कुण्डलिनी योगी को देवराज इंद्र परेशान कर सकते हैं

मित्रो, मैंने पिछले हफ्ते की पोस्ट में बताया कि सभी प्रकार के योगों को एकसाथ अपनाने से ही योग में सफलता प्राप्त होती है। आज हम इस तथ्य की कुछ विस्तारपूर्वक अनुभवात्मक विवेचना करेंगे।

कर्मयोग सभी योगों की प्रारंभिक सीढ़ी के रूप में

ऐसा इसलिए है, क्योंकि कर्मयोग सबसे आसान है। इससे दुनिया में रमा हुआ आदमी भी ऐसे ही शांत व दुनिया से दूर बना रहता है, जैसे कमल का पत्ता पानी में डूबा रहकर भी पानी की पहुंच से दूर रहता है, और सूखा ही बना रहता है। कर्मयोग तो जिंदगी में हमेशा ही बना रहना चाहिए। परंतु यह किशोरों व युवाओं के लिए विशेष महत्त्व का है, क्योंकि इसी उम्र में कर्म तेजी से किए जाते हैं। कर्म की मात्रा जितनी ज्यादा हो, कर्मयोग भी उतना ही ज्यादा प्रभावशाली होता है। कर्मयोग को अद्वैत भाव या अनासक्ति भाव भी कहते हैं। मेरे घर पर शुरु से ही योग का प्रभुत्व होने से मुझे कर्मयोग के संस्कार विरासत में मिले। वैसा मेरा कर्मयोग तभी चरम पर पहुंचा, जब उसमें किसी अज्ञात ईश्वरीय प्रेरणा से तंत्र भी सम्मिलित हुआ। इसी से मुझे आत्मजागृति को दो बार अनुभव करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वास्तव में तंत्र से कर्म करने की शक्ति बढ़ जाती है, जिससे कर्मयोग भी बढ़ जाता है। फिर किसी दिव्य प्रेरणा से मैंने शरीरविज्ञान दर्शन की रचना की। यह एक व्यवहारिक दर्शन है, और दुनिया के झमेले में फंसे एक व्यक्ति के लिए रामबाण ओषधि है। इस दर्शन से मुझे बहुत बल मिला। इससे मुझे चहुँमुखी भौतिक तरक्की के साथ आध्यात्मिक तरक्की भी मिली। इसको बनाने के करीब 4-5 वर्ष पहले मुझे एक आत्मज्ञान की झलक भी मिली थी। उससे मैं विशेष हो गया था। मैं पूरी तरह से अद्वैत सागर में डूब गया था। दुनिया वालों को मैं मंगल ग्रह से आए आदमी की तरह लगने लगा, जिससे वे मुझे हीन सा समझने लगे और मुझे अलग-थलग सा रखने लगे। वे अपनी जगह पर सही भी थे। वे मुझे पारलौकिक आयाम में प्रविष्ट नहीं होने देना चाहते थे। हालांकि वह आयाम सर्वश्रेष्ठ होता है, पर उस आयाम में रहकर दुनियादारी के काम ढंग से नहीं हो पाते। देवता आदमी को उस आयाम में जाने से रोकते हैं, क्योंकि यदि सभी लोग उस आयाम में चले गए, तो उनकी रची हुई दुनिया कैसे चल पाएगी। तभी तो प्राचीन काल में देवताओं का राजा इंद्र योगियों की तपस्या भंग करने आ जाता था। इंद्र को डर होता था कि यदि कोई आदमी योगबल से अपनी ओर दुनिया के लोगों को आकर्षित करेगा, तो उसे कोई नहीं पूछेगा। इंद्र को एकप्रकार से अपने प्रभुत्व की राजगद्दी के खो जाने का डर सताता रहता था। इसी खतरे के मद्देनजर ही मैं योगसाधना को सावधानी से करता हूँ। जैसे ही मैं पारलौकिक आयाम में प्रविष्ट होने लगता हूं, और मुझे देवताओं से खतरे का आभास होने लगता है, मैं तुरंत कुछ तांत्रिक टोटका अपनाकर उस आयाम से बाहर निकल आता हूं। सूत्रों के अनुसार योगी श्री साधुगुरु भी ऐसा ही कहते हैं, और सम्भवतः करते भी हैं। वास्तव में, देवताओं से मधुर संबंध बना कर ही आदमी उनकी बनाई दुनिया से ऊपर उठ सकता है।

उपरोक्त आध्यात्मिक अलगाव के कारण मेरे लिए दुनिया के बीच खुलकर सम्मिलित होना मुश्किल हो गया था। इससे मुझे कर्महीनता और बोरियत सी सताने लगी। इसीको कुंडलिनी का विपरीत चैनल में चढ़ना कहते हैं। एक इड़ा चैनेल है, और एक पिंगला। एक भावनात्मक है, और एक कर्मात्मक। मैं भावनात्मक ज्यादा हो गया था। चित्र-विचित्र अनुभवों में और पुरानी यादों में डूबा रहता था। इससे कर्म करने की शक्ति का ह्रास होता था। इसी वजह से मुझे उस समय यौन साथी की बहुत जरूरत महसूस होती थी। यौनबल से कुण्डलिनी बीच वाले सुषुम्ना चैनल में चढ़कर सहस्रार तक पहुंच जाती है। इससे आदमी का जीवन संतुलित हो जाता है। यौन साथी का तो नहीं, पर शरीरविज्ञान दर्शन का साथ मुझे जरूर मिला। इससे उत्पन्न अद्वैत से मेरे फालतू के विचारों पर लगाम लग गई। इससे जो शक्ति की बचत हुई, उससे मेरी कुंडलिनी सुषुम्ना चैनल से होकर सहस्रार में प्रविष्ट हुई। फिर मेरी कुंडलिनी को यौनबल के बिना ही उछालें मारते देखकर संभावित यौन साथी भी मेरी ओर नजरें घुमाने लगे। जिस समय मुझे यौनबल की जरूरत थी, उस समय तो कहीं कोई नजर नहीं आया, पर जब मैंने अपना यौनबल खुद ही निर्मित कर लिया, तब वे  भी उसके प्रति उत्साहित होने लगे। वास्तव में जो कुछ हुआ, वह ठीक ही हुआ। अगर मुझे यौनबल समय से पहले मिल गया होता, तो मैं अपना स्वयं का दार्शनिक यौनबल पैदा करना न सीख पाता, और न ही मुझे आत्मजागृति की दूसरी झलक मिल पाती।

थोड़ी उम्र बढ़ने पर मेरा ज्यादा झुकाव ज्ञानयोग व हठयोग की तरफ हो गया

हालाँकि कर्मयोग भी चला हुआ था। एकबार तो आत्मज्ञान के एकदम बाद मेरा भक्तियोग भी काफी बढ़ गया था। दरअसल जब भौतिक साथियों से धोखा खाकर मैं पूरी तरह निरुत्साहित हो गया था, तभी मुझे आत्मज्ञान अर्थात ईश्वर दर्शन की झलक मिली थी। उससे मुझे संतुष्ट व सुखी रहने के लिए भरपूर सहारा मिला। मैं अपने को ईश्वर का विशेष कृपापात्र समझने लगा। मैं उसके प्रति बार बार आभार प्रकट करता था, और विभिन्न स्तुतियों से उसे धन्यवाद देता था। यही तो ईश्वर भक्ति है। इससे जाहिर होता है कि सभी प्रकार के योग एकसाथ चलते रहने चाहिए। समय के अनुसार उनके आपसी अनुपात में बदलाव करते रहना चाहिए। ऐसा करने पर आत्म जागृति की प्राप्ति को कोई नहीं रोक सकता।