कुंडलिनीयोग से गंगा की तरह बहती हुई शक्ति शिवलिंगरूपी चक्रों को सिंचित करती है

अत्रि-अनसूया की प्रसिद्ध पौराणिक कथा

शिवपुराण में अनसूया की कथा आती है। अनसूया मतलब किसी की असूया या निंदा न करने वाली। एक बार महान अकाल पड़ा। हर जगह पानी की कमी हो गई। लोग व प्राणी प्यास से व्याकुल होकर मरने लगे। साधुओं से संसार का दुख देखा नहीं जाता। इसलिए अत्रि मुनि पानी के लिए तप करने लगे। उनके शिष्य भी उनको छोड़कर चले गए। केवल अनसूया अपने पति की सेवा करती रही और प्रतिदिन शिवलिंग का पूजन करती रही। एक दिन अत्रि ने पानी मांगा। अनसूया कमंडल लेकर पानी ढूंढने चल पड़ी। रास्ते में उसे गंगा मिली। गंगा अनसूया के पातिव्रत्य से प्रसन्न हो गई। अनसूया ने गंगा से पानी मांगा। गंगा ने उसे एक गड्ढा करने को कहा। वह गड्ढा पानी से भर गया। अनसूया पानी लेकर चली गई। उसने अत्रि को पानी पिलाया। अत्रि ने कहा कि वह रोज के पिए जाने वाले पानी के जैसा नहीं था। अनसूया ने सारी बात बता दी। वह अत्रि को उस गड्ढे के पास ले गई। दोनों ने उसमें आचमन व स्नान किया। उससे सारे लोक तृप्त हो गए। गंगा जाने लगी तो अनसूया ने उससे हमेशा वहीं रहने के लिए प्रार्थना की। गंगा ने बदले में उससे उसका एक साल का पतिव्रत धर्म का और शिव पूजा का फल मांगा। गंगा ने कहा कि उसे पतिव्रता धर्म सबसे ज्यादा पसंद है। अनसूया ने वह दे दिया तो गंगा वहीं पर बस गई। साथ में शिव भी अत्रीश्वर लिंग के रूप में हमेशा के लिए वहीं विराजमान हो गए।

मिथक कथा का स्पष्टीकरण

अत्रि जीवात्मा है। अत्रि का शाब्दिक अर्थ है, तीनों गुणों से रहित। ऐसा आत्मा ही है। अनसूया बुद्धि है। बुद्धि किसी की निंदा नहीं करती, क्योंकि वह सबसे अपना काम बनवाना चाहती है। निकम्मा मन ही निंदा करता है। बुद्धि अपने पति जीव की पतिव्रता पत्नि की तरह ही है। वह जीव की हर प्रकार से सेवा करती है, साथ में परमेश्वर शिव की पूजा करती रहती है। निकम्मा मन ही कुछ नहीं करता। दरअसल बुद्धि से काम होता है, और कर्म को ही पूजा कहा गया है। शिवलिंग की पूजा इसलिए कहा है क्योंकि संसार पुरुष मतलब शिव और प्रकृति मतलब शक्ति के संयोग से ही बना है। शरीर ही वह सूखाग्रस्त देश है। शरीर की सभी कोशिकाएं ही उसके लोगबाग और प्राणी हैं। वे प्यासे मतलब शक्तिरूपी जल से वंचित रहने लगे। शक्ति जल की तरह ही बहती है। बुद्धि ऋषि अत्रि रूपी आत्मा को गुजारे लायक शक्ति या जीवनयापन के लिए साधारण पानी दिलवाती थी। पर उससे पूरे शरीरदेश का गुजारा नहीं होता था। इसलिए अतिरिक्त शक्ति के लिए ऋषि तप अर्थात कुंडलिनी योगसाधना करते हैं। एकदिन ऋषिजीव के शक्तिजल मांगने पर अनसूयाबुद्धि पूरे देहदेश में भटकने लगी उसकी खोज में। उसे शिवलिंग की कृपा से मूलाधार के आसपास यौनाधारित कुंडलिनी शक्ति मतलब गंगा महसूस हुई। उसने शरीर के प्राणों को मतलब दहदेश के कर्मचारियों को वहां गड्ढा बनाने के लिए मतलब सिद्धासन में मूलाधार को एड़ी से दबाने के लिए प्रेरित किया या योगासनों, मालिशों आदि से पिछले मणिपुर चक्र में संवेदनात्मक गड्ढा बनवाया। मुझे तो लगता है कि पीठ वाले मूलाधार या हिप बोन से ऊपर की ओर लगता गहरा गड्ढा ही वह गड्ढा है। उसमे मालिश के समय सीधी हथेली के आधार से जोर से दबाकर और धीरे धीरे ऊपर खिसका कर तेज व आनंदमय सनसनी महसूस होती है जो रीढ़ की हड्डी में ऊपर की ओर चढ़ती लगती है। यह असली मूलाधार या मूलाधार से सीधा जुड़ा लगता है, क्योंकि मूलाधार को भी गड्ढा ही कहा जाता है अक्सर। मेरुदंड में उंगलियों के बल से मालिश नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इससे नाजुक हड्डी में चोट जैसी हानि का डर बना रह सकता है। वहां दिव्य जल भर गया मतलब वहां शक्ति संवेदना महसूस हुई। उसने वह जल ऋषि को पिलाया मतलब जीवात्मा ने उस संवेदना को महसूस किया। जीवात्मा को वह और दिन से अलग और दिव्य लगा क्योंकि उसमें यौनानंद भी मिश्रित था। दोनों ने उसमें स्नान आचमन किया मतलब वह मूलाधार से चढ़कर मस्तिष्क तक चढ़ गई जिससे पूरे शरीर के साथ दोनों तरोताजा हो गए। बुद्धि और जीवात्मा दोनों मस्तिष्क में रहते हैं और आपस में जुड़े होते हैं इसलिए सबकुछ साथ साथ महसूस करते हैं। इसको दूसरे तरीके से भी ले सकते हैं कि एक तांत्रिक जोड़ा यबयुम आसन में एकसाथ शक्ति का उपभोग कर रहा है। सारे जीवजंतु जल पीकर तृप्त हो गए मतलब शरीर के सारे सेल्स शक्ति से रिफ्रेश और रिचार्ज हो गए। गंगा को अनसूया का पतिव्रता धर्म पसंद आया। जरूर उसने उसकी परीक्षा ली होगी, तभी पता चला। आजकल तो पतिव्रता धर्म के परीक्षक बहुत हैं। दफ्तर या कामधंधे पे जाने वाली महिलाओं को विभिन्न पुरूषों के द्वारा उन्हें प्रेमभरी अश्लीलता से झांकना व उनसे बतियाना, उनसे हरकत करने की फिराक में रहना आदि उनकी परीक्षा ही है। घर के अंदर बैठकर परीक्षा थोड़े न होगी। मतलब साफ़ है कि रहो सबके साथ पर सेवा अपने पति की ही करो। गंगा ने स्थायी तौर पर वहां बसने के बदले में अनसूया से एकसाल का सदकर्मफल मांगा मतलब एक साल की तांत्रिक योगसाधना और शिवलिंग पूजा से सुषुम्ना स्थायी तौर पर जागृत हो सकती है। वहां अत्रीश्वर लिंग की भी स्थायी स्थापना हो गई। मुझे तो यह जागृत मूलाधार चक्र ही लगता है। चक्र लिंगरूप ही हैं, क्योंकि वहां लिंग जैसी ही संवेदना अनुभूत होती है। द्वादश ज्योतिर्लिंग बारह चक्र ही हैं। ज्योति वहां ध्यानचित्र के चमकने से पैदा होती है। वह ध्यानचित्र शिव, गुरु, प्रेमी आदि किसी का भी रूप हो सकता है। शिवपुराण के अनुसार बहुत से लिंग और उपलिंग हैं, पर ये बारह ज्योतिर्लिंग मुख्य हैं। अन्य लिंगों को लिंग ही कहा है, ज्योतिर्लिंग नहीं, क्योंकि कुंडलिनीचित्र की चमक चक्रों पर ही महसूस होती है। वैसे तो शरीर की हरेक कोशिका को लिंग कह सकते हैं, क्योंकि सबके ऊपर शक्तिरूपी जल गिरने से ही वे क्रियाशील हैं। जहां तक गंगारूपी कुंडलिनी शक्ति पहुंचती है स्नान कराने को, वहां तक लिंग ही लिंग हैं। वैसे भी रीढ़ की हड्डी में सेरेब्रोस्पाइनल फ्लूड बहता है, जो पानी की तरह ही है। कई वैज्ञानिक दावा करते हैं कि उसी फ्लूड के प्रवाह के रूप में शक्ति का प्रवाह होता है। हालंकि सुषुम्ना जागरण के समय वह चमकीली संवेदना रेखा के रूप में बहती है। हो सकता है कि दोनों ही तरीकों से प्रवाह हो, खासकर आम व साधारण शक्ति प्रवाह में फ्लूड प्रवाह का योगदान ज्यादा हो। इस कथा से लगता है कि किसी ऋषि ने कुंडलिनी शक्ति की खोज कर के उसको महसूस किया, जिसको उन्होंने सीधा न बताकर मिथक कथा के रूप में बताया।