कुंडलिनी जागरण ब्लैक होल विज़ुअलाइज़ेशन से अलग है

दोस्तों, पिछली पोस्ट लंबी हो रही थी इसलिए विषय को वहीं रोकना पड़ा था। अब इस पोस्ट में उसे जारी रखते हैं। जब सभी लोगों के अनुभव एक ही अनंत अंतरिक्ष के अंदर हो रहे हैं, तब कोई भी आदमी किसी भी दूसरे आदमी के अनुभव से जुड़ सकता है। मेरे बोलने का मतलब है कि मैं भी हरेक जीव की तरह अनंत अंतरिक्ष रूप हूँ। मैं प्रेमयोगी वज्र नाम के आदमी के मस्तिष्क में बने सूक्ष्म शरीर से जुड़ा हुआ हूँ। फिर मैं अपने दोस्तों, रामू और श्यामू के मस्तिष्क में बने सूक्ष्म शरीर के साथ क्यों नहीँ जुड़ सकता। जैसा मेरा अपना असली रूप अनंत अंतरिक्ष है, उसी तरह रामू और शामू का असली रूप भी वही अनंत अंतरिक्ष है। एक ही अनंत अंतरिक्ष तीन अलग-अलग सूक्ष्म शरीरों के साथ जुड़ा है। उससे मेरा अनंत अंतरिक्ष रूप अलग अनुभव वाला हो गया, उनका अलग अनुभव वाला हो गया। मतलब एक ही अनंत अंतरिक्ष हम तीनों लोगों के रूप में अलग-अलग प्रतीत होने लगा, हालांकि है एक ही। सम्भवतः मैं अपने पूर्वोक्त परिचित के सूक्ष्मशरीर से कुछ क्षणों के लिए जुड़ गया था। यह कोई चमत्कार नहीं बल्कि आध्यात्मिक मनोविज्ञान है। एक बद्ध आदमी जिस समय जैसा अनुभव कर रहा होता है, उस समय वह वैसा ही बना होता है। इसलिए उस सूक्ष्म शरीर को अनुभव करते समय मैं वही सूक्ष्मशरीर बन गया था। इसके विपरीत कुण्डलिनी जागरण के अनुभव के दौरान आदमी पूर्ण मुक्त अवस्था में होता है। उस समय वह अपने असली अनंत चेतन-अंतरिक्ष में स्थित होता है। उस समय उसके सभी अनुभव, चाहे वे स्थूल शरीर से संबंधित हो या सूक्ष्मशरीर से, अपने में तरंग रूप में अर्थात मिथ्या होते हैं। वे उसे महसूस होते हुए भी महसूस नहीँ होते। जागृति का कुछ क्षणों का अनुभव खत्म होते ही जैसे उस चिन्मय अनंत आकाश की चेतना की रौशनी बुझ जाती है, और वह फिर से पहले की तरह अंधेर अनंत आकाश ही महसूस होता है। उस अँधेरे के रूप में उस आदमी का सूक्ष्म शरीर दर्ज होता है। तो यह क्यों न समझा जाए  कि सूक्ष्म शरीर किसी भी क्वांटम हलचल के रूप में नहीँ अपितु आत्म-आकाश की रौशनी को ढकने वाले अँधेरे के रूप में रहता है। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि जिस परिचित के सूक्ष्म शरीर को मैंने अनुभव किया, उनकी मृत्यु हो चुकी थी इसलिए उनके पास अपना शरीर नहीं था। जीवात्मा शरीर के बाहर किसी भी हलचल से जुड़कर उसे महसूस नहीँ कर सकती। अगर ऐसा होता तब तो शरीर के बाहर अनगिनत तरंगों के रूप में अनगिनत हलचलें होती रहती हैं। फिर तो हरेक विद्युत्चुंबकीय तरंग जिन्दा होती। यहाँ तक कि मिट्टी, पत्थर, कुर्सी आदि सभी कुछ जिन्दा और जीवात्मा से युक्त होता, पर ऐसा नहीँ है। इसका मतलब है कि जीवनयात्रा की शुरुवात से लेकर आदमी के जीवन का अनेक जन्मों का पूरा ब्यौरा उसके अनंत आत्म-आकाश में अनुभव होने वाले अँधेरे की विशेष किस्म व मात्रा के रूप में दर्ज रहता है। उसे ही सूक्ष्मशरीर कहते हैं। अब इसको ब्लैक होल पर लेते हैं। ऐसा समझ लो कि आदमी की मृत्यु की तरह तारा पूरी तरह से नष्ट हो जाता है। मतलब वह भौतिक रूप में कुछ भी नहीं बचा रहता। यह मैं ही नहीँ बोल रहा हूँ। आइंस्टीन ने भी जटिल गणितीय गणना से सिद्ध करके बताया है कि ब्लैकहोल सिंगुलेरिटी तक कंम्प्रेस हो जाता है। यह अलग बात है कि ज्यादातर वैज्ञानिक सबसे छोटे अकेले कण को सिंगुलेरिटी समझ रहे हैं, पर मैं एक कदम नीचे शून्य आकाश तक जा रहा हूँ। बेशक वह सबसे बड़ा लगता है, पर सबसे छोटा भी वही है। मतलब कि ब्लैकहोल सूक्ष्म शरीर की तरह एक अँधेरे से भरा आसमान बन जाता है। बेशक उसे अनुभव करने वाला कोई नहीँ होता, क्योंकि जब तारे की जिन्दा अवस्था में उसमें जीवात्मा की तरह कोई विशेष आत्मा नहीँ बंधी थी, तब उसकी मृत्यु के बाद उससे कैसे बंध सकती है। आत्मा के बंधन की मशीन केवल हाड़मान्स का बना शरीर ही है। जब कोई अनुभव करने वाला ही नहीँ, तब अँधेरे आसमान का क्या औचित्य है। हम ऐसा भी नहीँ कह सकते। अगर ऐसा है तब मिट्टी, पत्थर जैसी वस्तुओं के रूप में अनगिनत तरंगों का भी क्या औचित्य है, जब वे स्वयं अनुभवरूप नहीँ हैं, मतलब स्वयं को अनुभव नहीँ कर सकतीं। जिस तरह चिदाकाश अपने में स्थित इन वस्तुओं को अनुभव नहीँ कर सकता, उसी तरह इनके नष्ट होने से बने अपने आभासी अँधेरे को भी अनुभव नहीँ कर सकता। वह आभासी अंधेरा ही डार्क मैटर और डार्क ऐनर्जी है। आदमी के मरने के बाद बहुत से लोग दुःख के कारण उसकी तरफ खिंचे चले जाते हैं। सम्भवतः शुरु की प्रेतात्मा डार्क मैटर ही होती है। ब्लैक होल भी शुरु में डार्क मैटर ही होता है, इसीलिए अपने मजबूत गुरुत्वाकर्षण से सभी को अपनी तरफ खींचता है। कुछ समय बाद प्रेतात्मा को सभी भूल जाते हैं, और उससे नफ़रत सी करते हुए सभी अपने-अपने कामों में पहले की तरह लग जाते हैं। मतलब प्रेतात्मा सभी को अपने से दूर धकेलती है। सम्भवतः उस समय प्रेतात्मा डार्क एनर्जी बनी होती है, क्योंकि उसमें भी दूर सबको धकेलने का बल होता है। सम्भवतः इसी तरह समय के साथ ब्लैक होल का डार्क मैटर भी अनंत आकाश में समाकर डार्क एनर्जी बन जाता है। यह तो विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिया है कि ब्लैकहोल भी लगातार सूक्ष्म रेडिएशन छोड़ते रहते हैं जिसे हाव्किंस रेडिएशन कहते हैं, और इस तरह से बहुत लम्बे समय बाद खत्म हो जाते हैं। डार्क एनर्जी के रूप में फिर यह अन्य पिंडों को खींचने का नहीँ बल्कि धकेलने का काम करता है। दिवंगत आदमी के अँधेरे अनंत अंतरिक्ष रूपी सूक्ष्मशरीर में दर्ज सूचना क्या पता कौन से ब्रह्माण्ड में जन्मे आदमी के अंदर अभिव्यक्त होए, कोई कह नहीँ सकता। अनंत अंतरिक्ष के किसी भी कोने में उस आदमी का पुनर्जन्म हो सकता है। इसी तरह नष्ट हुए तारे के अँधेरे अनंत अंतरिक्ष रूपी ब्लैकहोल नामक सूक्ष्मशरीर में दर्ज सूचना क्या पता किस ब्रह्माण्ड में जाकर नए तारे के जन्म के रूप में अभिव्यक्त हो जाए, कुछ कह नहीं सकते। इसी सिद्धांत के अंदर व्हाइट होल और टेलीपोर्टेशन छुपा हुआ है। इससे विज्ञान का वह सिद्धांत भी क़ायम रहता है कि क्वांटम इनफार्मेशन कभी नष्ट नहीँ होती। तारे से इनफार्मेशन डार्क मैटर में चली गई, डार्क मैटर से डार्क एनर्जी में चली गई, और डार्क एनर्जी से फिर तारे में आ गई। इस तरह यह चक्र आदमी के जन्ममरण की तरह चलता रहता है। कई लोग कहेंगे कि प्रेतात्मा ब्लैक होल की तरह घेरा बना कर तो नहीँ रहती। हाहा। भाई यह अध्यात्म विज्ञान है। इसमें भौतिक विज्ञान की तरह एक जमा एक दो नहीँ कर सकते। समानता दिखा सकते हैं। आदमी के मरने के बाद कुछ समय उसकी आत्मा ब्लैक होल की तरह लोकेलाइज रहती है। उसे भटकी हुई आत्मा कहते हैं। कई लोगों को इसका अहसास होता है। फिर वह डार्क एनर्जी की तरह अनंत अंतरिक्ष में समा जाती है। विभिन्न धर्मों में विभिन्न आध्यात्मिक कृत्य इसीलिए किए जाते हैं, ताकि जल्दी से जल्दी उसकी गति लग सके और वह अनंत अंतरिक्ष में समा कर नया जन्म ले सके।

उपरोक्त वैज्ञानिक विवरण से यह बात स्पष्ट होती है कि पुराने लोगों को वर्महोल, व्हाइट होल और टेलीपोर्टेशन आदि का पता था, हालांकि अपने तरीके से। उन्हें पता था कि स्थूल शरीर के साथ यह संभव नहीं है, पर सूक्ष्मशरीर के साथ संभव है। इसलिए वे अच्छे कर्मों से अपने सूक्ष्मशरीर को ज्यादा से ज्यादा अच्छा बनाते थे, ताकि वह उन्हें अच्छे ग्रह, सितारे या ब्रह्माण्ड में ले जा सके, क्योंकि उन्हें यह भी पता था कि क्वांटम इनफार्मेशन कभी नष्ट नहीं होती।

कुण्डलिनी जागरण बनाम सूक्ष्मशरीर-समाधि

दोस्तो, मैं पिछली कुछ पोस्टों में ब्लैकहोलसूक्ष्मशरीर जैसे अनुभव के बारे में बात कर रहा था। थोड़ा उसका और गहराई से अध्यात्मवैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं। मुझे लगता है कि जो चीज अनंत व शून्य अंतरिक्षरूपी आत्मा से अलग भौतिक रूप में है, चाहे कितने ही छोटे कण के रूप में है, उसे हम आत्मरूप से अनुभव नहीं कर सकते। आत्मा से आत्मा ही जुड़ सकती है, अन्य कुछ नहीं। वैसे तो आत्मा की आभासी लहर भी जुड़ सकती है, कण तो बिल्कुल नहीं। वैसे तो लहर भी नहीँ जुड़ती, केवल जुड़ी हुई दिखती है। वह असली नहीँ बल्कि आभासी होती है, जैसे बंद आँखों को खोलते हुए पलकों के बालों से आसमान में बुलबुले जैसे दिखाई देते हैं। दरअसल आसमान में कोई बुलबुले नहीँ होते। यह उदाहरण मैंने योगवासिष्ठ ग्रंथ से लिया है। कण द्वैत का प्रतीक है। वह आत्म-आकाश से अलग है, आकाश-पुष्प या आकाश-उद्यान की तरह, जैसा शास्त्र कहते हैं। आकाश में बिना किसी आधार के यकायक फूल नहीँ खिल सकता। अगर हम योग समाधि से कुण्डलिनी छवि को आत्मरूप में महसूस करें तो वह अपनी आत्मा से अभिन्न उसमें तरंग रूप से अनुभव होगी, किसी पृथक भौतिक वस्तु या कण के रूप में नहीं। जो मुझे सूक्ष्म शरीर आत्मरूप में अनुभव हुआ वह तरंगरूप नहीं था। मतलब वह वैसा नहीं था जैसी सभी भौतिक चीजें मन के विचारों के रूप में लहरदार होती हैं। मतलब उनकी सत्ता या चमक घटती-बढ़ती रहती है। वह सूक्ष्मशरीर तो एकसमान कज्जली चमक वाला अंधेरा था। फिर उसके बारे में मुझे पूरा ब्यौरा कैसे महसूस हो रहा था, उससे भी ज्यादा जितना भौतिक रूपों से मिलता है। इसका मतलब है कि उसमें सूक्ष्म तरंगें थीं, जिनका अहसास नहीं हो रहा था, पर उनमें दर्ज सभी सूचनाओं का पूरा अहसास हो रहा था। ये तरंगें क्वांटम फ्लैकचूएशन या हलचल के रूप में हो सकती हैं, जिन्हें शरीर के बिना ऊर्जा नहीं मिल रही थीं, जिससे वे स्थूल तरंगों के रूप में व्यक्त नहीं हो पा रही थीं। वे सूक्ष्म तरंगें भी स्थूल तरंगों की तरह ही थीं। इसे हम ऐसे समझ सकते हैं कि जैसे यदि पानी के तलाब में एक पत्थर फ़ेंकने की ऊर्जा से थोड़ी देर के लिए स्थूल तरंगें बनती हैं, तब पत्थर से मिली ऊर्जा खत्म होने के बाद भी बड़ी देर तक उसी पैटर्न की सूक्ष्म तरंगें बनती रहती हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि तरंगें पेंडुलम की तरह व्यवहार करती हैं, मतलब अपनी ही अंतरंग ऊर्जा से उठती गिरती रहती हैं। फिर तो मरने के बाद आदमी के सूक्ष्मशरीर के कंपन लगातार घटते रहने चाहिए और अंततः वह कंपनरहित चिदाकाश अर्थात परमात्मा बन जाना चाहिए अर्थात आदमी खुद ही मुक्त हो जाना चाहिए। कई जगह शास्त्र भी इस ओर इशारा करते हैं कि ऐसा होता है, हालांकि ऐसा स्पष्ट नहीं कहा है, पर जिसको ज्ञान न हो या जिसने आसक्ति और द्वैत से भरा जीवन जिया हो, वह उस अँधेरे से घबराकर या उससे ऊब कर जल्दी ही अपने लिए नया शरीर चुन लेता है, और शरीर उसे अपने कंपन के अनुसार ही अच्छा या बुरा मिलता है। इसका यह मतलब भी है कि इसी तरह ब्लैकहोल की सूक्ष्म तरंगें भी समय के साथ शांत हो जाती हैं, और वह निश्चल समुद्र जैसे अनंत व शून्य अंतरिक्ष से पूरी तरह एक हो जाता है। हालांकि इसमें करोड़ों साल लग सकते हैं, क्योंकि वह पानी का नहीं बल्कि शून्य अंतरिक्ष का कंपन है। पर शास्त्र यह भी स्पष्ट रूप से कहते हैं कि मोक्ष अपनेआप नहीं मिलता। करोड़ों-अरबों वर्षों तक जारी रहने वाले प्रलयकाल में भी कारण शरीर से आत्मा का बंधन बना रहता है। मुझे तो लगता है कि दोनों ही बातें सही हैं, समय और परिस्थिति के अनुसार, हालांकि दूसरी बात ज्यादातर मामलों में फिट बैठती होगी।

कुण्डलिनी चित्र का हम बारबार ध्यान करते हैं, इससे वह समाधि अर्थात कुण्डलिनी जागरण के रूप में आत्मा से एकाकार हो जाता है। मतलब किसी भी चीज के बारे में ध्यान करके उसको जगा कर हम उसके बारे में पूरी तरह से सबकुछ जान जाते हैं, जैसा कि शास्त्र कहते हैं। योगवासिष्ठ में कहा गया है कि वायु से योगसमाधि से जुड़ने पर वायु की सभी शक्तियाँ मिलती हैं, जैसे आसमान में उड़ना, अदृष्य होना आदि। इसी तरह अन्य पदार्थों जैसे अग्नि, जल आदि से जुड़ने से उन-उन पदार्थोँ का संपूर्ण व प्रत्यक्ष ज्ञान होने से उनकी सभी शक्तियां मिलती हैं। सम्भवतः इन्हें पंचभूत समाधि भी कहते हैं। अब इनका वैज्ञानिक विश्लेषण तो मैं इस समय नहीँ कर सकता। पर किसी के या अपने ही सूक्ष्म शरीर को जगाने के लिए हम किसका ध्यान करेंगे। सूक्ष्मशरीर का ही करेंगे। यह नहीं पता कैसे। सम्भवतः ऐसे ही जैसे भूत का किया जाता है। गीता में कहा गया है कि देव को पूजने वाले देवता बनते हैं, और भूत को पूजने वाले भूत। तो स्वाभाविक है कि सूक्ष्म शरीर का ध्यान करने वाला सूक्ष्मशरीर ही बनेगा। क्योंकि सूक्ष्मशरीर में अँधेरे का राज है, इसलिए अंधेरा व शक्ति पैदा करने वाले मांसमदिरासंभोग जैसे पंचमकारों के साथ तांत्रिक कुण्डलिनी योग से भूत या सूक्ष्मशरीर का आत्मरूप में अनुभव होता है, ऐसा मुझे लगता है। प्रेतात्माएं लोगों से सम्पर्क करके मदद लेना और देना चाहती हैं, पर इसके लिए आदमी में प्रेतात्मा की उच्च दबाव वाली ऊर्जा का आवेश झेलने की शक्ति होना जरूरी है, जो केवल समर्पित तांत्रिक कुण्डलिनी योग से ही संभव प्रतीत होता है। कुण्डलिनी चित्र यदि उस विशेष भूत या सूक्ष्मशरीर से संबंधित हो तो ध्यान ज्यादा जल्दी सफल और प्रभावशाली हो जाता है। पर ऐसा कैसे होता है, उसके लिए थोड़ा गहराई से विश्लेषण करना होगा।

मुझे एक नई अंतर्दृष्टि मिली है। उपरोक्त समाधि का अनुभव कुण्डलिनी जागरण की तरह नहीं था। मतलब उस अनुभव में मैं परमात्मा से एकाकार नहीं हुआ, बल्कि एक अन्य जीवात्मा से एकाकार हुआ। अगर मैं परमात्मा से एकाकार हुआ होता, तो कुण्डलिनी जागरण की तरह अनंत प्रकाश, आकाश व आनंद से कुछ क्षणों के लिए सम्पन्न हो जाता। साथ में मन-मस्तिष्क में सुहाने विचार, सागर में तरंगों की तरह उमड़ते, जैसा कि मैंने पिछली एक पोस्ट में लिखा है कि मस्तिष्क एक थिएटर मेन की तरफ काम करता है, जो मूड के अनुसार दृश्य प्रस्तुत कर देता है। हालांकि कुछ क्षणों के सूक्ष्मशरीर के अनुभव के बाद मस्तिष्क उससे संबंधित विचार बनाने लगा, जैसे उनकी मृत्यु से दुखी लोग आदि। हालांकि ये अनुभव सागर में तरंग की तरह महसूस नहीँ हो रहे थे, क्योंकि मुझे उस परमात्म-सागर का अनुभव नहीँ हो रहा था, जिसमें सभी कुछ तरंगों के रूप में है। विचारों के उठने के साथ ही शुद्ध अनुभव खत्म होने लगता है। विचार एक शोर जैसा या भ्रम जैसा पैदा करते हैं। योगी को ऐसे दिव्य अनुभव इसीलिए ज्यादा होते हैं, क्योंकि वे ज्यादा देर तक निर्विचार बने रह सकते हैं। होते सभी को हैं, पर वे विचारों के शोर के कारण इतने कम समय के लिए रहते हैं कि पहचान में ही नहीँ आते। जैसा ओशो महाराज कहते हैं कि सम्भोग के दौरान वीर्यपात के अनुभव के कुछ क्षणों के दौरान सभी को समाधि का अनुभव होता है, पर वह इतने कम समय के लिए रहता है कि उसका पता ही नहीं चलता। इसलिए वे ध्यानयोग के माध्यम से उस समय को बढ़ाने को कहते हैं। कहते हैं कि जानवरों को निकट भविष्य का अंदाजा लग जाता है, क्योंकि वे आदमी से ज्यादा निर्विचार होते हैं, हालांकि अलग अर्थात अज्ञान वाले तरीके से। मेरे इस उपरोक्त अनुभव को एकाकार भी नहीँ कह सकते, क्योंकि एकाकार तो परमात्मा के साथ ही हुआ जा सकता है। इसे ऐसे कह सकते हैं कि मैं कुछ क्षणों के लिए अपने आत्मरूप को छोड़कर सूक्ष्मशरीर बन गया। यह ऐसे था कि एक ही सूक्ष्मशरीर था, पर उसे एकसाथ अनुभव करने वाली दो आत्माएं थीं। असली या होस्ट आत्मा उन दिवंगत परिचित की थी। नकली या अतिथि या घुसपैठिया आत्मा मेरी थी। सूक्ष्मशरीर से ऐसे ही सम्पर्क किया जा सकता है। भला अँधेरे व शून्य आसमान को जानने का और क्या तरीका हो सकता है। उनकी समस्या या उनका प्रश्न जानने के लिए मैं उनके सूक्ष्मशरीर से जुड़ गया। उनकी बात कानों से नहीँ सुनाई दे रही थी, पर सीधी आत्मा में महसूस हो रही थी। न उनका शरीर, न मुख और न ही शब्द। फिर भी उनके बारे में सबकुछ जान पा रहा था और उनकी हरेक बात सुन पा रहा था। मैंने उनके सूक्ष्मशरीर में रहकर उन्हींको जवाब भी दिया, जिसे उन्होंने ध्यान से सुना, पर वैसे ही आत्म-भाषा में। फिर सम्भवतः जब मैं अपना जागृति से संबंधित अनुभव याद करने के लिए अपने सूक्ष्मशरीर में आने लगा, तब मेरे मस्तिष्क में विचारों का शोर बढ़ने लगा, जिससे सम्पर्क टूट गया। पर मुख्य बात मैंने बता दी थी। शायद मकानमालिक ने घुसपैठिये को किक मारके भगा दिया था। हाहाहा। हो सकता है बहुत से कारण रहे हो पर सबसे मुख्य वजह यह डर लगता है कि कहीं मैं उनके सूक्ष्मशरीर में हमेशा के लिए कैद न हो जाऊं, और मेरे सूक्ष्मशरीर को खाली जानकर उनकी आत्मा उसपर कब्जा न कर लें। भाई पहले अपना घर बचाना था, न कि किसी की मदद करनी थी। वैसे भी अधिकांश मामलों में कोई दूसरे के सूक्ष्मशरीर में ज्यादा देर नहीँ ठहर सकता, जैसे कोई अतिथि बनकर किसीके घर पर कब्जा नहीँ कर सकता। सम्भवतः परकायाप्रवेश सिद्धि इसीका उत्कृष्ट रूप हो, जिसमें सूक्ष्मशरीर के मालिक आत्मा को भगाकर अतिथि आत्मा स्थायी तौर पर बस जाती है। कहते हैं कि आदि शंकराचार्य इसमें पारंगत थे। शास्त्रों में एक कथा आती है, जिसमें राजकुमार पुरु ने अपने वृद्ध पिता और राजा ययाति को अपनी जवानी दान दे दी थी। यह तभी हो सकता है, जब उन्होंने अपने सूक्ष्मशरीर एकदूसरे के साथ बदल दिए हों। मैंने बचपन में एक तथाकथित सत्य घटना का वर्णन पढ़ा-सुना था, जिसके अनुसार एक अंग्रेज अधिकारी कहता है कि उसने एक वृद्ध योगी बाबा को झाड़ियों के बीच में से एक नौजवान की लाश घसीटते देखा। कुछ देर के बाद वह नौजवान जिन्दा होकर किश्ती में सवार होकर नदी पार कर रहा था। मतलब साफ है कि योगी ने अपने शरीर सूक्ष्म को अपने बूढ़े शरीर से बाहर निकालकर नौजवान के मृत शरीर में प्रविष्ट करा दिया था ताकि वह लम्बे समय तक और योग कर पाता। अब पता नहीँ यह सच है कि ढोंग है कि जब किसी के शरीर में बाहरी प्रेतात्मा का कब्जा हो जाता है, जिससे उस आदमी का मन व शरीर उसके कब्जे में आ जाता है। इसे तंत्र-मंत्र आदि से ठीक करवा दिया जाता है। कुछ तो बात जरूर है, जिसे आध्यात्मिक विज्ञान ही ज्यादा अच्छे से समझ सकता है, भौतिक विज्ञान नहीं।

कुण्डलिनी योग से एक ही अनंत अंतरिक्ष सभी ब्लैक होलों, ब्रह्माण्डों, और जीवों के रूप में दिखाई देता है

एक जीव मरने के बाद कहाँ गया कुछ पता नहीं चलता। इसी तरह एक गलेक्सी ब्लेक होल से निकलकर कौन से ब्रह्माण्ड में गई पता नहीं चलता। जैसे एक ही अनंत अंतरिक्ष में अनगिनत जीवों के रूप में अनगिनत सूक्ष्म ब्रह्माण्ड हैं, उसी तरह एक ही अनंत अंतरिक्ष में अनगिनत स्थूल ब्रह्माण्ड भी तो हो सकते हैं। अनंत अंतरिक्ष की जितनी मर्जी कॉपीयां निकाल लो। हरेक कॉपी मूल की तरह सम्पूर्ण होती है, डुप्लीकेट नहीं, क्योंकि एक से ज्यादा अनंत अंतरिक्ष संभव ही नहीं। इसी तरह एकमात्र अनुभवरूप अनंत अंतरिक्ष के इलावा किसी की स्वतंत्र सत्ता या अस्तित्व ही नहीं है। लहर, कण आदि जो कुछ भी अनंत आकाश में आभासी रूप में महसूस होता है, वह अपने आधार अनंत-आकाश के साथ ही सत्तावान महसूस होता है, स्वतंत्र रूप से नहीं। या ऐसा कह लो कि अनंत अंतरिक्ष को वह अपनी आभासी लहरों के रूप में अपने में ही महसूस होता है। अगर उन आभासी कलाकृतियों का अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता, तब तो हरेक जड़ वस्तु जैसे कि कुर्सी, पत्थर, चित्र, मूर्ति आदि जीवित होती, जैसा कि कई एनिमेशन फिल्मों में दिखाया जाता है। जगत, विचार आदि तो उस आकाश-आत्मा में आभासी तरंगें हैं, जो दरअसल हैं ही नहीं। इसलिए एक ही चारा बचता है कि एक ही अनंत अंतरिक्ष को ही सभी जीवों और ब्रह्माण्डों के रूप में दिखाया जाए। यह शास्त्रों में एक श्लोक के द्वारा समझाया गया है, “ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदम पूर्णात पूर्णमुदुच्यते, पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते”। इसका मतलब है कि ‘वह’ मतलब ॐ नाम वाला परम तत्त्व पूर्ण है, मतलब अनंत अंतरिक्षरूप है, ‘यह’ मतलब जीव भी अनंत अंतरिक्ष है, ‘उस’ अनंत अंतरिक्ष से ‘इस’ अनंत अंतरिक्ष के निकल जाने के बाद भी ‘वह’ अनंत अंतरिक्ष ही बचा रहता है, उसमें कोई कमी नहीं आती। शून्यरूप अनंत अंतरिक्ष से कोई कुछ निकाल ही कैसे सकता है। क्योंकि सभी अनंत अंतरिक्ष एक ही हैं, इसलिए सभी जीव भी एक ही हैं। जैसे भिन्न-भिन्न स्थानों पर स्थित जीवों के मानसिक ब्रह्माण्ड ‘एक अंतरिक्ष रूप‘ ही हैं, उसी तरह भिन्नभिन्न स्थानों पर स्थित स्थूल ब्रह्माण्ड एक ही अंतरिक्ष में दिखते हुए भी, अलग-अलग स्वतंत्र सत्ता रखते हुए भी, अलग-अलग स्थानीय रूप रखते हुए भी, अलग-अलग अनंत अंतरिक्ष की सत्ता साथ में समेटे हुए हैं। इससे मल्टीवर्स की बात खुद ही सिद्ध हो जाती है। जैसे जीवों के रूप में सूक्ष्म ब्रह्माण्ड अनगिनत हैं, वैसे ही स्थूल ब्रह्माण्ड भी अनगिनत हैं। हालांकि सबके साथ अपना अनंत अंतरिक्ष है, इसलिए सब एक अनंत अंतरिक्ष रूप ही हैं, और कभी उसमें जाके मिल जाएंगे। वैसे तो हमेशा मिले हुए ही हैं पर वर्चुअली मिलते दिखेंगे। इस तरह से जैसे जीव के रूप में सूक्ष्म ब्रह्माण्ड की मुक्ति होती है, उसी तरह स्थूल ब्रह्माण्ड के रूप में भी जरूर होती होगी। यह अलग बात है कि स्थूल ब्रह्माण्ड का अभिमानी आत्मा अर्थात ब्रह्मा पहले से ही अनासक्त, अद्वैतपूर्ण और जीवनमुक्त है, जैसा शास्त्रों में कहा गया है। शास्त्र खुद मल्टीवर्स को मानते हैं। वे कहते हैं कि अनगिनत जीवों की तरह ब्रह्मा भी अनगिनत हैं। सम्भवतः उनका कहना है कि हरेक जीव विकास के उत्तरोत्तर क्रम को लाँघते हुए जीवनयात्रा के अंतिम पड़ाव के निकट ब्रह्मा भी जरूर बनता है। इसी संदर्भ में गीता में आता है कि आत्मा न तो कभी पैदा होती है, और न नष्ट होती है। मतलब कि आदमी कभी नहीं मरता। यही तो उपरोक्त वैज्ञानिक तथ्यों से भी सिद्ध हो रहा है कि अनंत व शून्य आकाश को न तो बनाया जा सकता है, और न ही नष्ट किया जा सकता है। हाँ यह जरूर है कि जीव-आत्मा रूपी भ्रमित अनंताकाश कुण्डलिनी योग से अपने अज्ञानरूपी आभासी भ्रम को दूर करके ओरिजनल अनंताकाश अर्थात परमात्मा के साथ एकाकार हो सकता है। एकाकार पहले से ही है, बस आभासी भ्रम का बादल हटाना है।

कुण्डलिनी योग ड्यूल नेचर ऑफ़ मैटर से कण प्रकृति को कुंठित करके तरंग प्रकृति को बढ़ाता है

दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि ब्लैक होल ब्रह्माण्ड का सूक्ष्म शरीर होता है। गेलेक्सी को आप उसका स्थूल शरीर मान लो, और उसके केंद्र में स्थित ब्लैक होल उसका सूक्ष्म शरीर है। हरेक जीव एक आसमान है, और उसमें एक अलग ब्रह्माण्ड है। सब स्वतंत्र हैं और एकदूसरे को नष्ट नहीं कर सकते। हो सकता है कि इसी तरह एक ही आसमान में अनगिनत स्वतंत्र ब्रह्माण्ड भी हों।

आदमी कभी नहीं मरता

ये मैं ही नहीं कह रहा हूँ बल्कि वैज्ञानिक भी इस बात की आशंका जता रहे हैं कि आदमी दरअसल मरता नहीं है, पर मरने के बाद ब्लैक होल में चला जाता है और वहाँ से होकर किसी दूसरे ब्रह्माण्ड में पहुंच जाता है। यह वही बात है जो शास्त्र कहते हैं कि आदमी मरने के बाद सूक्ष्म शरीर बन जाता है और नया जन्म ले लेता है। नया जन्म नया ब्रह्माण्ड ही है, क्योंकि जितने जीव उतने ब्रह्माण्ड। हरेक जीव एक अनंत अंतरिक्ष है, और उसमें विचारों व अनुभवों का समूह ही भरापूरा ब्रह्माण्ड है। रोचक बात यह है कि स्थूल ब्रह्माण्ड की तरह सूक्ष्म मानसिक ब्रह्माण्ड भी अनंत अंतरिक्ष में ही बनता है, जीव के शरीर या मस्तिष्क में नहीं, जैसा कि अक्सर माना जाता है। मस्तिष्क तो केवल अंतरिक्ष में उन आभासी तरंगों को पैदा करने वाली मशीन भर है, जिन्हें वह अंतरिक्ष अपने अंदर महसूस कर सकता है। योगवासिष्ठ जैसे शास्त्रों में इसे ऐसे समझाया गया है कि आसमान में लटकते घड़े के अंदर कैद आसमान ही जीव है। वह भ्रम से ही अलग प्रतीत होता है, असलियत में वह एक ही अनंत आसमान से अभिन्न है। घड़े के अंदर के आसमान में आभासी तरंगें बनती रहती हैं, जिनसे जीव मोहित हुआ रहता है। मैं पिछली पोस्ट के संदर्भ में बता दूँ कि अनंत आकाश के छोटे से हिस्से में आसक्ति के साथ तरंगों को आत्म-आकाश से अलग अनुभव करने से पूरे चमकीले आत्म-आकाश को अपने में अंधेरा महसूस होता है। दरअसल यह भ्रम होता है। इससे मृत्यु के बाद भी उन तरंगों से बनी क्वांटम फ्लकचूएशन्स पर आसक्ति बनी रहती है, जिससे वह भ्रमजनित अंधेरा बना रहता है, जैसा सम्भवतः मैंने सूक्ष्मशरीर में अनुभव किया था। यह ऐसे ही है, जैसे क्वांटम फिसिक्स में मूल तत्त्वों को कण रूप में देखने पर वे अपने तरंग जैसे अनंत रूप को त्याग कर सीमित कणों के रूप में व्यवहार करते हैं। मतलब अनंत ऊर्जा एक कण के रूप में सीमित हो जाती है। इसको ऐसे समझ लो कि अनंत अंतरिक्ष की लाइट ऑफ़ हो जाती है, और केवल कणों के रूप में ही सीमित प्रकाश बचा रहता है। अँधेरे आसमान में चमकते हुए कण। जब हम उन्हें अपने असली ‘अनंत आसमान की तरंग‘ के रूप में देखते हैं, तब वे वैसे ही अंतरिक्ष की तरंग के रूप में व्यवहार करते हैं। मतलब वो तरंग इसीलिए प्रकाशमान है, क्योंकि वह जिस अंतरिक्ष में बनी है, वो खुद प्रकाशमान है। मतलब तरंग के साथ पूरे अनंत अंतरिक्ष की लाइट ऑन रहती है। जल में बनी तरंग तभी रंगीन हो सकती है, अगर वह जल भी रंगीन हो। अगर जल काला हो, तो उससे बनने वाली तरंग रंगीन हो ही नहीं सकती। जबकि तरंग को कण के रूप में मतलब जल से अलग स्वतंत्र रूप में तभी महसूस कर सकते हैं, अगर आधारभूत जल का रंग खत्म कर दिया जाए, पर तरंग का रंग रहने दिया जाए। पर ऐसा संभव नहीं है। इसलिए आधाररूपी तरंग-माध्यम का रंग आभासी रूप में अर्थात झूठमूठ में अर्थात भ्रम पैदा करके गायब करना पड़ता है, जादूगर की भ्रम पैदा करने वाली ट्रिक की तरह। इसलिए पदार्थ का असली रूप तरंग होते हुए भी वे आसक्ति और द्वैत से उत्पन्न भ्रम से कणरूप जान पड़ते हैं। सिंपल सी बात है। मतलब कि आध्यात्मिक अज्ञान क्वांटम फिसिक्स के अज्ञान पर आधारित प्रतीत होता है।

कुण्डलिनी योग विज्ञान ब्लैक होल में भी झाँक सकता है

शिव की तरह शक्ति भी शाश्वत है

दोस्तों, मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि शक्ति कहाँ से आती है। शाक्त कहते हैं कि शिव की तरह शक्ति भी शाश्वत है। यह मानना ही पड़ेगा, क्योंकि अगर शक्ति नाशवान है, तब वह सृष्टि के प्रारम्भिक शून्य आकाश में कहाँ से आती है। अगर शिव को ही एकमात्र अविनाशी और मूल तत्त्व माना जाए तो एक नया स्पष्टीकरण है। सूक्ष्मशरीर रूपी क्वांटम फ्लकचूएशनस आत्मा में रिकॉर्ड हो जाती हैं। उन क्वांटम फ्लकचूएशनस के अनुसार ही आत्मा में अंधेरा होता है। मतलब क्वांटम फ्लकचूएशनस की किस्म और मात्रा के अनुसार ही आत्मा का अंधेरा भिन्नता रखता है। यह नियम व्यष्टि और समष्टि, दोनों ही मामलों में लागू होता है। इसे ही कारण शरीर कहते हैं। आत्मा का वही अंधेरा फिर सृष्टि के प्रारम्भ में अपने अनुसार पुनः  क्वांटम फ्लकचूएशन पैदा करता है। मतलब कारण शरीर या कारण ब्रह्माण्ड सूक्ष्मशरीर या सूक्ष्म ब्रह्माण्ड के रूप में आ जाता है। उससे फिर स्थूल शरीर या स्थूल ब्रह्माण्ड बन ही जाता है। पर प्रश्न फिर भी बचा ही रहता है। फौरी तौर पर तो यही उत्तर बनता है कि अँधेरे अंतरिक्ष के रूप में शक्ति अर्थात कारण शरीर तो रहता है, पर अनुभव के रूप में उसका अपना अस्तित्व नहीं होता, अनुभव के रूप में वह परमात्मा शिवरूप ही होता है। या कह लो कि शक्ति शून्य शिव से एकाकार हो जाती है।

सृष्टि के प्रारम्भ में शक्ति शिव से अलग होकर सृष्टि की रचना प्रारम्भ करती है

जैसे सरोवर का जल हमेशा हिलता रहता है वैसे ही अंतरिक्ष में हमेशा सूक्ष्म तरंगें उठती रहती हैं। दोनों में कभी हवा आदि से लहरें ज्यादा बढ़ जाती हैं। यही एनर्जी से कण का उदय है। अंतरिक्ष में ये तरंगें आकाशीय पिंडों के आपस में टकराने से बनती हैं। यह तो वैज्ञानिक भी बोलते हैं कि जब अंतरिक्ष में ज्यादा उथलपुथल मचती है, तो नए ग्रहों व सितारों आदि का ज्यादा निर्माण होता है। पर शुरुआत के शून्य अंतरिक्ष में यह उथलपुथल कैसे मचती है, यह खोज का विषय है।

ब्लैक होल में ब्रह्माण्ड के जन्म और मृत्यु का राज छिपा हो सकता है

तारा जब मरता है तो वह सिंगुलेरिटी तक कंम्प्रेस होकर ब्लैक होल बन जाता है। वह सिंगुलेरिटी अव्यक्त आकाश में विलीन हो जाती है, क्योंकि किसी चीज के छोटा होने की अंतिम सीमा शून्य आकाश में जाकर ही खत्म होती है। मतलब वह पहले स्बसे छोटा मूलकण बनता है। उसकी ग्रेविटी बहुत ज्यादा होती है। मतलब वह क्वांटम ग्रेविटी है। इसमें एक मूलकण से सृष्टि बनने का राज अर्थात बिग बैंग का राज छिपा हुआ है। जब एक मूलकण के अंदर पूरा तारा समा सकता है तो उससे पूरे तारे का उदय भी तो हो सकता है। वह पुनः-रचना व्हाइट होल के माध्यम से हो सकती है। तभी कहते हैं कि ब्लेक होल सृष्टि रचना की फैक्ट्री हो सकता है। हो सकता है कि सृष्टि के अंत में ग्रेविटी हावी होकर पूरे ब्रह्माण्ड या पूरी सृष्टि को ही ब्लैक होल बना कर खत्म कर दे। फिर पूरा अंतरिक्ष ही ब्लैक होल अर्थात अव्यक्त आकाश अर्थात अंधकारपूर्ण आकाश अर्थात मूल प्रकृति बन जाएगा। हालांकि उसमें पूरी सृष्टि उच्च दबाव में समाई होगी। अब ये नहीं पता कि वह किस रूप में उसमें होगी। जब उस परम ब्लैक होल का अंधकाररूप दबाव एक निश्चित मात्रा या समय सीमा को लांघेगा, तब प्रलय का अंत हो जाएगा और उसमें दबे अव्यक्त पदार्थ प्रकाशमान तरंगों के रूप में बाहर अर्थात परम व्यक्त अर्थात परम पुरुष की ओर प्रस्फुटित होने लगेंगे। इसे ही प्रकृति और पुरुष अर्थात यिन और यांग के बीच आकर्षण और सम्भोग कहा जाता है। इससे शिशु रूप में नई सृष्टि का पुनर्जन्म और विकास होगा। सम्भवतः इसीलिए शास्त्रों में अनेक स्थानों पर मन के विचारों मुख्यतः कुण्डलिनी छवि को भी पुत्र कह कर सम्बोधित किया जाता है। उदाहरण के लिए देव कार्तिकेय, सगर-पुत्र आदि। स्वाभाविक है कि सृष्टि पहले की तरह ही बनेगी क्योंकि पिछली सृष्टि के दबे पदार्थ ही उसे बना रहे हैं। नई सृष्टि बनने की प्रक्रिया और क्रम भी पुरानी की तरह ही होगा क्योंकि अक्सर देखा जाता है कि जिस क्रम में कोई चीज टूट कर नष्ट होती है, वह लगभग उसी क्रम और प्रक्रिया में आगे से आगे जुड़ते हुए पुनः निर्मित होती है। यह भी हो सकता है कि बिग क्रन्च होने की बजाय बिग बैंग ही चलता रहे, जिससे अंत में सभी मूलकण भी एकदूसरे से दूर छिटक कर आकाश में विलीन हो जाएं। पर बनेगा तो तब भी ब्लैक होल जैसा ही। उसमें भी सब कुछ यहाँ तक कि प्रकाश भी टूट कर मूल अंतरिक्ष के अँधेरे में गायब हो जाएगा।

आदमी का सूक्ष्म शरीर भी एक ब्लैक होल ही है

आदमी भी तो ऐसे ही मरता है। सारे जीवन भर मानसिक ब्रह्माण्ड का निर्माण करता है। अंत में सब कुछ अँधेरनुमा ब्लैकहोल जैसे अव्यक्त में समा जाता है। आदमी के नए जन्म पर उसके नए मानसिक ब्रह्माण्ड का निर्माण इसी मानसिक या सूक्ष्म ब्लैकहोल से होता है। मतलब जैसी सूचना उस अँधेरे में दर्ज होती है, नया ब्रह्माण्ड भी वैसा ही बनता है। तभी तो कहते हैं कि आदमी का नया जन्म उसके पुराने जन्मों के अनुसार ही होता है।

ब्लैक होल में प्रकाश तो अनगिनत सितारों जितना समाया हो सकता है, पर वह दबा हुआ या अव्यक्त होता है। यह मृत्यु के बाद जीवात्मा के सूक्ष्म शरीर अर्थात प्रेतात्मा की तरह है। उसमें अनेक जन्मों के जगत का प्रकाश समाहित होता है, पर वह दबा हुआ सा अर्थात अनभिव्यक्त सा होता है। ऐसा लगता है कि वह प्रकाश बाहर उमड़ने को बेताब है।

हरेक जीव एक ब्रह्माण्ड और ब्लैक होल के रूप में जन्म और मृत्यु को प्राप्त होता रहता है

ब्लैक होल का अनुभवात्मक विवरण

मैं पिछली पोस्ट में बता रहा था कि जीवात्मा का पुनर्जन्म एक मां के गर्भ में होता है। यह अनेक सम्भावनाओं में से एक है। जीवात्मा सूर्य-आदि मार्गों से भी जा सकती है, चंद्रादि मार्ग से भी, स्वर्ग भी जा सकती है और नर्क भी, किसी भी ग्रह या लोक-परलोक को जा सकती है, मुक्त भी हो सकती है, और बद्ध भी रह सकती है। इसका असली अनुभव तो ज्ञानी ऋषियों ने ही किया था, जिसका वर्णन उन्होंने वेद-शास्त्रों में किया है। हम तो उन्हींके अनुभवों की वैज्ञानिक विवेचना करने की कोशिश करते हैं। मेरा अनुभव तो यही है कि मैंने एकबार अपने मृत परिचित की जीवात्मा को अनुभव किया था। वह ब्लैक होल की तरह थी, मतलब उसमें उस आदमी का पूरा व्यक्तित्व समाया हुआ था, जो उसकी जीवित अवस्था से भी ज्यादा अनुभव हो रहा था, उसके पिछले सभी जन्मों के प्रभाव के साथ, पर फिर भी सबकुछ अंधेरनुमा ही था, हालांकि अंतहीन खुले आसमान की तरह। वैसे ही, जैसे ब्लैक होल में पूरा विश्व समाया होता है। ऐसा लग रहा था जैसे उनका जीवित अवस्था का प्रकाशमान जगत अर्थात उनका जीवनयात्रा की शुरुआत से लेकर अब तक का पूरा पिछला व्यक्तित्व किसी दबाव से दबा था, इससे वह अवस्था कज्जली या चमकीली काली थी, मतलब चेतना व सेल्फ अवेयरनेस अर्थात आत्मजागरूकता से भरा अंधेरा था वह, जड़ता या मूढ़ता से भरा नहीं, और शान्तियुक्त आनंद भी था उसमें, हालांकि प्रकाश की कमी से आनंद अधूरा था। ऐसा ही जैसे किसी को सुखचैन तो दो पर अँधेरी कोठरी में बंद रखो। शायद यह एक जानवर जैसा बंधन है जो एक अंधेरे कमरे में बंधा हुआ है, लेकिन अच्छी तरह से खिलाया और पानी पिलाया जाता है, इसलिए भगवान को पशुपति नाथ या जानवरों का स्वामी कहा जाता है। ऐसा लग रहा था कि वह दबा हुआ बैकग्राउंड प्रकाश पूरे जोर व विस्फोट से बाहर को फैलना चाहता हो अभिव्यक्ति के रूप में। सम्भवतः ब्लैक होल भी ऐसा ही होता है। इवेंट होरीजन के साथ देखने पर तो वह वैसा ही लगता है। इवेंट होरीज़ोन को आप आदमी के स्थूल शरीर जैसा या अभिव्यक्त रूप जैसा कह लो, और ब्लैक होल को इसके सूक्ष्म शरीर या दबे रूप जैसा। इवेंट होरीज़ोन में पूरा दृश्य जगत प्रकाशमान और स्थूल होता है, जबकि ब्लैक होल के अंदर वह सूक्ष्मता और अँधेरे में चला जाता है, रहता वहाँ भी पूरा ही है। विचित्र अवस्था होती है सूक्ष्म शरीर की। फिर वो जीवात्मा कई दिन बाद दिव्य जैसी अवस्था में टहलते हुए महसूस हुई। सम्भवतः वह स्वर्ग या मुक्ति की तरफ जा रही थी। मैंने इसका सविस्तार वर्णन एक पुरानी पोस्ट में किया है। मैं इस अनुभव के दौरान तांत्रिक कुण्डलिनी योग का गहन अभ्यास कर रहा था। सम्भवतः इसी ने मुझे उस दिव्य अनुभव के योग्य बनाया था। वह शुभचिंतक प्रेतात्मा थी। इसी तरह एकबार मुझे योगाभ्यास के बीच में ही कुछ अशुभ प्रेतात्माओं के सूक्ष्म शरीरों का अनुभव भी हुआ था। वे हिंसक व गुस्सैल व रक्तपिपासु जैसे लग रहे थे। दरअसल सूक्ष्म शरीर अपनी आत्मा के अंदर या आत्मा के रूप में महसूस होते हैं। वह एक अहसास होता है, जिसके लिए विचारों का घोड़ा दौड़ाने की जरूरत नहीं होती। आपको चीनी की मिठास क्या विचार बताते हैं। नहीं, वह एक अपना अंदरूनी अहसास होता है। उसके साथ पीछे से अच्छे विचार आए, वह अलग बात है। उसी तरह उन दुष्ट प्रेतों के अहसास के साथ कुछ हड्डीनुमा, लाल आँखों वाले व बड़े नुकीले दांतों व गुस्से वाले चित्र तो मन में बने, पर वे तो अहसास का पीछा करने वाले विचार होते हैं, अहसास नहीं। सूक्ष्म शरीर तो एक अहसास ही होता है, बिना किसी भौतिक रूपरंग का। मस्तिष्क एक थिएटर मेन की तरह होता है, जो अहसास या मूड के अनुसार चित्र बना लेता है। मैंने गुरु स्मरण से उस घटिया अहसास को शांत किया। वह अहसास 10-20 सेकंड जितना ही रहा होगा। उसके एक-दो दिन बाद एक बुरी घटना टलने की खुशखबरी मिली। इसी तरह मैंने बताया था कि किस तरह जीव का जन्म होता है। यह भी मैं शास्त्रों में लिखी बातों को वैज्ञानिक अमलीजामा पहना रहा था, कुछ अपना हल्का अनुभव भी है, हालांकि वह गहरा या निर्णायक अनुभव नहीं है। एक उपनिषद में तो एक जगह यहाँ तक कहा गया है कि जीवात्मा बादलों तक पहुंच कर बारिश के जल में घुलकर जमीन पर आ जाती है, फिर जड़ों से होकर अन्न के पौधे में घुस जाती है। जब कोई आदमी उस अन्न के दाने को खाता है, तो उसके शरीर से होकर उसके वीर्य में पहुंच जाती है। उससे उसकी पत्नि के गर्भ में प्रविष्ट होकर जन्म ले लेती है।

जो भौतिक विज्ञान की पहुंच से परे हो, वहाँ आध्यात्मिक योग-विज्ञान से ही पहुंचा जा सकता है

भौतिक वैज्ञानिक ब्लैक होल के अँधेरे में झाँकने में अस्मर्थ हैं। पर योग विज्ञान इशारा कर रहा है कि उसमें सभी पदार्थ अदृष्य आत्मा अर्थात अदृष्य आसमान के रूप में विद्यमान रहते हैं, जिन्हें आसमान रूप आत्मा के द्वारा सीधा अनुभव तो किया जा सकता है पर भौतिक इन्द्रियों के द्वारा नहीं। जीव का सूक्ष्म शरीर भी वैसा ही होता है।

ब्लैक होल ब्रह्माण्ड-शरीर अर्थात ब्रह्मा का सूक्ष्म शरीर व कारण शरीर है

एलियन हरेक भौतिक पदार्थ के रूप में उपस्थित रहकर हमारे सबसे निकट होते हुए भी सबसे दूर हैं

उपरोक्त तथ्यों से तो यही सिद्ध होता है। देहरहित सूक्ष्मशरीर व कारण शरीर के बीच मुझे कोई ज्यादा अंतर नहीं लगता। दोनों में ही क्वांटम फ्लकचूएशनस आत्मा में रिकॉर्ड हो जाती हैं। यही मामुली सा अंतर है कि सूक्ष्मशरीर थोड़े समय के लिए रहता है, क्योंकि उसको स्थूल रूप में प्रकट करने के लिए भौतिक सृष्टि का वजूद होता है, जबकि कारण शरीर लम्बे समय तक बना रहता है, क्योंकि उस समय सृष्टि की प्रलयावस्था होती है, और कहीं कुछ भी भौतिक रूप में नहीं होता। इसके अलावा, कारण शरीर पूरी तरह से शांत दिखाई देता है क्योंकि इसमें किसी भी क्वांटम लहर की उतार-चढ़ाव को आकर्षक भूतिया अभिव्यक्ति के रूप में लंबे समय तक अनुभव नहीं किया जाता है, जैसा कि कभी-कभी सूक्ष्म शरीर के मामले में होता है। इसका मतलब है कि आम जीव की तरह ब्रह्मा नाम के जीव का अस्तित्व भी है, जैसा शास्त्रों में कहा गया है। ब्रह्माण्ड ही उसका शरीर है। यह अलग बात है कि वह इससे बद्ध नहीं होता। प्रलय के समय ब्रह्मा की आत्मा में ब्रह्माण्ड रिकॉर्ड हो जाता है। सृष्टि के समय वह फिर अपने पुराने स्थूल रूप में प्रकट हो जाता है। पर शास्त्र कहते हैं कि ब्रह्मा प्रलय के समय अपनी मृत्यु के साथ मुक्त हो जाता है। फिर नई सृष्टि के लिए वो रेकॉर्डिंग कहाँ रहती है। मतलब साफ है कि वह जीवनमुक्त हो जाता है, विदेहमुक्त नहीं। मतलब उसका शरीर और जन्म-मृत्यु का चक्र बना रहता है, पर मुक्ति के अहसास के साथ। पर जीवनमुक्त तो वह पहले भी था। ऐसा शायद यह दर्शाने के लिए लिखा गया है कि जीव और ब्रह्मा की गति एक जैसी है। ब्रह्मा और जीव में कोई अंतर नहीं। जीवनमुक्त के बारे में जो कुछ भी सोच लो, वह सही ही होता है, क्योंकि वह किसी से प्रभावित ही नहीं होता। यह ऐसे ही है जैसे कुछ अंतरिक्ष वैज्ञानिक अंदेशा जता रहे हैं कि हमें एलियन इसलिए नहीं दिखते क्योंकि वे भौतिक पदार्थों के रूप में ढल गए हैं, और ऐसे बन गए हैं कि वे हर जगह हैं भी और नहीं भी। पूरा ब्रह्माण्ड भी ऐसा ही एक विशालकाय एलियन हो सकता है। सम्भवतः इस बात को जानकर ही सभी चीजों को देवता मानने की और उनको विभिन्न रूपों में पूजने की परम्परा शुरु हुई थी। ऐसे जीवनमुक्त लोग ही तो होते हैं। फिर शास्त्र कहते हैं कि कोई भी जीव तरक्की करते हुए ब्रह्मा बन सकता है। इसका मतलब मुझे यही लगता है कि ब्रह्मा की तरह पूर्ण जीवनमुक्त बन सकता है, न कि असली ब्रह्मा।

शिव अगर सरोवर है तो शक्ति उसमें हलचल पैदा करने वाला हवा का झोँका है

मान लेते हैं कि सरोवर में जल की हलचल की तरह अंतरिक्ष में क्वांटम फ्लकचूएशनस हमेशा विद्यमान रहती हैं, जिसे हम अव्यक्त कहते हैं। यह भी मान लेते हैं कि महाप्रलय के समय अंतरिक्ष एक पूर्ण शांत जल-सरोवर की तरह हो जाता है, जिसमें बिल्कुल भी हलचल नहीं रहती, मतलब क्वांटम फ्लकचूएशनस भी थम जाती हैं। इसे परम अव्यक्त भी कह सकते हैं और परम व्यक्त या परमात्मा भी। जैसे हवा के झोंके से जल की सतह पर बार-बार उसी किस्म की तरंगों के पैटर्न  उसी क्रम में बनते रहते हैं, उसी तरह अंतरिक्ष में भी उसी किस्म की सृष्टि उसी निश्चित क्रम में बारबार बनती रहती है। पर फिर भी अंत में प्रश्न यही बचता है कि प्रलय के अंत में जब सब कुछ शून्य होता है, तब वह ऊर्जा या शक्ति कहाँ से आती है, जो उस हलचल को बढ़ा देती है। शून्य में वो हवा का झोंका कहाँ से आता है, जो शुरुआती हलचल को पैदा करता है। बाद में तो यह भी मान सकते हैं कि हलचल से हलचल खुद ही आगे से आगे बढ़ती रहती है। अंतरिक्ष में चलने वाला वह हवा का झोंका ही वह शक्ति है, जिसे शाक्त सम्प्रदाय वाले लोग शिव की तरह शाश्वत और अविनाशी मानते हैं। शिव अगर निश्चल अंतरिक्ष है, तो शक्ति उसमें हलचल पैदा करने वाला हवा का झोंका है।

कुण्डलिनी योग विज्ञान ही क्वांटम यांत्रिकी, अंतरिक्ष विज्ञान, खगोल-भौतिकी और ब्रह्माण्ड विज्ञान का शिखरबिंदु है

कुण्डलिनी जागरण ही सिद्ध करता है कि अभावात्मक शून्य का अस्तित्व ही नहीं है

दोस्तों, मैं हाल ही में अपने जागृति के अनुभवों को विज्ञानवादियों को प्रेषित करने बारे विचार कर रहा था, ताकि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के रहस्य को सुलझाया जा सके, जिस पर वे बुरी तरह से अटके हुए हैं। पर मुझे उनकी साइटों पर न तो कमेंट बॉक्स मिला और न ही उनकी तरफ से इस तरह की कोई अपील ही गूगल पर मिली। एक-दो का एड्रेस मिलने पर उनसे जीमेल पर कंटेक्ट किया भी पर कोई जवाब नहीं मिला। आपको ऐसा कोई मंच पता हो तो कृपया जरूर शेयर करना।

अध्यात्म विज्ञान और अंतरिक्ष विज्ञान आपस में जुड़े हुए हैं, और एकदूसरे के बिना अधूरे हैं। इसीलिए सनातन वैदिक दर्शन के साथ ज्योतिष विज्ञान भी सम्मिलित किया गया था, और इसे एक विशिष्ट सम्मानजनक स्थान प्राप्त था।

शून्यवाद ही सभी समस्याओं की जड़ है

शून्यवाद सबसे बड़ा द्वैतकारी अज्ञान है। विज्ञान अगर शून्यवाद का सहारा न लेता तो आज प्रकृति और मानवता का विनाश न हो रहा होता। इससे आज चारों तरफ युद्ध, प्राकृतिक आपदा आदि के रूप में हायतौबा न मच रही होती। फिर विज्ञान और अद्वैतरूपी अध्यात्म एकसाथ आगे बढ़ रहे होते और मानवमात्र का सम्पूर्ण व सर्वांगीण विकास सुनिश्चित हो रहा होता। प्राचीन भारत से बुद्ध धर्म इसी वजह से लगभग बाहर कर दिया गया था, क्योंकि उसने शून्यवाद का सहारा लिया। हालांकि बुद्धिस्ट बहुत तर्क देते हैं कि उनका उपास्य शून्य नहीं पर चेतन ब्रह्म है, यह सत्य भी है, पर बौद्ध धर्म के बाहरी आचारविचार से तो वह शून्य ही प्रतीत होता है। आम जनमानस तो ऊपर से ही देखते हैं, गहरी बात नहीं समझ पाते।

लगता है कि दुनिया की सबसे अधिक शून्य-विरोधी संस्कृति हिंदु सनातन संस्कृति ही है। इसमें मिट्टी-पत्थर आदि जड़ वस्तुओं के साथसाथ अंधेरा काला आसमान भी पूजा जाता है। उदाहरण के लिए शनि देव और काली माता

जागृति के अनुभव के आधार पर ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और उसकी आधारभूत संरचना

जिसे हम शून्य या अंधकारनुमा या आनंदहीन आकाश समझते हैं, और अपनी आत्मा के रूप में महसूस भी करते हैं, वह जागृति के समय वैसा महसूस नहीं होता, अर्थात वह अशून्य या प्रकाश या आनंदमय जैसा आकाश महसूस होता है। अशून्य इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि वह भरे-पूरे भौतिक संसार के जैसा ही लगता है। प्रत्यक्ष भौतिक संसार व उससे बने मानसिक चित्र या विचार उसमें तरंगों की तरह महसूस होते हैं। वैसे ही जैसे सागर में तरंगें होती हैं। विभिन्न धर्मशास्त्रों में भी ऐसा ही वर्णन किया गया है। तो क्या विज्ञान इस बात को अनदेखा कर रहा है।

अपने मूल रूप में अंतरिक्ष ही आत्मा है

सारा संसार आभासी व अवास्तविक है

मूल मत ओरिजिनल माने वास्तविक अर्थात निर्विकार रूप में। आइंस्टिन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से यह काफी पहले ही जाहिर हो गया था, पर इस आध्यात्मिक रूप में किसी ने समझा नहीं था। आइंस्टिन बहुत महान व्यक्ति थे पर ऐसा लगता है कि उनका सामना किसी असली जागृत व्यक्ति से नहीं हुआ था। हाहा। आइंस्टिन ने सिद्ध किया कि स्पेसटाईम किसी त्रिआयामी चादर की तरह मुड़ सकता है, उसमें गड्ढे पड़ सकते हैं। वैसे जो पहले ही खाली गड्ढे की तरह है, उसमें एक और खाली गड्ढा कैसे बन सकता है। मतलब साफ है कि अंतरिक्ष वैसा शून्य नहीं है, जैसा आम आदमी समझते हैं। वह एकसाथ शून्य भी है और नहीं भी, वह भावरूप शून्य है, वह आत्मा है, वह परमात्मा है। यह ऐसे ही है, जैसे तलाब के पानी में किश्ती से गड्ढा बनता है। तरंग भी तो इसी तरह गड्ढा बनाते हुए चलती है। मतलब अंतरिक्ष में तरंग बन सकती है। फिर वह शून्य कैसे हुआ। कई लोग यह भी कह सकते हैं कि वह ऐसा शून्य है, जिसमें झूठमूठ वाली माने वर्चुअल तरंग बन सकती है। ऋषिमुनि भी आत्मा का ऐसा ही अनुभव बताते हैं। मतलब वह ऐसी तरंग नहीं होती जो आत्मा को असल में विकृत कर सके। यहाँ तक कि पानी भी तरंग से थोड़ी देर के लिए ही विकृत लगता है, तरंग गुजर जाने के बाद उसकी सतह भी बिल्कुल सीधी और पहले जैसी हो जाती है। हवा के साथ भी ऐसा ही होता है। फिर अंतरिक्ष या आकाश तो उनसे भी सूक्ष्म है, वह कैसे विकृत हो सकता है। वह तो थोड़ी देर के लिए भी विकृत नहीं हो सकता, क्योंकि विकृत होकर जाएगा कहाँ। क्योंकि हर जगह आकाश है। पानी और हवा तो खाली स्थान को खिसक जाते हैं, पर अंतरिक्ष कहाँ को खिसकेगा। इसका मतलब है कि अंतरिक्ष की तरंग पानी और हवा की तरंग से भी ज्यादा आभासी है। मतलब तरंग कहीं नहीं चलती, सिर्फ प्रतीत होती है। है न आश्चर्यजनक तथ्य। गजब का शून्य है भाई। सम्भवतः यही परमात्मा की वह जादूगरी या माया है जो न होते हुए भी सबकुछ दिखा देती है।

शास्त्रीय प्रमाण के रूप में, महाभारत जितने आकार वाले प्रसिद्ध योगवासिष्ठ उपनामित महारामायण ग्रंथ में बारम्बार और हर जगह भावपूर्ण शून्य आकाश या अंतरिक्ष को ही परमात्मा कहा गया है। उसमें हर जगह संसार को असत्य व आभासी कहा गया है।

शून्य में अगर सारी दुनिया विद्यमान है तो वह शून्य दुनिया के जैसे गुणों वाला होना चाहिए

अब हम उपरोक्त वैज्ञानिक विश्लेषण को थोड़ा तर्क की धार देते हैं। अंतरिक्ष रूपी शून्य में वह सभी क्रियाकलाप होते हैं, जो भौतिक संसार में होते हैं, जैसा कि हमने ऊपर कहा। इसका मतलब है कि शून्य का स्वभाव दुनिया के जैसा होना चाहिए। यह तभी संभव है अगर उस शून्य में सत्त्व गुण, रजो गुण और तमोगुण, प्रकृति के ये तीनों गुण एकसाथ विद्यमान हों, क्योंकि भौतिक संसार इन्हीं तीनों गुणों से बना है, जैसा कि शास्त्रों में कहा गया है। इसीलिए उस शून्य आत्मा को त्रिगुणातीत मतलब तीनों गुणों से परे कहा गया है, क्योंकि तीनों गुण एकसमान मात्रा में होने से एकदूसरे के प्रभाव को कैंसल कर देते हैं, हालांकि रहते तीनों गुण हैं। इसीलिए अध्यात्म शास्त्रों में परमात्मा को अनिर्वचनीय भी कहते हैं, मतलब उसमें तीनों गुण हैं भी, नहीं भी हैं, ये दोनों बातें भी हैं और दोनों भी नहीं हैं। शून्य में ये गुण एक दूसरे से कम ज्यादा नहीं हो सकते, क्योंकि समय के साथ भौतिक वस्तु के परिवर्तन से गुण कम या ज्यादा होते रहते हैं। पर शून्य परिवर्तित नहीं हो सकता। इसका मतलब है कि शून्य आत्मा एक ही समय में सत्त्व रूपी प्रकाश, रज रूपी क्रियाशीलता (आभासी तरंग के रूप में, यद्यपि यह नहीं भी है) और तम रूपी अंधकार एकसाथ विद्यमान हैं। यह सब शास्त्रों के इस कथन को सिद्ध करता है कि वास्तविक व सर्वव्यापी अंतरिक्ष जो परम-आत्मा है, वह सभी सांसारिक जीवों की तुलना में कहीं बेहतर तरीके से चेतन है, और वह प्राप्त किया जा सकता है।

शून्य अंतरिक्ष भी भौतिक पदार्थों की तरह व्यवहार करता है

हालांकि सिर्फ यह अंतर है कि जिसे शून्य अंतरिक्ष आभासिक या वर्चुअल रूप में करता है, उसे भौतिक पदार्थ सत्य रूप में करता है। इसलिए शास्त्रों में कहा है कि परमात्मा सबसे बड़ा नटखट, नाटककार और जादूगर है। उदाहरण के लिए समुद्र के पानी से पानी छोटे-छोटे टुकड़ों में बाहर उछलकर वास्तविक बुँदे बनाता है। पर शून्य अंतरिक्ष रूपी सागर में पहली बात, शून्य टुकड़ा बन कर नहीं उछल सकता, दूसरा ऐसी किसी खाली जगह का अस्तित्व ही नहीं है, जो शून्य आकाश के रूप में न हो। इसलिए एक ही रास्ता बचता है कि झूठमूठ की अर्थात दिखावे की अर्थात वर्चुअल बुँदे बनाई जाए। उन्हें ही विज्ञान के अनुसार हम मूल कण अर्थात एलिमेंट्री पार्टिकल्स कहते हैं, जो लगातार शून्य अंतरिक्ष में पॉप होते रहते हैं अर्थात प्रकट होते रहते हैं और उसीमें विलीन भी होते रहते हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे समुद्र से जल की बुँदे बाहर निकलती रहती हैं, और उसीमें विलीन होती रहती हैं। फिर आत्मजागृति का यह अनुभव विज्ञानसम्मत व सही क्यों न मान लिया जाए कि सारी सृष्टि आत्मा के अंदर आभासी तरंग है। दिक्क़त यही है कि उस अनुभव को किसी और को नहीं दिखाया जा सकता और कोई मशीन भी उसे वेरिफाई नहीं कर सकती। इसे खुद अनुभव करना पड़ता है।

विज्ञान-युग का योग-युग में रूपान्तरण

धर्मग्रंथों में यह प्रचुरता से लिखा गया है कि शून्य से जगत की उत्पत्ति नहीं हो सकती। बहुत पहले से ऋषियों को आत्मानुभव से ज्ञात था कि स्वयंप्रकाश आकाशरूप आत्मा से ही इस जगत की उत्पत्ति हुई है, किसी अँधेरेनुमा शून्य अंतरिक्ष से नहीं। इसके लिए बहुत से विज्ञाननुमा तर्क दिए जाते थे, जिससे भी यही सिद्ध होता था। आत्मजागृत अर्थात कुण्डलिनी-जागृत व्यक्ति भी ऐसा ही अनुभव बताते हैं। वह आत्मा भौतिक इन्द्रियों की पकड़ में नहीं आ सकता, केवल अपने स्वयं के असली स्वरूप के रूप में अनुभव होता है। इसलिए एक बात तो साफ है कि विज्ञान से बेशक उसका अंदाजा लग जाए, पर दिखेगा वह केवल योग से ही। विज्ञान उसका अंदाजा लगाकर शांत हो जाएगा, और फिर उसको अनुभव करने के लिए योग की तरफ बढ़ेगा। सारे वैज्ञानिक योगी बन जाएंगे, और विज्ञान-युग योग-युग में रूपान्तरित हो जाएगा।

बाहर के और भीतर के ब्रह्माण्ड में कोई अंतर नहीं है

अगर मन का ब्रह्माण्ड आत्मा के अंदर अनुभव होता है, तो बाहर का भौतिक ब्रह्माण्ड भी, क्योंकि उसे हम मानसिक ब्रह्माण्ड से ही अंदाजन जान सकते हैं, सीधे व असली रूप में कभी नहीं। पर इतना तय है कि बाहरी ब्रह्माण्ड का असली रूप भी मनोरूप ब्रह्माण्ड की तरह ही है। बस इतना सा अंतर है कि बाहरी ब्रह्माण्ड को भीतरी ब्रह्माण्ड से ज्यादा स्थिरता मिली हुई है, इसीलिए हजारों सालों तक सभी को वह लगभग एक जैसा ही दिखता है, पर मानसिक ब्रह्माण्ड विचारों और अनुभवों के साथ प्रतिपल बदलता रहता है।

विज्ञान के कई गहन रहस्य कुण्डलिनी जागरण से सुलझ सकते हैं

उदाहरण के लिए ब्रह्माण्ड के सबसे गहरे मूल में क्या है, क्वांटम एन्टेन्गलमेंट का सिद्धांत क्या है, विद्युत्चुंबकीय तरंग क्या है व कैसे चलती है, वेक्यूम एनर्जी, क्वांटम फलकचुएशन, डार्क एनर्जी, महाविस्फोट, ब्रह्माण्ड का विस्तार, ब्लैक होल, मल्टीवर्स, पैरालेल यूनिवर्स, एंटी यूनिवर्स, फोर्थ डाईमेंशन, स्पेसटाईम ट्रेवल, टेलीपोर्टेशन, एलियन हंटिंग आदि, और अन्य भी बहुत कुछ। कालेब शार्फ, एक अंतरिक्ष विज्ञानी कहते हैं कि पूरा ब्रह्माण्ड ही एक देत्याकार एलियन हो सकता है। आइंस्टिन की नजर में समय एक भ्रम है। ऐसी सभी सोचें और थ्योरियाँ ज्ञानी ऋषियों और दार्शनिकों के चिंतन से मेल खाती हैं। इसलिए विज्ञानवादियों को एकांगी भौतिक सोच छोड़कर योग और अध्यात्म को भी अपने अध्ययन में सम्मिलित करना चाहिए, तभी दुनिया के सारे रहस्यों से पर्दा उठ सकता है। कई क्वांटम थ्योरियाँ योग विज्ञान से समझ में आ सकती हैं, जैसे कि वेव पार्टिकल ड्यूल नेचर ऑफ़ मैटर, स्टैंडिंग वेव, डबल स्लिट एकस्पेरीमेंट, डी ब्रॉगली सिद्धांत, केसीमिर इफेक्ट, आदि बहुत सी। जिस थ्योरी ऑफ़ एव्रीथिंग के लिए वैज्ञानिक लम्बे समय से प्रयास कर रहे हैं, वह लगता है कि योग विज्ञान से मिल सकती है। कुछ वैज्ञानिक सत्य की तरफ बढ़ भी रहे हैं, जैसे कि स्टीफेन हॉकिंग की स्ट्रिंग थ्योरी, रोबर्ट लैंजा की बायोसेंटरिज्म थ्योरी, हरेक वस्तु के रूप में एलियन के छुपे होने की थ्योरी, एडम फ्रैंक की धरती को एक जीवित प्राणी समझने वाली थ्योरी, धरती को अपराधियों के लिए जेल और चन्द्रमा को जेल निगरानी केंद्र मानने वाली थ्योरी आदि,और अन्य भी कई सारी। हालांकि यह सब वैज्ञानिक अंदाजे ही हैं, जैसे मैंने ऊपर कहा। इनको सिद्ध करने के लिए उन लोगों को साथ में लेने की जरूरत है, जिन्होंने योग से कुण्डलिनी जागरण को प्रत्यक्ष रूप में अनुभव किया है। आजकल ऐसी अबूझ किस्म की विज्ञान पहेलियों पर हर जगह चर्चा का माहौल गरमाया हुआ है। लोहा गर्म है, और वैज्ञानिकों को हथोड़ा चलाने में संकोच नहीं करना चाहिए। अगर आप भी इन पहेलियों को सुलझाने में योगदान देना चाहते हैं, तो कमेंट बॉक्स में जरूर लिखें।