जो लोग आत्मज्ञान की झलक पा चुके हैं, उनके लिए यात्रा तुरंत मुक्ति तक नहीं पहुंचती। बल्कि, यह एक गहरा सवाल उठाती है: क्या इस गहरे अनुभव को रोजमर्रा की जिंदगी में शामिल किया जा सकता है? मेरे अपने अनुभवों ने मुझे अलग-अलग स्तरों से गुज़ारा है—किशोरावस्था से लेकर बाद के वर्षों तक—जिसने आत्मज्ञान, संन्यास और सांसारिक जीवन के प्रति एक अनूठा दृष्टिकोण विकसित किया है।
मन से परे झलक
मेरा पहला महत्वपूर्ण आत्मज्ञान अनुभव किशोरावस्था में एक स्वप्न अवस्था में हुआ। यह एक शक्तिशाली एहसास था—जिसने मुझे अनंत ब्रह्मांड से जोड़ दिया। लेकिन, इसने एक अधूरेपन की भावना छोड़ दी, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि अनुभव परिवर्तनकारी तो था, लेकिन पूर्ण मुक्ति नहीं। वर्षों बाद, कुंडलिनी योग और तांत्रिक साधना के माध्यम से एक और सशक्त जागरण हुआ, जिससे मैं पूरी तरह आत्मविलय की स्थिति में चला गया। इस बार, अधूरेपन की भावना कम थी, लेकिन मैंने स्वयं ही ऊर्जा को वापस नीचे लाने का फैसला किया, क्योंकि मुझे लगा कि यह मुझे संन्यास की ओर ले जा सकता है।
इस ऊर्जा को नियंत्रित करने के निर्णय ने मुझे यह खोजने पर मजबूर किया कि आध्यात्मिक जागरण और सांसारिक जिम्मेदारियों के बीच संतुलन कैसे स्थापित किया जाए। कई लोग इस अनुभव के बाद पूर्ण संन्यास को अपना लेते हैं, लेकिन मैं जाग्रत अवस्था में रहते हुए संसार में बने रहने के लिए प्रेरित था।
क्या आत्मज्ञान से मृत्यु के बाद मुक्ति निश्चित है?
एक बड़ा प्रश्न यह उठता है कि क्या जीवन में एक बार आत्मज्ञान की झलक पाने के बाद मृत्यु के बाद मोक्ष निश्चित हो जाता है? विभिन्न परंपराएं इस पर अलग-अलग विचार रखती हैं। कुछ मानते हैं कि आत्मज्ञान का एक भी अनुभव आत्मा पर अमिट छाप छोड़ता है, जिससे मृत्यु के बाद भी मुक्ति की ओर मार्गदर्शन होता है। अन्य मानते हैं कि पूर्ण मुक्ति के लिए इस जागरण की स्थिति को स्थिर बनाए रखना आवश्यक है। मेरे विचार में एक गहरी आत्मज्ञान की झलक मृत्यु के बाद भी सही दिशा देती है, भले ही यह तुरंत मोक्ष न दे।
संन्यास या समावेश?
गहन समाधि जैसे सविकल्प समाधि का अनुभव होने के बाद यह सवाल उठता है कि क्या संन्यास लेना आवश्यक है? क्या कोई संसार में रहते हुए भी इस जागृति को बनाए रख सकता है? प्रारंभ में, मैंने जागरूकता को स्थिर रखते हुए जिम्मेदारियों को निभाने का निर्णय लिया। समय के साथ, मैंने महसूस किया कि मेरी ऊर्जा आज्ञा चक्र पर स्थिर हो गई है, जिससे प्रत्याहार की स्थिति पैदा हो गई—जहां बाहरी संसार के प्रति रुचि कम होती जाती है, लेकिन फिर भी कार्यशील रहा जा सकता है।
हालांकि, इससे निचले चक्रों में सक्रियता कम हो गई, जिससे सांसारिक मामलों में रुचि घटने लगी। इसे संतुलित करने के लिए, मैंने पंचमकार साधना का न्यूनतम प्रयोग किया, इसे भोग नहीं बल्कि आत्म-संतुलन का साधन माना। इस रणनीतिक दृष्टिकोण ने मुझे जाग्रत स्थिति को बनाए रखते हुए सांसारिक जीवन में कार्यरत रहने की क्षमता दी।
क्रिया योग: एक व्यवस्थित दृष्टिकोण
जहां मेरी प्रारंभिक साधना अनौपचारिक और तीव्र थी, वहीं बाद में मैंने क्रिया योग को अपनाया, जो एक अधिक संरचित प्रणाली है। मेरे पहले के प्रयास केवल ऊर्जा को ऊपर उठाने पर केंद्रित थे, जबकि क्रिया योग धारणा, ध्यान और समाधि के माध्यम से एक क्रमबद्ध मार्ग प्रस्तुत करता है। हालांकि, मुझे लगा कि मेरे अनुभव पहले से ही इन अवस्थाओं को उत्पन्न कर चुके थे, लेकिन सहज रूप में, न कि निर्धारित चरणों में। अब, क्रिया योग मेरे लिए एक नया रहस्योद्घाटन नहीं बल्कि एक परिष्करण उपकरण है।
हालांकि, एक व्यावहारिक चुनौती भी सामने आई—भोजन के बाद गहरी श्वास क्रियाएं करने से गैस्ट्रिक एसिड और स्लीप एपनिया की समस्या बढ़ने की आशंका लगी। इसे हल करने के लिए मैंने भोजन के 4-5 घंटे बाद अभ्यास करने का निर्णय लिया, जिससे यह आशंका समाप्त हो गई। यह साबित करता है कि आध्यात्मिक साधनाओं को शरीर की आवश्यकताओं के अनुसार समायोजित करना आवश्यक है।
मुख्य निष्कर्ष
आत्मज्ञान की झलक मृत्यु के बाद भी मार्गदर्शन करती है, लेकिन पूर्ण मोक्ष के लिए इसे स्थिर करना आवश्यक हो सकता है।
संसार में रहते हुए अद्वैत को अपनाया जा सकता है, लेकिन इसके लिए सचेत रहकर संतुलन साधना आवश्यक है। शरीरविज्ञान दर्शन इसमें आश्चर्यजनक रूप में सहायक है, जिसे मैंने अपने लिए बनाया था पर अब यह सबके लिए हर जगह उपलब्ध है।
क्रिया योग एक व्यवस्थित पद्धति है, लेकिन जो पहले से जाग्रत है, उसके लिए यह केवल refinement का कार्य करता है।
ऊर्जा के उच्च चक्रों में स्थिर होने से प्रत्याहार स्वाभाविक रूप से होता है, लेकिन संतुलन के लिए जड़ता को बनाए रखना आवश्यक है।
शारीरिक स्थितियां, जैसे GERD, आध्यात्मिक अभ्यासों को प्रभावित कर सकती हैं, इसलिए उन्हें सावधानीपूर्वक समायोजित करना आवश्यक है।
आगे की राह
अब मेरा ध्यान एक और बड़े अनुभव की तलाश करने पर नहीं बल्कि आत्मज्ञान की स्पष्टता बनाए रखने पर केंद्रित है। न तो पूरी तरह समाधि में लीन होना चाहता हूँ, न ही सांसारिक जीवन में खो जाना चाहता हूँ। मैं संतुलन बनाए रखते हुए अपनी साधना को निरंतर विकसित करने के लिए उत्सुक हूँ।
उन सभी के लिए जो इसी मार्ग पर चल रहे हैं, महत्वपूर्ण यह है कि अपनी ऊर्जा की प्रवृत्तियों को समझें और अपने अभ्यास को इस तरह ढालें कि यह आंतरिक जागृति और बाहरी जीवन दोनों को संतुलित रख सके। सच्ची मुक्ति पलायन में नहीं, बल्कि इस सत्य को अनुभव करने में है कि चाहे संसार में हों या समाधि में, जाग्रत अवस्था अटल बनी रहे।