कुंडलिनी शक्ति को ऊपर उठाने में सांस के खेंचे और आज्ञा चक्र पर दृष्टि का योगदान

मैं कुछ महान योगियों के अनुभवओं से भरे उनके मूल वाक्य पढ़ रहा था। वे दरअसल उन्होंने डायरियों में गुप्त रखे होते थे। मरणोपरांत ही वे डायरियां उनके परिजनों के हाथ लगती थीं। महान योगियों के नाम न ही बताना ठीक रहता है। क्योंकि नहीं तो मानहीनता का आरोप लग सकता है। वे अनगिनत लोगों के पूज्य होते हैं। उन लोगों की भावनाओं को ठेस भी पहुंच सकती है। महान लोगों के कट्टर समर्थक उनकी कही बातों की समीक्षा आदि से रुष्ट हो सकते हैं। इसी तरह अपनी संस्कृति, धर्म, स्वभाव आदि के बारे में कोई भी कड़वी बात नहीं सुनना चाहता, बेशक वह सच्चाई ही क्यों न हो? लेखक को बड़े संभलकर चलने की जरूरत होती है। विवादास्पद मुद्दे इशारों में ही कहने चाहिए। इससे सांप भी मर जाता है और लाठी भी नहीं टूटती।

मुझे जो मुख्य बातें पता चली वे निम्नलिखित थीं।
प्राण रुक सा गया, स्वसा भीतर ही भीतर चली, श्वास उल्टी चलने लगी, और मस्तिष्क में भारीपन रहा, सांस रुक सा गया, सुषुम्ना के अंदर प्राण चला। इन्हें योग के कीवर्ड भी कह सकते हैं। इससे जितनी मर्जी योग क्रियाएं बना लो। पर उनका कम ही फायदा है। क्योंकि प्राणायाम मूलतः एक ही है, जो काम करता है। यही वह उल्टा सांस चलना या भीतर ही भीतर सांस चलना है। मेरे ख्याल से इसे ही भीतर ही भीतर सांस का चलना या सांस का रुकना कहा गया है। असल में तो जीवित प्राणी का सांस रुक ही नहीं सकता। हो सकता है कि उल्टी सांस के अभ्यास से ऐसी स्थिति आयए कि सांस इतनी धीमी और हल्की हो जाए कि उसका पता ही न चले। पर ऐसा उल्टी सांस से ही हो सकता है, सीधी सांस से नहीं। उल्टी सांस से ही मन रुकता है। क्योंकि मन सीधी सांस को ही सांस मानता है। उल्टी सांस उसके लिए सांस ही नहीं है। यह एक चेन रिएक्शन की तरह आगे से आगे बढ़ता है। जब मन रुकेगा तो सांस और ज्यादा धीमी पड़ जाएगी। बेशक उल्टी चलती रहेगी। मन के रुकते रुकते एक ऐसी एवस्था आएगी कि सांस लगभग अननोटिस या अपरिलक्षित ही हो जायेगी। ऐसी स्थिति को ही आत्मा या ब्रह्म का साक्षात्कार कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए। सांस लेना ही प्राणायाम नहीं है, पर इसे सही ढंग से लेना ही प्राणायाम है। सांस भरते समय पीठ से शक्ति ऊपर चढ़ते हुऎ महसूस होनी चाहिए, और छोड़ते समय नीचे जाते हुए। ऐसा खुद ही होता है, क्योंकि पहले पेट से सांस भरते समय पेट आगे जाने से शक्ति मूलाधार से चढ़कर मणिपुर चक्र के गड्ढे तक पहुंचती है। तब वहां से ऊपर छाती को ऊपर खींचते हुए चढ़ती है। जैसे ही पीठ और छाती ऊपर को खिंचती है, वैसे ही उससे मेरुदंड की शक्ति भी खुद ही ऊपर खिंच जाति है। दोनों भौहों के बीच ऊपर की ओर को तनिक दृष्टि डालने से उसको और ज्यादा ऊपर को धक्का लगता है। और शक्ति सुषुम्ना रेखा में सीधी एलाइन हो जाती है, आज्ञा चक्र से मूलाधर चक्र तक। कभी सहस्रार से होकर आज्ञा चक्र तक आती है, तो कभी सहस्रार को बायपास करके सीधी आज्ञा चक्र में।

सांस का खेंचा लगा, सांस सिर में चढ़ गया, आंख ऊपर चढ़ गई (मतलब लगातार आज्ञा चक्र पर दृष्टि बनी रही), जीभ ऊपर चढ़ गई (मतलब जीभ उल्टी होकर पीछे तालु में लग गई) आदि पुराने योगी लोगों के बोल दिखाते हैं कि प्राणायाम खींचतान की ही विद्या है, आराम की नहीं। बेशक जब सिर बहुत भारी हो जाए या सिर दर्द होने लगे तब ऐसा खिंचा ना लगाओ। जब सिर हल्का हो जाए तो खींचतान फिर शुरू कर दो। मैने खुद महसूस किया कि दिमाग के इस भारीपन के बाद बड़ी रचनात्मक, भावनात्मक, व्यावहारिक और दिव्य शक्ति सी आ जाती है। सारे मानवीय और देवी गुण खुद ही आ जाते हैं। अनासक्ति और अद्वैत का भाव खुद ही पैदा हो जाता है। ऐसा लगता है कि प्रकृति सेवक की तरह हर तरफ मदद कर रही है। योगी भी ऐसा ही कहते हैं। पर मैं जिस बात को स्पष्ट कहता हूं, और योगी लोग जिसे कहने से कतराते आए हैं, वह यही है कि यह संभोग शक्ति ही है, अन्य कुछ नहीं। यही संभोग शक्ति सही ढंग से किए गए प्राणायाम से ही ऊपर चढ़ती है। अगर सही ढंग से संभोग किया जाए तो कृत्रिम प्राणायाम तो उसके आगे बौना है। बेशक दोनों के मेल से ही पूर्ण और स्थायी लाभ मिल सकता है। पूर्ण लाभ तो खाली प्राणायाम से भी मिल सकता है। पर उसमें ज्यादा समय लग सकता है, अभ्यास को पकने में। सीधी सांस की आदत हमें जन्म जन्मांतरों से है। इसीलिए उल्टी सांस की आदत बनाना इतना आसान भी नहीं है। उल्टी सांस मतलब हवा के आने जाने पर ध्यान नहीं है, पर पीठ में शक्ति के चढ़ने उतरने पर ध्यान है। शक्ति का उतरना खुद ही माना जाएगा न, जब सांस छोड़ते हुए पीठ खुद नीचे को उतरेगी और शिथिल सी हो जाएगी। इसे उल्टी सांस इसलिए कहते हैं क्योंकि इसमें जिस समय शरीर में शक्ति ऊपर चढ़ रही होती है, उस समय सांस या हवा शरीर में नीचे जा रही होती है। और जिस समय शरीर में शक्ति नीचे उतर रही होती है, उस समय शरीर में हवा बाहर निकलने के लिए ऊपर चढ़ रही होती है।

पेट और छाती दोनों से सांस लेने पर ही शक्ति को ज्यादा खेंचा लगता है। बेशक बहुत धीरे ली जा रही हो। अच्छे एक प्राणायाम को 1 मिनट तक भी लग सकता है। जैसे कि पहले पेट भरने पर थोड़ा रु lक जाएं। फिर दूसरे स्तर का खिंचा छाती को ऊपर उठाकर लगाएं। फिर तनिक रुक जाएं और तीसरे स्तर का खिंचा खुद ही आज्ञा चक्र को ऊपर की ओर देखकर लगता है। एक ऊपर की तरफ को घर घर के जैसी आवाज के स्पर्श की और उससे बढ़ रहे मस्तिष्क के भारीपन की सी अनुभूति होती है। इस भारीपन के बाद नए पुराने विचार आत्मा में ऐसे उमड़ते हैं जैसे कि हवा में हवा के बुलबुले। बड़ा आनंद आता है। इसे योगियों
ने ऐसे लिखा है, बड़ा मजा आया, मजा भयो आदि।

कुएं से पानी खींचने के लिए रहट होता है। इसमें एक रस्सी से बाल्टी बंधी होती है। वह रस्सी एक घिरनी पर टिकी होती है। रस्सी का दूसरा सिरा आदमी के हाथ में होता है। जब आदमी रस्सी को खींचता है तो रस्सी का बाल्टी वाला सिरा ऊपर चढ़ता है और कुएं से पानी से भरी बाल्टी को भी ऊपर चढ़ा देता है। जब आदमी रस्सी को ढीला छोड़ता है, तो बाल्टी वाला रस्सी का सिरा कुएं में नीचे घुसकर खाली बाल्टी को भी कुएं के अंदर ले जाता है। सांस भी इसी रस्सी की तरह और कुंडलिनी शक्ति बाल्टी की तरह काम करती है। जब सांस को अंदर भरा जाता है मतलब सांस की डोर को लंबा खींचा जाता है, तब उसके बल से कुंडलिनी शक्ति पीठ रूपी कुएं में ऊपर चढ़ जाती है और शक्ति रूपी जल को मस्तिष्क में उड़ेल देती है। जब सांस को बाहर निकाला जाता है मतलब सांस की डोर को ढीला छोड़कर छोटा किया जाता है, तब खाली कुंडलिनी शक्ति पीठ में नीचे उतरती है। यह फिर मूलाधार चक्र में अपने अंदर शक्ति रूपी जल भर लेती है, और अगली सांस में पुनः ऊपर चढ़ जाती है। इस तरह यह सांसों का स्वचालित पंप ताउम्र चलता रहता है। इसीलिए अक्सर सांस को डोरी की, मूलाधार को कुएं या गड्ढे की और शक्ति को जल की उपमा दी जाती रहती है।

यही संभोग शक्ति प्रजनन के लिए शरीर के नीचे के भागों में सीमित होकर सिकुड़ी हुई रहती है। कहते हैं कि कुंडलिनी शक्ति शिवलिंग के चारों ओर 3 लपेटे में लिपटी होती है। इसीलिए शिवलिंग से लिपटा हुआ सांप दिखाया होता है। ये सब बातें आपस में जुड़ी हुई हैं। पर असली शिवलिंग में जब यह शक्तिरूप नागिन शिवलिंग के ऊपर फन बनाने को ऊपर उठती है तो नीचे सिर्फ एक ही लपेटा रह जाता है। मतलब मूलाधार में इतनी ज्यादा कुंडलिनी शक्ति है कि उसे खत्म नहीं किया जा सकता है। अगर सारे लपेटे खुल जाएं तो इसका मतलब है कि शक्ति समाप्त होने वाली है। पर एक लपेटे का हमेशा रहना दर्शाता है कि मूलाधार की कुंडलिनी शक्ति असीमित है। मतलब यह लगातार सीधी होकर ऊपर चढ़ती रह सकती है। पर फिर भी बहुत सा भाग इसका मूलाधार में सिकुड़ा हुआ रहेगा ही। इतना सब केवल प्रतीकात्मक तो नहीं हो सकता। अगर ऐसा होता तो वाममार्गी तंत्र का अस्तित्व ही नहीं होता। पर मूल तंत्र तो वही है। बाकि सारे तंत्र तो इसके आधार पर बने हैं। पर लगता है कि ये सभी अपने ही मूल को ठुकराने में लगे हैं।