सभी मित्रों को प्रयागराज स्थित महाकुंभ मेले की शुभकामनाएं
दोस्तों इस बार सोचा कि जो कुछ मन में है, उसे लिखता जाऊं, बेशक वह व्यवस्थित पोस्ट न बन पाए? मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है कि मैं ऐसे ही बैठकर लिखने लग जाता हूं और वह लेख खुद ही एक व्यवस्थित पोस्ट बन जाता है।
महान कुंभ मेले में इस बार कई महान हस्तियां संन्यासी के रूप में दिखीं। उदाहरण के लिए, आईआईटी बाबा जी या गोरख मसानी जी और ममता कुलकर्णी जी। माना कि अधिकांश संन्यासियों को संसार छोड़कर शांति मिली, ज्ञान भी मिला। पर किसी ने भी आत्मज्ञान या कुंडलिनी जागरण मिलने का अनुभव बयां नहीं किया। तो क्या संन्यास सिर्फ शांति और ज्ञान तक ही सीमित रह गया है। सोचा जा सकता है कि कई लोग इसे जगजाहिर नहीं करते। पर यह बात गले नहीं उतरती। अगर वे चमत्कारों से भरी सिद्धियां और शक्तियां सबके साथ साझा कर सकते हैं, तो जागृति के अनुभव को क्यों नहीं। कहीं ना कहीं झोल तो जरुर है। मैं संन्यास परंपरा पर अविश्वास प्रकट नहीं कर रहा हूं। पर इसकी भी अपनी सीमाएं हैं।
संन्यासी लोग आम गृहस्थी लोगों को सादगी, साधना, परोपकार और निर्लिप्तता के साथ जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। पर यह पंथ भी पात्र लोगों के लिए ही सुरक्षित रहना चाहिए। अपात्र लोगों के इसमें प्रवेश से यह दूषित भी हो सकता है। पुराने जमाने में गुरु अपने शिष्य की कठोर परीक्षा लेकर आश्वस्त होने पर ही उसे संन्यासी अपनाने की अनुमति देते थे, ऐसे ही नहीं। वैसे तो अखाड़े में प्रवेश के लिए कठिन परीक्षा होती है, इसलिए इसकी गुणवत्ता पर शक नहीं किया जा सकता। अखाड़ों से इतर इधर उधर घूमते हुए और अपनी मनमर्जी के बाबा सबके बारे में भ्रम पैदा करते हैं। हमारे पूज्य दादा जी ने भी एक बार अपने गुरु से संन्यास में दीक्षा के लिए अनुमति मांगी थी। पर गुरु ने यह कहते हुऎ साफ इन्कार कर दिया था कि तब उनके गृहस्थी के दायित्व अधूरे थे। उन्होंने वह सलाह मान ली थी। इसी वजह से वह गृहस्थी में निर्लिप्त रूप से बने रहे। उन्हीं की बदौलत आज हम यहां पर हैं। अगर वे असमय ही संन्यासी बन गए होते तो हम आज हम न होते, न यह ब्लॉग ही होता, न इतनी पुस्तकें और न ही इतना ज्ञान विज्ञान।
संन्यास लेने से मस्तिष्क का भार कम होता है। इससे साधना करने का बल प्राप्त होता है। पर शक्ति की पर्याप्त उपलब्धता न होने से वह साधना अक्सर समय पर सफल नहीं हो पाती। आपको तो पता ही है कि शक्ति स्त्री के साथ जुड़ी होती है, और संन्यास में उसका साथ वर्जित है। या फिर शक्ति की कमी से सफलता मिलने में अनगिनत वर्ष लग जाते हैं। बहुत से लोग तो इस लंबी अवधि तक इंतजार ही नहीं कर सकते, और कई तो बोरिया बिस्तर बांध कर निकल लेते हैं। और कई साधनाभ्रष्ट होकर भांग आदि के नशे की आदत में पड़ जाते हैं। समय तो हर जगह ही चक्रवत चलता है। थोड़े समय के लिए दुनिया छोड़ने से बेशक शांति मिल जाए पर जल्दी ही वह शांति भी बोझ लगने लगती है। वह शांति सापेक्ष होती है, निरपेक्ष नहीं। निरपेक्ष तो परम शांति ही है जो पूर्ण समाधि लगने पर ही मिलती है। सिर से बोझ हटाने पर भी कुछ समय के लिए सिर हल्का सा लगता है। पर कुछ समय बाद खाली सिर भी बोझ लगने लगता है। और फिर बोझा उठाने का मन करता है। उस थोड़े से सापेक्ष शांति के समय में अगर जागृति मिल गई तो ठीक है, नहीं तो फिर तो गई बात। यह इसलिए क्योंकि उस शांति का समय पूरा होने पर वह फिर से प्रकृति से विवश होकर दुनियादारी का बोझ उठा लेता है। बेशक वह दुनियादारी फिर मठ मंदिर तक ही सीमित है। पर है तो दुनियादारी ही। वहां से बोझ नहीं लिया तो यहां से ले लिया। सुवर्ण का कलश सिर से उतारा तो मिट्टी का उठा लिया।
बात एक ही है।
इस संदर्भ में मुझे योगवासिष्ठ ग्रन्थ की राजा शिखिध्वज की कथा याद आ रही है। वह महान ज्ञानी और योगिनी चुड़ाला का पति था। राजा राज्य छोड़कर जंगल को चला जाता है, और वहां एक गृहस्थ की तरह रहने लगता है। रानी उसे बहुत समझाती है पर उसके ऊपर तो संन्यास का भूत सवार था। सुबह शाम संध्या, तर्पण, देव बलि, यज्ञ, मूर्ति पूजा करना और उनके लिए पूरे दिनभर व्यस्त रहना। उसे जंगल में रहते हुए कई वर्ष बीत गए पर उसे जागृति का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हुआ। उसकी योगिनी पत्नी अपनी योगविद्या से उसका सारा तमाशा देख रही थी। दयावश वह जंगल में आ गई और उसका दुखड़ा सुनकर दयावश उसे समझाने लगी। वह अपने पति से कहने लगी कि जब उन्होंने गृहस्थी छोड़ दी थी तो जंगल में नई गृहस्थी क्यों शुरु की। एक बोझ उतारकर दूसरा बोझ उठाने से कैसे शांति मिलेगी। जो थोड़े समय के लिए सापेक्ष शांति मिली थी, उसमें उन्होंने असली ध्यान साधना नहीं की बल्कि अपनी संचित ऊर्जा नई गृहस्थी बढ़ाने में लगा दी। अब जब उनका मन साधना को कर रहा है तो जंगली गृहस्थी के जंजाल के कारण शक्ति नहीं बची है। समय से चूके तो चुक गए। फिर राजा ने अपनी पत्नि को अपना गुरु बनाया और उसके मार्गदर्शन में योग साधना की। अंततः उसे ज्ञान मिल गया। फिर जब वह उसे अपने साथ वापिस राज्य में ले जाने लगी तो राजा संकोच करने लगा इस डर से कि कहीं वह फिर अज्ञान में न पड़ जाए। तब रानी ने उसे समझाया कि ज्ञान होने के बाद अज्ञान नहीं होता, चाहे आदमी जिस मर्जी सुखभोग को अपनाए। हां एक शर्त है कि निर्लिप्त रहना पड़ता है। रानी की प्रणय विलास की लालसा भी राजा के असमय वन जाने के कारण अधूरी थीं। फिर वे दोनों सुंदर वाटिकाओं, वनों, उपवनों आदि में विविध विमानों से भ्रमण करते हुए और विविध प्रेमालाप करते हुए अपार सुख के साथ अपने राज्य को लौटे। अनगिनत वर्षों तक सुखपूर्वक राज्य को भोगते हुए वे दोनों मुक्त हो गए। यह इस ग्रन्थ की मुख्य और बहुत सुंदर कथा है, और दर्शाती है कि स्त्रियां भी योग में पुरुषों से कम नहीं बल्कि बढ़कर होती थीं। यह कथा गृहस्थ धर्म की प्रमुखता को भी रेखांकित करती है।
सीमित शांति काल में तंत्रयोग ही जागृति दिला सकता है, पर वह सामाजिक रूप से वर्जित है। बेशक उसमें वाममार्गियों द्वारा कुंडलिनी योग साधना के लिए मैथुन, मांस और मदिरा का प्रयोग होता है। पर वे समाज से दूर छिपे रहते हैं। ये साधन वेदबाह्य हैं। इसीलिए वामतंत्र के अंतर्गत आते हैं। इसका मतलब है कि गृहस्थ तो संन्यास से भी बेहतर है। क्योंकि वहां चोरी छिप के वाममार्गी साधना भी की जा सकती है। गृहस्थ के लिए तो यह वैसे भी संन्यासी से ज्यादा जरूरी है। क्योंकि उन्हें कालसंयोग से यदाकदा ही बहुत सीमित समय के लिए शांति काल मयस्सर होता है।
प्राचीन काल में एक सज्जन सरकारी नौकरी करते थे। उन्होंने बहुत संघर्षपूर्ण जीवन जिया। क्योंकि काम का बहुत ज्यादा दबाव रहता था। पर उन्होंने अपने मन में और अपने दैनिक जीवन में अध्यात्म की लौ नहीं बुझने दी। कालवश उनका स्थानांतरण सीमित समय के लिए एक निर्जन और सुनसान हिमालयी प्रदेश में हो गया। इससे उनको महान सापेक्ष शांति तो महसूस होनी ही थी। वहां किसी योगी के संपर्क में आने से उन्होंने घोर साधना करके जागृति प्राप्त की। और आम सज्जन से माहायोगी बन गए। फिर तो जल्दी ही उनका स्थानांतरण पुनः तनावभरे क्षेत्र में हो गया। हालांकि उन्होंने जैसे तैसे करके और थोड़ी बहुत करके अपनी साधना जारी रखी। इससे कालांतर में उनके अनेक शिष्य भी बन गए। वे सभी गृहस्थ योग का डंका बजाने लगे। बोलने का मतलब है कि ऐसा बहुतों के साथ होता है। मौके बार बार कम ही मिलते हैं। पर कम से कम एक मौका तो सभी को अपने जीवन में प्राप्त होता ही है।
कुछ वैज्ञानिक भी कहते हैं ककि दुनियादारी और त्याग के बीच जितना ज्यादा अंतर होता है, उतनी ही ज्यादा अचानक जागृति मिलने की संभावना होती है। मेरे ख्याल से अगर तो जागृति के लिए साधारण प्रयास भी किया जाए, तब भी वह संभावना कई गुना बढ़ जाती है। अगर तो उसमें तांत्रिक शक्ति भी जुड़ी हो, तब तो कहना ही क्या? अगर संसार छोड़कर ही ज्ञान मिला करता, तब तो स्मृतिविहीन या नशेड़ी लोग परम ज्ञानी होते। इनको संसार का कुछ याद नहीं रहता, मतलब इनका संसार पूरा छूटा होता है। पर ज्ञान के लिए और भी बहुत से कारक उत्तरदायी हैं।
इसका मतलब है कि छोड़ने से कुछ नहीं छूटता। असली छोड़ना तो निर्लिप्त होना ही है। मतलब संसार में रहकर भी उससे निर्लिप्त या अनासक्त रहना ही उसे छोड़ना है। इससे दोनों किस्म के सुख एक साथ मिलते हैं। प्रेम आदि गृहस्थ के सुख भी और त्याग आदि संन्यास के सुख भी। गृहस्थ में रहकर हम सुख सुविधाओं का प्रयोग ज्ञानप्राप्ति के लिए भी कर सकते हैं। संन्यास में तो यह भी संभव नहीं है। बेशक सुख सुविधाएं माया मोह में डालने के करण बुरी हैं। पर यह माया मोह से बाहर निकालने में भी तो उपयोगी हो सकती हैं। जिस छुरे से डकैत आतंक मचा सकता है, सब्जी भी तो उसी से काटी जा सकती है। हम यहां किसी पद्धति की किसी से तुलना नहीं कर रहे हैं। न ही हम किसी को अच्छा या बुरा कह रहे हैं। हम केवल वह बता रहे हैं, जहां तक हमारी नजर जाती है। बेशक इसमें दो राय नहीं कि इसके आगे भी बहुत कुछ है।