कुंडलिनी: प्राण जागरण की देहरी

“हे महादेव, जो रूप और काल से परे हैं,
मैं गंगा बनकर आपकी जटाओं में विलीन हो जाऊँ,
मैं धूनी बनकर आपकी योग-अग्नि में जलूँ,
मैं कुण्डलिनी बनकर आपके तांडव में उठूँ।
अब न जीवन मेरा, न मृत्यु का भय,
बस आप ही हैं—अनंत शून्य, गूँजता मौन,
परम आनंद, जहाँ मैं भी शिव हो जाऊँ!”

शिवरात्रि की अनंत शुभकामनाएँ!

पहले मुझे लगता था कि कुंडलिनी कोई रहस्यमयी शक्ति है, लेकिन अब समझ आया कि यह बस वह क्षण है जब प्राण अपनी सीमा पार कर जागरण के स्तर तक पहुँच जाता है। मेरा अनुभव सालों की धीमी साधना का नहीं था—यह महज एक महीने में हुआ।

मैं गहन तांत्रिक कुंडलिनी योग कर रहा था, जिससे वह प्राण, जो सामान्यतः यौन ऊर्जा में सिमटकर नष्ट हो जाता, ऊपर उठने लगा। इस ऊर्जा को मैंने बुद्धि और ध्यान की छवि को पोषण देने में लगाया। फिर एक दिन, जैसे ही सीमा पार हुई, प्राण तीव्र वेग से मस्तिष्क में प्रवाहित हुआ, और जागरण की झलक सामने आई।

लंबे समय तक प्राण संचय से जागरण क्यों नहीं होता?

बहुत से लोग सालों तक प्राण संचित करते हैं, फिर भी जागरण नहीं होता। क्यों? क्योंकि यह ऊर्जा धीरे-धीरे विचारों, इच्छाओं और सांसारिक उलझनों में लीक होती रहती है। यदि ऊर्जा बढ़ भी जाए, तो वह अंतरालों में टूटकर पुनः घट जाती है, जिससे यह कभी उस अंतिम सीमा तक नहीं पहुँचती। मेरा तरीका अलग था—मैंने इसे बांधा, व्यर्थ न जाने दिया और सीधे मस्तिष्क तक पहुँचाया।

ढाई कुंडली वाले सर्प और चक्रों का रहस्य

अब समझ आता है कि कुंडलिनी को ढाई कुण्डलियों में लिपटे सर्प की तरह क्यों दर्शाया गया है—

  • कुण्डलीबद्ध सर्प = निष्क्रिय, संचित प्राण। ढाई कुंडली शायद चक्रों के घेरों को कहा है। पहली कुंडली मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्रों की है। यह सबसे बड़ी होती है, मतलब शुरु में इन चक्रों से प्राण शक्ति को छुड़ाने में ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। दूसरी कुंडली मणिपुर और अनाहत चक्र की है। इसे खोलना कुछ आसान होता है। इसके ऊपर के तीनों चक्र आधी कुंडली में दर्शाए गए हैं। मतलब इसके ऊपर कुंडलिनी शक्ति आराम से चढ़ती है।
  • सीधा उठता सर्प = ऊर्जा का ऊपर उठना, चक्रों को जागृत करना।
  • फण फैलाना = जब ऊर्जा शिखर तक पहुँचकर जागरण को जन्म देती है।

कई ग्रंथ बताते हैं कि कुंडलिनी एक-एक चक्र को पार करके उठती है, लेकिन मेरे अनुभव में यह क्रमिक प्रक्रिया नहीं थी—यह सीधे मस्तिष्क में प्रवाहित हुई। मेरी धारणा, ध्यान और समाधि कोई क्रमबद्ध प्रक्रिया से नहीं आई, बल्कि साधना के आरंभ से ही मेरे भीतर थी।

प्राकृतिक स्थितियाँ भी सहायक रहीं

यह केवल मेरा प्रयास नहीं था—कुछ चीज़ें अपने आप सही दिशा में थीं:
✔ मेरा प्राणतंत्र पहले से जागरण के करीब था।
✔ कोई बड़ी सांसारिक उलझनें ऊर्जा को व्यर्थ नहीं कर रही थीं।
✔ साधना ने आखिरी चिंगारी का काम किया।

मुख्य कारण ~ शिव की दिव्य कृपा

अब तक मैं कहाँ पहुँचा और क्या शेष है?

मैं इस अवस्था में अधिक देर तक नहीं रह सका—बस दस सेकंड। मैं अभी तक निर्विकल्प समाधि तक नहीं पहुँचा, और न ही अब किसी जबरदस्ती के जागरण की इच्छा है। लेकिन मैं देख सकता हूँ कि अब भी ध्यान धीरे-धीरे ऊर्जा का संचय कर रहा है, जिसका प्रभाव आनंद और ध्यान की छवि की तीव्रता के रूप में प्रकट होता है।

अब मैं अपनी साधना को संतुलित रूप से अपनाता हूँ:

  • काम के दबाव के दौरान: शरीरविज्ञान-दर्शन (Sharirvigyan Darshan)।
  • खाली समय में: क्रिया योग।
  • जब दुनिया से पूरी तरह अलग और शरीर स्वस्थ हो: तंत्र।

अंतिम समझ: कुंडलिनी कोई रहस्य नहीं, बस एक सीमा रेखा है

कुंडलिनी कोई बाहरी शक्ति नहीं, यह बस वह अवस्था है जब प्राण अपनी चरम सीमा तक पहुँच जाता है। मेरा अनुभव यही बताता है कि धीमी संचय प्रक्रिया ऊर्जा को लीक कर देती है, लेकिन तीव्र, केंद्रित साधना इसे तब तक बाँधकर रखती है, जब तक कि जागरण की बाढ़ न आ जाए।

क्या मैं दोबारा जागरण के स्तर तक जाने की कोशिश करूँगा? शायद नहीं। जिज्ञासा बनी रहेगी, लेकिन अब मैं इसके स्वभाव को समझकर ही संतुष्ट हूँ।