कुंडलिनी योग: ब्लैक होल का वजन कम करने का मार्ग

हाल ही में खगोल वैज्ञानिकों ने एक अद्भुत खोज की है। उन्होंने पाया कि कई पुरानी आकाशगंगाओं में सितारों के बनने की प्रक्रिया लगभग बंद हो चुकी है। इसका कारण वहां मौजूद सुपर मैसिव ब्लैक होल हैं, जो अपनी ऊर्जा और विकिरण से आकाशगंगा के भीतर मौजूद गैस और धूल के बादलों को बाहर धकेल रहे हैं—ये वही सामग्री है जिससे नए सितारे बनते हैं।

अगर इसे ध्यान से देखें, तो यह ब्रह्मांडीय घटना हमारे जीवन की वास्तविकता से गहराई से जुड़ी है। हमारे भीतर का अंधकार, जिसे अध्यात्म में तमोगुण कहा गया है, उसी ब्लैक होल की तरह कार्य करता है। यह अंधकार रचनात्मकता को बाधित करता है, चाहे वह व्यक्ति के स्तर पर हो (व्यष्टि) या समाज के स्तर पर (समष्टि)।

लेकिन इस अंधकार का समाधान संभव है। कुंडलिनी योग, साक्षी भाव और शरीर विज्ञान दर्शन जैसे उपायों से इस आंतरिक ब्लैक होल का “वजन” कम किया जा सकता है। आइए, इसे गहराई से समझते हैं।

शरीर विज्ञान, खगोल विज्ञान, और अध्यात्म का अद्वितीय संबंध

हमारे जीवन को समझने के लिए तीन प्रमुख क्षेत्रों—शरीर विज्ञान, खगोल विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान—को अलग-अलग देखने की बजाय, उन्हें एक साथ जोड़कर समझने की जरूरत है।

खगोल विज्ञान ब्रह्मांड के रहस्यों को उजागर करता है।

शरीर विज्ञान हमारे शरीर की संरचना और कार्यप्रणाली की पड़ताल करता है।

अध्यात्म विज्ञान हमारी चेतना, ऊर्जा, और आंतरिक शांति के गूढ़ पहलुओं को उजागर करता है।

प्राचीन काल में लोग अध्यात्म विज्ञान के माध्यम से शरीर और ब्रह्मांड के कई रहस्यों का अनुमान लगाते थे, क्योंकि इसके लिए किसी भौतिक संसाधन या मशीनरी की आवश्यकता नहीं होती थी। आज, आधुनिक युग में शरीर विज्ञान और खगोल विज्ञान ने तकनीकी उन्नति के कारण असाधारण प्रगति की है, लेकिन तुलनात्मक रूप से अध्यात्म विज्ञान को पीछे छोड़ दिया गया है।

इसके बावजूद, अध्यात्म विज्ञान आज भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह न केवल मुक्ति (परम लक्ष्य) की ओर ले जाता है, बल्कि भौतिक संसार के कई अदृश्य रहस्यों को भी समझने में मदद करता है। इसलिए, इन तीनों क्षेत्रों का एकीकृत अध्ययन ही सही दिशा है।

मन का ब्लैक होल: रचनात्मकता में बाधा

ब्रह्मांड में ब्लैक होल की तरह, हमारे भीतर का अंधकार भी ऊर्जा को निगल जाता है और रचनात्मकता को रोकता है।

विचारों का भार: हमारे मन में असंख्य विचार, भावनाएं, और अनसुलझी समस्याएं जमा हो जाती हैं। ये हमारे मन को भारी बना देती हैं, जैसे कोई ब्लैक होल अपनी विशाल गुरुत्वाकर्षण से सबकुछ खींच लेता है।

तनाव और ऊर्जा ह्रास: यह मानसिक भार हमारे शरीर की ऊर्जा को खा जाता है, जिससे तनाव और थकावट पैदा होती है।

रचनात्मकता का अवरोध: जब ऊर्जा का अभाव होता है, तो नए और रचनात्मक विचार पनप नहीं पाते।

इस मनोवैज्ञानिक ब्लैक होल को हम व्यष्टि ब्लैक होल कह सकते हैं। इसका समाधान ढूंढना अत्यंत आवश्यक है, और यहां कुंडलिनी योग तथा साक्षी भाव जैसे उपाय महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

कुंडलिनी योग: आंतरिक अंधकार का समाधान

कुंडलिनी योग हमारी चेतना को जागृत करने की प्रक्रिया है, जिसमें शरीर की सोई हुई ऊर्जा (कुंडलिनी) को सक्रिय किया जाता है। यह ऊर्जा जब मेरुदंड के सातों चक्रों के माध्यम से ऊपर उठती है, तो मन का अंधकार धीरे-धीरे मिटने लगता है।

कुंडलिनी योग कैसे काम करता है?

1. दबे हुए विचारों का नाश: कुंडलिनी योग की प्रथाओं से मन में दबे हुए विचार और भावनाएं सतह पर आती हैं और धीरे-धीरे नष्ट हो जाती हैं।

2. ऊर्जा की बहाली: यह योग शरीर और मन में नई ऊर्जा का संचार करता है, जिससे तनाव घटता है और मानसिक भार हल्का होता है।

3. रचनात्मक शक्ति का विकास: जब मानसिक अंधकार हटता है, तो मन नई और रचनात्मक विचारधाराओं का केंद्र बन जाता है।

4. आत्मसाक्षात्कार: कुंडलिनी जागरण के माध्यम से व्यक्ति अपनी उच्च चेतना से जुड़ता है और अपने जीवन के गहरे अर्थ को समझ पाता है।

साक्षी भाव: मानसिक ब्लैक होल को हल्का करना

साक्षी भाव का अर्थ है अपने विचारों, भावनाओं, और अनुभवों का एक निष्पक्ष साक्षी बनना।

जब हम अपने विचारों को केवल “देखते” हैं, उनके साथ तादात्म्य नहीं बनाते, तो वे धीरे-धीरे अपनी शक्ति खो देते हैं।

यह प्रक्रिया मन को हल्का करती है और भीतर शांति और स्पष्टता का संचार करती है।

खगोल विज्ञान, शरीर विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान का संगम

यह समझना जरूरी है कि खगोल विज्ञान का ब्लैक होल और हमारे मन का ब्लैक होल अलग-अलग नहीं हैं। दोनों ऊर्जा और रचनात्मकता के अवरोध का प्रतीक हैं।

जहां खगोल विज्ञान ब्लैक होल के प्रभावों का अध्ययन करता है,

वहीं शरीर विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान इस अंधकार को हल्का करने के उपाय सुझाते हैं।

इस प्रकार, इन तीनों क्षेत्रों का एकीकृत अध्ययन हमें न केवल ब्रह्मांड के रहस्यों को समझने में मदद करता है, बल्कि हमारी आंतरिक यात्रा को भी दिशा देता है।

निष्कर्ष

कुंडलिनी योग, साक्षी भाव, और अध्यात्म विज्ञान के अन्य उपाय केवल व्यक्तिगत विकास तक सीमित नहीं हैं; ये पूरे समाज की रचनात्मकता और प्रगति में योगदान कर सकते हैं।

आइए, हम अपने भीतर के ब्लैक होल का वजन कम करें, ताकि हमारा मन एक नई आकाशगंगा की तरह चमके, जहां विचार और रचनात्मकता के नए “सितारे” जन्म ले सकें। जब हम अपने भीतर के अंधकार को मिटा देंगे, तो बाहरी ब्रह्मांड भी हमें पहले से कहीं अधिक उज्जवल दिखाई देगा।

कुंडलिनी योग ध्यान साधना से आदमी आस्तिक बनता है

दोस्तों, मैं हाल ही में एक ब्लॉगपोस्ट पढ़ रहा था जो मुझे अच्छी लगी। हालांकि उसमें मुझे अपनी टिप्पणी पर कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। उसमें लिखा था कि सिर्फ़ हिंदु धर्म ही आस्तिक धर्म है, अन्य सब नास्तिक हैं। संस्कृत शब्द आस्तिक ‘अस्ति’ शब्द से बना है, जिसका मतलब ‘है’ होता है। मतलब जो ‘है’ अर्थात नामरूप से रहित सत्ता मात्र को मानता है, वह आस्तिक है। ‘न अस्ति अर्थात नास्ति’ का मतलब ‘नहीं है’ है। जो ‘नहीं है’ को मानता है, वह नास्तिक हुआ। वैसे भी नामरूप का आस्तित्व तो है ही नहीं। बर्फ से जल बनता है, जल से भाप, भाप से बादल और उससे पुनः जल बनता है। इतने नाम और रूप बदले पर रहता सब में जल ही है। अगर हम इस कार्य कारण की परंपरा को पीछे से पीछे बढ़ाते जाएं तो सबकुछ सूक्ष्म से सूक्ष्म होता जाता है, और अंत में आकाश ही बचता है। मतलब सबकुछ आकाश या शून्य या आत्मा रूप ही है। शून्य भी अभाव या अंधकारनुमा नहीं बल्कि अनिर्वचनीय रूप वाला शून्य। इसीलिए हिंदू धर्म पलायनवादी जैसा भी लगता है, पर असल में ऐसा नहीं है। असली आस्तिक वह नहीं जो नामरूप को बिल्कुल नकारता है। बल्कि असली आस्तिक वह है जो सच्चे व असली अस्तित्व को नामरूप वाले झूठे और नकली अस्तित्व से ऊपर माने। अगर नामरूप को बिल्कुल नहीं मानेंगे तो दुनियादारी कैसे चलेगी, कैसे मानव सभ्यता का विकास होगा। ऐसे में तो सभी विरक्त संन्यासी जैसे हो जाएंगे। सारा विज्ञान नामरूप के आश्रित है। किसी वस्तु को नामरूप नहीं देंगे तो उसे समझेंगे कैसे और कैसे उसे वश में करेंगे। नामरूप न मानने से विज्ञान संभव ही नहीं होगा। दूसरी ओर, अन्य धर्म भी पूरी तरह से नास्तिक नहीं हैं। असली नास्तिक वह नहीं है जो सिर्फ नामरूप को ही माने और शुद्ध अस्तित्व को नकारे। बल्कि असली नास्तिक वह है जो नामरूप के अस्तित्व को शुद्ध और असली अस्तित्व से ज्यादा महत्त्व दे। नामरूप के अस्तित्व को मानते समय शुद्ध अस्तित्व तो खुद ही मानने में आ जाता है, क्योंकि ‘है’ तो सबके साथ लगता है। शुद्ध ‘है’ का अस्तित्व और नामरूप का अस्तित्व एकदूसरे के आश्रित हैं, और दोनों एकदूसरे के साथ रहते हैं। ये एक दूसरे से अलग नहीं रह सकते। फर्क यह है कि मन में किसे ज्यादा महत्त्व दिया जाता है। मतलब मन की धारणा का ही अंतर है। आस्तिक की दुनियादारी भी वैसी ही चलती है जैसी नास्तिक की। फर्क दोनों की विचारधारा या मन की धारणा का होता है। सिर्फ मन की धारणा के बदलने से ही आकाश-पाताल के जैसा विपरीत असर पैदा हो जाता है। मतलब साफ है कि कोई भी पूरा आस्तिक या पूरा नास्तिक नहीं हो सकता। व्यवहार में सब मिश्रित स्वभाव के होते हैं। मन की धारणा को आस्तिक बनाए रखने के लिए ही विभिन्न धर्मशास्त्र बने हैं। अध्यात्म केवल मन की धारणा को सुधारता है। दुनियादारी तो विज्ञान से ही चलेगी। मन की धारणा का बनना और सुधरना एक सहज प्रवृत्ति है, वैसे ही जैसे आदमी सुख के अनुभव की तरफ खुद ही खिंचा चला जाता है। इसमें मुझे धर्म का बहुत ज्यादा योगदान नहीं लगता। आदमी को यह धर्म तो नहीं सिखाता कि कौनसी परिस्थिति सुखद है, बल्कि आदमी अपने अनुभव से खुद ही सीखता है। वैसे भी मानव मनोविज्ञान बहुत जटिल और विविधतापूर्ण है। इसके संबंध में ऐसा कोई सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता, जैसा कि जड़ वस्तुओं के लिए गुरुत्वाकर्षण आदि जैसा सामान्य नियम बनाया जाता है। यहां तो हरेक आदमी का मन अपने आप में अद्वितीय है, जिसके लिए नियम भी अद्वितीय ही होना चाहिए। हां धार्मिक पुस्तक सबके लिए एक सामान्य साधारण सिद्धान्त का बखान कर सकती है, पर वह भी सर्वसम्मत और वैज्ञानिक या अध्यात्मवैज्ञानिक रूप से प्रमाणित होना चाहिए। हालांकि उसके भी मानवीय अपवाद हो सकते हैं। लौकिक व्यावहारिक कदम तो आदमी को समय व परिस्थिति के अनुसार खुद ही उठाने पड़ते हैं। मतलब सब कुछ लिखा या बताया नहीं जा सकता। इसीलिए हरेक धर्म में हर किस्म की धारणा के लोग मिल जाएंगे। हां, विभिन्न कारणों से प्रोपोर्शन या अनुपात अलग-अलग हो सकता है। उदाहरण के लिए, यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा कि दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है। इसपर युधिष्ठिर ने जवाब दिया कि लोग रोज मरते हैं, पर ऐसा देखते हुए भी जीवित आदमी ऐसा सोचते हैं कि वे कभी नहीं मरेंगे। इससे बड़ा कोई आश्चर्य नहीं। इस जवाब से यक्ष संतुष्ट हो गया। इस कथानक को सकारात्मक धारणा वाला आदमी ऐसे लेगा कि जिंदादिली से जीवन बिताते हुए भी आदमी को यह हमेशा याद रखना चाहिए कि कभी उसके जीवन का अंत हो जाएगा, इसलिए जीवन के प्रति आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। मतलब नामरूप में आसक्ति न रखो मतलब दुनियादारी को देशकाल के अनुसार बरतते हुए भी आस्तिक धारणा को अपनाओ, नास्तिक धारणा को नहीं। पर नकारात्मक धारणा वाला आदमी इसको ऐसे लेगा कि जीवन में कुछ नहीं रखा है, इसलिए हमेशा मरे हुए जैसे की तरह रहना चाहिए। नामरूप से भरी दुनियादारी को पूरी तरह से त्याग दो और घोर अर्थात कट्टर अर्थात पूर्ण आस्तिक बनो। धर्मशास्त्र ने तो अपनी तरफ से अच्छा कथानक लिखा था, पर उसके लेखक को क्या पता कि कई लोग इसका गलत अर्थ निकाल सकते हैं। इसी तरह गुरु भी अपने जीवन के अनुभव से सामान्य नियम और सिद्धांत ही समझा सकते हैं, हर कदम तो वे भी साथ नहीं चल सकते।

कुछ पल सांस रोकने से और फिर लंबी गहरी सांसों से विचारों के शुद्ध अस्तित्व पर ज्यादा ध्यान जाता है, और उनकी नामरूप वाली विविधता पर कम। अगर उस प्राणायाम के साथ कुंडलिनी शक्ति का साथ भी मिले तो प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है, क्योंकि उससे दबे विचारों के उघड़ने को ज्यादा बल मिलता है, जिससे आस्तिकता और ज्यादा प्रभावी बन जाती है। तांत्रिक बल से तो प्रभाव उससे भी कई गुना बढ़ जाता है। तेज और उथली सांस से विचार सांस के साथ लगातार बदलते रहते हैं। इससे उनके सतही नामरूप पर ही ध्यान जाता है, उनकी गहराई में जाने का समय ही नहीं मिलता। पर जब सांस धीमी, लंबी या रुकी होती है, तब मन का एक ही विचार सांस के रुके रहने तक या एक सांस के पूरा होने तक या लगातार कई सांसों तक बना रहता है। इससे वह विचार हमें पैदा होते, बढ़ते, ठहरते और आत्मा में विलीन होते दिखता है। ॐ शब्द भी इसी प्रक्रिया को दर्शाता है, जिसमें अ, उ और म अक्षर क्रमशः पैदा होने को, बढ़ने और रुकने को और विलीन होने को दर्शाते हैं। ॐ सहस्रार का बीजमंत्र इसलिए है क्योंकि मस्तिष्क में ही सारा ब्रह्मांड विचारों के रूप में पैदा होता रहता है, बढ़ता रहता है और विलीन होता रहता है। इस अक्षर की दो भुजाओं में जो दो तीखे मोड़ या रिंग हैं वे त्रिआयामी हैं, कागज पर दो आयामी दिखते हैं। बाईं तरफ का रिंग बाएं मस्तिष्क के कर्वेचर के साथ दुसरी तरफ को मुड़ जाता है, और दाईं ओर का कर्वेचर दाएं मस्तिष्क में पीछे की तरफ को कवर करता है। मतलब ओम से पूरा मस्तिष्क कवर हो जाता है। इसके ऊपर जो चंद्र बिंदी है, वह सहस्रार चक्र बिंदु है। इससे हमें महसूस हो जाता है कि नामरूप तो मिथ्या ही थे, विचारों का असली रूप तो शून्य आकाश या आत्मा जैसा ही है, यानि बिना नामरूप की सत्ता मात्र ही असली है, जहां से वे पैदा होते दिखते हैं और उसमें विलीन होते भी दिखते हैं। तेज और उथली सांसों से विचार फटाफट बदलते हैं। इसलिए न तो हमें वे शून्य आत्मा से पैदा होते दिखते हैं और न ही शून्य आत्मा में विलीन होते दिखते हैं। इससे वे हमें सत्य से दिखते हैं। हमें लगता है कि वह पुराना विचार जिसकी जगह अब नए विचार ने ले ली है, वह सत्य है, और हमारे दिमाग ने ही उसकी जगह नया विचार पकड़ लिया है। वैसे भी उथली तेज सांसों पर ध्यान देना कठिन है।

मतलब साफ है कि कुंडलिनी योग से आस्तिक बनने में मदद मिलती है। इसकी एक वजह यह भी है कि कुंडलिनी योग के समय सांस और शरीर पर ध्यान कायम रहने से विचारों के नामरूप पर ज्यादा ध्यान नहीं जाता और केवल उनके अस्तित्व का ही बोध होता रहता है। यह साक्षीभाव साधना की तरह ही है, मतलब हम उन्हें साक्षी की तरह देख रहे होते हैं। और उनसे प्रभावित नहीं होते। साथ में, योगासन के समय शरीर निश्चित पोज में रहता है, और विचारों के अनुसार प्रतिक्रिया या हिलने जुलने का विरोध करता है। इससे भी विचारों की नामरूपता प्रभावी नहीं हो पाती।

विचारों का हैंडल सांस है। ऐसा इसलिए क्योंकि विचार सांसों के साथ तालमेल बैठा कर गति करते हैं। बिना सांसों के विचारों को पकड़ना बहुत कठिन है। सांस को देखते रहने का मतलब है विचारों को देखना मतलब साक्षी भाव।  जब हम सांसों को नहीं देख रहे होते तब विचारों को भी नहीं देख रहे होते। उस समय हम खुद विचार बने होते हैं। जब हम सांसों को नहीं देख रहे होते तो खुद सांस बने होते हैं। अपने को तो कोई नहीं देख सकता। देखा तो दूसरे को ही जाता है। मतलब तब साक्षीभाव नहीं रहता। दो ही भाव हो सकते हैं, या तो दर्शक भाव या दृश्य भाव। यदि देखने वाले का दर्शक भाव नहीं है तो खुद ही दृश्य भाव पैदा हो जाता है। मतलब दर्शक दृश्य से असक्तिपूर्वक जुड़कर दृश्य ही बन जाता है। ऐसा पिता को अपने पुत्र को मैदान में खेलते देखते समय हो सकता है। अगर दर्शक भाव है तो दृश्य भाव नहीं हो सकता। दोनों भाव एकसाथ नहीं रह सकते। दर्शक भाव का यह लक्षण है कि वह दृश्य के सुख दुख से प्रभावित नहीं होता। अगर आदमी अपने विचारों से प्रभावित हो रहा है तो उसका मतलब है कि उसका दृश्यमान विचारों के प्रति दर्शक या साक्षी भाव नहीं बल्कि दृश्य या आत्मभाव है। विचारों को आत्मरूप समझो तो वह ज्ञान है, पर अगर आत्मा अर्थात आदमी विचाररूप बन जाए तो वह अज्ञान है।

इस मामले में एक तिब्बती बौद्ध योगी की बात अच्छी लगी कि सांस पर भी ध्यान रखो और विचारों पर भी, मतलब विचारों को भी खुला छोड़ दो, तभी मेडिटेशन होती है। मतलब विचारों को न तो दबाओ और न ही उनकी अवहेलना करो। जब सांसों पर ध्यान रहेगा या बीचबीच में जाता रहेगा तब खुद ही उनसे लगाव कम हो जाएगा और उनके प्रति दर्शक भाव पैदा हो जाएगा।

संभवतः जो कई बार समझा जाता है कि निर्जीवता का एकसार अंधेरा ही नामरूपता से रहित है, वह गलत है। दरअसल उस अंधेरे के रूप में नामरूप वाले दुनियावी विचार सूक्ष्म रूप में स्थित होते हैं, जो मौका मिलने पर पुनः स्थूल रूप में प्रकट हो जाते हैं। असली नामरूप से रहित सत्ता तो पूर्ण शुद्ध आत्मा अर्थात परमात्मा की ही है, जो अनिर्वचनीय है। हालांकि उसकी प्राप्ति नामरूप वाली दुनिया से ही होती है, क्योंकि कण कण में उसका वास है।

शास्त्रों में लिखा मिलता है कि निर्जीवता के अंधेरे का अस्तित्व नहीं है। वह हमें दुनियादारी की आसक्ति से पैदा हुए भ्रम से महसूस होता है। यह ऐसा ही भ्रम है जेसे गोल चक्के पर घूमने के बाद उससे बाहर उतरकर चारों ओर की सभी चीजें भी कुछ समय घूमती हुई दिखाई देती है। जितनी तेजी से या जितने समय तक हम उस पर घूमते हैं, वे चीजें भी उतनी ही तेजी से और उतने ही ज्यादा समय तक घूमती महसूस होती हैं। इसी तरह जिस किस्म की दुनियादारी होगी, उसके बाद का निर्जीवता का अंधेरा भी वैसा ही महसूस होगा। इसी को सूक्ष्म शरीर कहा जाता है। फिर तो जैसे घूमने का अहसास थोड़ी देर बाद खत्म हो जाता है, वैसे ही कुछ समय बाद सूक्ष्म शरीर का अंधेरा भी वैसे ही छंट जाना चाहिए। मतलब आदमी मृत्यु के बाद खुद मुक्त हो जाना चाहिए। पर शास्त्रों में ऐसा कहीं नहीं लिखा है। तर्क बुद्धि से तो ऐसा लगता है कि जेसे घूमने के झूठे एहसास के बाद आदमी अपनी पूर्व की दुनिया वाली अवस्था में आ जाता है, इसी तरह निर्जीवता के भ्रम के बाद आदमी अपनी पुरानी दुनियावी जिंदगी में फिर से प्रवेष कर जाना चाहिए मतलब उसका पुनर्जन्म हो जाना चाहिए।  पर जिसने पहले पूर्ण मुक्ति का या जागृति का अनुभव कर लिया हो, शायद वह अपनी पूर्व की मुक्ति वाली अवस्था में चला जाता हो मतलब मुक्त हो जाता हो। यह बात फिर भी कुछ कुछ शास्त्रसम्मत लगती है। जो ब्लैकहोल जितना ज्यादा भारी होता है, वह उतना ज्यादा प्रकाश को निगल कर अपने अंदर उतना ही ज्यादा अंधेरा पैदा करता है। उसी आभासी अंधेरे के रूप में उसके मूल सितारे की सूचना उसमें संचित रहती होगी। हो सकता है कुछ समय बाद वह अंधेरा उसी जैसे सितारे के रूप में फिर से जन्म ले लेता होगा। इसको वैज्ञानिक कहते हैं, व्हाइट होल से उसकी ऊर्जा का निकलकर किसी दूसरे ब्रह्मांड में चले जाना। जबकि जो कम वजन के सितारे होते हैं, उनके नष्ट होने से थोड़े समय के लिए अंधेरा रहता है, और वे अनंत ऊर्जा से भरे अनंत आकाश में विलीन हो जाते हैं, मतलब मुक्त हो जाते हैं। वे हमारे संन्यासियों और वैरागियों की तरह होते होंगे, जो अपनी दुनियादारी को हल्का रखते हैं।

भगवान राम मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा नवनिर्मित भव्य अयोध्या राम मंदिर में कल २२ जनवरी को सादर प्रतीक्षित और सुस्वागत की सभी को शुभकामनाएं।

कुंडलिनी योग ब्लैक होल से काली ऊर्जा अर्थात डार्क एनर्जी को बाहर निकालकर उसे मुक्त कराता है

वर्चुअल पार्टिकल भी हर समय आकाश में बनते ही रहते हैं, और उसीमें विलीन भी होते रहते हैं। मतलब वे भी तो शून्य आकाश जैसी सिंगुलरिटी बनाते हैं फिर उनसे ब्लैकहोल क्यों नहीं बनता। तारे का सिकुड़ते हुए शून्य आकाश बन जाना ही ब्लैकहोल क्यों बनाता है। बात शायद द्रव्यमान की भी है। अनंत द्रव्यमान भी बनना चाहिए। मन का विचार अनंत द्रव्यमान कैसे है। शायद इसलिए कि वह अनंत की कल्पना कर सकता है। पहले तो यह जानना होगा कि विचार का भौतिक स्वरूप क्या है। शायद तारा सिकुड़ते हुए वही भौतिक रूप बनता हो। मान लो पहाड़ का विचार आया या पहाड़ को देखते हुए उसका चित्र मन में बनाया। उस विचारचित्र में स्थूल पहाड़ का पूरा द्रव्यमान दबाया हुआ समझ सकते हो आप। मतलब अगर पूरी सृष्टि का चित्र बने, तो उसमें भी पूरी सृष्टि का वजन समाया होगा। इसीलिए मन का विचार इतना बड़ा गड्ढा बनाता है आकाश में कि नया अनंत जीवाकाश ही बन जाता है। पर विचार का द्रव्यमान अनंत कैसे हो सकता है। यह तभी संभव है, अगर विचार बनाने वाली भौतिक तरंग शून्य स्थान घेरे, ब्लैकहोल की सिंगुलरिटी की तरह। ऐसा तो है ही। विचार न तरंगरूप है और न कणरूप। मतलब विचाररूपी आभासी हलचल का अपना पृथक अस्तित्व नहीं है। बाहर की वस्तु जैसा आभासी चित्र बनाने वाली कोई शून्य की हलचल है, अपना अस्तित्व नहीं है इसका। यह शायद हलचल भी नहीं है, क्योंकि हलचल भी कुछ समय के लिए रहती है, पर विचार तो एक सेकंड से भी कम समय में गायब हो सकता है। इसीलिए विचार शून्य स्थान घेरता है। वैसे भी जब खुद है ही नहीं, बल्कि बाहर की परछाई है, तो शून्यरूप ही हुई। फिर तो अगर छोटे से पत्थर का चित्र भी मन में बना, उसका भी अनंत द्रव्यमान होगा। फिर तो बोल सकते हैं कि अगर ऐसा है तब तो पानी में बना पेड़ का छायाचित्र भी अनंत द्रव्यमान लिए होगा और एक स्वतंत्र अनंत जीवाकाश बनाएगा। पर ऐसा तो नहीं होता। शायद मस्तिष्क में बने छायाचित्र में ही यह विशेष खासियत है, जो और कहीं नहीं है। या यूं कह सकते हैं कि मस्तिष्क में बना विचार ही शून्यरूप है। यह गौर करने का विषय है कि हम अपने ही उन विचारों से कैसे घबराए रहते हैं जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है। हम इसलिए हमेशा तनाव में रहते हैं क्योंकि विचारों को हम स्थूल व भौतिक मान के चले होते हैं। यह तो वैज्ञानिक शोध का विषय भी है कि विचार की प्रकृति क्या है। पर विचारप्रयोग से हमने मोटे तौर पर बता दिया है। अगर ब्लैकहोल से अनुमान लगाएं, तो शायद उसमें भी विशाल तारे की परछाई मात्र ही बची रहती है, वह भी मस्तिष्क में बने चित्र की तरह, और कुछ नहीं। परछाई चिदाकाश मतलब मूलाकाश मतलब परमात्मा पर बनती है, जीव के मन की परछाई की तरह आत्मा में नहीं। तारे का पूरा द्रव्यमान उस परछाई में समाया होता है। और वह परछाई पूरे अनंत आकाश में छाई होती है, जैसे आदमी की आत्मा या अचेतन मन में बने चित्र को हम चिह्नित नहीं कर सकते कि वह कहां है। वह पूरे आत्माकाश में छाया होता है। इसीको नए आकाश का निर्माण होना कहते हैं। हरेक ब्लैकहोल बने तारे का पृथक अस्तित्व एक ही आकाश के अंदर पृथक परछाई के रूप में रहता है। यह ऐसे ही है जेसे हरेक जीवात्मा का पृथक अस्तित्व एक ही परमात्मा के अन्दर एक पृथक परछाई के रूप में होता है। शायद इसी परछाई या छवि को डार्क एनर्जी कहते हैं। जो तारे ब्लैकहोल नहीं बनाते, वे सुपर डार्क एनर्जी में विलीन हो जाते हैं। यह सुपर डार्क एनर्जी एकप्रकार का जनरल पूल है मूल अनंत आकाश में फैला हुआ, जिससे अंतरिक्षीय पिंड बनते रहते हैं, और उसमें ही विलीन होते रहते हैं। शायद वर्चुअल पार्टिकल भी इससे ही अंदर बाहर कूदते रहते हैं। इसीको मैंने एक पिछली पोस्ट में कहा था कि कम वजन वाले तारे ब्लैकहोल रूपी जन्ममरण के चक्कर में न पड़कर मुक्त हो जाते हैं। यह सुपर डार्क एनर्जी भारतीय दर्शन की मूल प्रकृति की तरह है। दोनों में हूबहू समानता है। दोनों ही शाश्वत हैं। दोनों से ही सृजन होता है। दोनों एक ही चीज़ है, सिर्फ विषयानुसार कहने भर का फर्क है। मूल प्रकृति से जीवात्मा या जीव का उद्गम होता है, तो सुपर डार्क एनर्जी से ब्रह्मांड का। जो भी भौतिक पदार्थ बनता है, वह सीधा मूल अनंत आकाश से नहीं बनता, पर उसमें व्याप्त सुपर डार्क एनर्जी से बनता है। इसी तरह कोई भी जीव सीधा परमात्मा से नहीं आता, पर मूल प्रकृति से आता है। पर दोनों में से किसी में भी सबका लय हो सकता है, हालांकि पूरी तरह सुपर डार्क एनर्जी में नहीं, पर इसके अन्दर एनकोडिड व्यक्तिगत डार्क एनर्जी के रूप में। अब कोई कहे कि अगर जीवात्मा या तारा मूल प्रकृति में गया, तो वह मुक्त होकर परमात्मा से कब मिला। मतलब साफ है कि मूल प्रकृति और परमात्मा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसीलिए कह रहे हैं कि मूल प्रकृति से कोई आ ही सकता है, इसके अंदर जा नहीं सकता। परमात्मा अनंत चेतन आकाश है तो मूल प्रकृति उसकी छाया। दरअसल वह छाया अनुभवरूप नहीं है, फिर भी उसका आभासी या काल्पनिक या सैद्धांतिक अस्तित्व तो है। वह होकर भी नहीं है। मतलब कि मूल प्रकृति में गया तो परमात्मा में ही गया, क्योंकि अनुभव तो वह अपने परमात्मरूप को ही करेगा। जीवात्मा के आने के लिए तो वह ठीक है, कि जीवात्मा ने उस परमात्मा की परछाई से कभी जन्ममरण वाली जीवन यात्रा शुरु की थी, क्योंकि परमात्मा कभी भी जीवनयात्रा या जन्ममरण के बंधन में बंध ही नहीं सकता। पर यात्रा का अंत परमात्मा में जाकर ही होता है, उसकी परछाईं में नहीं।
वैज्ञानिक भी शंका जाहिर कर रहे हैं कि शायद ब्लैकहोल ने ही डार्क एनर्जी बनाई हो। यह ऐसा ही है जैसे कई भारतीय दर्शन इसपर वादविवाद करते हुऐ कहते थे कि मूल प्रकृति का अपना अस्तित्व नहीं, उसे जीव ने अपनी आत्मा के अज्ञान के अंधेरे से बनाया है। पर शास्त्रों का निष्कर्ष मानें तो ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि डार्क एनर्जी या मूल प्रकृति अनादि कही गई है। हां उल्टा जरूर हुआ है कि उससे अंतरिक्षीय पिंड बने हैं, जिनसे ब्लैकहोल बने हैं। बेशक वे उसमें बारबार विलीन होते रहते हैं, और उससे जन्म लेते रहते हैं, जीवात्मा की तरह। पर मुझे तो दोनों ही बातें सही लगती हैं शास्त्रों के अनुसार। मतलब सुपर डार्क एनर्जी और ब्लैकहोल एकदूसरे को बनाते रहते हैं। संभवतः ब्लैकहोल से जो हॉकिंस रेडिएशन निकलती रहती है, वह सुपर डार्क एनर्जी में एड अप होती रहती है। जरूरी नहीं कि हॉकिंग रेडिएशन से ब्लैकहोल की सारी डार्क एनर्जी बाहर निकालकर ही वह अंधेरे से मुक्त होता है, बल्कि थोड़ी सी डार्क एनर्जी निकालने से भी वह काम हो जाता है। इतनी डार्क एनर्जी को इतनी कम विकिरणस्राव रप्तार से कौन पूरा बाहर निकाल सकता है। अगर ऐसा होता है तो इसमें बहुत ज्यादा समय लगेगा, जो अव्यवहारिक है। इसी तरह आदमी को कुंडलिनी योग से मन का सारा अंधेरकचरा बाहर निकालने की जरूरत नहीं, बल्कि लंबे समय तक थोड़ा थोड़ा कचरा निकालने से भी जागृति या मुक्ति मिल ही जाती है। असंख्य जन्मों से इकट्ठे हुए असीमित कचरे को भला पूरा कौन निकाल सकता है।

हिंदू शास्त्रों में आता है कि सृष्टि के प्रारंभ से पहले परमात्मा के मन में एक ही विचार पैदा हुआ, एकोहम बहुस्याम, मतलब मैं एक हूं, बहुत सा बन जाऊं। शायद यही विचार तथाकथित सिंगुलरिटी तक सिकुड़ा हुआ अनंत द्रव्यमान है। संभवतः उस विचार से ही आकाश में छेद हो गया। एक नया अनंत आकाश बन गया। पर भ्रम से वह अपने पूर्ण प्रकाश को भूल गया, हालांकि मूल परमात्मा पूर्ववत अप्रभावित रहा। यही सुपर डार्क एनर्जी है। इसीसे सृष्टि बनती है, और इसीसे उसका विस्तार होता है। वैसे ही जैसे आदमी के मन के अंधेरे में विचारों की प्रकाशमान दुनिया विकसित होती है। वही सुपर डार्क एनर्जी ब्रह्मा का मूल मन है, और उसके मन में विचारों का विकास ही सृष्टि निर्माण है। फिर ब्रह्मा ने पूछा कि सृष्टि कैसे बनाऊं, तो ब्रह्म यानि परमात्मा ने कहा कि यथापूर्वमकल्पयत अर्थात जैसे पहले बनाई थी। इसका मतलब है कि कोड रूप में पिछली सृष्टि की सूचना ब्रह्मा की याददाश्त के रूप में रहती है।

हिंदु दर्शन बोलता है कि मन के विचारों के प्रति आसक्ति से ही अज्ञान या अंधकार पैदा होता है। यह बात वैज्ञानिक ही तो है। आसक्ति मतलब पकड़कर रखना या चिपकना। ब्लैकहोल भी तो अपने अंदर की सिंगुलरिटीरूपी विचार को पकड़कर रखता है। यह अलग बात है कि हॉकिंग रेडिएशन से उसे बाहर फेंकने की कोशिश भी करता है। आदमी भी योग, विपश्यना, अनासक्तिपूर्ण जीवनयापन आदि से विचारों को बाहर भगाता ही रहता है। यह अलग बात है कि कब इसमें पूरी सफलता मिले।

विज्ञानी कहते हैं कि ब्लैकहोल की सिंगुलरिटी में स्पेसटाईम शून्य हो जाते हैं। फिर बिगबैंग के समय वे फिर से फैलने लगते हैं, जिससे ब्रह्मांड का निर्माण शुरु हो जाता है, और वह आगे से आगे फैलने लगता है। जरा ध्यान से सोचें तो सिंपल सी बात है। कोई ज्यादा गणित लगाने की जरूरत नहीं है। भीतर से सोचते हैं। बाहर तो भीतर की तरह ही है। यही अध्यात्म की खासियत है कि यह भीतर को समझता है, पर विज्ञान बाहर को समझता है। भीतर समझना आसान भी है, सस्ता भी है और सर्वसुलभ भी। बाहर तो बखेड़ा और परेशानी ज्यादा है। महंगा भी है, और सर्वसुलभ भी नहीं। जब अनंत आत्मा के प्रकाशमान आकाश में अंधेरा छा गया, तब वह होते हुए भी शून्य ही है। है तो उसमें परमात्मा अर्थात सबकुछ पर अंधेरे में किस काम का। अगर फाईव स्टार होटल में अंधेरा छा जाए तो वह किस काम का। वह तो न होने की तरह ही है। इसी को स्पेसटाईम शून्य होना कहा गया है। फिर वह फैलने लगता है, विचारों के ब्रह्मांड के रूप में। वह स्पेसटाईम ही फैल रहा है, क्योंकि उसीकी तरंगें ही तो विचारों के रूप में हैं। फैलना बंद होएगा तब, जब अंतिम छोर पा लेगा मतलब अनंत चैतन्य अंतरिक्ष अर्थात मुक्ति।

कुंडलिनीयोग शक्ति से वैज्ञानिक विचार प्रयोग में मदद मिलती है

अंतरिक्ष फैल रहा है, गेलेक्सियां नहीं भाग रहीं। बिगबैंग से पहले भी अंतरिक्ष ही था। फिर ब्लैकहोल के अंदर का अंतरिक्ष फैलने लगा अनंत अंतरिक्ष के ही अंदर, भ्रम से। आदमी जैसे जैसे अपना नोलेज बढ़ाता है उसे लगता है वह अंतरिक्ष की तरह फेल रहा। आम हालत में उसे अपना अंतरिक्ष स्वरूप सिकुड़ा हुआ सा लगता है। दरअसल अंतरिक्ष नहीं फैल रहा बल्कि ब्लैकहोल के अंदर कैद डार्क एनर्जी फैल रही है। ब्लैकहोल के अंदर अनंत अंतरिक्ष तो बन गया पर डार्क एनर्जी उस पूरे अंतरिक्ष में नहीं फैली है। क्योंकि डार्क एनर्जी का कोई भौतिक रूप नहीं है, इसलिए ऐसा लगता है कि अंतरिक्ष फैल रहा है, मतलब पितृ अंतरिक्ष के अंदर ब्लैकहोल का अंतरिक्ष फैल रहा है। बेशक पूरा तारा सिंगुलरिटी तक सिकुड़ा था, और वह सिंगुलरिटी डार्क मैटर है, जो अंतरिक्ष जितना सूक्ष्म है, मतलब आकार में अनंत छोटा है, फिर भी वह कहीं लोकलाइज्ड है, और पूरे अनंत अंतरिक्ष में नहीं फैला है। यह भी भ्रम जैसा ही है। हम आदमी भी बेशक अनंत अंतरिक्ष हैं, पर हमें ऐसा लगता नहीं। हमें अपना स्वरूप एक लोकलाइज्ड अर्थात शरीर या मस्तिष्क तक सीमित अंधेरे की तरह लगता है। लगता है कि ब्लैहोल को भी आदमी की तरह भ्रम हो जाता है। इसीलिए अंधेरा बनता है। है वही परम उर्जा परमात्मा पर उसका प्रकाश गायब महसूस होता है। वह डार्क मैटर है। इससे उसी परम प्रकाश परमात्मा में तरंग को बनने और बढ़ने की प्रेरणा मिलती है, आदमी की अंधेरी आत्मा में मनतरंग की तरह।
दुनियादारी को बढ़ाती हुई डार्क एनर्जी सृष्टि को मुक्ति के लिए ही फैलाती है, क्योंकि उसे पता है कि मुक्ति की ओर रास्ता दुनिया में से होकर ही गुजरता है। अगर ब्लैकहोल बाहर के पिंड को बहुत ज्यादा ताकत से न खींचे तो वह उसके सर्फेस पे ही रहेगा और शायद अक्सर विकिरण ज्वाला के रुप में बाहर निकल जायेगा। ऐसे ही आदमी भी अगर बहुत आसक्ति से दुनिया को न भोगे तो वह उसके मन में गहरी नहीं बैठती, और योग आदि से आसानी से खत्म हो जाती है। उसके साथ अंदर दबी हुई और दुनिया भी बाहर निकल जाती है,  जिससे डार्क मैटर पतला होकर डार्क एनर्जी में बदलता रहता है।

प्रकृति गणित को फॉलो करते हुऐ संतुलन बनाने की कोशिश करती है। यह ऐसे ही है कि प्रकाश की गति हर हालत में एकसमान रखने के लिए प्रकृति को समय की चाल बदलनी पड़ती है। सापेक्षता का सिद्धांत यही कहता है। अब जब ब्लैकहोल का द्रव्यमान अनंत ज्यादा हो गया और वह अनंत सूक्ष्म हो गया, तो आसमान में अनंत आकार का गड्ढा भी बनाना ही पड़ेगा गणित के फार्मूले के अनुसार। ऐसा शायद संभव नहीं है, इसलिए वह झुठमुठ में ही या भ्रम से बनाया जाता है। भ्रम यही कि ब्लैकहोल के कारण मूल अर्थात पितृ अनंत आकाश का प्रकाश गायब कर दिया जाता है। यही डार्क मैटर है। दरअसल यह परमाकाश परमात्मा ही है, पर उसका प्रकाश भ्रम से गायब है, असल में नहीं। इसीलिए यह कोई भौतिक वस्तु न होते हुए भी इसका द्रव्यमान सा होता है। द्रव्यमान इसलिए है क्योंकि इसमें सृष्टि के पदार्थ पहले की तरह विद्यमान हैं, और अंधेरा इसलिए क्योंकि उनसे कोई संपर्क नहीं रहता। इस द्रव्यमान से आकाश में गड्ढा बनता ही है, उसे नहीं टाल सकते। इसीलिए डार्क मैटर ग्रेविटी शो करता है। ग्रेविटी अंतरिक्ष का गुण है, पदार्थ का नहीं, इसलिए उसके संपर्क को नहीं टाला जा सकता। इससे वैचारिक रूप से आइंस्टीन का यह सिद्धांत भी सिद्ध हो जाता है कि अंतरिक्ष का गुण होने के कारण ग्रेविटी अंतरिक्ष के मुड़ने से पैदा होती है। पदार्थ के गुणों का दो किस्म का समूह है। एक समूह पदार्थ के अपने गुणों का है। दूसरा समूह उस अंतरिक्ष के गुणों का है, जिसमें वह पदार्थ स्थित है। पहली केटेगरी में बहुत से गुण हैं जैसे प्रकाश आदि विकिरणों का उत्सर्जन, प्रकाश का परावर्तन व अवशोषण आदि अनेकों। दूसरी केटेगरी में केवल एक ही गुण है, वह है ग्रैविटी। डार्क मैटर में सभी पदार्थ वाले गुणों का गायब रहना और सिर्फ ग्रैविटी गुण का रहना यह अंदेशा जताता है कि ग्रैविटी पदार्थ का नहीं बल्कि अन्तरिक्ष का गुण है। क्योंकि इसमें अंधेरा है, इसलिए अंधे कुएं की तरह इसे मान सकते हैं। हर चीज़ कुएं के अंदर को गिरती है। अंदर गया हुआ प्रकाश बेशक मूल आकाश में ही रहता है, पर अंधेरे के कारण नजर नहीं आता। मतलब वह प्रकाश फिर मूल आकाश की किसी चीज़ से प्रतिक्रिया नहीं करता। इसलिए कई वैज्ञनिक अंदेशा जता रहे हैं कि अंदर गया हुआ प्रकाश इसके दूसरे छोर से निकलकर किसी दूसरे ब्रह्मांड में चला जाता होगा। बात यह भी ठीक है, क्योंकि ब्लैकहोल के अन्दर दूसरा ब्रह्मांड ही है, जो हमारे ब्रह्मांड से बिल्कुल अलग और अछूता है। अनंत आकाश तो दोनों का एक ही है। खेत का कुआं उसी की जमीन पर होता हुआ भी उससे अछूता रहता है। उसके अंदर अपनी अलग ही दुनिया तैयार हो जाती है। इसको ऐसा समझ लो कि गणित के अनुसार अंतरिक्ष में अनंत गड्ढा बनना चाहिए, मतलब एक नया अनंत अंतरिक्ष बनना चाहिए, पर ऐसा संभव नहीं है। जहां पर प्रकृति गणित के फार्मूले पर असल में न चल सके, वहां वह उस पर आभासी रूप में चलती है। इसलिए वह गड्ढा असली न होकर आभासी होता है। क्योंकि गड्ढा किसी चीज़ से भरी जमीन पर बने उस खाली स्थान को कहते हैं, जहां पर उस जमीन की कोई चीज विद्यमान नहीं है, इसलिए आकाश का गड्ढा वह स्थान हुआ, जहां आकाश की कोई चीज नहीं है। इसलिए अनंत आकाश में उसी की चीजों को आभासी रूप में गायब करने से उसमें अनंत गड्ढा बन गया। असल में तो गायब नहीं कर सकते, पर उसका प्रभाव, प्रतिक्रिया आदि गायब कर दी जाती है शायद। यह वैसा भ्रम ही हुआ, जैसा अज्ञान में पड़े आदमी को होता है। मतलब वह खुद प्रकाश और ऊर्जा से भरा परमात्मा ही होता है, पर भ्रम से उसे ऐसा महसूस न होकर बिल्कुल उल्टा महसूस होता है, मतलब परम प्रकाश की जगह परम अंधेरा। इसे यूं कहो कि आभासी रूप में उसका अपना नया अंतरिक्ष बन गया, असल में नहीं। इस तरह से तो अनगिनत अनंत अंतरिक्षों का और उनमें अनंत सृष्टिओं का अस्तित्व सिद्ध होता है। जीवन में आशावादी और सकारात्मक दृष्टिकोण बनाए रखने के लिए ऐसा समझना जरूरी है। अब यह कैसे होता है, इसकी गहराई से जांच पड़ताल तो अंतरिक्ष वैज्ञानिक ही कर सकते हैं। एक संदेह की बात जरूर है कि अगर एक ही स्थान पर प्याज के छिलकों की तरह भीतर ही भीतर असीमित संख्या में ब्रह्मांड होते, तो डार्क मैटर अनंत ग्रैविटी प्रदर्शित करता। पर ऐसा नहीं होता। उसकी ग्रैविटी की भी एक सीमा है। इससे जाहिर होता है कि एक ही स्थान पर ओवरलेपिंग ब्रह्मांडों की संख्या सीमित ही है। यह भी हो सकता है कि असीमित ब्रह्मांड हो, पर उनसे उत्पन्न ग्रैविटी किसी अज्ञात कारणवश सीमित ही रह जाती हो। इसलिए हतोत्साहित होने की जरूरत नहीं है। जीवन अनंत है। ऐसा भी हो सकता है कि डार्क मैटर ऐसी तरंगों का बना हो, जैसी तरंगें हमारे मस्तिष्क में मन के रूप में होती हैं। जैसे मनरूपी आभासी तरंगें ग्रैविटी जैसा गुण दिखाती हैं, वैसे ही वे डार्क मैटर में दिखाती हों, मतलब बिना किसी पदार्थ या द्रव्यमान के ग्रेवीटी। शायद इसीलिए कहते हैं कि इस सृष्टि को परमात्मा अपनी इच्छानुसार चला रहे हैं। डार्क मैटर मतलब परमात्मा का मन। संभावनाएं कई हैं। हम तो कुंडलिनीयोग शक्ति की मदद से विचार प्रयोग ही कर सकते हैं। डार्क मैटर में खुद ही ब्रह्मांड बनना शुरु हो जाता है, क्योंकि उसमें मूल आकाश की सारी ऊर्जा तो होती ही है, पर उस पर पर्दा सा पड़ा होता है। मजबूरन उससे चिंगारियों की तरह मूल तरंगें और मूलकण बाहर को कूदते रहते हैं, जो आगे से आगे ब्रह्मांड बनाने का सिलसिला जारी रखते हैं। यह भ्रमरूप अंधेरा मूल परमात्माकाश से सृष्टि बनाने के लिए उत्तेजक का काम करता है। इसीको भारतीय दर्शन में प्रकृति या महामाया या शक्ति कहा गया है। जो इसके आधार में सत्य और मूल आकाश है, उसे पुरुष या परमात्मा या शिव कहा गया है। इसलिए बहुत से लोग यह संभावना ठीक ही जता रहे हैं कि ब्लैकहोल ब्रह्मांड के निर्माण की फैक्ट्री है। जैसे भ्रम आदमी को अपने आत्माकाश में महसूस होता है, वैसा ब्लैकहोल को तो नहीं होता होगा। बेशक न हो, पर भ्रम लायक भौतिक परिस्थिति तो बनाई ही जाती है, जो एक तारे के अनंत सूक्ष्मता तक सिकुड़ने के रूप में है। इस तरह ब्लैकहोल से ब्रह्मांड और ब्रह्मांड से ब्लैकहोल आगे से आगे बनता ही रहता है। पर पहले क्या बना। यह ऐसा ही प्रश्न है कि पहले मुर्गी बनी या अंडा। पहले ब्लैकहोल बना या ब्रह्मांड। पहले अंधेरा बना या प्रकाश। पहले मूल प्रकृति बनी या दृश्य जगत । पहले व्यष्टि प्रकृति बनी या जीव। इस बारे शास्त्र कहते हैं कि दोनों ही अनादि हैं, और क्रमवार एकदूसरे को बनाते रहते हैं।

कुंडलिनीयोग डार्क मैटर को डार्क एनर्जी में बदलता है

दोस्तो, पिछली पोस्ट में बात हो रही थी कि डार्क एनर्जी मुक्त होने के लिए बाहर भागती है, और डार्क मैटर बंधन में पड़ने के लिए अंदर को सिमटता है। इसलिए योग करना चाहिए ताकि डार्क एनर्जी का अंश मन में ज्यादा बना रहे, और आदमी की मुक्ति की संभावना ज्यादा बनी रहे, अंधेरे को पूरी तरह से तो खत्म नहीं किया जा सकता। साथ में कुल मिलाकर यह निष्कर्ष भी निकलता है कि ब्रह्मांड के अनगिनत ब्लैकहोल धरती के अनगिनत जीवों की तरह हैं। जैसे हरेक जीव के अंदर एक भरापूरा सूक्ष्म ब्रह्मांड है, उसी तरह हरेक ब्लैकहोल के अंदर एक भरापूरा स्थूल ब्रह्मांड है। इस तरह एक ही अनंत आकाश में अनगिनत ब्रह्मांड हैं। जैसे विभिन्न जीवों के मस्तिष्क के भीतर अलग अलग आकार व प्रकार के सूक्ष्म ब्रह्मांड हैं, इसी तरह अलग अलग ब्लैकहोलों के अंदर अलग अलग आकार व प्रकार के स्थूल अर्थात भौतिक ब्रह्मांड हैं।
ब्लैकहोल अपने अंधेरे से ऊब कर बाहर के चमकीले पिंडों को खाने लगता है, ताकि उसके अंदर की चमक बढ़ सके। पर क्षणिक चमक के बाद वह पिंड उसके अंधेरे में प्रविष्ट होकर उस अंधेरे को बढ़ाते ही हैं। कभी लंबे समय तक ब्लैकहोल को कुछ खाने को न मिले, तो वह सूक्ष्मरूप हॉकिंस रेडिएशनस को धीरे धीरे छोड़ते हुए मूल आकाश में विलीन होकर मुक्त भी हो जाता है।

जीव या आदमी भी तो इसी तरह का व्यवहार करता है। वह अपने मन के अंधेरे को कम करने के लिए विभिन्न इंद्रियों के माध्यम से बाहर की दुनिया को ग्रहण करता है। आंखों से दृष्य रूप में, कानों से श्रव्य रूप में, जीभ से स्वाद रूप में, व जननेन्द्रिय से संभोग रूप में दुनिया को ग्रहण करता है। थोड़ी देर तो उसे आनंद के साथ प्रकाश महसूस होता है, पर वह दुनिया भी उसके अंतर्मन के घनघोर अंधेरे में विलीन होकर उसे बढ़ाने का ही काम करती है। शास्त्रों में भी तो यही बारबार कहा गया है कि आदमी जितना भी प्रयास भौतिक सुख प्राप्त करने के लिए करता है, वह उतना ही दुखी होता जाता है। फिर कभी वह दुनियादारी की मोहमाया से बचकर योगाभ्यास करता है। इससे उसके मन का कचरा बाहर निकलता रहता है, जिससे वह कभी काफी साफ होकर मुक्त भी हो ही जाता है।

हो सकता है कि हमारा ब्रह्मांड किसी दूसरे बहुत बड़े ब्रह्मांड के अंदर बहुत बड़े ब्लैकहोल के अंदर बना हो। हमारे ब्रह्मांड में भी जितने ब्लैकहोल हैं, उनमें भी उनके अपने आकार और निगले गए पदार्थों के अनुरूप अलग अलग आकार प्रकार के ब्रह्मांड हैं ही। उनके अंदर भी जो ब्लैकहोल हैं, उनमें भी अलग ब्रह्मांड हैं। इस तरह यह परंपरा बहुत सूक्ष्म आकार के ब्लैकहोल और सूक्ष्म ब्रह्मांड तक जा सकती है, या हो सकता है कि यह परंपरा कहीं खत्म ही न होती हो। पर ब्लैकहोल बनने के लिए तारे का निश्चित द्रव्यमान होना चाहिए। हो सकता है कि दूसरे ब्रह्मांड में वह सीमा और हो या छोटी हो। हमारे ब्रह्मांड की सीमा ब्लैकहोल की बाउंड्री है, इसके बाहर हम नहीं देख सकते क्योंकि उसके बाहर से जो प्रकाश की किरण आती है वह फ्रीली नहीं आती बल्कि ब्लैकहोल की ग्रेविटी के आकर्षण से आती है, इसलिए वह ऐसी अदृश्य तरंग के रूप मे हो सकती है जिसे अभी तक देखा न गया हो। या वह तरंग के रूप में न होकर इंडिविजुअल व वर्चुअल फोटोन कणों के रूप में हो। सबसे बड़ी वजह तो दूरी की लगती है। ब्रह्मांड की सीमा बहुत दूर है। वहां से हम तक आतेआते प्रकाश किरण इतनी क्षीण हो जाती होगी कि पकड़ में ही न आए। इसके विपरीत, ऐसा लगता है कि हम न तो ब्लैकहोल से बाहर जा सकते हैं और न ही इसके बाहर से कुछ प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि यह पहले से ही अनंत आकाश है और अनंत का कभी अंत नहीं होता है। इससे ऐसा भी लगता है कि ब्रह्मांड में पदार्थों की मात्रा सीमित व निर्धारित है। वही बारंबार चक्रवत प्रकट व अप्रकट होती रहती है। ऐसा भी हो सकता है कि जब ब्लैकहोल में ब्रह्मांड बनने लग जाए, तब वह अपनी ग्रेविटी छोड़ देता हो या कम कर देता हो, क्योंकि तब उसमें बिगबैंग से ब्रह्मांड बाहर की तरफ़ फैल रहा होता है। ग्रेविटी वैसी ही रहे, तब भी उसका प्रभाव नहीं दिखेगा, क्योंकि बिगबैंग का धक्का भी बाहर की तरफ लग रहा होगा। यह शायद तब होगा जब ब्लैक होल का डार्क मैटर डार्क एनर्जी में रूपांतरित हो जाएगा। यही डार्क एनर्जी बिगबैंग के बाद सभी पदार्थों और पिंडों को एकदूसरे से दूर धकेलती रहती है, जिससे ब्रह्मांड गुब्बारे की तरफ फूलता रहता है। आदमी में भी तो ऐसा ही घटित होता है। जब वह दुनियादारी से थक जाता है, तो सारी दुनिया को अपने मन के अंधेरे में समेट लेता है। कुछ समय के लिए वैसा ही रहता है। फिर किसी कारणवश योग की तरफ मुड़ता है। योग से उसके मन का अंधेरा कम हो जाता है, या हल्का पड़ जाता है। उसे मन में खाली खाली सा महसूस होता है। उससे प्रेरित होकर वह फिर से अपने मन की दुनिया को बढ़ाने में लग जाता है। ब्लैकहोल से शायद हॉकिंस रेडिएशन बाहर निकलने से या अन्य किसी निकासी से उसका डार्क मैटर हल्का होकर डार्क एनर्जी में बदल जाता है। फिर उसके अंदर बिगबैंग और ब्रह्मांड का विस्तार शुरु हो जाता है।

आदमी ब्लैकहोल से बहुत ज्यादा समानता रखता है। जो आदमी जितनी ज्यादा सूचनाओं से भरा होता है, उससे उसके मरने के बाद उतना ही बड़ा ब्लैकहोल बनता है। उससे फिर वे सूचनाएं प्रकट हो जाती हैं उसके पुनर्जन्म के रूप में। मुझे लगता है कि मरने के बाद उसके पुराने जीवन को समेट कर रखने वाला डार्क मैटर कुछ समय वैसा ही रहता है। फिर समय की चाल से वह डार्क एनर्जी में तब्दील हो जाता है। वह उसकी मानसिक दुनिया को बढ़ाना चाहती है, पर उसके लिए पहले किसी जीव के शरीर में जन्म लेना जरूरी होता है। इसे नए सूक्ष्म ब्रह्मांड का निर्माण कह सकते हैं। आगे जाकर वह किसी अन्य मनुष्य जीवन का निर्माण भी करता है, किसीको रोजगार देकर, या किसीको शिक्षा देकर। कोई अपने पुत्र के रूप में नए मनुष्य का निमार्ण करता है। मतलब वह आगे भी ब्लैकहोल बनाता है, कोई आदमी कम संख्या में बनाता है, तो कोई ज्यादा। वह पुत्र ब्लैकहोल सूचना के मामले में उससे छोटा ही कहा जाएगा। एक प्रकार से एक सूक्ष्म ब्रह्मांड अपने अंदर के ब्लैकहोल से पुत्र या अन्य आश्रित के रूप में एक नया ब्लैकहोल पैदा करता है। वह भी फिर उस परंपरा को आगे बढ़ाता है। मन में जो सूचनाएं दबी पड़ी हैं, वही ब्लैकहोल है। मतलब अवचेतन मन ही ब्लैकहोल है। वह कभी नहीं रजता। वह ब्लैकहोल की तरह सभी सूचनाओं को खाता रहता है। उसमें आदमी के अनगिनत जन्मों से लेकर अनगिनत सूचनाएं दबी होती हैं। और कहें तो ब्लैकहोल भी बिल्कुल स्थिर नहीं हैं, बल्कि अन्य आकाशीय पिंडों की तरह अंतरिक्ष में चलायमान प्रतीत होते हैं। मतलब उनके चलने से उनके अंदर समाया अनंत अंतरिक्ष भी चलता रहता है। पर इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि जब जीव चलते हैं, उस समय भी तो उनके अंदर समाया हुआ अनंत अंतरिक्ष चल रहा होता है।

कुंडलिनीयोग का संकल्पपुरुष ब्लैकहोल के अन्दर ब्रह्मांड की उत्पत्ति की पुष्टि करता है

अनंताकाश का गड्ढा भी तो वही अनंताकाश हुआ न। उसे दूसरा अनंताकाश कैसे कह सकते हैं। चादर में बना गड्ढा भी उसी चादर से बना है, उसे दूसरी चादर थोड़ी न कहेंगे। सीमित चादर तो सीमित गड्ढा ही बना सकती है। असीमित आकाश में असीमित गड्ढा क्यों नहीं बन सकता। जब छोटे, बड़े द्रव्यमान वाले पिंड आकाश में छोटे, बड़े गड्ढे बना सकते हैं, तो अनंत द्रव्यमान का पिंड अनंत आकाश में अनंत आकार वाला गड्ढा भी बना सकता है। क्योंकि तारे के सिकुड़ने से बनी सिंगुलरिटी का आकार अनंत छोटा है, इसलिए उसका द्रव्यमान भी अनंत ज्यादा है। इसीलिए उससे अंतरिक्ष में अनंत आकार का गड्ढा मतलब ब्लैकहोल बनता है। ब्लैकहोल इसीलिए तो गड्ढा है। मतलब बेशक मूल आकाश में ही है, पर खाली है, अर्थात उसकी सृष्टि से अछूता है। ॐ के आकार को अनंत छोटा कैसे मानेंगे। माना कि अनंत बड़ा आकार तो शून्य आकाश है। पर अनंत छोटा आकार भी तो शून्य आकाश ही है। दोनों के अभासिक अनुभव में अंतर हो सकता है, जैसे पहले वाला परम प्रकाश परमात्मा है, तो बाद वाला परम अंधकार जीवात्मा। मतलब एक मृत तारे से नए आकाश का निर्माण हो गया। इसीलिए तो ब्लैकहोल का आकाश खत्म नहीं होता, क्योंकि उसमें तारे के निरंतर सिकुड़ने से नया अनंत आकाश जो बन गया। पर एक से ज्यादा आकाश का होना असम्भव है, इसीलिए वह अलग अनंत आकाश नहीं बल्कि उसमें अनंत आकार का गड्ढा है। ओम शायद आकाश का नाम और रूप है। क्योंकि ध्वनि एक तरंग है, जो आकाश में हर जगह फैलती है प्रकाश तरंग की तरह। यह अलग बात है कि उसे हर जगह डिटेक्ट नहीं किया जा सकता। वैसे भी शब्द या आवाज को आकाश का गुण कहा गया है। फिर सिर्फ ओम ध्वनि को ही आकाश का रूप क्यों दिया गया है। शायद इसलिए क्योंकि यह सबसे साधारण और आधारभूत है। ओम शब्द तीन अक्षरों अ, उ और म से बना है, जिनका मतलब क्रमशः सृजन, पालन और विनाश है। आकाश भी यही करता है। यह पहले अपने अंदर दुनिया को बनाता है, कुछ समय तक उसको कायम रखता है, और फिर अपने में ही विलीन कर लेता है। मतलब ओम अनंत आकाश का ही नाम है। सटीकता से बोलें तो शायद अनंत गड्ढे का, क्योंकि यही सबसे मूलभूत विचार से बनता है। पर आकाश में गड्ढा, यह बात इतनी सरल नहीं है। कुछ तो रहस्य छिपा है इसमें। फिर तो अगर परमात्मा अनंत आकाश है, तो जीवात्मा उसमें अनंत श्याम गड्ढा। शून्य आकाश में गड्ढा भी कोई विशेष होगा, साधारण नहीं। हम तो आकाश में गढ्ढा नहीं बना सकते। हां एक तरीका है, भ्रम से गड्ढे जैसा दिखा दिया जाए। फिर तो अनंत आकाश भी रहेगा, और उसमें अनंत गढ्ढा भी, दोनों एकसाथ। जीवात्मा तो परमात्मा में ऐसा ही भ्रमपूर्ण है, असली नहीं, जैसा कि शास्त्रों में लिखा है। पर अगर भौतिक आकाश में भी ऐसा भ्रमपूर्ण गढ्ढा बनता है, तब तो सभी पदार्थ और यहां तक कि प्रकाश भी भ्रमित होकर उसमें गिर जाते हैं। जीवात्मा रूपी गड्ढे में भी तो बाहर की दुनिया गिरती रहती है, बेशक सूक्ष्म रूप में। विभिन्न इंद्रियां बाहर से विभिन्न सूचनाएं इकट्ठा करके जीवात्मा का प्रभाव बढ़ाती रहती हैं। बेशक ब्लैकहोल जीवात्मा की तरह भ्रम को महसूस नहीं करते। अंधेरे कुएं की तरफ हरकोई गिरता है, बेशक गिरने वाला महसूस करे या न। अब ये पता नहीं, उस गड्ढे को क्या चीज़ रेखांकित करती है। हो सकता है, आकाश की आभासी अर्थात वर्चुअल तरंग हो। जैसे चादर धागे की बनी है, इसी तरह आकाश भी आभासी धागों या तरंगों से भरा हुआ है। चादर के गड्ढे की खाली जगह में हवा भर जाती है, जो धागे जितनी घनी नहीं है, इसलिए चादर पर रखी गेंद उसके गड्ढे की तरफ़ लुढ़कती है। इसी तरह भारी पिंड के वजन से आकाश के आभासी तानेबाने में गड्ढा बन जाता है। उस गड्ढे की खाली जगह में बाहर के अटूट आकाश की तुलना में कम घना आभासी तानाबाना बुना होता है। इसीलिए आसपास के अन्य छोटे पिंड उस गड्ढे की तरफ़ लुढ़कते हैं, पर हमें ऐसा लगता है कि बड़ा पिंड छोटे पिंड को गुरुत्व बल से अपनी तरफ खींच रहा है। यह ऐसे ही है जैसे हवा उच्च दाब वाले क्षेत्र से निम्न दाब वाले क्षेत्र की तरफ़ बहती है। शून्य आकाश वही एकमात्र है, पर आभासी तरंगों के कारण उसमें आभासी गड्ढा बन जाता है। इसका मतलब है कि अंतरिक्ष में हर समय बनने वाली आभासी तरंगें व कण वस्तुओं पर दबाव डालते हैं। केसीमिर इफेक्ट के प्रयोग में यह सिद्ध भी किया गया है। संभवतः यह दबाव भी पिंडों को आकाश में बने गड्ढों की तरफ़ धकेलने में मदद करता है, जिसे गुरुत्वाकर्षण कहते हैं।
आदमी दरअसल विशेष किस्म का आकाश है। उसका शरीर तो केवल उस आभासी आकाश का निर्माण करने वाली मशीन है, ब्लैकहोल की तरह। आकाश में सदैव आभासी तरंगे बनती, मिटती रहती हैं, पर उन्हें कोई भी, परमात्मा भी अनुभव नहीं करता, ऐसे ही जैसे समुद्र अपनी तरंगों को महसूस नहीं करता। यह समुद्र और उसकी तरंग का उदाहरण शास्त्रों में अनेक स्थानों पर मिलता है। मस्तिष्क भी उसमें वैसी ही आभासी तरंगें बनाता है, पर उसे जीवात्मा अनुभव करता है, और भ्रम में पड़कर अपने पूर्ण परमात्माकाश रूप को भूलकर जीवात्माकाश बन जाता है। इसे ब्लैकहोल की तरह आकाश में अनंत गड्ढा मान लो।
ऐसा लगता है कि फिर ब्लैकहोल के आकाश में ब्रह्मांड नहीं बनेगा। क्योंकि वह आभासी तरंगों का जाल तो बाहरी मूल आकाश में है जिससे पदार्थ बनते हैं, वह ब्लैकहोल में नहीं है या कम है। पर ब्लैकहोल के आकाश में तारे का द्रव्यमान भी एनकोडिड है, शायद डार्क एनर्जी या डार्क मैटर के रूप में। वह नया ब्रह्माण्ड बनाता हो। या ब्लैकहोल के आकाश में दूसरे व हल्के किस्म की आभासी तरंगें पैदा हो जाती हों जो पदार्थ व ब्रह्माण्ड बनाती हों। फिर उसमें भी कभी ब्लैकहोल बनेगा। जो फिर से नया ब्रह्माण्ड बनाएगा। यह सिलसिला पता नहीं कहां रुकेगा। कुंडलिनी योग से तो सिलसिला जल्दी ही रुक जाता है। योगवासिष्ठ में संकल्पपुरुष शब्द कई जगह लिखा आता है। शायद यह आदमी के लिए कहा गया है कि वह ब्रह्मा के मन के संकल्प या स्वप्न का आदमी है, असली नहीं। इसी तरह आदमी जब किसी देवता, गुरु आदि का ध्यान करता है, तो वह उसका संकल्पपुरुष बन जाता है। पर क्या वह संकल्पपुरुष अपना पृथक अस्तित्व महसूस करता है हमारी तरह, यह विचारणीय है। कई सभ्यताओं में मान्यता है कि जबतक किसी पूर्वज को उसके वंशजों द्वारा याद किया जाता है और श्राद्ध आदि धार्मिक समारोहों के माध्यम से पूजा जाता है, वह तब तक स्वर्ग में निवास करता है। इस पर कोको नाम की बेहतरीन एनिमेशन फिल्म भी बनी है। इसका मतलब है कि हम ध्यान से नया अस्तित्व तो नहीं बना सकते, पर यदि पूर्वनिर्मित अस्तित्व का ध्यान करते हैं, तो उसे उससे पोषण प्राप्त होता है। फिर तो यह भी हो सकता है कि एक उच्च कोटि का योगी ब्रह्मा की तरह अपने मन से नए मनुष्य की रचना कर दे। शास्त्रों में ऐसी बहुत सी कथाएं आती हैं। एक ऋषि ने तो अपने विवाहोत्तर विहार के लिए मनोवांछित दुनियावी साजोसामान और प्राकृतिक नजारे अपनी योगशक्ति से पैदा कर दिए थे। यह तो ऐसे ही है जैसे ब्लैकहोल में बिल्कुल अपने पितृ ब्रह्मांड के जैसा एक अन्य ब्रह्मांड का निर्माण होता है। अगर शास्त्रों का संकल्पपुरुष संभव है, तब तो ब्लैकहोल के अंदर ब्रह्मांड की उत्पत्ति भी संभव है।
ब्लैकहोल इसीलिए तो गड्ढा है, क्योंकि वह मूल आकाश की आभासी तरंगों से रहित मतलब खाली है। मतलब बेशक मूल आकाश में ही है, पर खाली है, अर्थात उसकी सृष्टि से अछूता है।हालाँकि, मूल आकाश की आभासी तरंगें अभी भी अपने मूल स्थान पर हैं, लेकिन इसके ऊपर एक नया आकाश भी बन गया है, पर वह मूल आकाश की आभासी तरंगों के प्रभाव से रहित है। यह कैसे हो सकता है। सीधे शब्दों में कहें तो यह केवल एक और एक ही आकाश है, लेकिन इसके अनगिनत रूप एक ही समय में आभासी तरंगों की विविधता के रूप में मौजूद हैं। अद्भुत मामला है। मैं पिछली एक पोस्ट में भी बता रहा था कि एक ही अनन्त आकाश में एक ही स्थान पर अनगिनत ब्रह्माण्ड हो सकते हैं। संभवतः उन सभी की आभासी तरंगें एकदूसरे से अप्रभावित रहती हों। आत्मा के मामले में भी ऐसा ही होता है। एक ही अनंत अंतरिक्ष में असंख्य आत्माएं अर्थात अलग-अलग जीवों के अपनेअपने अनंत अंतरिक्ष हैं, जो विचारों के रूप में एक-दूसरे की आभासी और सूक्ष्म सृष्टिरचनाओं अर्थात ब्रह्मांडों को नोटिस नहीं कर पाते अर्थात उन्हें प्रभावित नहीं कर पाते। जीवों के मामले में तो सभी जीवों की आभासी तरंगें एकसमान स्वभाव की हैं, फिर भी वे एकदूसरे की पहुंच से परे हैं, शायद स्थूल ब्रह्मांडों के मामले में भी ऐसा ही हो, मतलब वर्चुअल तरंगें एकसमान किस्म की हैं, पर एक ही स्थान पर एक ब्रह्मांड अन्य सभी ब्रह्मांडों से पूरी तरह अप्रभावित और कटा हुआ है। दिवंगत जीवात्मा में सबकुछ सूक्ष्म मतलब अनभिव्यक्त रूप में रहता है, इसलिए उसमें अंधेरा है। ब्लैकहोल में भी इसीलिए अंधेरा है। संभवतः यह अंधकारमय अनुभूति ही श्याम ऊर्जा अर्थात डार्क एनर्जी है, कोई भौतिक वस्तु नहीं। इसीलिए ऐसा प्रतीत होता है कि यही तथाकथित सबसे छोटी भौतिक इकाई अर्थात सिंगुलैरिटी अर्थात ओम है। डार्क मैटर कहना ज्यादा बेहतर होगा, क्योंकि इसका द्रव्यमान है, जिसमें गुरुत्व बल है। मुझे तो लगता है कि दोनों एक ही चीज़ है, कभी यह एनर्जी के रूप में व्यवहार करती है, तो कभी मैटर के रूप में, ऐसे ही जैसे आदमी के मन का अंधेरा कभी शांत, हल्का और आनंदप्रद सा प्रतीत होता है, तो कभी घना, भारी और दुखप्रद सा। पहले किस्म के अंधेरे से आदमी योग आदि की तरफ़ मुड़कर दुनिया से दूर भागने की कोशिश करता है, पर दूसरे किस्म के अंधेरे से दुनियादारी को अपनी तरफ आकृष्ट करता है। योग की यह विशेष खासियत है कि यह डार्क मैटर को हल्का करके डार्क एनर्जी में परिवर्तित करने की कोशिश करता है। यह ऐसे ही है, जेसे डार्क एनर्जी में धकेलने का गुण होता है, पर डार्क मैटर में आकर्षित करने का। इसका वर्णन हमें शास्त्रों में मिलता है जब कोई एक ऋषि से पूछता है कि प्रलय के बाद सृष्टि कैसी होती है, तो ऋषि कहते हैं कि इतना घनीभूत अंधेरा होता है कि अगर कोई चाहे तो उसे मुट्ठी में भर ले। यह डार्क मैटर की बात हो रही है, क्योंकि पदार्थ ही मुट्ठी में भरा जा सकता है, खाली आसमान नहीं। मुझे तो लगता है कि बेशक यह साधारण पदार्थ नहीं होता पर उसके जैसा सॉलिड महसूस होता है, वैसे ही जैसे क्वांटम कण दरअसल पदार्थ नहीं तरंगरूप होते हैं, पर पदार्थ के जैसा व्यवहार भी करते हैं।

चंद्रयान-3 प्रक्षेपण हेतु शुभकामनाएं

कुंडलिनीयोगानुसार ओम ॐ ही वह सिंगुलेरटी है जिसमें ब्लैकहोल समा जाता है

ब्लैकहोल में जो भी पदार्थ रूपी सूचना जाती है, वह नष्ट या अज्ञात रूप में रहती है। उसी तरह आदमी का अवचेतन मन भी उसकी सभी विचाररूपी सूचना को अनादिकाल से लेकर अपने अंदर नष्ट रूप में संजोकर रखता है। जब उन विचारों को साक्षीभाव साधना आदि से प्रकट या अभिव्यक्त रूप में वापिस लाया जाता है, तब वे धीरे धीरे ढीले होकर परमात्मा में विलीन होने लगते हैं। जब सभी विचार विलीन हो जाते हैं, तो जीवात्मा या सूक्ष्मश्रीर मुक्त हो जाता है। संभवतः ब्लैकहोल से भी इसी तरह बारबार स्थूल सृष्टि बनते रहने से वे सूचनाएं ढीली होती रहती हैं और अंत में महाकाश रूपी परमात्मा से एकाकार हो जाती हैं और पुनः कभी वापिस नहीं आतीं। मतलब ब्लैकहोल मुक्त हो जाता है। यहां एक पेच है। बारबार स्थूल सृष्टि बनने से ब्लैकहोल मुक्त नहीं होता, जैसे आदमी बारबार जन्म लेने से खुद मुक्त नहीं हो जाता। जब ब्लैकहोल से सूचनाएं सूक्ष्मरूप में लगातार बाहर निकलती रहती हैं, उन्हीं के रूप में वह महाकाश में विलीन होता है, सीधा नहीं। संभवतः वे सूक्ष्म सूचनाएं ही हॉकिंस रेडिएशन हैं, जिनके रूप में कभी पूरा ब्लैकहोल विलीन हो जाएगा। बेशक इसमें बहुत ज्यादा समय लगता है। जीव की मुक्ति में भी कम समय कहां लगता है। ब्लैकहोल से हॉकिंस रेडिएशन भी निकलती रहती हैं, और वह साथसाथ में नई सृष्टि भी बनाता रहता है, बेशक नई सृष्टियों का आकार धीरे धीरे घटता जाता है। इसी तरह आदमी की साक्षीभाव साधना भी कम या ज्यादा रूप में चलती रहती है, और साथसाथ में उसके नए नए जन्म भी होते रहते हैं, बेशक आगे आगे के जन्म में मन के विचारों का शोर कम होता जाता है, अहंकार घटता जाता है।
विज्ञान कहता है कि ब्लैकहोल के अंदर जितना पदार्थ घुसता जाएगा, उसका गुरुत्व बल उतना ही बढ़ता जाएगा, और उसके बाहर की एकरीशन डिस्क उतनी ही मोटी होती जाएगी। पहले मैंने सोचा कि ऐसा कैसे हो सकता है कि जब नया अनंत आकाश बन गया, तब तो उसमें घुसे हुए पदार्थ अनंत आकाश में फैल जाने चाहिए, और उनका प्रभाव एकरीशन डिस्क पर नहीं पड़ना चाहिए। साथ में, जब एकबार मूल अनंत आकाश में अनंत गड्ढा बन गया, तब अंदर और पदार्थ घुसने से वह गड्ढा और ज्यादा कैसे बढ़ सकता है, क्योंकि अनंत से बड़ा तो कुछ भी नहीं है। और ग्रेविटी बढ़ने का मतलब ही अंतरिक्ष में गड्ढे की गहराई बढ़ने से है वास्तव में। पर मुझे इसका हल जीवात्मा से इसकी तुलना करने पर मिला। जब पहली बार जीवात्मा रूपी व्यष्टि-अनन्ताकाश बनता है, तो वह नए बने ब्लैकहोल की तरह  होता है। पहली बात, जीवात्मा कैसे बनता है। जब किसी सबसे छोटे जीव में मन का पहला विचार बनता है, तो चिदाकाश अर्थात परमाकाश परमात्मा उसे अपने अंदर महसूस करता है। उस विचार की तरफ़ आसक्त होकर वह तुरंत अपने परमाकाश या महाकाश रूप को भूल जाता है। रहता वह महाकाश ही है, पर भ्रम से अपने परम सत्ता, ज्ञान (सत्य ज्ञान) और आनंद को काफी हद तक भूल जाता है। यह महाकाश के अंदर जीवाकाश की उत्पत्ति हो गई। हालांकि महाकाश परमात्मा बिना परिवर्तन का, वैसा ही, अपने मूलरूप में रहता है। मतलब यह परमात्मा के अंदर जीवात्मा की उत्पत्ति हो गई। अब ब्लैकहोल पर आते हैं। मूलाकाश के अंदर किसी बड़े तारे का ईंधन खत्म हो गया। तो उसके अंदर की तरफ़ के गुरुत्व बल का मुकाबला करने के लिए बाहर की तरफ़ का गर्म गैसों का बल नहीं रहता। इससे वह अपने भीतर ही भीतर लगातार सिकुड़ कर सबसे छोटे संभावित रूप तक पहुंच जाता है। मुझे तो लगता है कि वह रूप मन का सबसे सूक्ष्म विचार ही है। क्योंकि उसके सामने तो प्रोटोन, इलेक्ट्रॉन आदि मूलकण भी स्थूल ही है। सबसे छोटा विचार ॐ की मानसिक आवाज है। इसका प्रमाण यह है कि इसके साथ आत्मा को अपने पूर्ण रूप का सबसे कम भ्रम पैदा होता है। यहां तक कि भ्रम खत्म भी होने लगता है। इसीलिए ब्रह्मज्ञानी व पूर्ण योगियों के मुंह से ॐ का उच्चारण अनायास ही होता रहता है। दूसरे विचार तो जितना बढ़ते रहते हैं, भ्रम भी उतना ही बढ़ता रहता है। तो सबसे छोटी चीज ओम ध्वनि हुई। जीवात्मा की उत्पत्ति भी संभवतः ॐ से ही होती है, क्योंकि यत्पिंडे तत् ब्रह्मांडे। स्थूल वस्तु आकाश में छेद नहीं कर सकती। अगर ऐसा होता तो हरेक पत्थर एक अलग जीव या जीवात्मा होता, हरेक मूलकण जिंदा होता, और अपना अलग से अनंत आकाश वाला पृथक अस्तित्व महसूस करता। पर ऐसा नहीं होता। केवल मन का विचार ही आकाश में छेद कर सकता है। इसीलिए जितने शरीर अर्थात मस्तिष्क या मन हैं, उतने ही अनंताकाश रूपी जीव हैं। इसीलिए नया ब्रह्मांड बनाने के लिए मन की जरूरत पड़ती है, क्योंकि वह तभी बनेगा जब आकाश में छेद होगा। ॐ वही सूक्ष्मतम मन है। इसीलिए कहते हैं कि ईश्वर या ब्रह्मा के संकल्प या विचार से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई। तारे से बने ओम से उसके दायरे का मूलाकाश अपना मूलरूप भूलकर नया ही पूर्ण आकाश बन जाता है। हालांकि मूलाकाश वैसा ही रहता है। इसीको विज्ञान की भाषा में कहा गया है कि तारे से बनी सिंगुलरिटी से अंतरिक्ष में अनंत गहराई का गड्ढा बन जाता है। शायद ॐ को ही विज्ञान में सिंगुलरिटी कहा गया है, क्योंकि पता ही नहीं कि वह क्या है। बस यह अंदाजा लगाया है कि वह सबसे छोटी चीज है। सम्भवतः हमने सिद्ध कर दिया कि वह सबसे छोटी चीज ॐ ही है। फिर कहते हैं कि उसी सिंगुलरीटी में विस्फोट से सृष्टि का निर्माण फैलने लगता है। शास्त्रों में भी यही कहा है कि ॐ से सृष्टि की उत्पत्ति होती है। इस सबसे यह अर्थ भी निकलता है कि एक छोटे से विचार में भी सैंकड़ों सूर्यों के बराबर द्रव्यमान समाया हुआ है, इसी वजह से तो वह मूल आकाश की त्रिआयामी चादर में इतना बड़ा गड्ढा कर देता है कि एक नया ही आकाश बन जाता है, मतलब एक नया स्वतंत्र जीव रूपी नया स्वतंत्र ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आ जाता है। पर यह आश्चर्य की बात है कि ब्रह्माण्ड की रचना कर सकने वाला जीव कैसे दयनीय, और परतंत्र सा बना रहता है। तो अगर कल को वार्प ड्राइव बनी, तो वह ऐसी ही कोई ॐ मशीन होगी, जो आकाश को जितना चाहे मोड़कर अन्तरिक्ष की सैर करवाएगी। हो सकता है कि एलियंस ऐसी ही मशीन की सहायता से धरती पर आते हों। तथाकथित यूएफओ क्रैश के बाद एलियन से साक्षात्कार के मामले से जुड़े लोग दावा करते हैं कि एलियंस के पास आध्यात्मिक तकनीकें होती हैं, और वे योगी की तरह अपने असली रूप को अच्छे से पहचानते हैं। उनके लिए धरती की मानव सभ्यता एक बंदरों की सभ्यता की तरह है। फिर
उत्पत्ति के बाद जीवात्मा अपना दायरा बढ़ाता है। वह आंख, कान आदि विभिन्न इंद्रियों से सूचनाएं ग्रहण करता रहता है, और बढ़ता रहता है। यह ऐसे ही है जैसे ब्लैकहोल बाहर के पदार्थ निगलता रहता है, और अपना द्रव्यमान बढ़ाता रहता है। जीवात्मा जितना महान होता है, उसके प्रभाव का दायरा भी उतना ही बड़ा होता है। जहां कीड़ों मकोड़ों का दायरा कुछ इंच या फीट तक होता है, वहीं महापुरुषों के मन के अंदर इतनी ज्यादा सूचनाएं होती हैं कि उनके प्रभाव का दायरा पूरे राष्ट्र या विश्व तक फैला होता है। पूरी दुनिया से लोग उनकी तरफ़ खिंचे चले आते हैं। उनके प्रभाव के दायरे की तुलना ब्लैकहोल की इकरीशन डिस्क से की जा सकती है।
ओम से सृष्टि बनती रहती है और उसमें समाती भी रहती है। कभी केवल एक तारे की जगह पूरी सृष्टि का द्रव्यमान सिकुड़कर ॐ के अंदर समा जाएगा। इसे परम ब्लैकहोल का बनना कहेंगे। उसे निगलने के लिए कुछ मिलेगा ही नहीं। इससे वह जल्दी ही भूखा मर जाएगा, मतलब फ़िर वह ॐ भी परमाकाश परमात्मा में समा जाएगा। इसे प्रलय कहते हैं। लंबे समय तक प्रलय बनी रहेगी। फिर सृष्टि के आरंभ में सारी पुरानी सृष्टि का द्रव्यमान समेटे हुए ॐ पुनः प्रकट हो जाएगा। उसमें बिग बैंग या महाविस्फोट होगा और सृष्टि की रचना पुनः प्रारंभ हो जाएगी। यह प्रक्रिया बारंबार दोहराई जाती रहती है।
अब कई लोग कहेंगे कि ब्लैकहोल ने तो ब्रह्मांड की तुलना में नगण्य सा ही पदार्थ निगला होता है, उससे इतना बड़ा नया ब्रह्मांड कैसे बन सकता है। पर भई अनन्त आकाश तो बन ही गया होता है। उसमें नए पदार्थ खुद भी तो बन सकते हैं। पुराने ब्रह्मांड से निगले हुए पदार्थ तो सिर्फ एक शुरुआत करते हैं। यह ऐसे ही है जैसे एक बच्चा अपने पिछले जन्म की सूचनाएं बहुत सूक्ष्म रूप में लाया होता है, जो कि पिछले पूरे जन्म की तुलना में नगण्य जितनी दिखती है। फिर वह बाहर से भी कुछ सूचनाएं इकट्ठा करता है, वह भी नगण्य जैसी ही होती हैं। अधिकांश सूचनाएं तो वह खुद अपने अंदर तैयार करता है अपनी रचनात्मकता से, अपने कर्मों से। इसी तरह सबसे पहले बनने वाले सूक्ष्म जीव में सिर्फ सूक्ष्मतम ओम विचार होता है, पर विकास करते करते वह ब्रह्मा भी बन जाता है, जिसमें पूरा ब्रह्माण्ड समाया होता है। इससे तो यह मतलब भी निकलता है कि ब्लैकहोल चाहे कितना ही छोटा क्यों न हो, वह बड़ा से बड़ा ब्रह्मांड बना सकता है, क्योंकि वह अनंत आकाश के रूप में अनंत आकार का बर्तन बना लेता है। और जहां बर्तन है, वहां बारिश का पानी भी इकट्ठा हो ही जाता है।

कुंडलिनी योग के अभ्यास से हमारा ब्रह्मांड भी एकदिन मुक्त हो जाएगा

दोस्तों पिछली पोस्ट में बात हो रही थी कि कैसे आदमी को मुक्ति के लिए प्रकृति की चाल के उलट चलना पड़ता है। प्रकृति ने झूठ का सहारा लेकर ही जीवविकास किया, जो आज आदमी के लगभग उच्चतम विकास तक पहुंच गया है। पर अब इस कुदरत के झूठे प्रवाह पर रोक लगाने की जरूरत है, प्रकृति के झूठ यानि मोहमाया को उजागर करने की जरूरत है, सच का सहारा लेने की जरूरत है। ऐसा सब मिलजुल कर करे तो ज्यादा अच्छा होगा, क्योंकि मुक्ति की जरूरत सबको है। ऐसा साक्षीभाव या विपश्यना से ही संभव है, जो योग के दौरान ही सबसे ज्यादा प्रभावपूर्ण है। इस पोस्ट में हम ब्लैकहोल की मदद से आदमी की मुक्ति को समझाएंगे। आदमी के बारे में यह कोई नहीं बोलता कि जितने आदमी है, उतने अंतरिक्ष या ब्रह्मांड क्यों हैं, सिर्फ भौतिक अंतरिक्षों की ही खोज होती रहती है। हरेक आदमी एक अनंत अंतरिक्ष है, जिसमें अपने अलग ही किस्म का ब्रह्मांड है। कहीं सभी अनेकों जीव, एक ही अनंत आकाश में अनेक गड्ढे या ब्लैकहोल तो नहीं हैं। एक ब्लैकहोल से एक नया अनंत अंतरिक्ष बन जाता है। मूल अंतरिक्ष वैसा ही रहता है। उसमें कोई कमी नहीं आती। विज्ञान कहता है कि एक ब्लैकहोल से अंतरिक्ष अनंत रूप में मुड़ जाता है, मतलब अंतरिक्ष का वह गड्ढा कभी खत्म नहीं होता। इसीलिए उसमें गया हुआ प्रकाश कभी मुड़कर वापिस नहीं आता। वह आगे से आगे ही उस नई दिशा में जाता रहता है। मूल अंतरिक्ष में कोई कमी नहीं आती, क्योंकि वह अनंत विस्तृत त्रिआयामी चादर की तरह है। जीवात्मा के बारे में भी शास्त्रों में ऐसा ही कहा गया है कि वह अनंत व पूर्ण है, वह जिस परमात्मा से निकलती है, वह भी अनंत और पूर्ण है, फिर भी उसके निकलने से मूल अनंत अंतरिक्ष में कोई कमी नहीं आती। यह एक मंत्र है,”ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदम…..” , जो एक पुरानी पोस्ट में भी लिखा था। लोग कहते हैं कि इतनी जीवात्माएं कहां से आती हैं, कहां जाती हैं आदि। यह ऐसा ही प्रश्न है कि इतने ब्लैकहोल कहां से आते हैं और कहां जाते हैं। दोनों ही असीम और एकजैसे हैं। जब एकबार कोई जीवात्मा परमात्मा से निकल कर अपना सफर शुरु करती है, तो वह अपने अंदर सूचना इकट्ठी करती जाती है। पर चिदाकाश में शुरुआती गड्ढा करने वाली वैसी सूचना कहां से आती है, जैसे तारे का द्रव्यमान ब्लैकहोल का गड्ढा बनाता है। यह आगे बताएंगे। विज्ञान भी कहता है कि सूचना कभी नष्ट नहीं होती, वह कभी प्रकट और कभी अप्रकट हो जाया करती है। इस तरह जीवात्मा सूचनाओं के जाल में फंस कर रह जाती है, और बारबार जन्मती और मरती रहती है। अंत में कभी वह योग आदि से अपनी मनरूपी सूचनाओं को परमात्मा में मिला देती है, और वह मुक्त हो जाती है। वे सूचनाएं नष्ट नहीं होतीं, पर परमात्मा से एकाकार हो जाती हैं। नष्ट होते रहने से तो वे फिर से उसी रूप में पैदा होती रहती हैं। मतलब साफ़ है कि मरने के बाद आदमी फिर से जन्म लेता है। पर जो योगी मरता ही नहीं, क्योंकि वह शरीर नष्ट होने से पहले ही योग से अपने मन को परमात्मा में मिला लेता है, वह फिर से जन्म नहीं लेता। सबका मूल अंतरिक्ष जो सबकुछ खत्म होने पर भी बचा रहता है, वही परमात्मा है।

तारे के साथ भी ऐसा ही घटित होता है। उसके नष्ट होने से उसकी सूचना अर्थात उसका मैटीरियल नष्ट नहीं होता, अपितु ब्लैकहोल के रूप में सूक्ष्मरूप में एनकोड हो जाता है। ग्रेविटी से जो और सूचनाएं भी उसके अंदर समाती रहती हैं, वे भी एनकोड होती रहती हैं। ब्लैकहोल के अंदर किसी दूसरे तारे या ब्रह्मांड के जन्म के रूप में वे सूचनाएं फिर से प्रकट हो जाती हैं। कभी वे फिर नष्ट होती हैं, और फिर पुनः प्रकट हो जाती हैं। यह सिलसिला चलता रहता है। कभी ऐसा जरूर होता होगा, जब वे सूचनाएं परमात्मा अर्थात मूल या पितृ अनंत आकाश में विलीन हो जाती हों, नष्ट न होकर। उसे ही शायद तारे की मुक्ति कहा जाए। अभी वैज्ञानिकों को शायद ऐसा कुछ नहीं मिला है, क्योंकि वे अभी तक यही मानकर चले हैं कि सूचना कभी खत्म या नष्ट नहीं होती। वे भी ठीक हैं क्योंकि नष्ट तो अंत में भी नहीं हुई, मूल अंतरिक्ष से एकाकार ही हुई। पर शायद यह पता नहीं चला है कि वह सूचना फिर मूल अंतरिक्ष से कभी वापिस नहीं आएगी, अन्य नई सूचनाएं बेशक आती रहें। पर मनोवैज्ञानिक सिद्धांत तो कहता है कि सूचनाएं कभी पूरी तरह से नष्ट भी हो सकती हैं। बिना पृथक चिह्न या एनकोडिंग के रूप में, अर्थात पृथक अस्तित्व के बिना, परमसूक्ष्म मूलरूप में रहना सूचना का नष्ट होना नहीं है, बल्कि यह भी सूचना का पृथक रूप से अप्रकट होना ही है, जहां से वह पहले सूक्ष्म और फिर स्थूलरूप में प्रकट हो जाती है। इसका मतलब है कि कभी इस ब्रह्मांड की सभी सूचनाएं, लौकिक भाषा में कहें तो नष्ट हो जाएंगी। फिर एक बिल्कुल नया ब्रह्मांड बनेगा, जिसमें सभी सूचनाएं नई होंगी। अब पता नहीं कि किस रूप में होंगी। मतलब कि ब्रह्मांड अनगिनत किस्म व रूपाकार के हो सकते हैं। यानी अनगिनत संसारों के रूप में अनगिनत द्रव्यमान और ऊर्जा उस अंतरिक्ष से निकल सकती है, जिसका कोई मूल नहीं है, क्योंकि अंतरिक्ष स्वयं द्रव्यमान और ऊर्जा का अनंत रूप है, अनंत से अनंत निकल रहा है, इस तरह से भी सब कुछ संरक्षित ही है, सब कुछ हमेशा अनंत ही है। मतलब ब्रह्मांड भी कभी कुंडलिनी योग करेगा, और मुक्त हो जाएगा। फिर नए ब्रह्मांड की वह जाने। मतलब कभी ऐसा समय आएगा कि ब्रह्मांड ब्लैकहोल के रूप में एनकोड न होकर महाकाश में पूरी तरह समा जाएगा, मतलब ब्रह्मांड या ब्रह्मा की मुक्ति। शास्त्रों में भी कहा गया है कि ब्रह्मा की भी एक निश्चित आयुसीमा होती है, जिसके बाद वह मुक्त हो जाता है, मरता नहीं है। पर मैंने शास्त्रों में यह नहीं पढ़ा कि ब्रह्मा भी आम आदमी की तरह बारबार जन्मता और मरता है, ब्रह्माण्ड की तरह। आत्मविकास की सीढ़ियां चढ़ते हुए चींटी भी ब्रह्मा बन सकती है। शायद ब्रह्मा के जन्ममरण को इसलिए नहीं दिखाया गया है क्योंकि वह ब्रह्मांड से ऐसे बद्ध नहीं है, जैसे आम जीव अपने शरीर से होता है। ब्रह्मा तो हमेशा मुक्त ही है। शायद ब्रह्मांड की मुक्ति को ही ब्रह्मा की सांकेतिक मुक्ति कह दिया गया हो। यह भी हो सकता है कि ब्रह्मा ब्रह्मांड के साथ बहुत कच्चे बंधन से जुड़ा होता हो। जब ब्रह्मांड एनकोड हो जाता है, तो वह ब्रह्मा मुक्त हो जाता है, और एनकोडिड ब्रह्मांड के साथ नया स्तरोन्नत ब्रह्मा जुड़ जाता है, अगली बार के लिए। वैसे भी ब्लैकहोल के अंदर जो ब्रह्मांड बनता है, वह मूल ब्रह्मांड से छोटा ही होगा। वैसे ऐसा नहीं भी हो सकता, क्यों, यह आगे बताएंगे। इसका मतलब कि उसके तारे भी आगे से आगे छोटे होते जाएंगे। ब्लैकहोल की एक ऐसी पीढ़ी आएगी, जिसके अंदर के ब्रह्मांड के तारे इतने छोटे हो जाएंगे कि वे ब्लैकहोल नहीं बना पाएंगे। फिर तो ब्रह्मांड एनकोड न होकर मूल आकाश में विलीन हो जाएगा, मतलब मुक्त हो जायेगा। एक प्रकार से ऐसा समझ सकते हैं कि ब्रह्मांड लगातार कुंडलिनी योग के अभ्यास से अपने अंदर से सूचनाओं का कचरा हटाता गया। एक स्तर पर उसका कचरा इतना कम हो गया कि वह उससे दुबारा जन्म नहीं ले सका, बल्कि सीधा मुक्त हो गया। मतलब कि जैसे आदमी योगसाधना से मुक्त होता है, उसी तरह ब्रह्मांड भी। वैसे भी जो तारे एक निश्चित द्रव्यमान से कम द्रव्यमान के होते हैं, वे ब्लैकहोल नहीं बना सकते और आकाश में विलीन हो जाते हैं मतलब मुक्त हो जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार राजा खटवांग ने ढाई घड़ी मतलब एक घंटे के अंदर मुक्ति प्राप्त कर ली थी, जब उन्हें पता चला था कि वे एक घंटे में मृत्यु को प्राप्त हो जाएंगे। एक घंटे में तो कोई मन का सारा कचरा खत्म नहीं कर सकता। हां इतना कम जरूर किया जा सकता है, जिससे बंधन और पुनर्जन्म न होए। राजा खटवांग को एक बड़े द्रव्यमान का तारा मान लो। उन्होंने किसी अन्य पिंड आदि से अपने को टकराकर अपना द्रव्यमान उस सीमा के नीचे कर दिया, जितना ब्लैकहोल बनाने के लिए जरुरी है। उस टकराव को आप कोई भी ऊर्जासंपन तीव्र योगसाधना समझ सकते हो। इसीलिए योग करते रहना चाहिए, चाहे जागृति मिले या न। भगवान श्रीकृष्ण ने भी योग को ही सर्वाधिक महत्त्व दिया है और अर्जुन को कहा है कि हे अर्जुन, तू योगी बन। क्योंकि मनोवैज्ञानिक सिद्धांत कहता है कि जब आदमी के मन का सूचना का कचरा अर्थात अहंकार एक निश्चित सीमा के नीचे पहुंच जाएगा, तो वह जरूर मुक्त हो जाएगा, जैसा कि एक तारे के साथ भी होता हुआ हमने बताया। अगर मुक्ति के लिए सिर्फ जागृति ही जरूरी होती, तब तो दुनिया में उथलपुथल मच गई होती। इतने कम लोगों की मुक्ति से इतनी सारी जीवात्माओं का जीवनप्रवाह रुक सा गया होता।

कुंडलिनी योग डीएनए को सूक्ष्म शरीर और डार्क एनर्जी या डार्क मैटर के रूप में दिखाता है

सूक्ष्म शरीर पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेंद्रियों, पांच प्राण, एक मन और एक बुद्धि के योग से बना है। 

यह सूक्ष्मशरीर ही परलोकगमन करता है, हाड़मांस से बना स्थूलशरीर नहीं। कोई बोल सकता है कि जब स्थूल शरीर नष्ट हो गया, तब ये इन्द्रियां, प्राण आदि कैसे रह सकते हैं, क्योंकि ये सभी स्थूलशरीर के आश्रित ही तो हैं। यही तो ट्रिक है। इसे आप लेखन की वर्णन करने की कला भी कह सकते हैं। लेखक अगर चाहता तो सीधा लिख सकता था कि शरीर और उसके सारे क्रियाकलाप उसके सूक्ष्मशरीर में दर्ज हो जाते हैं। पर यह वर्णन आकर्षक और समझने में सरल न होता। क्योंकि शरीर और उसके सभी क्रियाकलाप उसके मन, बुद्धि, कर्मेंद्रियों, ज्ञानेन्द्रियों, और पांचोँ प्राणों के आश्रित रहते हैं, इसलिए कहा गया कि सूक्ष्मशरीर इन पांचोँ किस्म की चीजों से मिलकर बना है। मुझे तो ऐसा अनुभव नहीं हुआ था। मुझे तो ये चीजें सूक्ष्मशरीर में अलगअलग महसूस नहीँ हुई, बल्कि एक ही अविभाजित अंधेरा महसूस हुआ, जिसमें इन सभी चीजों की छाप महसूस हो रही थी। मतलब साफ है कि सूक्ष्मशरीर अनुभवरूप अपनी आत्मा के माध्यम से ही चिंतन करता है, आत्मा से ही निश्चय करता है, आत्मा से ही काम करता है, आत्मा के माध्यम से ही सभी इन्द्रियों के अनुभव लेता है, और आत्मा से ही दैनिक जीवन के सभी शारीरिक क्रियाकलाप करता है। मतलब सूक्ष्मशरीर में जीव के पिछले सभी जीवन पूरी तरह से दर्ज रहते हैं, जिनको वह लगातार आत्मरूप से अपने में अनुभव करता रहता है। ये अनुभव स्थूल शरीर की तरंगों की तरह बदलते नहीं। एक प्रकार से ये पिछले सभी जन्मों का मिलाजुला औसत रूप होता है। कई लोग सोचते होंगे कि सूक्ष्मशरीर एक बिना शरीर का मन होता होगा, जिसमें खाली अंतरिक्ष में विचारों की तरंगें उठती रहती होंगी, पर फिर स्थूल और सूक्ष्म शरीर में क्या अंतर रहा। वैसे भी बिना स्थूल शरीर के आधार के स्थूल मन का अस्तित्व संभव नहीं है। उदाहरण के लिए आप अपनी अंगूठी में जड़े हुए हीरे को सूक्ष्मशरीर मान लो। इसमें इसके जन्म से लेकर सभी सूचनाएं दर्ज हैं। कभी यह शुद्ध ऊर्जा था। सृष्टि निर्माण के साथ यह धरती पर वृक्ष बन गया। फिर भूकंप आदि से वृक्ष धरती के अंदर सैंकड़ो किलोमीटर नीचे दब कर कोयला बना। फिर पत्थर का कोयला बना। लाखों वर्षो तक यह भारी तापमान और दबाव झेलता रहा। इसमें अनगिनत परिवर्तन हुए। इसने अनगिनत क्रियाएं कीं। इसने अनगिनत वर्ष बिताए। फिर वह खोद कर निकाला गया। फिर तराशा गया। फिर आपने इसे खरीदा और अपनी अंगूठी में लगाया। ये सभी सूचनाएं इस हीरे में दर्ज हैं। हालांकि हीरे को देखकर हमें इन सूचनाओं का स्थूलरूप में पता नहीं चलता, पर वे सूचनाएं सूक्ष्मरूप में हमें जरूर अनुभव होती हैं, तभी हमें हीरा बहुत सुंदर, आकर्षक और कीमती लगता है। ऐसे ही किसीके सूक्ष्म शरीर के अनुभव से उसका पूरा पिछला ब्यौरा स्थूल रूप में मालूम नहीं होता, पर सूक्ष्मरूप में अनुभव होता है, उसके औसत स्वभाव को अनुभव करके। गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे अर्जुन के पिछले सभी जन्मों को जानते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें अपने मन में दूरदर्शन की तरह सभी दृष्य महसूस हो रहे थे, बल्कि यह मतलब है कि उन सबका निचोड़ सूक्ष्मशरीर के रूप में महसूस हो रहा था। शास्त्रों की शैली ही ऐसी है कि वे अक्सर तथ्यों का पूर्ण विश्लेषण न करके उन्हें चमत्कारिक रूप में रहने देते हैं, ताकि पाठक हतप्रभ हो जाए।
ये अनुभव स्थूलशरीर से लिए अनुभवों से सूक्ष्म होते हैं, हालांकि हमें ऐसा लगता है, सूक्ष्मशरीर के लिए तो वह स्थूल अनुभव की तरह ही शक्तिशाली लगते होंगे, क्योंकि उस अवस्था में जीवित अवस्था के उन विचारों के शोर का व्यवधान नहीं होता, जो अनुभवों को कुंठित करते हैं। साथ में, पिछले सारे जन्मों का अनुभव भी आत्मा में हर समय सूक्ष्म रूप में बना रहता है, जबकि स्थूलशरीर में स्थूल विचारों के शोर में दबा रहता है। हाँ, वह नए अनुभव नहीँ ले सकता, क्योंकि उसके लिए स्थूलशरीर जरूरी होता है। इसलिए उसका आगे का विकास भी नहीँ होता। आगे के विकास के लिए ही उसे स्थूलशरीर के रूप में पुनर्जन्म लेना पड़ता है। मुझे तो सूक्ष्मशरीर डीएनए की तरह जीव की सारी सूचनाएं दर्ज करने वाला लगता है। इसी तरह मुझे डार्क एनर्जी या डार्क मैटर भी स्थूल ब्रह्माण्ड का शाश्वत डीएनए लगता है।

डार्क एनर्जी और सूक्ष्मशरीर की समतुल्यता तभी सिद्ध हो सकती है, अगर उसे हम विभागों में न बांटकर एकमात्र अंधेरभरे आसमान की तरह मानें जिसमें इनके स्थूल रूप की सभी सूचनाएं सूक्ष्म अर्थात आत्म-अनुभवरूप में दर्ज होती हैं। कृपया इसे पूर्ण आत्मानुभव अर्थात आत्मज्ञान न समझ लिया जाए। यह आत्म-अनुभव की सर्वोच्च अवस्था है, जो एक ही किस्म का होता है, और जिसमें कोई सूचना दर्ज नहीँ होती मतलब शुद्ध आत्म-रूप होता है, जबकि सूक्ष्मशरीर वाला आत्म-अनुभव बहुत हल्के दर्जे का होता है, और उसमें दर्ज गुप्त सूचनाओं के अनुसार असंख्य प्रकार का होता है। यह “यत्पिंडे तत् ब्रह्मान्डे” के अनुसार ही होगा।

कुण्डलिनी शक्ति अशुभ व भूतिया घटनाओं से रक्षा करती है

दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि पुराने लोगों को वर्महोल, व्हाइट होल और टेलीपोर्टेशन आदि का पता था, हालांकि अपने तरीके से। उन्हें पता था कि स्थूल शरीर के साथ यह संभव नहीं है, पर सूक्ष्मशरीर के साथ संभव है। इसलिए वे अच्छे कर्मों से अपने सूक्ष्मशरीर को ज्यादा से ज्यादा अच्छा बनाते थे, ताकि वह उन्हें अच्छे ग्रह, सितारे या ब्रह्माण्ड में ले जा सके, क्योंकि उन्हें यह भी पता था कि क्वांटम इनफार्मेशन कभी नष्ट नहीं होती। इसी वजह से हम देखते हैं कि आजकल के बच्चे जन्म से ही हाइटेक होते हैं। वे स्मार्टफोन के बिना खाना भी नहीं खाते। दरअसल उनके हाल ही के पिछले जन्म की हाइटेक सूचना उनके सूक्ष्मशरीर में दर्ज हुई होती है। रही बात शरीर के साथ व्हाइट होल से गुजरना या टेलीपोर्टेशन करना, मुझे तो यह संभव लगता नहीँ है। चलो मान लेते हैं कि किसी चमत्कारिक शक्ति से यह संभव हो गया। फिर भी जाएंगे कहाँ क्योंकि अभी तक कोई भी पूरी तरह से हेबिटेबल अर्थात जीवन के अनुकूल ग्रह नहीँ मिला है। कोई मंगल पर जाने की योजना बना रहा है, कोई चाँद पर। वहाँ बाद में जाएं, पहले ऊँचे हिमालय में जाकर देख लो। तापमान की एक डिग्री की कमी भी कम्पकम्पी दे सकती है और जीवन को जोखिम में डाल सकती है। दूसरे ग्रह पर बाद में जाना, क्योंकि वहाँ तो ऐसी अनगिनत समस्याएं होंगी, वे भी विकराल रूप में। धरती पर ही ऐसे बहुत से स्थान हैं, जिन्हें विज्ञान हेबिटेबल नहीँ बना पा रहा है, अन्य ग्रहों की तो दूर की बात है। उमंग और जोश बनाए रखने में कोई बुराई नहीं है।

वैज्ञानिक अंदेशा जता रहे हैं कि ब्लैक होल में छुपे पदार्थ किसी अन्य आयाम में छिपे ब्रह्माण्ड में जा सकते हैं। अंतरिक्ष के अनगिनत आयाम मतलब अनगिनत कॉपीयां हो सकती हैं, जैसा अभी हाल की एक पिछली पोस्ट में बताया गया है। अब पता नहीं कौन सी कॉपी में जाकर वे पुनः भौतिक रूप में जन्म ले लेते हैं। यह ऐसे ही है जैसे आदमी मरने के बाद पता नहीं कौन सी कॉपी में चला जाता है। हम जीव दूसरी कॉपी मतलब दूसरे जीव में स्थित ब्रह्माण्ड को बिल्कुल भी अनुभव नहीं कर सकते। हालांकि हम दूसरे जीव के शरीर को तो अनुभव कर ही सकते हैं। इसी तरह हम बाहरी अर्थात स्थूल रूप में तो दूसरे ब्रह्माण्ड को जान ही सकते हैं। पर दूसरे ब्रह्माण्ड हमारी पहुंच से परे हैं। यह ऐसे ही है जैसे नार्थ पोल पर बैठा व्यक्ति साऊथ पोल पर बैठे व्यक्ति को नहीं देख सकता।

अब तो यह प्रमाण भी मिला है कि ब्लैक होल में सभी पदार्थ बहुत ज्यादा विस्फोटक दबाव में दबे होते हैं। वे सम्भवतः विस्फोट के साथ बाहर निकलना चाहते हों, क्योंकि कोई भी वस्तु हो या व्यक्ति, दबाव में रहना पसंद नहीं करते। हवा, पानी आदि चीजें उच्च दबाव के क्षेत्र से निम्न दाब क्षेत्र की तरफ भागते हैं। काम के बेवजह दबाव की वजह से हर साल हजारों-लाखों कर्मचारी अपनी कम्पनियाँ बदलते हैं, अन्यथा बीमार पड़ जाते हैं। पर ब्लैक होल के वे दबे पदार्थ ब्लैकहोल के गुरुत्व बल को भगाकर बाहर नहीं भाग पाते। यह ऐसे ही है जैसा मैं हाल की एक पिछली पोस्ट में सूक्ष्मशरीर रूपी प्रेतात्मा के बारे में बता रहा था। हालांकि कुछेक मामलों में ब्लैक होलों को थोड़े-बहुत पदार्थ उगलते हुए देखा गया है। इसी तरह प्रेतात्मा भी विरले मामलों में डरावने रूप बनाकर लोगों को डरा सकते हैं। इन्हें भटकी हुई आत्माएं कहते हैं। ये उनके साथ ज्यादा होता है, जो अकाल मृत्यु से मरते हैं। अकालमृत्यु मतलब पूरी दुनियावी मायामोह में डूबे आदमी की अचानक मृत्यु। दुनिया के प्रति आसक्ति और द्वैत भाव वाले आदमी के साथ भी ऐसा हो सकता है। इसमें आदमी को अपने मानसिक ब्रह्माण्ड को हल्का और छोटा करने का मौका ही नहीं मिलता। इससे उनका सूक्ष्म शरीर अचानक से बहुत ज्यादा दबाव के साथ बन जाता है। उसी दबाव के कारण वे आभासी जैसे डरावने रूप बनाते रहते हैं। यह पता नहीं कि कैसे। कईयों में अच्छे संकल्पों का दबाव ज्यादा होता है, इसलिए उन्हें स्वर्ग का अनुभव होता है। कईयों में बुरे संकल्पों का दबाव ज्यादा होता है इसलिए वही संकल्प नर्क के अनुभव के रूप में बाहर को स्फुटित होते रहते हैं। वैसे तो प्रेतात्मा अँधेरे के रूप में रहती है। उसमें कोई संकल्प-विकल्प नहीँ होते। पर संकल्प-विकल्प उसमें आत्मा के अँधेरे के रूप में छिपे होते हैं। आदमी जब ऐसी आत्मा के सम्पर्क में आता है, तो वे छुपे हुए संकल्प उसके मन में जिन्दा होने लगते हैं। वे इतना ज्यादा शक्तिशाली हो सकते हैं कि वे उसे असली भौतिक रूप में भी दिख सकते हैं। इसे ही भूत दिखना कहते हैं। भूत का मतलब ही भूतकाल है। मतलब यह पुराने समय में हुआ है, अभी नहीँ है। इसीलिए भूतिया फिल्मों में आदमी की भूत बनी जीवात्मा की जीवित समय की मार्मिक घटना भूत बनकर डराते हुई दिखाई जाती है। यदि किसी का ऐसे काल्पनिक भूत से सामना हो जाए तो कहते हैं कि उससे बात नहीँ करनी चाहिए। क्योंकि क्या पता करतबी दिमाग़ झूठमूठ में ही क्या डरावना नजारा दिखा दे, जिससे हर्टफेल ही हो जाए। दिमाग़ के करतब का एक अन्य उदाहरण है, मरते हुए आदमी को ले जाने काले यमराज का काले भैंसे पर बैठकर आना। यह शास्त्रों में भी लिखा है और यह एक वैश्विक अनुभव भी है, मतलब किसी देश या धर्म तक सीमित नहीँ है। दरअसल उस समय ऐसी मानसिक अवस्था होती है कि दिमाग़ वैसा  काल्पनिक दृश्य रच लेता है जो असली जैसा लगता है। भौतिक रूप से कहीं कोई भैंसा-वैँसा नहीं आता। एकबार मुझे एक जीवंत सपने में एक काला भैंसा पहाड़ी की चोटी की तरफ घने अँधेरे जंगल से होकर ले गया। वह अंधेरा दिव्य व आनंदमय था, किसी महान आदमी या संत के सूक्ष्मशरीर की तरह। वह भैंसा मुझे बीच रास्ते में छोड़कर भाग गया। फिर मैं ऊपर चढ़ते हुए उस अकेली व मध्यम ऊँचाई की पहाड़ी की चोटी पर पहुंच गया। अलौकिक दृश्य था। दो या तीन मंजिला दिव्य कुटिया थी। दिव्य व चाँद या मौमबत्ती जैसी रौशनी थी, फिर भी चकाचक। जब मैं दूसरी मंजिल के खुले आँगन या टेरेस में बाहर निकला, तो वहाँ एक दिव्य साधुबाबा थे। मेरी लिखी पुस्तक उनके हाथ में थी और खुशी से मुस्कुराते हुए कह रहे थे कि उन्हें डाक आदि से मिली और वे मेरा ही इंतजार कर रहे थे। उन्होंने मेरा प्रेमभाव से भरा दिव्य सम्मान किया। जल्दी ही स्वप्न टूटा और मैं उस दिव्य अहसास से बाहर हो गया। इसका वर्णन मैंने इस वैबसाईट के अबाउट पेज पर भी किया है।

भटकी आत्मा के संबंध में मैं एक घटना सुनाता हूँ। मैं एक सुंदर पहाड़ी पर बने ढाबे में कभीकभार लंच करने जाया करता था। उसमें वेज-ननवेज हर किस्म का खाना बनता था। सुनने में आया कि एकबार रात को कुछ बदमाश ग्राहकों ने शराब के नशे में बिल को लेकर कहासुनी के बाद ढाबामालिक के बाप के ऊपर जबरदस्ती गाड़ी चढ़ा दी और फरार हो गए। अचानक, एकदम और दर्दनाक मृत्यु हुई थी, इसलिए वह अकालमृत्यु हुई। उसके बाद जब भी मैं उस ढाबे में जाता था, मुझे वहां अजीब सी एनर्जी महसूस होती थी। साथ में हर बार मेरे संबंधियों के साथ कोई न कोई अशुभ वाकया होता-होता टल जाता था। सम्भवतः मुझे कुण्डलिनी बचा लेती थी, पर कुण्डलिनी योग न करने के कारण कमजोर मन वाले संबंधी पर वह असर डालती थी। सम्भवतः कुण्डलिनी का कुछ असर उन तक भी पहुंच जाता था। उसके बाद मैंने वहाँ जाना बिल्कुल बंद कर दिया। साधारण धार्मिक कृत्य तो सभी कराते हैं, पर विशेष मृत्यु के बाद वे विशेष व शक्तिशाली होने चाहिए, ताकि दिवंगत आत्मा को शांति मिले। इसी तरह मैं एक बार परिचित के घर में सोया था। रात को मैंने देखा कि छत से जलती हुई लकड़ियाँ मेरे ऊपर गिर रही हैं। मैं चिल्लाया भी। फिर मैंने गुरु और कुण्डलिनी का ध्यान किया। इससे वह भूतिया दृश्य हट गया और मुझे नींद आ गई। वहाँ पर ऐसी भूतिया घटनाओं और अकालमृत्यु का पुराना इतिहास रहा था। संक्षेप में प्रत्यक्षदर्शियों द्वारा सुनी घटनाएं कहूँ तो एक व्यक्ति को रात को पानी पर तैरती ज्योतियां दिखती थीं, जो जलती और बुझती थीं। उस पानी में एक नजदीकी प्रेतग्रस्त परिवार ने प्रेत को गिट्टीयों में बांधकर दबा रखा था। शायद पत्थरों के छोटे टुकड़ों या ऐसे यन्त्रों को गिट्टी कहा गया है। एक मित्र को आधी रात को सुनसान सड़क के पास खेलते बच्चे दिखे जो छोटे-बड़े हो रहे थे। एक मित्र को प्रेतबाधा से ग्रस्त मकान में रात को दरवाजा खटखटाने की आवाज आती, दरवाजा खोलने पर लगता कि कुछ अंदर भागता हुआ किसी छेद वगैरह से कुछ वस्तुओं की आवाज के साथ बाहर निकल गया, पर दिखता कुछ नहीँ था। मेरे पूर्व के एक सज्जन व भोले पड़ोसी को एक तांत्रिक ने यह कह कर रात को अकेले श्मशान या कब्रगाह में जाने को इसलिए कह दिया कि उससे उसका खतरे में पड़ा व्यापार सुरक्षित बचेगा। सुबह वह वहाँ मृत मिला। रिपोर्ट से पता चला कि उसका हर्ट फेल हुआ। पर मेरे दादा इतने बहादुर होते थे कि अक्सर कहते थे कि श्मशान में अकेले आराम से सो सकते हैं। बस ऊपर से ओढ़ने के लिए एक चादर चाहिए। उनके अंदर बहुत कुण्डलिनी बल था। हनुमान चालीसा को भूत भगाने में सर्वोत्तम माना जाता है। मुझे भी लगता है कि हनुमान चालीसा एकदम से कुण्डलिनी शक्ति और कुण्डलिनी चित्र को मजबूती के साथ क्रियाशील कर देता है। हाँ, वही भगवान हनुमान इस चालीसा के माध्यम से शक्ति देते हैं, जिसे बाघेश्वर धाम सरकार वाले पंडित धीरेन्द्र शास्त्री ने सिद्ध किया हुआ है, और जिससे वे बहुत से चमत्कार दिखाते हैं। मुझे सबसे रोमांचकारी, नकली या ढोंगी गुरुओं से बचाने वाली और पारिवारिक प्रेम को उजागर करने वाली यह बात लगी कि उनके दादा ही उनके धर्मगुरु हैं। बहुत से तथाकथित जादूगर, सैकुलर और विधर्मी लोग उनका पर्दाफाश करने सामने आए, पर सफल न हो सके। आजकल यह एक गर्म चर्चा का विषय बना हुआ है।

फिर कहते हैं कि ब्लैक होल चमकते सितारों को अपनी तरफ खींच कर निगल लेते हैं। मतलब वे मृत्युरूप होते हैं। सूक्ष्मशरीर भी तो मृत्युरूप ही होता है। जीवन उसके चारों तरफ घूमता है। वह जीवन के केंद्र में होता है, और बढ़ती आयु के साथ जीवन को अपनी ओर ज्यादा से ज्यादा खींचता जाता है। अंत में जीवन उसमें गिरकर खत्म हो जाता है। आदमी का सूक्ष्मशरीर उसके जीवन की हरेक गतिविधि पर अपना नियंत्रण रखता है। कहते हैं कि वे संस्कार सूक्ष्मशरीर अर्थात सबकोन्सियस माइंड अर्थात अवचेतन मन में ही रहते हैं, जो आदमी के व्यवहार को प्रभावित करते हैं। उसी तरह ब्लैक होल भी अपने से जुड़े सभी ग्रहों, सितारों और अन्य आकाशीय पिंडों को अपने नियंत्रण में रखकर उन्हें अपने चारों तरफ घुमाता रहता है। इसी तरह डार्क एनर्जी और डार्क मेटर भी पूरे ब्रह्माण्ड का संतुलन बना कर रखते हैं। फिर कहते हैं कि एक ब्लैक होल अपने पितृ तारे को तो निगलता ही हैं, पर दूसरे अन्य अनगिनत तारों को भी निगलते हैं। महान आत्मा जैसे कि किसी महान नेता, खिलाड़ी या अन्य किसी महान कलाकार का सूक्ष्म शरीर भी तो उनके अनगिनत फॉलोवर को अपनी तरफ खींचता है। उनकी मृत्यु से उनके पिछलग्गू कई दिन मातम व मायूसी के माहौल में रहते हैं, कई आत्महत्या कर लेते हैं, और कई दंगे फैलाकर जिनोसाइड अर्थात सामूहिक नरसंहार को अंजाम देते हैं। बेशक वे सभी एक बड़े ब्लैकहोल में समा जाते हैं, पर उनकी पृथक सत्ता भी रहती ही है।