसे ऐसा लगता है कि वह उसका ध्यान कर रहा है। मतलब इसमें ध्यान करने वाला, ध्यानचित्र, और ध्यान की प्रक्रिया, तीनों एकाकार हो जाते हैं। इसे ही समाधि कहते हैं। इसी के दौरान कभी भी आत्मसाक्षात्कार अर्थात आत्मज्ञान का अनुभव हो सकता है। शायद मैं इसे ही पहले कुंडलिनी जागरण कह के वर्णन कर रहा था। कोई बात नहीं, यह सिर्फ़ शब्दावलियों का अंतर है, अनुभव में कोई अंतर नहीं पड़ता।

पिछली कथा के अनुसार गंगा रूपी शक्तिजल ने देवताओं से इस शर्त पर हमेशा सुषुम्ना में बसे रहने को कहा था कि उसे सर्वाधिक महत्त्व देना होगा। मतलब साफ है कि अगर रोज योग करते हुए सुषुम्ना में बह रही शक्ति को महसूस न किया गया, तो वह धूमिल पड़ जाएगी। मतलब बेशक कुछ भी काम छूट जाए, पर योग नहीं छूटना चाहिए। अक्सर होता यह है कि भैतिक कर्म ही दिखता है, मानसिक या आध्यात्मिक कर्म नहीं। प्राचीन भारत में लोग ज्ञान, भक्ति आदि जैसे मानसिक कर्म में लगे होते थे, जो सबसे बड़ा कर्म है, क्योंकि इसी से मुक्ति और सृष्टि चक्र को सही गति मिलती है। शेष दुनिया विशेषकर पश्चिम में भौतिकता, साफसफाई आदि में ही व्यस्त रहते थे लोग, जो काम के रूप में स्पष्ट नजर आते हैं। वैसे सर्वोत्तम तरीका कर्मयोग है, जिसमें भौतिक कर्म और योगसाधना खुद ही एकसाथ होते रहते हैं।

दरअसल कुंडलिनी योग जीवनरूपी विविध धुनों को जोड़ने वाला बैकग्राउंड म्यूजिक है। जब किसी कारणवश मुख्य संगीत बजना बंद हो जाता है, तो यही पार्श्व संगीत सुखी जीवन के लिए सहारा होता है। जैसे मुख्य संगीत बंद होने से पार्श्व संगीत बहुत तेज लगने लगता है, वैसे ही जीवन की सांसारिक गतिविधियों के शोर के शांत होने से योग का ध्यानचित्र बहुत तेज चमकने लगता है, जिससे वह जागृत भी हो सकता है। संभवतः पुराणों में इसी को गड्ढे में साधना या समुद्र के भीतर बंद व अंधेरे कारागार में साधना आदि की उपमा दी गई है।

ऋषि गौतम की पिछली कथा का एक दूसरा रूपांतर भी है। इसमें गाय के मरने पर गौतम को कुटिल ऋषियों के षड्यंत्र का पता चल जाता है। इससे क्रुद्ध होकर वे उन्हें और उनकी संतानों को शैवधर्म से बहिष्कृत रहने का और उससे नरकगामी बनने का श्राप देते हैं। कहते हैं कि फिर कलियुग उन्हीं के जैसे लोगों से भर गया। उस कथा रूपांतर में उन्हें शिवदर्शन होने का कोई उल्लेख नहीं है। मतलब साफ है कि दुष्ट ऋषियों की साजिश को उन्होंने सकारात्म सकारात्मकता से लेते हुए शिवसाधना नहीं की, बल्कि अपनी संचित ऊर्जा क्रोध में और श्राप देने में लगा दी, इसीलिए उन्हें जागृति नहीं मिली। हरेक क्रिया की प्रतिक्रिया होती ही है।

कुंडलिनी शक्ति ही गंगा नदी जल के रूप में गूलर के वृक्ष की टहनी से निकली होगी

शिवपुराण में गौतम ऋषि और उनकी पत्नि अहल्या की एक मिथक कथा आती है। उन्होंने दस हजार वर्षों तक दक्षिण दिशा में ब्रह्मगिरि पर्वत पर तप किया।100 वर्षों तक वहां पर अनावृष्टि पड़ी। एक भी हरा पत्ता नहीं दिखता था। फिर प्राणियों को जिलाने वाला पानी कहां मिलता। सारे मुनि, मनुष्य, पशुपक्षी दसों दिशाओं को भाग गए। कुछ ऋषि प्राणायाम व ध्यान करके उस भयंकर काल को बिताने लगे। गौतम ने भी प्राणायाम के साथ 6 माह तक तप किया। इससे उनके सामने वरुण देव प्रकट हुए और उन्होंने उनसे वर्षा का वर मांगा। वरुण ने कहा कि वे दैव की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकते। फिर गौतम ने उनसे अक्षय, दिव्य तथा नित्य फल प्रदान करने वाला जल मांगा। वरुण ने गड्ढा खोदने को कहा। गौतम ने एक हाथ का गड्ढा खोदा। वरुण ने उसे दिव्य जल से भर दिया। वरुण ने कहा कि इस स्थान पर किया गया कोई भी धार्मिक और उत्तम कर्म अक्षय होगा। गौतम ने उस दुर्लभ जल से नित्य नैमित्तिक कर्म संपन्न किए। उन्होंने वहां पर हवन के लिए विविध धान्य बोवाए। वहां विविध फलफूल वाले वृक्ष पैदा हो गए। ऐसा देखसुन वहां अन्य हजारों ऋषि आ गए और सपरिवार गृहस्थ धर्म से रहने लगे। एकदिन जल लेने आई ऋषिपत्नियों ने जल लेने आए गौतमशिष्यों को जल लेने से यह कहकर रोका कि पहले वे जल ग्रहण करेंगी। शिष्यों ने जब गौतमपत्नी अहिल्या से शिकायत की तो वे खुद उनके साथ जल लेने चली गईं और जल लाकर ऋषि को दिया, जिससे उन्होंने अपना नित्य कर्म संपन्न किया। उन ऋषिपत्नियोंं ने गौतमपत्नी को फटकारा और घर लौटकर अपने पतियों से उल्टी सीधी शिकायत की। ऋषियों ने क्रुद्ध होकर गणेश की तपस्या की और उनके द्वारा गौतम ऋषि का नुकसान करवाने का वर जबरदस्ती ले लिया। मजबूर होकर गणेश एक बहुत कमजोर गाय बनकर गौतम का उगाया साग खाने लगे। गौतम के तिनकों से हटाते ही वह मर गई। उससे सभी ऋषि खुश होकर ऋषि को गौहत्यारा कहकर कोसने लगे। उन्होंने गौतम को अपने इलाके से निकल जाने का आदेश दिया और उन्हें पत्थरों से मारने लगे। साथ में यह भी कहा कि जबतक उन्हें गौहत्या का पाप लगा है, तब तक वे कोई धार्मिक कार्य नहीं कर सकते। जब गौतम ने माफी मांगी तब ऋषियों ने उन्हें यह प्रायश्चित करने को कहा कि वह अपने गौहत्या के पाप का डंका बजाते हुए तीन बार पृथ्वी का चक्कर लगाए। फिर वहां वापिस आकर मासव्रत को करे और उसके बाद उस ब्रह्मगिरि पर्वत की परिक्रमा करे, और फिर गंगाजल के सौ घड़ों से स्नान करके पुनः पार्थिवपूजन करे। या इसके बदले में उन्हें वहीं पर गंगा को लाकर उसमें स्नान करने, फिर शिव के एक करोड़ पार्थिव लिंग बनाने और उनकी पूजा करने, फिर 11 बार ब्रह्मगिरि की परिक्रमा करने, और फिर गंगाजल के सौ घड़ों से स्नान करके पुनः पार्थिवपूजन करने को कहा। गौतम और अहल्या ने वह दूसरा तरीका अपनाया, और उनके शिष्य उस दौरान उनकी सेवा करते रहे। फिर प्रसन्न होकर शिवपार्वती प्रकट हुए और वर मांगने को कहा तो गौतम ने उनसे अपने पाप खत्म करने का वर मांगा। शिव ने कहा कि उनका भक्त कभी पापी नहीं रह सकता। साथ में गौतम को उन कुटिल ऋषियों की सारी करतूत बताई और पूछा कि वे उन्हें क्या दंड दें। गौतम ने उन्हें यह कहकर क्षमा करने को कहा कि अगर वे कुटिलता न करते तो उन्हें उनके दर्शन न होते। इससे शिव बहुत प्रसन्न हुए और फिर वर मांगने को कहा। गौतम ने यह वर मांगा कि इन ऋषियों का वचन झूठा न होए।

उसके बाद पृथ्वी तथा स्वर्ग के सारभूत जिस जल को निकालकर पूर्व में रख लिया था, और विवाहकाल में ब्रह्मा द्वारा दिया गया जो कुछ शेष जल बचा था, उसे शिव ने उन मुनि को दिया। वह गंगाजल स्त्री के रूप में प्रकट हुआ। गौतम ने उन्हें प्रणाम करके उनसे अपने को पवित्र करने की याचना की। शिव ने भी गंगा से निवेदन किया। फिर गंगा ने गौतम के परिवार को पवित्र करके अपनी वापसी बारे बताया। गंगा को रोकते हुए शिव ने उन्हें वैवस्वत मन्वंतर के अठाईसवें कलियुग तक वहीं निवास करने को कहा। फिर गंगा ने कहा कि वह तभी धरती पर निवास करेगी अगर यहां उसका माहात्म्य सबसे ज्यादा रहेगा। साथ में उसने शिव से अपने गणों व पार्वती के सहित अपने निकट निवास करने का निवेदन किया। इस पर शिव बोले कि वह उससे पृथक नहीं हैं, क्योंकि वह उनकी शक्ति हैं, फिर भी वे वहां निवास करेंगे। तभी देवता सहित सभी दिव्य आत्माएं वहां आए, जो गौतम, शिव और गंगा की जयकार करने लगे। शिव ने प्रसन्न होकर देवों से वर मांगने को कहा। तो देवों ने शिव और गंगा से वहीं निवास करने का निवेदन किया। तब गंगा ने देवों से पूछा कि वे कैसे उसकी विशिष्टता बनाए रखेंगे। तब देवों ने कहा कि जब बृहस्पति सिंह राशि पर रहेंगे, तब वे सभी लोग उसके समीप रहेंगे। तथा 11 वर्षों तक लोगों के पाप धोने से जब वे मलिन हो जाएंगे, तो उसे धोने के लिए उनके पास आएंगे। वहां पर वह गंगा गौतमी नाम से तथा शिवलिंग त्र्यंबक नाम से प्रसिद्ध हुए। उपरोक्त मुहूर्त के दौरान देवों के साथ सभी दिव्य आत्माएं वहां आते हैं, और जब तक वहां रहते हैं, तब तक फल नहीं मिलता, मतलब वहां से वापिस जाने पर ही फल मिलता है।

गंगा ब्रह्मगिरि पर्वत से प्रकट हुईं थीं। जब गूलर वृक्ष की शाखा से उसकी धारा निकली, तब गौतम, उनके शिष्यों, और अन्य सभी आए हुए लोगों ने उसमें स्नान किया। तभी से उस क्षेत्र का नाम गंगाद्वार पड़ा। उसका दर्शन करने से सभी पाप नष्ट होते हैं। जब गौतम का बुरा करने वाले वे ऋषि भी नहाने पहुंचे, तब गंगा अंतर्धान हो गई। जब गौतम ने गंगा से प्रकट होने के लिए विनती की तो गंगा ने कहा कि वे कपटी ऋषि पहले आपकी आज्ञा से इस पर्वत की 101 बार परिक्रमा कर के प्रायश्चित करे, तभी ये उसके दर्शन कर सकते हैं। जब उन्होंने यह कर लिया, तब उनके लिए गौतम के द्वारा नामित गंगाद्वार के नीचे वाले स्थान कुशावर्त में गंगा फिर प्रकट हुईं। यहां नहाने वाला सभी पापों को त्यागकर दुर्लभ विज्ञान प्राप्त कर शीघ्र मोक्ष का अधिकारी बन जाता है।

उपर्युक्त मिथक का स्पष्टीकरण

होता क्या है कि पुराणों की कथाओं से अनासक्ति के साथ दुनियादारी की आदत पड़ती है। क्योंकि ये सच भी लगती हैं, और बनावटी भी। इसलिए इनके प्रति अनासक्त बुद्धि बनी रहती है। इसीलिए इनमें आनंद होता है। कोई बोलेगा कि ऐसी तो हैरी पॉटर की कहानियां भी हैं। पर वे मुख्य उद्देष्य से रहित हैं। मुख्य उद्देष्य है कुंडलिनी जागरण। पुराणों की मिथक कथाएं योग, कुंडलिनी और जागृति के वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित होती हैं, इसलिए इनका अध्ययन करने वाले को अनजाने में ही इनकी तरफ ले जाती हैं। ऋषि गौतम की ये कथा मुझे मिश्रित आध्यात्मिक व भौतिक लगती है। ऐसा नहीं है कि पुराने लोगों में समझ कम थी, इसलिए एक ही साधारण योग पर अनगिनत शास्त्र बना दिए। बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि योग से आदमी का उम्र भर और हरपल संपर्क बना रहना चाहिए। एक ही बात को बारबार पढ़कर आदमी ऊब सकता है, इसलिए योग को विविध रूपाकार वाली अनगिनत कथाओं और गतिविधियों में ढाला गया। उदाहरण के लिए शिव रूपी ध्यान चित्र तो सुषुम्ना में गुजर रही शक्ति के निकट खुद ही सैद्धांतिक रूप में बना रहता है। इसी को कहा है कि शिव ने गंगा को उनके निकट रहने का वचन दिया। संभवतः कुंडलिनी शक्ति ध्यानचित्र को इसलिए लगती है, क्योंकि यह यौन आधारित है, और सब जानते हैं कि यौन संबंधी मामले अतीव घनिष्ट संबंधी या प्रेमी के सामने ही उजागर किए जाते हैं। सबसे नजदीकी व घनिष्ट प्रेमी मानसिक ध्यानचित्र ही है। भौतिक वस्तु या व्यक्ति से तो लज्जा महसूस होती है, साथ में अपने ऊपर उनके व्यक्तित्व की छाप भी पड़ सकती है। पर गुरु या देवता पृथक व्यक्तित्व से रहित या परमात्मा रूप ही होते हैं, इसलिए वे आदमी के अपने व्यक्तित्व में बाधा नहीं डालते, अपितु उसे और ज्यादा सुधारने में अप्रत्यक्ष या मूक मदद ही करते हैं। इसीलिए अधिकांशतः उन्हें ही ध्यान चित्र बनाया जाता है। वैसे तो कोई भी चीज हो सकती है, क्योंकि हरेक शुद्ध मनसिक चीज पवित्र है, अपवित्रता तो भौतिकता से आती है। इसीलिए ऐसे चित्र को कुंडलिनी चित्र भी कह सकते हैं। सुषुम्ना से होकर शक्ति सीधी सहस्रार को जाती हैं, जहां अद्वैतभाव का साथी एकाकी कुंडलिनी चित्र ही होता है। इसीलिए इन कुंडलिनी आधारित कथाओं को शास्त्रीय कथाएं या पुस्तकें कहते हैं। संगीत तो कुछ भी हो सकता है, पर जो बहुत सोचविचार के और प्रत्यक्ष अनुभव से बना है और आदमी को उसके चरम लक्ष्य तक ले जाने में मदद करे, वही शास्त्रीय संगीत है। इसी प्रकार शास्त्रीय नृत्य, खेल आदि कुछ भी सांसारिक गतिविधि हो सकती है।

वर्षा वह है जिसमें ज्ञानरूपी या शक्तिरूपी जल की भरमार होए। ऐसा तो कोई देवता नहीं कर सकते, क्योंकि जब चारों ओर भौतिकता और दुष्टता का बोलबाला हो, तब देवता उसमें क्या कर सकते हैं, क्योंकि लोगों की सोच कोई भी जबरदस्ती नहीं बदल सकता। हां, देवता दर्शन देकर अपने भक्त को कुछ ऐसा करने की सलाह दे सकता है, जिससे बाहरी माहौल का बुरा असर उस पर न पड़े। इसलिए वरुण देव गौतम मुनि को एक हाथ का गड्ढा खोदने की सलाह देते हैं। यह मूलाधार को क्रियाशील करना ही है, जिसमें सोई हुई कुंडलिनी शक्ति रूपी जल दबा होता है। वही लुप्त सा जल इसमें भर जाता है। वैसे वे पहले भी प्राणायाम व ध्यान से गुजारा चला रहे थे, पर यह जागृति रूपी वर्षा के सामने नाकाफी था। सौ वर्ष का अकाल बताना आम बात है पुराणों में। शास्त्रों में सी वर्ष ही आदमी की उम्र कही गई है। सौ वर्ष तक जागृति न होना ही सौ वर्ष का अकाल लगता है मुझे, जिससे जीवों की मृत्यु बताई जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि सभी जीवों सहित सारी सृष्टि आदमी के दिमाग में ही होती है। दिमाग मर गया मतलब सभी मर गए। गहरे गड्ढों में तो भूमिगत जल भर भी जाता है, पर एक हाथ की लंबाई मतलब 10 या 12 इंच के गड्ढे में तो कभी खुद से पानी भरते नहीं दिखा। अगर ऐसा होता तो उसके लिए तप करके वरदान क्यों मांगते, पहले ही खोद देते। वैसे भी साधारण जल अक्षय फल देने वाला और दिव्य भी नहीं होता। इसका मुझे यह मतलब भी लगता है कि अंधेरे गड्ढे में मतलब एकांत में, सुखसुविधाओ और सांसारिक प्रवृत्तियों से दूर रहकर साधना करना, जिससे दुनिया में खर्च होने से बची हुई ऊर्जा, जो अंधेरे में कैद रहती है, वह सारी कुंडलिनी चित्र को चमकाने में खर्च होए, और साथ में उसे सम्भोगतंत्र का अतिरिक्त बूस्टर बल भी मिले जिससे वह तेजी से जागृत हो जाए, दुनियादारी के झंझट दुबारा शुरु होने से पहले ही। कई बार क्या होता है कि दुनियादारी से दूर रहने का थोड़े से ही समय का मौका मिलता है। उस दौरान अगर कछुआ या साधारण चाल से साधना की गई, तो जागृति नहीं मिल पाती। गौतम ऋषि को देशनिकाला देकर ऋषियों ने अप्रत्यक्ष रूप से उनका भला ही किया था, तभी वे एकांत में तीव्र साधना से कुंडलिनी को जागृत कर सके। उस सीमित समय में न कर पाते तो नए देश में उनकी नई दुनिया बन जाती और वही पुरानी कहानी शुरु हो जाती। क्योंकि नए देश में घुलनेमिलने से पूर्व ही उन्होंने जागृति प्राप्त कर ली, इसलिए उनकी उपलब्धि देखकर पुराने देशवासियों ने उन्हें वापिस अपने बीच बुला लिया। ये कथाएं ऊपर से देखने पर अजीब लगती हैं, पर गहराई से देखने पर परम व्यावहारिक व हितकारी नजर आती हैं। ऐसा आम आदमी के साथ अक्सर होता है। जो आदमी असल में आध्यात्मिक रूप से कर्म करता हुआ उसके माध्यम से आध्यात्मिक संदेश देता रहता है, उससे दुनिया वाले तो क्या, परिवार वाले व रिश्ते नाती भी जलते हैं, और उससे लड़ाई का बहाना ढूंढते रहते हैं। असल में इसलिए कह रहा हूं क्योंकि नकली, ढोंगी और पाखंडी किस्म के धार्मिक लोगों की जयजयकार होती रहती है। फिर उसे अपने बीच से भगाकर ही उन्हें चैन महसूस होता है। हालांकि वे धोखे में होते हैं, क्योंकि दिया हटने से वे अंधेरे में जा रहे होते हैं। जब दूर एकांत में वह जागृत हो जाता है, तब उसके पुराने विरोधी लोग तो जैसे गायब ही हो जाते हैं, पर दिल से उसके लिए नरमी रखने वाले कुछ पछताते दिखते हैं। पर जागृत व्यक्ति के मन में उन विरोधियों के प्रति कोई नाराजगी नहीं होती, क्योंकि उन्हीं की अप्रत्यक्ष वजह से उसे जागृति मिली होती है। ऐसा बहुतों के साथ होता है क्योंकि यही दुनियावी सिद्धांत है, इसीलिए पुराणों में लिखा गया है। केवल खाली कथा लिखने से क्या लाभ।

मुझे लगता है कि उस समय गौतम नाम के या परिवर्तित नाम वाले व्यक्ति ने मूलाधार से दुनियावी सुखों समेत जागृति को प्राप्त करने की खोज की होगी। इन खोजों को ऐसे ही अप्रत्यक्ष या मिथक कथाओं के रूप में वर्णित किया गया होगा, ताकि लोग इन्हें गलत न समझें या इनका दुरुपयोग न करें। ऐसे ऋषि वैज्ञानिक ही होते थे, सत्य की खोज करने वाले अध्यात्मवैज्ञानिक। उनसे सीखकर अन्य ऋषियों ने भी ऐसा ही किया मतलब सभी को जल मिल गया। पहले वे जल मतलब ज्ञान या शक्ति की खोज में इधर उधर भाग गए। वैसे भी पुराने जमाने में लोग ज्ञान की खोज में दूर दूर तक जाया करते थे। आगे की कहानी कि जल पर झगड़ा हुआ आदि आदि, यह लगता है कि सामान्य भौतिक घटनाओं को जोड़ा गया है कथा को रोचक बनाने के लिए, जिसका अध्यात्म से ज्यादा संबंध नहीं। हो सकता है कि इनका भी कोई गूढ़ रहस्य हो। फिर शिव प्रकट हुए। गौतम ने शिव से अपने दुश्मनों को क्षमा करने का निवेदन किया। यह स्वाभाविक है कि जब आदमी दुनिया के द्वारा दुत्कारा और सताया जाता है, तभी वह एकांत में ध्यान व तप कर पाता है। शिव के ध्यान से उनकी जागृति तो हो गई, पर अब उस जागृति के प्रभाव को जीवनभर निरंतर बना के रखना था। यह ताउम्र सुषुम्ना की क्रियाशीलता से ही संभव हो सकता था। इसी को गंगा का अवतरण और योग आदि के द्वारा इसे स्थायी तौर पर बने रहना बताया गया है। क्षणिक जागृति तो बिना सुषुम्ना के अनुभव से भी हो जाती है, पर दैनिक क्रियाकलाप में सुषुम्ना का अपना महत्त्व है, क्योंकि यह निरंतर शक्ति की आपूर्ति करती रहती है। इसी शक्ति से पाप नष्ट होते रहते हैं।

मुझे लगता है कि पौराणिक कथाओं पर संदेह करना चाहिए। इससे आदमी अपना दिमाग हर तरफ दौड़ाता है कि इसका मतलब क्या हो सकता है। इससे उसके आगे अनजाने में ही रहस्यों के द्वार खुलते हैं। अगर इन कथाओं को अक्षरशः सत्य मान लिया, तब आदमी अंधविश्वासी सा, अवैज्ञानिक सा, और मूर्ख सा बन जाता है। मतलब इनको सत्य तो मानना चाहिए पर छुपे हुए रहस्य के रूप में, साधारण भौतिक तरीके में अक्षरशः नहीं। ऐसी असामान्य मिथकीय कथाओं से हमारा दायां मास्तिष्क सक्रिय हो जाता है, जो अधिकतर समय सुप्त सा रहता है। जागृति के लिए मस्तिष्क के दोनों भाग संतुलित रूप से सक्रिय रहने चाहिए। यह बच्चा भी समझ सकता है कि गंगा नदी पेड़ की एक टहनी से बाहर नहीं निकल सकती। इसी तरह भौतिक जल की कमी प्राणायाम व ध्यान से पूरी नहीं हो सकती। हां, कुछ हद तक शक्ति की कमी की पूर्ति जरूर हो सकती है। फिर इसे यदि रहस्यमयी उपमा के तौर पर समझें तो पहाड़ मतलब मस्तिष्क से दुनियावी उपलब्धियों के रूप में शक्ति मतलब गंगा फ्रंट चैनल से नीचे आती हुई गूलर वृक्ष मतलब मूलाधार चक्र की एक शाखा मतलब सुषुम्ना या ब्रह्म नामक नाड़ी से गंगाद्वार मतलब सहस्रार में निकली, जिसमें गौतम ऋषि मतलब जीवात्मा के स्नान करने से सारे पाप नष्ट हो गए। उनकी खोज को उनके शिष्यों ने भी अपनाया। उनके परिवारजनों को लाभ उनकी संगति से मिला। गूलर का वृक्ष एक दैवीय पौधा है, जिस पर शुक्र का आधिपत्य माना गया है, जो प्रेम, सौंदर्य, आकर्षण, यौनसुख, प्रेमविवाह, धनदौलत आदि का प्रतिनिधि ग्रह है। इससे खुद ही समझा जा सकता है कि गूलर की शाखा किसे कहा गया होगा। कुछ तांत्रिक भी लगता है। मुझे तो यह भी लगता है कि प्रेमी प्रेमिका को एकदूसरे के मूलाधार से शक्ति मिलती है। इसीलिए गंगा को स्त्री का रूप दिया गया लगता है। वैसे भी शक्ति को स्त्रीलिंग ही समझा जाता है। अब जब कुटिल ऋषि भी उनकी नकल करने लगे, तो उनके हाथ कुछ नहीं लगा, क्योंकि सुषुम्ना की क्रियाशीलता के लिए बच्चे की तरह नादान और भोले बनना पड़ता है, जो कुटिल आदमी बन नहीं सकते। प्रेम और कुटिलता एक दुसरे के विरुद्ध हैं। स्वाधिष्ठान चक्र का तत्त्व जल है। जल प्रेम का प्रतीक भी है। गौतम ने उन पापियों के लिए उससे नीचे के चक्र में उतरवाया। इसी को कुशावर्त कहा गया होगा। वैसे भी पापियों की चेतना नीचे वाले चक्रों पर ही अटकी होती है।

शक्ति से ही प्रजनन होता है। और उसी से नया मनुष्य बनता है, जिसमें स्वर्ग और पृथ्वी समाए हुए हैं। उस गतिविधि से जो शक्ति बची थी, वही शक्ति ब्रह्मा मतलब शरीर समेत सारी सृष्टि को बनाने वाले मन ने शिव को उनके विवाह के समय दी। उसी को शिव की प्रेरणा से ब्रह्मा रूपी मन ने सुषुम्ना में से गंगा के रूप में गुजारा। वैसे इसका वैज्ञानिक आधार भी है। अभी तक की वैज्ञानिक खोजों से ज्ञात हुआ है कि जल का निर्माण धरती पर नहीं हुआ है, बल्कि यह धूमकेतु आदि बाहरी अंतरिक्षीय पिंडों से आया है। प्राचीन लोगों को भी यह अंदेशा था क्योंकि उन्हें धरती पर कहीं पर भी जल का निर्माण होते नहीं दिखता था। एक ही जल बर्फ, भाप, बादल आदि के रूप में रूप बदलता रहता था। इसीलिए इसे ज्यादा दैवीय माना गया होगा।

पापों का बोझ सबसे ज्यादा शरीर पर पड़ता है, जो शरीर को संचालित करते हैं। शरीर व्रतों, तीर्थों, योग व अन्य आध्यात्मिक साधनाओं से उन पापों से आदमी को बचाता रहता है। शायद इन्हीं से शायद इन्हीं से कथा में 11 वर्ष लिया गया है, क्योंकि हिंदु धर्म में अधिकांश चीजें व गतिविधियां 11 किस्म की हैं। पर उन पापों की सूक्ष्म छाप शरीर के चक्रों पर जमा होती रहती है। इसीलिए चक्रों की सफाई के लिए सुषुम्ना की शक्ति की जरूरत पड़ती है।

बृहस्पति ग्रह का सिंह राशि में होना बहुत उत्तम योग है। इसमें आदमी हर क्षेत्र में चढ़दी कला में होता है। बृहस्पति का सिंह राशि में होना प्रेम और संबंध में भी प्रगाढ़ रिश्ते बनाने में मदद करता है। सिंह राशि वाले लोग अपने साथी के प्रति अधिकार की भावना रखते हैं, लेकिन उनका प्यार भी निष्ठावान और वफादार होता है। बृहस्पति का सिंह राशि में होना किसी एक योग से अधिक अनेक योगों का कारण है। बृहस्पति सबसे शुभ ग्रह माने जाते हैं, जो धर्म, ज्ञान, भाग्य, धन, विवाह, संतान, शिक्षा, व्यवसाय, राजनीति आदि के क्षेत्र में शुभ फल देते हैं। सिंह राशि भी बृहस्पति की उच्च राशि है, जो राजसी, सूर्यमय, तेजस्वी, गर्वी, नेतृत्वपूर्ण, रचनात्मक और उदार है। इसलिए, बृहस्पति का सिंह राशि में होना इन दोनों के गुणों का सम्मिलन है, जो व्यक्ति को अनेक शुभ फल देता है। दरअसल ऐसे ही चहुंमुखी विकास व अनुकूलता के समय सुषुम्ना जागरण और कुंडलिनी जागरण की सर्वाधिक संभावना होती है। इसीको ऐसा कहा गया है कि देवता ऐसे योग मके समय गंगा के निकट रहेंगे। क्योंकि यह योग दुर्लभ लगता है, इसीलिए इसका 11 साल के बाद आना कहा गया है। क्योंकि कुंडलिनी जागरण के समय एकदम लाभ नहीं मिलता पर धीरे धीरे साधना के साथ वर्षों में मिलता है, जब उसका अंतःकरण काफी साफ हो जाता है।
कथा के शुरु में ऋषि गौतम और अहल्या के द्वारा दस हजार वर्षों की तपस्या करने का क्या मतलब होगा, इसका उत्तर पाठकों के लिए छोड़ता हूं।

कुंडलिनी शक्ति संचरण को ही सभी वेद-पुराणों में हयग्रीव भगवान के रूप में दर्शाया गया है

दोस्तों, बहुत से पुराणों में हयग्रीव की कथा आती है। किसी में हयग्रीव को देवता के अवतार में दिखाया गया है, किसी में राक्षस के रूप में, तो किसी में दोनों ही रूपों में। अन्य मिथक चरित्रों की तरह हयग्रीव भी वेदों से ही लिया गया है। हय का मतलब घोड़ा और ग्रीवा का मतलब गर्दन। जिसका शरीर मनुष्य या देवता का पर गर्दन और सिर घोड़े के हैं, वही हयग्रीव है।

भागवत की एक कथा के अनुसार ब्रह्मा प्रलयकाल शुरु होने पर नींद में जा रहे थे, तो उनके मुंह से जो वेद निकले, उन्हें हयग्रीव राक्षस ने चुरा लिया, जिसे विष्णु ने मछली का रूप लेकर मारा। उन्होंने उससे वेद लेकर ब्रह्मा को लौटा दिए, जो प्रलय के बाद जाग गए थे।

अग्नि पुराण में भी लगभग ऐसा ही आता है कि जब प्रलय के समय विश्व राख बन गया था, तब हयग्रीव दानव वेदों को नष्ट करने लग गया, पर विष्णु ने मछली का रूप लेकर उसे मार दिया।

मत्स्य पुराण में यह आता है कि जब प्रलय से विश्व जल गया था, तब विष्णु ने हयग्रीव का रूप लेकर वेदों को बचाया था।

भागवत की ही एक कथा में आता है कि हयग्रीव बने विष्णु ने दानव मधु और कैटभ को मारकर वेदों को उनसे प्राप्त किया था।

देवीपुराण के अनुसार हयग्रीव राक्षस को देवी से वर मिला कि वह हयग्रीव के द्वारा ही मारा जाएगा, किसी अन्य के द्वारा नहीं। इसलिए विष्णु को उसे मारने के लिए हयग्रीव अवतार में आना पड़ता है।

स्कंद पुराण के अनुसार देवताओं ने यज्ञ शुरु किया और उन्होंने विष्णु का पता लगाया तो वह एक धनुष के साथ कहीं समुद्र के बीच द्वीप आदि पर साधना कर रहे थे। उन्होंने विष्णु को उठाया जिससे धनुष की डोरी का एक सिरा टूटकर विष्णु की गर्दन को काट गया, क्योंकि उसे चींटियों ने खाकर कच्चा किया हुआ था। विश्वकर्मा ने फिर उनको घोड़े का सिर लगा दिया। विष्णु ने खुश होकर उन्हें वेद लाकर दिए जिससे यज्ञ पूर्ण हुआ। फिर दीमकों ने और विश्वकर्मा ने भी यज्ञ में अपना हिस्सा मांगा।

मतलब हयग्रीव कहीं न कहीं तीनों रूपों में है, कहीं दिव्य रूप में, कहीं राक्षसी रूप में तो कहीं एकसाथ दोनों के युग्म रूप में। भागवत पुराण में उसके दोनों रूप हैं, पर हरेक रूप अलग अलग कथाओं में है, दोनों एकसाथ एक ही कथा में नहीं, क्योंकि इस पुराण में विष्णु मुख्य हैं। पर देवीभागवत पुराण में दोनों रूप एक ही कथा में दिखाए गए हैं, क्योंकि उसमें देवी मुख्य है, विष्णु नहीं।

भगवान हयग्रीव की वैदिक मिथक कथा का अध्यात्मवैज्ञानिक विश्लेषण

वैसे मूल संस्कृत में पुराण पढ़कर ही स्थिति ज्यादा स्पष्ट होती है, पर फिर भी कोशिश तो ऐसे भी कर सकते हैं। इतने सारे पुराण तो लाइब्रेरी में ही इकट्ठे मिल सकते हैं। ऑनलाइन भी उपलब्ध नहीं मिले मुझे। घर पर एक शिवपुराण पड़ा है, जिसमें विशेषज्ञता प्राप्त करने को मन करता है, क्योंकि यह मुझे सर्वाधिक प्रिय, सरल व वैज्ञानिक लगता है। हम वैसे भी पार्ट टाइम या अंशकालिक या हॉबी शोधार्थी ही हैं, पूर्णकालिक नहीं। इसलिए शिवपुराण तक ही अपने को सीमित रखना चाहते हैं। वैसे भी सभी पुराणों की कथाओं की थीम एक ही होती है, जो मुख्यतः योग ही है, सिर्फ कथाएं बदलती हैं। हयग्रीव, मत्स्य आदि की अन्य पुराणों की कथाएं तो कई बार प्रसंगवश चल पड़ती हैं। कागज पर छपे शिवपुराण में भी कई बार यह दिक्कत आ जाती है कि कुछ भी ढूंढने में समय अधिक लगता है, जबकि ऑनलाइन सर्च तो पलक झपकते ही हो जाती है।संस्कृतबुक्सऑनलाइनडॉटकॉम के नाम से एक साइट मिली पर उसमें जो पीडीएफ बुक्स हैं वे ऐसी हैं कि उनमें कुछ भी सर्च नहीं होता। फिर वैज्ञानिक शोध कैसे होगा। ऐसी सिंगल पीडीएफ की जरूरत है जिसमें कम से कम सारे 18 पुराण शामिल हों, और साथ में सर्च फंक्शन भी हो। अगर मिले तो कृपया बताएं। अगर तो सारे वेद, पुराण, उपनिषद और अन्य सारा संस्कृत साहित्य एक ही पीडीएफ में हो, तब तो महान शोध हो सकता है। मुझे लगता है कि आज की ऑनलाइन संचार सुविधाओं का सदुपयोग इसी में है कि प्राचीन सनातन संस्कृति को पढ़ा जाए और समझा जाए। तकनीक आज की, और संस्कृति पुरानी, यही सर्वोत्तम गठबंधन है। आज की संस्कृति ऐसी है, जिसमें तकनीक के अतिरिक्त ज्यादा कुछ नहीं है। आध्यात्मिक जागृति और मुक्ति, जो मनुष्यमात्र का चरम लक्ष्य है, जिसके लिए पुरानी विशेषकर सनातन संस्कृति पूरी तरह समर्पित रहती थी, उसका आज की संस्कृति में नामोनिशान भी नजर नहीं आता।

प्रलयकाल मतलब जब आदमी के मनरूपी ब्रह्मा का सारा ज्ञानविज्ञान मूलाधार के अंधेरे में डूबा हुआ था, मतलब ब्रह्मा सो गए थे। कई लोग बोलेंगे कि आदमी और उसके अभिव्यक्त मन की उमर तो सौ साल होती है, फिर ब्रह्मा की आयु कई युगों लंबी क्यों बताई जाती है। यह इसलिए क्योंकि मन शरीर से बहुत आगे जा सकता है। जब जीव विकसित होकर आदमी बनता है, तब तक ब्रह्मांड बनने के बाद करोड़ों अरबों साल बीत चुके होते हैं। इसलिए आदमी के मन में उस पूरे समय का प्रभाव जमा होता है, ऐसे भी क्योंकि वह उतना सारा कुछ सोच सकता है और क्रमिक विकास के दौरान डीएनए के जरिए भी। जितना बड़ा दिन होता w, उतनी ही बड़ी रात होती है। जितने समय आदमी जाग कर काम करता है, सोता भी उतने ही समय के लिए है। मतलब कि जितने समय वह ब्रह्मा के रूप में जीवित रहा, मरने के बाद भी वह उतने ही समय उस स्थिति में रहेगा, जो ब्रह्मा की रात और नींद होगी।

घोड़े के शरीर की एक अनौखी विशेषता है कि उसकी पीठ पर केंद्रीय रेखा में ठीक सुषुम्ना नाड़ी के रास्ते के ऊपर विशेष और बड़े बाल होते हैं। गर्दन और सिर में तो ये बड़े सुंदर और आकार में काफी बड़े होते हैं, जिससे घोड़े की झालर जैसी मेन बनती है। इसीलिए हयग्रीव अवतार में सिर्फ घोड़े की गर्दन और सिर लिए गए हैं, बाकि शरीर तो मनुष्य का ही अच्छा है, क्योंकि वही ठीक ढंग से योग कर सकता है। इसका मतलब है कि एक योगी की आकृति हयग्रीव जैसी है। इसी शरीर से शक्ति मूलाधार से सुषुम्ना से होते हुए मस्तिष्क स्थित सहस्रार को चढ़ती है। मस्तिष्क की यही शक्ति सारे ज्ञानविज्ञान का आधार है। स्वाभाविक है कि जिस शरीर से शक्ति ऊपर चढ़ती है, उसी से नीचे भी उतरती है। जिस सीढ़ी से आदमी घर की छत पर चढ़ता है, उतरता भी उसी से है। जब मरते समय आदमी के मस्तिष्क की शक्ति फ्रंट चेनल से होते हुए मूलाधार को नीचे उतरती है, तब कहते हैं कि ब्रह्मा नींद में जा रहा था, और उसी समय उसके मुख से वेद बाहर निकले, क्योंकि फ्रंट चैनल मुख से होकर ही नीचे गुजरता है। उन वेदों को लेकर हयग्रीव दानव समुद्र में छिप गया। जब उस व्यक्ति का पुनर्जन्म होता है, और उसे अपने मस्तिष्क में शक्ति और चेतना का आभास होता है, क्योंकि फिर शक्ति मूलाधार से मस्तिष्क की ओर ऊपर चढ़ रही होती है। इस बात का प्रमाण है, बच्चे के मातापिता द्वारा किए जाने वाले परस्पर प्रेम प्रसंग का बहुत बढ़ना और गहरा हो जाना। उनका मस्तिष्क उनके हयग्रीव जैसे शरीर के माध्यम से मूलाधार से शक्ति प्राप्त कर रहा होता है। वही शक्ति अत्यधिक निकटता और प्रेम के कारण उनके बच्चे को भी संप्रेषित हो रही होती है, जिससे वह तेजी से विकास करता है। मां बाप भी बच्चे के शरीर को प्यार से सहला कर और उसकी अच्छे से मालिश वगैरह कर के उसकी शक्ति को भी उसके हयग्रीव जैसे शरीर में मूलाधार से ऊपर उठाते रहते हैं। इसीको ऐसा कहा जाता है कि ब्रह्मा नींद से जाग गया है, और भगवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर दैत्य हयग्रीव को मारकर उससे वेद छुड़ा कर ब्रह्मा को वापिस कर दिए हैं।

कई स्थानों पर विष्णु की नाभि के कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति बताई है। यहां विष्णु हयग्रीव के रूप में ब्रह्मा के जागने में मदद करता है। बात एक ही है, सिर्फ शब्दों का फर्क है। उत्पत्ति उसी की कही जा सकती है जो जागा हुआ हो। सोए हुए की या ज्ञानविज्ञान से शून्य व्यक्ति की कैसी उत्पत्ति। मतलब यहां भी ब्रह्मा को विष्णु ही उत्पन्न कर रहा है। पहले मामले में समुद्र में शेषनाग पर लेटे विष्णु हैं, दूसरे में समुद्र में वेद ढूंढते विष्णु। पहले मामले में भी विष्णु अपने शरीर के विकास से ब्रह्मा को निर्मित करता है, दूसरे मामले में भी ऐसा ही होता है। परस्पर प्रेम से मां बाप के मस्तिष्क में जो चेतना का कमल खिलता है, वह भी ब्रह्मा का नींद से जागना ही है। इसे ही ब्रह्मा का जन्म भी कह सकते हैं, क्योंकि सोए हुए का कैसा जन्म। जैसे उनके मस्तिष्क में ब्रह्मा का जन्म होता है, वैसे ही उनके गर्भ में पलने वाले संभावित बच्चे में भी हो सकता है। मूलाधार में सोई हुई कुंडलिनी भी एक प्रकार से प्रलयार्णव में सोया हुआ ब्रह्मा ही है। जब हयग्रीव रूपी विष्णु या योगी उसे ऊपर उठाता है, तो वह सहस्रार में जागने लगता है, और सृष्टिनिर्माण की प्रक्रिया शुरु करता है। पूर्ण जागृति अर्थात कुंडलिनी जागरण को सृष्टि निर्माण की पूर्णता समझना चाहिए। यह तो ब्रह्मा के सोने और जागने की शास्त्रों की बात रही। पर शास्त्रों में यह भी आता है कि ब्रह्मा सृष्टि पूरी होने पर खुद ही मुक्त हो जाता है। आदमी भी तो ऐसा ही होता है। जिसको जागृति रूपी पूर्णता नहीं मिली, वह सोकर या मरकर फिर जागता या जन्म लेता है, पर जिसको मिल गई, वह अपना जीवन पूरा होने पर मुक्त हो जाता है।

अब थोड़ा इसको और समझते हैं कि दैत्य हयग्रीव वेदों को चुराकर ब्रह्मा को केसे चेतनाशून्य बना कर रखता है। यह तो पता ही है कि मस्तिष्क की ऊर्जा फ्रंट चैनल से होकर मूलाधार को जाती है। फ्रंट चैनल को दैत्य हयग्रीव मान लो, और बैक चैनल को भगवान हयग्रीव, क्योंकि दोनों में केंद्रीय रेखा से होकर ही ऊर्जा का सर्वाधिक गमन होता है। अगर भगवान हयग्रीव नहीं होगा, तो वेदरूपी सारी ऊर्जा मूलाधार रूपी समुद्र में ही इकट्ठी दबी रह जाएगी।

शक्ति का ऐसा ऊपर नीचे का गमन सभी में होता है, पर क्योंकि योगियों को ही इसका साक्षात व स्पष्ट अनुभव होता है, इसीलिए योग की चीजों को इससे जोड़ा गया है।

मछली, शेषनाग, हयग्रीव आदि के रूप आपस में दार्शनिक रूप से जुड़े हुए हैं, इसलिए कुछ भी बोल सकते हैं। प्रलय के समय कहीं विश्व को जली हुई राख की ढेरी, तो कहीं समुद्र में निमग्न बताया जाता है। दोनों ही मूलाधार के अंधेरे और अभाव को इंगित करते हैं।

एक कथा के अनुसार हयग्रीव ने मारा, और मछली ने बचाया, इसको समझते हैं। यह तो मुझे तांत्रिक मामला लगता है मत्स्य पुराण की तरह। कुंडलिनी चित्र रूपी छोटी सी संवेदनात्मक मछली कैसे विशाल मत्स्य बन कर कर्मबंधन में फंसे जीवों को सृष्टिसुख और जागृति प्रदान करती है।

मुझे लगता है कि मधु कैटभ इड़ा पिंगला के प्रतीक हैं। ये नाड़ियां शरीर के बाएं और दाएं भाग को कवर करती हैं। इससे शरीर बहिर्मुख सा रहता है, जिससे आदमी अध्यात्म से दूर सा हो जाता है। रहती तो उर्जा शरीर में ही, और शरीर भी स्वस्थ रहता है, पर यह केंद्रीय लूप या छल्ले में नहीं घूम पाती, जिससे सहस्रार में ऊर्जा की कमी हो जाती है। सहस्रार ही अध्यात्म का सर्वप्रमुख चक्र है। सहस्रार में जो ज्ञान है, वह संपूर्ण सृष्टि रूप ही है, क्योंकि इसमें संसार का ज्ञानविज्ञान अद्वैत के साथ होता है, और सृष्टि भी अद्वैतरूप ही है। हयग्रीव के ध्यान से ऊर्जा केंद्रीय छल्ले में आ जाती है, मतलब मधु कैटभ मर जाते हैं, और सृष्टि का सही वर्णन करने वाले वेद क्रियाशील हो जाते हैं। वैसे भी जब दिमाग का कोई फालतु विचार परेशान कर रहा हो तो हयग्रीव के ध्यान से वह गायब होकर उसकी जगह कुंडलिनी चित्र आ जाता है। घोड़ा दिमाग की कम और दिल की ज्यादा सुनता है। गधा तो एक कदम बढ़ कर लगता इस मामले में, तभी तो वह माता शीतला देवी और कालरात्रि देवी की सवारी है। हो सकता है, दोनों देवियों के नाम या चेहरे विशेष पर ज्यादा ध्यान न जाए, इसीलिए गधे को इनके साथ रखा गया है। इसका मतलब है कि अगर अगर चेहरे के रूप सौंदर्य आदि की चिंता हो रही हो, तो हयग्रीव का ध्यान करने से वह खत्म और कुंडलिनी प्रकट हो जाती है।

धनुष का लकड़ी का लहरदार आधार आदमी की लहरदार रीढ़ की हड्डी का बैक चेनल है, और उसमें बंधी डोरी शरीर के आगे का सीधा फ्रंट चैनल है। इसीको ऐसा कहा है कि विष्णु धनुष के साथ साधना कर रहे थे, क्योंकि योग इन्हीं दो मुख्य चैनलों की सहायता से होता है। दिमाग के फालतु पर चिपकू विचारों के कारण उसकी ऊर्जा मस्तिष्क से नीचे नहीं जा रही थी। इन्हीं विचारों को दीमक कहा है, क्योंकि ये आदमी की उम्र को लकड़ी की तरह खाते रहते हैं। इस से उनका फ्रंट चैनल पहले से ही कमजोर था, जब उन्हें देवताओं ने योग से उठाया तो वह बिल्कुल ही टूट गया, मतलब गर्दन कट गई, क्योंकि चैनल को ही गर्दन कहा है। फिर घोड़े का सिर इसीलिए लगाया ताकि फ्रंट चैनल सबसे अच्छा चले। इससे भगवान हयग्रीव बने। इससे जब ऊर्जा लूप पूर्ण हो गया, तो स्वाभाविक है कि सहस्रार में सृष्टिरूपी वेदों की पुनर्स्थापना हो गई। इससे देवताओं का यज्ञ पूर्ण हुआ। यज्ञ होता ही सृष्टि के कल्याण के लिए है। अद्वैत के साथ दुनियादारी, इससे बढ़कर सृष्टि का क्या कल्याण हो सकता है। विष्णु को यज्ञपति इसीलिए कहते हैं क्योंकि वही मनुष्य रूप में सही वर्ताव से यज्ञ को पूर्ण कर सकता है। अन्य देवता तो गुलाम नौकरों की तरह हैं, जो जीवात्मा रूपी विष्णु के शरीर मतलब यज्ञस्थली के सेवाकार्य में लगे रहते हैं। जीवन व्यवहार का अंतिम फैंसला तो जीवात्मा ने ही लेना होता है। इसीलिए यज्ञ के फल का सबसे बड़ा भाग विष्णु को ही मिलता है। हयग्रीव ध्यान से मणिपुर चक्र पर अच्छा ध्यान लगता है, और मणिपुर चक्र को यज्ञस्थल भी कहा जाता है, जहां भोजन रूपी आहुति हर समय शरीरस्थ सभी देवताओं की तृप्ति के लिए जठराग्नि रूपी अग्नि देवता के माध्यम से दी जाती रहती है, पर यज्ञ तो यज्ञपुरुष विष्णु, राम या आदर्श मनुष्य की भागीदारी से ही पूर्ण होता है।

कुंडलिनी शक्ति ही जल और इष्ट ध्यान ही मछली है, जो प्रलय से सृष्टि को बचाने में जागृत मनु भगवान की मदद करते हैं, जैसा की मत्स्य पुराण की मिथक कथा में वर्णित है

दोस्तो, मत्स्यपुराण की मूल व मुख्य कथा में आता है कि पूर्वकाल में आत्मज्ञानी सूर्यपुत्र महाराज वैवस्वत मनु ने पुत्र को राज्य सौंप कर मलयाचल के एक भाग में घोर तप किया। उससे उन्हें उत्तम योग की प्राप्ति हुई। उनके तप करते हुए करोड़ों वर्ष बीतने पर ब्रह्मा ने प्रकट होकर वर मांगने को कहा। इस पर मनु ने यह वर मांगा कि वह प्रलय होने पर सभी जीवों की रक्षा करने में स्मर्थ हो जाए। ब्रह्मा ने यह वर दे दिया। एकबार आश्रम में पितृ तर्पण करते हुए मनु को हथेली पर जल के साथ ही एक मछली आ गिरी। उसे उन्होंने दयावश कमंडलु में डाल दिया। एक ही दिनरात में वह सोलह अंगुल बड़ी हो गई और रक्षा कीजिए रक्षा कीजिए कहने लगी। तब राजा ने उसे मिट्टी के घड़े में डाल दिया। वहां भी वह मत्स्य एक ही रात में तीन हाथ बढ़ गया। फिर वह ऐसा ही कहने लगा कि वह उनकी शरण में है, रक्षा करें। तब मनु ने उस मत्स्य को कुएं में रखा। वहां वह फिर से एक योजन बड़ा हो गया। और वही कहने लगा। तब मनु ने उसे गंगा में छोड़ा। जब वह वहां भी विशाल हो गया तो मनु ने उसे समुद्र में डाल दिया। मनु ने डर के पूछा कि क्या वह कोई असुरराज या भगवान हैं। तब मत्स्य रूप में भगवान ठीक है, ऐसा कहते हुए बोले कि उसने उन्हें पहचान लिया है। भगवान बोले, “राजन, थोड़े समय में पर्वत, वन और काननों सहित यह पृथ्वी जल में निमग्न हो जाएगी। इसलिए सभी जीवों की रक्षा के लिए देवताओं ने इस नौका का निर्माण किया है। सभी जीवों को इस पर चढ़ाकर तुम इसकी रक्षा करना। जब युगांत वायु से आहत होकर यह नौका डगमगाने लगेगी, उस समय तुम उसे मेरे सींग में बांध देना। फिर प्रलय की समाप्ति में तुम जगत के सभी प्राणियों के प्रजापति होओगे। इस प्रकार कृतयुग के प्रारंभ में सर्वज्ञ और धैर्यशाली नरेश के रूप में तुम मन्वंतर के अधिपति होओगे। उस समय देवगण तुम्हारी पूजा करेंगे। फिर मनु ने कुछ प्रश्न किए जिसका जवाब मधुसूदन ने निम्न प्रकार से दिया। आज से लेकर सौ वर्ष तक इस भूतल पर वृष्टि नहीं होगी। इससे भयंकर दुर्भिक्ष पड़ेगा। फिर उस युगांतक प्रलय के उपस्थित होने पर तपे हुए अंगार की वर्षा करने वाली सूर्य की सात भयंकर किरणें सभी जीवों को संतप्त करने लगेंगी। बड़वानल भी बहुत भयानक रूप ले लेगा। पाताल लोक से ऊपर उठकर संकर्षण के मुख से निकली हुई विषाग्नि तथा भगवान रुद्र के ललाट से उत्पन्न तीसरे नेत्र की अग्नि भी तीनों लोकों को भस्म करती हुई भभक उठेगी। इस तरह जब सारी धरती जलकर राख का ढेर बन जाएगी और गगनमंडल ऊष्मा से संतप्त हो उठेगा, तब देवताओें और नक्षत्रों सहित सारा जगत नष्ट हो जाएगा। उस समय सात प्रकार के मेघ अग्नि के प्रस्वेद से उत्पन्न हुए जल की घोर वृष्टि से धरती को डुबो देंगे। तब सातों समुद्र क्षुब्ध होकर एकमेक हो जाएंगे, और तीनों लोकों को एकार्णव में परिवर्तित कर देंगे। उस समय तुम इस वेदरूपी नौका को ग्रहण करके इस पर सभी जीवों और बीजों को लाद देना तथा मेरे सींग में बांध देना। ऐसे में जब सारा देवसमूह भी भस्म हो जाएगा, तब भी तुम मेरी शक्ति से जिंदा रहोगे। इस आंतर प्रलय में सोम, सूर्य, मैं, चारों लोकों सहित ब्रह्मा, नर्मदा नदी, महर्षि मार्कंडेय, शंकर, चारों वेद, विद्याओं द्वारा घिरे हुए पुराण और तुम्हारे साथ यह विश्व (नौकारूप), ये ही बचे रहेंगे। चाक्षुष मन्वंतर के प्रलय काल में जब इसी प्रकार सारी पृथ्वी एकार्णव में निमग्न हो जाएगी और तुम्हारे द्वारा सृष्टि का प्रारंभ होगा, तब मैं वेदों का पुनः उद्धार करूंगा। ऐसा कह कर मत्स्य भगवान अंतर्धान हो गए।

मत्स्य पुराण के मुख्य मिथक कथानक का पर्दाफाश

सूर्यपुत्र आत्मा को कहा गया होगा, क्योंकि प्रकाशमान सूर्य को अक्सर साक्षात परमात्मस्वरूप कहा जाता है। मनु मतलब एक मनुष्य। मलयाचल मतलब सफेद चंदन का वृक्ष। करोड़ों वर्ष बीत गए तप करते हुए मतलब मनुष्य साधारण जीव से करोड़ों वर्षों के दौरान विकसित हो कर बना है। ब्रह्मा का वर देना मतलब कुदरती तौर पर उस काबिल होना क्योंकि कुदरत में सबकुछ ब्रह्मा ही करता है। प्रलय होने मतलब आदमी के मरने पर वह सभी जीवों की रक्षा करने में मतलब प्रजनन से नए आदमी पैदा करने में समर्थ हो जाए। मछली शक्ति को कहा है। उसे इसलिए भगवान कहा गया है क्योंकि शिव और शक्ति में तत्त्वतः कोई अंतर नहीं है। वह वही कुंडलिनी शक्ति है जो मूलाधार से ऊपर चढ़कर तेजी से बढ़ते हुए उस शेषनाग का रूप ले लेती है, जो पूरे शरीररूपी महासागर में व्याप्त हो जाता है। नौका शायद प्रजनन इंद्रिय को कहा है। क्योंकि देवताओं ने ही शरीर के सभी अंगों का निर्माण किया है। वह युगांतक वायु मतलब प्राणवायु से डगमगाने मतलब क्रियाशील हो जाएगी। उसे मछली के सींग से मतलब मछली की तरह मुंह वाले अंग से के अगले भाग में बांधा। प्रलय की समाप्ति पर मतलब बच्चे के जन्म पर सभी प्राणियों के पिता हो जाओगे, क्योंकि सभी प्राणियों सहित संपूर्ण सृष्टि आदमी के मन में ही है। मन्वंतर मतलब मनुष्य का अंतर। एक मनुष्य के मरने के बाद जब उसका दूसरा मनुष्य जन्म हुआ तो वही मन्वंतर हुआ। वह दूसरा जन्म कृतयुग या सतयुग है, क्योंकि एक मनुष्य जन्म में बिगड़ा मनुष्य अपने अगले जन्म में अक्सर सुधर जाता है। युगों का चक्र जैसे बाहर घूमता है, वैसे ही भीतर भी। मन्वंतर के अधिपति मतलब पिता। सर्वज्ञ इसलिए क्योंकि उसे उस नए मनुष्य के पिछले जन्म के बारे में सब ज्ञात है, बेशक सूक्ष्म या अवचेतन रूप में। धैर्यशाली इसलिए क्योंकि नई सृष्टि की उत्पत्ति मतलब नए मनुष्य के विकास में बहुत समय लगा, जिसका मनु ने बखूबी इंतजार किया। देवगण पूजा करते हैं पिता की। पुत्र का शरीर देवताओं से बना हुआ होता है। पुत्र पिता की सेवा या पूजा करेगा, मतलब देवगण पूजा करेंगे। सौ वर्ष ही मनुष्य का जीवनकाल होता है। उस दौरान उसके मन में जो सृष्टि होती है, वह बिना वर्षा के होती है, क्योंकि वर्षा स्थूल जगत में होती है, मस्तिष्क में उसके सूक्ष्म रूप में नहीं। इसी को दुर्भिक्ष कहा है। फिर सौ साल की उम्र पूरी होने पर आदमी की मृत्यु के रूप में प्रलय का वर्णन है। शरीर का ज्वर सात प्रकार का होता है। इसे ही सूर्य की सात किस्मों की किरणें कहा गया है। बड़वानल मतलब समुद्र में अग्नि। शास्त्रों में मूलाधार को समुद्र की उपमा दी गई है। उसमें आग मतलब उसमें शिवशक्ति का ध्यान, जैसा रावण ने किया था। बड़वानल को शास्त्रों में घोड़े का रूप दिया गया है। घोड़े की आकृति कुछकुछ ड्रेगन से मिलती जुलती है। इसका मतलब कि कुंडलिनी शक्ति ही बड़वानल है, जो अश्व जैसी आकृति की नाड़ी से होकर ऊपर चढ़ती है। इसीलिए बड़वानल का शत्रु पर अस्त्र की तरह प्रयोग भी दिखाया जाता है। शक्ति ही अस्त्र की तरह होती है। वैसे भी घोड़े पीठ में सुषुम्ना नाड़ी के ठीक ऊपर शरीर की केंद्रीय रेखा में पीठ पर पूंछ से सिर, यहां तक कि कुछेक जातियों में भ्रूमध्य बिंदु तक विशेष बाल होते हैं। शायद इसीलिए घोड़े में तेज दिमाग होता है। आपातकाल में या मुसीबत में शरीर को शक्ति देने के लिए मूलाधार सक्रिय होने लगता है। मरते हुए आदमी की सांसें तेज और गहरी हो जाती हैं। उन सांसों के बल से मूलाधार की शक्ति भी तेजी से ऊपर चढ़ने लगती है, और सुषुम्ना नाड़ी से होकर ऊपर उठकर पूरे मस्तिष्क में फैलकर शेषनाग अर्थात संकर्षण का रूप ले लेती हैं। मुंह से बाहर निकलती हवा ही उसकी विषाग्नि है। विष इसलिए कहा है क्योंकि प्राचीन लोगों को पता था कि अगर बाहर की ताजा हवा न मिले तो अपनी ही छोड़ी हवा में सांस लेने से दम घुटने से मौत हो जाती है। जब शक्ति ऊपर चढ़ेगी तो स्वाभाविक है कि वह आज्ञा चक्र पर कांसेंट्रेट हो जाएगी। यही अग्नि उगलता शिव का तीसरा नेत्र है। क्योंकि इन दोनों किस्म की घटनाओं के बाद मृत्यु हो जाती है, इसलिए कहा गया है कि इससे शरीर जलकर राख बन जाएगा। वैसे भी मृत शरीर को जलाते ही हैं। ज्वर के बाद पसीना अर्थात प्रस्वेद पड़ता है। सात प्रकार के ज्वर से सात प्रकार का पसीना हुआ। उन्हें ही सात किस्म के समुद्र कहा गया है। सब समुद्र इकट्ठे हो गए मतलब अंत में शरीर पूरी तरह से ठंडा पड़ जाता है। मन समेत पूरा शरीर समुद्र मतलब मूलाधार में सूक्ष्मरूप में समा जाता है। मतलब कोई आदमी मर गया। मृत व्यक्ति का अपना सारा संसार सूक्ष्मरूप में रूपांतरित होकर होने वाले पिता मतलब मनु के मूलाधार में स्थित हो जाता है। श्य मतलब शयन करने वाला। मनु के मूलाधार में शयन करने वाला प्राणी ही मनुष्य हुआ। उसी मूलाधार रूपी समुद्र में एक इंद्रिय रूपी नौका स्थित होती है। उसी नौका पर वह सूक्ष्म रूप में स्थित मृत व्यक्ति को जीवों और बीजों मतलब वीर्य के रूप में चढ़ाता है। बीज भी जीव ही है। मछली आदि की आगे की कहानी तो खुद ही समझ में आ जाती है। क्योंकि शरीर नष्ट हो गया, इसलिए देवता भी नष्ट हो गए। मृत व्यक्ति के सांस न लेने से वायुदेव नष्ट हो गए, गर्मी न पैदा करने से अग्नि देवता नष्ट हो गए, और रक्तसंचार न करने से जल देवता। ये तीन मुख्य देवता हैं। अन्य भी विभिन्न अंगों से संबंधित सभी देवता नष्ट हो गए। कुछ शाश्वत चीजें जैसे सोम, सूर्य, और मैं (ईश्वर रूपी मत्स्य), मार्केंडेय, नर्मदा आदि बताई हैं। शायद ये ऐसी चीजें हैं जो परमात्मा के सनातन स्वरूप से जुड़ी हुई हैं। सोम मतलब मन संघात, सूर्य मतलब आत्मा आदि। सूक्ष्म शरीर में तो वैसे सबकुछ ही होता है, पर इसे सूक्ष्म विश्व के रूप में बताया गया है संक्षेप में। सूक्ष्म शरीर विश्वरूप ही होता है, क्योंकि यही इंद्रियों से शरीर में घुसकर दबकर सूक्ष्म हो जाता है। शरीर को हम विश्व को दबाने वाली मशीन कह सकते हैं। विस्तार से कहें तो सूक्ष्म शरीर में आत्मा, बुद्धि, मन, इंद्रियां आदि बताई गई हैं, पर यह केवल दार्शनिक विस्तार है, क्योंकि ये सभी चीजें विश्व के अंतर्गत ही आती हैं। जब मनु के द्वारा सृष्टि रूपी गर्भ स्थापित कर दिया जाएगा, तब भगवान हयग्रीव बन कर वेदों को राक्षस से छुड़ाकर लाएंगे, जिसे अगली पोस्ट में बताएंगे। इस तरह जब मत्स्य भगवान नौका को महासागर में खींच रहे थे, उस समय वे मनु को ज्ञान विज्ञान की बातें बता रहे थे, जिनसे मत्स्य पुराण बन गया। वैसे तथाकथित मत्स्य की क्रियाशीलता से शक्ति खुद ही सुषुम्ना में क्रियाशील रहती है जो नए नए ज्ञानविज्ञान के अनुभव प्रदान करती रहती है। जैसे सृष्टि का हरेक कण भगवत रूप है, वैसे ही शरीर का हरेक अंग और कण भी है।

क्योंकि तप और योगसाधना से ही शक्ति तेजी से ऊपर चढ़ती है, इसीलिए जल तर्पण करते हुऐ ऋषि के हाथ में आई। तर्पण में एक पवित्र तांबे के चम्मच से जल हाथ पर गिराया जाता है। मछली हाथ में मतलब शक्ति अनाहत पर महसूस होती है, क्योंकि तर्पण के समय दिल से दृढ़ भावना की जाती है। शक्ति को इंद्रियां दुनिया में उलझा कर एक प्रकार से खा जाती हैं। यही मछली का हिंसक जलचरों से डरना और मनु से सुरक्षा मांगना है। इससे मनु ने एनर्जी कल्टीवेशन का अभ्यास शुरु किया। वह शक्ति जब बढ़ी तो नाभि चक्र रूपी कमंडलु को उतरी। और बढ़ने पर वह मूलाधार रूपी कुएं को उतरी। वहां बढ़ने पर वह बैक चैनल यानि सुषुम्ना मतलब गंगा से ऊपर चढ़ी। इस प्रकार वह फन ऊपर को उठाए शेषनाग की तरह विस्तृत हो गई। उसे फिर आगे के चेनल से नीचे मूलाधार रूपी समुद्र को उतारा गया। मतलब विशाल मत्स्य को समुद्र में छोड़ दिया गया।

मुझे लगता है कि कुंडलिनी जागरण को ही रूपक के तौर पर देवदर्शन के रूप में दिखाया जाता है। जिस बात को मन में लेकर आदमी कुंडलिनी साधना में लगता है, वह जागृति मिलने पर पूरी हो जाती होगी। इसी को रूपक के तौर पर ऐसा कहा गया है कि देवता ने प्रकट होकर वरदान दिया। योग के अनुसार शुद्ध वैज्ञानिक और सैद्धांतिक कुंडलिनी जागरण तो ऐसा होता है कि आदमी मानसिक ध्यान चित्र के साथ एकाकार होकर और पूरा खुलकर अनंत रूप हो जाता है, उस चित्र से कोई बात वगैरह नहीं होती। ऋषिमुनि मन में अच्छा ध्येय रखकर साधना करते थे, पर राक्षस बुरा ध्येय रखकर। मनु के मन में सृष्टि रक्षा का ध्येय था, जैसा हरेक पिता के मन में होता है। पर रावण के मन में सारी दुनिया को पराजित करने का ध्येय था। इसलिए उनके मुंह से वैसे ही वरदान की मांग निकली। मनु को कुंडलिनी जागरण ही हुआ था, जब उसने कई करोड़ योजन विस्तार के आकार वाले मत्स्य को देखा। एक करोड़ योजन लगभग 13 करोड़ किलोमीटर के बराबर होता है, जो लगभग पृथ्वी से सूर्य की दूरी है। ऐसे कई दूरियों के विस्तार वाले मत्स्य को देखना कुंडलिनी जागरण के इलावा अन्य कुछ नहीं लगता। मत्स्य इतना फैल गया मतलब नाग के आकार वाली शक्ति सहस्रार से होकर पूरे ब्रह्मांड में फैल गई। शक्ति शिव के साथ एक हो गई। क्योंकि किसी ध्यान चित्र के बिना ही मनु की शक्ति जागृत होकर अनंत में फैल गई, इसीलिए शिव, विष्णु, गणेश आदि किसी देवता से मनु को वरदान मांगते नहीं दिखाया गया है, पर सीधे ही मत्स्य के रूपक में ढाली शक्ति से मांगते या उससे मदद लेते दिखाया गया है। इसका मतलब है कि मत्स्य पुराण अन्य पुराणों से काफी पुराना हो सकता है। उस समय शायद ध्यान चित्र के लाभों की खोज नहीं हुई थी, और लोग सीधे ही आध्यात्मिक कार्य किया करते थे। ध्यान चित्र तो वैसे अध्यात्म से खुद ही बनता है, पर शायद उसे जागृत करने लायक विशेष बल नहीं देते थे, क्योंकि इसके वैज्ञानिक सिद्धांत का पता न होने से इस पर पूरा विश्वास नहीं था। जिस जल से भरे गढ्ढे की गहराई का पता न हो, आदमी उस पर अपनी कार नहीं ले जाता। इससे लंबे समय से इकट्ठी हो रही आध्यात्मिक ऊर्जा खुद ही अचानक से आश्चर्य जागृति की झलक के रूप में महसूस हो जाती थी। पतंजलि का वैज्ञनिक अष्टांग योग बाद में लिखा गया होगा, जिससे ध्यान चित्र के महत्त्व का और उससे शीघ्रता से जागृति के बारे में पता चला होगा। इसीलिए पुराणों में हर जगह ध्यान और ध्यान चित्र का बोलबाला है। इसी के आधार पर बाद में रामायण भी लिखी गई, जिसमें ऋषि राम को ध्यान चित्र बना कर लंका रूपी मूलाधार में भेजा जाता है, जहां से वह सीता रूपी सोई हुई कुंडलिनी शक्ति को सुषुम्ना रूपी पुष्पक विमान से उठाकर सहस्रार रूपी अयोध्या में लाकर जागृत कर देते हैं।

यह भी हो सकता है कि जागृति के बाद रूपांतरण को ही प्रलय के बाद नई सृष्टि पैदा होना दिखाया गया हो। जागृति को वैसे भी नया जन्म ही कहते हैं। इसीलिए तो मनु उस प्रलय में मरता नहीं है। मस्तिष्क में पुराना सबकुछ खत्म हो जाता है, पर उसका सूक्ष्म बीज रहता है, तभी तो वह नए रूप में फिर से जन्म ले लेता है। इसका मतलब है कि जैसे पुरानी सृष्टि समय के साथ विकृत और दुख से भरी हो गई थी, उसी तरह नई भी हो सकती है। इसीलिए तो जागृति के बाद भी संभल के रहना पड़ता है और निरंतर योगसाधना करते रहना पड़ता है ताकि नई सृष्टि विकृत होने से बची रहे। मत्स्य रूपी शक्ति उसके रूपांतरण में मदद करती है। रूपांतरण के दौरान आदमी नई नई और अच्छी चीजें सीखता है, इसे ही मत्स्य भगवान द्वारा मनु को मत्स्य पुराण सुनाना कहा गया है। दोनों किस्म के विश्लेषण भी सही हो सकते हैं, क्योंकि पुराणों की कथाएं अक्सर बहुअर्थी होती हैं।

मलय सफेद चंदन को कहते हैं। मलयाचल मतलब सफेद चंदन के वृक्षों से भरा पर्वत। यह मस्तिष्क ही लगता है। इसी में प्रकाशमान और आनन्दमय संकल्प चित्र उभरते हैं। ध्यान मास्तिष्क में ही होता है। मछली ध्यानचित्र का प्रतीक भी हो सकता है। संकल्प जल का गिराना कुंडलिनी शक्ति का माइक्रोकॉस्मिक ऑर्बिट में घूमने का प्रतीक है। इसलिए शक्ति के घूमने से एक ध्यान चित्र खुद ही मनु की पकड़ में आ गया, मतलब हाथ में आ गया। बोलते भी हैं कि फलां चीज या मछली उसके हाथ लग गई या उसके जाल में फंस गई। पुराण आम बोलचाल के शब्दों का ही ज्यादा प्रयोग करते हैं। ध्यानचित्र रूपी मछली शक्ति रूपी जल में ही जीवित रहती है। वह ध्यानचित्र तांत्रिक साधना से बहुत तेजी से बढ़ता है। हाथ अनाहत चक्र से जुड़ा होता है। यह चक्र दिल का और भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है। जिस प्रेम से कुंडलिनी योग का प्रारंभ होता है, वह हृदय में ही उपजता है। इसी प्रेम मिश्रित दयाभाव से उसने दिल में महसूस हुए मछली रूपी इष्टचित्र को संभाल कर कमण्डलु मतलब उससे निचले चक्र मणिपुर चक्र को उतार दिया। जब दिल में ध्यान मजबूत हो जाता है, तब वह खुद ही नाभि को उतरता है। कहते भी हैं कि प्यार के बाद भूख लगती है। नाभि का आकार भी कमण्डलु मतलब पूजा के पवित्र लोटे की तरह टेढ़े मेढ़े गड्ढे के जैसा होता है। संसारसागर में भौतिक दोष रूपी बड़े बड़े मांसाहारी मतलब दुखदायी मच्छ होते हैं, जिनसे उसे बचाना पड़ता है। प्रेम से उसका ध्यान जारी रखने से वह तेजी से बढ़ता ही गया। इससे वह खुद ही घड़ा रूपी स्वाधिष्ठान चक्र को उतर गया। वैसे भी इस चक्र को बैगेज मतलब बैग या घड़े जितने आकार का कंटेनर ऑफ इमोशंस कहते हैं। वहां भी वह मनु के प्रेम से बढ़ता गया, इससे वह मूलाधार रूपी कुएं को उतर गया। सबसे बड़ा गड्ढा मूलाधार ही है, और कुएं से बड़ा गड्ढा क्या हो सकता है। वहां से वह मनु की योगसाधना से बढ़कर सुषुम्ना से होते हुए वह कुंडलिनी शक्ति के साथ ऊपर चढ़ गया। इसीको मनु के द्वारा मत्स्य को गंगा में डालना कहा गया है। कथा के शुरु में ही लिखा है कि मनु को तप करते हुए उत्तम योग की प्राप्ति हुई। इससे इशारा मिलता है कि यह कुंडलिनी योग का ही वर्णन हो रहा है, क्योंकि कुंडलिनी योग सभी प्रकार के योगों में सर्वोत्तम है। गंगा से वह मत्स्य समुद्र यानि सहस्रार चक्र को चला गया। कई लोग बोलेंगे कि पहले मूलाधार को समुद्र बोला और अब सहस्रार को बोल रहे हैं। इसमें कोई विरोधाभास नहीं है। दोनों सुषुम्ना नाड़ी से सीधे आपस में जुड़े हुए हैं। मूलाधार और सहस्रार, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सहस्रार पहुंचते ही उसका आकार फन उठाए विशाल नाग की तरह हो गया। मतलब मनु को कुंडलिनी जागरण हुआ, जिससे उसका रूपांतरण शुरु हो गया।