कुंडलिनी चक्र ही ज्योतिष वर्णित आकाश के नौ ग्रह हैं

दोस्तों, सनातन संस्कृति में जन्मदिन के मौके पर एक धर्मिक अनुष्ठान किया जाता है। इसमें सभी देवताओं और ग्रहों की पूजा की जाती है। नौ ग्रहों के नाम पर नौ ग्रंथियां चढ़ाई जाती हैं। हर एक ग्रह का एक विशेष रंग और विशेष अनाज होता है। उस रंग के कपड़े में उस अनाज को बांध कर एक गठड़ी बनाई जाती है। इसे ही ग्रंथि कहते हैं।

सहस्रार चक्र का रंग सफेद होता है। आज्ञा चक्र का रंग नीला, विशुद्धि चक्र का आसमानी, अनाहत चक्र का हरा, नाभि चक्र का पीला, स्वाधिष्ठान का नारंगी और मूलाधार का लाल होता है। तीन मुख्य रंग नीला, हरा और लाल क्रमशः आज्ञा, अनाहत और मूलाधार चक्र के होते हैं। ये तीन चक्र मुख्य होते हैं। ये तीनों चक्र क्रमशः सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण के प्रतीक हैं। तीनों के रंग क्रमशः नीला, हरा और लाल हैं।

वैसे तो सफेद रंग को ज्यादा सात्विक माना जाता है। पर गहन चिंतन, समझ और जागरूकता के साथ चिंतन में जो सात्विक गुण है, नीला रंग उसी का प्रतीक है। इसी तरह हालांकि लाल रंग को ज्यादा रजोगुणी माना जाता है, पर मुझे तो हरे रंग में ज्यादा रजोगुण लगता है। हरे रंग में लाल रंग की अपेक्षा ज्यादा नियंत्रित रजोगुण होता है। हृदय से संबंधित भावनात्मक प्रेम के साथ आदमी ज्यादा ही मेहनती बन जाता है। किसान हरीभरी साग सब्जी के बीच रहता है, इसीलिए इतना मेहनती होता है।
प्रकृति में हरे रंग की बहुतायत है और वह भी बहुत क्रियाशील है। हरियाली में रहकर आदमी भावनात्मक व प्रेमी जैसा बन जाता है। इसीलिए तो नवविवाहित जोड़े अक्सर हरीभरी वादियों के बीच घूमने में ज्यादा समय गुजारते हैं। मूलाधार के लिए काले रंग से ज्यादा बेहतर लाल रंग इसलिए है, क्योंकि लाल रंग में तमोगुण के साथ-साथ ऊपर उठना और विकास करना छिपा होता है। यह शक्ति के जागरण और सुषुम्ना से उसके ऊपर चढ़ने के लिए जरूरी है। लाल रंग बेशक हिंसा से जुड़ा होने के करण तमोगुणी है पर इसमें रजोगुण भी होता है। हिंसा यहां वर्चुअल या आभासी है। योग आदि के रूप में शारीरिक कष्ट सहने और तप करने के रूप में ही यह परिलक्षित होती है।

शरीर का ऊपरी भाग सतोगुण से भरा होता है। क्योंकि वह विचारों से जुड़ा होता है। बीच वाला भाग रजोगुणी होता है। क्योंकि शरीर और दुनिया के अधिकांश भौतिक काम बीच वाले हिस्से से ही  होते हैं। नीचे वाला हिस्सा तमोगुणी होता है। वहां दुर्गंधयुक्त अपशिष्ट पदार्थ होते हैं। अपशिष्ट मृत्यु का सूचक है। मृत्यु के बाद सबकुछ सड़ गल कर दुर्गंध युक्त अपशिष्ट ही बन जाता है।

सफेद रंग की ग्रंथि का ध्यान सहस्रार में किया जाता है। इसमें बंधे लगभग 1 किलो चावल के दाने अनगिनत सात्विक विचारों के प्रतीक हैं। आज्ञा चक्र की नीली ग्रंथि के तिल के दाने सत्त्व मिश्रित बुद्धिमत्ता के विचार हैं। अनाहत चक्र के लिए हरी ग्रंथि में बंधे हरी मूंग के दाने भावनात्मक विचारों के प्रतीक हैं। पीलापन अनाज, पत्ते आदि के पकने की निशानी है। इसीलिए इस रंग की ग्रंथि मणिपुर चक्र में है। इस चक्र से पाचन के काम होते हैं। मतलब इससे ही अन्न पचता या पकता है। इसके पीले चने की दाल के दाने इस चक्र में दबे और पाचन या भोजन से जुड़े हुऎ विचारों के प्रतीक हैं। संतरे का नारंगी रंग रजोगुणी खट्टेपन का प्रतीक है। स्वाधिष्ठान चक्र भी रजोगुणी ही होता है, क्योंकि यह यौन कामुकता से जुड़ा होता है। मसूर के नारंगी दाने भी यहां फिट बैठते हैं। मूलाधार चक्र की लाल ग्रंथि में बंधे लाल गेहूं या मसूर के लाल दाने तमोगुण मिश्रित रजोगुणी विचार हैं। लाल टमाटर भी यहां काम कर सकते हैं।

मुझे तो लगता है कि तुलादान से भी ऐसा ही प्रभाव पैदा होता है, वह भी बढ़े हुए रूप में। इसीलिए इसको महादान कहा जाता है क्योंकि इससे एकदम क्रूरग्रह निवारण मिलने के साथ शांति सी महसूस होती है। आदमी के वजन के बराबर कुछ किस्मों का मिश्रित अनाज व तेल, नमक जैसे कुछ थोड़े से अन्य खाद्य पदार्थ एक बोरी में इकट्ठे करके एक तकड़ी में तोले जाते हैं। एक तरफ आदमी बैठा होता है, दूसरी तरफ अनाज डाला जाता रहता है। जब आदमी वाला पलड़ा ऊपर उठता है तो एक हल्कापन सा महसूस होता है। ऐसा लगता है कि पाप और ग्रहों का बोझ उतरकर अनाज में चला गया है। फिर वह अनाज या तो सुपात्र ज्ञानी पंडित को दिया जाता है या पवित्र गौवों को खिलाया जाता है। मुझे लगता है कि पापपूर्ण या आसक्तिपूर्ण विचार अनाज के दानों के रूप में बोरी में बंद हो जाते हैं। जैसे ही वह अनाज बाहर खुलकर किसी पवित्र शरीर और आत्मा में विलीन हो जाता है,उसी के साथ यजमान के विचार भी आत्मा में विलीन हो जाते हैं।

ग्रह भी मूलतः सात ही हैं। और चक्र भी सात ही हैं। वैसे तो ग्रह नौ गिने जाते हैं, पर राहु और केतु कोई असली ग्रह नहीं बल्कि छाया ग्रह हैं। मूलाधार को मंगल ग्रह से, स्वाधिष्ठान चक्र को बृहस्पति ग्रह या चंद्रमा से, मणिपुर चक्र को सूर्य से या बृहस्पति से, अनाहत चक्र को चंद्रमा व शुक्र से, विशुद्धि चक्र को बुध ग्रह से, आज्ञा चक्र को शनि से और चंद्रमा से, और सहस्रार चक्र को सूर्य और केतु से जोड़ा जाता है। ग्रहों के ध्यान का तो पता नहीं, पर मुझे तो अनाज की रंगीन गठरी का आगे के चक्र पर ध्यान करने से उससे जुड़े पीछे के चक्र पर शक्ति महसूस होती है। साथ में बीज मंत्र के स्मरण से वह और बढ़ जाती है। क्या आपके साथ भी ऐसा ही होता है? कमेंट में लिखें।

तो क्या नौ ग्रह विभिन्न चक्रों के रूप में हमारे शरीर में ही स्थित हैं? मुझे तो ऐसा ही लगता है। वैसे भी यह शरीरविज्ञान दर्शन के अनुसार ही है जिसके अनुसार समस्त ब्रह्मांड हमारे शरीर के अन्दर है। इन ग्रंथियों को ग्रहों को अर्पित करते हुऎ मुझे चक्रों को बल मिलता हुआ प्रतीत होता है। बहिर्मुख व ग्राम्य किस्म के पुराने जमाने के लोगों को कुंडलिनी योग और उससे जुड़े शरीर के चक्रों के बारे में समझाना कठिन होता था। इसीलिए इन चक्रों को आकाश में स्थित ग्रहों के रूप में समझाया गया। यह इसलिए ताकि उन लोगों को भी अप्रत्यक्ष रूप से कुंडलिनी योग और चक्र ध्यान का लाभ अनायास ही मिल पाता।

और कहें, तो शक्ति का स्रोत अन्न ही है। मतलब अन्न रूपांतरित होकर शक्ति बन जाता है। इसी वजह से चक्रों पर संबंधित अन्न के दानों के ध्यान से वहां शक्ति ज्यादा महसूस होती है। जन्मदिन के पूजन के अवसर पर उपरोक्त सभी ग्रहों से संबंधित ग्रंथियां सुपात्र पुजारी पंडितजी को दी जाती हैं। वे जब उन ग्रंथियों को बारी बारी से खोलते हैं, तो एक टेलीपेथी जैसी होती है। जब वे लाल ग्रंथि को खोलकर उसके लाल गेहूं के दानों को अपने अन्न भंडार में गिराते हैं तो यजमान के मूलाधार में अटके विचार भी मुक्त हो जाते हैं। जब पंडित जी उस अनाज को खाते हैं तो वे दाने उनके शरीर में विलीन हो जाते हैं। इसके साथ ही यजमान के मूलाधार से छूटे हुए विचार भी उनके विचारों के साथ मिल जाते हैं। जब वे विभिन्न आध्यात्मिक साधनाओं से उन विचारों को आत्मा या परमात्मा में विलीन करते हैं तो यजमान के वे भटके हुए विचार भी खुद ही आत्मा में विलीन हो जाते हैं। इसी तरह जब पुरोहित यजमान के अनाहत चक्र से जुड़ी हरे रंग की मूंग की दाल खाते हैं तो उसमें अटके विचार भी आत्मा में विलीन हो जाते हैं। इसी तरह आज्ञा चक्र से जुड़े तिल को खाने से वहां अटके बौद्घिक विचार मुक्त होकर आत्मा में विलीन हो जाते हैं। यह बहुत गहरा आध्यात्मिक विज्ञान। इसकी जितनी ज्यादा परतें खोलते जाओ, ज्ञान में उतना ही ज्यादा इजाफा होता रहता है।

नवग्रह पूजन में सतनज्जे का प्रयोग भी होता है। मुख्य ग्रह भी सात ही होते हैं और मुख्य चक्र भी सात ही हैं। तुलादान में भी सतनज्जे का प्रयोग सात चक्रों की झाड़ सफाई के लिए ही किया जाता है। हालांकि इसे नवग्रह तोषण का नाम दिया जाता है। हवन में भी सतनज्जे का प्रयोग होता है। जब सात किस्म का अनाज हवन की अग्नि में जलता है, तब सातों चक्रों में दबे विचार जलकर राख हो जाते हैं।  इससे मन की सफाई हो जाती है, जिससे वह उच्च आध्यात्मिक साधना के लिए तैयार हो जाता है।