कुण्डलिनी विज्ञान रावण-कथा को कुछ हद तक स्पष्ट कर सकता है

दोस्तो, शिवपुराण में एक कथा आती है कि एक बार रावण नाम का अभिमानी राक्षस कैलाश पर्वत पर शिव की भक्तिपूर्वक अराधना करने लगा। जब उससे शिवजी प्रसन्न नहीं हुए तब उसने दूसरा उपाय किया। वह हिमालय पर्वत के दक्षिण में वृक्षों से भरी भूमि में एक उत्तम गर्त बनाकर उसमें अग्नि स्थापित करके उसके समीप में शिवजी की स्थापना कर हवन करने लगा। वह गर्मी के मौसम में पंचाग्नि के बीच बैठकर, वर्षाकाल में चबूतरे पर बैठकर और शीतकाल में जल के भीतर रहकर, तीन प्रकार से तप करने लगा। इस प्रकार उसने घोर तप किया, तब भी दुष्टात्माओं के लिए दुराराध्य शिव प्रसन्न नहीं हुए। फिर रावण ने अपने सिर काटकर शिव का पूजन प्रारंभ किया। इस प्रकार उसने एक एक करके नौ सिर काट डाले। तब उसका एक सिर रहने पर सदाशिव प्रसन्न होकर उसके सम्मुख प्रकट हुए। शिव ने उसके सिरों को पहले की तरह स्वस्थ करके उसको मनोवांछित फल और अतुल बल प्रदान किया। फिर रावण ने हाथ जोड़कर शिव से कहा,”स्वामी कृपया मेरे साथ लंकापुरी चलिए, मैं आपकी शरण में हूं”। इससे शिवजी ने संकट में पड़कर खिन्न मन से उससे कहा कि बेशक वह उनके श्रेष्ठ शिवलिंग को ले जाए पर वह जहां भी उसे भूमि पर रखेगा वह वहीं स्थापित हो जाएगा। पर रास्ते में रावण को लघुशंका की इच्छा हुई। उसने पास खड़े गोप को उसे पकड़ाया और लघुशंका चला गया। गोप उसके भार को ज्यादा देर नहीं सह सका इसलिए उसे वहीं भूमि पर रख दिया। इस प्रकार वज्रसार से उत्पन्न वह लिंग वहीं स्थित हो गया, जो दर्शनमात्र से पापों को दूर करने वाला और सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। उसका नाम वैद्यनाथेश्वर पड़ा जो भोग और मोक्ष देने वाला है और सभी पापों को नष्ट करने वाला है। रावण फिर घर चला गया। सभी देवताओं ने इकट्ठे होकर उस लिंग की पूजा और स्थापना की। सभी देवता और मुनि चिंता में पड़कर नारद के पास जाकर कहने लगे कि यह दुष्ट रावण पहले ही उन्हे बहुत परेशान करता है, शिव का वरदान पाकर तो वह उन्हें और ज्यादा दुखी करेगा। रावण उनकी सहायता करने के लिए रावण के घर गए और उसकी झूठी प्रशंसा की। नारद के पूछने पर रावण ने शिववरदान वाले सारे घटनाक्रम को गर्व के साथ सुनाया कि कैसे वह शिव को प्रसन्न करने के तरीके की उग्रता बढ़ाता रहा और जब वह अपना दसवां और अंतिम सिर काटने लगा तो शिव ने प्रकट होकर उसे रोका और एक वैद्य की तरह उसके सभी सिर पहले की तरह जोड़ दिए। साथ में उसको अतुल बल का वर भी दिया। रावण ने फिर कहा कि अब वह ज्योतिर्लिंग का पूजन करके तीनों लोकों को जीतने के लिए घर आया है। नारद ने हंसते हुए उससे कहा कि शिव तो विकारी हैं, भांग के नशे में मस्त से रहते हैं, क्या झूठ नहीं कह देते, इसलिए वह उन पर विश्वास न करे। ऐसा कहकर उन्होंने रावण को कैलाश को उखाड़ने के लिए भड़काया और कहा कि उससे शिव के वरदान की परीक्षा हो जाएगी। उसने वैसा ही करते हुए कैलाश पर्वत को अपनी भुजाओं पर उठा लिया। इससे कैलाश पर स्थित सबकुछ हिलने लगा और सभी चीजें आपस में टकराकर गिरने लगीं। शिव ने जब आश्चर्यपूर्वक पार्वती से इस बारे पूछा तो उन्होंने व्यंग्य कसते हुए जवाब दिया कि उनका उत्तम शिष्य रावण ही वह सब कुछ कर रहा था। इससे शिव ने रावण को कृतघ्न और बल से दर्पित समझकर श्राप दिया कि शीघ्र ही उसकी भुजाओं का घमंड दूर करने वाला कोई वहां उत्पन्न होगा। नारद ने शिव का श्राप सुन लिया और रावण भी कैलाश को नीचे रखकर प्रसन्नचित होकर अपने घर चला गया। इस प्रकार शिव के वरदान को सत्य मानकर रावण ने अपने बल से सारे जगत को वश में कर लिया। शिव की आज्ञा से प्राप्त महतेजस्वी दिव्यास्त्र से युक्त उस रावण की बराबरी करने वाला उसका कोई भी शत्रु उस समय नहीं था।

उपरोक्त मिथक का मनोवैज्ञानिक स्पष्टीकरण

रावण का मतलब है, रुलाने वाला। जो आदमी मन के दोषों से भरा हुआ है, वह दुनिया को रुलाता ही है, हंसाता नहीं। मतलब कि वह सबको दुख ही दे सकता है, सुख नहीं। जब लोग उसका प्रतिकार करते हैं, तो वह उनका मुकाबला नहीं कर पाता। इसलिए वह उनसे मुकाबले के लिए शक्ति प्राप्त करने के लिए आम भाषा में टोना टोटका अर्थात मस्तिष्क या सहस्रार में शिव का ध्यान करता है। दोषी लोगों को अक्सर शिव ही पसंद आते हैं, क्योंकि उन्हें शिव भी अपनी तरह दोषों से भरे दिखते हैं। साधारण ध्यान से शिव कहां प्रसन्न होने वाले। शिव तो अपने प्रति संपूर्ण समर्पण मांगते हैं। इसे चाहे शिव की इच्छा समझ लो या जागरण का सिद्धांत कि केवल एकमात्र शिव की छवि को या किसी भी छवि को मन में बसाने से ही वह जागृत होती है अभी रावण के अंदर बहुत से दोषपूर्ण विचार थे, इसीलिए शिव के रूप की छवि पर उसका अच्छे से प्रगाढ़ ध्यान नहीं लग पा रहा था। फिर उसने शिव की प्रेरणा से दूसरा उपाय मतलब वाममार्गी तांत्रिक उपाय किया। दूसरा वही हो सकता है, जो पहले वाले से बिल्कुल अलग हो। पहला यदि शुद्ध वैष्णव था, तो दूसरा अपने आप तांत्रिक सिद्ध हो गया। यह वह दूसरा नहीं है जो संख्या का बोध कराता है, बल्कि वह वाला है जो अन्यत्व या विपरीतत्व का बोध कराता है। हिमालय अगर मस्तिष्क या सहस्रार है और उसे उत्तर में माना जाए, क्योंकि हिमालय की भौगोलिक स्थिति भी भारत के उत्तर में ही है, तो उसका दक्षिण भाग मूलाधार क्षेत्र ही हुआ। उस क्षेत्र में किया गड्ढा ही मूलाधार है। एक विशेष जातिवर्ग का जो गड्ढा नामक शक्तिशाली देवता है, वह शायद मूलाधार की ही शक्ति से बनता है, तभी उसका नाम गड्ढा है। वह जादू टोने, और काले कारनामों के लिए कुख्यात है। कहते हैं कि उससे कोई नहीं, केवल हनुमान ही बचा सकते हैं। शायद हनुमान की सात्त्विक शक्ति उसकी तामसिक शक्ति को हरा देती होगी। उस गड्ढे में रावण ने अग्नि स्थापित की मतलब उसने सांसों के प्राणायाम से अपने प्राणों को वहां केंद्रित किया। उसके समीप शिवजी की स्थापना मतलब वहां शिव की मूर्ति या चित्र का ध्यान किया। हवन मतलब प्राणों की अग्नि में अपने शरीर में जमा ग्लूकोज, वसा आदि जलाने लगा, जिससे शक्ति या ऊर्जा पैदा होती है। शरीर को आपातकाल के समय मूलाधार स्थित कुंडलिनी शक्ति की जरूरत पड़ती है, जिससे वह सक्रिय हो जाती है। इसीलिए गर्मी में पांच किस्म की अग्नि का ताप सहना, वर्षा ऋतु में चबूतरे पर बैठना और शीत ऋतु में पानी के अंदर गले तक डूबकर साधना करना बताया गया है। मूलाधार के सक्रिय होने से ही दुख या कष्ट की घड़ी में प्रेमी प्रेमिका याद आते हैं। इसीलिए प्रेमी जोड़े सुखदुख में और मरते समय भी साथ साथ रहना पसंद करते हैं। अधिकांश धर्मों में इसीलिए तप को और सुखसुविधाओं पे नियंत्रण को महान माना गया है। फिर भी रावण के सामने शिव प्रकट नहीं हुए क्योंकि वह दुष्टात्मा था, और इन्द्रियों के दोषों से भरा हुआ था। अंतःकरण चार प्रकार के सूक्ष्म अंगों से बना है, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। इसी तरह ज्ञानेंद्रियां पांच सूक्ष्म अंगों या तत्त्वों से बनी हैं, आंख, कान, घ्राण, त्वचा और जननेन्द्रिय। इन सभी नौ अंगों को रावण ने बारी बारी से निष्क्रिय कर दिया। इसे ही रावण के द्वारा अपने नौ सिर कटना कहा गया है। क्योंकि हरेक अंग से एक अलग किस्म का ज्ञान प्राप्त होता है, इसलिए हरेक अंग को कथा में एक पृथक सिर माना गया है। जब वह अंतिम दसवां सिर मतलब अपना असली सिर, जिसके सहारे बाकि सभी सिर हैं, को काटने की तैयारी करने लगा तो शिव प्रकट हो गए। इसका मतलब है कि वह साधना करते हुए इतना कमजोर हो गया था कि मरने के करीब था, तभी उसको जागृति मिली। जब आदमी “करो या मरो” वाली स्थिति में होता है, तब उसे सफलता मिलने की अधिकतम संभावना होती है। फिर शिव ने उसके सिर पहले जैसे करके उसे मनोवांछित वर दिए मतलब रावण फिर से दुनियादारी में लौटने के योग्य हो गया। दुनियादारी में सभी इंद्रियों की और अंहकार की भी जरूरत पड़ती है। वैसे भी शायद रावण को जागृति की क्षणिक झलक मात्र मिली थी, इसी वजह से वह एकदम पहले जैसा हो गया। जितना कुछ आदमी चाह सकता है, या पा सकता है, उसकी सर्वोपरि सीमा जागृति ही है। जब जागृति मिल गई तो जैसे सबकुछ मिल गया। यही शिव का उसे मनोवांछित फल और अतुल बल देना है। बल शस्त्रों की और सत्ता की प्राप्ति से पैदा होता है। ये सब भी तो जागृति की प्राप्ति के अंतर्गत ही आते हैं। डरता वह है, जिसे कुछ पाने को शेष बचा हो। शून्य भय मतलब अमित बल, क्योंकि बल होता ही निर्भयता की प्राप्ति के लिए है। रावण मूलाधार में जागृत की हुई शक्ति को अपने पसंदीदा चक्र तक ले जाना चाहता था। इसी को ऐसा कहा गया है कि वह शिवलिंग को अपनी सोने की लंका को ले जाना चाहता था। शायद यह शरीर का कोई विशेष चक्र या बिंदु है, जो हमें ज्ञात नहीं है, और जिसको जागृत करके अतुलनीय राक्षसी बल प्राप्त होता है। इसीलिए शिव दुखी हुए क्योंकि वह उसका दुरुपयोग कर सकता था। गोप कहते हैं ग्वाले को अर्थात गाय चराने वाले को, और गाय कहते हैं इंद्रिय को। रावण उस वीर्य शक्ति को किसी निकट वाले चक्र तक ही ले जा सका था कि वह लघुशंका के लिए चला गया। इससे मूलाधार से संबंधित इंद्रिय शिथिल हो गई, और शक्ति वहीं रह गई, क्योंकि इस इंद्रिय से ही शक्ति को ऊपर चढ़ने का बल मिलता है। जहां बीच में किसी विशेष चक्र पर शक्ति फंसी रह गई वह भी अज्ञात चक्र लगता है। उसे वैद्यनाथेश्वर लिंग नाम दिया गया। कथा में कहा गया है कि वह लिंग वज्रसार से बना हुआ था। यह भी इस ओर इशारा करता है कि वह सबलाइमड या वाष्पित वीर्यशक्ति थी। रीढ़ की हड्डी से वज्र बनता है, इसलिए उसका सार उसमें सुषुम्ना से होकर गुजरने वाली शक्ति ही है, जो जागृति रूपी वज्र प्रहार करके अज्ञान रूपी वृत्रासुर राक्षस को मारती है। वह संवेदना शक्ति मूलाधार में बनती है, जिसको बनाने में वीर्यसार का मुख्य योगदान होता है। क्योंकि शिव ने एक वैद्य की तरह रावण के सभी सिर जोड़ दिए थे, इसीलिए उस लिंग का नाम वैद्यनाथेश्वर पड़ा। सभी देवता इसकी पूजा करने पहुंच गए। इससे एक संकेत मिलता है कि यह लिंग शक्ति चाहे कहीं पर भी हो, पर मस्तिष्क के जीवात्मा के द्वारा अनुभव होने वाले क्षेत्र में नहीं पहुंची थी। केवल इसी क्षेत्र पर जीव का अपना पूरा नियंत्रण होता है, देवताओं का नहीं। मतलब इस क्षेत्र में जीव की इच्छा चलती है। शरीर के अन्य सारे हिस्से देवताओं के नियंत्रण में होते हैं। जैसे कि हम अपनी इच्छा से घूम फिर सकते हैं, सोच सकते हैं, काम कर सकते हैं, पर खाना नहीं पचा सकते, दिल नहीं धड़का सकते, और भी शरीर के अनगिनत काम नहीं कर सकते। शायद यह स्वेच्छा वाला क्षेत्र सहस्रार ही है। अगर शक्ति वहां पहुंच जाती, तो रावण दुनिया का कितना अहित न करता। मन ही नारद मुनि है। रावण के मन को जागृति के बाद अहसास हुआ कि अब वह देवताओं को जी भर कर परेशान कर सकता है। यही देवताओं का नारद मुनि से शिकायत करना है। इससे उत्साहित रावण के मन ने सोचा कि क्यों न वह एकबार फिर सहस्रार में जाकर देख ले कि उसे सच में शक्ति मिली है। वह शिव की भक्ति में डूबा हुआ था और हर चीज में शिव को ही देख रहा था, बेशक स्वार्थ के वशीभूत होकर। अचानक उसके सहस्रार में जाने से उसका वह शिवभक्ति का प्रवाह रुक गया, क्योंकि सहस्रार में अद्वैत का माहौल है, और जहां अद्वैत होता है, वहां भक्ति नहीं होती। भक्ति द्वैत में ही होती है। इसलिए थोड़े समय के लिए शिव की भक्ति से संबंधित सांसारिक वस्तुएं गिर गईं। इसी को ऐसा कहा है कि कैलाश में सबकुछ उलटपुलट हो गया। कैलाश को यहां भक्तिभाव से भरा मस्तिष्क जानना चाहिए और उसको ऊपर उठाने को सहस्रार क्षेत्र। जो ज्यादा ही अद्वैत भाव में रहता है, वह दुनियावी द्वैत से भरा प्रेमपूर्वक भाईचारा नहीं जानता। इससे उसमें अहंकार भी पनप सकता है। इससे स्वाभाविक है कि उसके दुश्मन भी बहुत हो जाते हैं, जिनमें से कोई उसका काल भी बन सकता है। इसी को शिव के द्वारा नाराज होकर शाप देना कहा गया है। इससे देवता खुश हो गए, क्योंकि अगर सभी पूरे अद्वैतवादी बन गए तो उनकी बनाई हुई दुनिया कैसे चल पाएगी। सुना है कि भारत के प्राचीन मंदिरों में और गुफाओं में कामुक चित्र इसलिए बनाए गए थे, क्योंकि अद्वैतवाद की लहर से लोग घरबार छोड़कर जंगल को जा रहे थे। अब पता नहीं यह विश्लेषण कितना सही है, पर कथा को वैज्ञानिकता के साथ कुंडलिनी योग में फिट बैठाने के लिए और याद रखने के लिए जरूरी लगता है।

शिव के दर्शन को कुंडलिनी जागरण के इलावा और क्या कह सकते हैं, क्योंकि दोनों ही सर्वोच्च उपलब्धियां हैं। सर्वोच्च उपलब्धि एक ही हो सकती है, दो नहीं, इसलिए दोनों एक ही हैं। ऐसा भी हो सकता है कि देव दर्शन ध्यान की ऐसी प्रगाढ़ अवस्था हो जिसमें देवता स्पष्ट सामने दिखते हों और उनसे बात भी हो सकती हो। बेशक यह कुंडलिनी जागरण रूपी सर्वोच्च स्तर से थोड़ा सा नीचे हो। क्योंकि अगर देवदर्शन ही कुंडलिनी जागरण होता तो देवदर्शन से कम से कम किसी एक राक्षस को तो सद्बुद्धि मिलती, पर देखने में तो यह आता है कि किसी को भी नहीं मिली, बल्कि उल्टा जो थी वह भी गई शक्ति के घमंड से। दूसरा, कुंडलिनी जागरण की अवस्था में तो कोई कुछ मांग ही नहीं सकता क्योंकि परम के साथ पूर्ण एकता महसूस होने से आदमी को अपनी पूर्णता भी महसूस होती है, फिर मांगने को बचा ही क्या। उधर देवदर्शन के दौरान तो राक्षस देवता के सामने लंबा चौड़ा मांगपत्र रख देते थे। खैर, अगर दोनों अनुभव मिलते जुलते भी हैं, तब भी इस कहानी से इस मान्यता का भी खंडन हो जाता है कि जागृत व्यक्ति कोई गलत काम नहीं कर सकता। वास्तव में जागृति से अच्छा काम करने की प्रेरणा मिलती है, पर इसकी कोई गारंटी नहीं कि अच्छा ही काम होगा। यह ऐसे ही है कि किसी को महान व्यक्ति की संगति मिले पर वह उसकी प्रेरणा को नजरंदाज करके कोई महान काम न करे। अच्छे या बुरे काम के लिए संस्कार, मानसिकता, व अभ्यास जिम्मेदार होते हैं। इस कथा से यह पता भी लगता है कि जैसे अच्छे काम शक्ति से होते हैं, वैसे ही बुरे काम भी शक्ति से ही होते हैं। शक्तिहीन तो कुछ भी नहीं कर सकता। खुराफाती लोगों में बहुत शक्ति होती है। यदि उनकी शक्ति को सही दिशा में मोड़ा जाए तो वे सबसे जल्दी जागृत हो सकते हैं। शायद रावण के साथ भी यही हुआ था। वह खुराफाती था पर अधिक शक्ति की आकांक्षा से शिव की पूजा करने लगा। खुराफाती लोगों का दिमाग एकदम फल चाहता है, वैसे ही जैसे चोर कमाई का इंतजार नहीं कर सकता, इसलिए किसी चीज को एकदम पाने के लिए उसकी चोरी करता है। वैसे ही जब रावण को पूजा से कोई लाभ मिलता नहीं दिखा तो उसने दूसरा तरीका अपनाया। मतलब शातिर दिमाग को आम जनसमुदाय की तरह सीधा, धीमा, आदर्शवाद वाला और साधारण तरीका कब पसंद आने लगा। इसलिए उसने टेढ़ा, तेज, आदर्शविहीन और असाधारण तांत्रिक तरीका अपनाया। शायद तांत्रिक तरीके की सफलता से वह इस भ्रम में रहा होगा कि वह तो यौन क्रिया में निपुण है, और किसी के साथ भी बिना रोकटोक के कर सकता है। इसी भ्रम के कारण ही उसने कुबेर की होने वाली पुत्रवधु रंभा अप्सरा का शील भंग किया होगा, और इसी भ्रम में आकर उसने सीता हरण किया होगा, जिस वजह से वह सीतापति राम के हाथों मारा गया।

मुझे लगता है कि रावण का अपना घर सहस्रार चक्र था, क्योंकि वहीं आत्मा का निवास माना जाता है। इसीलिए लंका को सोने की नगरी कहा जाता है। चीनी ताओ दर्शन में गोल्डन फ्लावर मेडिटेशन के अंतर्गत गोल्डन फ्लावर आज्ञा चक्र पर महसूस होता है। आज्ञा चक्र भी सोने की लंका हो सकती है क्योंकि रावण जैसा अहंकारी आदमी सहस्रार जैसे दिव्य स्थान में तो रहने नहीं वाला, बेशक भौतिकवादी और बुद्धिवादी आज्ञा चक्र में जरूर रह सकता है। एक पौराणिक कथा आती है कि लंका से एक कमल के नाल जैसी सुरंग पाताल लोक को जाती थी। यह बताता है कि लंका एक चक्र था जो नाड़ी से मूलाधार से जुड़ा था, क्योंकि मूलाधार को अक्सर पाताल कहा जाता है। लंका को त्रिकूट पर्वत मतलब तीन पर्वत शिखरों के बीच में बताया गया है। अगर एक शिखर को बाईं भौंह वाली हड्डी मानें, दूसरे शिखर को दाईं वाली और तीसरे को नाक की हड्डी मानें तो लंका आज्ञा चक्र ही लगती है।

शिव को पता था कि रावण स्वभाव से ही दुष्ट है, इसलिए अगर उसकी बुद्धि को शिवलिंग का तेज मिल गया तो वह और ज्यादा दुष्ट बनेगा। ऐसा भी हो सकता है कि सहस्रार ही उसका घर हो, पर वह उसकी दिव्यता का दुरुपयोग करता था। इसका मतलब है कि यह जरूरी नहीं है कि सहस्रार पर जाकर आदमी खुद सज्जन बन जाए। प्रयास तो उसे तब भी करना पड़ेगा। कई विशेष धर्मों के अधिष्ठाता शायद सहस्रार को जगा कर हमेशा उसमें स्थित रहते थे, पर उन्होंने धर्म और ईश्वर के नाम पर अंतहीन नरसंहार करवाया, जो आजतक जारी है। ऐसे लोग अगर बिगड़ जाएं तो कालस्वरूप ही होते हैं। कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता क्योंकि वे खुद परम पद पर स्थित होते हैं। संभवतः इसीलिए प्राचीनकाल में ब्रह्मविद्या को गुप्त रखा जाता होगा। अब परमाणु बम भी गुप्त नहीं रहा, अब किस बात का डर। मुझे यह भी लगता है कि जो जागृति के लिए तंत्र आदि से जबरदस्ती प्रयास करते हैं, उन्हें क्षणिक या आंशिक जागृति ही मिलती है, जैसी रावण को मिली, पूर्ण जागृति नहीं। रावण उसी पूर्ण जागृति को शिव से मांग रहा था, जिसको ऐसा कहा गया है कि वह शिवलिंग को स्थायी तौर पर अपने घर में रखना चाहता था। पर शिव ने उसे अनाधिकारी जानकर ऐसा नहीं होने दिया। मतलब जागृत बनने से पहले इंसान बनना पड़ता है।

इस कहानी को थोड़ा सा और ट्विस्ट भी दे सकते हैं। रावण अहंकार ही है। दसवां सिर अंहकार रूप ही था। उसे काटने का प्रयास मतलब वह बहुत कमजोर हो गया था और ख़त्म ही होने वाला था कि शिव प्रकट हो गए। मतलब अहंकार के शून्य होने से तो आदमी मर ही जाएगा, फिर जागृति किसे और कैसे मिलेगी। शिव का दर्शन देना मतलब बचेखुचे अंहकार का शिव में विलीन हो जाना है, नष्ट होना नहीं। रावण की लंका मूलाधार भी है, क्योंकि यह समुद्र के बीच में है, और ज्यादातर कथाओं में मूलाधार को समुद्र के रूप में दिखाया गया है। रावण रूपी दस इंद्रियां सीता रूपी शक्ति को हर के लंका रूपी मूलाधार में ले जाती हैं। मतलब कि दस इन्द्रियों से आदमी दुनियादारी में भटकता है। इससे दुनिया के चित्र उसके मन में शक्ति के नाम से व्यक्त रूप में आ जाते हैं, और फिर शीघ्र ही अवचेतन मन में अव्यक्त रूप में दब कर दर्ज हो जाते हैं। यही सीता रूपी शक्ति का लंका रूपी मूलाधार को जाना है। अब पाठक कहेंगे कि पहले आज्ञा चक्र को लंका बोला, और अब मूलाधार चक्र को बता रहे हैं। इसमें कोई विरोधाभास नहीं है, क्योंकि मूलाधार और आज्ञा चक्र सीधे आपस में जुड़े हैं।

यह शंका भी हो सकती है कि पहले मन को ब्रह्मा कहा था, और अब नारद मुनि को बोल रहे हैं। इसमें भी कोई विरोधाभास नहीं है। नारद मुनि ब्रह्मा के पुत्र हैं, मतलब ब्रह्मा रूपी संपूर्ण मन का एक छोटा सा भाग ही नारद रूप

कुंडलिनी शक्ति काठ की मछली के साथ गड्ढे में प्रवेश करके वहां शिव की पूजा करने से क्रियाशील होती है

शिव को नमन गुरु को नमन शिव ही गुरु हैं गुरु ही शिव हैं

मित्रो, निषध नामक सुंदर देश में क्षत्रियों के कुल में महासेन वीरसेन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो शिव का अत्यंत प्रिय था। वीरसेन ने पार्थिवेश शिव का अर्चन करते हुए 12 वर्षों तक कठिन तप किया। तब प्रसन्न होकर शिव ने राजा से कहा कि वह काठ की मछली बनाकर उस पर रांगे का लेप लगा कर और उसे योगमाया से संपन्न करके उसे दे रहे हैं। उसे लेकर वह उसी समय नौका से उस विवर में प्रवेष करके चला जाए। फिर वहां जाकर उनके द्वारा किए गए उस विवर में प्रविष्ट होकर नागेश्वर का पूजन कर के उनसे पाशुपतास्त्र प्राप्त कर इन दारुकी आदि प्रमुख राक्षसियों का विनाश करे। शिव ने फिर कहा,”मेरे दर्शन के प्रभाव से तुम्हें किसी प्रकार की कमी नहीं होगी। उस समय तक पार्वती का वरदान भी पूर्ण हो जाएगा, जिससे वहां जो अन्य मलेच्छरूप वाले होंगे, वे भी सदाचारी हो जाएंगे। तब शिव अंतर्धान हो गए। इस प्रकार ज्योतियों के पति लिंगरूप प्रभु नागेश्वर देव की उत्पत्ति हुई। वे तीनों लोकों की संपूर्ण कामना को सदा पूर्ण करने वाले हैं।

उपरोक्त मिथक का वैज्ञानिक विश्लेषण

निषध शब्द निषेध शब्द से बना है। वह देश जहां कुत्सित या अज्ञानपूर्ण यौनाचार का निषेध हो, वेदविरोध का निषेध हो, मर्यादाहीनता का निषेध हो, अकर्मण्यता का निषेध हो, कुकर्म का निषेध हो आदिआदि। हरेक आदमी राजा तो होता ही है, अपने देहरूपी देश का। महासेन मतलब जिसके साथ बहुत बड़ी सेना हो। मतलब जो संसार में जाना पहचाना, मशहूर और इज्जतदार आदमी हो, जिसके आगे पीछे बहुत से लोगों की भीड़ लगी रहती हो। वीरसेन मतलब उस संसाररूपी सेना में जो बहादुरी से समस्याओं का सामना करते हुए मानवता के वैदिक मार्ग से पीछे नहीं हटता। वह ध्यानयोग में भी प्रवीण था। इसका मतलब कि वह किसी के प्रेम में मस्त रहता था। प्रेम शिव से, किसी अन्य देवता से, गुरु से, प्रेमिका से किसी से भी हो सकता है। इसीलिए शिवभक्त कहा है क्योंकि शिव ध्यान और प्रेम के प्रतीक हैं। शरीर में 12 चक्र हैं। उन चक्रों पर उसने कुंडलिनी या शिवरूप का ध्यान किया। एक चक्र की साधना एक साल की मानो तो 12 सालों में 12 चक्र। जन्म से लेकर आदमी ऐसे ही विकास करता रहता है। जन्म के कुछ वर्षों तक आदमी मूलाधार चक्र की अज्ञानता के अंधेरे में रहता है। फिर किशोरावस्था आने पर हार्मोनल परिवर्तन के कारण वह स्वाधिष्ठान चक्र पर आ जाता है। युवावस्था में बलवृद्धि और प्रेमवृद्धि के कारण वह क्रमशः मणिपुर चक्र और अनाहत चक्र पर आ जाता है। प्रेम में और दुनिया के कामों में निपुणता के विकास से वह बोलचाल करने में और सौदेबाजी करने में भी निपुण हो जाता है। इसे कह सकते हैं कि उसकी चेतना विशुद्धि चक्र के स्तर पर पहुंच जाती है। फिर रोजगार के लिए उसे बुद्धि का बहुत प्रयोग करना पड़ता है। उससे वह आज्ञा चक्र पर आ जाता है। अपने रोजगार के पेशे में निपुण होने से वह कमाई के मामले में निश्चिंत सा हो जाता है, और वह अध्यात्म आदि के अभ्यास से अपनी मुक्ति के लिए प्रयास करने लगता है। इससे उसकी चेतना सहस्रार चक्र में आ जाती है। वैसे तो यदि आदमी को ढंग का माहौल मिले तो मात्र 17 18 साल की उम्र में वह अपनी कुंडलिनी को जागृत कर सकता है। पर इस कथा में सतयुग की बात हो रही है, इसलिए 12 साल लिखे हैं। उस समय शायद बालविवाह का प्रचलन भी था, जो 12 13 वर्ष की आयु तक हो जाया करता होगा। इसीलिए विवाह को ही सहस्रार जागरण की अवस्था मानी गई है, क्योंकि इसीसे मूलाधार से सहस्रार को सीधी और प्रचंड शक्ति मिलती है। पूरी कथा से भी यही स्पष्ट होता है, जिसमें बारह वर्ष की साधना के बीतने पर उसे मछली को विवर मतलब गड्ढे में प्रविष्ट कराने को कहा जाता है। थोड़ा गहराई से सोचने से इसका मतलब खुद ही समझ में आ जाता है। शिव ने ही हम सभी का और राजा वीरसेन का भी शरीर बनाया है। मतलब शिव ने ही शरीर के सभी अंग बनाए हैं, जिनमें मछली जैसे रूपाकार वाला जननांग भी शामिल है। काठ की मछली मतलब काठ भी मांस जैसा ही जैव पदार्थ है, और दोनों ही जीवित प्राणियों के घटक हैं, यह विज्ञान भी मानता है। शरीर में हार्मोनल सिस्टम और उससे उत्पन्न उत्तेजना जिससे उसमें कड़ापन आता है, यह सब कुछ भी परमात्मा शिव की ही बनाई हुई प्रणाली है। रांगा टिन धातु को कहते हैं। यह मध्यम सख्त होती है, लोहे जितनी ज्यादा भी नहीं, और ढीले मांस जितनी या काठ जितनी कम भी नहीं। इसी तरह शरीर में यौन विवर भी शिव ने ही बनाया होता है। विवर में जहां तक मछली प्रवेश करती है, विवर को वहीं पर खत्म मान लेना चाहिए। नौका तो पीछे रह जाती है। माया से युक्त मछली मतलब उसमें दिव्य यौन संवेदना होती है, जो किसी को भी मोहित कर सकती है। संभवतः वही अंग की शिखा है, बाकि हिस्से को तो नौका कहा गया है। अब जहां विवर खत्म हो गया, उसे ही मूलाधार रूपी गड्ढे का धरातल समझना चाहिए। यह दो अंगों के बीच में लगभग उसी स्थान पर पड़ता है, जहां योग शास्त्रों में मूलाधार चक्र का स्थान बताया गया है। मुझे तो यही असली मूलाधार लगता है, क्योंकि यही तो शक्ति देता है। बाकि विवरण तो मुझे प्रतीकात्मक या करीबी लगते हैं, असली नहीं। बाहर जहां मूलाधार चक्र के बिंदु की स्थिति दिखाई जाती है, वहां तो कोई अंधेरा गड्ढा नहीं होता। अंधेरा गड्ढा तो उसकी सीध में अंदर होता है। हालंकि जो तीव्र जननसंबंधी संवेदना के नाड़ीजाल अंदर स्थित होते हैं, उनका कुछ प्रभाव बाहर भी महसूस होता ही है। खैर, उस विवर में नागेश्वर लिंग का ध्यान करना, मतलब लिंग के ऊपर नागेश्वर शिवरूपी ध्यानचित्र का ध्यान करना। यह मैडिटेशन एट टिप नामक सर्वोच्च कोटि की तांत्रिक साधना ही तो है। नाग शब्द मूलाधार और उससे जुड़ी संरचनाओं को भी इंगित करता है। क्योंकि ये सब संरचनाएं परमात्मा शिव ने अपनी प्राप्ति के लिए बनवाई हैं, इसलिए उनका एक नाम नागेश्वर भी है। वहां शिव का पूजन करने से पाशुपत अस्त्र मिलेगा, मतलब अवचेतन मन रूपी गड्ढे में दबे राक्षस रूपी विचारों को उघाड़ने की शक्ति मिलेगी। उससे दारुक आदि प्रमुख राक्षसों का विनाश होगा, मतलब जो बुद्धि आदि और मन के मुख्य विचार हैं, वे बाहर निकलकर असली शून्यरूपी आत्मा में विलीन होते रहेंगे। ये ही हैं जो जागृति में मुख्यरूप से बाधा बनते हैं। अन्य छोटेमोटे अनगिनत विचार तो जागृति के बाद भी विलीन होते रहते हैं, उम्र भर। शिव के दर्शन मतलब जागृति के बाद किसी चीज की कमी नहीं रहती। दुनिया के लोगों का भी युगों की तरह चक्र होता है। वे कलियुग जैसे माहौल के बाद सतयुग जैसा माहौल बनाते हैं। वे ही मास्तिष्क के वन में भी होते हैं। उनके सदाचार के सहयोग से राक्षसों को मारना ज्यादा आसान हो जाता है। ऐसी ही अनुकूल परिस्थितियां मिलती रहें तो आसानी होती है। इस कथा को पढ़कर बिल्कुल भी नहीं लगता कि ऋषिमुनियोँ ने कामसुख का अनुभव नहीं किया होता था, जैसा कि अक्सर आम धारणा में दिखने को मिलता है। बल्कि इसके विपरीत ऐसा लगता है कि वे गृहस्थ अवस्था में पूर्ण होकर ही बाद की वानप्रस्थ और संन्यास जैसी वैराग्यमय अवस्थाओं में यह सब दुनिया की भलाई के लिए लिख पाए।

कुंडलिनीयोग अतिरिक्त तांत्रिक शक्ति का उपभोग करता है

दोस्तों, शास्त्रों में विशेषकर शिवपुराण में एक कथा आती है कि एकबार देवराज इंद्र भगवान ब्रह्मा और अन्य देवताओं को साथ लेकर कैलाश जाकर भगवान शिव के दर्शन करने की इच्छा से अपने घर से निकले। भगवान शिव को तो यह पता लग ही गया, क्योंकि वे त्रिकालदर्शी हैं। उन्होंने लीला के लिए उनकी परीक्षा लेने की सोची। वे एक जटाधारी अवधूत का वेश बनाकर उनके मार्ग में खड़े हो गए। देवराज इंद्र ने उनसे पूछा कि वे कौन हैं, और उनसे रास्ता छोड़ने के लिए कहा। यह भी पूछा कि क्या शिव उस समय कैलाश पर ही थे। पर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। उनसे बारबार पूछा गया, फिर भी उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। अंत में गुस्से में आकर इंद्र ने उनके ऊपर महा घातक अस्त्र वज्र चला दिया। उसी समय शिव अपने असली रूप में आ गए जिससे वज्र उनका कुछ न बिगाड़ सका। शिवजी को इंद्र पर बहुत क्रोध आ रहा था, और वे उसका वध ही करने वाले थे कि ब्रह्मा उनके पैरों में पड़कर उन्हें मनाने लगे। उससे शिव को उन पर दया आ गई। शिव ने उनसे पूछा कि वे अपना गुस्सा कहां डालें। पूर्णयोगी का गुस्सा अगर एकबार बाहर निकल आए तो वह वापिस नहीं लौटता। ब्रह्मा ने उन्हें वह गुस्सा समुद्र में डालने को कहा। उससे समुद्र से जलंधर असुर का जन्म हुआ।

उपरोक्त कथा का अध्यात्मवैज्ञानिक विश्लेषण

शिव का मतलब यहां जागृत व्यक्ति है। इंद्र का मतलब यहां साधारण तांत्रिक या साधारण पंचमकारी है। साधारण तंत्र से जो शक्ति मिलती है, वह कुंडलिनी ध्यान के लिए नहीं, बल्कि दुनियादारी की बढ़ौतरी के लिए इस्तेमाल होती है। इसमें काली तंत्रसिद्धियां जैसे कि मारण, टारण आदि भी शामिल हैं। सम्भवतः इंद्र के द्वारा मारण शक्ति के प्रयोग को ही वज्रप्रहार कहा गया है, क्योंकि जागृति की तरह ऐसी तांत्रिक शक्तियों का मूल स्रोत भी मेरुदंड से गुजरने वाली वज्रशक्ति या सुषुम्नाशक्ति ही प्रतीत होती है। अलौकिक शक्ति को प्राप्त करने का तरीका इससे अलग तो कोई दिखता नहीं शरीर में। पर उससे असली तंत्रयोगी का उसी तरह कुछ नहीं बिगड़ता जैसे जुगनू दीपक का कुछ नहीं बिगाड़ सकते, उल्टा खुद ही जल सकते हैं। कई बार बहुत से जुगनू इकट्ठे हो जाएं तो उसे थोड़ा ढक जरूर सकते हैं। इसी तरह बहुत शक्तिशाली वज्रशक्ति या बहुत से लोगों द्वारा चलाई गई घृणात्मक तांत्रिक वज्रशक्ति जागृत योगी का कुछ नुकसान भी कर सकती है। ऐसे तो वह अपनी हानि की कोई परवाह न करके सत्य की राह पर चलता रहता है, पर जब उसकी जान पे ही बन आती है, तो फिर आत्मरक्षा के लिए गुस्सा कुदरतन निकलता है, वह जानबूझ कर निकाला गया आम गुस्सा नहीं होता, और न ही वह गुस्से की तरह लगता है। उसका गुस्सा रूपांतरित होकर निकलता है। जैसे कि किसी समाजसुधारक आंदोलन के रूप में या किसी को वरदान के रूप में। वह गुस्सा किसी का अहित नहीं करता, क्योंकि जागृत व्यक्ति से किसी का अहित होता ही नहीं बस तक। अब जलंधर की उत्पत्ति में समाज का कौन सा भला छिपा है, यह तो पता नहीं, पर इंद्र नष्ट होने से बच गया, मतलब सारी सृष्टि नष्ट होने से बच गई, क्योंकि इंद्र देवताओं का राजा है। गुस्सा आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन है। गुस्से से अपना ही शरीर कमजोर या नष्ट होता है, और हमारे अपने शरीर रूपी ब्रह्मांड में इंद्र समेत सारे देवता स्थित हैं। यह कह सकते हैं कि जलंधर मूलाधार को उतरी हुई गुस्से की ऊर्जा है। इसे कहते हैं गुस्सा पी लिया। उस समय तो पी लिया पर बाद में वह मूलाधार से अनैतिक प्रेम प्रसंग के रूप में भी निकल सकता है। यही जलंधर है जो पार्वती और लक्ष्मी के ऊपर आसक्त हो गया था। उसे पतिव्रता वृंदा ही मरने से बचाती थी। इसका मतलब है कि वह पत्नी की सहायता से प्राप्त तंत्रबल से शिव और विष्णु की तरह तेजस्वी हो गया था। वैसे भी उसे शिव का ही अंश माना जाता है। उसने सब देवताओं को पराजित कर दिया था, मतलब वह देवताओं से संचालित प्रकृति के वश में नहीं रह गया था, और सभी को दुख देते हुए भी तंत्रबल से सुखी रहता था। जब विष्णु ने धोखे से वृंदा का शील भंग किया तो उसने आत्मदाह कर लिया और वहां तुलसी का पौधा उग गया। तुलसी हिंदु धर्म का सबसे पवित्र पौधा है जो लगभग हर हिंदु परिवार के आंगन में उगा मिल जाएगा। यह औषधीय और आध्यात्मिक गुणों का भंडार है। मतलब साफ है कि पतिव्रता स्त्री सभी किस्म के मनुष्यों से श्रेष्ठ है जो हर घरपरिवार में होनी चाहिए। पंजाब का जालंधर नाम इसी असुर के नाम से पड़ा है। यहां एक वृंदा का मंदिर भी है। वास्तव में तंत्रयोगी की सफलता में उसकी पत्नि का बड़ा हाथ होता है। पत्नि अगर सहयोग न करे तो देवता भी सहयोग नहीं करते। मुक्ति की राह में असफल होना ही मरना है। वास्तव में जो ध्यान योगी होता है, उसका अतिरिक्त तांत्रिक बल कुंडलिनी ध्यान में खर्च होता रहता है, जिससे किसी का बुरा सोचने व बुरा करने के लिए शक्ति ही नहीं बची रहती। पर जो तांत्रिक आचारों और तकनीकों का इस्तेमाल तो करते हैं पर इष्ट ध्यान नहीं करते, उनमें अतिरिक्त तांत्रिक उर्जा शरीर में जमा हुई रहती है। वही उनसे गलत करवा सकती है। इसे चाहे काला जादू कहो या टोना टोटका या देसी भाषा में नजर लगना या जिहादी किस्म की मानसिकता रखना या खा पी कर हंगामा करना। कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बहुत से संगठनों, राष्ट्रों, धर्मों या संप्रदायों द्वारा अपनी अवैध व अनैतिक बढ़ौत्तरी के लिए इसी अतिरिक्त या अनियंत्रित तांत्रिक ऊर्जा का इस्तेमाल सदियों से किया जाता रहा है। राक्षस भी इसी से पैदा होते थे, हालांकि मरते भी इसी से ही थे। यह उपयोग के तरीके पर निर्भर करता है। एनर्जी ने रिलीज होना ही होता है। वैसे भी शिव मस्तमलंग हैं। मतलब वे अपने में ही मस्त हैं। इसका मतलब है कि वे अपने में ही सब गुण धारण कर लेते हैं आवश्यकता अनुसार। तभी उन्हे भूतिया कहा जाता है, क्योंकि वे जरूरत पड़ने पर तमोगुण भी स्वीकार कर लेते हैं। शायद इसी से तांत्रिक पंचमकार की अवधारणा हुई है। अन्य लोग तो गुणों के संतुलन के लिए एकदूसरे पर आश्रित रहते हैं। कुछ लोग हमेशा सतोगुणी रहते हैं, जैसे कि विष्णु, तो कुछ तमोगुणी, जैसे असुर और पशु और अन्य कुछ रजोगुणी, जैसे कि ब्रह्मा और इंद्र। ये तीनों किस्म के लोग एकदूसरे पर आश्रित रहते हैं। इसलिए ये एकदूसरे को नाराज या परेशान करने से बचते हैं, जहां तक हो सके। खासकर सतोगुणी लोग, क्योंकि सतोगुण सबसे कमजोर होता है, और इसे अपने भारणपोषण के लिए भी अन्य दोनों गुणों की जरूरत पड़ती है। पर शिव को किसी की कोई परवाह नहीं है। वह अपने आप में पूर्ण सक्षम हैं। इसीलिए वे इंद्र को क्षमा करने के मूढ़ में नहीं होते पर लोकहित के लिए करना पड़ता है, अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए नहीं, क्योंकि उन्हें किसी की आवश्यकता ही नहीं है। जागृति की अवस्था को सतोगुणी नहीं कह सकते, बेशक यह सतोगुण की प्रचुरता से प्राप्त होती है। इसमें बेशक सतोगुण जैसा प्रकाश होता है पर वह आम दुनियावी सतोगुण से अलग होता है। उसमें तमोगुण के जैसा और रजोगुण के जैसा आभास भी होता है, पर वे भी इन दुनियावी गुणों से अलग लगते हैं। तीनों गुणों का मिश्रण भी नहीं कह सकते क्योंकि बेशक इसका वर्णन करने के लिए इनका सहारा लेना पड़ता होए, और यह इनके मिश्रण की तरह महसूस होता है, पर शास्त्रों के अनुसार यह इनका मिश्रण भी नहीं होता। शायद इसीलिए इसे त्रिगुणातीत या निर्गुण कहा गया है। यह ऐसे है जैसे अगर पानी में चीनी, नींबू और नमक बराबर मात्रा में घोला जाए तो वह पानी सादा लगेगा पर असल में वह शुद्ध सादा जल नहीं होता। इसी तरह अगर तीनों गुण बराबर रहें तो वह अवस्था त्रिगुणातीत लगेगी पर असल में वह आत्मा की शुद्ध त्रिगुणातीत या निर्गुण अवस्था नहीं होती। शायद इसी धोखे के कारण कई आध्यात्मिक नेता अपने आप को भगवान समझ बैठते हैं। इसी वजह से ही जागृति का अनुभव भी दुनियावी अनुभव से अलग स्वरूप वाला नहीं लगता। पर असल में दोनों के बीच में जमीन आसमान का फर्क होता है। जहां जागृति का अनुभव शुद्ध जल की तरह है, वहीं दुनियावी अनुभव नमक, नींबू और चीनी मिश्रित जल की तरह है। तीनों का अनुपात हरपल बदलता रहता है। जब यह बराबर हो जाता है, तब जागृति जैसा प्रकाश और सुख महसूस होता है। योग से इड़ापिंगला अर्थात यिनयांग के संतुलन से ऐसा ही होता है। यह हमें जागृति जैसी अवस्था का आभास देता है। इससे आदमी असली जागृति को प्राप्त करने के लिए प्रेरित होता है। इन सब बातों का मतलब साफ है कि शिव का तथाकथित तमोगुण उनकी जागृति में बाधक नहीं बल्कि सहायक होता है। वैसे वह तमोगुण नहीं होता पर तमोगुण जैसा लगता है। होता तो वह सतोगुण ही है। शायद सतोगुण के अहंकार को खत्म करके ऐसा होता है। शास्त्रों में भी ऐसा ही कहा है कि सतोगुण से भी जागृति तभी मिलती है, जब उसके प्रति भी अहम भाव नष्ट हो जाता है। अहम नष्ट होने से सतोगुण के रहते हुए भी वह ज्यादा ध्यान में नहीं रहता। उसके प्रति ध्यान या आसक्ति के अभाव से ही वह तमोगुण की तरह भासता है। शिव का तमोगुण ऐसा ही वर्चुअल अर्थात आभासी है, वास्तविक नहीं।

कुंडलिनीयोग महिषासुर वध की कथा के रूप में वर्णित किया गया है

पुराणों का तरीका वैदिक अर्थात शास्त्रीय अर्थात सामाजिक होता है। इनकी कथाओं में शालीनता, शिष्टाचार और अनुशासन होता है। मर्यादित बोल होते हैं। उनमें असामाजिक रहस्य भी सामाजिक ढंग से वर्णित होते हैं। उदाहरण के लिए मूलाधार को अंधेरे गहरे गड्ढे या पाताल या समुद्र के नाम से वर्णित किया होता है। भटकते मन के आसक्तिपूर्ण विचारों को या अहंकार को राक्षसों या जानवरों की उपमा दी जाती है। वे राक्षस गढ्ढे में घुसते दिखाए जाते हैं। वे मनुष्यों समेत सभी जीवों और देवताओं को मारते और परेशान करते दिखाए जाते हैं। फिर इंद्र आदि देवता ब्रह्मा के पास और वे परमात्मारूपी नायक के पास सहायता के लिए जाते हुए और उनकी प्रार्थना करते हुऐ दिखाए जाते हैं। फिर कहानी का नायक उस गढ्ढे में घुसकर राक्षसों और उनके अधिपति को बाहर निकालता है। उनसे लड़ता है और उन्हें मारकर या उन्हें पवित्र करके उन्हें मोक्षरूपी सर्वोच्च पद प्रदान करता है। वस्तुतः सभी विचार परमात्मा में ही विलीन होते हैं। यह कुंडलिनी योग का अध्यात्मविज्ञान ही तो है। मतलब परमात्मा ने शरीर में ही अज्ञान से लड़ने के लिए योगकुंडलिनी शक्ति स्थपित कर रखी है। योगी मूलाधार क्षेत्र में ध्यानछवि पर ध्यान केंद्रित करता है। जब वह छवि नाड़ियों से होकर मस्तिष्क तक आती है, तो अपने साथ अवचेतन मन के दबे विचार और भावनाएं भी ऊपर ले आती है। इससे वे साक्षीभाव के साथ मन में अभिव्यक्त होकर आत्मा में विलीन हो जाते हैं। वास्तव में मूलाधार से शक्ति ऊपर चढ़ती है, ध्यानछवि के सहयोग से। वही शक्ति मस्तिष्क में दबे भावों को उजागर करती है। समझाने के लिए कहा जाता है कि शिवरूपी ध्यानछवि ने अपने साथ सभी राक्षसरूपी दबी हुईं छवियों को मूलाधाररूपी गड्ढे से बाहर निकाला और उन्हें मारकर मुक्त कर दिया। शक्ति मूलाधार में सोई होती है, जिस वजह से मस्तिष्क को ऊर्जा न मिलने से उसके कुंडलिनीरूपी विचारभाव भी सोए होते हैं। इसको ऐसा समझाया जाता है कि वे विचारभाव भी मूलाधार में सोए हैं। जब मूलाधार के सशक्त होने से वह शक्ति जागने लगती है, तो वह मस्तिष्क के विचारभावों को भी जगाने अर्थात अभिव्यक्त करने लगती है। इसको ऐसे समझाया जाता है कि मूलाधार की कुंडलिनीशक्ति जाग रही है, अर्थात शक्ति और विचारभावों का मिश्रण जाग रहा है। इसीलिए ज्यादा उम्र जीने वाले लोग अपने मूलाधार क्षेत्र का खास ध्यान रख रहे होते हैं। मैं वेबसीरीज लिव टू हैंडरड इयर्ज देख रहा था, जहां जापान के ओकीनावा के लोगों की लंबी उम्र का एक राज कसरत, शारीरिक श्रम आदि से अपने बेस को मजबूत रखना भी था। आधार से ही मंजिल है। वे खुद तो बस उसे सुलभ और अनुकूल ही बनाते हैं। यह पतंजलि योग के कथन के अनुसार ही है कि योग करते समय परमात्मा के आश्रित भी रहना चाहिए, और उनकी भक्ति भी करनी चाहिए क्योंकि वे योग को सफल बनाने में मदद करते हैं। इसको उन्होंने ईश्वर प्राणिधान कहा है। सभी कथाओं में लगभग ऐसा ही ट्रेंड है। बीचबीच में नामरूप के फेरबदल के साथ ऐसी ही कथाएं आती रहती हैं। शुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान के कुछ श्लोकों या पृष्ठों के बाद ऐसी कोई रूपात्मक कथा आ ही जाती है, ताकि पाठकों की रुचि बनी रहे। शिवपुराण में शिव उनको मारने वाले नायक दिखाए जाते हैं तो विष्णुपूराण में विष्णु। एक ही अद्वैत तत्त्व को भिन्नभिन्न देवताओँ के नाम से पुकारा जाता है, जो जागृतावस्था का अनुभव है। शरीर को ब्रह्मांड, और विशेष अंगों व इंद्रियों को साधारण देवता दिखाया गया है। लोगों को या शरीर की कोशिकाओं या साधारण अंगों को आम लोगबाग या जनता के रूप में दिखाया गया है। ये सब आपस मे जुड़े हैं।

उदाहरण के लिए देवीभागवत पुराण में एक कथा आती है कि महिषासुर नाम का एक राक्षस भैंसे की आकृति वाला था। वह कभी सुंदर युवक का रूप बना लेता था तो कभी भैंसा बन जाता था क्योंकि वह बहुरूपिया था। आम अज्ञानी आदमी भी तो ऐसा ही बहुरूपिया होता है। कभी वह बाहरबाहर की वेशभूषा और मन के आसक्तिपूर्ण विचारों की चमकदमक से सुंदर रूप बना लेता है, तो कभी अपने असली और छुपे हुए रूप में आ जाता है, जो अंधेरे और अहंकार के रूप में है। कभी वह आधा भैंसा और आधा आदमी, जुड़ा हुआ दिखाया जाता है। यह ऐसे ही है जब आदमी के अंदर अवसाद जैसा हो। उस समय उसके मन में अंधेरे के साथ धुंधले चित्र बन रहे होते हैं। या आदमी की वह हालत होती है जिसमें वह अपनी अंधेरी अवस्था का चालाकी से सामना करते हुऐ शुभ विचारों से प्रकाशित होने की कोशिश करता है। वह दैत्य मनुष्यों और देवताओं पर अत्याचार करता था, उन्हें मारता था और उन्हें पीड़ा पहुंचाता था। सभी की मृत्यु अज्ञान से ही होती है। दुख का कारण भी अज्ञान ही है। उसने देवताओं को स्वर्ग से भगा दिया था और सभी लोकों के शासन की कमान अपने हाथ में ले ली थी। वास्तव में देवता परमात्मा के प्रतिनिधि होते हैं, इसलिए मनुष्य की भौतिक तरक्की को सुनिश्चित करते हुऐ उसे उसकी तरफ मतलब मोक्ष की तरफ़ ले जाते हैं। वे स्थूल जगत को तो नियंत्रित करते ही हैं, साथ में शरीर में भी रहकर शरीर को नियंत्रण में रखते हैं। पर जब आदमी अज्ञान से उत्पन्न अहंकार के वश में हो जाता है, तब वह मनमाना आचरण करता है, जिससे उसकी भौतिक तरक्की भी दिखावटी और अंत में दुखदायी होती है, और वह परमात्मा से दूर चला जाता है। स्वर्ग मस्तिष्क है जिसमें सहस्रार और आज्ञाचक्र मुख्य स्थान हैं। मस्तिष्क ही स्वर्ग की तरह प्रकाशमान लोक है। ज्ञानी आदमी में देवता मतलब प्रकाशमान अद्वैत भाव इसको अपने नियंत्रण में रखके आदमी के शरीर व मन से शुभ कर्म करवाते हैं। पर अज्ञानी आदमी में तो इसे राक्षस मतलब अंधकाररूप या अहंकाररूप द्वैतभाव अपने नियंत्रण में लेके शरीर व मन से अशुभ कर्म करवाते हैं। शरीर के सभी काम तब भी देवता ही कर रहे होते हैं, पर वे स्वर्ग से दूर अन्य लोकों में छुप कर अपना काम करते हैं। एकप्रकार से वे दैत्यों के गुलाम जैसे हो जाते हैं। यह ऐसे ही है, जैसे किसी राज्य के सारे काम मजदूर ही करते हैं, चाहे उनकी पसंद का राजा होए या नापसंद का। अगर पसंद का होए तो उन्हें उचित सम्मान व सुविधाएं मिलती हैं, और राजमहल में उचित पद या प्रतिनिधित्व मिलता है, अगर नापसंद का होए तो वे गुलाम जैसे बन कर रह जाते हैं। शरीर का राजा जीवात्मा है, जो मस्तिष्क में रहता है। सत्संग से वह देवताओं के प्रभाव में रहता है, और कुसंग से राक्षसों के। जैसी वह संगत करता है, वैसा ही वह बन जाता है। उस महिषासुर ने देवी से विवाह करने की इच्छा प्रस्तुत की। देवी ने उसे बहुत खेल खिलाया। अंत में उससे युद्ध करके उसे मार ही दिया। वह देवी में विलीन होकर मुक्त हो गया। एक अज्ञान से भरा आम आदमी भी ऐसा ही चाहता है और प्रयास करता है। जब वह आध्यात्मिक अज्ञान के अंधेरे में होता है, उस समय उसकी कुंडलिनी शक्ति मूलाधार में होती है। वह वहां से ऊपर उठना चाहती है। उसके लिए वह स्त्री से प्रणय और विवाह की कामना करता है। देवी जैसी कोई स्त्री उसका प्रस्ताव एकदम नहीं मानती। वह उसे अपने पीछे खूब नचाती है। इससे आदमी के मन में उस स्त्री की मनमोहक छवि एक निरंतर लगने वाली समाधि के रूप में बस जाती है। धीरेधीरे उस समाधिचित्र से उसके सारे कर्म और विचार जल कर खाक हो जाते हैं, और वह उसके निरंतर ध्यान से जागृत भी हो जाता है। जागृति दिलाने के बाद देवी भी उसे छोड़ कर चली जाती है। वह आदमी तो एकप्रकार से मर ही गया, क्योंकि रूपांतरण के कारण उसकी पिछली दुनिया खत्म हो जाती है। क्योंकि इस जागृति और रूपांतरण में देवी का सबसे ज्यादा योगदान था, इसलिए माना गया कि उसे देवी ने मारा। वास्तव में लगता भी ऐसा ही है। वह देवी दुश्मन भी लगती है और मित्र भी। दुश्मन इसलिए क्योंकि उसने पुरुष का संसार उजाड़ दिया या उसे मार दिया और मित्र इसलिए क्योंकि उसने उसे जागृति दिला दी या अपने में मिलाकर मुक्त कर दिया। तभी तो अधिकांश राक्षस देवता के साथ पूरी उम्र शत्रुता निभाकर भी उसके हाथों मरते समय उसकी स्तुति और प्रशंसा करते हुए उसे धन्यवाद देते हैं। देवी की जगह पुरुष रूप में देव भी हो सकता है। ये पुराणों की कथाओं का सामान्य स्टाईल और सिद्धांत है, जो अधिकांश रहस्यात्मक कथाओं में लागू होता है। ऐसा भी लगता है कि अन्य पुराणों में इन्हें शिवपुराण की अपेक्षा ज्यादा गुप्त रखा गया है। शिवपुराण की अधिकांश कथाओं में कुछ कुंजी शब्द या कुंजी वाक्य ऐसे होते हैं जो कथा को सुलझाने में मदद करते हैं। इसकी वजह यही लगती है कि शिवपुराण मुख्यतः मास्तमालंग और दुनियावी माया में डूबे लोगों के लिए बना है, जिनकी बुद्धि ज्यादा सूक्ष्म नहीं होती, और जिन्हें ऐसी कथाओं के रहस्योद्घाटन से ऑड या अजीब भी नहीं लगता। वैसे ये आम गृहस्थ जीवन का आम सिद्धांत है, पर जागृति से पहले यह कम ही अनुभव में आता है। इसे हम कुदरती कुंडलिनी योग भी कह सकते हैं। शास्त्रों में कहा जाता है कि जिसे भगवान का अवतार मारता है, वह उसी में विलीन होकर मुक्त हो जाता है। संभवतः इस कथा के मूल में भी यही सिद्धांत है।

कुंडलिनीयोग से गंगा की तरह बहती हुई शक्ति शिवलिंगरूपी चक्रों को सिंचित करती है

अत्रि-अनसूया की प्रसिद्ध पौराणिक कथा

शिवपुराण में अनसूया की कथा आती है। अनसूया मतलब किसी की असूया या निंदा न करने वाली। एक बार महान अकाल पड़ा। हर जगह पानी की कमी हो गई। लोग व प्राणी प्यास से व्याकुल होकर मरने लगे। साधुओं से संसार का दुख देखा नहीं जाता। इसलिए अत्रि मुनि पानी के लिए तप करने लगे। उनके शिष्य भी उनको छोड़कर चले गए। केवल अनसूया अपने पति की सेवा करती रही और प्रतिदिन शिवलिंग का पूजन करती रही। एक दिन अत्रि ने पानी मांगा। अनसूया कमंडल लेकर पानी ढूंढने चल पड़ी। रास्ते में उसे गंगा मिली। गंगा अनसूया के पातिव्रत्य से प्रसन्न हो गई। अनसूया ने गंगा से पानी मांगा। गंगा ने उसे एक गड्ढा करने को कहा। वह गड्ढा पानी से भर गया। अनसूया पानी लेकर चली गई। उसने अत्रि को पानी पिलाया। अत्रि ने कहा कि वह रोज के पिए जाने वाले पानी के जैसा नहीं था। अनसूया ने सारी बात बता दी। वह अत्रि को उस गड्ढे के पास ले गई। दोनों ने उसमें आचमन व स्नान किया। उससे सारे लोक तृप्त हो गए। गंगा जाने लगी तो अनसूया ने उससे हमेशा वहीं रहने के लिए प्रार्थना की। गंगा ने बदले में उससे उसका एक साल का पतिव्रत धर्म का और शिव पूजा का फल मांगा। गंगा ने कहा कि उसे पतिव्रता धर्म सबसे ज्यादा पसंद है। अनसूया ने वह दे दिया तो गंगा वहीं पर बस गई। साथ में शिव भी अत्रीश्वर लिंग के रूप में हमेशा के लिए वहीं विराजमान हो गए।

मिथक कथा का स्पष्टीकरण

अत्रि जीवात्मा है। अत्रि का शाब्दिक अर्थ है, तीनों गुणों से रहित। ऐसा आत्मा ही है। अनसूया बुद्धि है। बुद्धि किसी की निंदा नहीं करती, क्योंकि वह सबसे अपना काम बनवाना चाहती है। निकम्मा मन ही निंदा करता है। बुद्धि अपने पति जीव की पतिव्रता पत्नि की तरह ही है। वह जीव की हर प्रकार से सेवा करती है, साथ में परमेश्वर शिव की पूजा करती रहती है। निकम्मा मन ही कुछ नहीं करता। दरअसल बुद्धि से काम होता है, और कर्म को ही पूजा कहा गया है। शिवलिंग की पूजा इसलिए कहा है क्योंकि संसार पुरुष मतलब शिव और प्रकृति मतलब शक्ति के संयोग से ही बना है। शरीर ही वह सूखाग्रस्त देश है। शरीर की सभी कोशिकाएं ही उसके लोगबाग और प्राणी हैं। वे प्यासे मतलब शक्तिरूपी जल से वंचित रहने लगे। शक्ति जल की तरह ही बहती है। बुद्धि ऋषि अत्रि रूपी आत्मा को गुजारे लायक शक्ति या जीवनयापन के लिए साधारण पानी दिलवाती थी। पर उससे पूरे शरीरदेश का गुजारा नहीं होता था। इसलिए अतिरिक्त शक्ति के लिए ऋषि तप अर्थात कुंडलिनी योगसाधना करते हैं। एकदिन ऋषिजीव के शक्तिजल मांगने पर अनसूयाबुद्धि पूरे देहदेश में भटकने लगी उसकी खोज में। उसे शिवलिंग की कृपा से मूलाधार के आसपास यौनाधारित कुंडलिनी शक्ति मतलब गंगा महसूस हुई। उसने शरीर के प्राणों को मतलब दहदेश के कर्मचारियों को वहां गड्ढा बनाने के लिए मतलब सिद्धासन में मूलाधार को एड़ी से दबाने के लिए प्रेरित किया या योगासनों, मालिशों आदि से पिछले मणिपुर चक्र में संवेदनात्मक गड्ढा बनवाया। मुझे तो लगता है कि पीठ वाले मूलाधार या हिप बोन से ऊपर की ओर लगता गहरा गड्ढा ही वह गड्ढा है। उसमे मालिश के समय सीधी हथेली के आधार से जोर से दबाकर और धीरे धीरे ऊपर खिसका कर तेज व आनंदमय सनसनी महसूस होती है जो रीढ़ की हड्डी में ऊपर की ओर चढ़ती लगती है। यह असली मूलाधार या मूलाधार से सीधा जुड़ा लगता है, क्योंकि मूलाधार को भी गड्ढा ही कहा जाता है अक्सर। मेरुदंड में उंगलियों के बल से मालिश नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इससे नाजुक हड्डी में चोट जैसी हानि का डर बना रह सकता है। वहां दिव्य जल भर गया मतलब वहां शक्ति संवेदना महसूस हुई। उसने वह जल ऋषि को पिलाया मतलब जीवात्मा ने उस संवेदना को महसूस किया। जीवात्मा को वह और दिन से अलग और दिव्य लगा क्योंकि उसमें यौनानंद भी मिश्रित था। दोनों ने उसमें स्नान आचमन किया मतलब वह मूलाधार से चढ़कर मस्तिष्क तक चढ़ गई जिससे पूरे शरीर के साथ दोनों तरोताजा हो गए। बुद्धि और जीवात्मा दोनों मस्तिष्क में रहते हैं और आपस में जुड़े होते हैं इसलिए सबकुछ साथ साथ महसूस करते हैं। इसको दूसरे तरीके से भी ले सकते हैं कि एक तांत्रिक जोड़ा यबयुम आसन में एकसाथ शक्ति का उपभोग कर रहा है। सारे जीवजंतु जल पीकर तृप्त हो गए मतलब शरीर के सारे सेल्स शक्ति से रिफ्रेश और रिचार्ज हो गए। गंगा को अनसूया का पतिव्रता धर्म पसंद आया। जरूर उसने उसकी परीक्षा ली होगी, तभी पता चला। आजकल तो पतिव्रता धर्म के परीक्षक बहुत हैं। दफ्तर या कामधंधे पे जाने वाली महिलाओं को विभिन्न पुरूषों के द्वारा उन्हें प्रेमभरी अश्लीलता से झांकना व उनसे बतियाना, उनसे हरकत करने की फिराक में रहना आदि उनकी परीक्षा ही है। घर के अंदर बैठकर परीक्षा थोड़े न होगी। मतलब साफ़ है कि रहो सबके साथ पर सेवा अपने पति की ही करो। गंगा ने स्थायी तौर पर वहां बसने के बदले में अनसूया से एकसाल का सदकर्मफल मांगा मतलब एक साल की तांत्रिक योगसाधना और शिवलिंग पूजा से सुषुम्ना स्थायी तौर पर जागृत हो सकती है। वहां अत्रीश्वर लिंग की भी स्थायी स्थापना हो गई। मुझे तो यह जागृत मूलाधार चक्र ही लगता है। चक्र लिंगरूप ही हैं, क्योंकि वहां लिंग जैसी ही संवेदना अनुभूत होती है। द्वादश ज्योतिर्लिंग बारह चक्र ही हैं। ज्योति वहां ध्यानचित्र के चमकने से पैदा होती है। वह ध्यानचित्र शिव, गुरु, प्रेमी आदि किसी का भी रूप हो सकता है। शिवपुराण के अनुसार बहुत से लिंग और उपलिंग हैं, पर ये बारह ज्योतिर्लिंग मुख्य हैं। अन्य लिंगों को लिंग ही कहा है, ज्योतिर्लिंग नहीं, क्योंकि कुंडलिनीचित्र की चमक चक्रों पर ही महसूस होती है। वैसे तो शरीर की हरेक कोशिका को लिंग कह सकते हैं, क्योंकि सबके ऊपर शक्तिरूपी जल गिरने से ही वे क्रियाशील हैं। जहां तक गंगारूपी कुंडलिनी शक्ति पहुंचती है स्नान कराने को, वहां तक लिंग ही लिंग हैं। वैसे भी रीढ़ की हड्डी में सेरेब्रोस्पाइनल फ्लूड बहता है, जो पानी की तरह ही है। कई वैज्ञानिक दावा करते हैं कि उसी फ्लूड के प्रवाह के रूप में शक्ति का प्रवाह होता है। हालंकि सुषुम्ना जागरण के समय वह चमकीली संवेदना रेखा के रूप में बहती है। हो सकता है कि दोनों ही तरीकों से प्रवाह हो, खासकर आम व साधारण शक्ति प्रवाह में फ्लूड प्रवाह का योगदान ज्यादा हो। इस कथा से लगता है कि किसी ऋषि ने कुंडलिनी शक्ति की खोज कर के उसको महसूस किया, जिसको उन्होंने सीधा न बताकर मिथक कथा के रूप में बताया।

कुंडलिनीयोग पर्यावरण संरक्षण के लिए विशेष महत्त्व रखता है

जब अर्जुन पाशुपत अस्त्र के लिए भगवान शिव की तपस्या कर रहे थे, तब दुर्योधन का भेजा मूक दैत्य एक सुअर का रूप धारण कर वहां आया। वह पर्वतों के शिखरों को तोड़ता हुआ, अनेक वृक्षों को उखाड़ता हुआ तथा विविध प्रकार के अर्थहीन शब्द करता हुआ उसी मार्ग से जा रहा था, जहां अर्जुन था। उसको देखकर अर्जुन शिव का स्मरण करने लगा। शिव उसे मारने के लिए भीलराज बनके आए। अर्जुन और शिव के बीच वह शूकर अद्भुत शिखर की तरह लग रहा था। दोनों ने एकसाथ बाण चलाया। शिवजी का बाण पूंछ में घुसकर मुख से निकलकर शीघ्र ही पृथ्वी में विलीन हो गया। अर्जुन का बाण (शायद मुख में प्रविष्ट होकर) पूंछ से निकलकर भूमि पर पार्श्वभाग में गिर गया। शूकर उसी समय मर कर गिर गया।

उपरोक्त मिथक कथा का स्पष्टीकरण

दुर्योधन मतलब अहंकार अर्जुनरूपी कर्मयोगी जीवात्मा से इतना काम करवाता है कि उसकी इड़ा और पिंगला नाड़ियां क्रियाशील हो जाती हैं, मतलब अर्जुन का शरीर ही शूकररूप हो जाता है। मूलाधार ही उसकी पूंछ है। इड़ा और पिंगला उसके किनारे वाले दो नुकीले दांत हैं। द्वैत के जंगल में भटकते मन के विविध विचार उसका मुखभाग है। केवल भटकता हुआ मन ही पर्वतों को तोड़ सकता है, शरीर नहीं। मूक गूंगे को कहते हैं। क्योंकि भटकता मन आदमी को कभी नहीं कहता कि वह उसका दुश्मन है और उससे लड़ने आया है, पर धोखे से हमला करता रहता है, इसीलिए उसे मूक दैत्य कहते हैं। जैसे जीवात्मा और परमात्मा के बीच में मन एक पहाड़ की तरह भासता है, वैसे ही वह शूकर भास रहा था। इड़ा और पिंगला नाड़ियों के बारीबारी से क्रियाशील होने से आदमी इतना क्रियाशील हो जाता है कि जैसे वह पहाड़ तोड़ने को तैयार होए। इड़ा के क्रियाशील होने पर वह दुनिया के काम पागलपन जैसे से भरकर ताबड़तोड़ ढंग से करता है, और पिंगला के चालू होने से वह सुस्ता के सो जाता है। नींद से जागकर तरोताजा होकर फिर से लूट खसूट जैसे पापकर्म करने दौड़ पड़ता है। वह इसी अंधेरे और प्रकाश के द्वैत के बीच झूलता रहता है, और उनके बीच वाली सुषुम्ना नाड़ी की साम्य या अद्वैत अवस्था को नहीं देख पाता। भारतीय जंगली सूअर का रंग भी काले और भूरे रंग का मिश्रण है, जो द्वैत को दर्शाता है। पशु की तरह मूर्खता से भरकर  घटिया और पर्यावरणघाती काम करता रहता है। आजकल का आदमी ऐसा ही तो है। क्रियाशीलता पर ब्रेक ही नहीं है। अंधे की तरह हर कहीं सिर मार रहा है। जमीन को खोखला कर रहा है। वनों का सफाया कर रहा है। हवा, जमीन और जल को प्रदूषित करके उसमें आनंद और मस्ती के साथ लोट रहा है। ये सब सुअर के ही लक्षण तो हैं। शिव ने पूंछ से मतलब मूलाधार से तीर घुसाया, मतलब सुषुम्नारूपी शक्तिरेखा को क्रियाशील किया। दरअसल शिवलिंग के ध्यान व पूजन से ऐसा ही होता है। वह तीर उसके मुख से मतलब सहस्रार चक्र से निकलकर पृथ्वी में मतलब फ्रंट चैनल से शरीर में विलीन हो गया।
अर्जुन शिवलिंग का ध्यानपूजन तो वैसे भी कर ही रहा था। उससे स्वाभाविक है कि उसकी सुषुम्ना क्रियाशील हो गई। यह ब्रह्मशिर तीर ब्रह्मरंध्र से बाहर निकलता है। सूअर का पूरा शरीर ही मुखरूप है। ऐसा भी समझ सकते हैं कि वह तीर फिर आज्ञा चक्र में विलीन हो गया। वहां से वह मुख तक पहुंचता ही है, तालु के स्राव के माध्यम से। वहां वह स्राव भूमि मतलब उदर में चला जाता है, और वहां भोजन को पचाने में शक्तिरूप में व्यय या विलीन हो जाता है। जैसे भूमि में अन्न बनता है, वैसे ही उदर में भी बनता है, बेशक हल्के और टूटे हुए सूक्ष्म टुकड़ों के रूप में।
अर्जुन ने तालु से जीभ को छुआ कर मस्तिष्क की शक्ति को फ्रंट चैनल से नीचे उतारा। इससे वह ऊपर चढ़ी हुई शक्ति वापिस मूलाधार तक चली गई। मस्तिष्क के अंदर जो अर्जुन के द्वारा अपनी इच्छा से ध्यान लगाया जाता है, वह अर्जुन का छोड़ा हुआ तीर है। वह ऊपर से नीचे की ओर आता है फ्रंट चैनल से। मान लो कि वह शक्तिबाण मूलाधार तक पंहुचा और बाहर निकलकर पार्श्वभाग में जमीन पर गिर गया। पर बाहर कैसे गिरा। एक तो यह संभावना है कि वीर्य रूप में शक्ति बाहर गिरी। पर अर्जुन उसे हासिल करने बाहर क्यों भागना था। वैसे वीर्य की शक्ति से ही बड़े बड़े काम होते हैं, बड़े बड़े उद्योग धंधे चलते हैं, और चारों ओर भौतिक समृद्धि छा जाती है। शायद अर्जुन उन्हें अपना अपना कहते हुए उन्हें बटोरने इधर उधर भागा। यह संभावना भी है कि शक्ति वीर्यरूप में वज्र शिखा तक आई, जिसे अर्जुन ने योग से वापिस ऊपर खींचना चाहा। पर पार्श्वभाग में कैसे गिरी। हो सकता कि योनि में गिरी हो, जिसे वज्रोली मुद्रा से वापिस खींचा जा रहा हो। पर इसमें शिवगणों को आपत्ति नहीं होनी चाहिए थी, क्योंकि यह व्यक्तिगत मामला है। शिवगण ने कहा कि वह शूकर शिव के तीर से मरा और वह पार्श्वभाग में गिरा हुआ शिव का तीर है। दरअसल शिवलिंगम के प्रभाव से मूलाधार की शक्ति ही सहस्रार तक जाकर फिर मुड़कर फ्रंट चेनल से नीचे आ रही थी। अर्जुन को लगा कि वह शक्ति उसने पैदा की अपने मस्तिष्क में ध्यान लगाकर, पर वास्तव में वह मूलाधार से ऊपर आ रही शक्ति के बल से ही मस्तिष्क में ध्यान कर पा रहा था, केवल अपने आत्मबल या इच्छाशक्ति से नहीं। मूलाधार चक्र की जागृति से सुषुम्ना सक्रिय हो गई थी, जिसके प्रभाव से इड़ा और पिंगला निष्क्रिय सी हो गई थीं। मतलब अज्ञानरूप सुअर मर गया था और उससे होने वाला अज्ञानजनित उत्पात भी। अर्जुन का अहम में आकर शिवलिंग का आश्रय छोड़ना या शिवलिंग को अज्ञानशूकर को मारने का श्रेय न देना ही उसका शिवावतार भीलराज़ से लड़ना है। अंत में उसे शिवलिंग का माहात्म्य समझ आना ही भीलराज के द्वारा उसे हराना है। अर्जुन के पार्श्वभाग में गिरा हुआ शक्तिबाण अन्न, घास, पुष्प आदि किसी भी रूप में हो सकता है, जिसे उसने टांगों से चलकर उगाया था। टांगों को मुख्यतः मूलाधार से ही शक्ति नीचे उतरती है। और मूलाधार को शिवलिंग से शक्ति मिली थी। इसीलिए शिवगण उन पर अपना हक जता रहे थे। अन्न, घास, पत्ते, पुष्प आदि खाने वाले पशु, पक्षी और कीट ही शिवगण हैं, जो अपने जीवन के लिए आदमी की दया पर आश्रित हैं।
अर्जुन ने कहा कि वह बाण पिच्छ रेखाओं से चित्रित है तथा उसमें उसका नाम अंकित है। बाणरूपी फ्रंट चैनल की रेखाएं हम पसलियों की लकीरों को कह सकते हैं, जो उसके शुरु में ही होती हैं। नाम खुदा हुआ हम हृदय चक्र को कह सकते हैं, क्योंकि उसीमें आदमी का पूरा मनोभाव मतलब परिचय छिपा होता है। अहंकारी आदमी लड़ाई तो करता ही है ईश्वर के साथ, अपनी संपत्ति बटोरने के लिए। परमात्मा उसे उस स्वार्थ की सजा भी देते ही रहते हैं। यही शिव और अर्जुन के बीच का युद्ध है जो मल्लयुद्ध तक पहुंच जाता है। फिर ऐसा समय आता है कि आदमी अपने स्वार्थ के लिए भगवान के मंदिर में माथा रगड़ता है। यह कहानी का वही भाग है, जिसमें अर्जुन शिव को पैरों से पकड़ता है और उसे घुमाकर पटकने की कोशिश करता है, पर उसी समय अपने पैर पकड़े जाने से प्रसन्न होकर शिव अपने असली रूप में आ जाते हैं और उसे वरदान रूप में पाशुपत अस्त्र देते हैं। यह ऐसे ही कि जब आदमी भगवान के मंदिर में किसी भी भाव से जाकर सद्बुद्धि प्राप्त करता है, और अनजाने में ही विपत्ति से बचने का वर प्राप्त कर लेता है। पाशुपत अस्त्र मतलब शिव ने उपरोक्त घटनाक्रम के माध्यम से उसे समझा दिया था कि मूलाधार ही शक्ति को अच्छे से नियंत्रित कर सकता है, सहस्रार या मस्तिष्क नहीं। इसी समझ से उसने अश्वत्थामा के द्वारा छोड़े हुए ब्रह्मास्त्र से हो रही मस्तिष्क की जलन को शांत किया था।
इस घटना को निम्न प्रकार से और ज्यादा स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। अर्जुन भीलरूपी शिव से कई वर्षों तक युद्ध करता रहा, पहले तीरों से और फिर मल्लयुद्ध से। दरअसल ऐसा युद्ध अहंकार और सत्य के बीच ही हो सकता है, क्योंकि दो व्यक्ति तो वर्षों तक लगातार नहीं लड़ सकते। अंहकार पहले अपने जीवन के सारे साजोसामान और सारी समृद्धियां परमात्मा को झुठलाने में लगा देता है। परमात्मा उन्हें बारीबारी से नष्ट करते जाते हैं ताकि वह सुधर सके। बेशक वे उन्हें उसके मन में ही नष्ट करे उनसे बोरियत के रूप में, बाहरी भौतिक रूप में नहीं। अंत में जब कुछ नहीं बचता तो आदमी अपने अंदर मौजूद उन भौतिक उपलब्धियों की यादों और वासनाओं की मदद से प्रभु से लड़ता है मतलब परमात्मा से अलग होकर अपनी पृथक सत्ता बनाए रखता है। अगर कोई घर का सदस्य घर छोड़ कर जाएगा, तो लड़कर ही जाएगा, प्रेमभाव से गले मिलकर तो नहीं। वासना पंजाबी शब्द वाशना से बना लगता है, जिसका मतलब गंध होता है। सारा मजा गंध में ही होता है। जब जुकाम आदि में गंध महसूस नहीं होती, तब खाना बिल्कुल भी स्वादिष्ट नहीं लगता। आपने देखा होगा कि कभी कोई पुरानी धुंधली याद आती है, पूरे मजे के साथ। ऐसा लगता है कि जो मजा उस असली स्थूल भौतिक घटना के समय भी नहीं आया होगा, वो उसकी बहुत धुंधली सी याद में आता है। यही उस घटना की वासना या गंध है। यह ऐसे ही होती है जैसे किसी इत्र की खुशबू। शायद यही संसार का सबसे सूक्ष्म रूप है जिसे तन्मात्रा भी कहते हैं। अगर बीती घटनाओं या बीते संसार की ऐसी गंधें आ रही हों, तो समझो योगी साधना के उच्च पद पर स्थित है और उसका सांसारिक कचरा शुद्ध होकर आत्मा में विलीन होता जा रहा है। शीघ्र ही उसे जागृति की झलक भी मिल सकती है। जब वासना रूपी अंतिम हथियार भी खत्म हो जाता है, तब वह अंधेरे जैसे में डूबने लगता है, जिसे डार्क नाइट ऑफ साउल या आत्मा की अंधेरी रात भी कहते हैं। फिर वह परमात्मा को हराने के लिए उन्हींके मंदिर जाता है, मतलब वह शिव को उठाकर फेंकने के लिए उन्हीं के पैर पकड़ता है। यह ऐसे ही है जेसे आदमी भौतिक समृद्धियों की मुराद मांगने मंदिर जाता है। फिर परमात्मा प्रसन्न होकर उसके सामने अपना असली रूप प्रकट कर देते हैं, जिससे वह उसी पल हार मान लेता है। परमात्मा के प्रकाश के सामने अहंकार का अंधेरा टिक ही नहीं सकता। शायद यही जागृति है।

कुंडलिनीतंत्र और किन्नरों का परस्पर अटूट रिश्ता

शिव पार्वती सहस्रार में मिलने के बाद विभिन्न चक्रों पर भ्रमण करते हैं। दरअसल असली शिव तो पूर्ण अद्वैत रूप परब्रह्म परमात्मा हैं। असली पार्वती मानसिक ध्यान चित्र है। जो पुरुष और स्त्री के शरीर प्रणयप्रेम में बंधे हैं, वे मात्र एक माध्यम या सहायक हैं, असली शिव और पार्वती का मिलन कराने के लिए। वे दोनों शरीर पहले एकांत स्थान में जाते हैं, जहां किसी का व्यवधान न हो। शिव और पार्वती उसके लिए एक गुफा में गए जहां एक हजार साल तक प्रणय करते रहे। इस एकांत स्थान को सहस्रार चक्र कह सकते हैं। वहां शिव को जागृति प्राप्त हुई। फिर दोनों विभिन्न स्थानों पर घूमने लगे। दरअसल कोई स्थान किसी चक्र विशेष से जुड़ा होता है तो कोई किसी से। इसीलिए कभी कोई चक्र क्रियाशील होता रहा तो कभी कोई। जो चक्र क्रियाशील होता है, वहां ध्यान चित्र अर्थात असली पार्वती भी केंद्रित हो जाती है, यह योग का नियम है। उससे वहां अद्वैतानंदरूप आत्मा अर्थात असली शिव भी ज्यादा अभिव्यक्त होता है, क्योंकि शिव और पार्वती साथ रहना चाहते हैं। शरीरधारी शिवपार्वती अशरीरी शिवपार्वती के सहयोगी हैं, विरोधी नहीं। इसलिए अगर कोई कहे कि असली जागृति तो मन के भीतर असली शिवपार्वती के मिलन से होती है, शारीरिक रोमांस अर्थात प्रणय का इसमें कोई योगदान नहीं, तो यह युक्तियुक्त नहीं लगता है।

शरीरी शिव के अंदर अशरीरी शिव अद्वैतब्रह्म के रूप में है, और अशरीरी पार्वती मानसिक कुंडलिनीध्यानचित्र के रूप में है। शरीरी शिव के अंदर बसी अशरीरी पार्वती जब अशरीरी शिव से पूर्णतः एकाकार हो जाती है, उसे शरीरी शिव का कुंडलिनी जागरण कहते हैं। इसमें शरीरी शिव की मदद शरीरी पार्वती प्रणय संबंध के जरिए करती है। इससे अशरीरी पार्वती को ज्यादा से ज्यादा अभिव्यक्त होने या स्पष्ट मानसिक चित्र बनने के लिए ज़रूरी यौनऊर्जा मिलती है। जिससे वह सहस्रार चक्र तक ऊपर उठकर अशरीरी शिव से एकरूप होकर जागृत हो जाती है।

अब शरीरी पार्वती का वर्णन करते हैं। शरीरी पार्वती का अशरीरी शिव भी उसी अद्वैतब्रह्म अर्थात निराकार ब्रह्म के रूप में ही है, और अशरीरी पार्वती उसका भी मानसिक ध्यानचित्र ही है। शरीरी पार्वती के अंदर बसी अशरीरी पार्वती जब अशरीरी शिव से पूर्णतः एकाकार हो जाती है, उसे ही शरीरी पार्वती का कुंडलिनी जागरण कहते हैं। इसमें शरीरी पार्वती की मदद शरीरी शिव प्रणय संबंध के जरिए करता है। इससे अशरीरी पार्वती को ज्यादा से ज्यादा अभिव्यक्त होने या स्पष्ट मानसिक चित्र बनने के लिए जरूरी ऊर्जा मिलती है। जिससे वह सहस्रार तक ऊपर उठकर अशरीरी शिव से एकरूप होकर जागृत हो जाती है।

अब जब जागृति हो गई है मतलब अशरीरी शिवपार्वती सहस्रार में पूरी तरह से एकजुट हो गए हैं, तो यह मिलन आगे के चैनल के माध्यम से नीचे उतरता है। यद्यपि निचले चक्रों में वे पूरी तरह से एकजुट नहीं होते हैं, पर ऐसा लगता है जैसे तीव्र ध्यान छवि को गहन आनंद के साथ अनुभव किया जा रहा है। सबसे पहले यह मिलन आज्ञा चक्र तक गिरता है। वहां ध्यान सहस्रार को छोड़कर सभी चक्रों में सबसे मजबूत है। फिर यह कंठ चक्र तक उतरता है। फिर हृदय चक्र, फिर मणिपुर चक्र, फिर स्वाधिष्ठान चक्र और अंत में मूलाधार चक्र। यहां यह मिलन बैक चैनल के माध्यम से सहस्रार चक्र में वापस लौटने के लिए तैयार हो जाता है, हालांकि कई कारणों से लंबे समय तक जागृति दोबारा नहीं होती है। शिवपार्वती का यह मिलन या जोड़ा चक्रों के समान विभिन्न स्थानों पर अस्थायी रूप से स्थित होकर पूरे ग्रह पर घूमता रहता है। आप सहस्रार को शिव लोक या कैलाश पर्वत, आज्ञा चक्र को अलकापुरी और इसी तरह अन्य सभी को अन्य लोक कह सकते हैं। आप सभी बारह चक्रों को द्वादश ज्योतिर्लिंग भी कह सकते हैं, जिनमें काशी भी एक है जो शिव को अत्यंत प्रिय है और वहां शिवपार्वती अक्सर आनंदपूर्वक विचरण करते नजर आते हैं।

पुरुष और स्त्री, दोनों के अंदर अशरीरी शिव और पार्वती समान रूप से स्थित हैं। स्त्रीशरीर को पार्वती या ध्यानचित्र का रूप इसलिए दिया गया है, क्योंकि दोनों के गुण ज्यादा मिलते हैं। पुरुषशरीर को शिव या ब्रह्म का रूप इसलिए दिया गया है क्योंकि दोनों के गुण आपस में ज्यादा मिलते हैं। इसका मतलब है कि सभी लोग कुछ न कुछ हद तक उभयलिंगी होते हैं, क्योंकि दोनों के अंदर अशरीरी शिवपार्वती समान रूप में मौजूद हैं, और दोनों के भौतिक शरीर भी अशरीरी शिवपार्वती से मेल खाते हैं, हालांकि अशरीरी शिव और अशरीरी पार्वती का अनुपात कम या ज्यादा होता रहता है। पर जो इन दोनों लिंगों को निडरता के साथ बाहर प्रकट करता है, उसे हिजड़ा या किन्नर कहकर अपमानित किया जाता है। इसके पीछे शरीरवैज्ञानिक दोष भी हो सकते हैं। प्राचीन भारत में इनका बहुत सम्मान होता था, और इन्हें विशिष्ट माना जाता था। गुलामी के दौर में यह सोच बदल गई थी। अब तो तीसरे लिंग को आधिकारिक और कानूनी दर्जा भी प्राप्त हो गया है। किन्नर यिनयांग अर्थात शिवशक्ति सम्मिलन का अच्छा उदाहरण होते हैं। इनमें कुंडलिनी शक्ति कूटकूट के भरी होती है। जब किसी स्त्री के संपर्क में आने से उसी जैसे परिचित पुरुष के संपर्क का भी अहसास हो तो समझ लो उसमें यिनयांग गठजोड़ बहुत ज्यादा और मजबूती से बंधे हैं। जागृति तक पहुंचने के लिए ऐसी पुरुषस्वभावी स्त्री का बड़ा योगदान होता है। उससे मन में हमेशा ही एक ध्यानचित्र मजबूती से बना रहता है, बिना किसी विशेष आध्यात्मिक प्रयास या योगाभ्यास के, या इनका थोड़ा अनुष्ठान ही काफी है। इससे तो यह भी संभव हो सकता है कि जब किसी पुरुष के संपर्क में होने से उसके जैसे स्वभाव वाली स्त्री के संपर्क का अहसास होने लगे, तो वह भी यिनयांग का भंडार है। पक्का ऐसा होता है, क्योंकि बहुतों का अनुभव भी ऐसा ही बोलता है। वे भी ध्यानसाधना और जागृति में सहयोग करते हैं। हां, एक बात और, समलैंगिक, गे, लेस्बियन आदि लोगों के बारे में अलग से लिखने की जरूरत नहीं लगती मुझे, क्योंकि ये भी मुझे किन्नरों की तरह ही उभयलिंगी या शिवशक्ति जैसे ही लगते हैं, मतलब इनमें पुरुष और स्त्री दोनों नजर आते हैं। दरअसल मूलसिद्धांत के रूप में होता यह है कि किन्नरों के प्रति जो संभोग की भावना पैदा होती है, उसमें संयम ज्यादा होता है किसी पूर्ण स्त्री या पुरुष की अपेक्षा। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि स्त्री में पुरुष दिखता रहता है और पुरुष में स्त्री दिखती रहती है। इस विपरीत दर्शन से कामभाव नियंत्रित रूप में हमेशा बना रहता है, मतलब न तो यह आम अवस्था की तरह गायब होता है, और न ही अनियंत्रित रूप से बढ़कर आदमी को यौन अपराध या यौन दुराचार के दलदल में धकेलता है। इससे कामभाव के कारण जो ऊर्जा सहस्रार व अन्य चक्रों से स्वाधिष्ठान व मूलाधार चक्र को जाती है, वह उनसे संबंधित अंगों में क्रियाशीलता पैदा करके बैक चैनल से ऊपर चली जाती है एंप्लीफाय या प्रवर्धित होकर। मतलब वह ऊर्जा संभोग या स्खलन के रूप में बाहर नहीं निकलती। माइक्रोकोस्मिक ऑर्बिट में घूमती हुई ऊर्जा को बेहतरीन समझा जाता है, क्योंकि यह पूरे शरीर को तरोताजा भी करती रहती है, और मूलाधार के प्रभाव से अपने आप को प्रवर्धित भी करती रहती है। अब शायद कोई मुझे किन्नरवैज्ञानिक या किन्नर विशेषज्ञ का दर्जा न दे दे। इसलिए ज्यादा विस्तार में नहीं जाऊंगा। ये दोनों ही किस्म के व्यक्तित्व कुंडलिनी योग और जागृति में बहुत मदद करते हैं। तो क्यों न इसी तर्ज पर किन्नरों को यिनयांग मशीन या कुंडलिनी मशीन की तरह समझा जाए। संभवतः प्राचीन भारत में उनके सम्मान की यही मुख्य वजह थी। इसीलिए भारत में इनकी संख्या काफी है, और यहां इनका अपना पृथक समाज भी है। ये अर्धनारीश्वर की पूजा करते हैं। बाकि तो लोग कहते ही हैं कि उनकी दुआ झूठी नहीं होती, उनकी बोली बात सच साबित होती है आदि, ये सभी कुंडलिनीयोगशक्तिजनित जैसी सिद्धियां ही हैं। अभी हाल ही मैं ताली नाम की बायोपिक वैबसीरीज देखी, जो किन्नर गौरी सावंत के जीवन पर बनी है, जिसने किन्नरों को एक संवैधानिक दर्जा दिलवाने में बड़ी भूमिका निभाई। इसमें दिखाया गया कि कैसे वह अपने उभयलिंगी स्वभाव को प्रकट करने के कारण बचपन से ही ज्यादतियों और नफरत का शिकार बनी रही, और कैसे उसने ऐसे व्यवहार और नजरिए को बदलने में समाज की मदद की।

कुंडलिनीजागरण के रूप में ब्रह्मास्त्र के दुष्प्रभावों से शैवास्त्र या पाशुपत अस्त्र ही बचा सकता है

दोस्तो, महाभारत में अश्वत्थामा नाम का एक महान व्यक्ति चरित्र है। उनको भगवान शिव का अवतार कहा गया है। वे गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र थे। द्रोणाचार्य कौरवों और पांडवों के गुरु थे। वे सभी विद्याओं में प्रवीण थे, पारलौकिक ब्रह्मविद्या में भी। वे ब्राह्मण थे, और उस समय असली ब्राह्मण उसीको समझा जाता था, जिसे ब्रह्मविद्या आती थी। नाम के ब्राह्मण तो बहुतेरे होते थे। ब्रह्मविद्या कुंडलिनीविद्या का ही पर्याय है, क्योंकि दोनों से ब्रह्मरूप जागृति की प्राप्ति होती है। द्रोणाचार्य के पास सबसे बड़ा युद्धास्त्र माने ब्रह्मास्त्र भी था। ब्रह्मास्त्र में पूरी सृष्टि को जलाने की क्षमता होती है, नाभिकीय हथियार की तरह। द्रोणाचार्य ने वह अतिगुप्त ब्रह्मास्त्रविद्या सिर्फ अपने पुत्र अश्वत्थामा को प्रदान की थी, अपने सर्वप्रिय शिष्य अर्जुन को भी नहीं। जब कौरव हार गए, तब उससे हताश और दुखी दुर्योधन ने अश्वत्थामा से मदद मांगी। वह भी अपने प्रिय मित्र की मांग को ठुकरा नहीं सका। वह रात के अंधेरे में पांडवगृह से पांच सोए हुए पुरुषों को पांडव समझ कर उनके सिर काट कर ले गया। दरअसल वे पांडवों के पांच पुत्र थे। द्रौपदी के विलाप से गुस्से से भरकर अर्जुन श्रीकृष्ण के साथ रथ पे बैठकर उसका पीछा करने लगे। अश्वत्थामा डरकर भाग गया और उसने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र अर्थात ब्रह्मशिर अस्त्र चला दिया। उससे सारी सृष्टि को खतरा पैदा हो गया। उसकी तेज चमक से सृष्टि जलने लग पड़ी। उससे सभी दिशाओं में प्रचंड तेज पैदा हो गया। अपने प्राणों पर आई हुई आपत्ति को देखकर अर्जुन दुखी हुए और उनका तेज नष्ट हो गया। श्रीकृष्ण भी उस अस्त्र को नहीं रोक पा रहे थे। उसे रोकने की विद्या अश्वत्थामा ने अपने पिता से नहीं सीखी थी। अश्वत्थामा भी अपनी गलती महसूस कर रहा था, पर कुछ नहीं कर पा रहा था। उसे श्रीकृष्ण समेत सबने बहुत लताड़ा कि जब उसे ब्रह्मास्त्र को रोकना नहीं आता था, तब उसने उसे क्यों चलाया। फिर श्रीकृष्ण की सलाह से अर्जुन ने भगवान शिव का ध्यान करते हुए उनके द्वारा प्रदत्त शैवास्त्र अर्थात पाशुपत अस्त्र को चला कर उसे शान्त किया। उससे होने वाला नुकसान टल गया, हालांकि वह उत्तरा के गर्भ को जलाने की कोशिश कर रहा था पर श्रीकृष्ण ने उसे पाशुपत अस्त्र के प्रयोग तक बचा लिया था।

उपरोक्त कथा का अध्यात्मवैज्ञानिक विश्लेषण

पहली बात, साथ के एक श्लोक में इस ब्रह्मास्त्र को वही ब्रह्मशिर तीर भी कहा गया है, जिसको ऋषि दधिचि के मेरुदंड से बना कर उससे दैत्य वृत्रासुर को मारा गया था। हाल की पुरानी पोस्ट में हमने सिद्ध किया था कि वह जागृत सुषुम्ना रूपी शक्तिरेखा है। दूसरा, अश्वत्थामा एक ज्ञानी ब्राह्मण था, जिसको उसके वेदपारंगत पिता द्रोणाचार्य ने सारी शिक्षादीक्षा दी थी। ब्राह्मण का काम वेदों के अध्ययन व अध्यापन का होता है, अस्त्रशस्त्रों से उनको क्या लेना देना। अगर कोई कहे कि बेशक लड़ना क्षत्रियों का काम था, पर लड़ाई करना सिखाना ब्राह्मणों का काम होता था, तो यह बात कुछ जंचती नहीं। जो खुद ही लड़ना न जाने, वह औरों को क्या लड़ना सिखाएगा। मुझे तो उनके लिए प्रयुक्त यह अस्त्रशस्त्रों की भाषा अलंकारिक लगती है। ऐसा इसलिए भी किया गया होगा ताकि ऐसा न हो कि यौद्धा क्षत्रिय अहंकार में आकर ब्राह्मणों के नियंत्रण में न रहें। वैसे भी बुद्धि को सबसे बड़ा अस्त्र माना गया है, क्योंकि बुद्धिकौशल से बड़े से बड़ा युद्ध भी जीता या टाला जा सकता है, और बुद्धि ब्राह्मण के पास बहुतेरी होती है। महाभारत का युद्ध भी मुझे मानसिक युद्ध लगता है। काफी समय पहले अखबारों और सोशल मीडिया में कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत युद्ध के रेडियोधर्मी विकिरण होने की खबरें पढ़ी थीं। लिखा था कि फलां वैज्ञानिकों ने जांच की तो टेस्ट पॉजिटिव निकले। पता नहीं मनगढ़ंत बातों को कैसे सच की तरह पेश कर देते हैं, कहां से वैज्ञानिक लाते हैं, और कहां पे जांच करा देते हैं। गहराई से पता करने पर पता चला कि इसकी कोई वैज्ञानिक पुष्टि नहीं हुई है, और इसे अभी तक माइथोलॉजी ही माना गया है। यह अलग बात है कि इसे पूरी तरह जुठलाया नहीं जा सकता, क्योंकि जो भीतर सूक्ष्म रूप में हो रहा है, वही बाहर भी स्थूल रूप में हो रहा है। ब्रह्मास्ञ मन के सूक्ष्म संसार को नष्ट करता है, और नाभिकीय हथियार बाहर स्थित बिल्कुल उसी रूप वाले स्थूल संसार को। वास्तव में सबकुछ सूक्ष्म ही है। शायद आम आदमी के अंदर अध्यात्म के प्रति जिज्ञासा बढ़ाने के लिए ही ऐसी अर्धसत्य जैसी कथाएं गढ़ी जाती हैं। एक बात और, अगर पुराणों में वर्णित युद्ध असली भौतिक युद्ध होते, तो हिंदु कौम सबसे लड़ाकी कौम होती, पर ऐसा नहीं है, बल्कि इसका बिल्कुल उलटा लगता है। हिंदु तो आज सिमटते दिख रहे हैं। साथ में, सूर्यास्त से सूर्योदय तक युद्ध को बंद रखा जाता था। जीवनयुद्ध में ही ऐसा होता है, जब दिन में लोग काम करते हैं, और रात्रि को सो जाते हैं। इन सबसे यही जाहिर होता है कि वे युद्ध मन के दोषों के खिलाफ कुंडलिनी शक्ति द्वारा शरीर में ही लड़े जाते थे। उन्हें रोचक बनाने के लिए ही उन्हें बाहर और असली की तरह दिखया गया है। यह अलग बात है कि जैसा शरीर के अंदर होता है, उसके बाहर भी वैसा ही होता है। दुर्योधन मतलब मुश्किल से युद्ध में जीता जाने वाला व्यक्ति मुझे अहंकार का प्रतीक प्रतीत होता है। कौरव सौ भाई थे। कहावत भी प्रचलित है कि फलां में सौ दुर्गुण हैं। मैं महाभारत के इतिहासरूप होने से भी इनकार नहीं कर रहा हूं। हो सकता है कि दोनों ही बातें सही हों। इससे भी यही जाहिर होता है कि ब्रह्मास्त्र जागृत सुषुम्ना ही है। अश्वत्थामा ने उसे अर्जुन पर चलाया, मतलब अपनी दृष्टि के शक्तिपात से वह अर्जुन के अंदर कुंडलिनी जागृत करने लगा। वैसे भी अश्वत्थामा जागृत व्यक्ति था। इसका प्रमाण उसके माथे की मणि है। दरअसल वह जागृत आज्ञा चक्र अर्थात खुली हुई तीसरी आंख है। अचानक कुंडलिनी जागृत होने से वैसी ही बेचैनी होगी, जैसी वर्षों तक अंधेरी गुफा में रहने वाले आदमी को एकदम बाहर धूप में निकालकर होती है। उससे सभी दिशाओं में प्रचंड तेज पैदा हो गया, मतलब अर्जुन के मस्तिष्क में चारों ओर चमक छा गई, क्योंकि मस्तिष्क के अंदर ही सारा ब्रह्मांड है। जागृति के समय अजीब सी अनहोनी का डर तो लगता ही है, हालांकि वह सामान्य डर से अलग होता है। वह आनंद, प्रकाश और सुकून से भरा होता है। साथ में नष्ट होते अहंकार मतलब खत्म होते अपने व्यक्तित्व के कारण आसन्न मृत्यु के जैसा आभास भी हो सकता है। यह आभास भी मृत्यु से अलग और प्रकाशपूर्ण व सत्तापूर्ण होता है। आदमी को लग सकता है कि वह किसी शान्त दिव्यलोक या मुक्तिलोक की ओर जा रहा है। इससे अर्जुन दुखी हुए और उनका तेज नष्ट हो गया। दरअसल अहंकार का तेज नष्ट हुआ, ब्रह्मतेज तो बढ़ रहा था। लड़ाई तो अहंकार का तेज करता है, ब्रह्मतेज तो सबकुछ भुलाकर संन्यासी सा बनाता है। समझ लो कि अर्जुन को कुंडलिनी जागरण हुआ या वह उसकी तरफ़ बढ़ा। उससे उसके ऊपर कुंडलिनी जागरण के सहदोष मतलब साईड इफैक्ट पैदा हुए। इन्हीं का अलंकरिक वर्णन हो रहा है। जीवन एक युद्ध ही है। अगर आदमी कुंडलिनी के बोझ से दबेगा, तो जीवनयुद्ध में कैसे लड़ेगा, दुर्योधनरूपी अहंकार को कैसे मारेगा। समस्या यह है कि अश्वत्थामा जैसा शुद्ध और सात्विक ब्राह्मण इतनी ऊर्जा कहां से लाए, जो उन कुंडलिनीदोषों को नष्ट करवा सके। वह उस समय कुंवारा लड़का था, इसलिए गुरु द्रोणाचार्य ने उसे शक्तिस्रोत तांत्रिक तकनीकें नहीं सिखाई थीं। पर विवाहित अर्जुन ने भगवान शिव से वे वामाचारी तकनीकें पहले ही सीख ली थीं, जिनको शैवास्त्र या पाशुपत अस्त्र का नाम दिया गया है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उनकी याद दिलाई। अश्वत्थामा शिव का अवतार था, क्योंकि वह दुर्गुण रूपी कौरवों का साथ दे रहा था। शिव भी तो बाहर से देखने पर दुर्गुणी तांत्रिक ही लगते हैं। वे हमेशा ही राक्षसों के पक्ष में रहते हैं, पर जब देवता उन्हें मनाते हैं, तो देवताओं के पाले में आ जाते हैं। भोले हैं न। उन्हें हरकोई आसानी से गुमराह भी कर सकता और मना भी सकता है। पांडवों ने कृष्ण के साथ मिलकर सजा के तौर पर उसके माथे से मणि निकाल दी थी। इसका मतलब है कि अगर कोई शैवतंत्र के समुचित ज्ञान के बिना शिव के जैसा बनने की कोशिश करेगा, वह जागृत होकर भी मार्गभ्रष्ट हो जाएगा। यह उसके लिए मृत्युदंड के समान ही है। द्रोणाचार्य ने ब्रह्मास्त्र विद्या अपने शिष्यों को क्यों नहीं सिखाई, और सिर्फ अपने पुत्र अश्वत्थामा को ही क्यों सिखाई। लौकिक विद्या में तो इसका उल्टा होता है, मतलब अध्यापक अपने विद्यार्थियों को तो सबकुछ सिखा सकता है, पर अपने पुत्र को कुछ भी नहीं सिखा पाता, उसके लिए अलग से ट्यूशन रखवानी पड़ती है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि वह पारलौकिक योगविद्या थी। वह किसी के सिखाने से कम समझ आती है, पर अपने वर्तमान परिवार और पूर्वजों की निरंतर संगति और संस्कारों से बिना सिखाए खुद ही सीखने में आ जाती है। एक बात और, भौतिक अस्त्र ऐसा तो नहीं करता कि महिला को नुकसान पहुंचाए बिना उसके गर्भ में पल रहे बच्चे तक पहुंच जाए। हां, नाभिकीय हथियार के विकिरण ऐसा कर सकते हैं। पर उससे तो अनगिनत औरतों के गर्भ को नुकसान पहुंचता है, सिर्फ अकेली चुनी हुई महिला के गर्भ को नहीं। कुंडलिनी को डीएनए प्रभावित करने वाला कहते हैं। क्योंकि वे सभी एक ही परिवार के सदस्य थे, इसलिए सभी के डीएनए आपस में जुड़े थे। क्योंकि गर्भस्थ शिशु सबसे ज्यादा कोमल होता है, इसलिए उसका डीएनए सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ। उसे ऐसा महसूस हो रहा था कि चारों ओर गहरी और जलाने वाली चमक है, जिसे भगवान कृष्ण अपने सुदर्शन चक्र से शांत कर रहे थे। दरअसल जब कुंडलिनी शक्ति मस्तिष्क में पहुंचती है, तो उसके दुष्प्रभावों से बचाने के लिए उसके बीच में खुद ही एक ध्यानचित्र प्रकट हो जाता है। संभवतः उसके रूप में ही श्रीकृष्ण थे। श्रीकृष्ण ही इसलिए क्योंकि वे ही उसके परिवार के सबसे नजदीकी, सबसे प्रिय और सबसे सम्माननीय थे।

महाभारत को पांचवां वेद कहते हैं। वेद में परम तत्त्व का अनुभवात्मक व गूढ़ वर्णन है। उसी को पुराणों और महाभारत में सरल किया गया है, माईथोलोजिकल कथाओं से। उनमें भौतिक विज्ञान का क्या काम। हालांकि स्थूल भौतिक जगत के अंदर भी वही है, जो मन और आत्मा के अंदर है, पर मुख्य फोकस मन, आत्मा और उससे जुड़े शरीर के पहलुओं पर रखा गया है। कृष्ण आत्मा है। पांच पांडव उनके पांच प्राण हैं। यह श्रीकृष्ण ने खुद भी कहा है। अर्जुन मुख्य प्राण है। सैकड़ों किस्म के दुनियावी व पापी विचार सौ कौरव भाई हैं। वे लगातार प्राणों की शक्ति को हरते रहते हैं। वे उन्हें आत्मा से दूर रखना चाहते हैं। कृष्ण का सबसे प्रिय मित्र अर्जुन है। प्राण ही आत्मा से मिलने के लिए ऊपर उठता है। प्राण सांसों को शक्ति देता है। वही आत्मा के सबसे निकट रहता है। इसीलिए जागृति के समय सांस शांत जैसी हो जाती है। सांसों के बल से ही शक्ति ऊपर चढ़ती है। अश्वत्थामा ने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र चलाया मतलब योग ने प्राण को जागृति के लिए उकसाया। सात चक्र पांडवों के सात पुत्र हैं। प्राणों से ही चक्र क्रियाशील होते हैं। पांच पुत्रों को अश्वत्थामा ने मार दिया मतलब सैंकड़ों बुराईयों के बीच फंसी हुई योग आदि के रूप वाली अच्छी सांसारिक क्रियाशीलता ने पांच चक्रों का भेदन कर दिया। वैसे भी भौतिक क्रियाशीलता से सबसे अधिक दबाव मूलाधार चक्र पर ही पड़ता है, क्योंकि यह कमर के जोड़ के करीब होता है। योग से यह दबाव ज्यादा हो जाता है, क्योंकि इसमें हम ज्यादा झुकते हैं, ज्यादा समय के लिए झुकते हैं, और सांस रोककर झुकते हैं। पिछले स्वाधिष्ठान चक्र की जो उभरी हुई हिप बोन की हड्डी होती है, के बिल्कुल साथ लगता ऊपर की तरफ़ एक गड्ढा सा होता है, मुझे तो वही असली मूलाधार लगता है, या मूलाधार के साथ उसका सीधा सम्बन्ध होता है। उसमें गहरी मालिश करने से यौनानंद जैसी तेज संवेदना की अनुभूति होती है जो ऊपर की ओर चढ़ती है। पाण्डवों के पुत्रों में अभिमन्यु और घटोत्कच बचे रहे मतलब सबसे ऊपर के दो मुख्य चक्रों का भेदन नहीं हुआ। इसीलिए अर्जुन से कुंडलिनी के लक्षण झेले नहीं गए। अब इसे मनगढ़ंत बनाई हुई कहानी कहो या महाकाव्य लेखक ऋषि के द्वारा बनाई गई असली योग कहानी, पर बनी अच्छी और तथ्यात्मक है।

इस कथा का एक दूसरा पक्ष भी है। द्रौण एक पर्वत का नाम भी है। द्रोणाचार्य मतलब पर्वतों को नियंत्रित करने वाले आचार्य। वैसे भी उन्होंने द्रौण पर्वत पर तपस्या की थी। अस्थियों को पर्वत ही कहा गया है कई स्थानों पर। योग आदि अस्थियों से ही होते हैं। इसीलिए तो अश्वत्थामा योगसाधना को कह रहा हूं। जब योग से चक्रों का भेदन हुआ, तो उनमें दबी हुईं भावनाएं बाहर निकलकर विलुप्त हो गईं, मतलब पूरी तरह मर गईं। इसी से उनकी माता बुद्धि मतलब द्रौपदी दुख से रोने लगी, क्योंकि उसीके कार्यों की बदौलत वे भावनाएं निर्मित हुई थीं। आत्मा कृष्ण के साथ प्राण अर्जुन भी इससे उद्विग्न जैसे हो गए और वे योग को रोकने मतलब अश्वत्थामा को पकड़ने के लिए दौड़े। पर तब तक सुषुम्ना जागृत हो गई थी, मतलब उसने ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया था। वैसे भी सहस्रार चक्र को ब्रह्मरंध्र भी कहते हैं। अश्वत्थामा दुर्योधन की ही मित्रता निभा रहा था, क्योंकि स्वार्थ से भरी दुनियादारी से जब आदमी थक या ऊब जाता है, तब खुद ही योग अपनाता है। प्राण उस जागृत कुंडलिनी के तेज को झेल नहीं पाया, इसलिए उसने उसे माथे को मलते हुए आज्ञाचक्र तक नीचे उतार दिया। फिर वह पता नहीं कहां विलीन हो गई। यही अश्वत्थामा के माथे से मणि निकालना है। जागृति के बाद आदमी बच्चे की तरह बनकर नया जन्म सा महसूस करता है। यही अश्वत्थामा का पूर्ण मुंडन है। अगर ब्रह्मास्त्र भौतिक अस्त्र होता तो उसकी चमक व अन्य प्रभाव सभी को महसूस होते, पर वह सिर्फ अर्जुन को ही महसूस हुआ, क्योंकि वह उसके अंदर था। कृष्ण तो साक्षात आत्मापरमात्मा हैं, उन्हें उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि वे हमेशा जागृत ही हैं। शैवास्त्र तो दुनियादारी वाला आसक्त जैसा मन है। तंत्र के पंचमकार सबसे बड़ी दुनियादारी है। उसका ध्यान या दर्शन करके वह शैवास्त्र चल पड़ा जिससे ब्रह्मास्त्र शान्त हो गया। हो सकता है कि आसपास कोई स्त्रियों आदि का नाचगाना या समारोह चल रहा हो। उनकी तरफ ध्यान देते ही शैवास्त्र चल पड़ा हो। दरअसल आज्ञा चक्र और सहस्रार चक्र भी क्रियाशील हो जाने चाहिए, तभी कुंडलिनी जागरण अच्छी तरह से झेला जा सकता है। आज्ञाचक्त के क्रियाशील होने से बुद्धि के प्रकट और अप्रकट जटिल विचार भस्मीभूत हो जाते हैं। इसी तरह सहस्रार चक्र के क्रियाशील होने से वहां पर रक्तसंचार बढ़ जाता है, जिससे जागृति का दबाव झेला जा सके। साथ में, क्रियाशील व दबे हुए अनर्गल दृश्य विचार भी भस्म हो जाते हैं।

अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु था और उसका पुत्र परीक्षित था जो उत्तरा के गर्भ में श्रीकृष्ण को देख रहा था। वह बाहर आकर भी सबमें कृष्ण की परीक्षा करता रहता था, इसीलिए उसका नाम परीक्षित पड़ा। अभिमन्यु का शाब्दिक अर्थ है, बहुत क्रोध। दरअसल प्राणों से ही क्रोध अभिव्यक्त होता है। वह क्रोध दुर्योधन जैसी कपटी दुनियादारी की तरफ़ था। पर वह ऊपरऊपर की सोच के अंदर दबा था, गहरी सोच के अंदर नहीं। मतलब अर्जुन उनसे ऊपरऊपर से नफरत करता था, गहराई में नहीं। उत का शाब्दिक अर्थ है ऊपर, और तरा का मतलब तैरने वाली। इससे क्रोध की शक्ति कुंडलिनी ध्यानचित्र के रूप में रूपांतरित हो रही थी। इसी से कृष्णरूप ध्यानचित्र परीक्षितरूपी नवजीव को महसूस हो रहा था। नया जीव इसलिए क्योंकि ध्यानचित्र से जीव रूपांतरित होकर नया सा बन जाता है। फिर वह रूपांतरित व्यक्ति बड़ा होकर भी उसी ध्यानचित्र को हर जगह ढूंढता और परखता रहता था, क्योंकि वह बहुत आनंदकारी और हितैषी होता है। जब वह मन में ही सूक्ष्म रूप में इतना अच्छा है, तब भौतिक रूप में कितना ज्यादा अच्छा होगा। पर भौतिक रूप की अपनी बाध्यताएं होती हैं। इसलिए वह कहीं नहीं मिलता। आदमी हर जगह परीक्षा ही करता रह जाता है। हरेक आदमी खासकर जागृत आदमी परीक्षित है।

एक बात और, जिस चक्रव्यूह में अभिमन्यु घुसा था, उसमें सात तहें थीं। एक तो नाम भी चक्र, और गिनती भी शरीर के चक्रों के बराबर। दोनों ही एक के ऊपर एक परत के रूप में होते हैं। मूलाधार चक्र अपने तक ही सीमित है, स्वाधिष्ठान चक्र उसको भी कवर करता है आदि। इस तरह ऊपर वाला चक्र नीचे वालों को भी समेटता है। सहस्रार सभी चक्रों को कवर करता है। जब आदमी किसी पर क्रोध के कारण चक्रसाधना में घुसता है, तब वह अंदर तो घुस पाता है, पर बाहर नहीं निकल पाता, क्योंकि साधना के प्रभाव से क्रोध खत्म हो जाता है। ध्रुव अपनी सौतेली मां के प्रति क्रोध से भरकर ही भगवान विष्णु को खोजने निकला था, पर जब वे मिल गए, तब उसका क्रोध खत्म हो गया और उसे वही मां बहुत प्रिय लगने लगी। शायद भगवान राम के साथ भी ऐसा ही हुआ, इसीलिए उनका बुरा चाहने वाली सौतेली मां उन्हें सबसे प्रिय लगती थीं।

कुंडलिनी की सहायता के बिना देवता भी कामयाब नहीं हो पाते

पिछली पोस्ट को जारी रखते हुए, बुद्धिस्म में तंत्र वाली शाखा को वज्रयान नाम इसीलिए दिया गया है। प्रेमयोगी वज्र नाम भी इसीलिए पड़ा है। उसकी साधना में मूलरूप में तो प्रेमयोग ही है, पर उसमें तंत्र का भी अच्छा योगदान है। देवताओं ने वृत्रासुर के साथ लंबे अरसे तक युद्ध किया था। परंतु वे उसे हरा न सके थे। अंत में वे हार मानते हुए अपने अस्त्रशस्त्र दधिचि मुनि के आश्रम के निकट छोड़कर भाग गए। इसका मतलब है कि देवताओं ने दुखों के विचारों से बचने के लिए आदमी के शरीर में हाथपैर, आंखें, कान, मस्तिष्क आदि अनेकों अंग लगाए। पहले आदमी कीटाणुविषाणु की तरह एककोशिकीय जीव होता था। वह तो दुःख से भरी अवस्था ही थी। उस दुःख को दूर करने के लिए देवताओं ने कई युगों तक उस प्राथमिक जीव का विकास किया। अंत में मनुष्य शरीर बना। इतनी मेहनत के बाद भी दुखों का अंत कहां हुआ। उल्टा वह बढ़ने ही लगा। आज विज्ञान जितनी ज्यादा तरक्की कर रहा है, प्रकृति से उतनी ही ज्यादा छेड़छाड़ बढ़ रही है, जिससे जानमाल की तबाहियां भी बढ़ रही हैं। प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं। हत्या, लूटपाट आदि अपराध बढ़ रहे हैं। मन के मुख्य पांच दोष काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर और उनसे पैदा होने वाले अनगिनत मानसिक विकार जैसे कि अवसाद, अकेलापन, हिंसा, स्वार्थभाव आदि बढ़ ही रहे हैं। मतलब दुखों के पहाड़ के रूप में वृत्रासुर का ही हमला हो गया। मजबूरन देवताओं ने हाथ खड़े कर दिए। दधिचि मुनि यहां आत्मा को कहा गया है। उसके आश्रम के निकट देवताओं ने हथियार छोड़ दिए, मतलब उन्होंने शरीर के सभी अंग निर्मित कर दिए, क्योंकि शरीर ही आत्मा के सबसे निकट है। देवताओं ने हार मान ली, मतलब इंद्रियों व अंगों के बल से चित्त का अहंकाररूपी परम दुख या शत्रु कभी नष्ट नहीं हो सकता था, यह पूरी तरह से सिद्ध हो गया था, छोटेमोटे शारीरिक व मानसिक दुख बेशक दूर हो जाते। यह परम दुख ही वृत्रासुर राक्षस था। शिव के वरदान से ही दधीचि मुनि की अस्थियां वज्रतुल्य बनी थीं। मतलब कि शिवप्रदत्त योग से हड्डियों में, विशेषकर रीढ़ की हड्डी में इतनी लोच व जीवंतता थी कि उसमें कुंडलिनी ऊर्जा आसानी से प्रवाहित हो सकती थी। वज्रपात बिजली गिरने को कहते हैं। उससे कठोर चट्टान भी टूट जाती है, और साथ में उसमें बिजली भी प्रवाहित होती है। इसी तरह रीढ़ की हड्डी की सुषुम्ना नाड़ी में प्रकाशमान ऊर्जारेखा का दौड़ना ही बिजली गिरने के समान है, और उससे अहंकार का नष्ट होना ही चट्टान के टूटने जैसा है। अहंकार ही दुनिया की सबसे कठोर वस्तु है, जिसे तोड़ना सबसे कठिन है।
कहते हैं कि ऋषि दधिचि की सुवर्चा नाम की एक पत्नी भी थी। जब देवता ब्रह्मा के पास सहायता मांगने गए थे, तब उन्होंने ही उन्हें दधीचि से अस्थियां मांगने की सलाह दी थी। सुवर्चा अंदर वाले कक्ष में थी, और देवता बाहर वाले कक्ष में बैठे दधीचि से उनकी हड्डियां मांग के ले गए। दधीचि ने योगसमाधि लगा कर शरीर छोड़ दिया और वे ब्रह्म में विलीन हो गए। जब सुवर्चा को पता चला तो वह बहुत क्रोधित हुई, और उसने देवताओं को श्राप दिया। उस समय सुवर्चा गर्भवती थी। ऋषि की वीर्यशक्ति से उसे दूसरे शिव के समान महान पुत्र प्राप्त हुआ। उसका नाम पिप्पलाद था। सृष्टि के मूल निर्माता तो ब्रह्मा ही हैं। उन्हें पता है कि देवता जितना मर्जी जोर लगा लें, पर वे आध्यात्मिक अज्ञान को नहीं मिटा सकते। यह भी उन्हें पता था कि योगी के मेरुदंड में स्थित सुषुम्ना में ऊर्जाप्रवाह से जब कुंडलिनी जागरण होगा, उसी से वह मर सकता है। जागृति से अज्ञान तो मिटेगा ही, अहंकार भी मिटेगा। अहंकार ही मनुष्य का अपना साधारण या लौकिक अनुभव वाला रूप होता है। जब अहंकार ही नहीं, तब मनुष्य का अस्तित्व भी कैसे रह सकता है। इसी को ऐसा कहा है कि दधीचि मुनि खुद शरीर छोड़कर चले गए। दरअसल अहंकार तो जागृति से पहले ही खत्म हो चुका होता है। तभी तो जागृति का अनुभव होता है। जरा भी अहंकार रहने से जागृति का अनुभव कैसे हो सकता है, क्योंकि दोनों एकदूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं। तांत्रिक योगसाधना से जब योगी का अहंकार नष्टप्राय हो जाता है, तभी जागृति की असली शुरुआत होती है। अहंकार खत्म होने से योगी के मस्तिष्क में सांसारिक कचरा भी कम से कम रहता है, जिससे कुंडलिनी को जागृत होने के लिए पर्याप्त नाड़ी शक्ति उपलब्ध हो जाती है। ऋषि दधीचि की पत्नि जो सुवर्चा है, वह दरअसल बुद्धि है। अहंकार के नष्ट हो जाने से आदमी का रूपांतरण जैसा हो जाता है। रूपांतरण से पुराने विचार और स्मरण भुने बीज की तरह नष्टप्राय जैसे हो जाते हैं। पर वह प्रकाशमान बुद्धि या सद्बुद्धि बनी रहती है, जो अच्छे रास्ते पर लगाती है। पुराने अनुभव भी याद रहते ही हैं। संस्कृत शब्द वर्चस का अर्थ प्रकाशमान होता है। उसने देवताओं को श्राप दिया, मतलब तब शरीर देवताओं के अधीन रहकर मनमाना आचरण नहीं करता, बल्कि सद्बुद्धि के दिशानिर्देशन में रहकर युक्तियुक्त व्यवहार ही करता है। आदमी के रूपांतरण के बाद जो उसकी नई, जागृत व देवतुल्य अवस्था आती है, उसे ही पुत्र पिप्पलाद कहा गया है। वह रुद्र अर्थात शिव की तरह तंत्रात्मक अवस्था होती है, इसीलिए उसे रुद्रावतार कहा गया है।

कुंडलिनी शक्ति ही राक्षस वृत्रासुर को इंद्र-वज्र बन कर मारती है

मित्रो, पिछली पोस्ट में हमने देखा कि कैसे शुक्राचार्य के रूप में सांसारिक बुद्धि बलि के रूप में बने जीवात्मा को जागृति से वंचित रखना चाहती है। बहुत सुंदर कथा है। ऐसी ही एक योगरहस्यात्मक कथा वृत्रासुर वध की पुराणों में आती है। देवताओं ने दैत्य वृत्रासुर को मारने के लिए दधीचि ऋषि की अस्थियों से वज्र बनाया था। वृत्र शब्द वृत्ति शब्द से बना लगता है। इसका मतलब है मन के संकल्प। चित्त में वृत्ति होती है। चित्त मतलब उन विचारों का संग्रह जो पहले कभी आए थे, और अब याददाश्त में जमा हैं। इसीलिए याद आने को चेता आना भी कहते हैं। उनको कुंडलिनी जागरण ही क्षीण या पंगु कर सकता है। ऐसा लगता है कि कुंडलिनी जागरण मेरुदंड में स्थित सुषुम्ना के क्रियाशील होने से ही मिल सकता है, अन्यथा नहीं। वृत्रासुर वज्र प्रहार से मरा, मतलब मेरुदंड में सुषुम्ना के जागने से ही कुण्डलिनी जागरण हुआ। उसको ऐसे कहा गया है कि वज्र के साथ विश्वकर्मा ने एक बाण भी बनाया। वज्र का आकार दंडवत कहा गया है। रीढ़ की हड्डी भी दंडवत ही होती है। तीर का नाम ब्रह्मशिर है, मतलब वह ब्रह्मरंध्र तक जाता है, जो सिर के सिरे मतलब शिखर पर है। यह तीर सुषुम्ना नाड़ी ही है। दधिचि ऋषि की हड्डियों से विश्वकर्मा ने और भी बहुत से अस्त्र बनाए थे। मतलब कि योगासन हड्डियों की सहायता से ही संभव हो पाते हैं। हड्डियों के विभिन्न जोड़ ही हमें विभिन्न आसन लगाने में मदद करते हैं। फिर उन आसनों से शरीर में उर्जा संचरण होता है, जो शक्ति को जगाने में मदद करता है। वह वृत्रासुर सभी देवताओं को परेशान करता था। इसका मतलब है कि मन की चंचलता व बेचैनी से शरीर का चयापचय गड़बड़ा जाता है, और उसमें विभिन्न रोग घर कर जाते हैं। शरीर देवताओं से ही तो बना है। विश्वकर्मा का शाब्दिक अर्थ होता है, विश्व के सभी कार्य करने वाला, मतलब विश्व को बनाने वाला। सारा विश्व शरीर में ही तो बसा हुआ है। कथा में कहा गया है कि रीढ़ की हड्डियों से वज्र और ब्रह्मशिर नाम का तीर बनाया। यह भी कहा गया है कि इंद्र ने सुरभि को बुलाकर उससे अस्थियों को चटवाया और फिर विश्वकर्मा को उनसे वज्र के निर्माण की आज्ञा प्रदान की। शिवजी के तेज से वृद्धि को प्राप्त इंद्र उस वज्र को उठाकर बड़े वेग से वृत्रासुर पर क्रोध करके इस प्रकार दौड़े, मानो रुद्र यम की तरफ़ दौड़ रहे हों। इसके बाद उन इंद्र ने भलीभांति सन्नद्ध होकर शीघ्रता से उस वज्र के द्वारा उत्साहपूर्वक पर्वतशिखर के समान वृत्रासुर का सिर काट दिया। यह अलंकारिक भाषाशैली है। शिवजी के तेज से, मतलब तंत्र की सहायता से, क्योंकि शिव ही तंत्र के आदिप्रवर्तक हैं। यह कुंडलिनी जागरण की ऊर्जावान अवस्था का ही वर्णन है। क्योंकि चित्तवृत्तियां सिर में ही पैदा होती हैं, इसीलिए वृत्रासुर का सिर काटने की बात कही है। यह कथा अगली पोस्ट में भी जारी है।

जब सभी देवता मिलजुल कर काम करते हैं, तो ऐसा कहा जाता है कि इंद्र ने वह काम किया, क्योंकि इंद्र ही देवताओँ का राजा है। कुंडलिनी योग शरीर के सभी अंगों मतलब सभी देवताओं के मिलेजुले प्रयास से ही संपन्न होता है। इसीलिए कहा है कि इंद्र ने वृत्रासुर को मारा। मुझे लगता है कि सुरभि गाय के द्वारा चटाना खेचरी मुद्रा को कहा गया है, जिसमें उल्टी जीभ नरम तालु के साथ छुआई जाती है। क्योंकि सिर रीढ़ की हड्डी के साथ सीधा जुड़ा है, इसलिए वज्र का ही हिस्सा है। इससे ही ऊर्जा नाड़ी लूप में आसानी से घूमती है। उसके बाद वज्रनिर्माण शुरु होता है, मतलब रीढ़ की हड्डी में उर्जा के दौड़ने का आभास होने लगता है।

विश्वकर्मा ने बनाया, मतलब वह निर्माण वैज्ञानिक सिद्धांत से अपने आप होता है, उसे कोई आदमी नहीं बनाता। बस, अपनेआप होने के लिए अनुकूल परिस्थितियां तैयार करनी पड़ती हैं। विश्व भी अपनेआप ही बनता है। इसी अपनेआप होने को सजाने के लिए विश्वकर्मा का नाम दिया गया है।