केवल कुम्भक और मौन चेतना का प्राकट्य

मित्रो, जब सही समय आता है, केवल कुम्भक स्वयं घटित होता है। इसे प्रयास से प्राप्त नहीं किया जा सकता; यह अपने आप होता है। श्वास स्वाभाविक रूप से थम जाती है और स्थिरता छा जाती है। विचार उठने की कोशिश करते हैं, लेकिन ध्यान का चित्र तुरंत प्रकट होता है और फिर से निःश्वास रहित स्थिति आ जाती है। यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक कोई इसे तोड़ने का निश्चय नहीं करता।

सबसे लंबी अवधि जिसमें मैं केवल कुम्भक में रहा, वह लगभग दो घंटे थी, जब मैं बस में यात्रा कर रहा था। लंबे समय तक बैठने से शरीर में जकड़न हो सकती है, लेकिन मैं अपनी स्थिति को इस तरह समायोजित करता हूँ कि स्थिरता बनी रहे। वैसे बस का आसन सर्वोत्तम लगता है क्योंकि इसमें हल्के झटके या कंपन लगते रहने से शरीर की सूक्ष्म मालिश होती रहती है जिससे इसमें जकड़न नहीं होती, और न ही टांगें वगैरह सुन्न जैसी होती हैं। इस दौरान एक गहरी शांति, हल्कापन और सुकून अनुभव होता है। किसी भी गतिविधि की जीवनचर्या के साथ आदमी केवल कुंभक के स्तर तक पहुंच सकता है —बल्कि, कठिन कार्य के बाद विश्राम की अवस्था में यह और अधिक लगता है, जिससे सबकुछ सहज महसूस होता है, मानो केवल ध्यान ही हो रहा हो। यद्यपि दैनिक गतिविधि के दौरान शरीरविज्ञान दर्शन पर विचार करने से ध्यान लगने में सहायता मिलती है। केवल कुम्भक इस सहायता को और बढ़ाता है। काम जितना ज्यादा चुनौतीपूर्ण होता है, यह सहायता भी उतनी ही ज्यादा मिलती है।

समय के साथ, ध्यान का चित्र ‘मैं’ का स्थान लेने लगा है। मेरी दस सेकंड की आत्मबोध की झलक में, यह चित्र पूरी तरह मुझसे और इस संसार से एक हो गया था। अब, यह स्थिरता की ओर एक सेतु जैसा कार्य करता है। यह पूरी तरह विलीन होगा या एक सहारा बना रहेगा, यह अज्ञात है—यह प्रक्रिया स्वयं अपना मार्ग तय कर रही है। कोई प्रयास नहीं, कोई संघर्ष नहीं, बस स्वाभाविक प्रवाह।

जिज्ञासा कभी समाप्त नहीं होती। खोज का आनंद, इसे साझा करने की प्रेरणा और लेखन की कला इन अनुभवों को और अधिक स्पष्ट करने में सहायक होती है। सादगी ही मूल तत्व है—सत्य को कम शब्दों में व्यक्त करना ही उसकी गहराई को बनाए रखता है। अंततः, यह जानना महत्वपूर्ण नहीं कि यह यात्रा कहाँ ले जाएगी, बल्कि इसे क्षण-प्रतिक्षण घटित होने देना ही वास्तविक साधना है।

कुंडलिनी और सहज श्वास रुकना: एक छिपा हुआ रहस्य

श्वास बिना किसी प्रयास के अपने-आप रुक जाए—पहले तो यकीन नहीं हुआ। और वो भी सिर्फ गहरी साधना में नहीं, बल्कि बस में बैठे-बैठे, थकान के बाद आराम करते हुए या बस कूटस्थ (भृकुटि केंद्र) पर हल्का ध्यान रखने से!

पहले तो समझ नहीं आया कि ये क्या हो रहा है। पर धीरे-धीरे एहसास हुआ—ये कोई साधारण सांस रोकने की क्रिया (कुंभक) नहीं, बल्कि प्राण के भीतर सिमटने का स्वाभाविक नतीजा था।

केवल कुंभक: बिना किसी प्रयास के श्वास का थम जाना

यह अनुभूति बड़ी ही विचित्र थी, पर भीतर गहरी शांति का एहसास देती थी। मैंने गौर किया कि यह दो स्थितियों में अधिक होता है—

जब ध्यान हल्के से कूटस्थ (आज्ञा चक्र) पर टिकता है।

ज़्यादा जोर नहीं, बस सहज जागरूकता।

और फिर एकदम से श्वास धीमी पड़ जाती है या रुक जाती है।

जब बहुत अधिक थकान या मानसिक तनाव के बाद शरीर पूरी तरह ढीला छोड़ दिया जाता है।

जैसे ही मन और शरीर गहराई से विश्राम में जाता है, बिना किसी प्रयास के श्वास ठहर जाती है।

ध्यान देने वाली बात यह थी कि यह सिर्फ साधना तक सीमित नहीं था। यह तब भी हो रहा था जब मैं कोई विशेष योग नहीं कर रहा था।

श्वास नहीं, प्राण मुख्य भूमिका निभा रहा है

पहले मैं सोचता था कि मन का शांत होना ही इसका कारण है। लेकिन ध्यान से देखने पर महसूस हुआ कि असल में यह प्राण के भीतर सिमटने से हो रहा है, और मन की शांति इसका परिणाम है।

यानी, श्वास को जबरदस्ती रोकने से ध्यान गहरा नहीं होता, बल्कि जब प्राण भीतर खिंचता है, तब श्वास अपने-आप रुक जाती है।

नियमित प्राणायाम से यह अनुभव अधिक क्यों होता है?

जो लोग रोज़ प्राणायाम करते हैं, उनमें यह अनुभव जल्दी और अधिक बार होता है। कारण साफ़ है—

प्राण श्वास से अलग होना सीख जाता है।

सामान्यतः प्राण, श्वास के साथ अंदर-बाहर चलता है। मतलब श्वास के अंदर बाहर चलने के साथ प्राण शरीर में खासकर पीठ में ऊपर नीचे जाता रहता है।

लेकिन जब प्राणायाम नियमित रूप से किया जाता है, तो प्राण अधिक स्वतंत्र हो जाता है और शरीर को निरंतर सांस लेने की आवश्यकता कम होने लगती है।

दरअसल श्वास, प्राण के पीछे चलती है, न कि प्राण श्वास के पीछे। यह आश्चर्यजनक है। प्राण का खिंचाव सांस को चलाता है न कि इसका उल्टा।

जैसे-जैसे प्राण भीतर खिंचता है, श्वास स्वाभाविक रूप से धीमी या स्थिर हो जाती है। भीतर खींचता है मतलब शरीर के अन्दर खुद ही ऊपर नीचे चलने लगता है और चलने के लिए बाहरी श्वास पर निर्भर नहीं रहता।

श्वास का रुकना सहज हो जाता है।

इसे जबरदस्ती नहीं करना पड़ता, यह अपने-आप घटित होता है।

इसीलिए जो लोग नियमित प्राणायाम करते हैं, वे पाते हैं कि साधारण परिस्थितियों में भी उनकी श्वास अपने-आप रुक जाती है।

इस अनुभव को स्वयं कैसे महसूस करें?

अगर आप इसे खुद अनुभव करना चाहते हैं, तो इन सरल चीजों को आज़माएँ—

थकान के बाद किसी शांत जगह बैठें और शरीर को पूरी तरह ढीला छोड़ दें।

श्वास को न रोकें, न ही उस पर ध्यान दें—बस सहज रहें। वैसे सोहम जाप के साथ हल्का ध्यान दे भी सकते हैं। कई बार तो इससे फायदा ही होता है।

मुझे यह भी लगता है कि अगर सुबह जल्दी उठकर साधना की जाए तो दिन में केवल कुंभक लगने की संभावना बढ़ जाती है।

हल्की जागरूकता कूटस्थ (भृकुटि केंद्र) पर रखें, बिना किसी दबाव के।

ध्यान दें कि श्वास अपने-आप धीमी हो रही है या थम रही है।

शुरुआत में यह अनुभव क्षणिक हो सकता है, लेकिन जैसे-जैसे अभ्यास बढ़ता है, यह अधिक स्वाभाविक हो जाता है। और फिर आपको समझ आता है—श्वास का रुकना कोई साधन नहीं, बल्कि प्राण की गहरी अवस्था का संकेत है।

अंतिम समझ: सहज कुंभक की नई दृष्टि

केवल कुंभक को अब मैं एक अलग दृष्टि से देखता हूँ।

यह केवल गहरी साधना या जबरदस्ती की गई क्रिया नहीं है।

यह तब होता है जब प्राण भीतर लौटता है।

यह अधिक बार उन्हीं के साथ घटित होता है जो नियमित रूप से प्राणायाम करते हैं।

यह कुछ ज़बरदस्ती करने से नहीं, बल्कि सहज होने से प्रकट होता है।

जब यह सहज रूप से घटित होता है, तो यह एक गहरी सच्चाई को उजागर करता है—शरीर को जीवित रखने वाली असली शक्ति श्वास नहीं, बल्कि प्राण है।