दोस्तों, पिछली पोस्ट को जारी रखते हुए, वह बलिरूपी अहंकार वामन को मजबूरन आने देता है, और उसे अंदेशा भी हो जाता है कि वह कुंडलिनी जागरण के बाद बच नहीं सकता। वैसे महिमा ऐसे गाई गई है कि राजा बलि सबसे बड़ा दानवीर था, जिसने अपना भावी नाश जानते हुए भी वामन को तीन पग जमीन दान में दी। हरेक जीव राजा बलि की तरह परम दानवीर होता है। वह यह जानकर कि कुंडलिनी योग से उसका अहंकार नष्ट हो जाएगा, उसका असीमित भौतिक संसार नष्ट हो जाएगा, फिर भी वह कभी न कभी जरूर कुंडलिनी साधना करता है। जब आदमी राजा बलि की तरह अच्छे कर्मों में लगा होता है, तब कभी न कभी भगवान विष्णु उसका भला करने एक ध्यानचित्र के रूप में उसके पास आते हैं। वे मित्र, प्रेमी, गुरु या देवता किसी भी रूप में हो सकते हैं। गुरु को भी तो भगवान का ही रूप समझा जाता है। वैसे भी हर किसी के लिए अपना प्रेमी भगवान ही होता है। उदाहरण के लिए मान लो कि किसी पुरुष की जिंदगी में एक स्त्री का प्रवेश होता है। पुरुष के बीसों कारोबार होते हैं, और सैंकड़ों रिश्ते। उनके कारण उसके मन में अनगिनत विचारचित्र बने होते हैं। इसलिए वह उस स्त्री को हल्के में ले लेता है, और सोचता है कि उसके विस्तृत भौतिक संसार के सामने एक स्त्री कुछ भी नहीं है। वह उसे अपने मन में जगह बनाने देता है, मतलब वह उससे जुड़े भाव या सत्त्वगुणरूपी पहले कदम, गति या रजोगुणरूपी दूसरे कदम, और अंधकार या तमोगुणरूपी तीसरे कदम को अपने मनरूपी साम्राज्य में पड़ने देता है। पर धीरेधीरे उसका उसके प्रति प्यार बढ़ता रहता है, और समय के साथ वह उसके मन में ज्यादा से ज्यादा जगह घेरती रहती है। आखिर में वह उसके पूरे साम्राज्य में फैल जाती है, और फिर जागृत होकर आदमी के राजाबलिरूपी अहंकार को खत्म ही कर देती है। कुंडलिनी योग में भी ऐसा ही होता है। इसका मतलब है कि योग और प्रेम के बीच में तत्त्वतः कोई अंतर नहीं है। राजा बलि भी बहुत बड़ा यज्ञ मतलब अच्छा काम ही कर रहा था। आदमी को पता चल जाता है कि वह ध्यानचित्र के चक्कर में पड़कर बावला प्रेमी या योगी या प्रेमयोगी या प्रेमरोगी बन जाएगा, फिर भी वह उसे अपनाता है, और आगे बढ़ाता है। उसने कुण्डलिनी जागरण के माध्यम से एक कदम से मतलब सत्वगुण से सारा स्वर्ग कब्जे में कर लिया। स्वर्ग सतोगुण प्रधान होता है। क्योंकि कुंडलिनी जागरण के समय तीनों गुण अनंत हो जाते हैं, इसीलिए कहा गया है कि कुंडलिनी या वामन से तीनों लोक पूरी तरह से व्याप्त हो गए मतलब भर गए। दूसरे कदम मतलब रजोगुण से कुण्डलिनी चित्र पूरी धरती में फैल गया, क्योंकि धरती रजोगुणप्रधान है। तमोगुणरूपी तीसरे कदम से अहंकार व उससे जुड़े कर्मविचार मूलाधार के अँधेरे अवचेतन अर्थात पाताल में चले जाते हैं। क्योंकि तमोगुण किसी को मारकर या नष्ट करके ही बनता है, इसलिए वह अहंकार और उससे पोषित मानसिक सृष्टि को नष्ट करने से बनता है। पाताल लोक के द्वारपाल के रूप में भगवान विष्णु के स्थित हो जाने का मतलब है कि ध्यानचित्र कुंडलिनीयोग के माध्यम से उन राक्षसों को अर्थात अवचेतन में दबे विचारों को ऊपर अर्थात मस्तिष्क या स्वर्ग की तरफ जाने देकर शुद्ध करता रहता है, ताकि सब देवता ही बन जाएं। साथ में, विष्णुस्वरूप ध्यानचित्र को कुंडलिनी योग से स्वाधिष्ठान और मूलाधार चक्रों पर केंद्रित किया जाता रहता है, जिससे उनमें दबी हुई राक्षसरूपी भावनाएं उजागर होकर उसके संपर्क में आने से शुद्ध बनी रहती हैं, जिससे वे योगी को बंधन में नहीं डाल पातीं, मतलब राक्षस देवताओं को परेशान नहीं कर पाते, क्योंकि शरीर में ही सभी देवता बसे हुए हैं। वैसे भी स्वाधिष्ठान चक्र को इमोशनल बैगेज मतलब भावनाओं की गठरी कहते हैं।
यज्ञ में बलि के पुरोहित बने हुए राक्षसगुरु शुक्र आचार्य पहले बलि को बहुत समझाते हैं कि वह वामन पर भरोसा न करे क्योंकि वह तीन कदमों में ही उसका सबकुछ छीन लेंगे। पर जब बलि नहीं मानता तो शुक्राचार्य संकल्पजल गिरा रहे शंख के सुराख़ में घुस जाते हैं, पर वामन उसमें कुशा डालकर उसकी आंख फोड़ देते हैं? एक बात और, क्योंकि शंख भी जीव की पीठ पर होता है, और रीढ़ की हड्डी की तरह ही उसे सुरक्षा देता है, इससे भी पक्का हो जाता है कि सुषुम्ना नाड़ी को ही शंख कहा गया है। साथ में, शंख का आकार भी एक फन उठाए नाग या ड्रेगन के जैसा ही होता है, जिसकी समानता मेरुदंड व उसमें स्थित सुषुम्ना के साथ की जाती है। एक अनुभवी कुलपुरोहित कभी भी अपने यजमान को अध्यात्म के बीहड़ में नहीं खोने देना चाहता, बेशक उससे यजमान का फायदा ही क्यों न हो। उसे पता होता है कि अगर यजमान को सत्य का पता चल गया तो उसे ठगकर उससे यज्ञ आदि कर्मकांड के नाम पर पैसा ऐंठना आसान नहीं रहेगा। हालांकि अपनी जगह पर कर्मकाण्ड सही है और जागरण के लिए महत्त्वपूर्ण सीढ़ी है, पर मंजिल मिलने पर कौन सीढ़ी की परवाह करता है। वैसे भी वह भौतिकवादी गुरु है। शुक्राचार्य अर्थात भौतिक विज्ञानवादी व्यक्ति या गुरु द्वारा शुक्र अर्थात वीर्य को बाहर बहा कर सुषुम्ना के शक्ति प्रवाह को ब्लॉक करना ही शंख में घुसना है। वामन का उसको कुशा डंडी द्वारा खोलना ही योगी द्वारा कुण्डलिनी ध्यानचित्र के माध्यम से मूलाधार से शक्ति को ऊपर चढ़ाना है। यह मूलाधार से लेकर सहस्रार तक फैली हुई संवेदना की रेखा जैसी होती है जो रीढ़ की हड्डी में होती है। यह झाड़ू या कुशा की सींक जैसी पतली फील होती है। यही सुषुम्ना जागरण है। अगर संभोग से पहले पीठ की विशेषकर मेरुदंड की ढंग से मालिश करवा ली जाए, तो यह संवेदना रेखा आसानी से और आनंद के साथ महसूस होती है। फिर वीर्य शक्ति आसानी से ऊपर चढ़ती है, जिससे संभोग बहुत आनंदमय और आध्यात्मिक बन जाता है। यौनांगों का दबाव भी एकदम से खत्म हो जाता है। आदमी अक्सर ऐसा कुंडलिनीजनित आनंद के लालच से प्रेरित होकर करता है, इसीलिए मिथक कथा में कहा गया है कि वामन ने ऐसा किया। इससे शुक्राचार्य की आंख फूटना मतलब कुण्डलिनी के प्रभाव से वीर्यशक्ति की द्वैत दृष्टि अर्थात दोगली नजर नष्ट होना है। जब वीर्यशक्ति द्वैत से भरे संसार की तरफ न बहकर अद्वैत से भरी आत्मा की तरफ बहेगी, तो स्वाभाविक है कि वीर्यशक्ति की दोगली नजर नष्ट होगी ही। बलि या अहंकार पाताल को चला जाता है, मतलब कुंडलिनी जागरण के बाद आदमी व्यक्त अर्थात प्रकाशमान जगत का अहंकार नहीं कर सकता क्योंकि उसने सबसे अधिक प्रकाशमान कुंडलिनी जागरण का अनुभव कर लिया है। इसलिए वह स्थूल जगत से उपरत सा होकर अपने सूक्ष्म शरीर के रूप में अव्यक्त अन्धकार सा बन जाता है। यही उसका पातालगमन है। हालांकि सूक्ष्म शरीर के धीरे-धीरे स्वच्छ होने से स्वच्छ होता रहता है। इसे ही ऐसे कहा गया है कि भगवान विष्णु उसके द्वारपाल के रूप में पहरा देते हैं।
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कुण्डलिनीछवि ही भगवान वामन का अवतार लेकर, जागृत होकर और अहंकाररूपी राजा बलि को पाताललोक भेजकर पूरी सृष्टि पर कब्जा कर लेती है
दोस्तों, पिछली पोस्ट में धर्म बारे थोड़ी बात चल पड़ी थी। धर्म का शास्त्रीय मतलब है लाइफस्टाइल। जिसका लाइफस्टाइल कट्टर है, वह पिछड़ जाता है। नोकिया ने समय के साथ बदलाव नहीं किया। साथ में, यह निष्कर्ष भी निकला था कि जिन बहुत से लोगों को मनोरोगी समझकर उनके ऊपर दवाईयों से, शोषण से या सामाजिक बहिष्कार से उन्हें दबाया जाता है, वे दरअसल जागृति के रोगी होते हैं। काश कि मनोविज्ञान कुंडलिनी के लक्षणों और मनोरोग या मूर्खता के लक्षणों के बीच अंतर कर पाता। मुझे लगता है कि यह अंतर कर पाना पश्चिमी सभ्यता जैसी संस्कृति के लिए कठिन है, पर पूर्वी संस्कृति वालों को तो इसका अनुभव प्राचीन काल से ही है। खैर, आपने देखा होगा, हाल ही की पिछली एक पोस्ट में शेर कैसे योगी बना था। वैसे तो सिंघासन नाम का एक योगासन भी होता है। वैसे भी कुंडलिनी योगी को अजगर या ड्रेगन जैसा रूप दिया गया है, जिसका मुंह भी शेर की तरह खुला हुआ है। योग सांसों का खेल है, और शेर भी सांसों की ताकत से दहाड़ता है और अपने चेहरे को खतरनाक बना लेता है। हिंदू पुराणों में इसी तरह की एक दंतकथा आती है कि वामन भगवान ने तीन पग में सारी धरती माप ली थी। दरअसल तीन कदम सत्त्व, रज और तम, तीन गुणों के प्रतीक हैं। इड़ा नाड़ी देवी अदिति है, और पिंगला नाड़ी देवी दिति है। पिंगला दुनियावी भेद बुद्धि और अहंकार को बढ़ाती है, मतलब राक्षसी द्वैत भाव, रजोगुण व तमोगुण को बढ़ाती है। पर इड़ा नाड़ी शांति, तनावरहित्य, अद्वैतभाव व सत्वगुण जैसे दैवीय भाव पैदा करती है। इसीलिए कहते हैं कि अदिति सभी देवताओं की मां है और दिति सभी राक्षसों की मां। कश्यप मुनि की ये दोनों पत्नियां थीं। कश्यप ब्रह्मा के पुत्र थे। ब्रह्मा मन ही है। क्योंकि मन ही सारे संसार को रचता है। वह कमल पर बैठता है, सहस्रार रूपी कमल पर। जब आत्मा का स्थान सहस्रार बताया जाता है, तो मन का भी यही हुआ क्योंकि दोनों आपस में जुड़े हैं, एक के बिना दूसरा नहीं। ऋषि कश्यप अवचेतन मन है, क्योंकि वह मन से ही पैदा होता है। वह मूलाधार में रहता है। क का मतलब जल होता है, और श्य शयन शब्द से बना है, मतलब जल में सोने वाला। जल वीर्य द्रव और रीढ़ की हड्डी में बहने वाले सेरेब्रोस्पाइनल फ्लूड के रूप में है, और अवचेतन मन को सोए हुए आदमी के रूप में दिखाया गया है, क्योंकि इसमें ही सभी भावनाएं दबी–सोई रहती हैं। यह अवचेतन मन मूलाधार व स्वाधिष्ठान चक्रों जैसे गहरे व अंधेरे गड्ढों जैसे स्थानों में रहता है। जब इसके जागते हुए भावों या विचारों को अद्वैत भाव अर्थात इड़ा नाड़ी का साथ मिलता है, तब वे भाव देवता बन जाते हैं, पर जब द्वैत भाव अर्थात पिंगला नाड़ी का साथ मिलता है, तब वे राक्षस बन जाते हैं। ये जागते विचार ही कश्यप और अदिति या दिति के पुत्र हैं। अदिति और दिति के रूप में क्रमशः इड़ा और पिंगला नाड़ियाँ ही उसकी दो पत्नियां हैं, क्योंकि वह इन्हीं की मदद से पुत्ररूप में जागता है, मतलब शक्तिमान होता है। मानसिक कुंडलिनी छवि ही वामन भगवान है। यह सभी विचाररूपी पुत्रों में श्रेष्ठ है, इसलिए इसे भगवान विष्णु का अवतार कहा गया है। एकदम मस्त मनोविज्ञान है। ब्रह्मा मूल मन है। वास्तव में वही किस्म किस्म की सांसारिक रचनाएं जैसे घर, बाग, सड़क, पुल आदि बनाता है। वह सीधा विचाररूपी पुत्रों को पैदा नहीं करता। वह पहले अवचेतन मनरूपी कश्यप मुनि को पैदा करता है। उसीसे विचाररूपी पुत्र बनते हैं। आपने भी देखा होगा कि अगर आप दुनिया में कुछ काम न करो तो सीधे कोई मजबूत विचार नहीं बनेंगे। काम करने से उसकी यादें अवचेतन मन में समा जाती हैं, जो बाद में शक्तिशाली विचारों के रूप में उमड़ती रहती हैं। पिंगला नाड़ी के अधिकार क्षेत्र में आने वाला बायां मस्तिष्क राक्षसराज बलि के अधिकार में है, इड़ा–शासित दायां मस्तिष्क देवताओं के अधिकार में है। राजा बलि अहंकार है। अहंकार बलवान ही होता है। बलि नाम उसको इसलिए भी दिया हुआ लगता है क्योंकि अहंकार अपनी ताकत को बनाए रखने के लिए जीवों की बलि लेता है, हिंसा करता है। कुण्डलिनी छवि इड़ा के प्रभाव से बनती है। वैसे तो इड़ा और पिंगला दोनों संतुलित रूप में होनी चाहिए, क्योंकि दोनों का अस्तित्व एकदूसरे पर निर्भर है, पर इड़ा तुलनात्मक रूप से ज्यादा प्रभावी होनी चाहिए। इड़ा नाड़ी के प्रभाव में आदमी शांत, तनावरहित, अच्छी भूख व अच्छे पाचन से सम्पन्न हो जाता है। इसी चैन की अवस्था में शुभ विचार के रूप में कुण्डलिनी चित्र मन में डेरा डालता है, मतलब देवमाता अदिति से वामन भगवान का जन्म होता है। देखने को तो वह एक छोटा सा अकेला मानसिक चित्र है, इसीलिए उसे बौना कहा है। वह राजा बलि से ब्रह्माण्ड में अपने लिए सिर्फ तीन पग भूमि मांगता है। एक मानसिक छवि कितना स्थान लेगी। हरेक मानसिक वस्तु की तरह वह ध्यानचित्र भी तीन गुणों से ही बना है, सत्त्व, रज और तम। यही तीन पग हैं। आदमी का अहंकार रूपी बलि उसे उतनी जगह भी दे देता है, और सोचता है कि उससे उसका क्या नुकसान होगा। अहंकार बहुत बलशाली होता है। वह दुनिया के बड़े से बड़े काम करता है। छोटे से एकमात्र कुण्डलिनी चित्र को वह मजाक में लेता है। रीढ़ की हड्डी शंख है। इसका शंख जैसा ही रूप है, सिर के भाग में चौड़ी और निचले भाग में पतली। इसमें स्थित मेरुदंड या सुषुम्ना नाड़ी ही शंख के अंदर की ड्रेन या नाली है। नाड़ी शब्द नदी शब्द से ही बना है। उस ड्रेन में बहने वाला जल ही कुंडलिनी शक्ति की संवेदना है। शक्ति भी जल प्रवाह की तरह बहती है। क्योंकि इसमें कुण्डलिनी ध्यान या संकल्प मिश्रित होता है, इसलिए इसे संकल्पजल कहा गया है। ध्यान को ही संकल्प कहते हैं। हिंदु धर्म में हरेक धार्मिक अनुष्ठान के दौरान शंख या अर्घे (पूजा का एक विशेष बर्तन) या आचमन से जल गिराते हुए संकल्प किया जाता है, मतलब उस अनुष्ठान के कारण, विधि, पुरोहित, और फल अर्थात उद्देश्य के बारे में कुछ क्षणों के लिए गहरा ध्यान किया जाता है। यज्ञ में बैठे हुए बलि ने शंख से जल गिराते हुए वामन भगवान को तीन कदम भूमि देने का संकल्प लिया था। संभवतः जल गिराने से कुण्डलिनी शक्ति बहने लगती है, क्योंकि दोनों में समानता है, जिससे ध्यान मजबूत होता है। अरघे या शंख से जल की गिरती धारा के साथ कुण्डलिनी शक्ति भी फ्रंट चैनल से नीचे की ओर बहने लगती है, जिसके दबाव से वह बैक चैनल में से गुजरते हुए पीठ से ऊपर चढ़ जाती है, और अपने साथ मूलाधार की अतिरिक्त व विशेष कुण्डलिनी शक्ति भी ले जाती है। कुण्डलिनीसंकल्प रूपी वामन, पतली मेरुदंड रूपी सुषुम्ना–शंख में, बह रहे शक्तिरूपी संकल्पजल की मदद से योगसाधना से बढ़ता ही रहता है, और अंत में जागृत होकर सम्पूर्ण सृष्टि को व्याप्त कर लेता है। यही तीन पग से तीनों लोकों को मापना है। इससे अहंकार खुद ही अवचेतन रूपी पाताल लोक में दब जाता है। जिसे ऐसे कहा गया है कि तीसरा पग वामन ने बलि के सिर पर रखा। यह कथा आने वाली अगली पोस्ट में भी जारी है।
कुंडलिनी योगी नृसिंह भगवान रूपी ध्यानचित्र की मदद से हिरण्यकशिपु रूपी अहंकार व तांत्रिक पापों को भस्म करके प्रह्लाद रूपी आत्मबुद्धि की रक्षा करता है
दोस्तों, पिछली पोस्ट में मोर कैसे योगी बना हुआ था। योगी का पिछ्ला एनर्जी चैनल नर मोर है, तो अगला चैनल मोरनी है। अवसाद से भरे माहौल में मूलाधार की शक्ति से उसके मस्तिष्क में बहुत से दोषपूर्ण विचार बनते हैं, क्योंकि शक्ति को व्यय होने का और रास्ता नहीं मिलता। उन्हीं विचारों अर्थात आंसुओं को वह खेचरी मुद्रा के रूप में उल्टी जीभ को मुंह के अंदर के नर्म तालु से छुआ कर पीता है। वही आंसू फ्रंट चैनल से नीचे उतरते हुए चक्रों पर विशेषकर नाभि चक्र पर कुण्डलिनी चित्र का रूप ले लेते हैं, मतलब मोरनी गर्भवती हो जाती है।
पुराणों की एक कथा के अनुसार हिरण्यकशिपु नामक एक राक्षस ने ब्रह्मा से वरदान मांगा कि न वह मनुष्य के द्वारा न पशु के द्वारा, न दिन में न रात में, न आकाश में और न धरातल पर, न घर के अंदर न बाहर, और न अस्त्र से और न ही शस्त्र से मारा जा सकेगा। हिरण्यकशिपु भगवान विष्णु को अपना कुलशत्रु मानता था। परंतु उसका बेटा प्रह्लाद विष्णुभक्त था। हिरण्यकशिपु ने उसे बहुत समझाया पर जब वह नहीं माना तो उसने उसे मारने के बहुत से प्रयास किए। एकबार उसने लोहे का खंबा लाल गर्म करवाया और प्रह्लाद को उससे चिपकने को कहा। प्रह्लाद ने एक चींटी को उस पर रेंगते हुए देखा तो बिना डरे उस खंबे को गले लगा लिया। तभी उससे एक विचित्र जीव निकला, जिसका मुंह शेर का था परंतु वह नीचे से आदमी था। उसका नाम नृसिंह था। उसने हिरण्यकशिपु को संध्या के समय, घर के दरवाजे पर ले जाकर, अपनी गोद में उठाकर अपने नखों से मार डाला।
हिरण्यकशिपु तांत्रिक पाप का प्रतीक भी है। तांत्रिक पंचमकार पापरूप ही तो हैं। पापरूपी शक्ति का रुझान भौतिक दुनिया की तरफ ज्यादा होता है। इसलिए वह आदमी को अध्यात्म की तरफ नहीं जाने देती। पर गुरुकृपा से आदमी का रुझान अध्यात्म की ओर हो जाता है। इसीको कथा में ऐसे कहा गया है कि पाठशाला के गुरु ने प्रह्लाद को अध्यात्म की तरफ मोड़ा। फिर हिरण्यकशिपु ने उस गुरु को हटा कर छलकपट से भरी भौतिक शिक्षा देने वाला नया गुरु रख लिया। पर प्रह्लाद का स्वभाव नहीं बदला। मतलब साफ है कि अंधी शक्ति सच्चे गुरु से भी दूर ले जाने की कोशिश करती है, पर अगर सच्चे गुरु से थोड़ा सा भी संपर्क स्थापित हो जाए, तो वह कामयाब नहीं हो पाती। परिणामस्वरूप अध्यात्म की तरफ झुके हुए इन तांत्रिक पापों से आदमी की सुषुम्ना क्रियाशील हो जाती है। यही हिरण्यकशिपु द्वारा लाल गर्म लोहे का खंबा बनाना है। योगी द्वारा ध्यानचित्र को इसके साथ जोड़ना ही उसका इससे आलिंगन करना है, क्योंकि आदमी का अपना रूप भी वही होता है, जिसका वह हरपल ध्यान कर रहा होता है। ध्यानचित्र के जागने मतलब नृसिंह भगवान के प्रकट होने से अन्य सभी पापों के साथ कुण्डलिनी साधना की सफलता के लिए किए गए वे तांत्रिक पाप भी नष्ट हो जाते हैं। यही नृसिंह के द्वारा हिरण्यकशिपु का वध है। संध्या के समय उस जलते खम्बे से नृसिंह का प्रकट होना मतलब अन्य समय की अपेक्षा उस समय सुषुम्ना ज्यादा क्रियाशील होकर सहस्रार में ध्यान चित्र को जागृत जैसा करती है। सक्रिय सुषुम्ना नाड़ी ही वह दहकता लाल लौह स्तंभ है। सुषुम्ना भी रीढ़ की हड्डी के अंदर रहती है, जो लोहे की तरह कठोर है। क्योंकि कुंडलिनी चित्र को कई लोग भूतिया जैसा डरावना मानते हैं, क्योंकि उसका भौतिक अस्तित्व नहीं होता, इसीलिए उसको डरावने नृसिंह का रूप दिया गया है। ध्यान चित्र न मनुष्य होता है और न ही पशु। इसको ऐसे समझ सकते हैं कि जब हनुमान, गणेश जैसे अर्धमानुष रूपों का ध्यान किया जाता है, तब ध्यानचित्र सबसे ज्यादा अभिव्यक्त होता है। वह न अंदर होता है और न ही बाहर। इसका मतलब है कि ध्यानचित्र कोई भौतिक वस्तु नहीं है, बल्कि केवल एक काल्पनिक चित्र है। वह न दिन में अच्छे से बनता है और न रात को, बल्कि संध्या के समय कुंडलिनी योग करते हुए बनता है। वह हिरणयकाशीपु को गोद में उठाकर उसके पेट को नख से फोड़ता है, मतलब मूलाधार व स्वाधिष्ठान से अवचेतन और अचेतन मन के रूप में दबे अहंकार को ऊपर उठाकर उन्हें चक्रोँ पर प्रकट करके समाप्त करता है, मतलब यह विपासना साधना ही है। सहस्रार चक्र में यह अहंकार पूरा अभिव्यक्त जैसा बना रहता है, और मूलाधार में सोया हुआ सा रहता है, इसलिए दोनों ही स्थानों पर मरने को नहीं आता। यह बीच वाले चक्रों में ही अर्धजागृत या अर्धसुशुप्त सा रहता है, इसलिए बीच में ही मरने को आता है। विपासना साधना के साक्षीभाव का भी तो यही सिद्धांत है। यह शक्ति के द्वारा चक्रभेदन ही है। पहले अवचेतन मन रूपी धरातल से सुषुप्त विचारों और वासनाओं को प्राण शक्ति से जगा कर चक्रों पर अभिव्यक्त किया जाता है, फिर चक्रों पर प्राण के प्रवाह से उनका भेदन किया जाता है। दरअसल भेदन या नाश तो उन वासनाओं व संस्कारों का होता है, पर भेदन चक्रों का माना जाता है। क्योंकि पेट का नाभि चक्र सबसे प्रमुख होता है, इसलिए हिरण्यकशिपु का पेट फाड़ने की बात कही गई है। क्योंकि ज्यादातर योगी चक्रस्थान पर अंगुली का नख वाला सिरा रख कर नख से चक्र की तीव्र चुभन वाली संवेदना से या कम से कम अंगुली रखकर ध्यान को मजबूत करते हैं, इसीलिए कहा गया है कि नरसिंह ने हिरण्यकशीपु को नख से फाड़ा। इसमें जो संतुलित या बीच वाली अवस्थाओं में हिरणकशिपु का वध है, वह यही बताता है कि संगम अर्थात यिनयाँग वाली अवस्था में ही सुषुम्ना क्रियाशील होती है। अहंकार को न कोई मनुष्य मार सकता है, और न कोई पशु। उसे किसी भी अस्त्र–शस्त्र से नहीं मारा जा सकता। उसे न तो पूरी तरह बाहर अर्थात बाह्यमुखी होके मारा जा सकता है, और न ही पूरी तरह अंदर अर्थात अंतर्मुखी होकर, बल्कि दोनों के उपयुक्त मिश्रण से ही मारा जा सकता है। कुण्डलिनी योगी को जो पीठ में अर्थात सुषुम्ना में रेंगती जैसी हल्की संवेदना महसूस होती है, उससे उसे कुण्डलिनी जागने बारे विश्वास हो जाता है, जिससे वह योगाभ्यास में लगा रहता है, और सुषुम्ना को क्रियाशील करके कुण्डलिनी जागरण प्राप्त कर लेता है। इसीको ऐसे कहा गया है कि प्रह्लाद को उस जलते लोहस्तंभ पर एक कीड़ी रेंगते हुए दिखी, जिससे आश्वस्त होकर उसने उसे गले लगा लिया, जिससे नृसिंह भगवान प्रकट हुए।
कुण्डलिनी योग से ही मोरनी मोर के आँसू पीकर गर्भवती हो जाती है
दोस्तो, मैं पिछली से पिछली पोस्ट में बात कर रहा था कि कैसे कुछ बिमारियां विशेषकर आनुवंशिक रोग आदमी को महामानव बनने की तरफ ले जाती हैं। मैंने खुद देखा है कि जो अपने जीवन के बाद के दौर में उन बिमारियों से प्रभावित होने होते हैं, वे जिंदगी के शुरुआती दौर में बहुत ज्यादा तेज दिमाग़ वाले होते हैं। मतलब कि वे जागृति के बहुत करीब होते हैं। कई तो जागृत भी हो जाते हैं। शायद उनकी जो शक्ति शरीर के किसी सिस्टम की नाकामी से बच कर अतिरिक्त रूप से जमा हो जाती है, वह बुद्धि को बढ़ाने और उससे जागृति पैदा करने में खर्च हो जाती है। वैसे लोग आम समाज से थोड़ा हट कर लगते हैं। वे सबके बीच में अलग ही चमकते हैं। उनका व्यवहार भी सबसे अलग व विशेष जैसा होता है, और काम भी। निसंदेह वे आकर्षक तो होते ही हैं। उनसे दोस्ती करने के लिए बहुत से लोग लालायित जैसे रहते हैं। दोस्ती करके उन्हें बहुत लाभ भी मिलता है, हालांकि यह उनके अजीब स्वभाव के कारण कई बार मुश्किल हो सकता है। इसी तरह पिछली पोस्ट में इस संभावना पर बात हो रही थी कि क्या कुण्डलिनी योग से मृत या मरता हुआ शरीर पुनः जीवित हो सकता है। मुझे लगता है कि अगर शक्ति को सही ढंग से घुमाते हुए शरीर के बीमार हिस्सों पर सही से केंद्रित किया जाता रहे, तो ऐसा हो भी सकता है। पर इसके लिए बहुत समय और सूक्ष्म योग तकनीकें चाहिए। यह बहुत सूक्ष्म विज्ञान है। मैंने ऑटोबियोग्राफी ऑफ ए योगी और अन्य कई जगह एक सत्य घटना पढ़ी थी कि ज्यादा खाना खाने वाली एक बहू अपनी सास के ताने से दुखी होकर एक सुनसान जगह पर बैठी थी जब एक योगी ने उसे कंठकूप पर प्राण शक्ति को केंद्रित करने वाला योग सिखाया, जिसके बाद उसे कभी खाना खाने की जरूरत ही नहीं पड़ी। गले के गड्ढे में कोई भी शक्ति को केंद्रित कर सकता है, पर वह सूक्ष्म तकनीक किसी को पता नहीं जिससे वह प्रभाव पैदा हो। किसी का सिर भारी हो जाएगा, किसी को सिरदर्द होएगा आदि। सबसे बड़ी बात कि विश्वास कैसे होगा कि प्रभाव पैदा हो गया है। क्योंकि प्रभाव होने पर भी आदमी डर के मारे जबरदस्ती खाता ही रहेगा कि कहीं वह भूखा न मर जाए। ऐसा ही सभी विद्याओं के मामले में होता है, जब आदमी को विश्वास नहीं होता या उसे पता ही नहीं चलता कि उसे विद्या आ गई है। इसीलिए जानकीर गुरु की जरूरत पड़ती है। अब जैसे प्रेमी जोड़ा एकदूसरे के अंदर शक्ति का संचार करता है, वैसे ही कोई निपुण योगी मृत शरीर में भी शक्ति का संचार कर सकता है, सिद्धांत तो यही कहता है। शायद यही मृतसंजीवनी विद्या का आधार हो।
कई लोग छोटी-छोटी बातों की वजह से दोस्ती तोड़ने या ठुकराने पर आ जाते हैं, जिससे वे अपने लाभ से वँचित रह जाते हैं। उदाहरण के लिए, एकदिन मेरे एक फेसबुक मित्र ने एक पोस्ट शेयर की, जिसमें इस अवैज्ञानिक पर शास्त्रीय बात का मजाक बनाया हुआ था कि मोर के आँसू पीकर मोरनी गर्भवती हो जाती है। ऐसा प्रवचन करने वाली एक साध्वी की खिल्ली भी उड़ाई हुई थी। बिना तर्कवितर्क के दुष्प्रचार करने की उनकी आदत ही बन गई थी। मैंने उन्हें इसका अध्यात्मवैज्ञानिक स्पष्टीकरण दिया। मैंने कहा कि भाई, ऐसी कथाओं के बहुत मनोरंजक और ज्ञानवर्धक आध्यात्मिक अर्थ होते हैं, इन्हें कृपया भौतिक दुनिया से न जोड़ें। मोर बादल को देखकर नाचता है। मतलब वह अवसाद के माहौल में भी खुश रहना जनता है। मोर एक योगी की तरह है। संभवतः इसीलिए योगीश्वर भगवान श्रीकृष्ण मोरमुकुट पहनते थे। मतलब मोर ने दुःख या अवसाद के आंसू को गिरने दिया। उसने उन्हें रोका नहीं। अवसाद की मनोस्थिति को अभिव्यक्त होने दिया। अवसाद के विचारों को तनिक उमड़ने दिया। मोरनी यहाँ बुद्धि और मोर आत्मा का प्रतीक है। मोर मतलब आत्मा अंधेरारूपी अवसाद को अनुभव कर रहा है। उस आँसू मतलब अभिव्यक्त कटु विचारों की शक्ति को बुद्धि ने ग्रहण कर लिया, और उससे सुंदर व शक्ति से भरे विचारों के रूप में पुत्र को पैदा किया। शास्त्रों में मन के सशक्त व सुंदर विचारों को पुत्र कहने का प्रचलन है। कुण्डलिनी चित्र सबसे सुंदर विचार है, इसलिए उसे सर्वश्रेष्ठ पुत्र या कार्तिकेय का रूप दिया है। सबसे अच्छे तरीके के अनुसार बुद्धि ने कुण्डलिनी योग करने का निर्णय लिया। इससे बुरे विचारों की शक्ति चमकीले कुण्डलिनी चित्र को लग गई, जिससे अवसाद का अंधेरा खत्म हो गया, और साथ में सम्भवतः कुण्डलिनी जागरण भी मिला। जो कुण्डलिनी योगी नहीं था, उसकी बुद्धि ने कलापूर्ण ढंग से आदमी से ऐसी क्रियाएं करवाईं, जिनसे सुन्दर विचार उमड़ते हैं, जैसे कि लेखन, चित्रकारी, संगीत-वादन, अभिनय आदि। इससे भी अवसाद के धूमिल विचारों की शक्ति इन सुंदर विचारों को लग गई। मतलब साफ है कि अवसाद के गुब्बारे को फूटने देना चाहिए, उसे अंदर बंद करके नहीं रखना चाहिए। मेरे साथ भी एकबार ऐसा ही हुआ था, जब मेरे सामने संसार के बहुत से रास्ते बंद हो गए थे। नया काम कुछ था नहीं, इसलिए पुराने विचार मोर के आँसू की तरह उमड़ रहे थे। फिर मैंने तांत्रिक कुण्डलिनी योग से उन विचारों की शक्ति कुण्डलिनी चित्र को दे दी। मित्र ने उक्त स्पष्टीकरण के बारे में कोई विचार-चर्चा नहीं की, बल्कि फ्रेंडलिस्ट से ही बाहर हो गया। इससे तो पूरी तरह से सिद्ध हो जाता है कि मेरा निरुत्तर करने वाला विश्लेषण सटीक था। दुष्प्रचार करने वाले इसी तरह जुबानी फायर करके गायब हो जाते हैं। आपकी क्या राय है?
कुण्डलिनी योग ही भगवान विष्णु के वराह अवतार के रूपक के रूप में वर्णित किया गया है
दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में नाक व इड़ापिंगला से जुड़े कुछ आध्यात्मिक रहस्य साझा कर रहा था। इसी से जुड़ी एक पौराणिक कथा का स्मरण हो आया तो सोचा कि इस पोस्ट में उसका योग आधारित रहस्योद्घाटन करने की कोशिश करते हैं। कहते हैं कि पुराने युग में राक्षस हिरण्याक्ष धरती को चुरा के ले गया था और उसे समुद्र के अंदर गहराई में छिपा दिया था। इससे सभी देवता परेशान होकर ब्रह्मा को साथ लेकर भगवान विष्णु के पास गए और उनसे सहायता का वचन प्राप्त किया। तभी ब्रह्मा की नाक से एक छोटा सा सूअर निकला। दरअसल भगवान विष्णु ने ही उस वराह का रूप धारण किया हुआ था। वह देखते ही देखते बड़ा होकर समुद्र में घुस गया। वहाँ उसने गहराई में छुपे दैत्य हिरण्याक्ष को देख लिया और उससे युद्ध करने लगा। देखते ही देखते उसने हिरण्याक्ष को मार दिया और वेदों समेत धरती को अपने मुंह के दोनों किनारों वाली लंबी और पैनी दो दाढ़ें आगे करके उन पर गोल धरती को बराबर संतुलित करके टिका दिया। फिर वे समुद्र के ऊपर आए और उन्होंने धरती को यथास्थान स्थापित कर दिया। फिर भी वराह भगवान शांत नहीं हो रहे थे। उनको भगवान शिव ने एक अवतार लेकर शांत किया।
वराह अवतार कथा का योग आधारित रहस्यात्मक विश्लेषण
नासिका पर और विशेषकर नासिका से अंदरबाहर आतीजाती साँस पर ध्यान देने से शक्ति केंद्रीय रेखा में सुषुम्ना नाड़ी की सीध में आ जाती है। कहते हैं कि नासिका से बाहर जाती साँस से होकर ही वराह बाहर निकला। बाहर जाती साँस पर ध्यान देने से शक्ति आगे वाले चैनल से नीचे उतरती है, और सभी चक्रोँ को भेदते हुए मूलाधार में पहुंच जाती है। यही वराह का समुद्र के नीचे पाताल लोक में पहुंचना है। अगर उसे पाताल लोक की बजाय समुद्र ही मानें तो भी संसार सागर का सबसे निचला पायदान मूलाधार ही है, क्योंकि विभिन्न चक्रोँ में ही सारा संसार बसा हुआ है। सम्भवतः इसलिए भी समुद्र कहा गया हो क्योंकि वीर्यरूपी जल के भंडार मूलाधार क्षेत्र के अंतर्गत ही आते हैं, जिसमें सारा संसार के रूप में दबा सा पड़ा होता है। हिरण्याक्ष का मतलब द्वैतभाव रूपी अज्ञान। हिरण्य मतलब सोना, अक्ष मतलब आंख। जिसकी नजर में सुवर्ण अर्थात समृद्धि के प्रति आदरभाव है, और उसके पीछे द्वैत भाव से अंधा सा होकर पड़ा हुआ है, वही हिरण्याक्ष है। उससे कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार के अँधेरे में छुप अर्थात सो जाती है। मतलब जो मन के विचारों की शक्ति है, वह अवचेतन विचारों के रूप में अव्यक्त होकर मूलाधार में दब जैसी जाती है। यही तो कुंडलिनी है। उस मानसिक संसार के साथ वेद भी मूलाधार में दब जाते हैं, क्योंकि शुद्ध व सत्त्वगुणी आचार-विचार ही तो वेदों के रूप में हैं। शक्ति मूलाधार पर पहुँचने के बाद पीठ से होते हुए वापिस ऊपर मुड़ने लगती है। शक्ति इड़ा और पिंगला, ज्यादातर इड़ा नाड़ी से ऊपर चढ़ने की कोशिश करती है, क्योंकि इसमें अवरोध कम होता है। कई बार शक्ति इड़ा और पिंगला में कुछ क्षणों के लिए प्रत्येक में बारीबारी से झूलने लगती है। ऐसे में आज्ञा चक्र पर भी ध्यान बनाकर रखने से शक्ति बीचबीच में कुछ क्षणों के लिए सुषुम्ना में भी ठहरती रहती है। इड़ा और पिंगला ही वराह के मुंह के दोनों किनारों वाले दो नुकीले दाँत हैं। सुषुम्ना नाड़ी या आज्ञा चक्र ही उन दोनों दांतों के ऊपर संतुलित करके रखी हुई गोल पृथ्वी है। चक्र भी गोल ही होता है। सुषुम्ना को पृथ्वी इसलिए कहा गया है क्योंकि दुनिया के सारे अनुभव मस्तिष्क में ही होते हैं, बाहर कहीं नहीं, और सुषुम्ना नाड़ी से होकर ही मस्तिष्क को शक्ति संप्रेषित होती है। वराह कुण्डलिनी-पुरुष अर्थात ध्यान-छवि है। यह भगवान विष्णु का ध्यान ही है। उसको भी विष्णु की तरह ही शंख, चक्र, गदा, पद्म के साथ चतुर्भुज रूप में दिखाया गया है।इसीलिए कहा है कि भगवान विष्णु ने वराह रूप में अवतार लिया। रूपक के लिए वराह को इसलिए भी चुना गया है क्योंकि सूअर ही जमीन को खोदकर गहराई में भोजन के रूप में छिपी अपनी शक्ति की तलाश करता रहता है। सूअर को पृथ्वी इसीलिए प्यारी होती है। इसीलिए उसे लाने वह समुद्र में भी घुस जाता है। मूलाधार में सोई हुई या दबी हुई धरती अर्थात मन रूपी शक्ति को पाने के लिए वह इड़ा और पिंगला रूपी दांतों के साथ उस शक्ति को वहाँ पर टटोलता और खोदता है। फिर उसको सुषुम्ना रूपी संतुलन देकर जल के बाहर ले आता है, और उसे अपने पूर्ववत असली स्थान पर स्थापित कर देता है। जल से बाहर ले आता है माने नाड़ी के शिखर पर उससे बाहर सहस्रार में पहुंचा देता है, क्योंकि नाड़ी भी जल की तरह ही बहती है। उसका असली स्थान मस्तिष्क का सहस्रार ही है, क्योंकि वही सभी अनुभवों का केंद्र है। सुषुम्ना नाड़ी भी सीधी मूलाधार से सहस्रार को जाती है। इससे अवचेतन मन में दबे हुए विचार फिर से अनुभव में आने लगते हैं, और आनंदमयी शून्य-आत्मा में विलीन होने लगते हैं। मतलब अवचेतन विचारों के रूप में सोई हुई शक्ति जागने लगती है। यह विपासना ही तो है। विपासना मस्तिष्क के किसी भी हिस्से में हो सकती है, सहस्रार को छोड़कर, क्योंकि इसके लिए कम शक्ति चाहिए होती है। होती सहस्रार में ही है, पर कम ऊर्जा के कारण बाहर जान पड़ती है। जिस विचार में जितनी कम शक्ति होती है, वह सहस्रार से उतना ही दूर प्रतीत होता है। वैसे भी आत्मा का स्थान सहस्रार में ही बताया गया है। सहस्रार में केवल कुण्डलिनी चित्र का ही ध्यान किया जाता है, जोकि किसी मूर्ति या गुरु या पारलौकिक देह आदि के रूप में होता है। यह चित्र लगभग असली भौतिक रूप की तरह महसूस होता है अभ्यास से, इसीलिए इसके लिए विपासना की अपेक्षा काफी ज्यादा शक्ति लगती है। यदि कोई किसी आम लौकिक आदमी या औरत के रूप की छवि को सहस्रार में जागृत करने लगे, तब तो वह रात को ही नींद में चलता हुआ उसके पास पहुंच जाएगा। तब ध्यान कैसे होगा। फिर सभी देवता और ऋषिगण प्रसन्न होकर वराह भगवान की हाथ जोड़कर स्तुति करते हैं। वैसे भी इन सभी का उद्देष्य जीवमात्र को जन्ममरण रूपी दुःख से दूर करना ही है, जो सहस्रार चक्र में ही संभव है, इसीलिए खुश होते हैं। शिवजी के द्वारा वराह को शांत करने या मारने का मतलब है कि योगी कुण्डलिनी का भी मोह छोड़कर शिव के जैसा अद्वैतवान तांत्रिक बन गया। वैसे भी सिद्धांत यही है कि ज्ञान अर्थात कुण्डलिनी जागरण होने के बाद या वैसे भी अद्वैतमय तंत्र ही सर्वोच्च समझ अर्थात सुप्रीम अंडरस्टेंडिंग है, जिसे ओशो महाराज भी अपनी एक पुस्तक ‘tantra- a supreme understanding’ के रूप में दुनिया के सामने स्पष्ट करते हैं।
कुंडलिनी ऊर्जा इड़ा और पिंगला नाड़ियों से पकड़ में आने के बाद ही सुषुम्ना में आसानी से प्रविष्ट हो पाती है
मित्रों, मैं पिछले से पिछली पोस्ट में बता रहा था कि गंगा नदी का अवतरण कैसे हुआ। राजा सगर के साठ हजार पुत्र हजारों वासनाओं के प्रतीक हैं। सगर का मतलब संसार सागर मतलब शरीर में डूबा हुआ आदमी। हरेक जीवात्मा अपने शरीर रूपी संसार का राजा ही है। सारा संसार इस शरीर में ही है। सागर शब्द से ही सगर शब्द बना है। कहते हैं कि राजा सगर की पत्नि के गर्भ से एक घड़े जैसी आकृति पैदा हुई थी। उसमें चींटियों की तरह साठ हजार बच्चे थे। वे बाहर निकलकर बढ़ते गए और कालांतर में साठ हजार पूर्ण मनुष्य बन गए। मस्तिष्क भी तो घड़े जैसा ही है, जिसमें बहुत सूक्ष्म वासनाएं हजारों की संख्या में रहती हैं। इन्द्रियों के माध्यम से वे बाहर निकलकर चित्रविचित्र अनेकों रचनाओं व भावनाओं का निर्माण करती हैं, मतलब पूर्ण विकसित मनुष्य की तरह हो जाती हैं। मनुष्य क्या है, भावनामय रूप की एक विशेष अवस्था ही तो है। अनगिनत अवस्थाएं मतलब अनगिनत मनुष्य। महारानी गांधारी से भी इसी तरह सौ कौरव पुत्रों का जन्म हुआ था। हो सकता है कि इसके पीछे भी ऐसा ही कोई रहस्य छुपा हो। प्राइमरी स्कूल की शुरुआती कक्षाओं के दिनों की बात है। एक हिंदी कविता थी, ‘कौरव सौ थे पांडव पांच, सगे भाइयों की संतान; पांडव वीर धरम के रक्षक, कौरव को था धन अभिमान’। मैं कक्षा के सभी बच्चों को समझाने की कोशिश करता कि किसी के सौ पुत्र होना असम्भव है, इसलिए ‘सौ’ की बजाय यह शब्द ‘सो’ है, मतलब ‘जो थे सो थे’, पर सभी बच्चे कहते कि गुरुजी ने ‘सौ’ ही कहा है। मैं उन्हें कहता कि उनसे सुनने में गल्ती हुई है। जब मैंने अपने तरीके से अध्यापक के बोलने पर कविता पढ़ी, तब उन्होंने मुझे सही किया। मुझे आश्चर्य हुआ पर उन्होंने उसकी वैज्ञानिक वजह नहीं बताई, और न ही मैंने पूछने की हिम्मत की। इतना गहरा विश्वास होता था ऐसी कथाओं पर, हालांकि ऐसा नहीं था कि कोई उसकी देखादेखी असल में भी सौ पुत्र पैदा करने की कोशिश करने लग जाता। हालांकि ऐसी कथाओं का जनसंख्या बढ़ाने में योगदान हो भी सकता है। ऐसी कथाओं में मानसिक छवियों को पुत्र रूप में दर्शाने का प्रचलन रहा है शास्त्रों में। यह अध्यात्मविज्ञान की दृष्टि से सही भी है क्योंकि जिस वीर्य से पुत्र की प्राप्ति होती है वही एक ऊर्जावान या जागृत विचार भी उत्पन्न कर सकता है। हो सकता है कि यदि हम उनके रहस्य समझ जाते, तो वे हमारे मन में वह मनोवैज्ञानिक सस्पेंस बना के न रखतीं, जो आदमी को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता रहता है।
प्रभावी व स्पष्ट नाक की तरह नासिका-दृष्टि का आध्यात्मिकता से भरा मनोवैज्ञानिक लाभ
दूसरा हम यह मुद्दा उठा रहे थे कि मूलाधार की शक्ति कैसे अवचेतन मन के कचरे को जलाती रहती है। नाक पर ध्यान बनाते ही किसी भी तनाव व थकान वाले स्थान पर एकदम से शांति मिलती है और अद्वैत के जैसा आनंद अनुभव होता है। मन में साक्षीभाव के साथ दृश्य उभरने लगते हैं, जिससे ऐसा लगता है कि मन का कचरा साफ हो रहा है। सांसों में सुधार होने लगता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इससे ऊर्जा चैनल केंद्रीय रेखा में सक्रिय हो जाता है, जिसमें स्वाधिष्ठान व मूलाधार से शक्ति पीठ के रास्ते से ऊपर चढ़कर गोल लूप में प्रवाहित होने लगती है। एकदिन मैं एक निमंत्रण पर निकट की पाठशाला में वार्षिक पारितोषिक वितरण समारोह देखने गया। वहाँ बच्चे बहुत अच्छा रंगारंग कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे थे। उस दौरान यह सब मनोवैज्ञानिक लाभ मुझे बीचबीच में अपनी नाक के ऊपर नीचे की तरफ तिरछी नजर बना कर महसूस हुआ। साथ में नाक के अंदर स्पर्ष करती हवा पर भी ध्यान लगा रहा था। नाई से ताज़ा-ताज़ा शेव करवाई थी और फेस स्क्रब करवाया था, जिससे मूँछ बड़ी और स्पष्ट महसूस हो रही थी। सम्भवतः वह भी नाक की तरफ ध्यान खींच रही थी। हो सकता है कि मूंछ का प्रचलन इसी आध्यात्मिक लाभ के दृष्टिगत बना हो। लगता है कि बड़ी नाक वाले आदमी की आकर्षकता और सेक्सी लुक के पीछे यही बड़ी नाक और उससे उत्पन्न उपर्युक्त मनोवैज्ञानिक लाभ है। वैसे भी नाक की तरफ ध्यान देता आदमी सुंदर, अंतरमुखी, आध्यात्मिक और अपने आप में संतुष्ट लगता है। सम्भवतः इसीलिए नाक के ऊपर बहुत सी कहावतें बनी हैं, जैसे कि नाक पे दिया जलाना, अपने नाक की परवाह कर, अपनी नाक को ऊँचा रखो, अपनी नाक को बचा, नाक न कटने दे, अपनी नाक मेरे काम में न घुसा आदि-आदि। मुझे यह भी लगता है कि दूरदर्शन को दीवार पर आँखों की सीध में या उससे भी थोड़ा नीचे फिक्स करवाने से जो उसे देखने का ज्यादा मजा आता है, वह इसीलिए क्योंकि उसको देखते समय नाक पर भी नजर बनी रहती है, इससे ज्यादा ऊँचाई पर ऐसा कम होता या नहीं होता और साथ में गर्दन में भी दर्द आती है। कुछ एकसपर्ट तो यहाँ तक कहते हैं कि दूरदर्शन का ऊपरी किनारा आँखों की सीध में होना चाहिए, जैसे कम्प्यूटर मॉनिटर का होता है। साथ में मुझे नींद का मानसिक उच्चारण करने से भी शांति जैसी मिलती थी। नींद के मन में उच्चारण से सांस विशेषकर बाहर निकलती सांस ज्यादा चलती है, इससे सिद्ध होता है कि ऊर्जा एक्सहेलेशन माने निःश्वास से आगे के चैनल से नीचे उतरती है। प्राणायाम करते समय नाक को पकड़ते हुए उसी हाथ की एक अंगुली की टिप से आज्ञा चक्र बिंदु पर संवेदनात्मक दबाव बना कर रखने से भी मुझे शक्ति केंद्रीभूत माने सेन्ट्रलाईज़ड होते हुए महसूस होती है। मुझे तो आज्ञा चक्र और स्वाधिष्ठान चक्र को एकसाथ अंगुली से दबा कर रखने से अपना शरीर एकदम से शक्ति से रिचार्ज होता हुआ महसूस होता है। लगती यह तांत्रिक तकनीक अजीब है, पर बड़े काम की है। साँस अपनी मर्जी से चलने-रुकने दो, शक्ति को अपनी मर्जी से इड़ा या पिंगला या जहाँ मर्जी दौड़ने दो। अंततः वह खुद ही केंद्रीय सुषुम्ना चैनल में आ जाएगी, क्योंकि उसके दो कॉर्नर पॉइंट ऊँगली से जो दबाए हुए हैं, जिनसे पैदा हुई दाब की आनंदमयी सी संवेदना शक्ति को खुद ही सुषुम्ना में धकेल कर गोलगोल घुमाने लगती है। इससे शरीर के उस हिस्से तक पर्याप्त शक्ति आसानी से पहुंच जाती है, जहाँ उसकी जरूरत हो। जैसे थके हुए दिल तक, बेशक यह उपले शरीर के बाएं हिस्से में है। इसी तरह थकी हुई टांगों में। दरअसल ऊर्जा नाड़ी के उन दो कॉर्नर पॉइंट के बीच में चलती है, बीच रास्ते में वह कोई भी रास्ता अख्तियार कर सकती है। पसंदीदा रास्ता वही होता है, जिसमें कम अवरोध होता है। स्वाभाविक है कि शक्ति की कमी वाला रास्ता ही कम प्रतिरोध वाला होगा, क्योंकि वह शक्ति को अपनी ओर ज्यादा आकर्षित करेगा, और अपनी शक्ति को पूरा करने के बाद आगे भी जाने देगा। कई बार योगासन करते समय जब सांस रोकने से मस्तिष्क में दबाव ज्यादा बढ़ा लगता है, तब आज्ञा चक्र वाला बिंदु नहीं दबाता, सिर्फ नाक पर हल्का सा अवलोकन बना रहता है। उससे मस्तिष्क का दबाव एकदम से कम होकर निचले चक्रोँ की तरफ चला जाता है। दरअसल सुषुम्ना सीधे वश में नहीं आती। उसे इड़ा और पिंगला से काबू करके वहां से सुषुम्ना में धकेलना पड़ता है। इसीलिए आपने देखा होगा कि कई लोग माथे पर ऊर्ध्वत्रिपुण्ड लगाते हैं। इसमें दोनों किनारे वाली रेखाएं क्रमशः इड़ा और पिंगला को दर्शाती हैं, और बीच वाली रेखा सुषुम्ना को। यह ऐसे ही है जैसे बच्चा सीधा पढ़ने नहीं बैठता, पर थोड़ा खेल लेने के बाद पढ़ाई शुरु करता है। हालांकि सुषुम्ना में शक्ति ज्यादा समय नहीं रहती, कुछ क्षणों के लिए ही टिकती है। वैसे तो इड़ा और पिंगला में भी थोड़े समय ही महसूस होती है, पर सुषुम्ना से तो ज्यादा समय ही रहती है। ऐसे ही जैसे बच्चा पढ़ाई कम समय के लिए करता है, और खेलकूद ज्यादा समय के लिए। और तो और, एकदिन मैं दूरदर्शन पर किसी हिंदु संगठन के कुछ युवाओं को देख रहा था। उनके माथे पर लम्बे-लम्बे तिलक लगे हुए थे। किसी की पतली लकीर तो किसी की चौड़ी। एक सबसे चौड़ी, लंबी और चमकीली तिलक की लकीर से मेरी शक्ति बड़े अच्छे से सुषुम्ना में घूम रही थी, और मैं बड़ा सुकून महसूस कर रहा था। मैं बारबार उस तिलक को देखकर लाभ उठा रहा था। बेशक वह इतना बड़ा तिलक ऑड जैसा और हास्यास्पद सा लग रहा था। उसकी आँखों और चालढाल में भी व्यावहारिक अध्यात्म व अद्वैत नजर आ रहा था। दूसरे तिलकों से भी शक्ति मिल रही थी, पर उतनी नहीं। उनके चेहरों पर अध्यात्म का तेज भी उतना ज्यादा नहीं था। असली जीवन में तो तिलक लगाने वाले को भी अप्रत्यक्ष रूप से कुंडलिनी लाभ मिलता है, जब दूसरे लोग उसके तिलक की तरफ देखते हैं। इसका मतलब है कि सत्संग की शक्ति दूरदर्शन के माध्यम से भी मिल सकती है। गजब का आध्यात्मिक विज्ञान है यारो।
कुंडलिनी योग ही सभी धर्मों की रीढ़ है, इसपर आधारित इनका वैज्ञानिक विश्लेषण इनके बीच बढ़ रहे अविश्वास पर रोक लगा सकता है
आक्रमणकारियों से शास्त्रों की रक्षा करने में ब्राह्मणों की मुख्य भूमिका थी
कई बार कट्टर किस्म के लोग छोटीछोटी विरोधभरी बातों का बड़ा बवाल बना देते हैं। अभी हाल ही में दिल्ली के जवाहर लाल यूनिवर्सिटी (जेएनयू) की दीवारों पर लिखे ब्राह्मण विरोधी लेख इसका ताज़ा उदाहरण है। यह सबको पता है कि यह तथाकथित पिछड़े वर्णों ने नहीं लिखा होगा। हिंदु समुदाय के बीच दरार पैदा करने के लिए यह तथाकथित निहित स्वार्थ वाले बाहरी लोगों की साजिश लगती है। ऐसा सैंकड़ों सालों से होता चला आ रहा है। दरअसल यह सामाजिक कर्मविभाजन था, जिसे वर्ण व्यवस्था कहते थे। इसमें सभी बराबर होते थे, केवल यही विशेष बात होती थी कि वंश परम्परा से चले आए काम को करना ही अच्छा समझा जाता था, जैसे व्यापारी का बेटा भी अपने पिता के व्यापार को संभालता है। जबरदस्ती कोई नहीं थी, क्योंकि शूद्र वर्ण के बाल्मीकि ने रामायण लिखी है, विश्वामित्र क्षत्रिय से ब्राह्मण बन गए थे। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं। हालांकि ज्यादातर लोग अपने ही वर्ण का काम सँभालने में ज्यादा गौरव, सम्मान और गुणवत्तापूर्णता महसूस करते थे। जैसे वर्णमाला के वर्ण अपना अलग-अलग विशिष्ट रूप-आकार लिए होते हैं, वैसे ही समाज के लोग भी अलग-अलग रूपाकार के कर्म करते हैं। अगर कर्म के अनुसार ही किसी का स्वभाव बन जाता हो, तो यह अलग बात है, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि सबको पंक्ति में खड़ा किया गया और शरीर के रंगरूप के अनुसार विभिन्न किस्म के समूह बनाए गए। वर्ण या वर्णभेद से मतलब रंग या रंगभेद बिल्कुल नहीं है, क्योंकि हरेक वर्ण के लोगों में हरेक किस्म के त्वचा-रंग के लोग मिलेंगे। इसी तरह यह परम्परा विदेशी कास्ट या जाति परम्परा की तरह भी नहीं है। यह नाम भी इसको गलतफहमी से दिया गया लगता है। रही बात ब्राह्मणों की तो यह बता दूँ कि सबसे कठिन जीवन उन्हीं का होता था। उनको विलासिता भरे जीवन से अपने को कोसों दूर रखना पड़ता था। फिर धनसम्पत्ति किस काम की अगर उसे भोग ही न सको। अधिकांशतः उनकी कमाई संपत्ति औरों के या परमार्थ के काम ही आती थी। दुनिया में ठगों की कमी न आज है, न पुराने समय में थी। पहली बात तो उनके पास सम्पत्ति होती ही नहीं थी। भिक्षाजीवी की तरह वे दक्षिणा में मिले मामुली से मेहनताने से अपना और अपने परिवार का गुजारा मुश्किल से चलाते थे। फिर बोलते कि राजा उन्हें बहुत सारी धनसंपत्ति दान में दिया करते थे। राजा भी कितनों को देंगे। कर वसूलने वाले इतनी आसानी से दान दिया करते तो आज कोई गरीब न होता। कुछेक ब्राह्मणों को अगर मुहमाँगा दिया गया होगा तो उसको हमेशा गिनते हुए सब पर तो लागू नहीं करना चाहिए। मुफ्त में तो राजा भी नहीं देते थे। जब उन्हें ब्राह्मण से कोई बड़ा ज्ञान प्राप्त होता था, तभी वे अपने आध्यात्मिक कल्याण के लिए दान देते थे। कहावत भी है कि फ्री लंच का अस्तित्व ही नहीं है। मैं ऐसा इसलिए लिख रहा हूँ, क्योंकि मुझे पता है। मेरे दादा खुद एक आदर्श हिंदु पुरोहित थे, जो लोगों के घरों में पूजापाठ किया करते थे। मैंने उनके साथ काम करते हुए खुद महसूस किया है कि आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करना और उसे दुनिया में बाँटना कितना मुश्किल और आभारहीन माने थैंकलेस काम है। ये काम ही ऐसा है, इसमें लोगों की गल्ती नहीं है। ये बातें अधिकांश लोगों को अब पुनः समझ में आने लग गई हैं। इसीका परिणाम है कि ब्राह्मणों के खिलाफ उक्त भड़काऊ लेखन के विरोध में सोशल मीडिया में “हैशटैग ब्राह्मण लाइफ मैटर्स” ट्रैण्ड किया। इसी तरह “हैशटैग मैं भी ब्राह्मण हूँ” भी ट्विटर पर काफी ट्रैण्ड रहा, जब क्रिकेटर सुरेश रैना के अपने आप को ब्राह्मण कहने का बहुत से वामपंथी किस्म के लोगों ने विरोध किया था। हम ये नहीं कह रहे कि सभी ब्राह्मण आदर्श हैं। पर इससे ब्राह्मणवाद को गलत नहीं ठहरा सकते। ब्राह्मणवाद ज्ञानवाद, बुद्धिवाद या अध्यात्मवाद का पर्याय है। अगर कहीं पर चिकित्सक निपुण नहीं हैं, तो उससे चिकित्सा विज्ञान झूठा नहीं हो जाता। आज जो हम इस ब्लॉग पर आध्यात्मिक ज्ञान से भरी जिन रहस्यवादी कथाओं के विश्लेषण का आनंद लेते हैं, वे अधिकांशतः ब्राह्मणों ने ही बनाई हैं। इन्हें आजतक सुरक्षित भी इन्होंने ही रखा है। अगर ब्राह्मण हमलावरों के आगे झुक जाते तो न तो हिंदु धर्म का नामोनिशान रहता और न ही इस धर्म के रहस्यमयी ग्रंथों का। क्षत्रिय भी किसके लिए लड़ते, अगर ब्राह्मण ही डर के मारे धर्म बदल देते। किसी पर मनगढंत इल्जाम लगाना आसान है, पर अपने अहंकार को नीचे रखकर सच्ची प्रशंसा करना मुश्किल। फिर कहते हैं कि ब्राह्मण विदेशों से यहाँ आकर बसे। एक तो इसके स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं, हमला करके आने के तो बिल्कुल भी नहीं, और अगर मान लो कि वे आए ही थे, तो यहाँ प्रेम से घुलमिलकर यहाँ की सरजमीं के सबसे बड़े रखवाले और हितैषी सिद्ध हुए। इसमें बुरा क्या है। हाँ, यह जरूर है कि जिस कुंडलिनी योग के आधार पर बने शास्त्रों और उनकी परम्पराओं का वे निर्वहन करते हैं, उसे वे समझें, प्रोत्साहित करें और हठधर्मिता छोड़कर उसके खिलाफ जाने से बचें।
विश्व के सभी धर्म और सम्प्रदाय कुंडलिनी योग पर ही आधारित हैं
शिवपुराण में भगवान शिव कहते हैं कि वे विभिन्न युगों में विभिन्न योगियों का अवतार लेकर उन-उन युगों के वेदव्यासों की वेद-पुराणों की रचना में सहायता करते हैं। वे लगभग 5-6 पृष्ठ के दो अध्यायों में यही वर्णन करते हैं कि किस युग में कौन वेद व्यास हुए, उन्होंने किस योगी के रूप में अवतार लेकर उनकी सहायता की और उनके कौन-कौन से शिष्य हुए। इससे स्पष्ट हो जाता है कि ध्यान योग माने कुंडलिनी योग ही सनातन धर्म की रीढ़ है। मुझे तो अन्य सारे धर्म सबसे प्राचीन सनातन धर्म की नकल करते हुए जैसे ही लगते हैं। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि सभी धर्म योग पर ही आधारित हैं, और योग को सरल, लोकप्रिय व व्यावहारिक बनाने का काम करते हैं। जब सबसे योग ही हासिल होता है, तो क्यों न सीधे योग ही किया जाए। अन्य धर्म भी यदि साथ में चलते रहे, तो भी कोई बुराई नहीं है, बल्कि योग के लिए फायदेमंद ही है।
ध्यान ही सबकुछ है
साथ में महादेव शिव कहते हैं कि ध्यान के बिना कुछ भी संभव नहीं है। वे कहते हैं कि केवल ध्यान से ही मोक्ष मिल सकता है, यदि ध्यान न किया तो सारे शास्त्र और वेदपुराण निष्फल हैं।
नए धर्म व नए योग स्टाइल बदलते दौर के साथ अध्यात्म को ढालने के प्रयास से पैदा होते रहते हैं
जमाने के अनुसार सुधार धर्म में भी होते रहने चाहिए। मतलब सुधार का मौका मिलता रहना चाहिए, यह जनता पर निर्भर करता है कि सुधार को स्वीकार करती है या नहीं। हालांकि इसके साथ षड्यंत्र से भी बचना जरूरी होगा, क्योंकि कई लोग दुष्प्रचार आदि तिकड़में लगाकर किसी घटिया सी रचना को भी बहुत मशहूर कर देते हैं। इसके लिए कोई निष्पक्ष संस्था होनी चाहिए जो रचनाओं की सही समीक्षा करके जनता को अवगत करवाती रहे। कट्टर बनकर यदि सुधार का मौका ही नहीं दोगे, तो धर्म जमाने के साथ कंधा से कंधा मिला कर कैसे चल पाएगा। सुधार का मतलब यह नहीं है कि पुरानी रचनाओं को नष्ट किया जाए। सम्भवतः इसी डर से सुधार नहीं होने देते कि इससे पुरानी रचना नष्ट हो जाएगी। पर यह सोच मिथ्या और भ्रमपूर्ण है। नए सुधारों से दरअसल पुरानी रचनाओं को बल मिलता है क्योंकि इनसे वे बाप का दर्जा हासिल करती हैं। आइंस्टीन के गुरुत्वाकर्षण के नए सिद्धांत से न्यूटन का पुराना सिद्धांत नष्ट तो नहीं हुआ। गुरुत्वाकर्षण तो वही है, बस उसको समझने के दो अलगलग तरीके हैं। इसी तरह ध्यान व अद्वैत को अध्यात्म की मूल विषयवस्तु मान लो। इसको प्राप्त कराने के लिए ही विभिन्न पुराण, मंत्र व पूजा पद्धतियाँ बनी हैं। हो सकता है कि इनमें सुधार कर के जमाने के अनुसार नई रचनाएं बन जाएं, जो इनसे भी ज्यादा प्रभावशाली हों, और ज्यादा लोगों के द्वारा स्वीकार्य हों। शरीरविज्ञान दर्शन भी एक ऐसा ही छोटा सा प्रयास है, हालांकि उसमें भी विकास की गुंजाईश है। मेरा व्यक्तिगत अनुभवरूपी शोध इसके साथ जुड़ा है। मतलब यह ऐसा दर्शन नहीं कि मन में आया और बना दिया। जब मुझे इसकी मदद से जागृति का अनुभव हुआ, तभी इस पर प्रमाणिकता की मुहर लगी। यह अलग बात है कि साथ में उस सनातन धर्म वाली सांस्कृतिक जीवनचर्या का भी योगदान रहा होगा, जिसमें मैं बचपन से पला-बढ़ा हूँ। पर इतना जरूर लगता है कि कम से कम पचास प्रतिशत योगदान शरीरविज्ञान दर्शन का रहा ही होगा। अब आम जीवन में इतना शुद्ध शोध तो कहाँ हो सकता है कि अन्य सभी सहकारी कारणों को ठुकरा कर केवल एक ही कारण के असर को परखा जाए। दरअसल एक मेरे जैसे आम आदमी के पास इतना समय नहीं होता कि ऐसे सुधारों और विकास के लिए विस्तृत शोध किया जाए। जैसे ज्ञानविज्ञान के अन्य क्षेत्रों में विशेषज्ञ व अनुभवशाली शोध-वैज्ञानिकों की सेवा ली जाती है, वैसी ही अध्यात्म के क्षेत्र में भी ली जा सकती है। इसमें बुरा क्या है। पर समस्या यह है कि समर्पित शोधार्थी से ज्यादा पार्ट टाइम या हॉबी शोधार्थी ज्यादा अच्छा काम कर सकते हैं। मतलब कि अध्यात्म रोजाना के व्यवहार से ज्यादा जुड़ा होता है। एकाकीपन के शोध से व्यावहारिक नतीजे नहीं निकलते। यह भी समस्या है कि शोध के लिए जागृत व्यक्ति कहाँ से लाए। परीक्षा लेने वाले भी जागृत ही चाहिए। जागृत व्यक्ति को ही असली लक्ष्य का पता होता है। जिसको लक्ष्य की ही पहचान नहीं है, वह उसके लिए शोध कैसे करेगा। आज तक कोई मशीन नहीं बनी जो किसी की जागृति का पता लगा सके। अध्ययन के बल पर कुछ टोटके तो कोई भी ईजाद कर सकता है, पर ज्यादा असली व प्रामाणिक तो जागृत व्यक्ति का शोध ही माना जाएगा।
पुराण व अन्य धर्म संबंधित लौकिक साहित्य शहद के साथ मिश्रित की हुई कड़वी दवाई की तरह काम करते हैं
पिछली पोस्ट में मैं बता रहा था कि कैसे राजा भागीरथ गंगा नदी के प्रवाह में आई रुकावटों को हटा रहा था। हमारे दादा उस बात को शास्त्रों का हवाला देते हुए ऐसे कहा करते थे कि भागीरथ हाथ में कुदाली को लेकर गंगा के आगे-आगे चलता रहा और उसके जलप्रवाह के लिए जमीन खोद कर रास्ता बनाता रहा, जैसे कोई किसान सिंचाई की कूहल के लिए रास्ता मतलब चैनल बनाता है। मत भूलो, शरीर में शक्ति संचालन मार्ग को भी अंग्रेजी में चैनल ही कहते हैं। शब्दावली में भी कितनी समानता है। वे खुद एक छोटे से किसान भी थे। वैसे तो आलोचक विज्ञानवादी को यह बात अजीब लग सकती है, पर इसमें एक गहरा मनोवैज्ञानिक सबक छिपा हुआ है। यह बात मनोरंजक और हौसला बढ़ाने वाली है। साथ में यह अध्यात्मवैज्ञानिक रूप से बिल्कुल सत्य भी है, जैसा कि पिछली पोस्ट में दिखाया गया है। बेशक यह बात हमें स्थूल रूप में समझ नहीं आती थी, पर हमारे अवचेतन मन पर एक गहरा प्रभाव छोड़ती थी। उसी का परिणाम है कि कालांतर में हमारे को खुद ही यह रहस्य अनुभव रूप में समझ आया। पौराणिक ऋषि बहुत बड़े व्यावहारिक मनोवैज्ञानिक होते थे। वे जानते थे कि अनपढ़ और बाह्यमुखी जनता को सीधे तौर पर गहन आध्यात्मिक तकनीकें नहीं समझाई जा सकतीं, इसीलिए वे उन तकनीकों को व्यावहारिक, रहस्यात्मक और मनोरंजक तरीके से प्रकट करते थे, ताकि वे अवचेतन मन पर गहरा असर डालती रहें, जिससे आदमी धीरेधीरे उनकी तरफ बढ़ता रहे। सहज पके सो मीठा होय। एकदम से पकाया हुआ फल मीठा नहीं होता। ऐसी मिथकीय कथाओं पर लोगों की अटूट आस्था का ही परिणाम है कि वे आज तक समाज में प्रचलित हैं। किसीसे अगर पूछो कि उसे इन कथाओं से क्या लाभ मिला, तो वह पुख्ता तौर पर कुछ नहीं बता पाएगा, पर उन्हें पूजनीय व अवश्य पढ़ने योग्य जरूर कहेगा। कई कथाएं ऋषियों ने जानबूझ कर ऐसी बनाई हैं कि उनका रहस्योद्घाटन नहीं किया जा सकता। अगर सभी कुछ का पता चल गया तो विश्वास करने के लिए बचेगा क्या। ऋषि विश्वास और सस्पेंस की शक्ति को पहचानते थे। होता क्या है कि जब कुछ कथाओं के रहस्य से परदा उठता है, तो अन्य कथाओं की सत्यता पर भी विश्वास हो जाता है। वैसे गैरजरूरी कथाओं को उजागर करना ही नामुमकिन लगता है। जो कथा-रहस्य जितना ज्यादा जरूरी है, उसे उजागर करना उतना ही आसान है। वैसे धर्म के बारे ज्यादा कहने का मुझे बिल्कुल शौक नहीं है, पर कई बारे सीमित रूप में कहना पड़ता है, क्यकि अध्यात्म को धर्म के साथ बहुत पक्के से जोड़ा गया है, और कई बारे इनको अलग करना मुश्किल हो जाता है।आज जब विभिन्न धर्मों के बीच इतना अविश्वास बढ़ गया है, तो यह जरूरी हो गया है कि उनका आध्यात्मिक व वैज्ञानिक रूप में वर्णन करके विरोधियों की शंका दूर कर दी जाए।
कुंडलिनी योग को ही गंगा अवतरण की कथा के रूप में दिखाया गया है
अश्वमेध यज्ञ साक्षीपन साधना या विपासना का अलंकारिक शैली में लिखा रूप प्रतीत होता है
दोस्तों, हिन्दु दर्शन में गंगा के अवतरण की एक प्रसिद्ध कथा आती है। क्या हुआ कि राजा सगर के साठ हजार पुत्र थे। एक बार वे अश्वमेध यज्ञ करने लगे। यज्ञ के अंत में यज्ञ का घोड़ा छोड़ा गया। देवराज को डर लगा कि अगर राजा सगर का वह सौवां अश्वमेध यज्ञ सफल हो गया तो सगर को उसका इंद्र का पद मिल जाएगा। इसलिए उसने घोड़े को चुराकर पाताल लोक में कपिल मुनि के आश्रम के बाहर बाँध दिया। सगरपुत्रों ने समझा कि घोड़े को कपिल मुनि ने चुराया था। इसलिए वे उन्हें अपशब्द कहने लगे। इससे जब कपिल मुनि ने आँखें खोलीं तो वे उनसे निकले तेज से खुद ही भस्म हो गए। फिर इससे दुखी होकर राजा सगर कपिल मुनि से क्षमा मांगने लगे और अपने पुत्रों के उद्धार का उपाय पूछने लगे। फिर उन्होंने गंगा नदी से उनका उद्धार होने की बात कही। फिर इतना बड़ा काम कोई नहीं कर सका। सगर के बाद की कई पीढ़ियों के बाद जन्मे भागीरथ ने ब्रह्मा से वरदान में माँ गंगा को माँगा और शिव से उसे जटा में धारण करने की प्रार्थना की। उनकी इच्छा पूरी हुई और गंगा नदी ने उन भस्मित सगर पुत्रों की राख के ऊपर से गुजर कर उनका उद्धार किया।
गंगा नदी के जन्म की कथा का कुंडलिनीविज्ञान आधारित विश्लेषण
राजा सगर संसार-सागर का प्रतीक है। मतलब संसार में आसक्त आदमी। साठ हजार पुत्र हजारों इच्छाओं व भावनाओं के प्रतीक हैं। अश्वमेध यज्ञ का मतलब इन्द्रियों का दमन है। मेध का मतलब बलि या वध होता है। अश्व की बलि मतलब इन्द्रियों की बलि। अगर बाह्य इन्द्रिय रूपी अश्व की बलि अवचेतन मन रूपी हवनकुण्ड में दी जाए और उससे दबे हुए विचारों को उघाड़ने के रूप में अग्नि प्रज्वलित की जाए तो स्वाभाविक है कि उससे मुक्ति रूपी स्वर्ग मिलेगा। उस यज्ञ से देवता प्रसन्न होते हैं क्योंकि पूरे शरीर को देवताओं ने ही बनाया है और वे ही उसे नियंत्रित करते हैं, जैसे कि आँख को सूर्य देव, भुजाओं को इंद्र आदि। इससे परमात्मा-निर्देशित देवताओं का उद्देश्य पूरा होता है, क्योंकि बारबार के जन्ममरण आदि के दुःख से जीव को मुक्ति दिलाकर उसे अपना सर्वोत्तम पद प्रदान करना ही जीवविकास के पीछे मुख्य वजह प्रतीत होती है। इस उद्देष्य की पूर्ति से देवताओं को शक्ति मिलती है। इसीलिए कहा गया है कि यज्ञ से देवता प्रसन्न होते हैं और वर्षा आदि उचित समय पर करवाकर धनधान्य में वृद्धि करते हैं। प्रत्यक्ष लाभ यह तो होता ही है कि लोगों के बीच आपसी मनमुटाव नहीं रहता और एकदूसरे से प्रेम और सहयोग बना रहता है, जिससे सकारात्मक विकास होता है। एकबार ऐसा यज्ञ करने से काम नहीं चलता। यज्ञ पूरी उम्र भर लगातार करते रहना पड़ता है। यह अवचेतन मन बहुत गहरे और आकर्षक कुएँ की तरह है, जिससे बाहर निकला विचारों का कचरा फिर से उसमें गिरता रहता है, हालांकि फिर ऊपर ही रहता है, और बारम्बार के प्रयास से स्थायी रूप से बाहर निकल जाता है। हो सकता है कि किसी वार्षिक उत्सव की तरह साल में एक बार विचारों के कचरे को विस्तार से बाहर निकालने की जरूरत हो। उसे अश्वमेध यज्ञ कहते हों। इसीलिए सौ साल की पूरी उम्र में सौ यज्ञ हुए। सौवां यज्ञ न होने से जीवन के अंतिम वर्ष में पैदा हुए विचारों और भावों का कचरा अवचेतन मन में दबा रह जाता हो, जो आदमी को मुक्त न होने देता हो। हमारी दादी माँ हमें एक दंतकथा सुनाया करती थी। एक स्वर्ग को जाने वाली रस्सी थी। उस पर सावधानी से चलते हुए लोग स्वर्ग जाया करते थे। एक बार एक बुढ़िया एक योगी को उस पर जाते हुए देख रही थी। उसने योगी को आवाज लगाई कि उसे भी साथ ले चल। योगी को उस पर दया आ गई और उसका हाथ पकड़कर उसे भी रस्सी पर चलाने लगा। पर योगी ने एक शर्त रखी कि वह पीछे मुड़कर अपने भाई-बंधुओं को उससे बिछड़ने के दुःख में रोते-बिलखते नहीं देखेगी। अगर उसने पीछे देखा तो उसका संतुलन बिगड़ जाएगा और वह वापिस धरती पर गिर जाएगी। बुढ़िया ने उसकी शर्त मान ली। पर रास्ते में उससे रहा नहीं गया, और जैसे ही उसने नीचे को देखा, वह नीचे गिर गई, पर योगी बिना उसकी तरफ देखे आगे निकल लिए। ऐसी दंतकथाओं के बहुत गहरे और ज्ञानविज्ञान से भरे अर्थ होते हैं।
मन की सफाई तो अंततः विपासना से ही होती है, जो एक शांत किस्म का ध्यानयोग है
वैसे कुंडलिनी जागरण, आत्मज्ञान वगैरह-वगैरह से मुक्ति नहीं मिलती। इनसे तो विचारों या कर्मों के दबे कचरे की सफाई में मदद भर मिलती है, अगर कोई लेना चाहे तो। अगर कोई न लेना चाहे तो अलग बात है। इसीलिए आजकल कुंडलिनी जागरण जैसे मस्तिष्क झकझोरने वाले अनुभव का ज्यादा प्रचलन व महत्त्व नहीं रह गया है, अगर सच कहूँ तो। वैसे भी आज के व्यस्त, तकनीकी और अध्ययन से भरे युग में दिमाग़ पर पहले से ही बहुत दबाव है। वह और कितना दबाव झेलेगा जागृति के नाम पर। अधिकांश लोगों को एकांत व शांति तो नसीब होना बहुत मुश्किल है। अत्यधिक मस्तिष्क दबाव से कहीं पार्किंसन, अलजाइमर जैसे लाइलाज मस्तिष्क रोग हो गए तो। पर ये मेरे नहीं कुछ अन्य योगियों के विचार हैं। दरअसल ऐसा होता नहीं अगर अपनी सहनशक्ति की सीमा के अंदर रहकर और सही ढंग से ध्यानयोग या कुंडलिनी जागरण किया जाए। ध्यान से हमेशा लाभ ही मिलता है। यह पैराग्राफ कुछ अन्य लोगों के विचारों को परखने के लिए लिख रहा हूँ। सही अर्थों में आजकल तो शांत विपश्यना अर्थात साक्षीभाव साधना का युग है। वैसे विपासना भी एक ध्यान ही है, शांत, सरल, स्वाभाविक व धीमा ध्यान। अगर भैंस खुद ठीक रस्ते पे जा रही है तो उसे डंडे क्यों मारने भाई। कचरा ही साफ करना है न, तो सीधे जाके कर लो, टेढ़ेमेढ़े रास्ते से क्यों भागना। बाहर स्थित विचारों का कचरा कभी कभार अगर दिख भी जाए तो भी वह शुद्ध ही होता है क्योंकि उससे लगाव या क्रेविंग पैदा नहीं होता। यह भी कह सकते हैं कि विपासना से आदमी शांत, तनावमुक्त और हल्का हो जाता है, जिससे खुद ही उसका मन कुंडलिनी ध्यान को करता है। उससे और कुंडलिनी जागरण से विपासना में और मदद मिलती है, बदले में विपासना से कुंडलिनी ध्यान और ज्यादा मजबूती प्राप्त करता है। इस तरह से विपासना और कुंडलिनी ध्यान साधना एकदूसरे को बढ़ाते रहते हैं।
ध्यानयोग या ध्यान यज्ञ ही असली यज्ञ है, और इन्द्रियों का दमन ही पशुबलि है
इन्द्रियों को शास्त्रों में घोड़े या पशु की उपमा दी जाती है। पशुपति अर्थात इन्द्रियों का पति भगवान शिव का ही एक नाम है। जैसे पशु का झुकाव आंतरिक आत्मा की बजाय बाहरी दुनिया की तरफ होता है, उसी तरह बाह्य इन्द्रियों का भी। आदमी की उम्र सौ साल होती है। उसके बाद मृत्यु मतलब स्वर्ग की प्राप्ति। स्वर्ग को जीते जी प्राप्त नहीं किया जा सकता। मुक्ति तो देवराज इंद्र के लिए भी स्वर्ग है। इसीलिए इस परम स्वर्ग की प्राप्ति को इंद्र अपना अपमान मानता है कि कोई कैसे उससे और उसके द्वारा नियंत्रित तीनों लोकों से ऊपर उठ सकता है। हालांकि देवताओं के साथ इंद्र भी आदमी की मुक्ति से बल प्राप्त करता है, पर यह अहंकार जो है न, वह अपना भला-बुरा कब देखने देता है। सौवें घोड़े को पाताल में बाँधने का अर्थ है कि इंद्र ने इन्द्रियों की शक्ति को मूलाधार के अंधकार भरे क्षेत्र में स्थापित कर दिया। शरीर इंद्र के द्वारा संचालित है। शरीर की अतिरिक्त शक्ति कुदरती तौर पर खुद ही मूलाधार को चली जाती है, इसीलिए इंद्र से इसका नाम जोड़ा गया है। इतना तो सबको पता ही है कि नाभि चक्र को चली जाती है, इसीलिए जब कोई काम और तनाव न हो तो बहुत भूख लगती है और खाना भी अच्छे से पचता है। उससे शरीर में और शक्ति बढ़ती है। वह वहाँ से स्वाधिष्ठान चक्र को उतरती है क्योंकि शक्ति की चाल की दिशा ऐसी ही है। वहाँ अगर उससे यौनता से संबंधित काम लिया गया तो वह पीठ से दुबारा ऊपर चढ़कर पूरे शरीर में आनंद के साथ फैल जाती है या बाहर निकल कर बर्बाद हो जाती है। अगर वह काम भी नहीं लिया गया तो वह मूलाधार को उतरकर वहीं पड़ी रहती है। अगर कभी थकान व तनाव देने वाला खूब काम किया जाए तो वह वहाँ से पीठ से होते हुए संबंधित थके हुए अंग तक पहुंच कर उसकी मुरम्मत करती है, नहीं तो वहीं सोई रहती है। मूलाधार में शक्ति का सोया हुआ होना इसलिए भी कहा गया होगा क्योंकि जब हम मन में नींद-नींद का लगातार उच्चारण करते हैं तो शक्ति आगे के चक्रोँ से नीचे जाते हुए महसूस होती है और वापिस ऊपर नहीं चढ़ती। अगर चढ़ती है, तो एकदम से नीचे उतर जाती है। अगर शक्ति को नीचे आने में रुकावट लग रही हो, तो मस्तिष्क से गले तक तो आ ही जाती है। इसके साथ एकदम से शांति और राहत महसूस होती है, और ऐसा लगता है कि मस्तिष्क दाब और रक्तचाप एकदम से कम हुआ। हरेक चक्र में शक्ति काम करती है, पर मूलाधार में आमतौर पर नहीं, क्योंकि वह शक्ति का शयनकक्ष है। वहाँ शक्ति को जगा कर करना पड़ता है। हरेक चक्र के साथ विभिन्न अंग जुड़े हैं। वैसे तो मूलाधार के साथ भी गुदामार्ग जुड़ा है, पर वह स्वाधिष्ठान से भी जुड़ा है। मुझे लगता है कि मूलाधार वाले सभी काम स्वाधिष्ठान चक्र भी कर लेता है। जागृति का स्थान मस्तिष्क है, इसलिए स्वाभाविक है कि शक्ति मस्तिष्क से जितना ज्यादा दूर होगी, वह वहाँ उतनी ही ज्यादा सोई हुई होगी। शास्त्रों में नाभि चक्र को यज्ञ कुंड भी कहा जाता है जहाँ भोजन रूपी आहुति जलती रहती है। इसका यह मतलब नहीं कि बाहरी या भौतिक स्थूल यज्ञ की जरूरत नहीं। दरअसल बाहरी यज्ञ भीतरी कुंडलिनी यज्ञ को प्रेरित भी करता है। समारोह आदि में भौतिक हवन यज्ञ करते हुए मुझे कुंडलिनी की क्रियाशीलता महसूस होती है। हाँ इतना जरूर किया जा सकता है कि भौतिक यज्ञ के नाम पर भौतिक संसाधनों का बेवजह दुरुपयोग न हो।
शक्ति नीचे से ऊपर चढ़ती है, पर अवचेतन मन का निवास मूलाधार और स्वाधिष्ठान पर होने के कारण वह सहस्रार से नीचे जाते हुए दिखाई गई है
मूलाधार में कपिल मुनि का आश्रम मतलब वहाँ मूलाधर चक्र का पवित्र अधिष्ठाता देवता है। उसे अपशब्द कहना मतलब मूलाधार को अपवित्र मानना। सगर का साठ हजार पुत्र उसे ढूंढने भेजना मतलब आदमी द्वारा अपनी खोई हुई शक्ति अर्थात इन्द्रिय शक्ति अर्थात कुंडलिनी शक्ति को प्राप्त करने के लिए हजारों इच्छाओं व भावनाओं को खुले छोड़ देना मतलब संसार में हर तरफ अपना डंका बजाने की कोशिश करना। शास्त्र कहते हैं कि जैसे जंगल में भटकने वाले को जल्दी रत्न मिल जाता है, उसी तरह दुनिया में भटकने वाले को जल्दी ही मूलाधार और उसमें सोई शक्ति मिल जाती है। यह बहुत बड़ी शिक्षा है, जिसके अनुसार दुनिया में भटकते हुए थकने के बाद आदमी बाह्य इन्द्रियों से ऊबकर अवचेतन मन में डूबने लगता है। पर यह तभी होता है अगर आदमी अद्वैत व अनासक्ति के साथ दुनिया में जीवनयापन कर रहा हो, नहीं तो दुनिया के लोग उसका अवचेतन मन में भी पीछा नहीं छोड़ते और उसे वहाँ से भी बाहर खींच लाते हैं और उसे ध्यानसाधना नहीं करने देते। इससे साफ है कि आम आदमी को आध्यात्मिक तरक्की के लिए अद्वैत और अनासक्ति का भाव बना के रखना बहुत ज्यादा जरूरी है। जैसे इस कथा में पाताल समुद्र से नीचे है और समुद्र से होकर ही वहाँ तक रास्ता जाता है, उसी तरह मूलाधार चक्र भी सभी दुनियावी (शास्त्रों में संसार को भी समुद्र कहा गया है) चक्रोँ के नीचे है, और पाताल की तरह ही सुषुप्त लोक जैसा है। तभी तो अवचेतन कह रहे इसको। वहाँ मुनि कपिल को देखना मतलब सांख्ययोग व जैन धर्म के मूल प्रवर्तक को ध्यान रूप में देखना। जैनी मुनि भी दिगंबर अर्थात नग्न अवस्था में रहते हैं। मुनि को अपशब्द कहते हुए उन पर चोरी का इल्जाम लगाना मतलब उनको पता चलना कि इस ध्यान चित्र ने ही शक्ति को नीचे खींच कर अपने पास कैद किया है। किसी चीज का अपमान करके आदमी उससे भरपूर फायदा नहीं उठा सकता।अगर मूलाधार को छि-छि करते रहोगे, तो उस पर कुंडलिनी छवि का ध्यान करके उसे जगाओगे कैसे। उस छवि पर ही अगर ऐसा इल्जाम लगाओगे कि इसने मेरी सारी शक्ति छीन ली है, तो उसे और शक्ति कैसे दोगे। अतिरिक्त या अन्यूजड शक्ति तो उसमें जाएगी ही, अनजाने में और वहाँ सुषुप्त पड़ी रहेगी। वह शक्ति वहाँ तभी अवचेतन मन को उघाड़ पाएगी, यदि उसे ऐसा करने का मौका दोगे और उसके साथ सहयोग करोगे। तभी तो आपने देखा होगा कि सेक्सी किस्म के लोग बहुत गहराई से देखने और सोचने वाले होते हैं। यह इसलिए क्योंकि उनके मन में ज्यादा कचरा नहीं होता। वे अपनी मूलाधार स्थित यौन शक्ति से मन के कचरे को लगातार साफ करते रहते हैं, और दूसरी तरफ साफसुथरे होने का और यौनता से दूरी रखने का दिखावा करने वाले अंदर से अवचेतन मन के कचरे से भरे होते हैं। सेक्सी आदमी स्पष्टवादी और तेज दिमाग लिए होते हैं। उनका ध्यान शरीर के दूसरे क्षेत्रों की बजाय मूलाधार क्षेत्र में ज्यादा टिका होता है। हालांकि चेहरा और मूलाधार आपस में जुड़े होते हैं। मुनि की दृष्टि रूपी क्रोधाग्नि से उन साठ हजार पुत्रों का भस्म होना मतलब मन के सभी विचारों और भावनाओं का मूलाधार में शक्ति के साथ सो जाना। मतलब कुंडलिनी शक्ति अवचेतन मन को साथ लेकर सुषुप्तावस्था में चली गई। सगर वंश में कई पीढ़ियों के बाद भागीरथ नामक एक महापुरुष हुआ जो गंगा को लाने में स्मर्थ हुआ जिसने सभी सगरपुत्रों को जीवित करके मुक्त कर दिया मतलब व्यक्ति कई जन्मों के बाद इस काबिल हुआ कि सुषुम्ना को जागृत करके कुंडलिनी जागरण को प्राप्त कर सका जिससे अवचेतन मन (पाताल लोक समतुल्य) में दबे हुए विचार और भावनाएं आनंद, अद्वैत व आनंद के साथ अभिव्यक्त होते गए और ब्रह्म में विलीन होते गए। भागीरथ ने घोर तपस्या की मतलब कुंडलिनी योग किया। ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर वर दिया मतलब कुंडलिनी सहस्रार में क्रियाशील हो गई। सहस्रार चक्र भी कमल की तरह है और ब्रह्मा भी कमल पर बैठते हैं। कैलाश पर रहने वाले शिव ने गंगा को अपनी जटाओं में धारण किया मतलब सुषुम्ना नाड़ी में बहती हुई चेतना रेखा सहस्रार में समाहित हो जाती है। सहस्रार चक्र बालों से भरे हुए सिर के अंदर ही होता है। कई जगह सहस्रार को कैलाश पर्वत की उपमा दी जाती है। वह गंगा स्वर्ग लोक से आई मतलब सुषुम्ना में बहती हुई शक्ति से सहस्रार चक्र दिव्यता अर्थात दिव्य लोक के साथ जुड़ जाता है जिसे कुंडलिनी जागरण के दौरान का अनुभव कहते हैं। दरअसल अवचेतन मन का स्थान भी मस्तिष्क ही है, पर क्योंकि वह मुलाधार से ऊपर आती सुषुम्ना-शक्ति से जागता है, इसलिए कहा जाता है कि वह मूलाधार चक्र में शक्ति के साथ सुषुप्तावस्था में फंसा हुआ था। इसी तरह अगर अवचेतन मन को ध्यान लगाकर उघाड़ने लगो तो मूलाधार और सुषुम्ना क्रियाशील होने लगते हैं। मतलब ये तीनों आपस में जुड़े हैं। इसीलिए इस मिथकीय कहानी में कहा गया है कि गंगा मतलब सुषुम्ना शक्ति स्वर्ग मतलब जागृति के सर्वव्यापी व सर्वानन्दमयी अनुभव से कैलाश मतलब मस्तिष्क को आई, वहाँ से नीचे हिमालय मतलब रीढ़ की हड्डी से उतरते हुए महासागर अर्थात दुनिया अर्थात विभिन्न चक्रोँ से गुजरते हुए पाताल लोक मतलब मूलाधार चक्र में पहुंची। होता उल्टा है दरअसल, मतलब शक्ति नीचे से ऊपर चढ़ती है। फिर कहते हैं कि भागीरथ गंगा के साथ-साथ चलता रहा, और जहाँ भी उसका मार्ग अवरुद्ध हो रहा था, वहाँ-वहाँ वह उस अवरोध को हटा रहा था। यह ऐसे ही है जैसे आदमी बारीबारी से चक्रोँ पर ध्यान लगाते हुए शक्ति के अवरोधों को दूर करता है। चक्र-ब्लॉक ही वे अवरोधन हैं। तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय भगोड़े इस्लामिक विद्वान और आतंकवाद के आरोपों से घिरे जाकिर नईक जैसे लोगों को यह ब्लॉग जरूर फॉलो करना चाहिए, क्योंकि वह हिंदु शास्त्रों के मिथकीय पक्ष को तो उजागर करके दुष्प्रचार से उन्हें बदनाम करने की कोशिश करते हैं, पर उनके वैज्ञानिक पक्ष से अपरिचित हैं।
कुंडलिनी-ध्यानचित्र का वाममार्गी तांत्रिक यौनयोग में महत्त्व
मित्रो, मैं इस पोस्ट में शिवपुराण में वर्णित राक्षस अंधकासुर, दैत्यगुरु शुक्राचार्य, देवासुर संग्राम और शिव के द्वारा देवताओं की सहायता का रहस्योदघाटन करूंगा।
शिवपुराणोक्त अन्धकासुर कथा
एक बार भगवान शिव पार्वती के साथ काशी से निकलकर कैलाश पहुंचते हैं, और वहाँ भ्रमण करने लगते हैं। एकदिन शिव ध्यान में होते हैं कि तभी देवी पार्वती पीछे से आकर उनके मस्तक पर हाथ रखती हैं, जिससे शिव के माथे की गर्मी से उनकी अंगुली से एक पसीने की बूंद जमीन पर गिर जाती है। उससे एक बालक का जन्म होता है, जो बहुत कुरूप, रोने वाला और अंधा होता है। इसलिए उसका नाम अंधकासुर रखा जाता है। उधर राक्षस हिरण्याक्ष पुत्र न होने से बहुत दुखी रहता है। वह शिव को प्रसन्न करने के लिए घोर तप करता है, और उनसे पुत्र-प्राप्ति का वर मांगता है। शिव अंधक को उसे सौंप देते हैं। वह शिवपुत्र अंधक की प्राप्ति से अति प्रसन्न और उत्साहित होकर स्वर्ग पर चढ़ाई कर देता है, जिससे देवता स्वर्ग से भागकर धरती पर छिप कर रहने लगते हैं। वह धरती को समुद्र में डुबोकर पाताल लोक में छुपा देता है। फिर भगवान विष्णु देवताओं की सहायता करने के लिए वाराह के रूप में अवतार लेकर हिरण्याक्ष को मार देते हैं और धरती को अपने दाँतों पर रखकर पाताल से ऊपर उठाकर पूर्ववत यथास्थान रख देते हैं। उधर बालक अंधक जब अपने भाई प्रह्लाद आदि अन्य राक्षस बालकों के साथ खेल रहा होता है, तो वे उसे यह कह कर चिढ़ाते हैं कि वह अंधा और कुरूप है इसलिए वह अपने पिता हिरण्याक्ष की जगह राजगद्दी नहीं संभाल सकता। इससे अन्धक दुखी होकर भगवान शिव को खुश करने के लिए घोर तप करने लगता है। वह धुएं वाली अग्नि को पीता है, अपने मांस को काटकाट कर हवनकुण्ड में हवन करता है। इससे वह हड्डी का कंकाल मात्र बच जाता है। शिवजी उससे प्रसन्न होकर उसके मांगे वर के अनुसार उसे बिल्कुल स्वस्थ व आँखों वाला कर देते हैं, और कहते हैं कि वह केवल तभी मरेगा जब किसी महान योगी की पतिव्रता स्त्री को अपनी स्त्री बनाने का प्रयास करेगा। वर से खुश और दंभित होकर अन्धक उग्र भोगविलास में डूब जाता है, अनेकों कामिनियों के साथ विभिन्न रतिवर्धक स्थानों में रमण करता है, और अपनी आयु का दुरुपयोग करता है। वह साधुओं और देवताओं पर भी बहुत अत्याचार करता है। वे सब इकट्ठे होकर भगवान शिव के पास जाते हैं। शिव उनकी मदद करने के लिए कैलाश पर पार्वती के साथ विहार करने लगते हैं। एकदिन अन्धक के सेवक की नजर देवी पार्वती पर पड़ती है, और वह यह बात अन्धक को बताता है। अंधक पार्वती पर आसक्त होकर शिव को गंदा तपस्वी, जटाधारी आदि कह कर उनका अपमान करता है और कहता है कि उतनी सुंदर नारी उसी के योग्य है, न कि किसी तपस्वी के। फिर वह सेना के साथ शिव से युद्ध करने चला जाता है। उसे शिव का गण वीरक अकेले ही युद्ध में हरा कर भगा देता है, और उसे शिवगुफा के अंदर प्रविष्ट नहीं होने देता। फिर शिव पाशुपत मंत्र प्राप्त करने के लिए दूर तप करने चले जाते हैं। मौका देखकर अंधक फिर हमला करता है। पार्वती अकेली होती है गुफा में। उसे वीरक भी नहीं रोक पा रहा होता है। डर के मारे पार्वती सभी देवताओं को सहायता के लिए बुलाती है, जो फिर स्त्री रूप में अस्त्रशस्त्र लेकर पहुंच जाते हैं। स्त्री रूप इसलिए क्योंकि देवी के कक्ष में पुरुष रूप में जाना उन्हें अच्छा नहीं लगता। घोर युद्ध होता है। अंधक का सैनिक विघस सूर्य चन्द्रमा आदि देवताओं को निगल जाता है। चारों ओर अंधेरा छा जाता है। हालांकि वे किसी दिव्य मंत्र के जाप से उसके मुंह में घूँसे मारकर बाहर भी निकल आते हैं। तभी शिव भी वहाँ पहुँच जाते हैं। उससे उत्साहित गण राक्षसों को मारने लगते हैं। पर राक्षस गुरु शुक्राचार्य अपनी संजीवनी विद्या से सभी मृत राक्षसों को पुनर्जीवित कर देते हैं। शिव को यह बात शिवगण बता देते हैं कि शुक्राचार्य उनकी दी हुई विद्या का कैसे दुरूपयोग कर रहा है। इससे नाराज होकर शिव उसे पकड़ कर लाने के लिए नंदी बैल को भेजते हैं। नंदी राक्षसों को मारकर उसे पकड़कर ले आता है। शिव शुक्राचार्य को निगल जाते हैं। वह शिव के उदर में बाहर निकलने का छेद न पाकर चारों तरफ ऐसे घूमता है, जैसे वायु के वेग से घूम रहा हो। वह वहाँ से निकलने का वर्षों तक प्रयास करता है, पर निकल नहीं पाता। फिर शिव उसे शुक्र अर्थात वीर्य रूप में अपने लिंग से बाहर निकालते हैं। इसीलिए उनका नाम शुक्राचार्य पड़ा।
दरअसल संजीवनी विद्या उन्हें एक बहुत पुराने समय में शिव ने दी होती है। वह एक बहुत सुंदर स्थान पर शिव का लिंग स्थापित करते हैं। उस पर वे शिव की कठिन अराधना करते हैं। अग्निधूम को पीते हैं, और कठिन तप करते हैं। उससे शिव लिंग से प्रकट होकर उन्हें संजीवनी विद्या देते हैं, और वर देते हैं कि वे भविष्य में उनके उदर में प्रविष्ट होकर उनके वीर्य रूप में जन्म लेंगे। वे लिंग का नाम शुक्रेश और उनके द्वारा स्थापित कुएँ का नाम शुक्रकूप रख देते हैं। वे भक्तों द्वारा उस कूप में स्नान करने का अमित फल बताते हैं।
अंधकासुर कथा का कुंडलिनी-आधारित विश्लेषण
शुक्र मतलब ऊर्जा या तेज। शुक्र, ऊर्जा और तेज तीनों एकदूसरे के पर्याय हैं। शुक्राचार्य को निगल गए, मतलब योगी शिव ने खेचरी मुद्रा में जिह्वा तालु से लगाकर कुंडलिनी ऊर्जा को आगे के नाड़ी चैनल से नीचे उतारा, जिससे वीर्यशक्ति के रूपान्तरण से निर्मित कुंडलिनी ऊर्जा मूलाधार चक्र से पीठ की सुषुम्ना नाड़ी से होते हुए ऊपर चढ़ गई। वायु के वेग से वे इधरउधर भटकने लगे, मतलब साँसों की गति से कुंडलिनी ऊर्जा माइक्रोकोस्मिक औरबिट लूप में गोल-गोल घूमने लगी। शुक्राचार्य को बहुत समय तक घुमाने के बाद योगी शिव ने उन्हें वीर्य मार्ग से बाहर निकाल दिया, मतलब बहुत समय तक शक्ति को चक्रोँ में घुमाते हुए व उससे चक्रोँ पर इष्ट देव या गुरु आदि के रूप में कुंडलिनी चित्र का ध्यान करने के बाद जब वह शक्ति क्षीण होने लगी मतलब शुक्राचार्य शिथिल पड़ने लगे, तब उसे वीर्यरूप में बाहर निकाल दिया। उन्हें योगी शिव ने पुत्र रूप में स्वीकार किया, मतलब कि जिसे ओशो महाराज कहते हैं, ‘संभोग से समाधि’, वह तरीका अपनाया। इस यौनतंत्र में सहस्रार चक्र के समाधि चित्र को स्खलन-संवेदना के ऊपर आरोपित किया जाता है। इससे वही बात हुई जैसी एक पिछली पोस्ट में लिखी गई है कि गंगा नदी के किनारे पर उगी सरकंडे की घास पर शिववीर्य से बालक कार्तिकेय का जन्म हुआ, मतलब शुक्राचार्य ने कार्तिकेय के रूप में शिवपुत्रत्व प्राप्त किया। उपरोक्त कथा के ही अनुसार सबसे प्रसिद्ध, प्रिय व शक्तिशाली लिंग शुक्रलिंग ही माना जाएगा, क्योंकि यह पूरी तरह से असली है, अन्य तो प्रतीतात्मक ज्यादा हैं, जैसे कोई पाषाणलिंग होता है, कोई पारदलिंग, तो कोई हिमलिंग आदि। शुक्रकूप आसपास में एक ठंडे जल का कुआँ है, जो संभोगतंत्र में सहयोगी है, क्योंकि जैसा एक पिछली पोस्ट में दिखाया गया है कि कैसे ठंडे जल से स्नान यौनऊर्जा को गतिशील व कार्यशील बनाने का काम करता है।
शुक्राचार्य जो राक्षसों को जिन्दा कर रहे थे, उसका यही मतलब है कि वीर्यशक्ति बाह्यगामी होने के कारण संसारमार्गी मानसिक दोषों, आसक्तिपूर्ण भावनाओं और विचारों को बढ़ावा दे रही थी। शिव ने नंदी को शुक्राचार्य को पकड़ कर लाने को कहा, इसका मतलब है कि नंदी अद्वैत भाव का परिचायक है क्योंकि वह एक ऐसा शिवगण है जिसमें बैल के रूप में पशु और गण के रूप में मनुष्य एक साथ विद्यमान है। वह एक यिन-यांग मिश्रण है। अद्वैत से कुंडलिनी शक्ति को मूलाधार से ऊपर चढ़ने में मदद मिलती है।
देवी पार्वती ने महादेव शिव की आँखें बंद कीं, इससे वे अंधे जैसे हो गए। इसको यह समझाने के लिए कहा गया है कि कोई भावी योगी अज्ञान वाली अवस्था में था, न तो उसे लौकिक व्यवहार का ज्ञान था, और न ही आध्यात्मिक ज्ञान। फिर वह इश्कविश्क़ के चक्कर में पड़ गया। उससे उसकी शक्ति तो घूमने लगी, पर वह बिना कुंडलिनी चित्र के थी। कुंडलिनी चित्र माने ध्यान चित्र आध्यात्मिक ज्ञान की उच्चावस्था में बनता है। आध्यात्मिक ज्ञान लौकिक ज्ञान व अनुभव के उत्कर्ष से प्राप्त होता है। ऐसा होने में जीवन का लम्बा समय बीत जाता है। ज्ञानविज्ञानरहित प्यार-मोहब्बत से क्या होता है कि आदमी यौन शक्ति को ढंग से रूपान्तरित और निर्देशित नहीं कर सकता, जिससे उसका क्षरण या दुरुपयोग होता है। वही दुरुपयोग अंधक नाम वाला पुत्र है। इसका सीधा सा अर्थ है कि अमुक भावी योगी ने शक्ति को घुमाया तो जरूर। ऐसा उक्त कथानक की इस बात से सिद्ध होता है कि पार्वती ने दोनों नेत्रों को एकसाथ बंद किया, मतलब यिन-यांग संतुलित हो गए। पर परिपक्वता की कमी से इस संतुलन से किंचित चमक रहे कुंडलिनी चित्र को समझ नहीं पाया और उसे जानबूझकर व्यर्थ समझ कर त्याग दिया। चमक बुझने से स्वाभाविक है कि अंधेरा छा गया, जिसे आँखों को बंद करने के रूप में दिखाया गया है। क्योंकि शक्ति से मस्तिष्क में जो उच्च स्पष्टता के साथ छवि बनती है, उसे ही पुत्र कहा जाता है, जैसे कि इस ब्लॉग की एक पोस्ट में सिद्ध भी किया गया था। बिना किसी भौतिक सहवास के असली या भौतिक पुत्र तो पैदा हो ही नहीं सकता, वह भी मिट्टी-पत्थर से भरी जमीन के ऊपर या सरकंडों के ऊपर। क्योंकि इस पोस्ट के भावी योगी के मस्तिष्क में उस शक्ति से अंधेरा ही घनीभूत हुआ, इसलिए उसे पुत्र अंधक के रूप में दिखाया गया। चूंकि अँधेरे से भरा व्यक्ति किसी को प्रिय व कार्यक्षम नहीं लगता, इसलिए इसे ऐसा दिखाया गया है कि वह अंधकासुर सबको अप्रिय था और उसके बालमित्र उसे राजगद्दी के अयोग्य बताकर उसका मजाक उड़ाते थे। स्वाभाविक है कि भावी योगी दुनिया में सम्मान, सुखसमृद्धि और यहाँ तक कि जागृति के रूप में सम्पूर्णता को प्राप्त करने के लिए भरपूर प्रयास करता है, क्योंकि उसमें बहुत शक्ति होती है, केवल स्थिर ध्यानचित्र की ही कमी होती है। उसे दुनिया में ठोकरें खाने के बाद इस कमी का अप्रत्यक्ष अहसास हो ही जाता है, इसलिए वह कुंडलिनी ध्यानयोग के लिए एकांत में चला जाता है। इसे ही ऐसे दिखाया गया है कि अंधक फिर वन में जाकर शिव या ब्रह्मा का ध्यान करते हुए घोर तप करता है। अपने मांस को टुकड़ों में काटकाट कर वह उन्हें अग्नि में होम करता रहता है। साथ में अग्निधूम का पान करता है। इसका मतलब है कि भावी योगी कठिन हठयोग करता है, जिससे उसकी अतिरिक्त चर्बी तो घुलती ही है, साथ में मांसल शरीर भी योगाग्नि से जलकर दुबला हो जाता है। इस दहन से जो कार्बन डायक्साइड गैस निकलती है, उसे ही धुआँ कहा है। क्योंकि योग में अक्सर सांस को अंदर रोक कर रखा जाता है, इसलिए उसे ही धुएं को पीना कहा गया है। जब वह इतना कमजोर हो जाता है कि वह हड्डी का ढांचा जैसा दिखने लगता है, तब भगवान शिव उसे दर्शन दे देते हैं। इसका मतलब है कि जब हठयोगाभ्यास करते हुए काफी समय हो जाता है, जिससे योगी को अपने सहस्रार चक्र में बढ़ी हुई सात्विकता के कारण अपना शरीर अस्थिपंजर की तरह हल्का लगने लगता है, तब कुंडलिनी जागृत हो जाती है। मतलब अदृश्य या सुप्त कुंडलिनी शक्ति मानसिक शिवचित्र के रूप में जागृत हो जाती है। अब शिव अंधक को बिल्कुल स्वस्थ व सुंदर बना देते हैं। ठीक है, कुंडलिनी जागरण से ऐसा ही अकस्मात और सकारात्मक रूपान्तरण होता है। अब वह शिव से वर मांगता है कि वह कभी न मरे। शिव कहते हैं कि ऐसा सम्भव नहीं। विश्व की रक्षा के लिए भी यह जरूरी है। अमरता पाकर तो कोई भी अत्याचारी बनकर दुनिया को तबाह कर सकता है, क्योंकि उसे रोकने व डराने वाला कोई नहीं होगा। इसलिए ब्रह्मा उससे कोई न कोई मौत का कारण चुनने को कहते हैं, बेशक वह असम्भव सा ही क्यों न लगे। इस पर ब्रह्मा कहते हैं कि जब वह माँ के समान आदरणीय महिला को पत्नि बनाना चाहेगा, वह तब मरेगा। अब ये तंत्र की गूढ़ बातें हैं, जिनके यदि रहस्य से पर्दा उठाया जाए, तो आम जनमानस को अजीब लग सकता है। तिब्बतन यौनतंत्र में गुरु की यौनसाथी उनकी अनुमति से उनके शिष्यों को तांत्रिक यौनकला प्रयोगात्मक रूप में सिखाती है। गुरुपत्नि को माँ के समान माना गया है। मतलब कि तांत्रिक यौनयोग सीखने के बाद अंधक अंधी दुनियादारी से उपरत होकर अपनी आत्मा या अपने आप में शांत हो जाएगा, मतलब वह एक प्रकार से मर जाएगा। बाद में हुआ भी वैसा ही, मरने के बाद उसे शिव ने अपना गण बना लिया, मतलब वह मुक्त हो गया। आम मृत्यु के बाद तो कोई मुक्त नहीं होता। इसका एक मतलब यह भी है कि जब विवाह या सम्भोग के अयोग्य सम्मानित नारी से प्यार होता है, तब उसका रूप बारबार मन में आने लगता है, जिससे वह समाधि का रूप ले लेता है, जैसा कि प्रेमयोगी वज्र के साथ भी हुआ था। ब्रह्मा के वर को पाकर अन्धक राजा बन गया, और बहुत अय्याश हो गया। सुंदर व सुडोल शरीर तो उसे मिला ही था, इसलिए वह अनगिनत कामिनियों के साथ विभिन्न मनोहर स्थानों में रमण करते हुए अपना बहुमूल्य समय नष्ट करने लगा। इस यौन शक्ति के बल से वह बहुत पाप भी करने लगा। देवताओं को स्वर्ग से भगा कर वहाँ खुद राज करने लगा। जब कोई बुरे काम करेगा तो शरीर रूपी स्वर्ग में स्थित देवता दुखी होकर भागेंगे ही, क्योंकि देवताओं का मुख्य उद्देश्य है शरीर से अच्छे काम करवाना। अब मैं इससे जुड़ी हाल की घटना बताता हूँ और फिर पोस्ट को खत्म करता हूँ क्योंकि नहीं तो यह बहुत लंबी होकर पढ़ने में मुश्किल हो जाएगी। अगले हफ्ते तक शेष कथा के रहस्य को उजागर करने की कोशिश करूंगा, क्योंकि अभी मैं लगभग इतना ही समझ सका हूँ। हो सकता है कि आप मेरे से पहले उजागर कर दें, यदि ऐसा है तो कमेंट बॉक्स में जरूर लिखना।
आफताब-श्रद्धा से जुड़ा बहुचर्चित लवजिहाद काण्ड
आजकल बहुचर्चित आफताब पूनावाला से संबंधित मर्डर मिस्ट्री उपरोक्त अंधक कथा से बहुत मेल खा रही है। सूत्रों के अनुसार वह मुस्लिम युवक श्रद्धा नामक हिंदु लड़की के साथ लिव इन रिलेशनशिप में था। वह डेटिंग ऐप के माध्यम से अपना घरपरिवार छोड़कर उसके साथ लम्बे अरसे से रह रही थी। कई मकान मालिकों को तो वह उसे अपनी पत्नि तक बता कर साथ रखता था, क्योंकि यहाँ के परिवेश में लिव इन रिलेशनशिप को अच्छा नहीं समझा जाता। चोरी छुपे उसके 20 अन्य हिंदु लड़कियों के साथ भी प्रेमसंबंध थे। श्रद्धा को शायद यह बात पता चली होगी और वह उसे ऐसा करने से रोककर उससे शादी करना चाहती होगी। इसको लेकर झगड़े भी हुए और मारपीट भी। अंततः उसने उसका गला दबाकर हत्या कर दी और बिना अफ़सोस के उसके पेंतीस टुकड़े करके उन्हें फ्रिज में पैक कर दिया। धीरेधीरे करके वह उन्हें निकट के जंगल में फ़ेंकता रहा। छः महीने बाद श्रद्धा के पिता द्वारा लिखी शिकायत के बाद पुलिस उसे पकड़ सकी। यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि आज की तथाकथित आधुनिक महिलाओं को प्रसन्न करने के लिए कैसे आफताब की तरह शातिर, बेईमान, नशेड़ी, धूम्रपानी, मांसभक्षी, हिंसक और धोखेबाज बनना पड़ता है, हालाँकि ऐसे अतिवाद को कोई सभ्य व पढ़ालिखा समाज कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता, जिसमें मानवता का हनन होता हो। दूसरी ध्यान देने योग्य बात यह है कि बहुत से हिन्दुओं द्वारा शिवपुराण का कहीं गलत अर्थ तो नहीं निकला जा रहा, या बिना जानेबूझे कहीं वैसी विकृत सोच अवचेतन मन में तो नहीं बैठी हुई है। पुराण से प्राप्त आम धारणा के अनुसार महादेव शिव बिना कुलपरम्परा वाले एक भूतिया किस्म के आदमी थे, जिनको पति रूप में पाने के लिए पार्वती कई जन्मों तक घरपरिवार को छोड़कर भटकती रही। पति-पत्नि के परस्पर प्रेम को परवान चढ़ाने के लिए कुछ हद तक ऐसा पागलपन ठीक भी है, पर वह भी कुछ जरूरी शर्तों के साथ ही पूरा सफल होता है, और वैसे भी अति तो कहीं भी अच्छी नहीं है, ख़ासकर उस कौम के व्यक्ति के साथ तो बिल्कुल भी संबंध अच्छा नहीं है, जिनके तथाकथित लवजिहाद से जुड़े जालिमपने और जाहिलियत के उदाहरण आए दिन मिलते रहते हैं। सब पता होते हुए भी बारम्बार गलती करना तो ऐसा लगता है कि या तो परिवार में बच्चों को सही व संस्कारपूर्ण शिक्षा नहीं दी जा रही या ऐसी लड़कियों के ऊपर जादूटोना कर दिया गया है, या यह हिन्दुओं के पवित्र और ज्ञानविज्ञान से भरे शास्त्रों और पुराणों को बदनाम करने की एक सोचीसमझी और बहुत बड़ी साजिश चल रही है। कई लोग सख्त कानून की कमी को भी मुख्य वजह बता रहे हैं। कुछ लोग विकृत दूरदर्शन, ऑनलाइन व बॉलीवुड कल्चर को भी बड़ी वजह मानते हैं। कई लोग लिव इन रिलेशनशिप और डेटिंग एप्स को दोष दे रहे हैं। इससे हिंदु पुरुषों को भी शिक्षा लेनी चाहिए और महिलाओं की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की कोशिश करनी चाहिए। जिसके अंदर ध्यान-कुंडलिनी चित्र नहीं है, यदि वह भी यौनतंत्र का अभ्यास करे, तो उसका हाल भी अंधक जैसा हो सकता है, जैसा आपने ऊपर पढ़ा, फिर यदि जिसको यौनतंत्र का कखग भी पता नहीं, यदि वह यौनसंबंधों के मामले में मनमर्जी करे, तो उसका उससे भी कितना बुरा हाल हो सकता है, यह उपरोक्त हाल की घटना से प्रत्यक्ष देखने को मिल रहा है।
प्रेमरोग से बचने का बेजोड़ उपाय
दोस्तों, इस समस्या का हल भी है। सौभाग्य से आज “शरीरविज्ञान दर्शन~एक आधुनिक कुंडलिनी तंत्र(एक योगी की प्रेमकथा)” नामक पुस्तक ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों तरह से उपलब्ध है। यह ईबुक के रूप में भी और प्रिंट पुस्तक के रूप में भी उपलब्ध है। इसमें ऐसा लगता है कि शिवपुराण का विवेचन आधुनिक शैली में किया गया है, जो हर किसी को समझ आ जाए, और उसके बारे में गलतफहमी दूर हो जाए। यह सत्य जीवनी और सत्य घटनाओं पर आधारित है। इसमें आधारभूत यौनयोग पर सामाजिकता के साथ प्रकाश डाला गया है। इस पुस्तक में स्त्री-पुरुष संबंधों का आधारभूत सिद्धांत भी छिपा हुआ है। यदि कोई प्रेमामृत का पान करना चाहता है, तो इस पुस्तक से बढ़िया कोई भी उपाय प्रतीत नहीं होता। इस पुस्तक में प्रेमयोगी वज्र ने अपने अद्वितीय आध्यात्मिक व तांत्रिक अनुभवों के साथ अपनी सम्बन्धित जीवनी पर भी थोड़ा प्रकाश डाला है। इस उपरोक्त “शरीरविज्ञान दर्शन” पुस्तक को एमाजोन डॉट इन पर एक गुणवत्तापूर्ण व निष्पक्षतापूर्ण समीक्षा में पांच सितारा, सर्वश्रेष्ठ, सबके द्वारा अवश्य पढ़ी जाने योग्य व अति उत्तम (एक्सेलेंट} पुस्तक के रूप में समीक्षित किया गया है। गूगल प्ले बुक की समीक्षा में भी इसे फाईव स्टार व शांतिदायक (कूल) आंका गया है। कुछ गुणग्राही पाठक तो यहाँ तक कहते हैं कि अगर इस पुस्तक को पढ़ लिया तो मानो जैसे सबकुछ पढ़ लिया। आशा है कि पुस्तक पाठकों की अपेक्षाओं पर खरा उतरेगी।
कुंडलिनी ही वह औरोबोरस सांप है जो अपने मुंह में अपनी पूँछ दबाकर यब-युम जैसा लूप बनाता है
श अक्षर दिल का अक्षर है~ श्री बीजमंत्र
दोस्तों, जैसा कि पिछली पोस्ट में विषय चल रहा था कि स या श अक्षर इसलिए भी कुंडलिनी प्रभाव को पैदा करता है, क्योंकि नाग की आवाज भी हिसिंग या स जैसी ही होती है। इसी तरह श्री में भी सर्प की सर सर चलने का शब्द भी समाहित है। श व स शब्द से ही श्री शब्द या श्रीं बीजमंत्र बना है, जो देवी का मुख्य बीज मंत्र है। इसमें शं, रं, और ह्रीं तीनों बीजमन्त्रों की सम्मिलित शक्ति होती है। सम्भवतः अंग्रेजी का शी शब्द इसी श्री से बना है। मुझे तो श अक्षर से शक्ति हृदय चक्र को उतरी हुई महसूस होती है। श से ही शंकर और शम्भु शब्द बने हैं। शं का अर्थ ही शांति होता है। पुरुष में भी श अक्षर मुख्य है। मुझे तो श अक्षर भावनाओं का और दिल का अक्षर लगता है। बीजमंत्र का ध्यान करते समय मन के विचारों को रोकना नहीं चाहिए, तभी उनकी शक्ति कुंडलिनी को लगती है। यदि विचारों को बलपूर्वक रोक दिया जाए, तब उनकी शक्ति खत्म हो जाएगी, फिर वो कुंडलिनी को कैसे लग पाएगी।
अंधेरा अल्प अवधि का होता है, जबकि प्रकाश चिर अवधि तक रहता है~ नॉनवेज और ड्रिंक
फिर मैं बता रहा था कि कैसे हिंसक जीव शिकार के समय खूंखार हो जाते हैं। शिकार को मारकर उसे भोजन के तौर पर खाते समय तो शेर आदमखोर भी हो जाता है, जैसा हम बड़े बुजुर्गों से सुना करते थे। दरअसल ननवेज में शक्ति तो होती है पर उसे पचाने के लिए भी बहुत शक्ति लगती है। यह ऐसे ही है जैसे गढ़े हुए पत्थर से बनी इमारत शक्तिशाली या मजबूत तो होती है, पर पत्थर गढ़ने के लिए भी ज्यादा शक्ति लगती है, साथ में गढ़े हुए बड़ेबड़े पत्थरों को इमारत तक ढोने और उन्हें सही जगह पर फिट करने में भी ज्यादा ऊर्जा खर्च होती है। ननवेज आदि का बेवजह उपयोग करने वाले का हाल उस कृपण सेठ की तरह होता है, जो अपना कीमती और दुर्लभ जीवन बेवजह धन सम्पत्ति इकट्ठा करने में बर्बाद कर देता है, पर वह कुछ भी उसके उपयोग में नहीं आती। या कह लो कि यह ऐसे ही है जैसे कोई सिरफिरा व्यक्ति अपना घर बन जाने के बाद भी सारी उमर पत्थर ही गढ़ता रहे। शिकारभोज के समय तेन्दुए की शक्ति पेट को चली जाती है, और मस्तिष्क में शक्ति की कमी से सोचने समझने की शक्ति नहीं रहती, जिससे वह अपने नजदीक हर किसी को उकसावा समझकर उस पर हमला बोल देता है, जवाबी हमले की परवाह किए बगैर। यह अलग बात है कि आदमी का व्यवहार उससे भी गिरा हुआ प्रतीत होता है क्योंकि उसने बिना उकसावे के ही चीते का इतना शिकार किया कि वे देश से विलुप्त ही हो गए, इसीलिए उन्हें पुनः बढ़ावा देने के लिए नामीबिया से आठ चीते विशेष विमान से यहाँ पहुंचा दिए गए हैं। सम्भवतः इसीलिए किसी भोजन करते हुए से मिलने या बात करने से मना किया जाता है। एकबार मैं बचपन में अपनी खाना खाती हुई मुख्याध्यापिका के कक्ष में प्रविष्ट होकर किसी काम के सिलसिले में बात करने लगा। मुझे वे उस समय एक शेरनी की तरह लगीं और मैं एकदम बाहर दौड़ आया। हमेशा के लिए अच्छी सीख भी मिल गई थी। मेरा एक दोस्त था। जिस दिन वह बाजार से ननवेज खाकर या ड्रिंक करके आता था, सीधा बिस्तर में जाकर सो जाता था, और किसीसे भी बात नहीं करता था, अगले दिन तक। सम्भवतः उसे एहसास था कि ऐसे समय में थोड़ी सी कहासुनी से बात बढ़ जाती, क्योंकि मस्तिष्क में शक्ति की कमी से अंधेरा होने से भले-बुरे का भान नहीं रहता। सम्भवतः इस वजह से भी यह धार्मिक मान्यता बनी हो कि ननवेज से मन में अंधेरा छाता है, और पाप लगता है।
रूपान्तरण ही जीव की नियति है जो उसे परम तक ले जाती है~ क्या योग ज़ेलेंस्की और पुतिन की मदद कर सकता है
रूपान्तरण धीरेधीरे होता है। इसे हम ऐसे समझ सकते हैं कि जब दो लोग बहुत वर्षों बाद मिलते हैं, तो आपसी दुश्मनी भूलकर दोस्त बन जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अलगाव के दिनों में उन्होंने बहुत कुछ नया सीख लिया होता है, जिससे पुरानी भावनाएं कमजोर पड़ जाती हैं। यह ऐसे ही है जैसे यदि लिखे हुए ब्लैकबोर्ड पर आप जितना ज्यादा नया लिखेंगे, पुराने लिखे शब्द उतने ही मिटते जाएंगे। रूपान्तरण की यह रप्तार योग से इसलिए बहुत तेज हो जाती है क्योंकि इससे मन का कचरा बहुत जल्दी साफ हो जाता है। योग को आप मन रूपी ब्लैकबोर्ड का डस्टर कह सकते हैं। जैसे डस्टर के प्रयोग से पुराना लेख ज्यादा मिटता है, और नया लेख ज्यादा स्पष्ट हो जाता है, उसी तरह योग के प्रभाव से पुरानी भावनाएँ ज्यादा मिटती हैं, और नई स्वस्थ भावनाएँ ज्यादा स्पष्ट हो जाती हैं। यदि जैलेंस्की और पुतिन अगले जन्म में मिले तो सम्भवतःआपस में दुश्मनी बिल्कुल न रखें, पर यदि एक-दो महीने भी ढंग से योगाभ्यास कर लें, तो सम्भवतः तुरंत ही दुश्मनी भूलकर लड़ना बंद कर दें।
सभी धार्मिक गतिविधियां योग धारणा को बढ़ावा देने के कारण योग की प्राथमिक सीढ़ी की तरह हैं~ जब ध्यान शुरू होता है
जितनी भी धार्मिक गतिविधियां हैं, वे इसी योग धारणा को बनाए रखने के लिए है, जो मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था। इससे स्पष्ट होता है कि सभी धर्म योग विज्ञान के अंतर्गत ही आते हैं। धारणा से ही ध्यान की शुरुआत होती है, और ध्यान से ही समाधि अर्थात कुंडलिनी जागरण की।
धमाके में चेतना का आनंद ढूंढती आधुनिक मानव संस्कृति~ महा विस्फोट (big bang) इतना आध्यात्मिक है
बम का धमाका भी कुंडलिनी जागरण का तुच्छ और पापपूर्ण और अमानवीय विकल्प लगता है मुझे। इसमें वैसी ही प्रकाश, गर्मी, चेतनता और आनंद की अनुभूति होती है, जैसी कुंडलिनी जागरण में, हालांकि उससे बहुत कम और क्षणिक रूप में। समारोह, त्यौहार आदि में चलाए जाने वाले पटाखे इसका अच्छा उदाहरण है। हालांकि यह मानवीय है अगर सीमा में रहे। सम्भवतः इसीलिए कई सिरफिरे चेतना की इसी क्षुद्र झलक की प्राप्ति के लिए युद्धाभ्यास के नाम पर धमाके करने लग जाते हैं। इससे जाहिर होता है कि योग से इस पर लगाम लग सकती है।
गंगास्नान से जो पाप धुलते हैं, वे योग से ही धुलते हैं~ सहस्रार के लिए एक अद्भुत मार्ग
गंगा में स्नान करने से पाप धुलते हैं, ऐसा कहा जाता है। दरअसल ऐसा कुंडलिनी शक्ति के मूलाधार से सहस्रार की तरफ चढ़ने से होता है। कहते हैं कि उन पापों को वहाँ आने वाले ऋषिमुनि ग्रहण कर लेते हैं। इसका मतलब है कि जब मस्तिष्क में शक्ति के पहुंचने से वह बहुत शक्तिशाली हो जाता है, तब उसमें किसी देवता या गुरु का जो चित्र कुंडलिनी चित्र अर्थात ध्यान चित्र के रूप में उभरता है, उसमें उन तपस्वी लोगों का बहुत ज्यादा योगदान होता है। वही कुंडलिनी चित्र पापों को जलाता है, सीधा गंगास्नान नहीं। मतलब कि पापों का नाश गंगास्नान से हो रहे योग से ही होता है। यदि ध्यान चित्र नहीं बनेगा, तब मस्तिष्क की बेकाबू शक्ति अमानवीय कामों या लड़ाईझगड़े की तरफ भी जा सकती है। पुतिन बर्फीले पानी में आराम से नहा लेते हैं, पर कुंडलिनी जागरण के लिए नहीं, लड़ने के लिए। इसलिए योग के साथ ध्यान भी जरूरी है। मैं यह भी बता रहा था कि यदि कमजोरी या ठंड महसूस होए तो ठंडे पानी से नहीं नहाना चाहिए। इसी तरह यदि समय की कमी हो तो भी ठंडे पानी से नहीं नहाना चाहिए। कम से कम आधा घंटा तो चाहिए ही शीतजल स्नान के लिए। नहाते समय बीचबीच में मांसपेशियों की सिकुड़न के साथ कुंडलिनी शक्ति को घुमाते रहना पड़ता है, ताकि उससे गर्मी पैदा होती रहे और ठंड का असर कम होए। स्नान के एकदम बाद योग व व्यायाम कर लेना चाहिए ताकि जल्दी से जल्दी शरीर को पर्याप्त गर्मी मिल सके। शाम के समय अतिरिक्त समय भी ज्यादा होता है, और दिनभर की क्रियाशीलता से गर्मी भी चढ़ी होती है, इसलिए शाम को नहाया जा सकता है।
दिल दा मामला है~ इसे बहुत ठंड से बचाएं
सबसे ज्यादा ठंड का प्रभाव दिल पर पड़ता है। इसलिए दिल पर विशेष रूप से कुंडलिनी चित्र का ध्यान करते रहो, ताकि पूरे शरीर की शक्ति वहाँ विशेष रूप से केंद्रित होती रहे। इससे हृदय क्षेत्र की मांसपेशियों में सिकुड़न होगी जिससे वहाँ गर्मी बढ़ेगी और रक्तसंचार बढ़ेगा। साथ में शक्ति को घुमाते भी रहें माइक्रोकोस्मिक औरबिट में। वैसे भी दिल शरीर के बीच में ही प्रतीत होता है, अगर सभी चक्रोँ को लेकर चलें तो। नाभि चक्र तो तब शरीर के केंद्र में महसूस होता है, जैसा कि कहा भी जाता है, यदि टांगों को भी चक्रोँ के साथ जोड़ा जाए। दिल से ही शक्ति को शक्ति मिलती है, और शक्ति ही दिल को भी शक्ति देती है। हिसाब बराबर। इसीलिए दिल केंद्र में है। जब शीर्ष चक्र को शक्ति चढ़ने से दिल कुछ थक सा जाता है, तब उस शक्ति का कुछ हिस्सा दिल की ओर वापिस मुड़कर उसे भी शक्ति देता है।इससे जुड़ा मैं दो तीन साल पुराना एक वाकया सुनाता हूँ। एकबार मैं किसी समारोह दावत आदि से घर आ रहा था। ठंड का मौसम था। दावतकक्ष में तो गर्मी के सारे इंतजाम थे, जिससे मेरी स्किन की रक्तवाहिनियाँ खुली हुई थीं। पर रात को एक जंगली घाटी से गुजरते हुए मोटरसाइकल पर मुझे बहुत ठंड लगी। ठंड का मौसम शुरु ही हुआ था इसलिए मैंने गर्म कपड़े भी नहीं पहने थे। चलती बाईक पर तो ठंडी हवा के थपेड़े ज्यादा ही लगते हैं। आसपास घर भी नहीं थे जहाँ रुक जाता। जानवरों से भरा हुआ रात का डरावना जंगल ही था चारों तरफ। तभी मुझे दिल में अजीब सी धड़कनेँ महसूस हुईं। ऐसा लगा जैसे मेरी छाती का दौड़ता हुआ घोड़ा कभी छलांगें लगा रहा है, और कभी रुक रहा है। कुदरती चेष्टा से मैंने बाइक रोकी और मैं घुटनों को बाजुओं से घेरकर बैठ गया ताकि हृदय को गर्मी और राहत मिल सके। फिर दिल सामान्य हो गया। जैसे ही मैं उठने लगा, वैसे ही मेरा दिल फिर वैसे ही नखरे करने लगा। मैं फिर से दिल को ढक कर बैठ गया। मैंने उसी हालत मैं जेब से फोन निकाला और एक दोस्त को कार लेकर आने को कहा। वो खुद ही मुझे सहारा देकर कार के अंदर ले गए। उन्होंने मेरी बाइक खुद ही सही जगह पर लगा दी क्योंकि मैं कुछ नहीं कर पा रहा था। जैसे ही मैं जरा सा भी अपने को खुला छोड़कर ठंडी हवा के सम्पर्क में आता था वैसे ही दिल वैसी ही हरकत शुरु कर देता था। मैंने अपने आपको ऐसे पैक किया हुआ था कि कम से कम हवा के सम्पर्क में आऊं। उन्होंने कार का हीटर चलाया जिससे मैं एकदम सामान्य हो गया। फिर वो कहने लगे कि डॉक्टर को दिखा लो, चेकअप करा लो आदि। मैंने कहा वह घटना बिमारी से नही, ठंड से थी, इसलिए अल्पकालिक थी, क्योंकि मैं फिर अपने को पहले से भी ज्यादा स्वस्थ महसूस कर रहा था। ठंड के मौसम में लेट नाइट दावतों से बचना चाहिए। उनमें ड्रिंक का प्रयोग तो बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। इससे चमड़ी की रक्तवाहिनियाँ और ज्यादा खुल जाती हैं। इससे दो नुकसान होते हैं। एक तो आदमी को बाहर की ठंड का अहसास ही नहीं होता, क्योंकि चमड़ी में झूठी गर्मी बनी रहती है। दूसरा, इससे शरीर की बहुत सारी गर्मी बाहर निकल जाती है। मेरे मामा के एक प्रोढ़ उम्र के चचेरे भाई को ड्रिंक करने की आदत थी। वे सर्दियों के मौसम में एक सुनसान जैसे रास्ते पर मृत मिले। दरअसल वे ड्रिंक करके देर रात की ठंड में अकेले रास्ते से गुजर रहे थे। वहाँ ठंड लगने से वे गिर पड़े होंगे। नशे की हालत में अपने को गर्मी देने के उनके सारे प्रयास विफल रहे होंगे। देर रात होने की वजह से उन्हें किसी की सहायता भी नहीं मिली होगी।
योग-साँसों से वीर्यशक्ति ऊपर चढ़ती है~ नासिकाग्र (nose tip) टिप ध्यान का आसान तरीका
गहरे और धीमे सांस योगविधि से पेट से लेने से और नाक से आतीजाती हवा पर ध्यान देने से जो योगलाभ मिलता है, वह दरअसल वीर्य शक्ति के मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्रोँ से ऊपर चढ़ने से ही मिलता है। इसमें सांसों का कोई प्रत्यक्ष योगदान नहीं लगता मुझे। कोई ऑक्सीजन वगैरह का रोल भी नहीं लगता ज्यादा। सम्भोगयोग के समय भी अधिकांशतः इन्हीं सांसों के बल पर ही वीर्यशक्ति के आधोगमन को रोकते हुए उसे ऊपर चढ़ाया जाता है। नाकों से आतीजाती सांसों पर ध्यान देने से नाक या नासिका शिखा पर खुद ही ध्यान चला जाता है, जो शरीर के ठीक बीचोंबीच है। इससे बीच वाली नाड़ी सुषुम्ना के क्रियाशील होने से वीर्यशक्ति के रूपान्तरण से बनने वाली प्राणशक्ति शरीर के बीचोंबीच चारों तरफ ज्यादा अच्छे से घूमने लगती है।
शक्ति को प्रेरित करने वाला चेतन आत्मा ही है और हम सभी औरोबोरस सांप जैसे हैं~ कुंडलिनी शक्ति मूलाधार में क्यों रहती है
योग का जो जलंधर बंध होता है, वह इसलिए लगाया जाता है ताकि मस्तिष्क तक चढ़ी हुई कुंडलिनी शक्ति आगे के चैनल से नीचे उतर सके और इस तरह एक बंद लूप में गोलगोल घूमती हुई सभी चक्रोँ को एकसाथ शक्ति देती रह सके। ठंडे पानी से नहाते समय सिर खुद ही आगे को नीचे झुक जाता है। इससे स्वाधिष्ठान चक्र का दबाव भी कम हो जाता है। यह ऐसे ही है जैसे एक विशालकाय और अनेक फनों वाला नाग अपनी दुखती पूँछ को मुंह से पकड़ने के लिए आगे को झुक जाता है और उसे अपने केंद्रीय फन से पकड़ने का प्रयास करता है। मिस्र और यूनान का Ouroboros अर्थात औरोबोरस सांप भी इसीको दर्शाता है। लगता तो है कि पुराने समय में गंगास्नान करते हुए जब आध्यात्मिक लोगों को इन स्वयं होने वाली शरीरवैज्ञानिक प्रक्रियायों का बोध हुआ, तो उन्होंने इनके आधार पर कृत्रिम हठयोग का निर्माण कर दिया होगा। वैसे भी शक्ति को मूलाधार में स्थित बताया जाता है। उस शक्ति को दिमाग तक पहुंचाना होता है, क्योंकि मस्तिष्क ही पूरे शरीर और मन का मुखिया है। अगर मस्तिष्क में शक्ति है, तो पूरे तनमन में खुद ही शक्ति रहेगी। औरोबोरस की पूंछ उसके मुंह में होने का मतलब है कि योगी तांत्रिक कुंडलिनी योग से शक्ति को मुलाधार से मस्तिष्क तक पहुंचा रहा है। पर ऐसा भी नहीं है कि मूलाधार के इलावा कहीं शक्ति नहीं है। अगर ऐसा होता तो नपुंसक या बच्चे बिल्कुल शक्तिहीन होते। पर ऐसा नहीं है। सामान्य शक्ति तो उनमें भी होती है। इसका सीधा सा मतलब है कि मूलाधार में अतिरिक्त शक्ति होती है, जो मस्तिष्क को प्राप्त हो सकती है। वही अतिरिक्त शक्ति कुंडलिनी के लिए बहुत जरूरी होती है, क्योंकि सामान्य शक्ति से वह ढंग से क्रियाशील नहीं हो पाती, जागरण तो दूर की बात है। सम्भवतः कुंडलिनी शक्ति को ही मुलाधार में रहने वाली बताया गया है, सामान्य शक्ति को नहीं। हालांकि अपवाद तो हर जगह है। मूलाधार शक्ति के बिना भी कुंडलिनी जागृत हो सकती है, बेशक विरले मामलों में ही।
यब-युम जैसा यौनक्रीड़ामय आसन ही औरोबोरस सांप है~ सूक्ष्म ब्रह्मांडीय कक्षा (microcosmic orbit) का सबसे आसान तरीका
इसमें वैसे ज्यादा विस्तार से जाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इस पैराग्राफ की हैडिंग से ही बात स्पष्ट है। फिर भी इससे जुड़ा वैज्ञानिक सिद्धांत तो डिस्कस कर ही सकते हैं। क्योंकि सांप की पूँछ पूरा झुकने पर भी काफी नीचे रह जाती है, जिससे वह उसे अपने मुंह में नहीं ले सकता, इसलिए वह सर्वोपयुक्त चीज को अपनी पूँछ से जोड़कर उसे इतना लम्बा करता है, ताकि वह उसके मुंह तक आसानी से पहुंच सके। इससे सांप का ऊर्जा चक्र पूर्ण हो जाता है, जिससे वह आनंद के साथ अतिरिक्त शक्ति प्राप्त करता है। उस रूपकात्मक नर सांप की पूँछ में जोड़ने के लिए सर्वोत्तम चीज क्या हो सकती है, यह सबको ही पता है। मादा सांप के जुड़ने से यिन-यांग भी आपस में जुड़ जाते हैं, इससे अद्वैत और कुंडलिनी अभिव्यक्त होने से और अतिरिक्त आनंद प्राप्त होता है, और आध्यात्मिक विकास भी होता है, जिसका चरम कुंडलिनी जागरण है। हैरतङ्गेज सृष्टि रचने वाले से बढ़कर बुद्धिमान भला कौन हो सकता है। इसका अनुभव के अतिरिक्त एक और प्रमाण है, कई जगह इस सांप को यिन-यांग के रूप में दिखाना। इसके लिए सांप का ऊपर वाला हिस्सा काले और नीचे वाला आधा हिस्सा सफेद रंग का दिखाया जाता है। इससे तो काफी स्पष्ट हो जाता है कि यब-युम को ही ओरोबोरस सांप के रूप में दिखाया गया है, क्योंकि इसी आसन में काला रंग मतलब यिन मतलब स्त्री भाग ऊपर होता है, और श्वेत रंग मतलब यांग मतलब पुरुष भाग निचली साइड होता है। कुछ सांप हकीकत में विरले मामले में अपनी पूँछ को खाते हैं, खासकर तब जब वे बाहरी वातावरण की बहुत ज्यादा गर्मी से और भूख से परेशान होते हैं। हो सकता है कि वे किसी कुशल तांत्रिक की तरह ही मूलाधार से ऊर्जा लेते हों, और उसे गोलगोल घुमाते हों, ताकि शरीर की ऊर्जा की कमी को पूरा कर के स्थिर हो सकें। पर दिमाग़ की कमी से वे मजबूरन पूँछ को निगल ही जाते हैं, और आगे बढ़ते हुए खुद को भी। सम्भवतः सर्प की यह ऊर्जा-ट्रिक भी विभिन्न धर्मों में उसका महत्त्व बनाने में जिम्मेदार हो।
अध्यात्मवैज्ञानिक खोजों और अविष्कारों का युग शुरु हो गया है~ यौन उपकरण ज्यादा बन रहे हैं
लगता है कि अति आदर्शवादी मध्ययुग और आधुनिक युग में उपरोक्त यब-युम जोड़े से यब भाग गायब सा हो गया, और युम ही बचा रहा। उसकी जगह पर साधारण कुंडलिनी योग का प्रचलन बढ़ा, जिसमें यब की कमी को कुंडलिनी को आगे के चक्रोँ से नीचे उतार कर किया गया। हालांकि यब के साथ भी कुंडलिनी ऐसे ही उतरती थी, यद्यपि यब से इस प्रक्रिया को बहुत बल मिलता था, और जीवंतता मिलती थी। आदर्शवादी योग में यम के अंदर ही यब को कल्पित कर दिया गया। एक ही व्यक्ति में यब को यम के साथ स्थायी तौर पर जोड़ दिया गया, असरदारी की कीमत पर। फिर यब-युम गठजोड़ का असर बढ़ाने वाले अन्य बहुत से कृत्रिम उपायों का सहारा लिया गया हो, जैसे कि दोनों हाथों को एकसाथ जोड़कर नमस्कार मुद्रा बनाना, ऊर्धव-त्रिपुण्ड लगाना, जनेऊ धारण करना आदि। हो सकता है कि वैज्ञानिक इस पोस्ट को पढ़कर इस कमी का फायदा उठाकर यब अर्थात यिन की कृत्रिम डम्मी बना कर बाजार में पेश कर दे। विज्ञान आज व्यवसाय से जुड़ा है, और पैसा कमाने का कोई भी तरीका नहीं छोड़ना चाहता। आज अधिकांश भौतिक खोजें हो चुकी हैं। अधिकांश वैज्ञानिकों के पास अतिरिक्त समय है। वे भौतिक खोजों से ऊब भी चुके हैं, विशेषकर इनके पर्यावरणीय दुष्प्रभावों से तंग आकर। इसीलिए आज अध्यात्मवैज्ञानिक खोजें बहुत हो रही हैं। कोई कुंडलिनी को घुमाने वाली मशीन बना रहा है, तो कोई मूलाधार की संवेदना बढ़ाने वाले विशेष और यौन प्रकार के यंत्र या औजार बना रहा है।
हरेक व्यक्ति के अंदर पुरुष और स्त्री दोनों भाग समाहित हैं~ चार बराबर हिस्सों से एक पूरा शरीर बनता है
दरअसल हम सब यब-युम जोड़े के रूप में ही हैं, पर उसे भूल चुके हैं। उसे याद दिलाने के लिए ही पुरुष और स्त्री की अलगअलग रचना हुई है। पुरुष स्त्री का आलिंगन करना चाहता है, अपने शरीर के यब हिस्से को जगाने के लिए। उसके शरीर का केवल युम हिस्सा ही क्रियाशील होता है। हमारे शरीर का पीठ वाला भाग युम है। वह युम या पुरुष भाग वज्र नाड़ी से शुरु होकर, सुषुम्ना के रूप में मेरुदण्ड से होता हुआ सहस्रार चक्र पर समाप्त होता है। यब या स्त्री भाग भी वज्र नाड़ी को घेरने वाली लिंग संरचना से शुरु होकर शरीर के आगे के चक्रोँ से ऊपर होता हुआ सहसरार चक्र पर खत्म होता है। पुरुष और स्त्री भाग वज्र शिखा पर, जिसे प्रकारान्तर से मूलाधार चक्र भी कह सकते हैं, और सहस्रार चक्र पर पूरी तरह से आपस में जुड़े होते हैं, यह मान के चल सकते हैं। बाकि चक्रोँ पर भी ये आपस में जुड़ने की कोशिश करते हैं। चित्रों में भी ऐसा ही दिखाया जाता है। वहाँ आगे और पीछे के चक्र आपस में एक रेखा से जुड़े दिखाए जाते हैं। चित्रों में तो शरीर के बाएं और दाएं भाग में इड़ा और पिंगला दिखाए जाते हैं। ये भी सही है। इड़ा यब है, और पिंगला युम है। सुषुम्ना मेरुदण्ड के बीच में है। पर सम्भोग योग से तो शक्ति सीधी ही सुषुम्ना से होते हुए सहस्रार में ली जाती है। मेरे को लगता है कि इड़ा और पिंगला वाले टोटके तो साधारण किस्म के योगों में होते हैं। तांत्रिक सम्भोग योग तो शोर्टेस्ट रूट है, क्योंकि इसमें इड़ा और पिंगला आती ही नहीं, शक्ति सीधी सहस्रार में पहुंच जाती है। कमजोरी की अवस्था में कई बार इड़ा और पिंगला की वजह से व्यवधान आ तो सकता है, पर वह हल्का होता है, और आसानी से काबू में आ जाता है। इसीलिए तो सम्भोग के प्रति दुनिया में सबसे ज्यादा आकर्षण दिखाई देता है। पर आम आदमी इसकी अध्यात्मवैज्ञानिकता को समझ नहीं पाता। वह इसीमें उलझा रहकर अपना जीवन समाप्त कर लेता है। पर योगी इससे योग-लाभ उठाकर अपने शरीर में ही यब-युम को पूरी तरह से अभिव्यक्त करके उभयलिंगी अर्थात अर्धनारीश्वर बन जाते हैं, और पृथक स्त्री अर्थात यब के आकर्षण के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। इसका यह मतलब नहीं कि वे फिर सम्भोग योग नहीं करते। वे करते हैं, पर उन्हें इसकी कम जरूरत पड़ती है। उससे वे अपने स्वसम्भोग योग अर्थात एकलिंगी सम्भोग योग को बल देते रहते हैं। कई तो इतने अभ्यस्त, कार्यकुशल और निपुण हो जाते हैं कि वे कभी भी मूलाधार स्थित वीर्यशक्ति को नहीं गिराते, और हमेशा उसे ऊपर चढ़ाकर अपने शरीर में आत्मसात कर लेते हैं। उपरोक्त चर्चा से यह बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि जैसे शरीर का बायां और दायां भाग यब और युम है, उसी तरह से शरीर का आगे और पीछे का भाग भी यब और युम ही है। मतलब कि पूरा शरीर चारों तरफ से दो विपरीत टुकड़ों को जोड़कर बना है। सम्भवतः त्रिआयामी स्वस्तिक चिह्न का यही मतलब हो। सम्भवतः शक्ति को स्त्री के रूप में इसीलिए दिखाया जाता है, क्योंकि शरीर का आगे का भाग जो स्त्रीरूप है, वही आकर्षक है, और उसीकी शक्ति इकट्ठी होकर और नीचे जाकर मूलाधार क्षेत्र में स्थित हो जाती है, जहाँ से वह पीठ से होते हुए ऊपर चढ़ने का प्रयास करती है।
शीतजल स्नान से यबयुम जनित कुंडलिनी लाभ कैसे मिलता है~ मांस शरीर तंत्रिका शरीर पर मढ़ा हुआ
जब पूरे शरीर पर ठंडा जल गिरता है, तो उसकी संवेदना नाड़ियों के द्वारा ग्रहण कर ली जाती है, क्योंकि पूरे शरीर में नाड़ियों का जाल है। इससे नरम बाहरी शरीर और सख्त आंतरिक शरीर आपस में जुड़ जाते हैं, मतलब यब और युम एक हो जाते हैं। इससे अद्वैत भाव और उससे कुंडलिनी शक्ति क्रियाशील हो जाती है, कुंडलिनी चित्र के साथ। प्रत्येक संवेदना समान प्रभाव डालती है, इसलिए किसी भी दर्द की अनुभूति के बाद अद्वैत के साथ आनंद की अनुभूति होती है।
प्रकृति स्त्री-रूप है और आत्मा पुरुष-रूप है~ दो महत्वपूर्ण कोष या शरीर
नाड़ी संरचना पुरुष है और उस पर मृदु व सुंदर पेशीय संरचना नारी है। बेसिक नर्वस स्ट्रक्चर सेंसिटिव लाइफ पाने के लिए सॉफ्ट बाहरी स्ट्रक्चर को आकर्षित करता है। अंत में, आत्मा ही पुरुष है क्योंकि यही तंत्रिका तंत्र की सभी संवेदनाओं का आनंद लेती है। सारा दृश्यमय जगत स्त्री या प्रकृति रूप है, क्योंकि यह पुरुष को संवेदना प्रदान करता है। सांख्य दर्शन में भी ऐसा ही कहा गया है। इसमें प्रकृति को भोग्या और पुरुष को भोक्ता कहा गया है। क्यों न इन दो मुख्य आवरणों को ही दो मुख्य कोष न मान लें, जटिल पांच कोशों के विपरीत।
हिंदू स्वस्तिक चिह्न का अध्यात्मवैज्ञानिक रहस्य~ स्वस्तिक का केंद्रीय बिंदु एक पूर्ण और संतुलित इंसान का प्रतिनिधित्व करता है
त्रिआयामी स्वस्तिक चिह्न में आगे की तरफ की छोटी डंडी यम है, और पीछे की तरफ की छोटी डंडी यब है। दोनों डंडियां सीधी खड़ी लम्बी डंडी से जुड़ी हैं, मतलब यब और युम एक होकर बढ़ी हुई जागृति का निर्माण कर रहे हैं। इसी तरह दो छोटी डांडियां शरीर के बाएं भाग के यब और शरीर के दाएं भाग के युम को दर्शाती हैं, क्योंकि वे दोनों इसी दिशा में थोड़ी लम्बी व तिरछी डंडी से आपस में जुड़ी हैं। यह भी बढ़ी हुई जागृति दिखाती है। फिर खड़ी और तिरछी दोनों लम्बी डंडीयां केंद्र में एक बिंदु पर आपस में जुड़ी हैं। इसको दोनों तरफ के यब-युम जोड़ों की बराबर शक्ति मिल रही है, इसलिए यह बिंदु सबसे शक्तिशाली है। इसका मतलब है कि अपने शरीर के अंदर के दाएं-बाएं भाग के यब-युम को संतुलित करने के साथ ही स्त्री-पुरुष जोड़े वाला अर्थात शरीर के आगे-पीछे के भागों वाला यब-युम भी संतुलित होना चाहिए। और दोनों किस्म के यब-युम जोड़े भी आपस में संतुलित होने चाहिए। यह अलग बात है कि क्या कोई अपने शरीर के अंदर ही स्त्री-पुरुष जोड़ा ढूंढ लेता है, तो कोई बाहर से किसी यौन साथी की सहायता लेता है।
पुरुष के लिए स्त्री स्त्री है और स्त्री के लिए पुरुष स्त्री है~ यौन भेदभाव भ्रमपूर्ण और सापेक्ष है, सत्य और निरपेक्ष नहीं है
दरअसल स्त्री का अस्तित्व ही नहीं है। हर जगह पुरुष ही पुरुष है। स्त्री हमें भ्रम से दिखाई देती है। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि सम्भोग योग के समय स्त्री भी अपनी रज शक्ति को इसी तरह अपनी पीठ से ऊपर खींचती है जिस तरह पुरुष वीर्य शक्ति को अपनी पीठ से ऊपर खींचता है। मेरुदण्ड ही दरअसल पुरुष है, जो पुरुष और स्त्री में एकसमान है। इसी तरह आत्मा ही पुरुष है जो दोनों में एकसमान है। इसी तरह शरीर का अगला हिस्सा ही स्त्री है, और वह भी दोनों में एकसमान है। जो स्त्री सम्भोग योग के लिए पहल करती है, वह पुरुष की तरह लगती है। ऐसा इसलिए क्योंकि वह यौन योग से अपनी मूलाधारनिवासिनी शक्ति को ऊपर खींचना चाहती है। जो पुरुष सम्भोग योग से शर्माए, वह स्त्री की तरह प्रतीत होता है। वह इसलिए क्योंकि वह इसलिए सम्भोग योग से दूर भाग रहा है, क्योंकि वह शक्ति को ऊपर नहीं खींच पाएगा, और उसे नीचे की ओर गिरा देगा, शरीर के स्त्रीरूप अगले भाग की तरह। इसलिए स्त्री को स्त्रीरूप समझना मुझे ऐतिहासिक साजिश लगती है, जिसके अनुसार स्त्री अपनी शक्ति गिराती रहे, और पुरुष अपनी शक्ति उठाता रहे। पर तंत्र में ऐसा नहीं है। तंत्र में अपनी शक्ति उठाने का दोनों को समान अधिकार है। इसीलिए तंत्र में स्त्री पुरुष दोनों बराबर हैं। हालांकि यह अलग मामला है कि पुरुष को यौन शक्ति के संरक्षण की ज्यादा आवश्यकता है, क्योंकि तुलनात्मक रूप में उससे स्त्री साथी से कहीं ज्यादा शक्ति की बर्बादी होती है।
स्त्रीपुरुष का जोड़ा जितना बराबर उतना अच्छा, हालांकि बेमेल जोड़ यिन-यांग गठबंधन को बढ़ावा देते हैं
मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि एकसमान कद-काठी होने से पूरे शरीर में व्याप्त यिन और यांग आपस में ज्यादा अच्छे से घुलमिल जाते हैं, जिससे ज्यादा अच्छा अद्वैत भाव पैदा होता है। इससे ज्यादा कुंडलिनी लाभ मिलता है। वैसे तो पुरुष और स्त्री दोनों अपने एक ही शरीर में होते हैं, पर उसे पाने के लिए बाहर से मदद लेनी ही पड़ती है। देखा जाए तो यौन शक्ति के आध्यात्मिक रूपान्तरण के लिए दो-चार इंच का क्षेत्र ही काफी होता है, पर यिन-यांग के गठजोड़ के लिए तो भरापूरा और विपरीतता के साथ मिलताजुलता शरीर चाहिए होता है। इससे अतिरिक्त लाभ मिलता है। लगता है कि पुराने जमाने में इसपर ज्यादा गौर नहीं किया जाता था, इसीलिए विवाह से पहले शरीर मिलाने की बजाय नवग्रह-जन्मपत्री मिलाई जाती थी। पता नहीं इसमें क्या विज्ञान है कि प्रत्यक्ष को नजरन्दाज करके अनुमान पर भरोसा किया जाए। सम्भवतः यह नियम सामाजिक समरसता बनाए रखने के लिए भी था, ताकि सभी मर्द चंद खूबसूरत औरतों पर ही न टूट पड़ते, और कुरूप औरतें अविवाहित ही न रह जातीं या उन्हें निम्न दर्जे के मर्द से ही संतुष्ट न होना पड़ता। दरअसल व्यवहार में होता क्या है कि यदि यिन-यांग अच्छे से मैच हो जाए, तो कदकाठी मैच नहीं करते, और यदि कदकाठी अच्छे से मैच हो जाए, तो यिनयांग अच्छे से मैच नहीं होते। इसलिए समझौता करना पड़ता है। यदि दोनों गुण सर्वोत्तम रीति से मैच हो जाए, तो सर्वोत्तम जोड़ी मानी जाए। मेरे साथ भी ऐसा ही होता था। यिनयांग बहुत जबरदस्त ढंग से मैच होता था, पर कदकाठी जरा भी मैच नहीं होते थे। अंततः जन्मपत्री के ऊपर ही सभी कुछ छोड़ना पड़ा। इससे सब ठीक ही रहा। बोलने का मतलब है कि यदि प्रत्यक्ष से काम न बने, तभी पूरी तरह से अदृश्य के सहारे होना चाहिए। वैसे कुल मिलाकर यह निष्कर्ष भी निकलता है कि छोटी कद-काठी यिन है, और बड़ी कद-काठी यांग होता है। इसलिए लम्बू-छोटू जोड़ी बनना भी स्वाभाविक और योगानुसार ही है।
चाइनीज यिन सुस्त और यांग चुस्त है, जबकि तांत्रिक यिन चुस्त और यांग सुस्त है~ दो प्रकार के यौन तंत्र
इसका मतलब है कि चाइनीज सिस्टम में विषमवाही तंत्र को ज्यादा मान्यता है, जबकि भारतीय तंत्र में समवाही तंत्र को। विषमवाही तंत्र मतलब औरत को एक तांत्रिक मशीन समझा जाता है। उसकी इससे ज्यादा अपनी कोई अहमियत नहीं। इसलिए वह सुस्त और दबी हुई सी रहती है। उसकी सहायता से प्रकाश अर्थात कुंडलिनी को घुमाया जाता है। उस कुंडलिनी के रूप में कोई भी मानसिक चित्र हो सकता है, पर वह स्त्री नहीं। इसके विपरीत समवाही तंत्र में स्त्री को कुंडलिनी अर्थात देवी का रूप दिया जाता है। इससे वह अपनी मनमोहक छटाएं प्रदर्शित करती है। इससे स्त्री को भरपूर सम्मान मिलता है। उसे पुरुष के बराबर या उससे भी बढ़कर माना जाता है। आपने देखा होगा कि कैसे भगवान विष्णु देवी लक्ष्मी की, भगवान शिव देवी पार्वती की और भगवान ब्रह्मा देवी सरस्वती की सेवा में लगे रहते हैं। बाकि अपवाद तो हर सिस्टम में ही देखे जाते हैं।
क्या हम स्वाधिष्ठान चक्र के जागरण को बिमारी तो नहीं मान रहे? प्रोस्टेट संभोग शिश्न संभोग से बेहतर है
यहाँ पर बेनाइन प्रॉस्टेट हाइपरट्रॉफी मतलब बीएचपी या प्रॉस्टेट की जलन अर्थात इन्फलेमेशन का जिक्र हो रहा है। परमात्मा शिव ने पूर्वोक्त कार्तिकेय जन्म की कथा में कबूतर बने अग्निदेव को कहा था कि तेरी जलन ठंडे जल से स्नान करने वाली ऋषिपत्नियां हर लेंगी। उस जलन को ही विज्ञान की भाषा में प्रॉस्टेट इंफ्लेमेशन अर्थात प्रॉस्टेटाइटिस या बीएचपी नामक रोग कहते हैं। कहीं यही स्वाधिष्ठान चक्र का जागरण तो नहीं, जिसे शीतजल स्नान से व कुंडलिनी योग से ठीक किया जा सकता हो। वैसे स्वास्थ्य विशेषज्ञ भी मान रहे हैं कि ज्यादातर प्रॉस्टेट प्रॉब्लम चिंता या अवसाद से होती है, जिसे दूर करने के लिए योग एक रामबाण उपाय है। बात कुल मिलाकर वही है। ठंडे जल के स्पर्ष से वह जलन दूसरे चक्रोँ पर चली जाती है, मतलब वे जागृत हो जाते हैं। इसमें सबसे ज्यादा सम्भावना मणिपुर चक्र के जागृत होने की होती है, क्योंकि चक्र क्रमवार ही जागृत होते हैं। पर ऐसा भी नहीं हमेशा। यह जलन सीधी विशुद्धि चक्र और अनाहत चक्र को भी जा सकती है। उक्त कथा के अनुसार महादेव एक हजार वर्षों तक देवी पार्वती के साथ एक गुफा में विहार करते रहे, और अंततः उनका मूलाधार चक्र और फिर स्वाधिष्ठान चक्र जागृत हो गया। जब स्वाधिष्ठान चक्र जागृत हुआ, तब वे गुफा से बाहर आए मतलब आध्यात्मिक कामक्रीड़ा से विरत हुए। मेरे बोलने का मतलब है कि स्वाधिष्ठान चक्र के जागरण के रूप में जो कुदरत का तोहफा मिलता है, लोग उसे दूर करने के लिए इलाज करवाने भागते हों या उससे परेशान होते हैं, जबकि उसकी ऊर्जा अन्य चक्रोँ को देकर कुंडलिनी लाभ भी मिलता हो, और वह शांत भी रहता हो। ये मैं इसलिए भी कह रहा हूँ क्योंकि आजकल प्रॉस्टेट की उत्तेजना या जलन से प्राप्त प्रॉस्टेट आर्गेस्म प्राप्त करने की होड़ सी लगी है। बहुत से यंत्र और तकनीकें विकसित हो रही हैं इसके लिए। अनुभवी लोग बताते हैं कि पेनाइल आर्गेस्म के विपरीत प्रॉस्टेट आर्गेस्म बहुत ज्यादा चिरस्थायी होता है, और आनंद भी ज़्यादा देता है। पेनाईल आर्गेस्म तो स्खलन के कुछ क्षणों तक ही मौजूद रहता है। इसमें वाकई अध्यात्मवैज्ञानिक शोध की जरूरत है।
यौन संयम क्यों न अपनाया जाए~ वामपंथी और दक्षिणपंथी जीवन शैली के बीच एक स्वस्थ संतुलन
जैसा कि शिवपुराण में रहस्यात्मक रूप में कहा गया है कि वीर्यपात-अवरोधी सम्भोग से प्रॉस्टेट में स्थायी जलन अर्थात इन्फलेमेशन हो सकती है, हालांकि उसे दूर करने का उपाय भी बताया गया है, तब क्यों न यह मान लिया जाए कि वैष्णवों का दक्षिणाचार ही अच्छा है। या कम से कम यह मान लो कि मध्यमार्ग अच्छा है, जिसमें पुरुष-स्त्री के बीच में असीम सात्विक प्रेम होता है, पर शारीरिक संबंध नहीं होता। इससे यब-युम लाभ मिलने से कुंडलिनी भी घूमेगी, और स्वास्थ्य समस्या भी पैदा नहीं होगी। मतलब हर तरफ लाभ ही लाभ। तो मेरा मानना है कि विवाह न होने तक ऐसा ही परहेज रखना चाहिए। इससे स्वस्थ सामाजिकता भी बनी रहेगी और कुंडलिनी भी बनी रहेगी। विवाह के बाद तो प्रेम के साथ ज्यादा संयम रखना मुश्किल हो जाता है। साथ में, मुझे यह भी लगता है कि कुंडलिनी जागरण को प्राप्त करने के लिए बहुत शक्ति की जरूरत होती है, इसलिए भगवान शिव की तरह अविरत सम्भोग योग जरूरी है। जब एक-दो महीने के भीतर जागरण हो जाए, तो स्वास्थ्य सुरक्षा को देखते हुए सम्भोग कम कर दे। यदि जागरण न होए, तो भी 1-2 महीने ही प्रयास करे, क्योंकि इसका मतलब है कि व्यक्ति जागरण के लिए परिपक्व नहीं है, और अतिरिक्त प्रयास अधिकांशतः विफल ही जाएगा, व स्वास्थ्य समस्याएं भी पैदा करेगा। फिर कुछ वर्षों तक साधारण तांत्रिक कुंडलिनी योग का अभ्यास करते हुए जागरण के लिए पात्र बनाने वाला लाइफस्टाइल अपनाए, और उचित समय और अवसर और एकांत मिलने पर जैसे कि शांति, तनाव व काम के बोझ में कमी महसूस होने पर और शक्ति का अहसास होने पर फिर 1-2 महीने के लिए अविरत व समर्पित सम्भोग योग करे। इस तरह करता रहे। या दूसरा तरीका यह अपनाए कि भगवान शिव की तरह सर्व-आनंदमयी सम्भोग योग में सालों तक अर्थात तब तक दिनरात इच्छानुसार लगा रहे, जब तक कि प्रॉस्टेट में जलन न होने लगे अर्थात जब तक स्वाधिष्ठान चक्र जागृत न हो जाए, और उससे खुद ही सम्भोग से मन न ऊबने लगे। उस अवस्था के बाद आदमी उभयलिंगी सा बनकर अपने साथ ही संभोग योग करने लगता है। कामकाज के बोझ से उसके आगे के स्वाधिष्ठान चक्र पर जलन के रूप में शक्ति इकठ्ठा होती रहती है, जिसे वह योग व शीतजल स्नान की सहायता से पीठ से ऊपर चढ़ाता रहता है। यह चक्र चलता रहता है। इससे वह अंततः धीरेधीरे क्रमवार चक्रोँ को जागृत करते हुए सहस्रार को जागृत करके पूर्ण जागृति प्राप्त कर लेता है, उपरोक्त प्रथम उपाय की तरह एक-दो महीने के ताबड़तोड़ सम्भोग योग से एकदम से जागृति प्राप्त नहीं करता। इस पर भी मनोवैज्ञानिक शोध की जरूरत है।
शक्ति का प्रवाह नाड़ियों के माध्यम से होता है, जिसे विज्ञान की भाषा में नर्व कहते हैं~ कैसे शिव तक पहुँचती है शक्ति
कोई भी काम शक्ति से ही होता है। यदि सड़क पर गाड़ी चल रही है तो कहेंगे कि इंजन शक्ति से गाड़ी चली। अगर टांगा चल रहा है तो कहेंगे कि यह अश्व शक्ति से या संक्षेप में शक्ति से चल रहा है। शक्ति का भी कोई प्रेरक जरूर होता है। इंजन शक्ति और अश्व शक्ति, दोनों का प्रेरक ईंधन या अग्नि है। हमारा शरीर भी नाड़ी शक्ति या सिर्फ शक्ति से चलता है। यदि नाड़ी शक्ति न हो, तो हट्टाकट्टा शरीर भी किसी काम का नहीं है। आपने देखा होगा कि पक्षाघात के बाद कैसे बाजू या टांग काम करना बंद कर देती है। वैज्ञानिक रूप से शक्ति या नाड़ी शक्ति नर्व फाइबर्स की क्रियात्मक उत्तेजना के रूप में ही होती है। शरीर की इसी नाड़ी शक्ति को ही संक्षेप में शक्ति कहते हैं। क्या आपने कभी सोचा कि इस शक्ति को प्रेरित करने वाली क्या चीज है? दार्शनिकों ने ऐसा सोचा भी और लिखा भी, जो धर्मशास्त्रों में पढ़ने को मिल जाता है। इंजन की गति रूपी नाड़ी शक्ति को भोजन रूपी ईंधन के सहयोग से प्रेरित करने वाला तत्त्व अग्नि-चिंगारी रूपी चेतन आत्मा ही है। मूलाधार में जो आनंदपूर्ण संवेदना महसूस होती है, वही इस शक्ति को प्रेरित करती है। अर्थात यह सबसे बड़ी मात्रा वाली शक्ति को प्रेरित करती है, जिसे हम कुंडलिनी शक्ति कहते हैं। जब इसे प्राण वायु का विशेष बल भी साथ में मिले, तब इसे ही प्राण शक्ति भी कहते हैं। वैसे तो हर प्रकार का चेतन अनुभव हमारी शक्ति को प्रेरित करता रहता है, जिससे हम जीवित बने रहते हैं, पर क्योंकि मूलाधार की अनुभूति सबसे अधिक आनंददायक और चेतना से भरी है, इसीलिए इसे ही शक्ति या कुंडलिनी शक्ति या प्राण शक्ति का स्रोत कहा जाता है। मुझे आज यह बात समझ में आई कि शास्त्रों में ऐसा क्यों कहा गया है कि परमात्मा अर्थात चेतना ही शक्ति का मूल स्रोत है। शास्त्रों में वैज्ञानिक रूप से ज्यादा विस्तार नहीं लगता मुझे तथ्यों का, सम्भवतः इसीलिए क्योंकि पुराने युग में तथ्य विश्वास के आधार पर समझे या माने जाते थे, वैज्ञानिक जाँचपड़ताल के आधार पर नहीं। चेतना के इसी शक्तिप्रेरक योगदान के कारण ही डोपामीन अर्थात रिवार्ड कैमिकल काम करता है। जो चढ़दी कला में होते हैं, उनके आगे सफलता के द्वार एक के बाद एक खुलते जाते हैं। पर कई बार ज्यादा ही चढ़दी कला से उच्च रक्तचाप और तनाव आदि से संबंधित समस्याएं भी पैदा हो जाती हैं। यह ऐसे ही होता है जैसे बिजली की जरूरत से ज्यादा वोल्टेज से बल्ब ही फ्यूज हो जाता है। मूलाधार की संवेदना पर पैदा हुई शक्ति तो चढ़ेगी ही चक्र तक, क्योंकि उसके साथ चक्र पर चेतन कुंडलिनी का ध्यान किया जा रहा होता है। जिस रास्ते से शक्ति गुजरती है, उसे नाड़ी या चैनल कहते हैं। चक्र पर वह शक्ति ज्यादा प्रभाव पैदा करती है, क्योंकि वहाँ जड़ जैसी संवेदना के साथ चेतन कुंडलिनी चित्र का भी ध्यान होता है। इसीलिए कहते हैं कि शक्ति शिव की ओर गमन करती है। कई लोग कुंडलिनी योग से तृप्त नहीं होते। इसकी मुख्य वजह है कि उनके मूलाधार पर शक्ति ही पैदा नहीं हुई होती है। मूलाधार को हम शक्ति उत्पादक यंत्र कह सकते हैं। वे चक्रोँ पर कुंडलिनी चित्र का ध्यान भी करते हैं, पर फिर भी प्यासे से बने रहते हैं। शक्ति की प्यास को तो मूलाधार ही बुझा सकता है। प्रजनन से सृष्टि के विस्तार के लिए ही मूलाधार को विशेष शक्ति दी गई है। होता तो सब नर्व फाइबर से ही। मतलब कि मूलाधार में यह उत्तम गुणवत्ता का है। यह तो मुर्गी और अंडे के जैसी कहानी है। पहले मूलाधार में नर्व फाइबर की उत्तेजना से शक्ति पैदा होती है, फिर वह शक्ति मेरुदण्ड से होकर मस्तिष्क तक जाती है, और उससे मस्तिष्क में आनंदमयी संवेदना महसूस होती है, फिर वह आनंदमयी संवेदना भी नर्व फाइबरस को उत्तेजित करती है, जिससे और शक्ति पैदा होती है। मस्तिष्क से वह शक्ति नाड़ीजालों के माध्यम से पूरे शरीर में और मूलाधार तक फैल जाती है। मतलब शक्ति एक बंद लूप जैसा बनाती है। शक्ति का लूप में घूमना ही माईक्रोकोस्मिक औरबिट के आधार में है। यही बंद लूप ही औरोबोरस सांप है। चिकित्सा विज्ञान की भाषा में इसे रिफ़लेक्स आर्क कहते हैं। यदि उस समय हम किसी विशेष चक्र पर कुंडलिनी चित्र का ध्यान करें, तो शरीर के अन्य हिस्सों की अपेक्षा शक्ति उसी चक्र पर ज्यादा पहुंचती है, जिससे वहाँ कुंडलिनी चित्र और अधिक चमकने लगता है। मतलब कि शक्ति मानसिक चित्र को ज्यादा से ज्यादा चमकाने की कोशिश करती है, ताकि वह जागृत होकर शिव बन सके। यही शक्ति का शिव की तरफ गमन है। कुंडलिनी चित्र का मतलब किसी के ऊपर प्रेम न्योछावर करना नहीं है, बल्कि उसकी मदद से शक्ति को काबू करना है। कहीं ज़ख्म वगैरह हो जाए तो वहाँ दर्द और लाली पैदा हो जाती है। दर्द वह चेतन संवेदना है जो लाल रंग की शक्ति को अपनी ओर खींचती है। फिर कहेंगे कि जिन अंगों की दर्द महसूस नहीं होती, वहाँ शक्ति कैसे पहुंचती है और उनकी हीलिंग कैसे होती है। इसमें चेतना द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से काम होता है। जब दर्द वाले हिस्से से नाड़ी ऊर्जा मस्तिष्क को पहुंचती है, तो मस्तिष्क के अनुभव न होने वाले हिस्से में संवेदना पैदा करती है। इससे वहाँ बहुत सी नाड़ी ऊर्जा और उससे जुड़े रसायनों की खपत हो जाती है। इससे मस्तिष्क के चेतन अनुभव पैदा करने वाले हिस्से में नाड़ी ऊर्जा की कमी हो जाती है। इससे आदमी आनंदहीन सा रहने लगता है। इसलिए चेतना के आनंद को पैदा करने के लिए यही रास्ता बचता है कि शरीर की गहराई में दबे ज़ख्म को जल्दी से जल्दी भरा जाए। इसके लिए नाड़ी ऊर्जा उस ज़ख्म पर केंद्रित होने लगती है। दरअसल रक्त प्रवाह के आधार में यही नाड़ी ऊर्जा होती है। रक्त प्रवाह अगर गाड़ी है, तो उसे नियंत्रित करने वाली नाड़ी ऊर्जा उसका चालक है। चेतन आत्मा को आप स्टेशन मास्टर कह सकते हैं। जब हम नाड़ी ऊर्जा को मूलाधार से मेरुदण्ड के रास्ते ऊपर चूसते हैं, तब रक्त प्रवाह भी खुद ही ऊपर चला जाता है। इससे ही मूलाधार के आसपास का दबाव घटा हुआ महसूस होता है। रक्त तो मेरुदण्ड से ऊपर नहीं चढ़ सकता, क्योंकि उसमें नर्व फाइबर की एक रस्सी है, कोई रक्त की नलिका नहीं है। इसलिए कुंडलिनी योग का साधारण सा सिद्धांत है कि गाड़ी चालक को नियंत्रित करो, गाड़ी खुद नियंत्रित हो जाएगी।
नाड़ियों का जाल ही शिव पर लिपटे सर्प हैं~ नागों से भरा मानव शरीर
भगवान शिव पर लिपटे सर्प आदि को देखकर पार्वती की मां मैना डर गई थीं। दरअसल शिव एक महा योगी थे। उनके शरीर की हरेक नाड़ी जागृत थी, केवल सुषुम्ना ही नहीं। इससे वे हरेक नाड़ी में सरसराहट के साथ कुंडलिनी को महसूस करते रहते थे हमेशा। स्वाभाविक है कि उन सरसराहटों को अनुभव करते हुए उनके अंगों का स्वभाव व उनकी चाल भी सर्प की तरह हो गई हो, जिसे मैना महसूस कर पा रही हो। शायद योगी गोपीकृष्ण के साथ भी ऐसा ही होता था। उन्हें अपने शरीर की हरेक नाड़ी की गति महसूस होती थी। इससे वे परेशान भी हो गए थे। फिर वे उसके अनुसार ढल भी गए थे। इसी पर आधारित सुंदर रचना है शिवपुराण में, त्रिपुरासुर वध की, जो मैं निचले पैराग्राफ में लिख रहा हूँ, संक्षेप में।
त्रिपुरासुर राक्षस प्रकृति के तीन गुण हैं, और कुंडलिनी जागरण ही उनको मारना है~ एक शिव पुराण कथा का रहस्योद्घाटन
एक राक्षस का पुर सोने का, एक का चांदी का और एक का लोहे का था। ये क्रमशः सत्त्व, रजस और तमो गुण के प्रतीक हैं। राक्षस मतलब इन गुणों के साथ उठने वाली आसक्तिपूर्ण भावनाएँ। इनको मारने के लिए शिव मतलब आत्मा ने शरीर रूपी रथ बनाया, मंन्द्राचल मतलब मेरुदण्ड को धनुष बनाया, और वासुकि नाग मतलब सुषुम्ना नाड़ी को बाण बनाया। राक्षसों से युद्ध किया मतलब मूलाधार से कुंडलिनी शक्ति को योगसाधना से सुषुम्ना के रास्ते ऊपर चढ़ाया और उसे सहस्रार में जागृत किया। उससे प्रकृति के तीनों गुणों के प्रति सारी आसक्ति खत्म हो गई मतलब त्रिपुरारि राक्षस मर गए। इससे शरीर में बसने वाले देवता खुश हो गए क्योंकि वे शरीर के बंधन से मुक्त हो गए। कभी समय लगा तो इस पर और प्रकाश डालूंगा, पर मूल चीज यही है।
उज्जैन का महाकाल ज्योतिर्लिङ्ग
उज्जैन में महाकाल मंदिर में यह त्रिपुरासुर वाली घटना घटी थी, ऐसा कहते हैं। इसीलिए अभी हाल ही में निर्मित भव्य महाकाल कोरिडोर में इसको दर्शाती मूर्तियां और कलाकृतियाँ प्रमुखता से सबसे मुख्य स्थान पर लगाई गई हैं। त्रिपुरासुरों को मारने के कारण ही महादेव शिव को त्रिपुरारि भी कहते हैं।
शक्ति का गमन बिना सीधी नाड़ी के भी होता है~ मन एक विद्युत चुम्बकीय तरंग के रूप में और कुंडलिनी छवि एक इलेक्ट्रॉन के रूप में तंत्रिका रूपी विद्युत तार में यात्रा करती है
वैसे शक्ति का गमन बिना सीधी नाड़ी के भी होता है, हालांकि लगता है कि पीठ की सुषुमना नाड़ी से ही सबसे ज्यादा शक्ति का गमन होता है, जिससे कुंडलिनी जागरण होता है। शरीर के आगे के भाग के चैनल में तो पीठ की तरह सीधी नाड़ी होती ही नहीं। वहाँ तो कुंडलिनी चित्र की मदद से ही स्टेप बाय स्टेप चक्रोँ से होते हुए गमन होता है। अगर आप फ्रंट आज्ञा चक्र पर कुंडलिनी चित्र का ध्यान करो तो आपका पेट अंदर की ओर सिकुड़ेगा, मतलब शक्ति फ्रंट आज्ञा चक्र से फ्रंट मणिपुर चक्र तक पहुंच गई। यह एकदम कैसे हुआ जबकि दोनों चक्रोँ को जोड़ने वाली कोई सीधी नाड़ी नहीं है। दरअसल योगाभ्यास में हम ऊपर से नीचे तक बारीबारी से सभी चक्रोँ पर कुंडलिनी चित्र का ध्यान करते हैं। जिस चक्र पर कुंडलिनी चित्र होता है, वहाँ शक्ति क्रियाशील हो जाती है, क्योंकि चेतन शिव शक्ति को नचाता है अर्थात उसे क्रियाशील करता है, और शक्ति फिर बदले में शिव को भी नचाती है मतलब उसे ज्यादा अभिव्यक्त करती है। इससे वहाँ सिकुड़न सी महसूस होती है, और कुंडलिनी चित्र भी ज्यादा चमकने लगता है। शक्ति तो पहले भी वहाँ होती है, पर वह सोई जैसी अवस्था में होती है। विज्ञान की भाषा में इसे ऐसे कह सकते हैं कि वहाँ नाड़ी चलाने वाले कैमिकल अर्थात न्यूरोट्रान्समिटर तो मौजूद हैं, पर क्रियाशील अवस्था में नहीं हैं। बिल्कुल विद्युत तरंग की तरह काम होता है। जैसे वास्तव में इलेक्ट्रोन तो बहुत धीमी गति से चलते हैं, एक घंटे में कुछ मीटर ही, पर उन इलेक्ट्रोनों को धक्का देने वाली विद्युतचुम्बकीय तरंग प्रकाश की गति से चलती है, इसलिए धरती के एक छोर पर स्विच ऑन करने पर धरती के दूसरे छोर पर उसी क्षण विद्युत करेंट पहुंच जाता है। उसी तरह नाड़ी चलाने वाले रसायन तो घूम फिर कर निचले चक्र पर पहुंचने में कुछ सेकंड लगा सकते हैं, क्योंकि सभी नर्व फाइबर्स आपस में कहीं न कहीं से जुड़े हैं, बेशक अगले चक्रोँ को कोई सीधी नाड़ी आपस में नहीं जोड़ती, पर मन से सोचा गया कुंडलिनी चित्र एक क्षण में ही निचले चक्र पर पहुंच जाता है। वह कुंडलिनी चित्र ही वहाँ की स्थानीय नाड़ियों को क्रियाशील करके वहाँ चमक के साथ संकुचन पैदा करता है। यह ऐसे ही है जैसे विद्युतचुंबकीय तरंग अपने दायरे में आने वाले इलेक्ट्रोनों को गति देते हुए एक क्षण में ही हजारों किलोमीटर लम्बी विद्युत तार में फैल जाती है। इसलिए हम मन की तुलना विद्युतचुम्बकीय तरंग से कर सकते हैं।